रविवार, 27 जून 2021

कण्व की व्याख्या-

कण्व

काशकृत्स्नधातुपाठे (१.२०६) कण, क्वणादि धातवः शब्दे भवन्ति। अस्याः चन्नवीरकृतटीकायां कणः – लघुद्रव्यम्, कणिमा गिरिपर्व(घाटी), कणुः – चक्षुः इत्याद्यर्थेषु भवति। क्वण धातु प्रतिध्वनि अर्थे अस्ति। उणादिसूत्राणि १.१५१ (१.१४९) अनुसारेण अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन् । अशू- व्याप्तौ, प्रुष – प्रोक्षणे, .....। अत्र क्वन् प्रत्ययः महत्वपूर्णमस्ति। किं अयं क्वन्, क्वण आधुनिकविज्ञानस्य क्वाण्टा(quantum) अस्ति, अयं विचारणीयः। आधुनिकविज्ञानुसारेण क्वाण्टा कणः अपि अस्ति, तरंगः अपि। तस्य स्वरूपस्य निर्धारणं शक्यं नास्ति। उणादिसूत्रे क्वनशब्दस्य ये विशेषणाः अशू, प्रुषादि सन्ति, किं ते सर्वाणि क्वणशब्दस्य गुणाः सन्ति, अयं अन्वेषणीयः।

 पौराणिक एवं लौकिकसाहित्ये कण्वाश्रमे शकुन्तला – दुष्यन्त मेलनम् एवं भरतस्य जन्मकथा प्रसिद्धा अस्ति।                        पुराणेषु अस्याः कथायाः रूपान्तराः अपि सन्ति – यथा – कथासरित्सागरे १२.३४.३६ एका अतिरूपसम्पन्ना मन्दारवती युवती अस्ति यस्याः निवासं हंसद्वीपे अस्ति। 

तस्याः मेलनम् सर्वेषां विघ्नानां मध्ये राजसुतेन सुन्दरसेनेन सह भवति।                                एते कथानकाः पुराणेषु गंगासागरविषयकाः ये कथानकाः सन्ति, तेभ्यः तुलनीयाः सन्ति। गङ्गासागरकथानकेषु हंसद्वीपे या युवती निवसति, तस्याः विवाहे विघ्नाः उपद्रवन्ति।                    तदा विघ्नानि पारयितुं सा कन्या पुरुषवेशं धारयति इत्यादि।                                        अत्र संकेतमस्ति यत् विशिष्टतमा स्थितिः सा भवति यत्र पुरुष – प्रकृतिमध्ये श्रेष्ठतायाः भेदः समाप्तः भवति। प्रकृतिरेव पुरुषं भवितुं शक्यते।

स्कन्दपुराणे २.७.१९.७३  कण्वऋषिणा गुरुघातीभवनस्य शापप्राप्तेः कथनमस्ति। तदनन्तरं कण्वः सूर्यतः शिक्षां गृह्णाति।     गुरुघातस्य कथनं याज्ञवल्क्य  - गुरु वैशम्पायन कथायाः संदर्भे अपि कथितमस्ति।          याज्ञवल्क्य एवं कण्वमध्ये कः अन्तरं अस्ति, अयं अन्वेषणीयः।

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टिप्पणी : कण्व का शब्दार्थ कण वाला कर सकते हैं । कण क्या होता है, इस सन्दर्भ में अथर्ववेद ११.३.५ में धान्य को उलूखल में कूट कर साफ  करने के संदर्भ में कहा गया है कि धान्य को कूटने से प्राप्त कण ( टूटे हुए चावल ) अश्व का रूप हैं, जो तण्डुल ( पूरे चावल ) हैं, वह गायों का रूप हैं तथा भूसी मशक ( मच्छरों, प्राणों ? ) का रूप हैं 

 इस कथन को समझने के लिए हमें विपश्यना आदि ध्यान साधनाओं की विधि को समझना होगा ।

 ध्यान में साधकों को निर्देश दिया जाता है कि यदि शरीर में कहीं कोई पीडा का अनुभव हो रहा हो, कहीं खुजली हो रही हो, कहीं भूख लग रही हो, तो उसे ध्यान का शुभारम्भ समझना चाहिए । यह अपेक्षित है कि जो घटना स्थानिक रूप में हो रही है, वह सारे शरीर में फैल जाए । यही कण का अश्व बनना हो सकता है । साधना में अन्य कोई घटना भी घटित हो सकती है - कोई प्रकाश कहीं दिखाई पड सकता है, किसी शीतल द्रव का क्षरण हो सकता है आदि । पुराणों में कण की घटना को शकुन्तला की कथा के माध्यम से शकुन द्वारा समझाया गया है । शकुन भी स्थानिक घटना हैं ।                              

तीर्थङ्कर महावीर अपने साधना काल में शकुनों के अनुसार कार्य करते थे । अपेक्षित यह है कि शकुन की घटना सातत्य में बदल जाए ।

 यह सातत्य कण्व - पुत्र मेधातिथि हो सकता है । मेधातिथि अर्थात् जिसकी मेधा अतिथि है । चन्द्रमा तिथियों के अनुसार बदलता है । लेकिन अतिथि रूप स्थिर रहता है ।

 अतिथि का दूसरा अर्थ अकस्मात् आने वाला भी लिया जाता है । अतः कण्व - पुत्र मेधातिथि के संदर्भ में कौन सा अर्थ उपयुक्त होगा, यह विचारणीय है ।

 कण्व के उपरोक्त शब्दार्थ की पुष्टि अथर्ववेद ७.१६.१ के सार्वत्रिक मन्त्र से होती है जिसमें कण्व सुमति रूपी गौ का सहस्रधारा के रूप में दोहन करता है । 

ऋग्वेद १.३६ से १.४३ तथा ९.९४ सूक्तों का ऋषि घोर - पुत्र कण्व है । ऋग्वेद के ८वें मण्डल में प्रायः कण्व के पुत्रों - पौत्रों आदि के सूक्त हैं । उणादि कोश १.१५१ के अनुसार कणि धातु में क्वन् प्रत्यय होने से कण्व शब्द का निर्माण होता है, वैसे ही जैसे अशि से अश्व, विशि से विश्व आदि । 

जो कण से व्यवहार करता हो, वह कण्व है । कण धातु शब्दे, गतौ, निमीलने आदि अर्थों में प्रयुक्त होती है । इसके अतिरिक्त कण शब्द की निरुक्ति शब्दकल्पद्रुम में कणति अतिसूक्ष्मत्वं गच्छति द्वारा की गई है ।

कनि धातु व्याप्ति आदि के अर्थ में है जिससे कनक, स्वर्ण शब्द बनता है । कण्व को समझने की एक संभावना कण्व को घोर का पुत्र कहने से खुलती है । घोर में चेतन व अचेतन मन दोनों का समावेश हो सकता है ।

ऋग्वेद के आठवें मण्डल के ऋषियों में बहुतों के नाम अतिथि प्रत्यय वाले हैं, जैसे मेधातिथि, मेध्यातिथि, देवातिथि, ब्रह्मातिथि, नीपातिथि । डा. फतहसिंह मेधातिथि की व्याख्या ऐसे करते हैं कि मेधा अतिथि है जिसकी, अर्थात् उसको अतिथि की भांति कभी - कभी मेधा प्राप्त हो जाती है। 

अतः यह विचारणीय है कि कण्व के पुत्रों के नामों में अतिथि प्रत्यय क्यों है ? अथर्ववेद ११.३.५ सूक्त का प्रसंग धान को कूटकर उसे शूर्प द्वारा साफ करने का है । 

कहा गया है कि जो तण्डुल हैं, वह गौ हैं, जो कण हैं, वह अश्व हैं । एक स्थान पर तण्डुल को मेधा भी कहा गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि कण्व की साधना अश्व की साधना है जो तण्डुल के रूप में, गौ के रूप में चरमोत्कर्ष पर पहुंचती है ।

 ब्रह्मपुराण में दी गई कथा में कहा गया है कि क्षुधा की प्राप्ति होने पर कण्व ने गौतम के आश्रम का आश्रय नहीं लिया जहां अन्न सुलभ था । अपितु उसने गङ्गा का आह्वान किया जो उसके सामने दो रूपों में प्रकट हुई - एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । 

कण्व ने अशुद्ध गङ्गा की स्तुति करके उसे भी शुद्ध किया । यही लक्ष्य अश्वमेध का भी है - सारे जीवन से पापों का नाश ।

पुराणों में कण्व द्वारा शकुन्तला के पालन के संदर्भ में, वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में तो ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता । कण धातु शब्दे अर्थ में भी है और यह पुराणों में कण्व व शकुन्तला की कथा का आधार बन सकता है । लेकिन अभी इसका व्यावहारिक रूप स्पष्ट नहीं है । 

ऋग्वेद ८.६.४३ का कथन है कि कण्वों ने उक्थ के द्वारा उस पूर्व्य धी का वर्धन किया जो मधु व घृत द्वारा पोषण करने वाली है । यहां पूर्व्य धी पुराणों की शकुन्तला हो सकती है । शौनकीय अथर्ववेद ७.१६.१( ७.१५.१), तैत्तिरीय संहिता ४.६.५.४ व ५.४.७.५ में सविता देवता से उस सुमति की कामना की गई है जिसे कण्व ने सहस्रधारा के रूप में दुहा । अथर्ववेद २०.११५.२ में प्रत्न मन्म द्वारा कण्व की भांति गिराओं के शुम्भन का उल्लेख है ।

पुराणों में प्रायः उल्लेख आता है कि जब सूर्य का तेज बहुत प्रचण्ड हो गया तब त्वष्टा ने उसे अपने चक्र पर घुमा कर उसके तेज का कर्तन किया । कर्तित तेज से देवताओं के अस्त्रों आदि का निर्माण हुआ । 

इसके अतिरिक्त, हस्ती का निर्माण भी सूर्य के कर्तित तेज से कहा गया है । 

सोमयाग के पूर्व प्रवर्ग्य इष्टि का अनुष्ठान किया जाता है जिसमें तप्त आज्य में पयः का प्रक्षेप करके अत्यन्त प्रखर ज्वाला का निर्माण किया जाता है । 

इस इष्टि को आरम्भ करने से पूर्व सोम का क्रय किया जाता है और प्रवर्ग्य इष्टि के अनुष्ठान काल में यह सोम अतिथि रूप में प्रतिष्ठित रहता है - इस सोम का यज्ञ कार्य में आहुति रूप में उपयोग नहीं किया जाता ।

कथासरित्सागर में भद्र व शुभ द्वारा वराह व हस्ती का रूप धारण करके कण्व को त्रास देने , कण्व द्वारा शाप तथा अन्त में सूकर के कण्ठ व हस्ती के पृष्ठ का स्पर्श करने से वराह व हस्ती के कृपाण व चर्म में रूपान्तरित होने की कथा के संदर्भ में, ऋग्वेद २.४३.२ में शकुन से प्रार्थना की गई है कि वह सर्व से मेरे लिए भद्र बोले तथा विश्व से पुण्य बोले ( सर्वतो मे भद्रमावद विश्वतो मे पुण्यमावद ) । 

भद्र और शुभ का आगे विश्लेषण अन्वेषणीय है । पुराणों में एक कथा कण्व - कन्या द्वारा अग्नि में पांच बदरों के पाचन की है जिसके प्रयत्न में उसने सारा इंधन समाप्त कर दिया और फिर अपनी देह को ही इंधन के रूप में प्रस्तुत किया । इस कथा में बदर भी भद्र का रूप हो सकते हैं । हो सकता है कि कथा में हस्ती के जिस पृष्ठ का स्पर्श करने का उल्लेख है, वह भद्र का पूर्व रूप हो । 

अचेतन मन भी पृष्ठ रूप होता है । पृष्ठ को स्पर्श करने का अर्थ होगा उसे चेतन बनाना (लेकिन कठिनाई यह है कि कथा में वराह को भद्र कहा गया है ) । यह कथा इंगित करती है कि कण्व का कार्य अचेतन को चेतन में रूपान्तरित करना हो सकता है।

 पुराण कथा में प्राण द्वारा हल से कर्षण पर कण्व को त्रास पहुंचने व कण्व द्वारा प्राण को अप्रतिष्ठा के शाप के संदर्भ में, इस कथा में हल का प्रयोग किया जा रहा है जो अक्ष रूप है ।

