सोमवार, 21 दिसंबर 2020

यदु की लोक-तन्त्र व्यवस्था राजतन्त्र व्यवस्था के विद्रोह की परिणति ही थी....

यादवों के इतिहास के सबसे बड़े विश्लेषक 
और अध्येता परम श्रृद्धेय गुरुवर
 सुमन्त कुमार यादव के श्री चरणों मे श्रृद्धानवत होते हुए 
यह यादवों के पूर्वज व यादव संस्कृति के प्रवर्तक 
 यदु का पौराणिक विवरण जिज्ञासुओं में प्रेषित है 

प्रस्तुति करण :-
यादव योगेश कुमार रोहि

सम्पर्क सूत्र 8077160219...
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यादवों के पूर्वजों का इतिहास पुराणों में भी अल्पान्तरण से वर्णित है ;
 लिंग पुराण में "एल" नामक एक प्राचीनत्तम पुरुष से सेैमेटिक या  कहें सोमवंश का प्रादुर्भाव माना गया है ।
इला का पुत्र एल अर्थात पुरुरवा ।

यद्यपि सेैमेटिक भाषाओं में "एल" एक सेमेटिक संस्कृतियों के सर्वोच्च देवता कि वाचक हैं ।
जिसका पूर्व रूप वेदों में अरि रूप में है ।
जो युद्ध के ईश्वर का वाचक है ।
यद्यपि "एल" के विषय नें भारतीय पुराणों नें वर्णन इस प्रकार है!

जिसके नाम से इलाम प्रांत वर्तमान में  ईरान का एक प्रांत है। जो 2014 में इसको ईरान के क्षेत्रों में शामिल किया गया। .
यही कर्दम पुत्र इल कि राजधानी थी 
बाल्मीकि रामायण को उत्तरकाण्ड के सर्ग 
सैंतालीस (४७ )में राम द्वारा लक्ष्मण को इल कि कथा सुनाने ये प्रसंग में इल के इला नामक स्त्री बनने सा वर्णन है ।

प्राचीन काल में कर्दम को पुत्र इल बाह्लीक(बलख) देश ये राजा थे ।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण में वर्णन है ।

श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापते:।
पुत्रो बाह्लीश्वर: श्रीमानिलो नाम सन धार्मिक:।।३।
(उत्तर काण्ड बाल्मीकि रामायण)

 यही बाह्लीक देश बल्ख नाम से  पश्तो और फारसी : भाषाओं में है ।
प्राचीन यूनानी में  ; बैक्ट्रियन : में एक शहर है 
 बल्ख प्रांत का  ही रूपान्तरण  है।

 बल्खअफगानिस्तान से लगभग 20 कि•मी• (12 मील) के उत्तर पश्चिमी प्रांतीय राजधानी, मजार-ए शरीफ , और अमु दरिया नदी और उजबेकिस्तान सीमा से कुछ 74 किमी (46 मील) दक्षिण में है  ।

 यह ऐतिहासिक रूप से एक प्राचीन केंद्र था 
जो  बौद्ध धर्म और पारसी धर्म और खोरसान के एक  से था ।

परन्तु पुराणों के अनुसार कथा दूसरे प्रकार से भी है 


 ऋग्वेद में इला को 'अन्न' की अधिष्ठातृ' माना गया है, यद्यपि सायण के अनुसार उन्हें पृथिवी की अधिष्ठातृ मानना अधिक उपयुक्त है।

 वैदिक वाङ्मय में इला को मनु को मार्ग दिखलानेवाली एवं पृथिवी पर यज्ञ का विधिवत् नियमन करनेवाली कहा गया है।

 इला के नाम पर ही जंबूद्वीप के नवखंडों में एक खंड 'इलावृत वर्ष' कहलाता है।

 महाभारत तथा पुराणों की परंपरा में इला को बुध की पत्नी एवं पुरूरवा की माता कहा गया है।

  • वैवस्वत मनु के दस पुत्र हुए।
  • उनके एक पुत्री भी थी इला, जो बाद में पुरुष बन गई।
  • वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से मित्रावरुण यज्ञ किया। 
  • उनको पुत्री की प्राप्ति हुई जिसका नाम इला रखा गया। 
  • उन्होंने इला को अपने साथ चलने के लिए कहा किन्तु 'इला' ने कहा कि क्योंकि उसका जन्म मित्रावरुण के अंश से हुआ था,
  •  अतः उन दोंनो की आज्ञा लेनी आवश्यक थी। इला की इस क्रिया से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया।
  • कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया।
_परन्तु बाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के सतासीवाँ सर्ग में इला के जीवन की कुछ दूसरी कथा  है 
जिसके वक्ता राम हैं 
जो लक्ष्मण से स्त्री होने कि कथा कहते हैं ।

कि जब  एक बार इल  वन में शिकार खेलते खेलते  गये।तो अनजाने में ही वह अम्बिका नामक वन में पहुंच गये। जो अम्बिका वन भगवान शिव द्वारा शापित था।
कि इसमें कोई भी पुल्लिंग प्राणी स्त्रीलिंग में रूपान्तरण हो जाएगा ।

 एक बार शिव और पार्वती इस वन में विहार कर रहे थे उसी समय ऋषियों का एक समूह वन में आ पहुंचा। इससे पार्वती लज्जित होगयी।
 शिव जी को वहाँ आगत ऋषियों का अचानक वन में प्रवेश करना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने शाप दे दिया कि, शिव परिवार के अलावा अम्बिका वन में जो भी प्रवेश करेगा वह स्त्री बन जाएगा।

परन्तु बाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि स्वयं शिव भी स्त्री रूप में उस वन में पार्वती के साथ रहते थे 
उस समय कर्दम प्रजापति कि पुत्र  "इल" शिकार खेलते हुए उस वन में प्रवेश कर गया और शिव के प्रभाव से स्त्री रूप में बदल गया ।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण में वर्णन है ।

कृत्वा स्त्री रूपमात्मानम्  उमेशो गोपतिध्वज:।
देव्या: प्रियचिकीर्षु: संस्तस्मिन् पर्वतनिर्झरे।।१२।
( उत्तरकाण्ड वाल्मीकि रामायण सर्ग सत्तासी) 
अर्थात् जिनकी ध्वजा पर बृषभ का चिन्ह सुशोभित होता है; वे भगवान उमावल्लभ अपने आप को भी स्त्री रूप में प्रकट करके देवी पार्वती के साथ प्रिय करने कि इच्छा से वहाँ के पर्वतीय झरने के पास उनके साथ विहार करते थे ।१२।।

उसी वन में इल शिकार करते हुए पहुँच गया 
स दृष्ट्वा स्त्रीकृतं सर्वं सव्यालमृगपक्षिणम्।।१५।
आत्मानं स्त्रीकृतं चैव सानुगं रघुनन्दन।
अर्थात वहाँ जाकर देखा कि सर्प, पशु और पक्षियों सहित उस वन कि सारा प्राण समुदाय स्त्री रूप में परिवर्तित हो गया है।
  हे लक्ष्मण ! उन इल ने  सेवकों सहित अपने आपको भी उन्होने स्त्रीरूप में परिणत हुआ देखा ।।१५।।
(उत्तरकाण्ड वाल्मीकि रामायण सर्ग सत्तासी) 

