【अंगराज कर्ण🔥】
मत्स्य पुराण के अनुसार कर्ण यायति के तृतीय पुत्र अनु के वंशज राजा अङ्ग का पुत्र था...
आसीत् बृह्द्रथाच्चैव विश्वजिज्जनमेजयः।
दायादस्तस्य चाङ्गो वै तस्मात् कर्णोऽभवन्नृपः॥१०२॥
कर्णस्य वृषसेनस्तु पृथुसेनस्तथात्मजः।
एतेऽङ्गस्यात्मजाः सर्वे राजानः कीर्तिता मया।।
विस्तरेणानुपूर्व्याच्च पूरोस्तु श्रृणुत द्विजाः॥१०३॥
~मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४८
उससे राजा बृहद्रथ का जन्म हुआ। बृहद्रथ से विश्वविजयी जनमेजय पैदा हुआ था। उसका पुत्र अङ्ग था और उससे राजा कर्णकी उत्पत्ति हुई थी। कर्णका वृषसेन और उसका पुत्र पृथुसेन हुआ। द्विजवरो! ये सभी राजा अङ्गके वंशमें उत्पन्न हुए थे, मैंने इनका आनुपूर्वी विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया। अब आप लोग पूरुके वंशका वर्णन सुनिये॥
और राजा बृहद्रथवंशी महामना सत्यकर्मा के पुत्र अधिरथ जिसे सूत कहकर संबोधित किया जाता था को कर्ण गंगा में बहते हुए मिला तब अङ्गवंशी कर्ण सूत पुत्र कहा जाने लगा...
सत्यकर्मणोऽधिरथः सूतश्चाऽधिरथः स्मृतः।
यः कर्णं प्रतिजग्राह तेन कर्णस्तु सूतजः।।
~मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४८/श्लोकः १०८
सत्यकर्माका पुत्र अधिरथ हुआ। यही अधिरथ सूत नामसे भी विख्यात था, जिसने (गङ्गामें बहते हुए) कर्णको पकड़ा था। इसी कारण कर्ण सूत पुत्र कहे जाते हैं।
फिर अधिरथ ने कर्ण को आचार्य द्रोण से शिक्षा प्राप्ति हेतु हस्तिनापुर भेज दिया...
सूतस्त्वधिरधः पुत्रं विवृद्धं समयेन तम्।
दृष्ट्वा प्रस्थापयामास पुरं वारणसाह्रयम्॥१६॥
तत्रोपसदनं चक्रे द्रोणस्येष्वस्रकर्मणि ।
सख्यं दुर्योधनेनैवमगमत् स च वीर्यवान्॥१७॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
अधिरथ सूत ने अपने पुत्र को बड़ा हुआ देख उसे यथा समय हस्तिनापुर भेज दिया। वहाँ उसने धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये आचार्य द्रोण की शिष्यता स्वीकार की। इस प्रकार पराक्रमी कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता हो गयी।
कर्ण ने आचार्य द्रोण के अतिरिक्त भगवान परशुराम जी और कृपाचार्य जी से भी शिक्षा प्राप्त की...
द्रोणात् कृपाच्च रामाच्च सोऽस्त्र ग्रामं चतुर्विधम् । लब्ध्वा लोकेऽभवत् ख्यातः परमेष्वासतां गतः॥१८॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
वह(कर्ण) द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा परशुराम से चारों प्रकार की अस्त्र विद्या सीखकर संसार में एक महान धनुर्धर के रूप में विख्यात हुआ।
●स बालस्तेजसा युक्तस् सूतपुत्रत्वमागतः। चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठे धनुर्वेदं गुरोस्तदा॥५॥
~महाभारतम्/शांति पर्व/अध्याय:२
वही तेजस्वी बालक सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ।उसने अंगिरागोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचर्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की।
●वृष्णयश्चन्धकाश्चैव नानादेश्याश्चपार्थिवाः। सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात् तदा॥११॥
~महाभारतम्/आदि पर्व/अध्याय: १३१
वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी क्षत्रिय,नाना देशों के राजकुमार तथा राधानंदन सूतपुत्र कर्ण-ये सभी आचार्य द्रोण के पास अस्त्र शिक्षा लेने के लिए आये।
कर्ण अध्यात्म के गूढ़ विषयों पर भी अच्छी पकड़ रखता था...