 अक्ष ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को एकत्रित करने का एक साधन है ।

 लेकिन अक्ष में द्यूत की, चांस की संभावना विद्यमान है । 

अक्ष के विपरीत अश्व है । यह कण्व की साधना है ।

जैसा कि पिष्ट के संदर्भ में पहले कहा जा चुका है, वर्तमान काल में विकसित की जा रही टेक्नालाजी में यह प्रयत्न किया जाता है कि किस प्रकार एक पदार्थ को उसके छोटे से छोटे कणों में पीस दिया जाए । पीसने के पश्चात् फिर उस चूर्ण को परिष्कृत करके, उसमें अशुद्धियां मिलाने के पश्चात् एक ठोस का रूप दिया जाता है जिसके गुण पूर्व में लिए गए पदार्थ से भिन्न होते हैं । इसी प्रक्रिया का अनुसरण वैदिक साहित्य में भी किया गया है । यज्ञ कार्य में पहले अन्न को पीसकर उसका चूर्ण बनाया जाता है और फिर उसमें दिव्य जल आदि मिलाकर उसे गूंथकर उससे पुरोडाश का निर्माण किया जाता है जो मस्तिष्क आदि का प्रतीक है । यही कण्व का पुत्र मेधातिथि हो सकता है । चूर्ण से ठोस का निर्माण करने का अर्थ होगा कि जो चेतना पहले चूर्ण रूप में बिखरी हुई थी, अब वह परस्पर मिल कर एकीकृत हो गई है ।

 ऋग्वेद १.३६.१९ में ऐसी अग्नि का उल्लेख है जो शुद्ध होने पर कण्व में ज्योति के रूप में चमकी । 

इस अग्नि को कृष्टियां ( डा. फतहसिंह के शब्दों में हमारी इन्द्रियां ) नमन करती हैं । 

ऋग्वेद १.११८.७ में उल्लेख है कि अश्विनौ ने कण्व में चक्षु का प्रतिस्थापन किया ।

 इस ऋचा के सायण भाष्य में कहा गया है कि असुरों ने कण्व को एक अंधेरे कक्ष में बंद कर दिया और कण्व से कहा कि  बताओ उषाकाल कब हुआ है ।

 इस समय अश्विनौ ने कण्व में चक्षु का प्रतिस्थापन किया । 

जैमिनीय ब्राह्मण १.२१६ में नृषद - पुत्र कण्व के साम का उल्लेख है । इस साम का निधन रन्ताया शब्द से होता है ।

 कहा गया है कि अरति अप्रतिष्ठा है जबकि रात्रि ही रति है, रन्ति है, प्रतिष्ठा है । ऋग्वेद १०.३१.११ व अथर्ववेद ४.१९.२ में भी कण्व के नृषद - पुत्र होने का उल्लेख है ।

 ऋग्वेद १०.११५.५ में अग्नि को कण्वतम, कण्वसखा कहा गया है । दूसरी ओर, अथर्ववेद २.२५.३ में पृश्निपर्णी ओषधि से गर्भ को खाने वाले कण्व का हनन करने की प्रार्थना की गई है ।

ऋग्वेद १.३६ से १.४३ तक के सूक्त घोर - पुत्र कण्व ऋषि के हैं । घोर का अर्थ है जिसमें अभी दोष विद्यमान हैं । ऋग्वेद अष्टम् मण्डल कण्व के मेधातिथि, प्रस्कण्व काण्व, वत्स काण्व, नैपातिथि काण्व आदि पुत्रों व पौत्रों का है । ऋग्वेद १०.३१.११ में कण्व को नृषद् - पुत्र कहा गया है तथा जैमिनीय ब्राह्मण १.२१६, ३.४६, ३.७२ आदि में इसकी पुनरावृत्ति की गई है । इसके विपरीत पुराणों में कण्व ऋषि त्रिलोचन, कश्यप, अप्रतिरथ आदि का पुत्र है । व्याख्या अपेक्षित है ।

वैदिक साहित्य में कण्व के अन्य महत्त्वपूर्ण संदर्भों में द्वादशाह यज्ञ में तृतीय दिन के माध्यन्दिन सवन में कण्व द्वारा द्रष्ट आष्कारनिधन नामक ब्रह्म साम का गान होता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण ८.२.१ ) । प्रायः रथन्तर साम में अस निधन होता है तथा बृहत् साम में हस । लेकिन इस साम में आष् शब्द द्वारा साम का निधन ( अन्त ) होता है जिसकी व्याख्या के लिए ताण्ड्य ब्राह्मण आदि में क्षुवन् ( छींक ) सम्बन्धी आख्यान दिया गया है । इसके अतिरिक्त द्वादशाह यज्ञ के सप्तम दिन, जिसे छन्दोम कहते हैं, कण्वरथन्तर साम का गान होता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण १४.३.१७) जिसका स्पष्टीकरण किया गया है । ऋग्वेद १०.११५.५ में अग्नि को कण्वतम और कण्वसखा कहा गया है । क्या कण्व स्थिति की पराकाष्ठा अग्नि बन जाने में है ? पुराणों में कण्व का प्रायश्चित्त रूप में अग्नि में जल जाना इसका प्रमाण प्रतीत होता है । अथर्ववेद २.२५.३ में गर्भ को खाने वाले कण्व का नाश करने की प्रार्थना की गई है । अन्यत्र कण्व को पाप कहा गया है । कण की जो स्थिति अश्व का रूप नहीं ले पाई है, वह पाप हो सकता है ।

          ब्रह्म पुराण में प्राण द्वारा कर्षण पर कण्व के प्रकट होने तथा शापादि की कथा में प्राण द्वारा कर्षण पर कण्व का प्रकट होना तो स्पष्ट है, लेकिन प्राण द्वारा कण्व को गुरुद्रोही होने तथा कण्व द्वारा गुरु का नाश कर सूर्य से शिक्षा प्राप्त करने का तथ्य विश्लेषणीय है । डा. फतहसिंह के अनुसार विज्ञानमय कोश गुरु है । इससे ऊपर हिरण्मय कोश सूर्य की स्थिति हो सकती है । अन्त में, यह उल्लेखनीय है कि कण धातु पीसने तथा गति के अर्थों में है ।

प्रथम लेखनः- ७.५.२००६ ई.

Kanva can be taken as one who deals with Kana, the particle. There is a hymn in Atharvaveda which states that when rice is pounded, then it break ups in three parts – full rice, particle and husk. Full rice is equivalent to cow, particle is  equivalent to horse and husk is equivalent to mosquito. In the present context, we are concerned how a particle can become equivalent to a horse. In Vipashyanaa meditation etc., there are complaints that nothing has happened to them during the whole session. Then it is is instructed that if any type of etching etc. gets developed, it should be considered as start of meditation. How it can be? The answer is that whatever sensation has developed by itself, it should spread throughout the body. This will be relation between a particle and a horse.  And this is also the secret behind the story of sage Kanva bringing up Shakuntalaa. Shakuntalaa is connected with shakuna, the omens. Omen is a form of a disconnected event, a particle. This has to be given a continuity.

    Kanva happens to be the seer of several hymns in the first canto of Rigveda. The eighth canto of Rigveda contains hymns mainly of the progeny of seer Kanva. In order to understand the utterings of a sage, it is considered essential to understand the characteristics of the seer himself. Saayana has stated that Kanva is the son of Ghora, the terrific/horrible( a mixtue of unconscious and conscious minds?). Therfore, in order to understand Kanva, one has to understand what is terrific in vedic literature. One terrific state is when the light developing like a sun in one’s self gets unbearable. This is the time when this has to be given a proper shape by discarding non – usable parts, just like the cutting of the luster  of sun by Twashtaa on his wheel in puraanic stories. The redundant part of the luster was used for making weapons of gods. The vedic equivalent of this story seems to be the removing of husk from the rice by pounding. During this process, some grains are recovered full, some are broken. In vedic mythology, the unbroken and broken parts have been assigned  quite separate meanings. The unbroken ones are related with cow while the broken ones are related with horse. This indicates that the penances of sage Kanva are of the nature of horse, not of a cow. A cow sits at one place and attracts the energy of the universe, while a horse revolves around the whole earth. A cow is equivalent to a magnet.  This fact forms the basis to unravel the mystery behind the story of Brahma puraana where sage Kanva refuses to partake food in the hermitage of Gautama to satisfy his hunger and he himself worships Gangaa which appears in two forms before him : the pious one and the impure one.  He is able to convert the impure one into pure one.

            It seems that in order to understand the mystery of Kanva, one will have to go deeply into the science of making powder. A part of the esoteric aspect of this science is already available on the internet. In brief, a substance is converted into fine powder, impurities are mixed with it and then again converted into a solid whose properties are different from the earlier solid. The vedic equivalent of it seems to be preparation of purodaasha in a somayaaga where the cereals are ground and then divine waters etc. are added to make a dough and then this is roasted to form a double bread which may be symbolic of brain. This may be the reason why Medhaatithi etc. have been mentioned as the sons of Kanva. The powder represents the divided consciousness while the bread represents an integrated consciousness.

            There is no direct reference in vedic literature to support the story of Kanva and Shakuntalaa in puraanic texts. One vedic verse indicates that those who are Kanvas, they can attract that earlier intellect which nourishes with honey and butter. This earlier intellect can be the Shakuntalaa of puraanic texts. Another verse states that Kanva wants that wisdom from god Savitaa which he is able to milk in the form of a thousand streams. Here thousand streams are symbolic of continuity, in opposition to non – continuity in case of cow.

There is a story about Kanva where a boar and an elephant trouble him and he curses both. The real form of boar is auspicious and the real form of elephant is shining, beautiful. One has to be cultivated from the outer universe, the other from the inner universe. The story indicates that the elephant may be connected with unconscious mind also. Therefore, the job of Kanva may be to convert the unconscious mind into conscious mind. 


वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-




स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।

(ऋग्वेद 8/45/27) 

(पद-पाठ)

स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।

वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।

(सायण-भाष्य)

“तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 

“तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।

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अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।                  अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।

“अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥

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।प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।

अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 

अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा

तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।

और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 

ऋग्वेद-7/19 /8

हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 

 "तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

सायण-भाष्यम् 

तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।

पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।

(ऋग्वेद9/61/1-2)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

पदपाठ-

अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।

अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।


(सायण-भाष्य)

हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान । अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

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पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।

अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।

(पद का अर्थान्वय)

 (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

(ऋग्वेद9/61/1-2)

“सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों को रूप में 

     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।

     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

(ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं 

हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 

        नरो मदेम शरणे सखाय:।

नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 

        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।

(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा


सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।

व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।

निह्नवाकर्त्तरि ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।

अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।

तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 

तुम मुझे क्षीण न करो 

_____________________________


शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥+ऋग्वेद ८/६/४६)

श॒तम॒हं ति॒रिन्दि॑रे स॒हस्रं॒ पर्शा॒वा द॑दे ।

राधां॑सि॒ याद्वा॑नाम् ॥४६।।


(सायण-भाष्य)

इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।


त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/

_______________________________

त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।

द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

सायण-भाष्य-

पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

“अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने । साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।

श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।

सायण-भाष्य-

अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥

__________   

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !

