शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

द्रोपदी ...



एक महिला द्रौपदी को जुए के फडं पर  दाँव पर लगाया गया यह सत्य है या नहीं परन्तु  इस पर नीतिकारों की विवेचना अपेक्षित नहीं हुई ...

  भरी सभा में और भरे दरबार में उसे नग्न किया गया !
इसकी दुहाई सबने दी परन्तु  दाँव लगाने वाले युधिष्ठर को धर्मराज की गरिमा दी गयी ...

ध्यान रखना भरी सभा में द्रौपदी, को युवराज दुर्योधन सभा में उपस्थित किया  
क्यों कि द्रौपदी ने दुर्योधन का अपमान किया ... 

परन्तु  द्रौपदी ने अपने जेष्ठ पति जुआरी युधिष्ठिर को कटघरे में खड़ी कर रही है.
 द्रौपदी के कुछ वाजिब सवाल थे 

1 - क्या दांव पर लगाने से पहले पांचों भाईयों ने उससे स्वीकृति ली ?
2 - जो व्यक्ति स्वयं हार गया हो, जीतने वाले का गुलाम बन गया हो. भला एक हारा हुआ व्यक्ति किसी अन्य दूसरे को कैसे दांव पर लगा सकता है ?
क्या यह धर्म संगत है ?

प्रश्न तो  और भी  है.
 शराबी जुआड़ी युधिष्ठिर ने केवल द्रौपदी को क्यों दांव पर क्यों लगाया ?. 
युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी देविका को क्यों नही दाँव पर लगाया.?

 चलो मान लेते हैं द्रौपदी को जुआ में हार गया.
 द्रौपदी को हारने के बाद देविका, बलन्धरा, करेणुमति, विजया, सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा को क्यों नही दांव पर लगाया जो पाँचो पाण्डवों की एकल पत्नीयाँ थी  ?

युधिष्ठिर ने यह क्यों कहा कि जुआ में दाँव पर लगाने के लिए अब उसके पास कुछ नही है !

भीम की पत्नी - बलन्धरा. नकुल की पत्नी - करेणुमति. सहदेव की पत्नी - विजया. 
और अर्जुन की पत्नियाँ - सुभद्रा, उलूपी और चित्रांगदा थीं.
 इन पाँचों भाइयों ने दूसरी तीसरी और ना जाने कितने विवाह किये थे !

पाँचों भाईयों ने द्रौपदी के अतिरिक्त अन्य किसी पत्नी  को साझा नही किया. 
इसका अर्थ है पांचों की नजर में द्रौपदी रखैल थी. जिसकी कोई इज्जत नहीं, 
जिसकी इज्जत जाने से कोई फर्क ना पड़ता हो !

पाँचों भाई कोई दूध पीते बच्चे तो नही थे. उन्हें भली भांति पता था जुआ में किसी स्त्री को हरने का अर्थ है जितने वाला पुरुष जीती हुई स्त्री से संभोग करेगा, बलात्कार करेगा.
 यह सब करने के लिए स्त्री को नग्न करना आवश्यक है 
लेकिन ऐसा कुछ हुआ तो दुर्योधन के इस कर्म की अतिरञ्जना ही है 

द्रौपदी जुआ के दाँव पेंच में हारी गई वस्तु रही 
 यही सत्य है. 


अपनी कलम से द्रौपदी को भरी सभा में दु:शासन के हाथों नग्न कर दिया. 
द्रौपदी तो उसी वक़्त नग्न कर दी गई जब पांचों जुआरी भाइयों ने अपनी अपनी पत्नियों की रक्षा कर द्रौपदी को दांव पर लगा दिया !

युवराज दुर्योधन  के विनती पर सम्राट धृतराष्ट्र ने पांचों भाईयों को हारा हुआ सब कुछ, अस्त्र शस्त्र धन संपत्ति सब लौटा दिया !

जिन्होंने इन पांचों भाईयों, इनकी आने वाली पीढ़ी को गुलामी प्रथा से आज़ाद कर दिया. 


द्रौपदी को दांव पर लगाया गया यह सच है.
 लेकिन भरी सभा में भरी दरबार में उसे नग्न किया गया यह सरासर झूठ है !💮



बुधवार, 11 नवंबर 2020

अहीर गूजर जाट खोखर कबाइल ...


खोखर

खोखर की एक स्वदेशी समुदाय हैं पंजाब के क्षेत्र में भारतीय उपमहाद्वीप । उन्हें ब्रिटिश राज काल के दौरान एक कृषि जनजाति के रूप में नामित किया गया था। पंजाब भूमि अलगाव अधिनियम, 1900 के अनुसार, कृषि जनजाति शब्द उस समय मार्शल रेस का पर्याय था । [1]

इतिहाससंपादित करें

मार्च 1206 में नमक रेंज के खोखर द्वारा मारे जाने से पहले मुहम्मद गोरी ने पंजाब में खोखर के खिलाफ कई अभियान चलाए । [2]

1240 ईस्वी में, शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश की बेटी रज़िया और उसके पति अल्तुनिया ने अपने भाई, मुईजुद्दीन बहराम शाह से सिंहासन वापस लेने का प्रयास किया । वह पंजाब के खोखर जनजाति के अधिकांश भाड़े के सैनिकों से बनी एक सेना का नेतृत्व करने की सूचना देती है। [३] [४]

1246 से 1247 तक, बलबन ने खोखरों का पीछा करने के लिए साल्ट रेंज के रूप में एक अभियान चलाया। [5]

यद्यपि लाहौर को दिल्ली द्वारा पुनः स्थापित किया गया था, कब? ] यह अगले बीस वर्षों तक खंडहर में रहा, मंगोलों और उनके खोखर सहयोगियों द्वारा कई बार हमला किया गया। [६] उसी समय के आसपास, हुलचु नाम के एक मंगोल सेनापति ने लाहौर पर कब्जा कर लिया और खोहर के प्रमुख राजा गुलचंद के साथ गठबंधन किया, जो मुहम्मद के पिता का तत्कालीन सहयोगी था। [7]

जसरथ खोखरसंपादित करें

राजा जसरथ खोखर (कभी-कभी जसरत या दशरथ ) [8] शिखा खोखर के पुत्र थे। वह तमेरलेन की मृत्यु के बाद और नेतृत्व लेने के इरादे से जेल से भागने के बाद खोखरों के नेता बन गए। स्पष्टीकरण की आवश्यकता ] उन्होंने अली शाह के खिलाफ कश्मीर के नियंत्रण के लिए युद्ध में शाही खान का समर्थन किया और उनकी जीत के लिए पुरस्कृत किया गया। बाद में, उन्होंने खिज्र खान की मृत्यु के बाद, दिल्ली को जीतने का प्रयास किया । वह केवल आंशिक रूप से सफल रहा, तलवंडी और जुलुंडूर में अभियान जीतने के दौरान , वह सरहिंद पर कब्जा करने के अपने प्रयास में मौसमी बारिश से बाधित था। [9]

