कन्यादान से अर्थ क्या है? जिस की माहवारी शुरू न हुई हो, उस लड़की का दान, जैसे गाय दान, गले में डाली हुई रस्सी किसी दूसरे को थमा दो ।
तीस वर्ष का पुरुष दस वर्ष की कन्या को जो रजस्वला न हुई हो पत्नी रूप में प्राप्त करे अथवा इक्कीस वर्ष का पुरुष सात वर्ष की कुमारी के साथ विवाह करे । महाभारत गीता प्रेस गोरखपुर अनुशासन पर्व 44/14
हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा प्रकाशित भविष्य पुराण पार्ट 1 के ब्रह्मा पर्व के 172 अध्याय में लिखा है :–
वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत की हुई कन्या को किसी वेद विद्वान गरीब ब्राह्मण को देनी चाहिए क्योंकि इसे ही कन्यादान बताया गया हैं। कन्या भी सभी दोषों से मुक्त, अपने कुल के योग्य और अलंकृत होनी चाहिए।
श्रीमद् देवी भागवत महापुराण स्कंद 9 अध्याय 30 श्लोक 27 से 30 में लिखा है:–
भारत में जो मनुष्य उपभोग करने योग्य पतिव्रता तथा सुन्दर कन्या को अलंकारों तथा वस्त्रोंसे विभूषित करके उसे किसी ब्राह्मण को भार्या रूप में अर्पण करता है, वह चौदहों इन्द्रों की स्थिति पर्यन्त चन्द्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और वहाँ पर स्वर्ग की अप्सराओं के साथ दिन-रात आनन्द प्राप्त करता रहता है। उसके बाद वह निश्चय ही गन्धर्वलोक में दस हजार वर्षो तक निवास करता है और वहाँ पर उर्वशी के साथ क्रीडा करते हुए दिन-रात आनन्द प्राप्त करता है। तत्पश्चात् उसे हजारों जन्म तक सुन्दर, साध्वी, सौभाग्यवती, कोमल तथा प्रिय सम्भाषण करने वाली भार्या प्राप्त होती है।
देवमीढ (देवमीढ) - ययाति के पुत्र यदु के कुल में जन्मे एक प्रतिष्ठित यादव। वे वसुदेव के दादा और राजा शूरसेन के पिता थे।
( महाभारत-द्रोणपर्व, अध्याय 144, श्लोक 6)।
नहुषस्य ययातिस्तु राजा देवर्षिसम्मतः।
ययातेर्देवयान्यां तु यदुर्ज्येष्ठोऽभवत्सुतः।।६।
यदोरभूदन्ववाये (आजमीढ) इति स्मृतः।
यादवस्तस्य तु सुतः शूरस्त्रैलोक्यसम्मतः।।७।
शूरस्य शौरिर्नृवरो वसुदेवो महायशाः।
धनुष्यनवरः शूरः कार्तवीर्यसमो युधि।
धनुष्यनवरः शूरः कार्तवीर्यसमो युधि।
तद्वार्यश्चापि तत्रैव कुले शिनिरभून्नृप।। ८।
महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-(144,)
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शूरसेन के पिता देवमीढ़ का दूसरा नाम " चित्ररथ था। (महाभारत अनुशासन पर्व, अध्याय 147, श्लोक 29)
चित्ररथ (चित्ररथ) - यादव वंश के एक राजा। वे उषाङ्कु के पुत्र और शूर के पिता थे। (श्लोक 29, अध्याय 147, अनुशासन पर्व)।
रुषेकु (उषाङ्कु ) के पुत्र और शशबिन्दु के पिता। *
* भागवत-पुराण IX. 23. 31; ब्रह्माण्ड विज्ञान-पौराणिक कथा III. 70. 18; मत्स्य-पुराण 44. 17; विष्णु-पुराण IV. 12. 2-3.