परन्तु पार्वती से निवेदन करने पर इल के शाप का कुछ सीमा तक परिमार्जन अवश्य हुआ ।
कि वह एक महिने तक स्त्री तो एक महीने तक पुरुष रूप में रह सकता है ।

यदि देवि प्रसन्ना मे रूपेणाप्रतिा भुवि ।।२६।
मासं स्त्रीत्वम् उपासित्वा मासं स्यां पुरुष: पुन:।
 इला ने पार्वतिसे बोला हे देवि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं एक महीने तक भूतल पर अनुपम रूपवती स्त्री के रूप में रहकर फिर एक मास तक पुरुष होकर रहूँ ।२६।।
तभी कुछ समय बाद वन में भ्रम
ण करते हुए इला का आगमन  उस वनप्रान्त में पर्वत के समीप एक सरोवर में जलस्थ तपस्या करते हुए बुध पर पड़ी 
यह सरोवर अम्बिका वन कि सीमा से परे था
परिणाम स्वरूप दोनों कि प्रणय हुआ और 
और इला और बुध के संयोग से पुरुरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।
तत: सा नव मे मासि इला सोम सुतात् सुतम्।
जनयामास सुश्रोणी पुरुरवसम् ऊर्जितम् ।।२३।।
तदन्तर वमन मास में सुन्दरी इला ने सोम पुत्र बुध से एक पुत्र को जन्म दिया जो बड़ा ही तेजस्वी और ऊर्जावान था ।।२३।।
एल पुरुरवा कि मातृ पक्षीय नाम था ।

(वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड नवासीवाँ सर्ग)
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परन्तु लिंग पुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर (झूँसी )
का राजा बताया है ।
जिसके सात पुत्र थे 
आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:
ये सात पुत्र थे ।
आयुष् के पाँच पुत्र थे 
नहुष  इनका ज्येष्ठ पुत्र था 

नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।

(लिंग पुराण के अनुसार)

एलः पुरूरवा नाम रुद्रभक्तः प्रतापवान् ॥
चक्रे त्वकण्टकं राज्यं  पुण्यतमे   देशे  ॥५५॥

उत्तरे यमुनातीरे प्रयागे मुनिसेविते ॥
प्रतिष्ठानाधिपः श्रीमान्प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठितः ॥५६॥

तस्य पुत्राः सप्त भवन्सर्वे वितततेजसः ॥
गंधर्वलोकविदिता भवभक्ता महाबलाः ॥५७॥

आयुर्मायुरमायुश्च विश्वायुश्चैव वीर्यवान् ॥
श्रुतायुश्च शतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुताः ॥५८॥

आयुषस्तनया वीराः पंचैवासन्महौजसः ॥
स्वर्भानुतनयायां ते प्रभायां जज्ञिरे नृपाः ॥५९॥

नहुषः प्रथमस्तेषां धर्मज्ञो लोकविश्रुतः ॥
नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः ॥६०॥

उत्पन्नाः पितृकन्यायं विरजायां महौजसः ॥
यतिर्ययातिः संयातिरायातिः पंचमोऽन्धकः ॥६१॥

विजातिश्चेति षडिमे सर्वे प्रख्यातकीर्तयः ॥
यतिर्ज्येष्ठश्च तेषां वै ययातिस्तु ततोऽवरः ॥६२॥

ज्येष्ठस्तु यतिर्मोक्षार्थो ब्रह्मभूतोऽभवत्प्रभुः ॥
तेषां ययातिः पंचानां महाबलपराक्रमः ॥६३॥

देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः ॥
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः ॥६४॥
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यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ॥
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ ॥६५॥

द्रुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥
ययातये रथं तस्मै ददौ शुक्रः प्रतापवान् ॥६६॥

तोषितस्तेन विप्रेन्द्रः प्रीतः परमभास्वरम् ॥
सुसंगं कांचनं दिव्यमक्षये च महेषुधी ॥६७॥

युक्तं मनोजवैरश्वैयेंन कन्यां समुद्वहन् ॥
स तेन रथमुख्येन षण्मासेनाजयन्महीम् ॥६८॥

ययातिर्युधि दुर्धर्षो देवदानवमानुषैः ॥
भवभक्तस्तु पुण्यात्मा धर्म निष्ठः समंजसः ॥६९॥

यज्ञयाजी जितक्रोधः सर्वभूतानुकंपनः ॥
कौरवाणां च सर्वेषां स भवद्रथ उत्तमः ॥७०॥

यावन्नरेन्द्रप्रवरः कौरवो जनमेजयः ॥
पूरोर्वंशस्य राज्ञस्तु राज्ञः पारिक्षितस्य तु ॥७१॥

जगाम स रथो नाशं शापाद्गर्गस्य धीमतः ॥
गर्गस्य हि सुतं बालं स राजा जनमेजयः ॥७२॥

अक्रूरं हिंसयामास ब्रह्महत्यामवाप सः ॥
स लोहगंधी राजर्षिः परिधावन्नितस्ततः ॥७३॥

पौरजानपदौस्त्यक्तो न लेभे शर्म कर्हिचित् ॥
ततः स दुःखसंतप्तो न लेभे संविदं क्वचित् ॥७४॥

जगाम शौनकमृषिं शरण्यं व्यथितस्तदा ॥
इन्द्रेतिर्नाम विख्यातो योऽसौ मुनिरुदारधीः ॥७५॥

याजयामास चेंद्रेतिस्तं नृपं जनमेजयम् ॥
अश्वमेधेन राजानं पावनार्थं द्विजोत्तमाः ॥७६॥

स लोहगंधान्निर्मुक्त एनसा च महायशाः ॥
यज्ञस्यावभृथे मध्ये यातो दिव्यो रथः शुभः ॥७७॥

तस्माद्वंशात्परिभ्रष्टो वसोश्चेदिपतेः पुनः ॥
दत्तः शक्रेण तुष्टेन लेभे तस्माद्बृहद्रथः ॥७८॥

ततो हत्वा जरासंधं भीमस्तं रथमुत्तमम् ॥
प्रददौ वासुदेवाय प्रीत्या कौरवनंदनः ॥७९॥

               ।।सूत उवाच ॥
अभ्यषिंचत्पुरुं पुत्रं ययातिर्नाहुषः प्रभुः ॥
कृतोपकारस्तेनैव पुरुणा द्विजसत्तमाः ॥८०॥

अभिषेक्तुकामं च नृपं पुरुं पुत्रं कनीयसम् ॥
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा इदं वचनमब्रुवन् ॥८१॥