आधुनिक युगसंपादित करें

के संदर्भ में ब्रिटिश राज के पंजाब में की भर्ती नीतियों, के रू-बरू ब्रिटिश भारतीय सेना , टैन ताई योंग टिप्पणी:

मुसलमानों की पसंद केवल भौतिक उपयुक्तता में से एक नहीं थी। जैसा कि सिखों के मामले में, भर्ती अधिकारियों ने क्षेत्र के प्रमुख भूस्वामी जनजातियों के पक्ष में एक स्पष्ट पूर्वाग्रह दिखाया, और पंजाबी मुसलमानों की भर्ती उन लोगों तक सीमित थी जो उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा या प्रतिष्ठा के जनजातियों से संबंधित थे - "रक्त गर्व" और एक बार राजनीतिक रूप से प्रमुख अभिजात वर्ग का। नतीजतन, सामाजिक रूप से प्रमुख मुस्लिम जनजातियों जैसे कि गक्खड़, जंजुआ और अवांस, और कुछ राजपूत जनजातियों, जो रावलपिंडी और झेलम जिलों में केंद्रित हैं, ... में पंजाबी मुस्लिम भर्तियों का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा था। [10]

संदर्भसंपादित करें

उद्धरण

  1. ^ मजुमदार (2003) , पी। 105
  2. ^ सिंह (2000) , पी। 28
  3. ^ सैयद (2004) , पी। 52
  4. ^ बख्शी (2003) , पी। 61
  5. ^ बाशम एंड रिज़वी (1987) , पी। 30
  6. ^ चंद्रा (2004) , पी। 66
  7. ^ जैक्सन (2003) , पी। 268
  8. ^ पांडे (1970) , पी। 223
  9. ^ सिंह (1972) , पीपी 220-221
  10. ^ योंग (2005) , पी। 74

ग्रन्थसूची

शनिवार, 7 नवंबर 2020

कर्ण का जन्म ...

【अंगराज कर्ण🔥】

मत्स्य पुराण के अनुसार  कर्ण यायति के तृतीय पुत्र अनु के वंशज राजा अङ्ग का पुत्र था...

आसीत् बृह्द्रथाच्चैव विश्वजिज्जनमेजयः।
दायादस्तस्य चाङ्गो वै तस्मात् कर्णोऽभवन्नृपः॥१०२॥
कर्णस्य वृषसेनस्तु पृथुसेनस्तथात्मजः।
एतेऽङ्गस्यात्मजाः सर्वे राजानः कीर्तिता मया।।
विस्तरेणानुपूर्व्याच्च पूरोस्तु श्रृणुत द्विजाः॥१०३॥
~मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४८
उससे राजा बृहद्रथ का जन्म हुआ। बृहद्रथ से विश्वविजयी जनमेजय पैदा हुआ था। उसका पुत्र अङ्ग था और उससे राजा कर्णकी उत्पत्ति हुई थी। कर्णका वृषसेन और उसका पुत्र पृथुसेन हुआ। द्विजवरो! ये सभी राजा अङ्गके वंशमें उत्पन्न हुए थे, मैंने इनका आनुपूर्वी विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया। अब आप लोग पूरुके वंशका वर्णन सुनिये॥

और राजा बृहद्रथवंशी महामना सत्यकर्मा के पुत्र अधिरथ जिसे सूत कहकर संबोधित किया जाता था को कर्ण गंगा में बहते हुए मिला तब अङ्गवंशी कर्ण सूत पुत्र कहा जाने लगा...

सत्यकर्मणोऽधिरथः सूतश्चाऽधिरथः स्मृतः।
यः कर्णं प्रतिजग्राह तेन कर्णस्तु सूतजः।।
~मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४८/श्लोकः १०८
सत्यकर्माका पुत्र अधिरथ हुआ। यही अधिरथ सूत नामसे भी विख्यात था, जिसने (गङ्गामें बहते हुए) कर्णको पकड़ा था। इसी कारण कर्ण सूत पुत्र कहे जाते हैं।

फिर अधिरथ ने कर्ण को आचार्य द्रोण से शिक्षा प्राप्ति हेतु हस्तिनापुर भेज दिया...

सूतस्त्वधिरधः पुत्रं विवृद्धं समयेन तम्।
दृष्ट्वा प्रस्थापयामास पुरं वारणसाह्रयम्॥१६॥
तत्रोपसदनं चक्रे द्रोणस्येष्वस्रकर्मणि ।
सख्यं दुर्योधनेनैवमगमत् स च वीर्यवान्॥१७॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
अधिरथ सूत ने अपने पुत्र को बड़ा हुआ देख उसे यथा समय हस्तिनापुर भेज दिया। वहाँ उसने धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये आचार्य द्रोण की शिष्यता स्वीकार की। इस प्रकार पराक्रमी कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता हो गयी। 

कर्ण ने आचार्य द्रोण के अतिरिक्त भगवान परशुराम जी और कृपाचार्य जी से भी शिक्षा प्राप्त की...

द्रोणात् कृपाच्च रामाच्च सोऽस्त्र ग्रामं चतुर्विधम् । लब्ध्वा लोकेऽभवत् ख्यातः परमेष्वासतां गतः॥१८॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
वह(कर्ण) द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा परशुराम से चारों प्रकार की अस्त्र विद्या सीखकर संसार में एक महान धनुर्धर के रूप में विख्यात हुआ।

●स बालस्तेजसा युक्तस् सूतपुत्रत्वमागतः। चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठे धनुर्वेदं गुरोस्तदा॥५॥ 
~महाभारतम्/शांति पर्व/अध्याय:२
   वही तेजस्वी बालक सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ।उसने अंगिरागोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचर्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की।

●वृष्णयश्चन्धकाश्चैव नानादेश्याश्चपार्थिवाः। सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात् तदा॥११॥
~महाभारतम्/आदि पर्व/अध्याय: १३१
  वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी क्षत्रिय,नाना देशों के राजकुमार तथा राधानंदन सूतपुत्र कर्ण-ये सभी आचार्य द्रोण के पास अस्त्र शिक्षा लेने के लिए आये।

कर्ण अध्यात्म के गूढ़ विषयों पर भी अच्छी पकड़ रखता था...

त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादान् सनातनान् । त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः।।७।।
~महाभारतम्/उद्योग पर्व/अध्याय: १४०
   कर्ण! सनातन वैदिक सिद्धांत क्या है? इसे तुम अच्छी तरह जानते हो।धर्मशास्त्र के सूक्ष्म विषयों के भी तुम प्रतिष्ठित विद्वान् हो।

कर्ण और अर्जुन जब से मिले थे तबसे परस्पर स्पर्धा की भावना रखते थे...