ऋग्वेद ८/६/४६

त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।

प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

पदपाठ-

त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।

प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।

धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।

 हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।

हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो।

___________________________________

य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

 (ऋग्वेद-6/45/1)

इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१

यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।

यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।


शनिवार, 26 जून 2021

पद्मपुराण










एतत्पद्मपुराणं तु व्यासेन तु महात्मना
कृतं लोकहितार्थाय ब्राह्मणश्रेयसे तथा ।६९।

शूद्राणां पुण्यजननं तीव्रदारिद्र्यनाशनम्
मोक्षदं सुखदं चाशु कल्याणप्रदमव्ययम्
श्रुत्वा दानं तथा कुर्याद्विधिना तत्र नारद ।७०।

इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्सहस्रसंहितायामुत्तरखंडे महेशनारदसंवादे बीजसमुच्चयोनाम प्रथमोऽध्यायः ।१।



कार्तिकस्याथ माहात्म्यं माहात्म्यं माघजं तथा
सर्वेषां च व्रतानां च माहात्म्यं विधिपूर्वकम् ।२८।

शृणु नारद वक्ष्यामि जगन्नाथाख्यमुत्तमम्
यं दृष्ट्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।२९।

यत्र सिद्धं तथा भुक्तं पारलौकिकदायकम्
ब्राह्मणा यत्र भुंजन्ति वेदशास्त्र विशारदः ।३०।

अन्येषां चैव लोकानां का कथा चैव सुव्रत
पंचविंशत्यत्र नागा नर्तक्यो विविधास्तथा ।३१।

ब्रह्महत्या बालहत्या गवांहत्या तथैव च
ताः सर्वा विलयं यांति जगन्नाथस्य दर्शनात् ।३२।

जगन्नाथेत्युच्चरञ्जंतुर्महापापैः प्रमुच्यते
विष्णोः पूजनकं पुष्पैस्तन्माहात्म्यमपि ब्रुवे ।३३।

पर्वतानां वर्णनं च देशानां वर्णनं तथा
गोपूजनादिमाहात्म्यं सिद्धानां चैव पूजनम् ।३४।

सिक्थे दत्ते तु यत्पुण्यं तत्सर्वं प्रवदाम्यहम्
कदलीगर्भदानं च वृक्षदानं ततः परम् ।३५।

अश्वदानं हस्तिदानं जपमाहात्म्यमुत्तमम्
मंत्रदीक्षागमं चैव गुरोर्लक्षणमेव च ।३६।

शिष्यस्य लक्षणं प्रोक्तं यथा पौराणिका विदुः
चरणोदकमाहात्म्यं पितृश्राद्धादिकं च यत् ।३७।

पितृक्षयाहदानं च नीलोत्सर्गविधिस्ततः
ग्रहणं चंद्रसूर्यस्य तत्र दानं च यद्भवेत् ।३८।

शालग्रामस्य दानस्य माहात्म्यं माल्यगंधयोः
दशम्यैकादशीवेधं द्वादशी हरिवासरम् ।३९।

तेषां चैव तुमाहात्म्यं रुद्रनामादिकं च यत्
मथुरायाश्च माहात्म्यं कुरुक्षेत्रादिकं तथा ।४०।

सेतुबंधस्य चाख्यानं श्रीरामेश्वरजं तथा
त्र्यंबकस्य च माहात्म्यं पंचवट्याश्च यत्फलम् ।४१।

दंडकारण्यमाहात्म्यं शृणु वाडवसत्तम
दंडकारण्यमाहात्म्यं नृसिंहोत्पत्तिकारणम् ।४२।

गीतायाश्चैव माहात्म्यं तथा भागवतस्य च
कालिंद्याश्चैव माहात्म्यमिन्द्रप्रस्थस्य वर्णनम् ।४३।

रुक्मांगदचरित्रं तु महिमा वैष्णवस्य च
वैष्णवे ह्येकभुक्ते तु शृणु वाडवसत्तम ।४४।

ससागरां च पृथिवीं दत्त्वा चैव तु यत्फलम्
तत्फलं समवाप्नोति भुक्ते ह्येके तु वैष्णवे ।४५।

सात्विकाः सत्त्वसंपन्ना राजसाः कामुकाः स्मृताः
तामसा अधमाः प्रोक्ता वैष्णवानां तु लक्षणम् ।४६।

ब्राह्मणा वैष्णवा ये तु वेदधर्मपरायणाः
तेषां माहात्म्यं वक्ष्यामि यथोक्तं चैव नारद ।४७।

विष्णुनिंदारता ये वै द्रव्यलोभेन सत्तम
तेषां पापं तु वक्ष्यामि सांप्रतं ऋषिसत्तम ।४८।

ज्वालामुख्यास्तथाख्यानं हिमशैलेक्षणं तथा
ब्रह्मोत्पत्तिस्तु वै यत्र तं प्रदेशं वदाम्यहम् ।४९।

कायस्थानां समुत्पतिर्गयाव्याख्यानमेव च
गदाधरस्वरूपं च फल्गुवर्णनमेव च ।6.1.५०।

एतेषां चैव माहात्म्यं पाद्मे दृष्टं तथा श्रुतम्
महाबोधस्वरूपं च सकल्केर्यश एव च ।५१।

रामगयाया माहात्म्यं तथा प्रेतशिलाभवम्
ब्रह्मणश्च तथाख्यानं शिलाख्यानं वदाम्यहम् ।५२।

ब्रह्मयोनेस्तथाख्यानमक्षयाख्य वटस्य च
श्राद्धे तत्र महत्पुण्यं यत्तत्सर्वं वदाम्यहम् ।५३।

महेश्वरकृतां भक्तिं विष्णुना च महात्मना
अद्यापि काश्यां जपति महारुद्रो ह्यनामयम् ।५४।

माहात्म्यं च ततो वक्ष्ये सागरस्य हि नारद
तिलतर्पणजं पुण्यं यवजं पुण्यमेव च ।५५।

तुलसीदलसंयुक्तं तर्पणं देवजं तथा
तन्माहात्म्यं प्रवक्ष्यामि यथोक्तं ब्रह्मणा मम ।५६।

शंखनादस्य माहात्म्यं पुण्यं चासंख्यसंज्ञकम् ।५७।

रवेर्वारस्य माहात्म्यं योगस्य विष्णुसंज्ञिनः
वैधृतस्य च माहात्म्यं व्यतीपातस्य वै तथा ।५८।

एतत्सर्वं प्रवक्ष्यामि यथोक्तं चैव नारद
अन्नदानं वस्त्रदानं भूमिदानं तथैव च ।५९।

शय्यादानं च गोदानं तथा वृषभमेव च
जन्माष्टम्याश्च माहात्म्यं मत्स्यमाहात्म्यमेव च ।६०।

कूर्ममाहात्म्यं तत्प्रोक्तं वाराहस्य तथैव च
माहात्म्यं च गवादीनां दानानां प्रवदाम्यहम् ।६१।

प्रह्लादमुखभक्ता ये ये केचिद्भुवि विश्रुताः
तन्माहात्म्यं ततो वक्ष्ये शृणु देवर्षिसत्तम ।६२।

जागरे महिमा चैव दीपदाने कृते च यत्
प्रहरेषु पृथक्पूजाफलं देवर्षिसत्तम ।६३।

पर्शुरामस्य चाख्यानं रेणुकाया वधस्तथा
ब्राह्मणानां भूमिदानं रामेणैव च यत्कृतम् ।६४।

रामस्याश्रमजं पुण्यं वदाम्यहमशेषतः
नर्मदायास्तथाख्यानं पुण्यपूजनयोस्तथा ।६५।

दानं वेदपुराणानामाश्रमाणां निरूपणम्
हिरण्यदानपुण्यं च ब्रह्मांडदानमेव च ।६६।

पद्मपुराणदानं च खंडानां व्यक्तयस्तथा
प्रथमं सृष्टिखंडं च द्वितीयं भूमिखंडकम् ।६७।

स्वर्गखंडं तृतीयं च तुर्यं पातालसंज्ञकम्
उत्तरं पंचमं प्रोक्तं खंडान्यनुक्रमेण वै ।६८।

एतत्पद्मपुराणं तु व्यासेन तु महात्मना
कृतं लोकहितार्थाय ब्राह्मणश्रेयसे तथा ।६९।

शूद्राणां पुण्यजननं तीव्रदारिद्र्यनाशनम्
मोक्षदं सुखदं चाशु कल्याणप्रदमव्ययम्
श्रुत्वा दानं तथा कुर्याद्विधिना तत्र नारद ।७०।
________________________    
इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्सहस्रसंहितायामुत्तरखंडे महेशनारदसंवादे बीजसमुच्चयोनाम प्रथमोऽध्यायः (१)



रविवार, 20 जून 2021

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय (१३) और( १७) वाँ अध्याय-

वसुदेववचः श्रुत्वा रूपं संहरदच्युतः
अनुज्ञाप्य तु तं शौरिर्नन्दगोपगृहेनयत्।१३९।


दत्वा तं नंदगोपाय रक्ष्यतामिति चाब्रवीत्
अतस्तुसर्वकल्याणं यादवानां भविष्यति।१४०।

_________________________________
अयं तु गर्भो देवक्या यावत्कंसं हनिष्यति
तावत्पृथिव्यां भविता क्षेमो भारावहः परम्।१४१।

ये वै दुष्टास्तु राजानस्तांस्तु सर्वान्हनिष्यति
कौरवाणां रणे भूते सर्वक्षत्रसमागमे।१४२।

सारथ्यमर्जुनस्यायं स्वयं देवः करिष्यति
निःक्षत्रियां धरां कृत्वा भोक्ष्यते शेषतां गताम्।१४३।

सर्वं यदुकुलं चैव देवलोकं नयिष्यति
भीष्म उवाच-
क एष वसुदेवस्तु देवकी का यशस्विनी।१४४।

नंदगोपश्च कश्चैव यशोदा का महाव्रता
या विष्णुं पोषितवती यां स मातेत्यभाषत।१४५।


या गर्भं जनयामास या चैनं समवर्द्धयत्
पुलस्त्य उवााच-
पुरुषः कश्यपश्चासावदितिस्तत्प्रिया स्मृता।१४६।

________________
कश्यपो ब्रह्मणोंशस्तु पृथिव्या अदितिस्तथा
नंदो द्रोणस्समाख्यातो यशोदाथ धराभवत्।१४७।

अथकामान्महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत्
ये तया कांक्षिताः पूर्वमजात्तस्मान्महात्मनः।१४८।

अचिरं स महादेवः प्रविष्टो मानुषीं तनुं
मोहयन्सर्वभूतानि योगाद्योगी समाययौ।१४९।

नष्टे धर्मे तथा यज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले विभुः
कर्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम्।१५०। 1.13.150

_____________
रुक्मिणी सत्यभामा च सत्या नाग्निजिती तथा
सुमित्रा च तथा शैब्या गांधारी लक्ष्मणा तथा।१५१।

सुभीमा च तथा माद्री कौशल्या विजया तथा
एवमादीनि देवीनां सहस्राणि च षोडश।१५२।

रुक्मिणी जनयामास पुत्रान्शृणु विशारदान्
चारुदेष्णं रणेशूरं प्रद्युम्नञ्च महाबलम्।१५३।

सुचारुं चारुभद्रञ्च सदश्वं ह्रस्वमेव च
सप्तमञ्चारुगुप्तञ्च चारुभद्रञ्च चारुकं।१५४।

चारुहासं कनिष्ठञ्च कन्याञ्चारुमतीं तथा
जज्ञिरे सत्यभामाया भानुर्भीमरथः क्षणः।१५५।

रोहितो दीप्तिमांश्चैव ताम्रबंधो जलंधमः
चतस्रो जज्ञिरे तेषां स्वसारश्च यवीयसीः।१५६।

जांबवत्याः सुतो जज्ञे सांबश्चैवातिशोभनः
सौरशास्त्रस्य कर्त्ता वै प्रतिमा मंदिरस्य च।१५७।

मूलस्थाने निवेशश्च कृतस्तेन महात्मना
तुष्टेन देवदेवेन कुष्ठरोगो विनाशितः।१५८।

सुमित्रं चारुमित्रं च मित्रविंदा व्यजायत
मित्रबाहुः सुनीथश्च नाग्नजित्यां बभूवतुः।१५९।

एवमादीनि पुत्राणांसहस्राणि निशामय
अशीतिश्च सहस्राणां वासुदेवसुतास्तथा।१६०।

प्रद्युम्नस्य च दायादो वैदर्भ्यां बुद्धिसत्तमः
अनिरुद्धो रणे योद्धा जज्ञेस्य मृगकेतनः।१६१।

काम्या सुपार्श्वतनया सांबाल्लेभे तरस्विनम्
सत्त्वप्रकृतयो देवाः पराः पंच प्रकीर्तिताः।१६२।

तिस्रः कोट्यः प्रवीराणां यादवानां महात्मनां
षष्टिः शतसहस्राणि वीर्यवंतो महाबलाः।१६३।

देवांशाः सर्व एवेह उत्पन्नास्ते महौजसः
दैवासुरे हता ये वा असुरास्तु महाबलाः।१६४।

इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधंते सर्वमानवान्
तेषामुद्धरणार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले।१६५।