कथं शुक्रस्य नप्तारं देवयान्याः सुतं प्रभो ॥
ज्येष्ठं यदुमतिक्रम्य कनीयान्राज्यमर्हति ॥८२॥
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( उपर्युक्त रूप नें लिंग पुराण के पूर्व भाग के छ्यासठवें अध्याय में भी यही बात है )

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे 
        षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥६६॥

पुराणों में अत्रि के वंशज सोम  ने बृहस्पति की पुत्री तारा से विवाह किया जिससे उनके बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बाद में सोम वंश का प्रवर्तक हुआ। 

चूंकि सोम अत्रि ऋषि की संतानों में थे इसलिए आत्रेय भी कहलाए

सोम वंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है 

 इस प्रकार अत्रि से सोम, सोम से बुध, बुध से पुरुरवा, और पुरुरवा से आयुस्  आयुस् से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।

पुराणों में नहुष का वर्णन सूर्य और चन्द्र दौनों वंशों में  है ।

नहुषः के विषय में पुराणों तथा वाल्मीकि-रामायण में दो भिन्न  प्रकार से वर्णन है ।

पुराणों में नहुषः पुरुरवा पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोम वंशी ( चन्द्र वंशी) हैं ।


तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी ( हैमेटिक) राजा अम्बरीष के पुत्र होने से सूर्यवंशी हैं।

 नहुष अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे  अंबरीष का पुत्र की नाम नहुष और नहुष कि पुत्र ययाति  था ।

वाल्मकि  रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या  ४१-४२-४३पर देखें ।

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शीघ्रगस्त्वग्रिवर्णस्य शीघ्रगस्य मरु: सुत: ।मरो:प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अम्बरीष: प्रशुश्रुकात्।।४१।।

अम्बरीषस्य  पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:

नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।

नाभागस्य बभूव अज अजाद् दशरथोऽभवत् ।अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।४३।

अनुवाद :-- अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।

और अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। 

नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।

 अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं।

परन्तु भागवत पुराण तथा महाभारत के अनुसार राजा नहुष के पुत्र जो चंद्रवंश के पाँचवें राजा ययाति थे ।

और जिनका विवाह शुक्रचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था वह  ययाति ही यदु के पिता थे ।
जैसा कि संस्कृत ग्रन्थों में वर्णन है ।


चन्द्रवंश्ये नृपभेदे “आयोः पुत्रस्तथा पञ्च सर्वे वीरा महारथाः ।
स्वर्मानुतनयायाञ्च प्रभायां जज्ञिरे नृप!

नहुषः प्रथमं जज्ञे वृद्धशर्मा ततःपरम्” 

(हरिवंश पुराण  २८ अध्याय )

इति हरिवंशोक्तः सूर्य्यवंश्यभगीरथपौत्रः
“अम्बरीष!

विशेष— इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अणु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे।

इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से पौरव वंश का आरंभ हुआ।
शर्मिष्ठा इन्हें विवाह के दहेज मेंं देवयानी स  सेविका के रूप में मिली थी।

इन पात्रों का उल्लेख ऋग्वेद में भी आया है।

महाभारत में इसे चंद्रवंशी आयु राजा का नहुष और  नहुष के छः पुत्रों याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति में से एक थे।

याति राज्य, अर्थ आदि से विरक्त रहते थे इसलिये राजा नहुष  ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके करवा दिया।

ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ।

देवयानी के साथ उनकी सेविका शर्मिष्ठा भी ययाति के भवन में रहने लगे।

ययाति ने शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी की वे देवयानी से भिन्न किसी ओर नारी से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाएंगे।

शुक्र ने ययाति को वचनभंग  होने के कारण शुक्रहीन और वृद्ध होनेका शाप दिया।

इस  प्रकार ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा में तीन और देवयानी में दो पुत्र हुए।
(महाभारत, आदिपर्व, ८१-८८) में ययाति के वैराग्य के प्रसंग में उद्गार हैं 

 भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः

तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।


कालो न यातो वयमेव याताः

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

अर्थात, हमने भोग नहीं भोगे, बल्कि भोगों ने ही हमें भोगा है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम जीर्ण हो गये ।

नहुष प्रसिद्ध सोमवंशी राजा पुरुरवा का पौत्र था।

पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष  और नहुष के छः पुत्रों याति ययाति सयाति अयाति वियाति  तथा कृति उत्पन्न हुए।
नहुष ने स्वर्ग पर भी राज किया था।

आयु का विवाह राहु की पुत्री प्रभा से हुआ था।

नहुष, क्षत्रवृद्ध, रंभ, रजि और अनेनस् नामक आयु राजा के पाँच पुत्र हुए।

उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम था नहुष।
ज्येष्ठ पुत्र होने कारण नहुष राज्य के उतराधिकारी बने। नहुष के एक पुत्र का नाम था ययाति।
ययाति से यदु पैदा हुए जिससे यादव वंश 

 यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए

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 भागवत पुराण के अनुसार  यदु के चार पुत्र थे- सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु।

 सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। 

और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। 

हैहय से धर्म, धर्म से नेत्र, नेत्र से कुन्ति, कुन्ति से सोहञ्जि, सोहञ्जि से महिष्मान और महिष्मान से भद्रसेन का जन्म हुआ।

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्दम और धनक।

 धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य कृताग्नि, कृतवर्मा व कृतौजा। 

कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। अजुर्न ख्यातिप्रात एक-छत्र सम्राट था। 

वह सातों द्वीप का एक-छत्र सम्राट था।

 उसे कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्त्रबाहु अर्जुन कहते थे।

सहस्त्रबाहु अर्जुन के हजारों पुत्रों में से केवल पांच ही जीवित रहे। 

शेष सब परशुराम जी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गए। 

बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु, और ऊर्जित।

जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ और तालजंघ के सौ पुत्र हुए।

 वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाए।

 महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला। 

उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। 

वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।

मधु के सौ पुत्र थे। 

उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि और छोटा परीक्षित।

 इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रूशेकु, रूशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। शशविंदु चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।

शशविंदु के दस हजार पत्नियां थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं।

 इस प्रकार उसके सौ करोड़- एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। 

पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उशना का पुत्र हुआ रूचक।

रूचक के पांच पुत्र हुए, उनके नाम थे- पुरूजित, रूक्म, रूक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ से विदर्भ का जन्म हुआ।

सहस्त्रबाहु अर्जुन के पांच पुत्रों में से उक्त वंश जयध्वज और मथ के थे।

 शूरसेन, वृषभ, और ऊर्जित के भी वंश आगे चले।

शूरसेन की पीढ़ी में ही वासुदेव और कुंति का जन्म हुआ। कुंति तो पांडु की पत्नी बनी जबकि वासुदेव से कृष्ण का जन्म हुआ। कृष्ण से प्रद्युन्न का और प्रद्युन्न से अनिरुद्ध का जन्म हुआ।

( उपरोक्त वर्णन हरिवंश पुराण के अनुसार )

परन्तु भागवत पुराण में भिन्न भिन्न वर्णन है 

(भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अठारहवें अध्याय) में भी यही बात है ।
देखें निम्न श्लोकों में ..