संधाय धार्तराष्ट्रेण पार्थानां विप्रिये रतः।
योद्धुमाशंसते नित्यं फल्गुनेन महात्मना॥१९॥
सदा हि तस् स्पर्धाऽऽसीदर्जुनन विशांपते।
अर्जुनस्य च कर्णेन यतो दृष्टो बभूव स:॥२०॥
~महाभारत/वनपर्व/अध्याय ३०९
     धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से मिलकर वह कुन्तीपुत्रों का अनिष्ट करने में लगा रहता और सदा महामना अर्जुन से युद्ध करने की इच्छा व्यक्त किया करता था। राजन! अर्जुन और कर्ण ने जब से एक दूसरे को देखा था, तभी से कर्ण अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता था और अर्जुन भी कर्ण के साथ बड़ी स्पर्धा रखते था।

●स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः । दुर्योधनं समाश्रित्य सोऽवमन्यत पाण्डवान्॥१२॥
~महाभारतम्/आदि पर्व/अध्याय:१३१
  सूतपुत्र कर्ण सदा अर्जुन से लाग-डाँट रखता और अत्यंत अमर्ष में भरकर दुर्योधन का सहारा ले पांडवों का अपमान किया करता था।

★(वह देव योग के कारण ही कर्ण पांडवो से द्वेष रखता था "युष्माभिनित्यसंद्विष्टो दैवाच्चापि स्वभावतः॥" क्योंकि देवताओं की यह गुप्त योजना थी कि सारा क्षत्रिय समुदाय शास्त्रों के आघात से पवित्र हो स्वर्गलोक को जाये "क्षत्रं स्वर्गे कथं गच्छेच्छस्त्रपूतमिति प्रभो।" इसीलिये महासंग्राम हो जाये ऐसी घटनाएं देव योग से ही घट रही थी )

 एक दिन अर्जुन के साथ युद्ध में कर्ण को अपना कवच गवाना पड़ा...

महाधनं शिल्पिवरैः प्रयत्नतः कृतं यदस्योत्तमवर्म भास्वरम्। सुदीर्घकालेन ततोऽस्य पाण्डवः।
क्षणेन बाणैर्बहुधा व्यशातयत् ॥ ६४॥
स तं विवर्माणमथोत्तमेषुभिः शितैश्चतुर्भिः कुपितः पराभिनत्। 
स विव्यथेऽत्यर्थमरिप्रताडितो यथातुरः पित्तकफानिलज्वरैः॥ ६५॥
~महाभारत/कर्ण पर्व/ अध्याय ९०

अच्छे-अच्छे शिल्पियोंने कर्णके जिस उत्तम बहुमूल्य और तेजस्वी कवचको दीर्घकालमें बनाकर तैयार किया था, उसके उसी कवचके पाण्डुुत्र अर्जुन अपने बाणोंद्वारा क्षणभरमें बहुत-से टुकड़े कर डाले॥
कवच कट जानेपर कर्णको कुपित हुए अर्जुनने चार उत्तम तीखे बाणोंसे पुनः क्षत-विक्षत कर दिया। शत्रुके द्वारा अत्यन्त घायल किये जानेपर कर्ण वात, पित्त और कफ सम्बन्धी ज्वर (त्रिदोष या सन्निपात) से आतुर हुए मनुष्यकी भाँति अधिक पीड़ाका अनुभव करने लगा।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

हूण और आभीर सहवर्ती है चार युगों की कल्पना केवल भारत तक ...

 किरात शक और यवन आदि का हैहयवंश के यादवों में विलय...
यादवों का गुप्त और गोप नामक विशेषण उनकी गो पालन व रक्षण प्रवृत्तियों के कारण हुआ ...
______________________________________________
(हरिवंशपुराण एक समीक्षात्मक अवलोकन ...)

हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व में  दशम अध्याय का 36वाँ वह श्लोक  जिसमें यादवों को गुप्त विशेषण से अभिहित किया गया है ।
इस सन्दर्भ में देखें -
रेवत के प्रसंंग में  यह श्लोक विचारणीय है 👇
_______________________________________

कृतां द्वारवतीं नाम्ना बहुद्वारा मनोरमाम् । 
भोजवृष्णन्यकैर्गुप्तां वासुदेव पुरोगमै:।।36।

(उस समय उस पुरी में ) बहुत से दरबाजे बन गये थे ।
और वसुदेव आदि भोज, वृष्णि और अन्धक वंशी यादव उस रमणीय पुरी के गुप्त( रक्षण करने वाले ) थे ।।36।

__________________________________________

बाहोर्व्यसनिस्तात हृतं राज्यभूत् किल।
हैहयैस्तालजंघैश्च शकै: शार्द्धं विशाम्पते ।3।

यवना : पारदाश्चेैव काम्बोजा: पह्लवा: खसा: ।।
एते ह्यपि गणा: पञ्च हैहयार्थे पराक्रमान् ।।4। 

(हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व के चौदहवें अध्याय में  ) इन दौनों श्लोको में वर्णन है कि 👇

यवन, पारद, कम्बोज, शक, और खस ये सभी गण हैहयवंश के यादवों के सहायक थे ।

वैश्म्पायन जी बोले – हे राजन् ! राजा बाहू शिकार और जुए आदि व्यसनों में पड़ा रहता था ; तात ! इस अवसर से लाभ उठाकर बाहु के राज्य को हैयय , तालजंघ और शकों ने छीन लिया।।3।।

यवन, पारद, कम्बोज, शक, और खस इन सभी गणों ने हैहयवंश के यादवों के लिए पराक्रम किया था।।4।

 इस प्रकार राज्य के छिन जाने पर राजा बाहू वन को चला गया और उसकी पत्नी भी उसके पीछे-पीछे गई उसके बाद उस राजा ने दुखी होकर वन में ही अपने प्राणों को त्याग दिया ।5।।

 उसकी पत्नी यदुवंश की कन्या थी; वह गर्भवती थी ; बाहु के पीछे -पीछे वह भी वन में गई थी उसकी सौत (सपत्नी) ने उसे पहले ही विष( गर) दे दिया था ।6।।

 तब  वह स्वामी की चिता बनाकर उस पर चढ़ने लगी उसी समय वन में विराजमान भृगुवंशी  और्व ऋषि ने दया के कारण उसे रोका।। 7।।

तब बाहू की गर्भवती पत्नी ने और्व ऋषि के आश्रम में ही विष (गर) सहित एक शिशु को जन्म दिया जो आगे चलकर सगर नामक महाबाहू राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ ; 
राजा सगर कभी धर्म से पतित नहीं हुए ।8।।

  निम्नलिखित श्लोकांशों में हैहयवंश के यादवों का तथा शकों ,हूणों यवनों और पह्लवों का 
विलय दर्शाया गया है ।।

विदित हो की परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में आभीर शब्द का ही प्रयोग हूणों ,यवनों, और ,पह्लवों ,तथा किरातों के साथ बहुतायत से हुआ है ।

ये लोग विदेशी हैं या नहीं इसका साक्ष्य तो भारतीय ग्रन्थों में भी कहीं नहीं है अपितु  इन जन-जातियों को अहीरों कों छोड़ कर नन्दनी गाय के विभिन्न अंगों से उत्पन्न दर्शाया है ।

वह भी क्षत्रिय के रूप में ...
जिसके विवरण हम यथाक्रम देंगे 
_____________________________________________

तत: शकान् सयवनान् काम्बोजान्  पारदांस्तथा ।
पह्लवांश्चैव नि:शेषान् कर्तुं व्यवसितस्तदा ।।12।।