______________________

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम्
विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।१६६।

निदेशस्थायिनस्तस्य ऋद्ध्यंते सर्वयादवाः
भीष्म उवाच–
सप्तर्षयः कुबेरश्च यक्षो मणिधरस्तथा।१६७।

सात्यकिर्नारदश्चैव शिवो धन्वंतरिस्तथा
आदिदेवस्तथाविष्णुरेभिस्तु सह दैवतैः।१६८।

किमर्थं सहसंभूताः सुरसम्भूतयः क्षितौ
भविष्याः कति वा चास्य प्रादुर्भावा महात्मनः।१६९।

सर्वक्षेत्रेषु सर्वेषु किमर्थमिह जायते
यदर्थमिह संभूतो विष्णुर्वृष्ण्यंधके कुले।१७०।

पुनःपुनर्मनुष्येषु तन्मे त्वं ब्रूहि पृच्छतः
पुलस्त्य उवाच-
शृणु भूप प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम्
यथा दिव्यतनुर्विष्णुर्मानुषेष्विह जायते।१७१।

युगांते तु परावृत्ते काले प्रशिथिले प्रभुः
देवासुरमनुष्येषु जायते हरिरीश्वरः।१७२।

हिरण्यकशिपुर्दैत्यस्त्रैलोक्यस्य प्रशासिता
बलिनाधिष्ठिते चैव पुनर्लोकत्रये क्रमात्।१७३।

सख्यमासीत्परमकं देवानामसुरैः सह
युगाख्या दश संपूर्णा आसीदव्याकुलं जगत्।१७४।

निदेशस्थायिनश्चापि तयोर्देवासुरा स्वयं
बद्धो बलिर्विमर्दोयं सुसंवृत्तः सुदारुणः।१७५।

देवानामसुराणां च घोरः क्षयकरो महान्
कर्तुं धर्मव्यवस्थां च जायते मानुषेष्विह।१७६।

भृगोः शापनिमित्तं तु देवासुरकृते तदा
भीष्म उवाच
कथं देवासुरकृते हरिर्देहमवाप्तवान्।१७७।

दैवासुरं यथावृत्तं तन्मे कथय सुव्रत
पुलस्त्य उवाच–
तेषां जयनिमित्तं वै संग्रामा स्युः सुदारुणाः।१७८।

अवतारा दशद्वौ च शुद्धा मन्वंतरे स्मृताः
नामधेयं समासेन शृणु तेषां विवक्षितम्।१७९।

प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः
तृतीयस्तु वराहश्च चतुर्थोऽमृतमंथनः।१८०।

संग्रामः पंचमश्चैव सुघोरस्तारकामयः
षष्ठो ह्याडीबकाख्यश्च सप्तमस्त्रैपुरस्तथा।१८१।

अष्टमश्चांधकवधो नवमो वृत्रघातनः
ध्वजश्च दशमस्तेषां हालाहलस्ततः परं।१८२।

प्रथितो द्वादशस्तेषां घोरः कोलाहलस्तथा
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो नरसिंहेन सूदितः।१८३।

वामनेन बलिर्बद्धस्त्रैलोक्याक्रमणे पुरा
हिरण्याक्षो हतो द्वंद्वे प्रतिवादे तु दैवतैः।१८४।

दंष्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्थो द्विधा कृतः
प्रह्लादो निर्जितो युद्धे इंद्रेणामृतमंथने।१८५।

विरोचनस्तु प्राह्लादिर्नित्यमिन्द्रवधोद्यतः
इंद्रेणैव च विक्रम्य निहतस्तारकामये।१८६।

अशक्नुवत्सु देवेषु त्रिपुरं सोढुमासुरम्
मोहयित्वाऽमृते पीते गोरूपेणासुरारिणा।१८७।

नासन्जीवयितुं शक्या भूयो भूयोमृतासुराः
निहता दानवाः सर्वे त्रैलोक्ये त्र्यंबकेण तु।१८८।

असुराश्च पिशाचाश्च दानवाश्चांधके वधे
हता देवमनुष्यैस्ते पितृभिश्चैव सर्वशः।१८९।

संपृक्तो दानवैर्वृत्रो घोरे कोलाहले हतः
तदा विष्णुसहायेन महेंद्रेण निपातितः।१९०।

हतस्ततो महेंद्रेण मायाछन्नस्तु योगवित्
वज्रेण क्षणमाविश्य विप्रचित्तिः सहानुगः।१९१।

दैत्याश्च दानवाश्चैव संयुताः कृत्स्नशस्तु ते
एते दैवाऽसुरावृत्ताः संग्रामाद्वा दशैव तु।१९२।

देवासुरक्षयकराः प्रजानां च हिताय वै
हिरण्यकशिपू राजा वर्षाणामर्बुदं बभौ।१९३।

द्विसप्ततिं तथान्यानि नियुतान्यधिकानि तु
अशीति च सहस्राणि त्रैलोक्यैश्वर्यवानभूत्।१९४।

पर्यायेण तु राजाभूद्बलिर्वर्षार्बुदं पुनः
षष्ठिं चैव सहस्राणि नियुतानि च विंशतिं।१९५।

बलिराज्याधिकारे तु यावत्कालश्च कीर्तितः
तावत्कालं तु प्रह्लादो निर्वृतो ह्यसुरैः सह।१९६।

जयार्थमेते विज्ञेया असुराणां महौजसः
त्रैलोक्यमिदमव्यग्रं महेंद्रेणानुपाल्यते।१९७।

असम्पन्नमिदं सर्वं यावद्वर्षायुतं पुनः
पर्यायेणैव सम्प्राप्ते त्रैलोक्यं पाकशासने।१९८।

ततोऽसुरान्परित्यज्य यज्ञो देवानगच्छत
यज्ञे देवानथ गते दितिजाः काव्यमब्रुवन्।१९९।

दैत्या ऊचुः-
हृतं मघवता राज्यं त्यक्त्वा यज्ञः सुरान्गतः
स्थातुं न शुक्नुमो ह्यत्र प्रविशामो रसातलम्।२०० ।1.13.200


एवमुक्तोब्रवीदेतान्विषण्णान्सांत्वयन्गिरा
मा भैष्ट धारयिष्यामि तेजसा स्वेन वोऽसुराः।२०१।

मंत्राश्चौषधयश्चैव धरायां यत्तु वर्तते
मयि तिष्ठति तत्सर्वं पादमात्रं सुरेषु वै।२०२।

तत्सर्वं च प्रदास्यामि युष्मदर्थे धृतं मया
ततो देवास्तुतान्दृष्ट्वा धृतान्काव्येन धीमता।२०३।

अमंत्रयंत देवा वै संविग्नास्तज्जिघृक्षया
काव्यो ह्येष इदं सर्वं व्यावर्तयति नो बलात्।२०४।

साधु गच्छामहे तूर्णं यावन्न च्यावयेत वै
प्रसह्य जित्वा शिष्टांस्तु पातालं प्रापयामहे।२०५।

ततो देवास्तु संरब्धा दानवानुपसृत्य ह
ततस्ते वध्यमानास्तैः काव्यमेवाभिदुद्रुवुः।२०६।

ततः काव्यस्तु तान्दृष्ट्वा तूर्णं देवैरभिद्रुतान्
रक्षाकार्येण संहृत्य देवेभ्यस्तान्सुरार्दितान्।२०७।

काव्यं दृष्ट्वा स्थितं देवा निर्विशंकास्तु ते जहुः
ततः काव्योनुचिंत्याथ ब्रह्मणो वचनं हितम्।२०८।

तानुवाच ततः काव्यः पूर्ववृत्तमनुस्मरन्
त्रैलोक्यं वो हृतं सर्वं वामनेन त्रिभिः क्रमैः।२०९।

बलिर्बद्धो हतो जंभो निहतश्च विरोचनः
महासुरा द्वादशसु संग्रामेषु सुरैर्हताः।२१०।

तैस्तैरुपायैर्भूयिष्ठा निहतास्तु प्रधानतः
केचिच्छिष्टाश्च यूयं वै युद्धं नास्तीति मे मतम्।२११।

नीतयो वो विधातव्या उपासे कालपर्ययात्
यास्याम्यहं महादेवं मंत्रार्थं विजयावहम्।२१२।

अप्रतीपांस्ततो देवान्मंत्रान्प्राप्य महेश्वरात्
योत्स्यामहे पुनर्देवैस्ततः प्राप्स्यथ वै जयम्।२१३।

ततस्ते कृतसंवादा देवानूचुस्तदासुराः
न्यस्तशस्त्रा वयं सर्वे निःस्सन्नाहा रथैर्विना।२१४।

वयं तपश्चरिष्यामः संवृता वल्कलैस्तथा
देवास्तेषां वचः श्रुत्वा सत्याभिव्याहृतं ततः।२१५।

ततोन्यवर्तयन्सर्वे विज्वरा मुदिताश्च ते
न्यस्तशस्त्रेषु दैत्येषु विनिवृत्तास्तदा सुराः।२१६।

ततस्तानब्रवीत्काव्य उपाध्वं तपसि स्थिताः
निरुत्सिक्तास्तपोयुक्ताः कालं कार्यार्थसाधकम्।२१७।

पितुराश्रमसंस्था वै मां प्रतीक्षथ दानवाः
तानुद्दिश्यासुरान्काव्यो महादेवं प्रपद्यत।२१८।

शुक्र उवाच
मंत्रानिच्छाम्यहं देव येन सन्ति बृहस्पतौ
पराभवाय देवानामसुराणां जयाय च।२१९।

एवमुक्तोब्रवीद्देवो व्रतं त्वं चर भार्गव
पूर्णं वर्षसहस्रं तु कणधूममधः शिराः।२२०।

यदि पास्यसि भद्रं ते ततो मंत्रानवाप्स्यसि
तथेति समनुज्ञाप्य शुक्रस्तु भृगुनंदनः२२१

पादौ संस्पृश्य देवस्य बाढमित्यब्रवीद्वचः
व्रतं चराम्यहं देव त्वयादिष्टोद्य वै प्रभो२२२

आदिष्टो देवदेवेन कृतवान्भार्गवो मुनिः
तदा तस्मिन्गते शुक्रे असुराणां हिताय वै२२३

मंत्रार्थे तनुते काव्यो ब्रह्मचर्यं महेश्वरात्
तद्बुद्ध्वा नीतिपूर्वं वै राजन्यास्तु तदा सुखं२२४

अस्मिंश्छिद्रे तदामर्षाद्देवास्तानभिदुद्रुवुः
दंशिताः सायुधाः सर्वे बृहस्पतिपुरःसराः२२५

दृष्ट्वा सुरगणा देवान्प्रगृहीतायुधान्पुनः
उत्पेतुस्सहसा सर्वे संत्रस्तास्तान्वचोब्रुवत्२२६

दैत्या ऊचुः
न्यस्तशस्त्रा वयं देवा आचार्ये व्रतमास्थिते
दत्वा भवंतस्त्वभयं संप्राप्ता नो जिघांसया२२७

अनमर्षा वयं सर्वे त्यक्तशस्त्राश्च संस्थिताः
चीरकृष्णाजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः२२८

रणे विजेतुं देवांश्च न शक्ष्यामः कथंचन
अयुद्धेन प्रपत्स्यामः शरणं काव्यमातरम्२२९

ज्ञापयामः कृच्छ्रमिदं यावन्नाभ्येति नो गुरुः
निवृत्ते च तथा शुक्रे योत्स्यामो दंशितायुधाः२३०

एवमुक्त्वा च तेन्योन्यं शरणं काव्यमातरम्
प्रापद्यंत ततो भीतास्तेभ्योऽदादभयं तु सा२३१

न भेतव्यं न भेतव्यं भयं त्यजत दानवाः
मत्सन्निधौ वर्त्ततां वो न भीर्भवितुर्महति२३२

तयाभिरक्षितांस्तांश्च दृष्ट्वा देवास्तदाऽसुरान्
अभिजग्मुः प्रसह्यैतानविचार्य बलाबलम्२३३

ततस्तान्बध्यमानांस्तु देवैर्दृष्ट्वासुरांस्तदा
देवी क्रुद्धाब्रवीद्देवान्निद्रया मोहयाम्यहम्२३४