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्यं चानुं च पुरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।33।
भागवत को ही समान 
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 विष्णुपुराण के चतुर्थ अँश अध्याय दश के छठे श्लोक में भी यही बात है ; केवल श्लोक संख्या में भेद है ।

 यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत
 द्गुह्यं चानुं च पूरूं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥६॥
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और हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के तीसवें अध्याय में पञ्चम श्लोक में भी समानता उपरोक्त समानता देखने योग्य  है।

 यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्यं चानुं च पुरुष च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।५।

 इसी से सम्बन्धित तथ्य लिंग पुराण ते निम्न श्लोकों में है इसे पुन: देखें 
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यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ॥
तावुभौ शुभकर्माणौ स्तुतौ विद्याविशारदौ ॥६५॥

द्रुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥
ययातये रथं तस्मै ददौ शुक्रः प्रतापवान् ॥६६॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराणम् नवमः स्कन्धः
अथ अष्टादशोऽध्यायः ययातिचरितम्
।श्रीशुक उवाच। यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः। षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनः॥1 राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्। यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते॥2 पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः। प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥3 चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः। कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥4 ।श्रीराजोवाच। ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः। राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः॥5 ।श्रीशुक उवाच। एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका। सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी॥6 देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसङ्कुले। व्यचरत् कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला॥7 ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः। तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः॥8 वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्। सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः॥9 शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्। स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्॥10 अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम्। अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे॥11 यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये। धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाश्च दर्शितः॥12 यान् वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः। भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः॥13 वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः। अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती॥14 एवं शपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत। रुषा श्वसन्त्युरङ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा॥15 आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि। किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा॥16 एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम्। शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वास आदाय मन्युना॥17 तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्। प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥18 दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे। गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः॥19 तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा। राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय॥20 हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे। एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः। यदिदं कूपलग्नाया भवतो दर्शनं मम॥21 न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज। कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा॥22 ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः। मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः॥23 गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः। न्यवेदयत् ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम्॥24 दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन्। स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्॥25 वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्। गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥26 क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः। कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे॥27 तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्। पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥28 स्वानां तत् सङ्कटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्। देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥29 नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना। तमाह राजञ्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित्॥30 विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्। तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥31 राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्। स्मरञ्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत॥32 यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत। द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥33 गर्भसम्भवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी। देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता॥34 प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन्। न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥35 शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष। त्वां जरा विशतां मन्दविरूपकरणी नृणाम्॥36 ।श्रीययातिरुवाच। अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते। व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति॥37 इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत। यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः॥38 मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्। वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः॥39 ।श्रीयदुरुवाच। नोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव। अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः॥40 तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत। प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥41 अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम्। न त्वमग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥42 ।श्रीपूरुरुवाच। को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान्। प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम्॥43 उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः। अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितुः॥44 इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः। सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप॥45 सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः। यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः॥46 देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः। प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः॥47 अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः। सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्॥48 यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः। नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥49 तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्। नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥50 एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम्। विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥51 इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥
(18वाँ अध्याय समाप्त हुआ)
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 प्राचीन काल में  राजतन्त्र की लोक- परम्परा के अनुसार  किसी राजा का बड़ा पुत्र ही उसके राज्य विरासत का उत्तराधिकारी होता था !

 परन्तु ययाति ने ज्येष्ठ पुत्र  के उन्हें यौवन न देने के कारण यदु से कुपित होकर उसे राजपद  का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया ।

अर्थात् ययाति अपने जिन जिन पुत्रों पर क्रुद्ध हुआ 
उसी उसी पुत्र को ये विरुद्ध भी हुए ।
परन्तु शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (छोटे ) पुत्र पुरु द्वारा पिता को यौवन देने के कारण ययाति ने उसे ही राज पद या अधिकारी घोषित कर दिया ।
यद्यपि तत्कालीन ऋषियों ने ययाति की इस राजतन्त्र व्यवस्था का
विरोध भी किया ।
परन्तु ययाति अपनी
बात पर अडिग रहे 
ययाति के द्वारा यदु और तुरवसु के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने के कारण में निम्न प्रसंग था 
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एक बार जब ययाति की विषयों को भोगों से तृप्ति नहीं हुई  और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को दिये हुए एक पत्नी व्रत या पालन नहीं किया और सेविका रूप नें साथ आयी शर्मिष्ठा ते साथ प्रणय-सम्बन्ध गुप्त रूप से स्थापित कर दिया अथावा शर्मिष्ठा को निवेदन से स्थापित किया ।

महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में बयासीवें अध्याय में यह आख्यान है ।

कि जब देवयानी के साथ शिष्या रूप में आयी हुई शर्मिष्ठा अपनी एक हजार से विकी ओं के साथ देवयानी के अन्त:पुर के ही पास अशोकवाटिका में शहरी हुई थी 
तब एक वार ऋतु काल के उपरान्त उसने राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया था।

ऋतुकालश्च सम्प्राप्तो न च मेस्ति पतिर्वृत: ।
किं प्राप्तं किं नु कर्तव्यं किं वा कृत्वा कृतं भवेत् ।।७।
वैशम्पायन उवाच ||

ययाति: स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनिभम् |

प्रविश्यान्त:पुरं तत्र देवयानीं न्यवेशयत् ||१ ||


देवयान्यश्चानुमते तां सुतां वृषपर्वणः |

अशोकवनिकाभ्याशे  गृहं कृत्वा न्यवेशयत् || २ ||

वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठां वार्षपर्वणीम्

वासोभिरन्नपानैश्च संविज्य सुसत्कृताम् || ३ ||


देवयान्य तु सहितः स नृपो  नहुषात्मजः |

विजहार बहूनब्गदान्  देववन्मुदित: सुखी|| ४ ||


ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते देवयानी वराँगना |

लेभे गर्भं प्रथमतः कुमारं च व्यजायत || ५ ||


गते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी |

ददर्श यौवनं प्राप्ता ऋतुं  सा चान्वचिन्तयत् || ६ ||


ऋतुकालश्च सम्प्राप्तो न च मेस्ति पतिर् वृत: |

किं प्राप्तं  किं नु  कर्तव्यं किं वा कृत्वा कृतं भवेत् ||७ ||


देवयानी प्रजातासौ वृथाहं प्राप्तयौवना |

यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम् || ८ ||


राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः |

अपिदानीं स धर्मात्मा इयान्मे दर्शनं रह: || ९ ||


अथ निष्क्रम्य राजासौ तस्मिन्काले यदृच्छया |

अशोकवनिकाभ्याशे शर्मिष्ठां प्रेक्ष्य विष्ठितः || १० ।।


तमेकं रहिते दृष्ट्वा शर्मिष्ठा चारुहासिनी |

प्रत्युद्गम्याञ्जलिं कृत्वा रजानं वाक्यमब्रवीत् || ११ ||

          ।। शर्मिष्ठा-उवाच ।।

सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य वा |

तव वा नाहुष गृहे कः स्त्रियं दृष्टुमर्हति  || १२ ||


रूपाभिजनशीलैर्हि त्वं राजन् वेत्थ मां सदा |

सा त्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप || १३ ||

           ।।ययातिरुवाच ||

वेद्मि त्वां शीलसम्पन्नं दैत्यकुण्यमनिन्दिताम् |

रूपे च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम् || १४ ||

अब्रवीदुश्ना काव्यो देवयानीं यदावहम् |

नेयमाह्वयितव्या  ते शयने वार्षपर्वणी || १५ ||

              ।।शर्मिष्ठोवाच ||

न नर्मयुक्तं  वचनं हिनस्ति; न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले 