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देवमीढ( चित्ररथ)- भागवत पुराण के मत में कृतिरथ का तथा वायुपुराण के मत में कीर्तिरथ(ह्रदीक) का पुत्र ।
देवमीढ - भागवतमत में ह्रदीक का पुत्र । इसका पुत्र शूर । इसकी पत्नी का नाम ऐक्ष्वाकी था [मत्स्य.४६] । देवमीढुष, देवमानुषि एवं देवमेधस् इसी के नामांतर हैं ।
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देवमीढ - द्विमीढ का नामांतर ।
देवमीढ (सो. वृष्णि.) वृष्णि के पॉंच पुत्रों में से तीसरा [पद्म.सृष्टि खण्ड.१३] ।
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! ( अब आप लोग सात्त्वत के कनिष्ठ पुत्र वृष्णि का वंश-वर्णन सुनिये) गान्धारी और माद्री- ये दोनों वृष्णि की पत्नियाँ हुईं। उनमें गान्धारी ने सुमित्र और मित्रनन्दन नामक दो पुत्रों को तथा माद्री ने युधाजित्, तत्पश्चात् देवमीढुष, अनमित्र, शिवि और पाँचवें कृतलक्षण नामक पुत्रों को जन्म दिया।
सूतजी कहते हैं-ऋषियों! ऐक्ष्वाकी (माद्री) ने शूर (शूरसेन) नामक एक अद्भुत पुत्रको जन्म दिया, जो आगे चलकर ईदुष (देवमीढुष) नाम से विख्यात हुआ। पुरुषार्थी शूरके सम्पर्कसे भोजा( मारिया) के गर्भ से दस पुत्रों और पाँच सुन्दरी कन्याओंकी उत्पत्ति हुई। पुत्रों में सर्वप्रथम महाबाहु वसुदेव उत्पन्न हुए, जिनकी आनकदुन्दुभि नामसे भी प्रसिद्धि हुई। उसके बाद | देवभाग- ( देवमार्ग) का जन्म हुआ।
मत्स्यपुराण /अध्यायः (४६)
सोमवार, 4 नवंबर 2024
सात्वतके कनिष्ठ पुत्र] वृष्णिके वंशमें अनमित्रनामके प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, वे अपने पिताके कनिष्ठ पुत्र थे उनसे शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनमित्रसे वृष्णिवीर युधाजित्का भी जन्म हुआ। उनके सिवा दो वीर पुत्र और हुए, जो ऋषभ और क्षत्रके नामसे विख्यात हुए। उनमेंसे ॠषभने काशिराजकी पुत्रीको पत्नीके रूपमें ग्रहण किया। उससे जयन्तकी उत्पत्ति हुई। जयन्तने जयन्ती नामकी सुन्दरी भार्याके साथ विवाह किया। उसके गर्भसे एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सदा यज्ञ करनेवाला, अत्यन्त धैर्यवान् शास्त्रज्ञ और अतिथियोंका प्रेमी था उसका नाम अक्रूर था। अक्रूर यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले और बहुत-सी दक्षिणा देनेवाले थे। उन्होंने रत्नकुमारी के साथ विवाह किया और उसके गर्भसे ग्यारह महाबली पुत्रोंको उत्पन्न किया।
पद्म पुराण (पद्मपुराण)
Padma Purana,Padama Purana ()
खण्ड 1, अध्याय 13 - Khand 1, Adhyaya 13
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यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजेन्द्र ! अब यदुपुत्र क्रोष्टुके वंशका, जिसमें श्रेष्ठ पुरुषोंने जन्म लिया था, वर्णन सुनो। क्रोष्टुके ही कुलमें वृष्णिवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णका अवतार हुआ है। क्रोष्टुके पुत्र महामना जिनीवान् हुए उनके पुत्रका नाम स्वाति था। स्वातिसे कुशंकुका जन्म हुआ। कुशंकुसे चित्ररथ उत्पन्न हुए, जो शशविन्दु नामसे विख्यात चक्रवर्ती राजा हुए। शशविन्दुके दस हजार पुत्र हुए। वे बुद्धिमान्, सुन्दर, प्रचुर वैभवशाली और तेजस्वी थे। उनमें भी सौ प्रधान थे। उन सौ पुत्रोंमें भी, जिनके नामके साथ 'पृभु' शब्द जुड़ा था, वे महान् बलवान् थे। उनके पूरे नाम इस प्रकार है-पृथुश्रवा पृथुयशा पृथुतेज, पृथूद्भव, पृथुकीर्ति और पृथुमति। पुराणोंके ज्ञाता पुरुष उन सबमें पृथुश्रवाको श्रेष्ठ बतलाते हैं। पृथुश्रवासे उशना नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंको सन्ताप देनेवाला था। उशनाका पुत्र शिनेयु हुआ, जो सज्जनोंमें श्रेष्ठ था। शिनेयुका पुत्र रुक्मकवच नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह शत्रुसेनाका विनाश करनेवाला था। राजा रुक्मकवचने एक बार अश्वमेध यज्ञका आयोजन किया और उसमें दक्षिणाके रूपमें यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दे दी। उसके रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, परिघ और हरि-ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जो महान् बलवान् और पराक्रमी थे। उनमेंसे परिघ और हरिको उनके पिताने विदेह देशके राज्यपर स्थापित किया। स्वमेषु राजा हुआ और पृथुस्कम उसके अधीन होकर रहने लगा। उन दोनोंने मिलकर अपने भाई ज्यामघको घरसे निकाल दिया। ज्यामघ ऋक्षवान् पर्वतपर जाकर जंगली फलमूलों से जीवन-निर्वाहकरते हुए वहाँ रहने लगे। ज्यामघकी स्त्री शैब्या बड़ी सती-साध्वी स्त्री थी। उससे विदर्भ नामक पुत्र हुआ। विदर्भसे तीन पुत्र हुए - क्रथ, कैशिक और लोमपाद । राजकुमार क्रथ और कैशिक बड़े विद्वान् थे तथा लोमपाद परम धर्मात्मा थे। तत्पश्चात् राजा विदर्भने और भी अनेकों पुत्र उत्पन्न किये, जो युद्ध कर्ममें कुशल तथा शूरवीर थे। लोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुका पुत्र हेति हुआ। कैशिकके चिदि नामक पुत्र हुआ, जिससे चैद्य राजाओंकी उत्पत्ति बतलायी जाती है।