बड़े होकर सगर ने ही तत्पश्चात शक ,यवन पारद कम्बोज शक और पह्लवों को पूर्णत: समाप्त करने का निश्चय किया ।।12।।

तब महात्मा सगर उनका सर्वनाश करने लगे तब वे (शक, यवनादि) वशिष्ठ की शरण में गये वशिष्ठ ने कुछ विशेष शर्तों पर ही उन्हें अभय दान दिया  और सगर को ( उन्हें शक यवनादि) को मारने से रोका ।14।।

इसी अध्याय के 18 वें श्लोक में वर्णन है कि  शक, यवन, काम्बोज,पारद, कोलिसर्प, महिष, दरद, चोल, और केरल ये सब क्षत्रिय ही थे । 

महात्मा सगर ने वशिष्ठ जी के वचन से इन सब का संहार न करके केवल इनका धर्म नष्ट कर दिया ।।18-19।।👇

शका यवना काम्बोजा: पारदाश्च विशाम्पते !
  कोलिसर्पा: स  महिषा दार्द्याश्चोला: सकरेला :।।18।

(हरिवंशपुराण हरिवंश पर्व चौदहवाँ अध्याय )

इसी अध्याय के 20 वें श्लोक में वर्णन है कि उन धर्म विजयी राजा सगर ने अश्वमेध की दीक्षा लेकर 
खस , तुषार(कुषाण)चोल ,मद्र ,किष्किन्धक,कौन्तल ,वंग, 
शाल्व, और कौंकण देश के राजाओं को जीता । 

 इस प्रकार सगर  ने पृथ्वी विजयी करने लिए अपना घोड़ा छोड़ा ।।-20-21।। देखें निम्नलिखित श्लोक👇

खसांस्तुषारांश्चोलांश्च मद्रान् किष्किन्धकांस्तथा ।
कौन्तलांश्च तथा वंगान् साल्वान् कौंकणकांस्तथा ।।20।।
(हरिवंशपुराण हरिवंश पर्व चौदहवाँ अध्याय )

_____

वस्तुत प्रस्तुत श्लोकों में आभीर शब्द के रूप में हैहयवंश यादवों का प्रयोग किया है परवर्ती ब्राह्मणों ने आभीरों का प्रयोग शक, यवन ,हूण कुषाण (तुषार) आदि के साथ वर्णित किया है ।

जबकि भागवत पुराण में अहीर हूणों और किरातों  शकों और यवनों के सहवर्ती हैं।
 इसका प्रमाण नीचे  लिखा श्लोक है :-
_____________________________________________

किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :।

येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति 
तस्यै प्रभविष्णवे नम:। (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८) 

अर्थात् किरात, हूण ,पुलिन्द ,पुलकस ,आभीर ,शक, यवन ( यूनानी) और खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जातियाँ यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ;
 उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ 
यद्यपि यह श्लोक प्रक्षिप्त है । 
तो भी यहांँ विचारणीय तथ्य यह है कि आभीर हूणों यवनों और पह्लवों तथा किरातों के सहवर्ती व सहायक रहे हैं ।
कुछ हूणों ने आभीरों में विलय किया जो अब गुर्जरों का एक गोत्र या वर्ग है ।
🐂

सगर का वर्णन सुमेरियन माइथोलॉजी में भी सार्गोन के रूप में है ।
और ईरानी माइथोलॉजी अवेस्ता ए जेन्द में वशिष्ठ का रूप "वहिश्त" के रूप में  है ।
 वहिश्त पुरानी फारसी में स्वर्ग के अर्थ में रूढ़ है ।


वर्तमान में गुर्जर एक संघ है जिसमें हूण, गोप  जोर्जियन  तथा लक्ष्मण के भी वंशज लोग खुद को गुर्जर कहते हैं

वीर गुर्जरों का हूणों के रूप में वर्णन भी है जो चौहानों के पूर्वज हैं  चाउ-हूण से चौहान शब्द बना है ...

रे रे गुर्जर जरजरोऽसि समरे लम्पाक  किं कम्पसे |
वङ्ग त्वङ्गसि किं मुधा बलरज: कीर्णोऽसि किं कोङ्कण | 
हूण प्राण परायणो भव महारष्ट्रपराष्ट्रोऽस्यमी 
योद्धारो वयमित्यरीनभिभवन्त्यन्ध्रक्षमा भृद्भटा: ||३१|

दर्पमात्सर्यभूयिष्ठश्चण्ड वृत्तिविकत्थन: मायावी सुलभक्रोध:स धीरोद्धत उच्यते ||३०|
यथा ..
रे रे गुर्जर जरजरोऽसि समरे लम्पाक  किं कम्पसे |
वङ्ग त्वङ्गसि किं मुधा बलरज: कीर्णोऽसि किं कोङ्कण | 
हूण प्राण परायणो भव महारष्ट्रपराष्ट्रोऽस्यमी 
योद्धारो वयमित्यरीनभिभवन्त्यन्ध्रक्षमा भृद्भटा: ||३१|

(प्रतापरूद्रीयम् रत्नापणान्विते)

उपर्युक्त श्लोक में हूणों के सहवर्ती गुर्जर  प्रतिभट योद्धा का वर्णन धोरोद्धत नायक के रूप में किया है ! 
यद्यपि तत्कालीन पुरोहितों का गुर्जर जाट और अहीरों के प्रति द्वेष होने से ही लेखक ने गुर्जरों को वीर तो माना परन्तु धीरोद्धत नायक के रूप में ...

प्रतापरूद्रीयम् में नाट्यशास्त्रीय विवेचन है  इसके लेखक विद्याधर पण्डित हैं   विद्याधर का समय 1280-1325. ईस्वी है 
प्रथ्वीराज चौहन १२ वीं सदी के समकक्ष भी हूण गुर्जर थे ..

साहित्य में वह नायक जो बहुत प्रचंड और चंचल हो और दूसरे का गर्व न सह सके और सदा अपने ही गुणों का बखान किया करे  धीरोद्धत नायक होता है ।
 जैसे, भीमसेन 
__________________________
लम्पाक =लम्पटः ।  देशभेदः ।  इति मेदिनी । के   १४९ ॥
  (यथा   मार्कण्डेये ।  ५७ ।  ४०
 
“ लम्पाकाः शूलकाराश्च चुलिका जागुडैः सह । औपधाश्चानिभद्राश्च किरातानाञ्च जातयः ॥ “ )

यद्यपि पुराणों में हूणों को नन्दनी गाय से उत्पन्न माना 
गावो विश्वस्य मातर:  गाय विश्व की माता है 
तो हूण विदेशी कहाँ हुए ....