त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादान् सनातनान् । त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः।।७।।
~महाभारतम्/उद्योग पर्व/अध्याय: १४०
कर्ण! सनातन वैदिक सिद्धांत क्या है? इसे तुम अच्छी तरह जानते हो।धर्मशास्त्र के सूक्ष्म विषयों के भी तुम प्रतिष्ठित विद्वान् हो।
कर्ण और अर्जुन जब से मिले थे तबसे परस्पर स्पर्धा की भावना रखते थे...
संधाय धार्तराष्ट्रेण पार्थानां विप्रिये रतः।
योद्धुमाशंसते नित्यं फल्गुनेन महात्मना॥१९॥
सदा हि तस् स्पर्धाऽऽसीदर्जुनन विशांपते।
अर्जुनस्य च कर्णेन यतो दृष्टो बभूव स:॥२०॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से मिलकर वह कुन्तीपुत्रों का अनिष्ट करने में लगा रहता और सदा महामना अर्जुन से युद्ध करने की इच्छा व्यक्त किया करता था। राजन! अर्जुन और कर्ण ने जब से एक दूसरे को देखा था, तभी से कर्ण अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता था और अर्जुन भी कर्ण के साथ बड़ी स्पर्धा रखते था।
●स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः । दुर्योधनं समाश्रित्य सोऽवमन्यत पाण्डवान्॥१२॥
~महाभारतम्/आदि पर्व/अध्याय:१३१
सूतपुत्र कर्ण सदा अर्जुन से लाग-डाँट रखता और अत्यंत अमर्ष में भरकर दुर्योधन का सहारा ले पांडवों का अपमान किया करता था।
★(वह देव योग के कारण ही कर्ण पांडवो से द्वेष रखता था "युष्माभिनित्यसंद्विष्टो दैवाच्चापि स्वभावतः॥" क्योंकि देवताओं की यह गुप्त योजना थी कि सारा क्षत्रिय समुदाय शास्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्गलोक को जाये "क्षत्रं स्वर्गे कथं गच्छेच्छस्त्रपूतमिति प्रभो।" इसीलिये महासंग्राम हो जाये ऐसी घटनाएं देव योग से ही घट रही थी )
एक दिन अर्जुन के साथ युद्ध में कर्ण को अपना कवच गवाना पड़ा...
महाधनं शिल्पिवरैः प्रयत्नतः कृतं यदस्योत्तमवर्म भास्वरम्। सुदीर्घकालेन ततोऽस्य पाण्डवः।
क्षणेन बाणैर्बहुधा व्यशातयत् ॥ ६४॥
स तं विवर्माणमथोत्तमेषुभिः शितैश्चतुर्भिः कुपितः पराभिनत्।
स विव्यथेऽत्यर्थमरिप्रताडितो यथातुरः पित्तकफानिलज्वरैः॥ ६५॥
~महाभारत/कर्ण पर्व/ अध्याय ९०
अच्छे-अच्छे शिल्पियोंने कर्णके जिस उत्तम बहुमूल्य और तेजस्वी कवचको दीर्घकालमें बनाकर तैयार किया था, उसके उसी कवचके पाण्डुुत्र अर्जुन अपने बाणोंद्वारा क्षणभरमें बहुत-से टुकड़े कर डाले॥
कवच कट जानेपर कर्णको कुपित हुए अर्जुनने चार उत्तम तीखे बाणोंसे पुनः क्षत-विक्षत कर दिया। शत्रुके द्वारा अत्यन्त घायल किये जानेपर कर्ण वात, पित्त और कफ सम्बन्धी ज्वर (त्रिदोष या सन्निपात) से आतुर हुए मनुष्यकी भाँति अधिक पीड़ाका अनुभव करने लगा।
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