प्राणात्यये सर्वधनापहारे; पञ्च नृतान्याहु पातकानि||६६ |


पृष्टं तु साक्ष्ये  प्रवदन्तमन्यथा; वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र 

एकार्थतायां तु समहितायां  मिथ्या वदन्तंं त्वनृतं हिनस्ति || १७ ||

              ।।ययातिरुवाच ||

राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन् |

अर्थकृच्छ्रमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे || १८ ||

                 ।।शर्मिष्ठोवाच ||

समावेतौ मतौ राजन्  सखाश्च यः पतिः |

समं विवाहमित्याहु:- सखा मेसि वृतःपति: ||१ ९ ||

                   ।।ययातिरुवाच ||

दातव्यं याचमानेभ्य  इति मे व्रतमाहितम् |

त्वं चयाचासि मां कामं ब्रूहि किं करवाणि ते || २० ||

                    ।।शर्मिष्ठोवाच ||

अधर्मात् पाहि मां  राजन्धर्मं च प्रतिपादय |

त्वत्तोपत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम् || २१ ||


त्रय एवधना राजन्भार्या दासस्तथा सुत: |

यत्ते समधिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद् धनम् || २२ ||


देवयान्या भुजिष्यास्मि वश्या च तव भार्गवी |

सा चाहं च त्वया राजन्भजनीये भजस्व माम् ||२३ ||

                 ।।वैशम्पायन उवाच ||

एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्यभिज ज्ञिवान् |

पूजयमास शर्मिष्ठां धर्मं च प्रत्यपादयत् || २४ ||


 स समागम्य शर्मिष्ठां यथाकाममवाप्य च |

अन्योन्यं  चाभिसम्पूज्य जग्मतुस्तौ यथागतम्  ||२५ ||


तस्मिन् समागमे  सुभ्रूः शर्मिष्ठां चारुहासिनी |

लेभे गर्भं प्रथमतस्तस्मान् नृपति सत्तमात् || २६ ||


प्रजज्ञे च ततः काले राजन् राजीवलोचना |

कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम् || २७ ||

    इति महाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि ययात्युपाख्याने द्वय्शीतितमोध्याय: (बयासीवाँ अध्याय)

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महाभारत के इसी पर्व के तिरासी वें अध्याय के इन श्लोकों में यदु और तुर्वसु के जन्म कि वर्णन है  

ययाति प् देवयान्यां तु पुत्रावजनयन्नृप:।

 यदुं च तुर्वसुं चैव शक्रविष्णू इवापरौ ||९||


तस्मादेव तु राजर्षे: शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी |

द्रुह्युं चानुं च पूरुं च त्रीन् कुमारानजीजनत् || १० ||


तो देवयानी के पिता के शाप से राजा का यौवन नष्ट होकर वृद्धावस्था आ गयी 

परन्तु बाद नें शुक्राचार्य से अनुनय विनय करने पर 
दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने असामयिक आयी वृद्ध अवस्था को निवारण से लिए राजा को यह उपाय बताया की वह अपने पाँचों पुत्रों से किसी से भी यौवन माँग सकता है 

जब राजा ने देवयानी के पुत्रों के समक्ष यह यौवन अधिग्रहण प्रस्ताव रखा तो बड़े पुत्र यदु ने इसे पाप और अनैतिक मानकर अस्वीकार कर दिया 

 क्योंकि पुत्र को यौवन ही आप माता को साथ विषय-भोग करेंगे  

और यह पुत्र द्वारा ही किया गाया अपनी माता के साथ व्यभिचार है 
इस लिए आप यौवन छोड़कर कुछ भी माँग लो 
और राजा ययाति यदु ये इसी उत्तर से कुपित हो गये 
और अपने ज्येष्ठ पुत्र को तथा उसके छोटे भाई तुर्वसु को 
भी अपने राज्य से दूर कर दिया ।

भागवत पुराण हरिवंश पुराण तथा अन्य पुराणों इसका कुछ भिन्न भिन्न रूपों नें वर्णन है ।
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हरिवंश पुराण नें यह वर्णन इस प्रकार से है !

स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।27।


•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।


क आश्रयस्तवान्योस्ति को वा धर्मो विधीयते ।
मामनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।28।


•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। 
मैं तो तेरा गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।

तो इस प्रकार से महाराजा ययाति को महाराज यदु ने अपनी जवानी देने से मना कर दिया क्योंकि उनका तर्क ये था कि यदि मैं आपको अपनी आधी जवानी देता हूं तो आप मेरी ही जवानी से मेरी माता के साथ अनैतिक संबंध स्थापित करेंगे जो की अनुचित ही नहीं अपितु मेरे लिए पाप ही है 

इसी कारण देवयानी को दोनों पुत्रों ने 
 अपने साम्राज्य का राजा अपने सबसे बड़े पुत्र यदु को बनाना चाहिए था ।

 किंतु महाराज ययाति ने परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।

अब पुराणों तत्कालीन पुरोहित वर्ग ने अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे ययाति पुत्र यदु को हर्यश्व सी पत्नी मधुमती में योग बल से पुन: जन्म देना ..

ययाति पुत्र यदु बनाम हर्यश्व पुत्र यदु 
नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की 
जो यदु इतिहास की पूर्णता से अनभिज्ञ ही थे |

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।

दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी सक्रिय रहे  ।

विश्व इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित ही थी ।
कृष्ण ने  सारथी (सूत ) की भूमिका से शूद्र वर्ण का गोपालन से वैश्य वर्ण का परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।

और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ...