गावो विश्वस्य मातरः’, संसारकी माता है गाय । जन्म देनेवाली माता तो बचपन में दूध पिलाती है और गाय तो पूरे जीवनभर दूध पिलाती है, मृत्यु समयमें भी गायका दहीं दिया जाता है । यह माँ भी है, दादी भी है , नानी, परनानी, परदादी भी है । सबको दूध पिलाती है । यह संपूर्ण संसारकी माँ है । 
गाय रक्षा करती है ।

इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि से बता डाली है।👇

असृजत् पह्लवान् पुच्छात् 
प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।

योनिदेशाच्च यवनान् शकृत: शबरान् बहून् ।३६।
मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान्
सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।
यवन, शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ-
________________________________________
नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
तथा धनों से द्रविड और शकों को।
यौनि से यूनानीयों को  और गोबर से शबर उत्पन्न हुए।

कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की -सृष्टि ।३७।
ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनके विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते ।
अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
__________________________________________

चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।

इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक  ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
__________________________________________

भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।

तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।
महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय ।
वाल्मीकि रामायण के बाल काण्डके चौवनवे सर्ग में वर्णन है कि 👇
-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गो को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण किरात शक यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होता हैं ।

अब इनके इतिहास को यूनान या तीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।
👴...

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।
तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।।18।

राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाने उस समय वैसा ही किया उसकी हुंकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर उत्पन्न हो गये।18।

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।।
तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21

उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहां की सारी पृथ्वी भर गई 20 -21।

ततो८स्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे 23
अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में देखें---
कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं
और गोबर से शक उत्पन्न हुए।

योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता।
रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।
यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए  रोम कूपों म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।

यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ
बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है।
कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.
माना जाता है कि वी बोयांग ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली. बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.

300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया. इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।

ब्रह्म-पुराण के पाँचवें अध्याय" सूर्य्यः वंश वर्णन" में एक प्रसंग है ।👇
बाहोर्व्यसनिन : पूर्व्वं हृतं राज्यमभूत् किल।
हैहयैंस्तालजंघैश्च शकै: सार्द्ध द्विजोत्तमा: ।35।
यवना: पारदाश्चैव काम्बोजा : पह्लवास्तथा।
एते ह्यपि गणा: पञ्च हैहयार्थे पराक्रमम् ।36।

लोमहर्षण जी ने कहा हे ब्राहमणों यह बाहू राजा पहले बहुत ही व्यसनशील था ।
इसलिए शकों के साथ हैहय और तालजंघो ने इसका राज्य से छीन लिया ।
यवन ,पारद, कम्बोज और पह्लव यह भी पांच गण थे जो  हैहय यादवों के लिए अपना पराक्रम दिखाया करते थे ।
अर्थात्‌ उनके सहायक थे ।

इसी अध्याय में अागे वर्णन है कि
शका यवन कम्बोजा: पारदाश्च द्विजोत्म।
कोणि सर्पा माहिषिका दर्वाश्चोला: सकेरला:।50।
सर्वे ते क्षत्रिया विप्रा धर्म्मस्तेषां निरीकृत: ।
वसिष्ठ वचनाद्राज्ञा सगरेण महात्मना।51।
(ब्रह्म-पुराण के पाँचवें अध्याय सूर्य्यः वंश वर्णन में)

शक यवन कांबोज पारद कोणि सर्प माहिषक दर्व: चोल केरल यह है विप्रो क्षत्रिय ही रहे हैं कि उनका धर्म निराकृत कर दिया गया था और क्योंकि यह सभी अपने प्राणों की रक्षा के लिए वशिष्ठ जी की शरण में चले गए थे ।इसलिए वसिष्ठ जी के वचनों से महात्मा सगर ने फिर मारा नहीं था केवल उनके धर्म को परिवर्तित कराकर क्षत्रिय ही बना रहने दिया था 50-51

तोमरा हंसमार्गाश्च काश्मीरा: करुणास्तथा।
शूलिका : कहकाश्चैव मागधाश्च तथैव च।50।
ए ते देशा उदीच्यास्तु प्राच्यान् देशान्निवोधत।
अंधा वाम अंग कुरावाश्च वल्लकाश्च  मखान्तका: 51।

तथापरे जनपदा प्रोक्ता दक्षिणापथवासिन: ।
पूर्णाश्च केरलाश्चैव मोलांगूलास्तथैव च ।54।
ऋषिका मुषिकाश्चैव कुमारा रामठा शका: ।
महाराष्टा माहिषका कलिंंगाश्चैव सर्व्वश:।55।
आभीरा: शहवैसिक्या अटव्या सरवाश्च ये ।
पुलिन्दश्चैव मौलेया वैदर्भा दन्तकै: सह ।56।

तोमर हंस मार्ग कश्मीर करुण शूलिक कुहक, मगध यह सब देश उदीच्य हैं अर्थात उत्तर दिशा में होने वाले हैं आप जो देश प्राच्य अर्थात्‌ पूर्व दिशा में हैं उनको भी समझ लो आंध्र वामांग कुराव, बल्लक , मखान्तक 51।

तथा दूसरे जनपद दक्षिणा पथ गामी हैं पूर्ण, केरल गोलंगमून ऋषिक मुषिक ,कुमार रामठ, शक ,महाराष्ट्र माहिषक ,शक कलिंग वैशिकी के सहित आभीर अटव्य,सरव, पुलिन्द,मोलैय और दंतको के सहित वेदर्भ यह सब दक्षिण दिशा के भाग में जनपद हैं। 54-56

वाल्मीकि रामायण बाल-काण्ड अष्टादश: अध्याय टमें वर्णित है ।
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिण: ।
वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वै वनचारिण:।।२३।
देवताओं का गुण गाने वाले बनवासी चारणों ने बहुत से  विशालकाय वानर पुत्र उत्पन्न किए वे सब जंगली फल फूल खाने वाले थे ।23।
अब वानर जब वन के वरों से उत्पन्न हुए हैं ।
तो वानरों को नर का पूर्वज क्यों माना जाय ।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि
कि -जब राजा दशरथ की अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी तब राम का जन्म हुआ।
(बीसवाँ सर्ग बाल-काण्ड)
षष्टिर्वर्षसहस्राणि जातस्य मम कौशिक।10
कृच्छ्रेणोत्पादितश्चायं न रामं नेतुमर्हसि।
हे कुशिक नन्दन !
मेरी अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी ।

इस बुढ़ापे में में बड़ी कठिनाई से पुत्र प्राप्ति हुई है अत: आप राम को न ले जाऐं।
________________________________________

श्रृद्धेय गुरू जी सुमन्त कुमार यादव की पावन प्रेरणाओं से नि:सृत ....