संभृत्य सर्वसंभारान्निद्रां सा व्यसृजत्तदा
तस्तंभ देवी च बलाद्योगयुक्ता तपोधना२३५

ततस्तं स्तभितं दृष्ट्वा इन्द्रं देवाश्च मूढवत्
प्राद्रवंत ततो भीता इन्द्रं दृष्ट्वा वशीकृतम्२३६

गतेषु सुरसंघेषु विष्णुरिंद्रमभाषत
विष्णुरुवाच
मां त्वं प्रविश भद्रं ते रक्षिष्ये त्वां सुरोत्तम२३७

एवमुक्तस्ततो विष्णुं प्रविवेश पुरंदरः
विष्णुसंरक्षितं दृष्ट्वा देवी क्रुद्धा वचोऽब्रवीत्२३८

एष त्वां विष्णुना सार्धं दहामि मघवन्बलात्
मिषतां सर्वभूतानां दृश्यतां मे तपोबलम्२३९

तयाभिभूतौ तौ देवाविंद्रविष्णू बभूवतुः
कथं मुच्येय सहितो विष्णुरिंद्रमभाषत२४०

इंद्रोब्रवीज्जहि ह्येनां यावन्नौ न दहेत्प्रभो
विशेषेणाभिभूतोस्मि जहीमां जहि मा चिरम्२४१

________________________________

ततः समीक्ष्य विष्णुस्तांस्त्रीवधे कृच्छ्रमास्थितः
अभिध्याय ततः शक्रमापन्नं सत्वरं प्रभुः२४२

ततः स त्वरयायुक्तः शीघ्रकारी भयान्वितः
ज्ञात्वा विष्णुस्ततस्तस्याः क्रूरं देव्याश्चिकीर्षितम्२४३

क्रुद्धश्च चक्रमादाय शिरश्चिच्छेद वै भयात्
तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं चुक्रोध भृगुरीश्वरः२४४

ततो हि शप्तो भृगुणा विष्णुर्भार्यावधे कृते
भृगुरुवाच
यत्त्वया जानता धर्ममवध्या स्त्री निषूदिता।२४५।

तस्मात्त्वं सप्तकृत्वो हि मानुषेषूपयास्यसि
ततस्तेनाभिशापेन नष्टे धर्मे पुनःपुनः२४६

लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुषेष्विह
अथ व्याहृत्य विष्णुं स तदादाय शिरः स्वयम्२४७

समानीय ततः कायं पाणौ गृह्येदमब्रवीत्
भृगुरुवाच
एषा त्वं विष्णुना देवि हता संजीवयाम्यहं२४८

यदि कृत्स्नो मया धर्मो ज्ञायते चरितोपि वा
तेन सत्येन जीवस्व यदि सत्यं ब्रवीम्यहम्२४९

ततस्तां प्रोक्ष्य शीताद्भिर्जीवजीवेति सोब्रवीत्
ततोभिव्याहृते तस्मिन्देवी संजीविता तदा२५० 1.13.250

ततस्तां सर्वभूतानि दृष्ट्वा सुप्तोत्थितामिव
साधुसाध्विति दृष्ट्वैव वचस्तां सर्वतोब्रुवन्२५१

एवं प्रत्याहृता तेन देवी सा भृगुणा तदा
मिषतां दैवतानां हि तदद्भुतमिवाभवत्२५२

असंभ्रांतेन भृगुणा पत्नी संजीविता पुनः
दृष्ट्वा चेंद्रो नालभत शर्म काव्यभयात्पुनःः२५३

प्रजागरे ततश्चेंद्रो जयंतीमिदमब्रवीत्
संधिकामोभ्यधाद्वाक्यं स्वां कन्यां पाकशासनः२५४

इन्द्र उवाच
एष काव्यो ह्यनिंद्राय व्रतं चरति दारुणम्
तेनाहं व्याकुलः पुत्रि कृतो मतिमता दृढम्२५५

तैस्तैर्मनोनुकूलैश्च उपचारैरतंद्रिता
आराधय तथा पुत्रि यथा तुष्येत स द्विजः२५६।

गच्छ त्वं तस्य दत्तासि प्रयत्नं कुरु मत्कृते
एवमुक्ता जयंती सा वचः संगृह्य वै पितुः२५७।

अगच्छद्यत्र घोरं स तपो ह्यारभ्य तिष्ठति
तं दृष्ट्वा च पिबंतं सा कणधूममधोमुखम्२५८

यक्षेण पात्यमानं च कुंडधारेण पावनम्
दृष्ट्वा तं यतमानं तु देवी काव्यमवस्थितम्२५९।।

शत्रूपघाते श्राम्यंन्तं दुर्बलस्थितिमास्थितम्
पित्रा यथोक्तं वाक्यं सा काव्ये कृतवती तदा२६०

गीर्भिश्चैवानुकूलाभिः स्तुवंती वल्गुभाषिणी
गात्रसंवाहनैः काले सेवमाना त्वचः सुखैः२६१

व्रतचर्यानुकूलाभिरुपास्य बहुलाः समाः
पूर्णे धूमव्रते तस्मिन्घोरे वर्षसहस्रके२६२

वरेण छंदयामास शिवः प्रीतोभवत्तदा
महेश्वर उवाच
एतद्व्रतं त्वयैकेन चीर्णं नान्येन केनचित्२६३

तस्माद्वै तपसा बुद्ध्या श्रुतेन च बलेन च
तेजसा च सुरान्सर्वांस्त्वमेकोभिभविष्यसि२६४

यच्च किंचिन्मयि ब्रह्मन्विद्यते भृगुनंदन
प्रतिदास्यामि तत्सर्वं त्वया वाच्यं न कस्यचित्२६५

किं भाषितेन बहुना अवध्यस्त्वं भविष्यसि
तान्दत्वा तु वरांस्तस्मै भार्गवाय पुनः पुनः२६६

प्रजेशत्वं धनेशत्वमवध्यत्वं च वै ददौ
एतान्लब्ध्वा वरान्काव्यः संप्रहृष्टतनूरुहः२६७

एवमाभाष्य देवेशमीश्वरं नीललोहितम्
प्रज्ञान्वितस्ततस्तस्मै प्राञ्जलि प्रणतो ऽभवत्२६८

ततः सोंऽतर्हिते देवे जयंतीमिदमब्रवीत्
कस्य त्वं सुभगे का वा दुःखिते मयि दुःखिता२६९

महता तपसा युक्ता किमर्थं मां जिगीषसि
अनया संस्थिता भक्त्या प्रश्रयेण दमेन च२७०

स्नेहेन चैव सुश्रोणि प्रीतोस्मि वरवर्णिनि
किमिच्छसि वरारोहे कस्ते कामः समुद्यतः२७१

तं ते संपादयाम्यद्य यद्यपि स्यात्सुदुष्करम्
एवमुक्ताब्रवीदेनं तपसा ज्ञातुमर्हसि२७२

चिकीर्षितं हि मे ब्रह्मंस्त्वं वै वद यथातथम्
एवमुक्तोब्रवीदेनं दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा२७३

मया सह त्वं सुश्रोणि शतवर्षाणि भामिनि
सर्वभूतैरदृश्यांतः संप्रयोगमिहेच्छसि२७४

देवि इंदीवरश्यामे वरार्हे वामलोचने
एवं वृणोषि कामांस्त्वं ददे वै वल्गुभाषिते२७५

एवं भवतु गच्छाव गृहं मे मत्तकाशिनि
ततः स गृहमागम्य जयंत्या सह चोशना२७६

तया सहावसद्देव्या शतवर्षाणि भार्गवः
अदृश्यः सर्वभूतानां मायया संशितव्रतः२७७

कृतार्थमागतं ज्ञात्वा शुक्रं सर्वे दितेस्सुताः
अभिजग्मुर्गृहं तस्य मुदितास्ते दिदृक्षवः२७८

गता यदा न पश्यंति मायया संवृतं गुरुम्
लक्षणं तस्य चाबुद्ध्वा नाद्यागच्छति नो गुरुः२७९

एवं ते स्वानि धिष्ण्यानि गताः सर्वे यथागताः
ततो देवगणास्सर्वे गत्वांगिरसमब्रुवन्२८०

दानवालये तु भगवान्गत्वा तत्र च तां चमूम्
मोहयित्वात्मवशगां क्षिप्रमेव तथा कुरु२८१

धिषणस्तान्सुरानाह एवमेव व्रजाम्यहम्
तेन गत्वा दानवेंद्रः प्रह्लादो वै वशीकृतः२८२

शुक्रो भूत्वा स्थितस्तत्र पौरोहित्यं चकार सः
स्थितो वर्षशतं साग्रमुशना तावदागतः२८३

दनुपुत्रैस्ततो दृष्टः सभायां तु बृहस्पतिः
उशना एक एवात्र द्वितीयः किमिहागतः२८४

सुमहत्कौतुकं चात्र भविता विग्रहो दृढम्
किं वदिष्यति लोकोयं द्वारि योयं व्यवस्थितः२८

सभायामास्थितो योयं गुरुः किं नो वदिष्यति
एवं प्रजल्पतां तेषां दनूनां कविरागतः२८६

स्वरूपधारिणं तत्र दृष्ट्वासीनं बृहस्पतिम्
उवाच वचनं क्रुद्धः किमर्थं त्वमिहागतः२८७

शिष्यान्मोहयसे मे त्वं युक्तं सुरगुरोस्तव
मूढास्ते त्वां न जानंति त्वन्मायामोहिता ध्रुवम्२८८

तन्न युक्तं तव ब्रह्मन्परशिष्यप्रधर्षणम्
व्रज त्वं देवलोकं स्वं तिष्ठ धर्ममवाप्स्यसि२८९

शिष्यो हि मे कचः पूर्वं हतो दानवपुंगवैः
विद्यार्थी तनयो ब्रह्मंस्तवायोग्या गतिस्त्विह२९०

श्रुत्वा तु तस्य तद्वाक्यं स्मितं कृत्वावदद्गुरुः
संति चोराः पृथिव्यां येपरद्रव्यापहारिणः२९१

एवं विधानदृष्टाश्च रूपदेहापहारिणः
वृत्रघातेन चेंद्रस्य ब्रह्महहत्या पुराभवत्२९२

लोकायतिक शास्त्रेण भवता सा तिरस्कृता
जानामि त्वामांगिरसं देवाचार्यं बृहस्पतिम्२९३

मद्रूपधारिणं प्राप्तं सर्वे पश्यत दानवाः
एष वो मोहनायालं प्राप्तो विष्णुविचेष्टितैः२९४

तदेनं शृंखलैर्बद्ध्वा क्षिपेत लवणार्णवे
पुनरेवाब्रवीच्छुक्रः पुरोधायं दिवौकसाम्२९५

मोहितानूनमेतेन क्षयं यास्यथ दानवाः
भो अहं दानवेंद्रेह वंचितोऽस्मि दुरात्मना२९६

किमर्थं भवता त्यक्तः कृतश्चान्यः पुरोहितः
देवाचार्यॐगिरःपुत्रएषएवबृहस्पतिः२९७

वंचितोसि न संदेहो हितार्थं तु दिवौकसाम्
त्यजस्वैनं महाभाग शत्रुपक्षजयावहम्२९८

अनुशिष्यभयाद्यातः पूर्वमेवमहं प्रभो
जलमध्येस्थितः पीतो महादेवेन शंभुना२९९

उदरस्थस्य मे जातं साग्रं वर्षशतं किल
उदराच्छुक्ररूपेण शिश्नेनाहं विसर्जितः३०० 1.13.300

वरदः प्राह मां देवश्शुक्रेष्टं त्वं वरं वृणु
मयावृतो वरं राजन्देवदेवः पिनाकधृत्३०१

मनसा चिंतिता ह्यर्था मानसे ये स्थिता वराः
भवंतु मयि ते सर्वे प्रसादात्तव शंकर३०२

एवमस्त्विति देवेन प्रेषितोऽस्मि तवांतिकम्
तावदत्राभवच्चायं पुरोधास्ते बृहस्पतिः३०३

दृष्टः सत्यं दानवेंद्र मयोक्तं त्वं निशामय
बृहस्पतिस्तदा वाक्यं प्रह्लादं प्रत्यभाषत३०४