 यदु की व्यवस्था  समाजवाद मूलक और वन संरक्षण व चरावाह परक कृषि संस्कृति मूलक थी |

क्यों कि यदु ने अपने पिता के  विपरीत लोक तन्त्र को स्थापन किया  जिसे रूढ़िवादियों ने ययाति का शाप का रूप देकर
परिहार करने की निरर्थक चेष्टा की 

जो कि पुराणों में इस रूपण में है ..
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स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।२७।

•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।२७।

क आश्रयस्तवान्योस्ति को वा धर्मो विधीयते ।
मामनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।२८।

•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। 
मैं तो तेरा गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।२८।
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एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान्।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।

•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।

अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।
पहले तो ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था ।

क्यों कि शाप भी  वही दे सकता है 
जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा  शाप उसी को दिया जा सकता है 
जो वस्तुत: पीड़क है !
परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही दोषी है जो अपने पुत्र ते यौवन से ही पुत्र सी माता कि उपभोग करना चाहता हा और बात करता है धर्म कि ..

परन्तु मिथकों में  शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी ..
जब ययाति का यौवन विनिमय -प्रस्ताव ही पूर्णत: अनैतिक था |

कि यदु में अपना यौवन देकर वृद्धाावस्था लेना इस लिए अस्वीकार किया; क्योंकि मेरे यौवन से आप मेरी माता के साथ ही साहचर्य करोगे ।
 जो मेरे लिए यह पाप तुल्य ही हैै ।
क्यों आप मेरे यौवन से माता का उपभोग करोगे 
वस्तुत: शाप का प्रकरण एक मनगडन्त सिद्धान्तों के विरुद्ध ही है |

कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को बदलकर लोक तन्त्र की स्थापना की ...
तभी से वर्ण व्यवस्था आदि ब्राह्मणीय अव्यवस्थाओं को यादवों ने स्वीकार ही नहीं किया।
ये आभीर रूप में इतिहास में उदित हुए ...
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हरिवशं पुरा ण'हरिवंश पर्व तीसवाँ अध्याय गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १४५

गाय का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण !
इनके वंशजों के संकल्प में समाहित थे ..
यदु का इतिहास यद्यपि इजराएल से लेकर सुमेर ( मैसोपाटामिया) तक न सीमित होकर भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों के ग्रन्थो में भी आयात हुआ है ...
हिब्रु बाइबिल के जैनेसिस खण्ड में
अबीर शब्द ईश्वर का वाचक है

 वैदिक यदु को बाइबिल में वर्णित "यहुदह् " के रूप में वर्णित किया ।
 यहुदह् के पिता याकूव जिसे भारतीय  पुराणों में ययाति कहा है बाइबिल में 
याकूव को अबीर कहा गया है !

परन्तु कालान्तरण में यहूदीयों का एक लडाकू कबीला ही अबीर हुआ ..
भारतीय सन्दर्भ में ये ही आभीर (अहीर ) हैं ...

यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था  को नहीं माना ।
कारण वह राजतंत्र की व्यवस्था का अंग थी
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए ।
क्योंकि इनकी गोपों'की नारायणी सेना अजेय थी ।
उन्हे इसी नवीन भागवत धर्म की अवधारणा का भी जन्म हुआ था ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।

ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि उनका वर्चस्व तत्कालीन पुरोहितों से अधिक था 
द्वेष वश उन्होंने उनका वर्चस्व समाप्त करने के विधान बनाए ।
और उन्हें शूद्र मान लिया ताकि उनका वर्चस्व ही मिट जाय !
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उसे आप न तो क्षत्रिय मान सकते हैं और नाही शूद्र ।

क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
जिसमे यदु और और तुर्वसु का समानान्तरण गोप अथवा गोपालकों के रूप में वर्णन है ...

पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान 
वेदों के ही अनुगामी हैं।

---जो बात वेद में है ;
उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
'परन्तु इन्द्र उपासक पुरोहितों ने इन्द्र से यदु और तुर्वशु को अपने वश में या अधीन करने लिए ही प्रार्थना की हैं ।

'परन्तु फिर भी वह कभी उन्हें अपने वश में नही कर पाए
 सायद इतनी सामर्थ्य तो इन्द्र की भी नहीं थी ।

विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) आदि इन समानार्थक विशेषणों से भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में सम्बोधित किया गया है ।
परन्तु दास शब्द  पूर्व -वैदिक काल में दाता और दानी कि वाचक था ।
 ईरानी भाषा में दाहे के रूप में यह अब भी विद्यमान है ।
और यमुना की तलहटी में चरावाहे रूप में इन्द्र से कृष्ण का युद्ध भी हुआ यह भी वर्णन है ।
 
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।

जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।
और फिर कालान्तरण में  जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ  हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।

परन्तु यह शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है !

'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।
कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय...

यादव उस समय कहीं अबीर तो कहीं अवर तथा कहीं अफर के रूप में सम्पूर्ण एशिया में महान जन-जाति थी ।

हम आपको बता चुके हैं कि दास शब्द वेदों में उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में लौकिक या आज के साहित्य में है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।

वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत यह विषय भी विचारणीय है।
 '
परन्तु अपनी वीरता और पराक्रम के लिए ये किसी भी क्षत्रिय से बहुत ऊँचे हैं।

ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;

गो-पालक ही गोप होते हैं (मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।

प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।

दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है
इसी लिए प्रशंसा करने में मामहे आत्मनेपदीय क्रिया पद लट्लकार वर्तमान काल उत्तम पुरुष
 बहुवचनमें प्रयुक्त है !

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करनेो वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।

वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।
जिनको हम प्रकरण के अनुरूप उद्धृत  करेंगे 👇
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यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे  जरासन्ध, और दमघोष आदि राजा एक ही कुल  हैहयवंश के यादव ही थे '

परन्तु उन्हें यादव कहकर पुराणकारों द्वारा कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...

इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...
और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...
जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं ।

दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों  यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और  श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।

विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
असुर ईरान और ईराक की दजला और फरात नदी के मुहाने में रहते थे ईसापूर्व 2000 सालों में 
ये असीरियन लोग ही भारतीय पुराणों में असुर हैं 
ये साम के वंशज थे ।

जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की कुछ सदीयों में भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।

हरिवंशपुराण  हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से  कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न होने लगा ।
क्योंकि ये कथाएँ अनेक व्यक्तियों द्वारा लिखी गयीं थीं 
______________________
किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक  तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक  या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?

'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वज ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा 
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸

यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों  के लिए रूढ़ हो गया था क्या ? जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यदुवंश में ही यादव अलग से एक कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण है ।

जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है ; जो हर्यश्व- पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
देखें निम्न श्लोकों में ।
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत श्लोक ...