 प्रस्तुति करण यादव योगेश कुमार रोहि
पुण्ड्रा कलिङ्गा  मगधा दक्षिणात्य कृत्स्नश: |
तथापरान्ता: सौराष्ट्रा: शूद्र आभीर: तथा अर्बुदा :||४०|

मालका मालवाश्चैव परियात्रनिवासिन: 
सौवीरा: सैन्धवा हूणा शाल्वा: कल्प निवासिन: ||४१|

कूर्म पुराण अध्याय ४६ वाँ


मद्रा रामास्तथाम्बष्ठा पारसीकस्तथैव च | 
आसां पिवन्ति सलिलं  वसन्ति सरितां सदा ||४२|

मद्र रामा तथा अम्बष्ठ और पारसीक इसी प्रकार इन नदीयों के किनारे रहते और इनका जल पीते हैं ||४२|

इसी कूर्म पुराण  के इसी ४६ वें अध्याय के ४३ वे श्लोक  में बताया कि चार युगों की कल्पना केवल कवि ने भारत देश में ही मानी और कहा कि ये चारों युग    भारत में ही होते हैं अन्यत्र कहीं नहीं 
...
चत्वारि भारते वर्षे युगानि कवयो८ब्रुवन|
कृत त्रेता द्वापरं च कलिश्चान्यत्र न क्वचित् |४३|

कवियों भारत वर्ष में ही चार युगों की स्थति बतायी और कहा कि ये  अन्यत्र नहीं होते हैं ... 

  गुरू देव ने अपने गहन अध्ययनों से पारसीयों की चर्चा  की भी चर्चा है यह उद्धृत किया ,
ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत मे ईरान से भागकर 6, 7वी सदी में पारसी पहुँचे।

दो बातें उठती है,इस सन्दर्भ में,
1 -पुराण 19वी शदी तक लिखे जाते रहे है ।
2 पारसी जाति पहले से ही हूणों की तरह  भारत की मूलनिवासी है ।
और अगर पारसी मुलनिवसी है

भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग में  तो 1940 ,45 तक के अंग्रेज वायसरायों का उल्लेख है।
------------------------------------------------------
प्ररस्तुति करण यादव योगेश कुमार रोहि 

बुधवार, 4 नवंबर 2020

असुर के रूप में वरुण और इन्द्र तथा कृष्ण का भी वर्णन ऋग्वेद में ...


ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है
वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है
सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए असुर कहा गया
कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवानभी इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है
वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक है
कृष्ण का समय पुरात्व वेता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ "अरनेस्त मैके" ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है |


वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची नहीं इसी लिए वृत्र रको ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है ..

परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात तनदी के दुआब में भी रहते थे
भारतय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया
देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन हेमरपास्त में रहते थे

अब ...
ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में  वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है ..

असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे ...

निम्न ऋचा में प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है

तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।
ऋग्वेद - ४/५३/१

हम उस प्रचेतस् असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है ; उसका ही वरण करते हैं ।

निम्न ऋचा में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान् है

अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने !
तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञान वान -बल वान तथा ऐश्वर्य वान हो ।

अब देखें हाभारत में असुरों का गुण ..👇

तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।

महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले  महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।

उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर  देवों को पीड़ित करने लगे ।
असुर शब्द बलशाली के अर्थ में  महाभारत में भी है

ऋग्वेद में असुर के अर्थ ..
देवता: सविता ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
तद्दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्वार्यं॑ म॒हद्वृ॑णी॒महे॒ असु॑रस्य॒ प्रचे॑तसः। छ॒र्दिर्येन॑ दा॒शुषे॒ यच्छ॑ति॒ त्मना॒ तन्नो॑ म॒हाँ उद॑यान्दे॒वो अ॒क्तुभिः॑ ॥१॥

पद पाठ
तत्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। वार्य॑म्। म॒हत्। वृ॒णी॒महे॑।
असु॑रस्य। प्रऽचे॑तसः। छ॒र्दिः। येन॑। दा॒शुषे॑। यच्छ॑ति। त्मना॑। तत्। नः॒। म॒हान्। उत्। अ॒या॒न्। दे॒वः।
अ॒क्तुऽभिः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» ऋचा :1 |

_______________________________________
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करनेवाले सूर्य (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव की (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं

(तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥

असुर महद् यहाँ वरुण का विशेषण है
_______________________________________

देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
______________________

अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥
_________________________
1-अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते- बड़े देव लोक में प्रतिष्ठित स्तुति करने वालों को

2- शू॒ष्य॑म्। वचः॑।  वाणी उत्पन्न करता है |

3- स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। जो क्षत्र रूप मे स्वयं ही  सबको आच्छादन अथवा वरण किये हुए है 

4-धृ॒षत्। मनः॑।  जिसका मन सहन करने वाला है सबकुछ

5- बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। वह वरुण बहुत सुनने वाला है

6-असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः।  उस प्रज्ञा और बल प्रदान करने वाले वरुण की इसी कारण असुर संज्ञा भी है  उसी ने विशालता को उत्पन्न किया है

7-पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः -
पहले समय में घोडे़ और बैलों ने वरुण के रथ को खींचा था ॥
_________________________
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» ऋचा :3 |

____________________________________

इन्द्र के लिए असुर शब्द का प्रयोग ..👇
देवता: इन्द्र: ऋषि: अगस्त्यो मैत्रावरुणिः छन्द: निचृत्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः
______________________
त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन्पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान्।
त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥

पद पाठ
त्वम्। राजा॑। इ॒न्द्र॒। ये। च॒। दे॒वाः। रक्ष॑। नॄन्। पा॒हि। अ॒सु॒र॒। त्वम्। अ॒स्मान्। त्वम्। सत्ऽप॑तिः। म॒घऽवा॑। नः॒। तरु॑त्रः। त्वम्। स॒त्यः। वस॑वानः। स॒हः॒ऽदाः ॥ १.१७४.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» ऋचा :1 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त !
(त्वम्) आप (सत्पतिः) वेद वा सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) परमप्रशंसित धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)
धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) मेघ के समान (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो
(ये, च) और जो (देवाः) श्रेष्ठा गुणोंवाले धर्मात्मा विद्वान् हैं उनकी (रक्ष) रक्षा करो ॥ १ ॥

इस उपर्युक्त ऋचा में इन्द्र को असुर कहा गया है ...

_________________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: प्रजापतिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ॥

पद पाठ
आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑ (कृष्ण:)।
असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 |

पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)
ग्रहण करता हुआ  या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)
(असुरस्य) असुर का
(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा)  नाम वाला  (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण  (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥

ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है
क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञा वान भी हैं
अत: कृष्ण के असुरत्व वको समझो
___________________________________________

देवता: इन्द्र: ऋषि: गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इ॒मे भो॒जा अङ्गि॑रसो॒ विरू॑पा दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय॒ दद॑तो म॒घानि॑ सहस्रसा॒वे प्र ति॑रन्त॒ आयुः॑॥

पद पाठ
इ॒मे। भो॒जाः। अङ्गि॑रसः। विऽरू॑पाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय। दद॑तः। म॒घानि॑। स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» ऋचा :7 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा  (भोजाः) भोग करने तथा प्रजा के पालन करनेवाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के  (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥७|
अर्थात्
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।

देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।

____________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

___________________________________

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा :1 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अ॒यं वां॒ कृष्णो॑ अश्विना॒ हव॑ते वाजिनीवसू । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :3 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :4 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» मन्त्र:4 |