विदर्भका जो क्रथ नामक पुत्र था, उससे कुन्तिका जन्म हुआ, कुन्तिसे धृष्ट और धृष्टसे पृष्टकी उत्पत्ति हुई। पृष्ट प्रतापी राजा था। उसके पुत्रका नाम निर्वृति था। वह परम धर्मात्मा और शत्रुवीरोंका नाशक था। निर्वृतिके दाशार्ह नामक पुत्र हुआ, जिसका दूसरा नाम विदूरथ था। दाशार्हका पुत्र भीम और भीमका जीमूत हुआ। जीमूतके पुत्रका नाम विकल था । विकलसे भीमरथ नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भीमरथका पुत्र नवरथ, नवरथका दृढरथ और दृढरथका पुत्र शकुनि हुआ। शकुनिसे करम्भ और करम्भसे देवरातका जन्म हुआ। देवरातके पुत्र महायशस्वी राजा देवक्षत्र हुए। देवक्षत्रका पुत्र देवकुमारके समान अत्यन्त तेजस्वी हुआ। उसका नाम मधु था । मधुसे कुरुवशका जन्म हुआ। कुरुवशके पुत्रका नाम पुरुष था। वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ हुआ। उससे विदर्भकुमारी भद्रवतीके गर्भसे जन्तुका जन्म हुआ। जन्तुका दूसरा नाम पुरुद्वसु था। जन्तुकी पत्नीका नामवेत्रकी था। उसके गर्भसे सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतकी उत्पत्ति हुई। जो सात्वतवंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले थे। सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतसे उनकी रानी कौसल्याने भजिन, भजमान, दिव्य राजा देवावृध, अन्धक, महाभोज और वृष्णि नामके पुत्रोंको उत्पन्न किया। इनसे चार वंशका विस्तार हुआ। उनका वर्णन सुनो। भजमानकी पत्नी संजयकुमारी सृजयीके गर्भसे भाज नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भाजसे भाजकोंका जन्म हुआ। भाजकी दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- विनय, करुण और वृष्णि। इनमें वृष्णि शत्रुके नगरोंपर विजय पानेवाले थे। भाज और उनके पुत्र- सभी भाजक नामसे प्रसिद्ध हुए; क्योंकि भजमानसे इनकी उत्पत्ति हुई थी।
देवावृधसे बभ्रु नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो सभी उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था। पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् पुरुष महात्मा देवावृधके गुणोंका बखान करते हुए इस वंशके विषयमें इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट करते हैं— 'देवावृध देवताओंके समान हैं और बभ्रु समस्त मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं। देवावृध और बभ्रुके उपदेशसे छिहत्तर हजार मनुष्य मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।' बभ्रुसे भोजका जन्म हुआ, जो यज्ञ, दान और तपस्यामें धीर, ब्राह्मणभत्त, उत्तम व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले रूपवान् तथा महातेजस्वी थे। शरकान्तकी कन्या मृतकावती भोजकी पत्नी हुई। उसने भोजसे कुकुर, भजमान, समीक और बलबर्हिष- ये चार पुत्र उत्पन्न किये। कुकुरके पुत्र भूष्णुष्णुकेति धृतिम कपोतरोमा के नैमिति नैमित्तिके सुमृत और मुके पुत्र नरि हुए। नरि बड़े विद्वान् थे। उनका दूसरा नाम चन्दनोदक दुन्दुभि बतलाया जाता है। उनसे अभिजित् और अभिजित्से पुनर्वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। शत्रुविजयी पुनर्वसुसे दो सन्तानें हुई; एक पुत्र और एक कन्या पुत्रका नाम आहुक था और कन्याका आहुकी। भोजमें कोई असत्यवादी जन यज्ञ न करनेवाल हजारसे कम दान करनेवाला, अपवित्र और मूर्ख नहीं था। भोजसे बढ़कर कोई हुआ ही नहीं। यहभोजवंश आहुकतक आकर समाप्त हो गया। आयुकने अपनी बहिन आटुकीका व्याह अवन्ती देशमें किया था। आहुकको एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- देवक और उग्रसेन वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी हैं। देवकके चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान सुन्दर और वीर हैं। उनके नाम हैं- देववान्, उपदेव, सुदेव और देवरक्षक। उनके सात बहिनें थीं, जिनका व्याह देवकने वसुदेवजीके साथ कर दिया। उन सातोंके नाम इस प्रकार हैं-देवकी, तदेवा, यशोदा, श्रुतिश्रव श्रीदेवा, उपदेवा और सुरूपा । उग्रसेनके नौ पुत्र हुए। उनमें कंस सबसे बड़ा था। शेषके नाम इस प्रकार हैं—न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु, सुभू, राष्ट्रपाल, बद्धमुष्टि और सुमुष्टिक। उनके पाँच बहिनें थीं कंसा कंसवती, सुरभी, राष्ट्रपाली और कंका ये सब की सब बड़ी सुन्दरी थीं। इस प्रकार सन्तानसहित उग्रसेनतक कुकुर- वंशका वर्णन किया गया।
[भोजके दूसरे पुत्र] भजमानके विदूरथ हुआ, वह रथियों में प्रधान था। उसके दो पुत्र हुए- राजाधिदेव और शूर राजाधिदेवके भी दो पुत्र हुए- शोणाश्व और श्वेतवाहन वे दोनों वीर पुरुषोंके सम्माननीय और क्षत्रिय धर्मका पालन करनेवाले थे। शोणाश्वके पाँच पुत्र हुए वे सभी शूरवीर और बुद्धकर्ममें कुशल थे। उनके नाम इस प्रकार है-शमी, गदवर्मा, निमूर्त चक्रजित् और शुचि शमीके पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र के भोज और भोजके हृदिक हुए। हृदिकके दस पुत्र हुए, जो भयानक पराक्रम दिखानेवाले थे। उनमें कृतवर्मा सबसे बड़ा था। उससे छोटोंके नाम शतधन्वा, देवार्ड, सुभानु, भीषण, महाबल, अजात विजाद कारक और करम्भक हैं। देवार्हका पुत्र कम्बलबर्हिष हुआ, वह विद्वान् पुरुष था। उसके दो पुत्र हुए समौजा और असमौजा अजातके पुत्रसे भी समौजा नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। समौजाके तीन पुत्र हुए, जो परम धार्मिक और पराक्रमी थे। उनके नाम हैं सुदृश, सुरांश और कृष्ण । [सात्वतके कनिष्ठ पुत्र] वृष्णिके वंशमें अनमित्रनामके प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, वे अपने पिताके कनिष्ठ पुत्र थे उनसे शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनमित्रसे