स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
 
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:।
श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।

एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद।
उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।

अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:।
तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।

स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा।
उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।

____
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
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अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव,  और वृष्णि नाम  सात वंश वाले शाखा में  प्रसिद्ध होंगे 

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय
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अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी 

दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं हैं ; वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।

इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।

क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।

कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया 
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
______
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशोऽध्याय: 
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।

मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
_____
एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।

तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी यही मधपुरी भी था 

मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।

लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।

 यह मधुवन  गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है।

देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद  विस्तृत रूप में
_____ 
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇

सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी।
स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।

राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।
स तदाल्प‍परीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।

रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:।
भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।

एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।
गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।

रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्।
सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।

 वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।

 माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया, 

तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।

 एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर ! 
अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।

 हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है। 

वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।

वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।' 

पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा। 

नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे। 

जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे। 
_______
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए। 

इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं। 
जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।

प्राचीन प्रतियों में गोपों अथवा यादवों का विशेषण ही अधिकतर था परन्तु  पुराणों के प्रकाशन के समय आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द आरोपित किया गया है 

यादवों को गो पालक होनो से ही गोप कहा गया है | भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर  स्पष्ट वर्णित है|

ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के लिए भी गर्गसंहिता , पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में भी अवशिष्ट रह गया है !
 ______ 
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
 वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥

 ●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|

 सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |
 ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्ररता:।63|| 

हे भरत के वंशज जनमेजय ! 
ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63|| 
( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).. ___________________
 गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें कि अहीरों या गोपों को यादव कहा है ।
_____________________
तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे । 
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40|| 

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
 मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते |

 अन्वयार्थ ● हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।

 य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: | 
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 

अन्वयार्थ ● जो- (य:) हरि के- (हरे: ) 🍒● यादव गोपों के- (यदुनां गोपानां )गोलोक गमन -(गोलोकारोहणं ) चरित्र को- (चरित्रं ) निश्चय ही- (वै ) सुनता है- (श्रृणोति ) वह मुक्ति को पाकर- (मुक्तिं गत्वा) सभी पापों से- (सर्व पापै: ) मुक्त होता है- ( प्रमुच्यते ) 
इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमोध्याय |

 ( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय )


 और श्रीश्री राधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇

 ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇ _____________________________________ आभीरसुतां (सुभ्रुवां) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी | 
अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या: सुविश्रुता:|83 |
 _____________________________________

 अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83|| 

उद्धरण ग्रन्थ "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी 

 (गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय ) 
___________________________________ 
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:। 
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४। ____________________________
 कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
 उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
___________________________________

 रूप गोस्वामी ने अपने मित्र  "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया
 "श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से ...

 परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .
पुरोहित वर्ग के गोपाल 
 के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण को भी वर्णन किया है ।
 "ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । 
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।। 

भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।

 पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
 गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

 भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
 इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। 

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । 
अन्येनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

 भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । 
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
 अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। 

यह श्लोक मनुस्मृति कार के विचार का अनुमोदन है 

आचाराधेन तत्साम्याद् आभीराश्च स्मृता इमे ।। 
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।। 
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।। 

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं ।
 ये शूद्रजातीया हो जाते हैं ।

 तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं । 
इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।। 

किञ्चिद् अभीर तो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
 गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

 भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं।
 ये भी प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
__________________________________    
 वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।

परन्तु  गोपालन करने से ये गोपालन से ही वैश्य होने के तथ्य शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं ।
क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड तथा अग्निपुराण और इसी के रूप नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या बताया हैं

 जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

 वह गायत्री वैश्य या शूद्रा क्यों नहीं हुईं ?

 जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या हैं । 

गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवता है जब शास्त्रों में ये बात है ; तो फिर अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।

 वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं हो तो उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

 इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं।
 और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं है 

क्यों कि ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाति- भाष्कर में आभीरों को गौड ब्राह्मण लिखते हैं । 

परन्तु नारायणी सेना के यौद्धा आभीर या गोप जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को पञ्चनद प्रदेश में क्षण-भर में परास्त कर देते हैं । 

क्या ये शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे ? 
जैसा कि महाभारत में गोपों को नारायणी सेना या योद्धा बताया है ।
गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान 
कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह सब क्रमोत्तर रूप से हुआ ....

यद्यपि मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए वर्णित है |

अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने कहा ) हे राजन् आपका पुत्र ( राजा दिष्ट का पुत्र नाभाग ) धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है ।
और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।

त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोयं महात्मन् |
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ||30||

उपर्युक्त श्लोक जो  मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है 
उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता तो फिर गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वैश्य कहाँ हुए 
 यद्यपि वैदिक ब्राह्मणों ने स्वीकार किया " गावो विश्वस्य मातर:" गाय विश्व की माता है ।
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दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख:
 (महाभारत अनुशासन पर्व:- 69.7)

अर्थात् 'गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं।
वे सभी को सुख देने वाली हैं।'
और कृषि और गोपालन करने का कार्य सदा ही राजाओं ने किया एवं ऋषियों - ब्राह्मणों ने भी गोपालन किया है | 

लेकिन पुरोहितों उन्हें दास अथवा शूद्र नहीं लिखा | 
__________________________________________
यद्यपि कृषि एवं गोपालन वैश्य कर्म ग्रन्थों में लिखा गया है |
 लेकिन यह कर्म वैश्यों द्वारा कभी करता हुआ आज तक नहीं देखा गया है | 

वैश्य या वणिक केवल वस्तुओं की  खरीद-फरोख्त का व्यापार ही करते हैं ।

कृषि और चरावाहों की वृत्ति परस्पर सम्बद्ध हैं ।
क्यों कि चरावाहों से ही कालान्तरण में कृषि संस्कृति का विकास हुआ ।
दुर्भाग्य से कुछ दोष-बुद्धि पुरोहितों ने स्मृतियों ( धर्म शास्त्रों में  तोपों को शूद्र तक बना डाला जो स्मृति ग्रंथ पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में लिखे गये !
@@@@

आर्य्य चरावाहे ही थे ;
और आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन मूल का है ।
विदित हो कि यूनानी मिथकों में युद्ध का देवता अरीज् (अरि) माना गया है ।

यह अरीज् वेदों में अरि: और सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "एल" देवता के रूप में है ।
अत: अरि से सम्बद्ध होने से आर्य्य का अर्थ वीर अथवा यौद्धा ही है ।
ब्राह्मण युद्ध नही कर सकते थे वे केवल राजाओं की धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।

इसलिए वे आर्य्य नही कहे जा सकते हैं ।
यद्यपि गोपालन वृत्ति यादवों के पूर्वजों से आगात है ।
संस्कृतियाँ सदैव से रूढ़ियों के पथ पर अग्रसर होती रहीं हैं ।

केवल कृषि और गोपालन वृत्ति या पशु पालन करने से ही किसी को वैश्य या शूद्र घोषित कर देना ।
केवल द्वेष और जहालत है । 
परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोप शूद्र बना दिए 
और उनकी व्युत्पत्ति भी वर्ण संकर के रूप में की गयी ।

व्याधांच्छाकुनिकान्” गोपान्।
 “मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” मनुस्मृति
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
 यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है 
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क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
 स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:

 ----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है । 
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... 

पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
 वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन:

 एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। 
चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।

 ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । 

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है । ____________________________ 

अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

 शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति । 
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
 (व्यास-स्मृति) 

नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । 
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) 
-------------------------------------------------------------- 
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
 देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________ 

वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । 
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 आज के दौर में देखा जाये तो कृषि और गोपलन ब्राह्मण, क्षत्रिय सभी कर रहे हैं |
 इस आधार पर सभी वैश्य माने जायेंगे | किन्तु ऐसा नहीं है | 
जातियाँ जन्म आधारित हैं जो वर्ण व्यवस्था के रूप में 
ग्रन्थों में विधान बद्ध हैं ।
अतः समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए सत्य के प्रस्तुति-करण की यह पहल हम सबको करनी चाहिए ।

 वर्ण व्यवस्था को यादवों ने कभी स्वीकार नहीं किया ।
और इसी लिए एक नये "भागवत धर्म" को जन्म दिया !
क्यों की जब यदु को ही वेदों में दास  कहा है । 
तो क्या होता ?

लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का प्रयोग शूद्र के अर्थ में किया गया है ।
जैसा की ब्राह्मणों ने स्मृतियों में लिखा की शूद्र अपने नाम के पश्चात दास लगाए वैश्य गुप्त और क्षत्रिय वर्मा तथा ब्राह्मण शर्मा शब्द को लगाए !✍
________
 मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3
 (अध्याय 2 मनुस्मृति)

अब कुछ रूढ़ि वादी पूर्वदुराग्रही  लोग जो न तो शास्त्रों के विधान को जानते हैं 

और ना ही धर्म के विषय में जानते हैं ; 
वे सत्य को कब मानते हैं ?

वे अक्सर भौंकते रहते हैं कि गोप  गाय पालन करने से वैश्य हैं परन्तु मूर्खों को ज्ञान नहीं की गाय विश्व की माता है और माता का पालन और सेवा करना उच्चता का गुण है नकि तुच्छता का दुर्गुण !

दूसरी बात कि सम्राट दिलीप जैसे महापुरुष भी नन्दिनी गाय की दीर्घकाल तक सेवा करते हैं पालन करते हैं वे वैश्य नहीं हुए फिर जो गोप नारायणी सेना के यौद्धा थे |
वे वैश्य कैसे हो सकते हैं ।
वैश्य केवल व्यापार करते हैं गोपालन या कृषि कार्य नहीं करते हैं ।
नारायणी सेना के गोप जिन्हें संसार में कोई परास्त नहीं कर सकता था ।
वे  कुछ कुटिल पुरोहितों के कहने मात्र से वैश्य हो गये 
महाभारत में गोपों अथवा आभीरों की नारायणी सेना का युद्ध करने का वर्णन है तब एैसे में गोपों को वैश्य कहना परवर्ती पुरोहितों की दोगली विधान- नीति क्रिया है |

जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है👇

अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।



मत्संहननतुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत् ।
नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)


अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: 
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""

करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

 यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!

__________________________________________
सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे ?

 किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?
 हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

 इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया । 

यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।
 जहाँ सारे कर्म -काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी । 

___________________________________
हरिवंश पुराण में वर्णन है कि महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।

 वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं। 
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्व की बहन की संतति  भानजी थीं। 

नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे। 
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।

नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। 

उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 

ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

 पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
 पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। 
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
________

माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

 पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

 इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
 सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

 इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 

उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।

'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार  थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 

यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।

चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।

भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३...गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु 
सहस्रजित् से  शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।

अब 'हरि वंश पुराण में यदु के पाँच पुत्र हैं ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
 मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित। 
______________
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।

 पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
 पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
 हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए। 
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।

पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।

 पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।

 इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
 सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।

युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
 इनके पुत्र भीम।

 इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। 
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। 
______________________________________
अब सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु का कहाँ गये उनका वंश कहाँ गया 
कोई बताए ?

'परन्तु यहांँ क्षेपक है यह तथ्य कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।

 मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
 श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।

बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।

✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।

ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।

अन्धक के पुत्र रैवत थे। 
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था। 
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50

रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।

तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।

वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।

तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।

वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
 केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। 

तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं। 
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।

 उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष। 
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।

श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।

 जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।

 वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।

 कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।

___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था 
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
 इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है। 
__________________________
उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
 ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
 शूरसेन की संतान ही वसुदेव  हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
🌸
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30

ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।

मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।

यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।

वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।

हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇

हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि 
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।

•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया  वे  निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)

ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान्  वेनसम्भवान् ।२०।

धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !

( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये  वनवासी के रूप में हैं । 

हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।

यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है 

भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्‍ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्‍न करो। तात!

 घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।

 तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्‍ड में प्रवेश करके दिव्‍य भागवत मन्‍त्रों द्वारा सम्‍पूर्ण जगत के स्‍वामी नागराज अनन्‍त की स्‍तुति कर लूँ। 

वे गुहरास्‍वरूप भागवत देवता हैं, सम्‍पूर्ण लोकों के उत्‍पादक एवं उन्नायक हैं।

 उनका मस्तिक कान्तिमान स्‍वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्‍त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्‍त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्‍हें प्रणाम करूँगा।

यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।

तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
 में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।

गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।

वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । 
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।

 उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है  वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।

 कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।

'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..
यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।
______________________________________
यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇

पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।

हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर 

वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की 
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।

तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात्‌ तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो ! यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।

 हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि

ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।
अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।

•--अर्थात्‌ तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
 
 विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।

______________________________________
•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
 " भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: 
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम  और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।

अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ? 
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा 
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।

माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 
इनके वंशज भैम कहलाये  
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था । 

तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।

 और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।

तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।

'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
____________

'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।

कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए  ।

विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।
________
 ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।

यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को  द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि 
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?

इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं 
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?

वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं 

धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद,  ., कर्मानन्द , धर्मानंद ,  और वल्लभ। 
 नन्द से  नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। 

श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर वर्णन है |

तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये  सात्वतर्षभा: ।।३२।

अर्थ-  भगवान् कृष्ण के सेवक  श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?

हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३

नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।

अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।

और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)

इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..

आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 --+-

आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था। 
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।

महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।

महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी। 

श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली 
बताई गई है-
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'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'

इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था। 
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।

रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।

महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
_____
'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:,
 आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'

गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
___
'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं 
नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'

रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली | 
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
 वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार 

( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20
 ________
पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक  से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।

क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे । 

दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।

रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।

स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।

तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।

चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।

चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25

तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।

दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।

शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।

निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।

जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।

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इसी पुराण में  पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇

तत८भयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।

अर्थात्‌ भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में  स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया । 
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों 'ने विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।
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देखें निम्नलिखित यूनानी-माइथॉलॉजी से उद्धृत तथ्य साम्य--
In Greek mythology, Proteus (/ˈproʊtiəs, -tjuːs/; Ancient Greek: Πρωτεύς) is an early prophetic sea-god or god of rivers and oceanic bodies of water, one of several deities whom Homer calls the "Old Man of the Sea" (halios gerôn).

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