नाहमेतं प्रजानामि देवं वा दानवं नरम्
मद्रूपधारिणं राजन्वंचनार्थं तवागतम्३०५

ततस्ते दानवाः सर्वे साधुसाध्विति वादिनः
पुरोधाः पौर्विको नोस्तु यो वा को वा भवत्विति३०६

नानेन कार्यमस्माकं या तु ह्येष यथागतः
सक्रोधमशपत्काव्यो दानवेंद्रान्समागतान्३०७

त्यक्तो यथाहं युष्माभिस्तथा सर्वांश्चिरादिव
गतश्रीकान्गतप्राणान्पश्येयं दुःखजीविकान्३०८

सुघोरामापदं प्राप्तानचिरादेव सर्वशः
एवमुक्त्वा गतः काव्यो यदृच्छातस्तपोवनम्३०९

तस्मिन्गते ततः शुक्रे स्थितस्तत्र बृहस्पतिः
पालयन्दानवांस्तत्र किंचित्कालमतिष्ठत३१०

ततो बहुतिथे काले अतिक्रांते नरेश्वर
संभूय दानवाः सर्वे पर्यपृछंस्तदा गुरुम्३११

संसारेस्मिन्नसारे तु किंचिज्ज्ञानं प्रयच्छ नः
येन मोक्षं व्रजामश्च प्रसादात्तव सुव्रत३१२

ततः सुरगुरुः प्राह काव्यरूपी तदा गुरुः
ममाप्येषा मतिः पूर्वं या युष्माभिरुदाहृता३१३

क्षणं कुर्वंतु सहिताश्शुचीभूय समाहिताः
ज्ञानं वक्ष्यामि वो दैत्या अहं वै मोक्षदायि यत्३१४

एषा श्रुतिर्वैदिकी या ऋग्यजुःसामसंज्ञिता
वैश्वानरप्रसादात्तु दुःखदा प्राणिनामिह३१५

यज्ञश्राद्धं कृतं क्षुद्रैरैहिकस्वार्थतत्परैः
ये त्वमी वैष्णवा धर्मा ये च रुद्रकृतास्तथा३१६

कुधर्मा दारसहितैर्हिंसाप्रायाः कृताहितैः
अर्द्धनारीश्वरो रुद्र कथं मोक्षं गमिष्यति३१७

वृतो भूतगणैर्भूरिभूषितश्चास्थिभिस्तथा
न स्वर्गो नैव मोक्षोत्र लोकाः क्लिश्यंति वै तथा३१८

हिंसायामास्थितो विष्णुः कथं मोक्षं गमिष्यति
रजोगुणात्मको ब्रह्मा स्वां सृष्टिमुपजीवति३१९

देवर्षयोथ ये चान्ये वैदिकं पक्षमाश्रिताः
हिंसाप्रायाः सदा क्रूरा मांसादाः पापकारिणः३२०

सुरास्तु मद्यपानेन मांसादा ब्राह्मणास्त्वमी
धर्मेणानेन कः स्वर्गं कथं मोक्षं गमिष्यति३२१

यच्च यज्ञादिकं कर्म स्मार्तं श्राद्धादिकं तथा
तत्र नैवापवर्गोस्ति यत्रैषा श्रूयते श्रुतिः३२२

यज्ञं कृत्वा पशुं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्
यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते३२३

यदि भुक्तमिहान्येन तृप्तिरन्यस्य जायते
दद्यात्प्रवसतः श्राद्धं न स भोजनमाहरेत्३२४

आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात्
तेषां न विद्यते स्वर्गो मोक्षो नैवेह दानवाः३२५

जातस्य जीवितं जंतोरिष्टं सर्वस्य जायते
आत्ममांसोपमं मांसं कथं खादेत पंडितः३२६

योनिजास्तु कथं योनिं सेवंते जंतवस्त्वमी
मैथुनेन कथं स्वर्गं यास्यंते दानवेश्वर
मृद्भस्मना यत्रशुद्धिस्तत्र शुद्धिस्तु का भवेत्३२७

विपरीततमं लोकं पश्य दानव यादृशम्
विण्मूत्रस्य कृतोत्सर्गे शिश्नापाने तु शोधनम्३२८

भुक्ते वा भोजने राजन्कथं नापानशिश्नयोः३२९

क्रियते शोधनं तद्वद्विपरीता स्थितिस्त्वियम्
यत्र प्रक्षालनं प्रोक्तं तत्र तेनैव कुर्वते३३०

तारां बृंहस्पतेर्भार्यां हृत्वा सोमः पुरा गतः
तस्यां जातो बुधः पुत्रो गुरुर्जग्राह तां पुनः३३१

गौतमस्य मुनेः पत्नीमहल्यां नाम नामतः
अगृह्णात्तां स्वयं शक्रः पश्य धर्मो यथाविधः३३२

एतदन्यच्च जगति दृश्यते पापदायकम्
एवंविधो यत्र धर्मः परमार्थो मतस्तु कः३३३

वदस्व त्वं दानवेंद्र वद भूयो वदामि ते
गुरोस्तु गदितं श्रुत्वा परमार्थान्वितं वचः३३४

जातकौतूहलास्तत्र विविक्तास्तु भवार्णवात्
दानवा ऊचुः
दीक्षयस्व गुरो सर्वान्प्रपन्नान्भक्तितः स्थितान्३३५

येन वै न पुनर्मोहं व्रजामस्तव शासनात्
सुविरक्ताः स्म संसारे शोकमोहप्रदायिनि३३६

उद्धरस्व गुरो सर्वान्केशाकर्षेण कूपतः
कस्य देवस्य शरणं गच्छामो ब्राह्मणोत्तम३३७

दैवतं च प्रपन्नानां प्रकाशय महामते
स्मरणेनोपवासेन ध्यानधारणया तथा३३८

पूजोपहारे च कृते अपवर्गस्तु लभ्यते
विरक्तास्स्म कुटुंबे तु भूयो नात्र यतामहे३३९

एवं चैव गुरुश्छन्नस्तैरुक्तो दनुपुंगवैः
चिंतयामास तत्कार्यं कथमेतत्करोम्यहम्३४०

कथमेते मया पापाः कर्तव्या नरकौकसः
विडंबनाच्छ्रुतेर्बाह्यास्त्रैलोक्ये हास्यकारिणः३४१

इत्युक्त्वा धिषणो राजंश्चिन्तयामास केशवम्
तस्य तच्चिंतितं ज्ञात्वा मायामोहं जनार्दनः३४२

समुत्पाद्य ददौ तस्य प्राह चेदं बृहस्पतिम्
मायामोहोयमखिलांस्तान्दैत्यान्मोहयिष्यति३४३

भवता सहितः सर्वान्वेदमार्गबहिष्कृतान्
एवमादिश्य भगवानंतर्द्धानं जगाम ह३४४

तपस्यभिरतान्सोथ मायामोहो गतोऽसुरान्
तेषां समीपमागत्य बृहस्पतिरुवाच ह३४५

अनुग्रहार्थं युष्माकं भक्त्या प्रीतस्त्विहागतः
योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपत्रधरो ह्ययम्३४६

इत्युक्ते गुरुणा पश्चान्मायामोहोब्रवीद्वचः
भो भो दैत्याधिपतयः प्रब्रूत तपसि स्थिताः३४७

एहिकार्थं तु पारक्यं तपसः फलमिच्छथ
दानवा ऊचुः
पारक्यधर्मलाभाय तपश्चर्या हि नो मता३४८।

अस्माभिरियमारब्धा किं वा तत्र विवक्षितम्
दिगंबर उवाच
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ३४९

आर्हतं सर्वमेतच्च मुक्तिद्वारमसंवृतम्
धर्माद्विमुक्तेरर्होयं नैतस्मादपरः परः३५० 1.13.350

अत्रैवावस्थिताः स्वर्गं मुक्तिं चापि गमिष्यथ
एवंप्रकारैर्बहुभिर्मुक्तिदर्शनवर्जितैः३५१

मायामोहेन ते दैत्याः वेदमार्गबहिष्कृताः
धर्मायैतदधर्माय सदेतदसदित्यपि३५२

विमुक्तये त्विदं नैतद्विमुक्तिं संप्रयच्छति
परमार्थोयमत्यर्थं परमार्थो न चाप्ययम्३५३

कार्यमेतदकार्यं हि नैतदेतत्स्फुटं त्विदम्
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोयं बहुवाससाम्३५४

इत्यनेकार्थवादांस्तु मायामोहेन ते यतः
उक्तास्ततोऽखिला दैत्याः स्वधर्मांस्त्याजिता नृप३५५

अर्हध्वं मामकं धर्मं मायामोहेन ते यतः
उक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेभवन्३५६

त्रयीमार्गं समुत्सृज्य मायामोहेन तेसुराः
कारितास्तन्मया ह्यासंस्तथान्ये तत्प्रबोधिताः३५७

तैरप्यन्ये परे तैश्च तैरन्योन्यैस्तथापरे
नमोऽर्हते चेति सर्वे संगमे स्थिरवादिनः३५८

अल्पैरहोभिः संत्यक्ता तैर्दैत्यैः प्रायशस्त्रयी
पुनश्च रक्तांबरधृन्मायामोहो जितेक्षणः३५९

सोन्यानप्यसुरान्गत्वा ऊचेन्यन्मधुराक्षरम्
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थाय वा पुनः३६०

तदलं पशुघातादि दुष्टधर्मैर्निबोधत
विज्ञानमयमेतद्वै त्वशेषमधिगच्छत३६१

बुध्यध्वं मे वचः सम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्
जगदेतदनाधारं भ्रांतिज्ञानानुतत्परम्३६२

रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसंकटे
नानाप्रकारं वचनं स तेषां मुक्तियोजितम्३६३

तथा तथावदद्धर्मं तत्यजुस्ते यथायथा
केचिद्विनिंदां वेदानां देवानामपरे नृप३६४

यज्ञकर्मकलापस्य तथा चान्ये द्विजन्मनाम्
नैतद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसा धर्माय जायते३६५

हवींष्यनलदग्धानि फलान्यर्हंति कोविदाः
निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते३६६

स्वपिता यजमानेन किं वा तत्र न हन्यते
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेद्यदि३६७

दद्याच्छ्राद्धं प्रवसतो न वहेयुः प्रवासिनः
यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येंद्रेण भुज्यते३६८

शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः
जना श्रद्धेयमित्येतदवगम्य तु तद्वचः३६९

उपेक्ष्य श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्
न ह्याप्तवादा नभसो निपतंति महासुराः३७०

युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः
दानवा ऊचुः
तत्ववादे वयं सर्वे प्रपन्नास्तव भक्तितः३७१

कुरुष्वानुग्रहं चाद्य प्रसन्नोसि यदि प्रभो
संभारानाहरामोद्य दीक्षायोग्यांश्च सर्वशः३७२

प्रसादात्तव येनाशु मोक्षो हस्तगतो भवेत्
ततस्तानब्रवीत्सर्वान्मायामोहोसुरांस्तदा३७३

प्रपन्नः शासनं ह्येष मदीयो गुरुरग्र्यधीः
दीक्षां दास्यति युष्माकं निदेशान्मम सत्तमः३७४

एतान्दीक्षय भो ब्रह्मन्वचनान्मम पुत्रकान्
गते मोहे दानवास्ते भार्गवं वाक्यमब्रुवन्३७५

देहि दीक्षां महाभाग सर्वसंसारमोचनीम्
तथेत्याहोशना दैत्यान्गच्छामो नर्मदामनु३७६

भोभोस्त्यजत वासांसि दीक्षां कारयितास्मि वः
एवं ते दानवा भीष्म भृगुरूपेण धीमता३७७

आंगिरसेन ते तत्र कृता दिग्वाससोसुराः
बर्हिपिच्छध्वजं तेषां गुंजिका चारुमालिकां३७८

दत्वा चकार तेषां तु शिरसो लुंचनं ततः
केशस्योत्पाटनं चैव परमं धर्मसाधनम्३७९

धनानामीश्वरो देवो धनदः केशलुंचनात्
सिद्धिं परमिकां प्राप्ताः सदा वेषस्य धारणात्३८०

नित्यत्वं लभ्यते ह्येवं पुरा प्राहार्हतः स्वयम्
वालोत्पाटेन देवत्वं मानुषैर्लभ्यते त्विह३८१