वृष्णिवीर युधाजित्का भी जन्म हुआ। उनके सिवा दो वीर पुत्र और हुए, जो ऋषभ और क्षत्रके नामसे विख्यात हुए। उनमेंसे ॠषभने काशिराजकी पुत्रीको पत्नीके रूपमें ग्रहण किया। उससे जयन्तकी उत्पत्ति हुई। जयन्तने जयन्ती नामकी सुन्दरी भार्याके साथ विवाह किया। उसके गर्भसे एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सदा यज्ञ करनेवाला, अत्यन्त धैर्यवान् शास्त्रज्ञ और अतिथियोंका प्रेमी था उसका नाम अक्रूर था। अक्रूर यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले और बहुत-सी दक्षिणा देनेवाले थे। उन्होंने रत्नकुमारी के साथ विवाह किया और उसके गर्भसे ग्यारह महाबली पुत्रोंको उत्पन्न किया। अकूरने पुनः शूरसेना नमकी पत्नीके गर्भसे देववान् और उपदेव नामक दो और पुत्रोंको जन्म दिया। इसी प्रकार उन्होंने अश्विनी नामकी पत्नीसे भी कई पुत्र उत्पन्न किये।
[विदूरथकी पत्नी] ऐक्ष्वाकीने मीढुष नामक पुत्रको जन्म दिया। उनका दूसरा नाम शूर भी था शूरने भोजाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनमें आनकदुन्दुभि नामसे प्रसिद्ध महाबाहु वसुदेव ज्येष्ठ थे। उनके सिवा शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार है-देवभाग, देवखवा, अनावृष्टि, कुनि, नन्दि, सकृयशाः श्याम समीढु और शंसस्यु। शूरसे पाँच सुन्दरी कन्याएँ भी उत्पन्न हुई, जिनके नाम हैं-श्रुतिकीर्ति, पृथा श्रुतदेवी, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। ये पाँचों वीर पुत्रोंकी जननी थीं। श्रुतदेवीका विवाह वृद्ध नामक राजाके साथ हुआ। उसने कारूष नामक पुत्र उत्पन्न किया। श्रुतिकीर्तिने केकवनरेशके अंशसे सन्तर्दनको जन्म दिया। त दिनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से सुनीथ (शिशुपाल) का जन्म हुआ। राजाधिदेवीके गर्भ से धर्मकी भाव अभिमर्दिताने जन्म ग्रहण किया। शूरकी राजा कुन्तिभोजके साथ मैत्री थी, अतः उन्होंने अपनी कन्यापृथाको उन्हें गोद दे दिया। इस प्रकार वसुदेवकी बहिन पृथा कुन्तिभोजकी कन्या होनेके कारण कुन्तीके नामसे प्रसिद्ध हुई। कुन्तिभोजने महाराज पाण्डुके साथ कुन्तीका विवाह किया। कुन्तीसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए- युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन। अर्जुन इन्द्रके समान पराक्रमी हैं। वे देवताओंके कार्य सिद्ध करनेवाले, सम्पूर्ण दानवोंके नाशक तथा इन्द्रके लिये भी अवध्य हैं। उन्होंने दानवोंका संहार किया है।
‘परंतप! क्या पाण्डुके पाँचों पुत्र और धृतराष्ट्रके भी सभी आत्मज संसारमें तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचर सकेंगे?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वराष्ट्रे ते च राजानः कच्चित् प्राप्स्यन्ति वै सुखम्। कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन केशव ॥ १३ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! तुम-जैसे रक्षक एवं स्वामीके द्वारा कौरवोंके शान्त कर दिये जानेपर अब पाण्डवनरेशोंको अपने राज्यमें सुख तो मिलेगा न?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत। अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति॥१४॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! मैं सदा तुमसे इस बातकी सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्नसे कौरव-पाण्डवोंमें मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियोंके सम्बन्धमें तुमने वह सफल तो किया है न?’॥१४॥
श्रीभगवान्ने कहा— महर्षे! मैंने पहले कौरवोंके पास जाकर उन्हें शान्त करनेके लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह संधिके लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्गमें स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्धमें मारे गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दिष्टमप्यतिक्रान्तुं शक्यं बुद्ध्या बलेन वा ॥ १६ ॥ महर्षे विदितं भूयः सर्वमेतत् तवानघ। तेऽत्यक्रामन् मतिं मह्यं भीष्मस्य विदुरस्य च ॥ १७ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षे! प्रारब्धके विधानको कोई बुद्धि अथवा बलसे नहीं मिटा सकता। अनघ! आपको तो ये सब बातें मालूम ही होंगी कि कौरवोंने मेरी, भीष्मजीकी तथा विदुरजीकी सम्मतिको भी ठुकरा दिया॥१६-१७॥
इसीलिये वे आपसमें लड़-भिड़कर यमलोक जा पहुँचे। इस युद्धमें केवल पाँच पाण्डव ही अपने शत्रुओंको मारकर जीवित बच गये हैं। उनके पुत्र भी मार डाले गये हैं। धृतराष्ट्रके सभी पुत्र, जो गान्धारीके पेटसे पैदा हुए थे, अपने पुत्र और बान्धवोंसहित नष्ट हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः। उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥ १९ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोषसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तङ्क उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः। सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंक बोले— श्रीकृष्ण! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः। तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥ २१ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोधमें भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया शक्तेन हि सता मिथ्याचारेण माधव। ते परीताः कुरुश्रेष्ठा नश्यन्तः स्म ह्युपेक्षिताः ॥ २२ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! कितने खेदकी बात है, तुमने समर्थ होते हुए भी मिथ्याचारका आश्रय लिया। युद्धमें सब ओरसे आये हुए वे श्रेष्ठ कुरुवंशी नष्ट हो गये और तुमने उनकी उपेक्षा कर दी॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन। गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— भृगुनन्दन! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै। न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥ २४ ॥ न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपको अध्यात्मतत्त्व सुना रहा हूँ। उसे सुननेके पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्याके बलपर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या नष्ट हो जाय॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥ कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम। दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपने गुरुजनोंको भी सेवासे संतुष्ट किया है। द्विजश्रेष्ठ! आपने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तपका मैं नाश कराना नहीं चाहता हूँ॥२५-२६॥
मूलम् (समाप्तिः)मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तङ्कके उपाख्यानमें श्रीकृष्ण और उत्तङ्कका समागमविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥
स प्रयातो महाबाहुः समेषु मरुधन्वसु। ददर्शाथ मुनिश्रेष्ठमुत्तङ्कममितौजसम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मरुभूमिके समतल प्रदेशमें पहुँचकर महाबाहु श्रीकृष्णने अमिततेजस्वी मुनिश्रेष्ठ उत्तंकका दर्शन किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं सम्पूज्य तेजस्वी मुनिं पृथुललोचनः। पूजितस्तेन च तदा पर्यपृच्छदनामयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल नेत्रोंवाले तेजस्वी श्रीकृष्ण उत्तंक मुनिकी पूजा करके स्वयं भी उनके द्वारा पूजित हुए। तत्पश्चात् उन्होंने मुनिका कुशल-समाचार पूछा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पृष्टः कुशलं तेन सम्पूज्य मधुसूदनम्। उत्तङ्को ब्राह्मणश्रेष्ठस्ततः पप्रच्छ माधवम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
उनके कुशल-मंगल पूछनेपर विप्रवर उत्तंकने भी मधुसूदन माधवकी पूजा करके उनसे इस प्रकार प्रश्न किया—॥९॥
‘परंतप! क्या पाण्डुके पाँचों पुत्र और धृतराष्ट्रके भी सभी आत्मज संसारमें तुम्हारे साथ सुखपूर्वक विचर सकेंगे?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वराष्ट्रे ते च राजानः कच्चित् प्राप्स्यन्ति वै सुखम्। कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन केशव ॥ १३ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! तुम-जैसे रक्षक एवं स्वामीके द्वारा कौरवोंके शान्त कर दिये जानेपर अब पाण्डवनरेशोंको अपने राज्यमें सुख तो मिलेगा न?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत। अपि सा सफला तात कृता ते भरतान् प्रति॥१४॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! मैं सदा तुमसे इस बातकी सम्भावना करता था कि तुम्हारे प्रयत्नसे कौरव-पाण्डवोंमें मेल हो जायगा। मेरी जो वह सम्भावना थी, भरतवंशियोंके सम्बन्धमें तुमने वह सफल तो किया है न?’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान् प्रति। नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा ॥ १५ ॥ ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः।
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा— महर्षे! मैंने पहले कौरवोंके पास जाकर उन्हें शान्त करनेके लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु वे किसी तरह संधिके लिये तैयार न किये जा सके। जब उन्हें समतापूर्ण मार्गमें स्थापित करना असम्भव हो गया, तब वे सब-के-सब अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित युद्धमें मारे गये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दिष्टमप्यतिक्रान्तुं शक्यं बुद्ध्या बलेन वा ॥ १६ ॥ महर्षे विदितं भूयः सर्वमेतत् तवानघ। तेऽत्यक्रामन् मतिं मह्यं भीष्मस्य विदुरस्य च ॥ १७ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षे! प्रारब्धके विधानको कोई बुद्धि अथवा बलसे नहीं मिटा सकता। अनघ! आपको तो ये सब बातें मालूम ही होंगी कि कौरवोंने मेरी, भीष्मजीकी तथा विदुरजीकी सम्मतिको भी ठुकरा दिया॥१६-१७॥