सायण भाष्य- हे "नरा -(नरौ सर्वस्य नेतारावश्विनौ) २-“जरितुः । तच्छीलार्थे तृन् । व्यत्ययेनान्तोदात्तत्वम् । जरितुः स्तवनशीलस्य संप्रति “स्तुवतः स्तोत्रं कुर्वतः “कृष्णस्य एतन्नामकस्यर्षेः संबन्धि “हवं युष्मद्विषयमाह्वानं “शृणुतम् । यद्वा । जरितुरन्यदेवानां स्तोतुः स्तुवत इदानीं युवयोः स्तोत्रकारिणस्तस्य हवं शृणुतम् । शिष्टं गतम् ॥

यहाँ कृष्ण नामक एक ऋषि का वर्णन है -

यहाँ अदेव कृष्ण से भिन्न ये कृष्ण हैं ।

_________________________________

देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा:1 |
________

देवता: विश्वेदेवा, उषा ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
उ॒षसः॒ पूर्वा॒ अध॒ यद्व्यू॒षुर्म॒हद्वि ज॑ज्ञे अ॒क्षरं॑ प॒दे गोः। व्र॒ता दे॒वाना॒मुप॒ नु प्र॒भूष॑न्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

पद पाठ
उ॒षसः॑। पूर्वाः॑। अध॑। यत्। वि॒ऽऊ॒षुः। म॒हत्। वि। ज॒ज्ञे॒। अ॒क्षर॑म्। प॒दे। गोः। व्र॒ता। दे॒वाना॑म्। उप॑। नु। प्र॒ऽभूष॑न्। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55»   ऋचा:1 |

पदार्थान्वयभाषाः -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥

देवता: विश्वेदेवा, दिशः ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः। नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

पद पाठ
आ। धे॒नवः॑। धु॒न॒य॒न्ता॒म्। अशि॑श्वीः। स॒बः॒ऽदुघाः॑। श॒श॒याः। अप्र॑ऽदुग्धाः। नव्याः॑ऽनव्याः। यु॒व॒तयः॑। भव॑न्तीः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:16 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीननवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त  (देवानाम्)  में महद्  बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को  (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥

________________________________________

उपर्युक्त ऋचा  में  असुरत्व भाव वाचक शब्द है
जो प्रतिभा प्रज्ञा और बल को सूचित करता है
श्रृद्धेय गुरू जी सुमन्त कुमार यादव के ज्ञान प्रसाद से समन्वित ये तथ्य हैं!

 शोषण और पाखण्ड के विरुद्ध जो संघर्ष श्रीकृष्ण ने शुरू किया था, वो आज भी समाज में कुछ बुद्धि जीवियों के द्वारा  जारी है।   

        कृष्णकाल में भी समाज आज की तरह ही विभिन्न संस्कृतियों में विभाजित था। 

यथा- देव, यक्ष, रक्ष, नाग, किन्नर  सुर और असुर  आदि। सुरा-सुन्दरी में डूबी देव संस्कृति अपनी विलासिता के लिए विख्यात थी।

 सुराप्रेम के कारण ही देवताओं का उपनाम 'सुर' पड़ चुका था, और जो सुरा पसन्द नहीं करते थे उन्हें 'असुर' कहा जाने लगा था।

वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख है  :-

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि देव संस्कृति के अनुयायी मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे
. इस कारण इनके कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें  अदेव भी कहा गया)

 सुरा और सुन्दरी के प्रति आकर्षण, देव सँस्कृति में कोई दोष नहीं बल्कि गुण का ही पर्याय था। 

कदाचित इसीलिए इन देवगुणों से सम्पन्न देवता को ही 'इन्द्र' जैसे सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था

और शायद इसी वैचारिक विरोधाभास के चलते कृष्ण का समकालीन इन्द्र से जीवनपर्यंत विरोध चला 


     'सुर' प्रिय होने के कारण एक नाम 'सुरा' भी पड़ा। वरुण से उत्पत्ति के कारण 'वारुणी' भी कहा गया। महुआ के पुष्पों व फलों से निर्मित 'माध्वी' और ताड़ वृक्ष से निकलने से 'ताड़ी' भी चर्चित नाम हैं। 

 वर्तमान में तो 'शराब' नाम ही ज्यादा कुख्यात है।यह अरबी भाषा का शब्द है ।

 नशीले पदार्थों का सेवन, व्यक्ति के विवेक और नैतिकता को प्रभावित करता है। इतिहास साक्षी है कि, कदाचित इसीलिए लड़ाइयों और अपराधों से पहले लड़ाकों और अपराधियों द्वारा इनका सेवन किया जाता रहा है।

एक और चर्चित नाम है "सोमरस", जो वैदिक कालीन है। जो निर्विवाद रूप से देवताओं का प्रिय पेय पदार्थ था, जिसे नशीला मानने और न मानने के अपने-अपने मत हैं। 

उल्लेखनीय है कि, देवता कोई अलौकिक अथवा बाह्य जगत से सम्बंधित न थे बल्कि इसी दुनिया के व्यक्ति थे। तत्कालीन समाज देव, दैत्य, यक्ष, रक्ष, नाग, किन्नर आदि संस्कृतियों में विभाजित था।

देव स्वीडन से आये हुए लोग थे !

सोमरस क्या है? इस पर विचार करने से पहले यह बताना जरूरी है कि, देवताओं द्वारा सुरा को स्वीकार करने और दैत्यों द्वारा सुरा को अस्वीकार करने पर ही सुर-असुर शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। देखिए-

असुरास्तेन दैतेयाः

 सुरास्तेनादितेः सुताः।

  हृर्ष्टाः प्रमुदिताश्चासन् 

   वारुणीग्रहणात् सुराः।।

वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड 45/38

अर्थात- सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर' कहलाये और सुरा सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई। वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनन्दमग्न हो गये।

     आइए! अब ऋग्वेद में उल्लिखित सोमरस पर बिना किसी राग-द्वेष के विचार करते हैं।

★10 मण्डलों, 1028 सूक्तों और 10580 मन्त्रों वाला ऋग्वेद स्वयं साक्षी है कि, आर्यो का अनार्य कृषकों व पशुपालकों के साथ उनकी 'रयि'(अन्न व पशु सम्पदा) के लिए झगड़ा रहा करता था। इसीलिए सोम पीते हुए, उनकी सम्पत्ति की इच्छा व्यक्त की जाती थी और उसे हस्तगत करने की योजना भी बनाई जाती थी।

आ न इन्दो शतग्विनं

रयिं गोमन्तमश्र्विनम्।

        ऋग्वेद 9/67/6

हे सोमदेव! आप हमें गाय, घोड़े सम्पत्ति प्रदान करें।

हमला करके सम्पत्ति के साथ बहू-बेटियों का अपहरण भी किया जाता था, इसीलिए सोम से, पशुओं और अन्न के साथ कन्याएँ भी देने की बार-2 प्रार्थना की गई है। देखें...