किं न कुर्वीत तत्तस्मान्महापुण्यप्रदं यतः
मनोरथो हि देवानां लोके वै मानुषे कदा३८२

अस्मिन्स्याद्भारते वर्षे जन्मनः श्रावके कुले
तपसा युञ्ज्महेस्मान्वै केशोत्पाटनपूर्वकम्३८३

तीर्थंकराश्चतुर्विंशत्तथा तैस्तु पुरस्कृताः
छायाकृतं फणींद्रेण ध्यानमार्गप्रदर्शकम्३८४

स्तुवन्तं मंत्रवादेन स्वर्गो हस्तगतोर्हतं
मोक्षो वा भविता नूनं विचारः कोत्र कथ्यते३८५

कदा स्यामर्षयो भूत्वा सूर्याग्निसमतेजसः
जप्त्वा विरागिणश्चैवमनुपंचांगकं तथा३८६

तथा तपस्यतां मृत्युं गतानां कालपर्ययात्
पाषाणेन शिरोभग्नं भवते पुण्यकर्मणाम्३८७

अरण्ये निर्जने वासःकदा वै भविता हि नः
कर्णजप्यं श्रावकाश्च करिष्यंति समाहिताः३८८

भोभो ऋषे न गंतव्यं मोक्षमार्गी यतो भवान्
लब्धानि यानि स्थानानि भूयोवृत्तिकराणि च३८९

त्याज्यानि तेन चैतानि सत्यमेव वचो हि नः
अस्मदीयेन तपसा नियमैर्विविधैस्तथा३९०

व्रजध्वं चोत्तमं स्थानं मोक्षमार्गं च यं बुधाः
विंदंति भक्तिभावेन तपोयुक्तास्तपस्विनः३९१

अक्षेषु निग्रहो यत्र दयाभूतेषु सर्वदा
तत्तपोधर्ममित्युक्तं सर्वा चान्या विडंबना३९२

ज्ञात्वैतद्भवता साध्यं गंतव्यं परमं पदम्
यां वै तीर्थंकरा याता यां गतिं योगिनो गताः३९३

एवं वै देवताः पूर्वं विद्याधरमहोरगाः
मनोरथाभिलाषांस्ते चिंतयंतो दिवानिशम्३९४

यद्येषणा वै युष्माकं संसारविरतौ कृता
परित्यजध्वं दाराणि स्वर्गमार्गार्गलानि च३९५

यस्यां योनौ पिता यातस्तां योनिं सेवसे कथम्
आत्ममांसोपमं मांसं कथं खादंति जंतवः३९६

ततस्ते दानवा भीष्मा ऊचुः सर्वे गुरुं वचः
दीक्षस्व नो महाभाग भ्रूणकानग्रतः स्थितान्३९७

तथा कृत्वा स तानाह समयेन पुरोहितः
प्रणामो नान्यदेवेषु कर्तव्यो वः कदाचन३९८

एकस्थाने यदा भक्तं भोक्तव्यं करसंपुटे
तत्रस्थाने स्थितं तोयं केशकीटविवर्जितम्३९९

तुल्यं प्रियाप्रियं कार्यं नान्यदृष्टिहतं क्वचित्
भोक्तव्यमेतेन विभो आचारेण तथा कुरु४०० 1.13.400

भवध्वं सहिता यूयं ते तथा मोक्षभागिनः
एवमुक्त्वा स नियमान्कृत्वा तान्दनुपुंगवान्४०१

जगाम धिषणो राजन्देवलोकं दिवौकसाम्
आचचक्षे स तत्सर्वं दानवानां च कारितम्४०२

ततस्ते त्वसुरा जग्मुर्नर्मदामभितो वसन्
दृष्ट्वा तान्दानवांस्तत्र प्रह्लादेन विना कृतान्४०३

देवराजस्ततो हृष्टो नमुचिं प्राह वै वचः
हिरण्याक्षं यज्ञहनं धर्मघ्नं वेदनिंदकम्४०४

राक्षसं क्रूरकर्माणं प्रघसं विघसं तथा
मुचिं चैव तथा बाणं विरोचनमथापि वा४०५

महिषाक्षं बाष्कलं च प्रचंडं चंडकं तथा
रोचमानं तथात्युग्रं सुषेणं दानवोत्तमम्४०६

एतान्दृष्ट्वा तथा चान्यान्दानवेंद्रानथाब्रवीत्
इन्द्र उवाच
दानवेंद्राः पुरा जाताः कृतं राज्यं त्रिविष्टपे४०७

इदानीं कथमेवेदं व्रतं वेदविलोपकम्
भवद्भिः कर्तुमारब्धं नग्नमुंडिकमंडलु४०८

मयूरध्वजधारित्वं कथं चैवेह तिष्ठथ
दानवा ऊचुः
त्यक्तः सर्वासुरभाव ऋषिधर्मे वयं स्थिताः४०९

धर्मवृद्धिकरं कर्म चरामः सर्वजंतुषु
त्रैलोक्यराज्यमखिलं भुंक्ष्व शक्र व्रजस्व च४१०

तथेति चोक्त्वा मघवा पुनर्यातस्त्रिविष्टपम्
एवं ते मोहिताः सर्वे भीष्म देवपुरोधसा४११

नर्मदा सरितं प्राप्य स्थिता दानवसत्तमाः
ज्ञात्वा शुक्रेण ते सर्वे वृत्तांतमनुबोधिताः४१२

तदा त्रैलोक्यहरणे चक्रुः क्रूरां पुनर्मतिम्४१३

इति श्रीपद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे अवतारचरितंनाम त्रयोदशोऽध्यायः।१३।

________________________

 ( ब्रह्मा द्वारा पुष्कर क्षेत्र में यज्ञायोजन-)

अंगुलीयैः सकटकैर्मुकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं१०३

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः१०४

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः१०५

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः१०६

____________________

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः१०७

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं१०८

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः१०९

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्११०

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्१११

_______

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः११२

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता११३

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता११४

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु११५

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या११६

_____________________

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा११७

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा११९

______________

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः१२०

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह१२१

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं१२२

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्१२३

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते१२४

_________,,,,

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः१२५।

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।


एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह१२७

______________________________

एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय१२८

यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय१२९

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह१३०

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः१३१

____________

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।


न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना               ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम्१३३

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्१३४

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्१३५

तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यते
योषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः१३६

सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमः
नीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां१३७

त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव१३८

प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता१३९

कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं१४०

पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्१४१

तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते१४२

दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ१४३

कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ१४४

कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि१४५

तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः१४६

वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता१४७

करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः१४८

निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्१४९

देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा१५० 1.16.150


त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः१५१

इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि१५२

यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्१५३

न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने१५४

उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती१५५

____________

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्१५६

दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्१५७

एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः१५८

नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्१५९

यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते१६०

का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल१६१

प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते१६२

धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति१६३

इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले१६४

___

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्१६५

कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्१६६

मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्१६७

_________

तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत१६८

यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि१६९

अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्१७०

भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः१७१

सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्१७२

लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा१७३

तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते१७४

अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी१७५

कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्१७६

अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्१७७

अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्१७८

त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्१७९

शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते१८०

समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः१८१

विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्१८२

यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः१८३

____________

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः१८४

देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्१८५

तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्१८६

अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः१८७

तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय१८८

मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः१८९

औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते१९०

प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्१९१।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः।१६।

_____________________________________________ पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -

भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।

_________आभीरस्य कन्या गायत्री________

गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।

______________________________________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

अनुवाद-

आये हुए सभी गोपों ने ब्रह्मा के समीप गायत्री को देखकर उस मेखलाबँधी हुई यज्ञ के समीप में 

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

अनुवाद-

हाय पुत्री इस प्रकार तब माता- पिता बहिन- बन्धु और उसकी सभी सखीयों ने कहा हाय सखी -

___

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

अनुवाद-

हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसने हटा दिया गया है ।

__________________________________________________________

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

अनुवाद-

किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के  विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-

              (स्वयं हरिर् उवाच)

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।

अनुवाद-

स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है  ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।

______________________________________
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

अनुवाद-

यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुणे वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

अनुवाद-

इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो  यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।


योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

अनुवाद-

हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए  प्राप्त नहीं करते हैं ।

______
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चयेे।१५।

अनुवाद-

धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको  जानकर ही मैने  ब्रह्मा को पत्नी रूप में  इस कन्या का दान किया है ।१५।

_______________________________________

इसी क्रम में विष्णु का गोपों को'  उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने  का वचन देना-

______________

अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अनुवाद –

इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं ‌। (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा। 

________________________ 
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद –

मैं अवतरण करुँगा वह लीला भविष्य में होगी जब नन्द आदि भी पृथ्वी पर अवतरण करेंगे।१७।


करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।

अनुवाद-

आप लोगों के मध्य में रहकर मैं अनेक लीला करूँगा  और तुम्हारी कन्याऐं सभी मेरे साथ निवास करेंगीं ।१८।

______________

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

अनुवाद-

वहाँ कोई दोष  नहीं होगा और ना ही द्वेष और ईर्ष्या कोई करेगें  वहाँ गोप मनुष्य भी कोई भय नहीं करेंगे-।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

अनुवाद-

और न इसमें कर्म के द्वारा  कोई दोष होगा !  तब विष्णु का वचन सुनकर और  विष्णु भगवान को प्रणाम करके सभी आभीर( गोप) चले गये।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

अनुवाद-

इस प्रकार यह वरदान जो दिया है वह निश्चय ही मेरा वरदान होगा। हे प्रभु ! आप  हमारे कुल में धर्म को साधने के लिए अवतरण करने योग्य ही है ।२१।

__________________

भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

अनुवाद-

हे प्रभु ! आपके दर्शन से ही  हम सब लोग । स्वर्ग केेेे निवासी हुए हैं ; और शुभ ही शुुभ देेेेने वाली ये कन्या , साथ ही हम अहीरों के कुल (वंश) का भी तारण करने वाली हुई।२२।


एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

अनुवाद- देवों के ईश्वर विभो ! तुम्हारा वरदान ऐसा ही हो ! (अनुनीता:- कृतानुनये यस्य सान्त्वनार्थं विनयादिकं क्रियते तस्मिन् अनुनीता:) अर्थात् गोपों को सान्त्वना देते हुए विनययुक्त स्वयं देव विष्णु के द्वारा इसका अनुमोदन किया गया।२३।

अनुनीत-विनयपूर्वक सत्कार जिनका किया गया वे गोप।

___________________________

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम् 
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

अनुवाद-

ब्रह्मा जी के द्वारा भी ऐसा ऐसा ही हो ! अपने बायें हाथ के द्वारा सूचित करते हुए कहा ; वह उत्तम कन्या अपने बान्धवों को देखने पर लज्जा युक्त होगयी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

 जिस ब्रह्मा द्वारा मुझे वरण किया यह समाख्यात  किसने किया । इस देश से आये हुए देखकर

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

_________________________________

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३


कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः३४

उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि३५

कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज३६

कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः
एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः३७

तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्३८

उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः३९

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः४०

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः४१

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम् ४२

तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो४३

पंचाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नांतः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः४४

नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्४५

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः४६

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्४७

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्४८

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्४९

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो५० 1.17.50

_______________
ब्रह्मोवाच
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह५१

एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत५२

ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना५३

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने५४

संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः५५

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च५६

अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः५७

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्५८

पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः५९

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि६०

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा६१

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये६२

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः६३

ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तुु६४

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः६५

स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्६६

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्६७

मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः६८

दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्६९

ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः७०

वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति७१

सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताः
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः७२

आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्७३


तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।

एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः७६

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्७७

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्७८

शांता दांता द्विजा ये तु भक्तिमंतो मयि स्थिराः
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।

अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्८०

नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्८१

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः८२

विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः८३

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे८४

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः८५

एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे८६

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्८७

यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वो द्विजाः८८

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः८९

कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति९०

बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्९१

मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं च भविष्यति
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिं तामवैक्षत९२