इसीलिये वे आपसमें लड़-भिड़कर यमलोक जा पहुँचे। इस युद्धमें केवल पाँच पाण्डव ही अपने शत्रुओंको मारकर जीवित बच गये हैं। उनके पुत्र भी मार डाले गये हैं। धृतराष्ट्रके सभी पुत्र, जो गान्धारीके पेटसे पैदा हुए थे, अपने पुत्र और बान्धवोंसहित नष्ट हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः। उत्तङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः ॥ १९ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके इतना कहते ही उत्तंक मुनि अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और रोषसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। उन्होंने श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तङ्क उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः। सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् ॥ २० ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंक बोले— श्रीकृष्ण! कौरव तुम्हारे प्रिय सम्बन्धी थे, तथापि शक्ति रखते हुए भी तुमने उनकी रक्षा न की। इसलिये मैं तुम्हें अवश्य शाप दूँगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च ते प्रसभं यस्मात् ते निगृह्य निवारिताः। तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन ॥ २१ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! तुम उन्हें जबर्दस्ती पकड़कर रोक सकते थे, पर ऐसा नहीं किया। इसलिये मैं क्रोधमें भरकर तुम्हें शाप दूँगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया शक्तेन हि सता मिथ्याचारेण माधव। ते परीताः कुरुश्रेष्ठा नश्यन्तः स्म ह्युपेक्षिताः ॥ २२ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! कितने खेदकी बात है, तुमने समर्थ होते हुए भी मिथ्याचारका आश्रय लिया। युद्धमें सब ओरसे आये हुए वे श्रेष्ठ कुरुवंशी नष्ट हो गये और तुमने उनकी उपेक्षा कर दी॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु मे विस्तरेणेदं यद् वक्ष्ये भृगुनन्दन। गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव ॥ २३ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णने कहा— भृगुनन्दन! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे विस्तारपूर्वक सुनिये। भार्गव! आप तपस्वी हैं, इसलिये मेरी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै। न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् ॥ २४ ॥ न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर।
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपको अध्यात्मतत्त्व सुना रहा हूँ। उसे सुननेके पश्चात् यदि आपकी इच्छा हो तो आज मुझे शाप दीजियेगा। तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ महर्षे! आप यह याद रखिये कि कोई भी पुरुष थोड़ी-सी तपस्याके बलपर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या नष्ट हो जाय॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः ॥ २५ ॥ कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम। दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् ॥ २६ ॥
मूलम्
अनुवाद (हिन्दी)
आपका तप और तेज बहुत बढ़ा हुआ है। आपने गुरुजनोंको भी सेवासे संतुष्ट किया है। द्विजश्रेष्ठ! आपने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्यका पालन किया है। ये सारी बातें मुझे अच्छी तरह ज्ञात हैं। इसलिये अत्यन्त कष्ट सहकर संचित किये हुए आपके तपका मैं नाश कराना नहीं चाहता हूँ॥२५-२६॥
मूलम् (समाप्तिः)मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तङ्कके उपाख्यानमें श्रीकृष्ण और उत्तङ्कका समागमविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५३॥
और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। इसी शाखा में कई पीढ़ीयों के
पश्चात कृतवीर्य का पुत्र सहस्रबाहु अर्जुन हुआ।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:
त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 में सहस्रबाहु के पूर्वज और यदु के प्रपौत्र हैहय के वंशजों का विवरण प्रस्तुत है।
हैहय का पुत्र धर्म, धर्म का पुत्र नेत्र, नेत्र का पुत्र कुन्ति, कुन्ति का पुत्र सोहंजि, हुआ और सोहंजि का पुत्र महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ
भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के
चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा।
कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और
अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।
सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ. और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे - जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।
वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का (रुशेकु), रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु।
शशबिन्दु सम्राट- वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।
परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं।
महाभारत के अनुशासन पर्व तथा ब्रह्मपुराण के अनुसार चित्ररथ - यादव वंश के एक राजा हैं। जो कि उषङ्क: के पुत्र थे। और यही उषङ्क(रुशेकु ) शूरसेन के पिता थे।
इस प्रमाण के लिए देखें- (श्लोक 29, अध्याय- 251, अनुशासन पर्व)।
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यदुस्तस्मान्महासत्वः क्रोष्टा तस्माद्भविष्यति।
क्रोष्टुश्चैव महान्पुत्रो वृजिनीवान्भविष्यति।28। (महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय-251)
वृजिनीवतश्च भविता उषङ्गुरपराजितः।
उषङ्गोर्भविता पुत्रः शूरश्चित्ररथस्तथा।
तस्य त्ववरजः पुत्रः शूरो नाम भविष्यति।29।(महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय-251)
तेषां विख्यातवीर्याणां चरित्रगुणशालिनाम्।
यज्वनां सुविशुद्धानां वंशे ब्राह्मणसम्मते।।30।
(महाभारत अनुशासन-पर्व अध्याय-251)
स शूरः क्षत्रियश्रेष्ठो महावीर्यो महायशाः।
स्ववंशविस्तरकरं जनयिष्यति मानदः।
वसुदेव इति ख्यातं पुत्रमानकदुन्दुभिम्।।31।