आ भक्षत्कन्यासु नः।।

ऋग्वेद 9/67/10,11,12

आप हमें इच्छित कन्याएँ प्रदान करते हो।

सम्पत्ति की लूट-पाट के लिए, हमले उन्हीं अनार्यों पर किए जाते थे, जो दास होना स्वीकार नहीं करते थे। सोम पीकर उन्हीं की सम्पत्ति पाने की कामना की जाती थी। देखें-

आ पवमान नो भरार्यो

अदाशुषो गयम्। कृधि प्रजावतीरिष:।।9/23/3

हे सोमदेव! जो अनार्य हमारे दास नहीं बनते, उनको हमारी प्रजा बनाकर, उनका अन्न-धन हमें प्रदान करें।

जैसे शराब के अधिक सेवन से शराबी बहक जाता है, वैसे ही सोमरस के अधिक सेवन से कथित देवता भी बहक जाते थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 119वें सूक्त के सभी 13 मन्त्रों में इन्द्र स्वयं अनेक बार सोमपान करने की बात कहता है- "कुवित्सोमस्यापामिति" मैने अनेक बार सोमपान किया है। प्रस्तुत है, इसी सूक्त से, इन्द्र के प्रलाप की एक/दो बानगी-

नहि मे रोदसी उभे

अन्य पक्षं चन प्रति। (7)

पृथ्वी और आकाश मेरे एक पार्श्व की बराबरी करने में भी सक्षम नहीं हैं।

हन्ताहं पृथिवीमिमां नि

दधानीह वेह वा। (9)

मैं इस पृथ्वी को उठाकर कहीं भी ले जा सकता हूँ।

ओषमित्पृथ्वीमहं 

जङ्घनानीह वेह वा।(10)

मैं इस पृथ्वी अथवा सूर्य को, जहाँ चाहूँ वहाँ ले जाकर नष्ट कर सकता हूँ।

  हद स्तर तक ऊँचे दर्जे का व्यक्ति, इस तरह का अति रंजित प्रलाप, नशे में धुत्त होकर ही कर सकता है। कदाचित इसीलिए वेदों में इन्द्र को 'सोमपा' कहा गया है। "यः सोमपा स जनास इन्द्र:।। ऋग्वेद 2/12/13, इति इन्द्रस्य विशेषणं"। इसी की तर्ज पर कदाचित आज के शराबी को 'शरप्पा' कहा जा रहा है।

यज्ञ का आयोजन करके, मदद हेतु, उपरिक्षेत्र निवसित, इन्द्रादि देवताओं का आह्वान किया जाता था और उनका सत्कार करते हुए, उनके साथ आक्रमण से पहले युद्धोन्माद भड़काने के उद्देश्य से सोमरस पिया जाता था। ऋग्वेद के अधिकांश सूक्तों में, ऋषि विशेष द्वारा, देवता विशेष का आह्वान करते हुए सोम पीकर, विरोधियों की सम्पत्ति लाकर देने की प्रार्थना है। जिसका बंटवारा होता था-

देवाभागं यथापूर्वे संजानना उपासते...

ऋग्वेद में गव्य, गविष्टि, गवेषण, गोषु, गभ्यादि शब्द युद्ध के ही पर्याय हैं।

★नशीले पदार्थों के सेवन से मद (उन्माद) व मत्सर (बैर-क्रोध) की वृद्धि होती है और विवेक नष्ट हो जाता है। ऋग्वेद में भी, सोमरस पीने से, मद-मत्सर में वृद्धि और विवेक क्षीणता होने सम्बन्धी श्लोकों की भरमार है। 8वें मण्डल के 36वें सूक्त के 7 श्लोकों में से 6 श्लोकों में सोम के साथ मदाय शब्द जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद का 9वाँ मण्डल तो, जिसमें 114 सूक्त और 1107 मन्त्र हैं, सोम को देवता मानते हुए, उसी की स्तुति में रचा गया है। यही नहीं सोमलता को कूटनेवाले पत्थरों (ग्रावा) तक को देवता माना गया है, और उन पत्थरों की स्तुति में भी 10वें मण्डल में दो सूक्त (94वाँ व 175वाँ) रचे गये। प्रस्तुत हैं, सोम मण्डल के कुछ मन्त्रांश, जो सोमपान से मद-मत्सर में वृद्धि होने की पुष्टि करते हैं।

यथा-

इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे। 9/11/8

यह सोम इन्द्र के मद के लिए पात्र में एकत्रित होता है।

जुष्ट इन्द्राय मत्सर: पवमान कनिक्रदत। विश्वा अप द्विषो जहि।। 9/13/8

हे सोमदेव! सभी शत्रुओं के विनाश हेतु इन्द्रदेव को मत्सर प्रदान करें।

अभि सोमास आयवः

पवन्ते मद्यं मदम्।9/23/4

अस्य पीत्वा मदानामिन्द्रो

वृत्राण्यप्रति। 9/23/7

शोधित सोमरस मद वर्धक है।   मददायी इस सोम को पीकर, इंद्र ने वृत को मारा। 

★इन्दविन्द्राय मत्सरम्।

            ऋग्वेद 9/26/6

इन्द्र के मत्सर के लिए...

★त्वं हि सोम वर्धयन्त्सुतो

मदाय भूर्णये।ऋग्वेद 9/51/4

हे सोम! तुम देवताओं में मद बढ़ाने वाले हो।

★परि प्रियः कलशे देववात

इन्द्राय सोमो रण्यो मदाय।

               ऋग्वेद 9/96/9

देवों का प्रिय सोम, युद्ध में इन्द्र का मद बढ़ाने के लिए कलश में एकत्रित होता है।

★इन्द्रं ते रसो मदिरो ममत्तु।

              ऋग्वेद 9/96/21

हे सोम! मदिरा के रूप में आपका रस इन्द्र को आनन्दित करे।

★जुष्टो मदाय देवतात इन्दो

परिष्णुना धन्व सानो अव्ये।

            ऋग्वेद 9/97/19

हे सोम! संग्राम में जाने वाले वीरों के लिए आप अन्न प्रदान करने वाला रस प्रदान करें।

★परि त्यं हर्यतं हरि

बभ्रुं पुनन्ति वारेण।

यो देवान्विश्र्वाँ इत्परि

मदेन सह गच्छति।।

     ऋग्वेद 9/98/7

हरे और भूरे रँग के सोम को जल से पवित्र बनाते हैं। यह, इन्द्र आदि देवताओं के निकट अपने मद उतपन्न करने वाले गुण के साथ जाता है।

   ऐसे ही साक्ष्यों से ऋग्वेद भरा पड़ा है। यह तो चन्द श्लोकांश हैं, जिन्हें, अधिकांशतः ऋग्वेद के केवल एक ही मण्डल से लिया गया है। ये साबित करते हैं कि, सोमरस, मदिरा ही था, नशीला पदार्थ था, जो मद और मत्सर में वृद्धि करता था।

★कृपया इस लेख को अन्यथा न लें, क्योंकि इसे लिखने का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ सत्य का अन्वेषण करना है। किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं।

  सजग समाज के संस्थापक- भीष्मपाल यादव के द्वारा उद्धृत तथ्य

प्रस्तुति करण:-  यादव योगेश कुमार रोहि

सम्पर्क सूत्र 8077160219

☀☀☀☀☀☀☀☀☀