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते९३

एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः९४

न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे९५

वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे९६

रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिकाा९७

प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि९८

तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे९९

अतः परं प्रवक्ष्यामि सावित्र्या ब्रह्मणा सह
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्१०० 1.17.100

__________________
सावित्रीगमने सर्वा आगता देवयोषितः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना विष्णुपत्नी यशस्विनी।१०१।


आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता
मदिरा च महाभागा योगनिद्रा विभूतिदा।१०२।

श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः१०३

सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी१०४

जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे१०५

गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः१०६

स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना१०७

मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः१०८
सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा१०९
राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति११०
अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया१११
काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्११२
आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना११३
करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा११४
उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रं शृंगाटकं तथा११५
कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च
अक्षोटामलकान्गृह्य जंबीराणि तथापरा११६
बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुंभकं तथा११७
एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः
सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः११८।


सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति११९
त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः१२०
पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः१२१
वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका१२२।


मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।

___________     
शक्रेणान्याहृताभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।


कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।


वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।


पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।

पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।


द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।१२९।

पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।१३०।


कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः१३१
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा१३२
उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता१३३
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्१३४
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता१३५
यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि१३६
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो१३७
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः१३८
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो१३९
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्१४०
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
ब्रह्मोवाच
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्१४१
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना१४२
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते१४३
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
पुलस्त्य उवाच
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता१४४
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च१४५
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव१४६
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्१४७

_____________
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्१४८
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्१४९
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे१५० 1.17.150


शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।१५१।
भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः१५२
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।१५३।

___________
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि१५४
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर१५५
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति१५६
विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः
गंगाद्वारे स्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति१५७
अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्१५८
जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति
अमेध्येषु च ते जिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति१५९
ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्री वै शशाप ह
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रो वृथाटव्याश्रयास्तथा।१६०।

सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ
परान्नेषु सदा तृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च।१६१।
अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा१६२
प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा।१६३।
ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा
शापं दत्वा तथा तेषां निष्क्रांता सदसस्तथा१६४
ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदा सा च व्यवस्थिता
लक्ष्मीं प्राह सतीं तां च शक्रभार्यां वराननाम्१६५
युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि संसदि
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न च ध्वनिम्१६६
ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता१६७
यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः
तासामपि तथा शापं प्रदास्ये कुपिता भृशम्१६८
नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यति कदाचन
क्षुद्रा सा चलचित्ता च मूर्खेषु च वसिष्यति१६९
म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि१७०
एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिः शापकारिता
शापं दत्वा ततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा१७१
ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ ते दुःखभागिनि
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति१७२
अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि१७३
नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते१७४
देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ१७५
दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी१७६
रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता
मा रोदीस्त्वं विशालाक्षि एह्यागच्छ सदा शुभे१७७
प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणि पादौ च प्रणमामि ते१७८
एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न वै ध्वनिम्१७९
एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता
विष्णुस्तदग्रतः स्थित्वा बध्वा च करसंपुटं१८०
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः
विष्णुरुवाच
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता१८१
सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापि येषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः१८२
स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः
सावित्री पुष्करे नाम तीर्थानां प्रवरे शुभे१८३
वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने१८४
मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथांबरे
गोमंते गोमती नाम मंदरे कामचारिणी१८५
मदोत्कटा चैत्ररथे जयंती हस्तिनापुरे
कान्यकुब्जे तथा गौरी रंभा मलयपर्वते१८६
एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका१८७
नंदा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वके बिल्वपत्रिका१८८
श्रीशैले माधवीदेवी भद्रा भद्रेश्वरी तथा
जया वराहशैले तु कमला कमलालये१८९
रुद्रकोट्यां तु रुद्राणी काली कालंजरे तथा
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी१९०
शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगे जलप्रिया
मायापुर्यां कुमारी तु संताने ललिता तथा१९१
उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे१९२
विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी१९३
विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने१९४
कुब्जाम्रके त्रिसंध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे१९५
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृंदावने तथा
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी१९६
चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चंद्रे तु चंद्रिका१९७
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके१९८
अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे१९९
मांडव्ये मांडवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे
वेगले तु प्रचंडाथ चंडिकामरकंटके२०० 1.17.200
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती
देवमाता सरस्वत्यां पारापारे तटे स्थिता२०१
महालये महापद्मा पयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी२०२
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे२०३
जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमंडले२०४
भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे२०५
शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिः पिंडारके तथा
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी२०६
वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका२०७
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये२०८
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती२०९
सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा
अरुंधती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा२१०
चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं२११
अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते२१२
येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्२१३
नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ
पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः२१४
गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति२१५
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्यो भविष्यसि२१६
अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः
इह चागत्य यो मां तु स्तवेनानेन संस्तुयात्२१७
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति
गच्छ यज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक२१८
कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी
समीपगा स्थिता भर्त्तुः करिष्ये तव भाषितम्२१९
एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्२२०
शृण्वंतु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता२२१
ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः
तेषां वस्त्रं धनं धान्यं दाराः सौख्यं धनानि च२२२
अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति२२३
पुलस्त्य उवाच
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु२२४
सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया२२५
पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः२२६
प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः२२७
कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता
यां कृत्वा मानवा भक्त्या संयांति ब्रह्मलोकताम्२२८
कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप२२९
भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप२३०
ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शांडिलेयं प्रपूज्य च
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः२३१
रथाग्रे शांडिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्२३२
देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः२३३
कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः२३४
पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च२३५
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे२३६
विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्
बह्वृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा२३७
भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु२३८
न वोढव्यो रथो वीर शूद्रेण हितमिच्छता
न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः२३९
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप
भोजकं वामपार्श्वे तु पुरतः पंङ्कजं न्येसेत्२४०
एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्२४१
स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः
य एवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापि पश्यति२४२
रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं२४३
शालायां ब्रह्मणः कुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः२४४
तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी२४५
ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः२४६
स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा२४७
तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप२४८
भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनं२४९
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्२५० 1.17.250
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन२५१
कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप२५२
बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी

______________      
गायत्र्युवाच
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं२५३
न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
मदीयं तु वचः श्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं२५४।


इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति२५५
शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्२५६।।
स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति२५७
मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं२५८
हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ
गृहीत्वा तां पुना राज्यं कृत्वा स्वर्गं गमिष्यसि२५९
एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह२६०
सांतानिका नाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः२६१


गायत्री तु तदा रुद्रं वरदा प्रत्यभाषत
पतितेपि च ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः२६२
ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके२६३
यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव२६४
पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः२६५
त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयि ध्रुवम्२६६
भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं२६७
युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः२६८
अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते२६९
ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैव पितामहाः२७०
यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ२७१

________   
विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः२७२
पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोट्याः फलमवाप्स्यते२७३
ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्२७४
मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति२७५
दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हंति किल्बिषं२७६
एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा२७७
प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धं जप्त्वा विशेषतः
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वा मां शिरसा सह२७८
अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता२७९
जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति२८०
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी२८१

____________
यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तः सदस्यथ
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्।२८२।


दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः।२८३।

स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च।२८४।


ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणः पार्श्वगाऽभवत्२८५।


चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्
युवतीनां च सर्वासां शापान्ज्ञात्वा पृथक्पृथक्२८६।


लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना२८७
शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी
ये त्वया वीक्षिताः पुत्रि सर्वे ते पुण्यभोजनाः२८८
परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने२८९
सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः२९०
सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना२९१
त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते२९२
एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः२९३
इंद्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति
त्वद्दृष्ट्या तु हतः पापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्२९४
सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव२९५
वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति२९६
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनंदनः
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति२९७
तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्२९८
प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने
पुलस्त्य उवाच
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः२९९
अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता३०० 1.17.300
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी
समाप्तिं तस्य यज्ञस्य कांक्षंती ब्रह्मणः प्रिया३०१
वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह३०२।

________________________
रुद्र उवाच
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा३०३।


सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च३०४
भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते३०५
श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ३०६
एणशृंगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा३०७
शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता३०८
चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता३०९
भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ३१०
जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी३११
विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा३१२
त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी३१३
पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति
ज्येष्ठे मासे पौर्णमास्यामग्र्यां पूजां च लप्स्यसे३१४
ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा३१५
कांतारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्३१६
त्वं सिद्धिः श्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च३१७
अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना३१८
जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे३१९
बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी३२०
नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च३२१
ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः३२२
अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा
सिद्धिस्त्वं हि नृपाणां च वेला सागरजा मता३२३
ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता
ज्योतिषां च प्रभा देवी लक्ष्मीर्नारायणे स्थिता३२४
क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च३२५
पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी३२६
इंद्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा३२७
कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा३२८
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यां सुपूजिता३२९
सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः३३०
सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः
गायत्र्युवाच
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्३३१
विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्रीविवादगायत्रीवरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७।


पद्भ्याञ्चाश्चान् समातङ्गान् शरभान् गवयान् मृगान्।
उष्ट्रानश्चतरांश्चैव ताश्वान्याश्चैव जातयः ।।४०।

ओषध्यः फलमूलानि रोमतस्तस्य जज्ञिरे।
एवं पश्वोषधीः सृष्ट्वा न्ययुञ्जत्सोऽध्वरे प्रभुः ।।४१।।
____________________
तस्मादादौ तु कल्पस्य त्रेतायुगमुखे तदा।
गौरजः पुरुषो मेषो ह्यश्वोऽश्वतरगर्द्दभौ।
एतान् ग्राम्यान् पशूनाहुरारण्यांश्च निबोधत ।।४२।।

श्वापदा द्विखुरो हस्ती वानरः पक्षिपञ्चमाः।
उन्दकाः पशवः सृष्टाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ।।४३।।
________________
गायत्रं वरुणञ्चैव त्रिवृत्सौम्यं रथन्तरम्।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् ।।४४।।

छन्दांसि त्रैष्टुभङ्कर्म स्तोमं पञ्चदशन्तथा।
बृहत्साममथोक्थञ्च दक्षिणात्सोऽसृजन्मुखात् ।।४५।।

सामानि जगती च्छन्दस्तोमं पञ्चदशन्तथा।
वैरूप्यमतिरात्रञ्च पश्चिमादसृजन्मुखात् ।।४६।।

एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च।
अनुष्टुभं सवैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् ।।४७।।
विद्युतोऽशनिमेघांश्च रोहितेन्द्रधनूंषि च।
वयांसि च ससर्ज्जादौ कल्पस्य भगवान् प्रभुः ।।४८।।

विश्वरूपमथार्यायाः पृथग्देहविभावनात्।
श्रृणु संक्षेपतस्तस्या यथावदनुपूर्वशः ।।८०।।

____________________________
प्रकृतिर्नियता रौद्री दुर्गा भद्रा प्रमाथिनी।
कालरात्रिर्महामाया रेवती भुतनायिका ।।८१।।
___________________
द्वापरान्तविकारेषु देव्या नामानि मे श्रृणु।
गौतमी कौशिकी आर्या चण्डी कात्यायनी सती ।।८२।।
____________________
कुमारी यादवी देवी वरदा कृष्णपिङ्गला।
बर्हिर्ध्वजा शूलधरा परमब्रह्मचारिणी ।।८३।।

माहेन्द्री चेन्द्रभगिनी वृषकन्यैकवाससी।
अपराजिता बहुभुजा प्रगल्भा सिंहवाहिनी ।।८४।।
एकानसा दैत्यहनी माया महिषमर्द्दिनी।
अमोघा विन्ध्यनिलया विक्रान्ता गणनायिका ।।८५।।
देवीनामविकाराणि इत्येतानि यथाक्रमम्।
भद्रकाल्यास्तवोक्तानि देव्या नामानि तत्त्वतः ।।८६।।

इति श्रीमहापुरणे वायुप्रोक्ते देवादिसृष्टिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ।। ९ ।।