तस्य पुत्रश्चतुर्बाहुर्वासुदेवो भविष्यति।
दाता ब्राह्मणसत्कर्ता ब्रह्मभूतो द्विजप्रियः।32।
राज्ञो मागधसंरुद्धान्मोक्षयिष्यति यादवः।
जरासंधं तु राजानं निर्जित्य गिरिगह्वरे।33।
सर्वपार्थिवरत्नाढ्यो भविष्यति स वीर्यवान्।
पृथिव्यामप्रतिहतो वीर्येण च भविष्यति।34।
विक्रमेण च सम्पन्नः सर्वपार्थिवपार्थिवः।।
शूरसेनेषु भूत्वा स द्वारकायां वसन्प्रभुः।35।
अनुवाद:-
यदु से क्रोष्टा का जन्म होगा, क्रोष्टा से महान् पुत्र वृजिनीवान् होंगे। वृजिनीवान् से विजय वीर उषंक
का जन्म होगा। उषंक के दो पुत्र शूर तथा चित्ररथ हुए उसका छोटा पुत्र शूर नाम से विख्यात होगा।
वे सभी यदुवंशी विख्यात पराक्रमी, सदाचार और सद्गुण से सुशोभित, यज्ञशील और विशुद्ध आचार-विचार वाले होंगे। उनका कुल ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित होगा।
उस कुल में महापराक्रमी, महायशस्वी और दूसरों को सम्मान देने वाले क्षत्रिय-शिरोमणि शूर अपने वंश का विस्तार करने वाले वसुदेव नामक पुत्र को जन्म देंगे,
जिसका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि होगा।
उन्हीं के पुत्र चार भुजाधारी भगवान वासुदेव होंगे। भगवान वासुदेव दानी, ब्राह्मणों का सत्कार करने वाले, ब्रह्मभूत और ब्राह्मणप्रिय होंगे। वे यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण मगधराज जरासंध की कैद में पड़े हुए राजाओं को बन्धन से छुड़ायेंगे।
वे पराक्रमी श्रीहरि पर्वत की कन्दरा(राजगृह)- में राजा जरासंध को जीतकर समस्त राजाओं के द्वारा उपहृत रत्नों से सम्पन्न होंगे।
वे इस भूमण्डल में अपने बल-पराक्रम द्वारा अजेय होंगे। विक्रम से सम्पन्न् तथा समस्त राजाओं के भी राजा होंगे। नीतिवेत्ता भगवान श्रीकृष्ण शूरसेन देश (मथुरा-मण्डल)- में अवतीर्ण होकर वहाँ से द्वारकापुरी में जाकर रहेंगे और समस्त राजाओं को जीतकर सदा इस पृथ्वी देवी का पालन करेंगे।
"श्रीमन्महाभारत अनुशासनपर्व
दानधर्मपर्व नामक एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।251।
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इसी प्रकार का वर्णन यथावत् ब्राह्मपुराण के (226) वें अध्याय में हैं। सम्भवतः दोनों समान श्लोक एक लेखक के द्वारा लिखित हैं।
श्री ब्रह्मपुराणे आदिब्राह्मे ऋषिमहेश्वरसंवादे षड़विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। २२६ ।।
उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।
उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया।
एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस भोज्या कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैव्या ने मुस्कराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है।
फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ।
उसी ने शैव्या(चेैत्रा) की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
विदर्भ के दूसरे पुत्र क्रथ हुआ । क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ।
दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए।
अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से ही सात्वत का जन्म हुआ।
अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और. प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ।
वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी।
उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।
इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।
उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका।
इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।
देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी।
पृथा का विवाह पाण्डु से हुआ ! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ।
यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द।
वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल ।
वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए।
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।
सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए।
वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये।
कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।
आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।
रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि।
नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
कौशल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।
वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये।
परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी।
उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।
(परन्तु अन्पुराणों हरिवंश आदि में सुभद्र बलराम की बहिन थीं।)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः । जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३
(भागवत पुराण-9/1/23)
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतम की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें।
12. पिता ने परिघ और हरि को विदेह में स्थापित कर दिया । रुक्मेशु राजा बन गया और पृथुरुक्म उसके साथ रहने लगा।
ताभ्यां प्रव्राजितो राज्याज्ज्यामघोवसदाश्रमे
प्रशांतश्चाश्रमस्थस्तु ब्राह्मणेन विबोधितः।१३।
13-. इन दोनों द्वारा राज्य से निर्वासित ज्यामघ एक आश्रम में रहते थे। वह आश्रम में शांति से रह रहा था और एक ब्राह्मण द्वारा उकसाए जाने पर उसने अपना धनुष उठाया ।
19-विदर्भ नामक पुत्र को जन्म दिया । सौभाग्यवती शैव्या प्रसन्न हुई ,विदर्भ ने राजकुमारी, (ज्यामघ की पुत्रबधु) में ,दो पुत्र, क्रथ और कौशिक उत्पन्न किये।।
लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम्
पश्चाद्विदर्भो जनयच्छूरं रणविशारदम्।२०।
20. और बाद में लोमपाद नाम का तीसरा पुत्र उत्पन्न किया , जो अत्यंत परमधार्मिक, बहादुर और युद्ध में कुशल था।
21. बभ्रु लोमपाद का पुत्र था; और बभ्रु का पुत्र धृति था ; विदर्भ एक पुत्र कौशिक का पुत्र चेदि था और उससे ही चैद्य नाम से जाने जाने वाले राजा उत्पन्न हुए थे।
28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में अंशु नामक पुत्र हुआ।
वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशू की पत्नी वेत्रकी से सात्वत हुआ जो ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।
30- महाराज ज्यामघ की. इन संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला व्यक्ति पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है। ।
सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में सत्व सम्पन्न सात्वत से चार पुत्र को जन्म हुआ उन्हें विस्तार से सुनो
भजमानस्य सृंजय्यां भाजनामा सुतोभवत्
सृंजयस्य सुतायां तु भाजकास्तु ततोभवन्।३२।
32-(जैसा कि मैं तुम्हें बताता हूं): सृंजया नामक पत्नी में भजमान का भाज नामक पुत्र प्राप्त हुआ। फिर सृंजय की पुत्री सृंजया के गर्भ से भाजक का जन्म हुआ ।
तस्य भाजस्य भार्ये द्वे सुषुवाते सुतान्बहून्
नेमिं चकृकणं चैव वृष्णिं परपुरञ्जयं।३३।
33. उस भाज की दो पत्नियों ने कई पुत्रों को जन्म दिया: नेमि, कृकण-और शत्रुओं के नगरों के विजेता वृष्णि।
ते भाजकाः स्मृता यस्माद्भजमानाद्वि जज्ञिरे
देवावृधः पृथुर्नाम मधूनां मित्रवर्द्धनः।३४।
34. चूंकि वे भजमान से पैदा हुए थे इसलिए उन्हें भाजक कहा जाने लगा। वहाँ मधु के मित्रों का वर्द्धन करने वाले देववृध, का दूसरा नाम पृथु था।
अपुत्रस्त्वभवद्राजा चचार परमं तपः
पुत्रः सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति स्पृहन्।३५।
-35. यह राजा देवावृध पुत्रहीन था, इसलिए 'मुझे सभी गुणों से संपन्न एक पुत्र मिले' उसने ये इच्छा करते हुए परम तप किया ़।
(पुराणकार ने नदी पर कोई स्त्री मिली होगी उसी भाव को नदी रूप में दर्शाया है।
कल्याण चरतस्तस्य शुशोच निम्नगाततः
चिंतयाथ परीतात्मा जगामाथ विनिश्चयम्।३७।
37-तब नदी (नदी के पास स्त्री) को उसकी भलाई की चिंता हुई जो देववृथ तपस्या कर रहा था। चिन्ता से भरे हुए मन से उसने निश्चय किया,
भूत्वा गच्छाम्यहं नारी यस्यामेवं विधः सुतः
जायेत तस्मादद्याहं भवाम्यस्य सुतप्रदा।३८।
38-मैं स्त्री बनकर उसके पास जाऊँगी, जिससे ऐसा (अर्थात् सर्वगुण सम्पन्न) पुत्र उत्पन्न होगा। इसलिए आज मैं (उसकी पत्नी बन कर) उससे एक पुत्र उत्पन्न करुँगी ।'
अथ भूत्वा कुमारी सा बिभ्रती परमं वपुः
ज्ञापयामास राजानं तामियेष नृपस्ततः।३९।
39. तब उस ने कुमारी होकर सुन्दर शरीर धारण करके राजा को (अपने विषय में) समाचार दिया; तब राजा को उसकी लालसा हुई।
अथसानवमेमासिसुषुवेसरितांवरा
पुत्रं सर्वगुणोपेतं बभ्रुं देवावृधात्परम्।४०।
40 फिर नौवें महीने में उस सर्वोत्तम नदी ने देववृध से एक महान पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम बभ्रु था वह सर्वगुण सम्पन्न था।
अत्र वंशे पुराणज्ञा ब्रुवंतीति परिश्रुतम्
गुणान्देवावृधस्याथ कीर्त्तयंतो महात्मनः।४१।
41. हमने सुना है कि जो लोग पुराणों को जानते हैं, वे महापुरुष देववृध के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि:
_________
बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
षष्टिः शतं च पुत्राणां सहस्राणि च सप्ततिः।४२।
42. बभ्रु मनुष्यों में सबसे महान था; देववृध देवताओं के सदृश थे; बभ्रु और देववृध से सत्तर हजार छह सौ पुत्र पैदा हुए और वे अमर हो गये।
एतेमृतत्वं संप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
यज्ञदानतपोधीमान्ब्रह्मण्यस्सुदृढव्रतः।४३।
43-बभ्रु और देवावृध के अनृत-उपदेश से भी
यज्ञ ,दान और तपस्या में धैर्यसम्पन्न, ब्राह्मण भक्त तथा सुदृढ़ व्रत वाला हो जाता है।
रूपवांश्च महातेजा भोजोतोमृतकावतीम्
शरकान्तस्य दुहिता सुषुवे चतुरः सुतान् ।४४।
44-. बभ्रु से उत्पन्न रूपवान और महातेजस्वी भोज ने शरकान्त की पुत्री अमृतकावती से विवाह कर चार पुत्र उत्पन्न किए।
कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) । कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे।
कपोतरोमा तस्यापि तित्तिरिस्तस्य चात्मजः
तस्यासीद्बहुपुत्रस्तु विद्वान्पुत्रो नरिः किल।४६।
46-उस धृति का पुत्र कपोतारोमा था ; और उसका पुत्र तित्तिर था ; और उनका पुत्र बाहुपुत्र था । ऐसा कहा जाता है कि उन बाहुपुत्र का विद्वान पुत्र नरि था
ख्यायते तस्य नामान्यच्चंदनोदकदुंदुभिः
अस्यासीदभिजित्पुत्रस्ततो जातः पुनर्वसुः।४७।
नरि का अन्य नाम (चन्दनोदक और -दुन्दुभि) 47-भी बताया जाता है । चन्दनोदक का पुत्र अभिजित् था ;और उसका पुत्र पुनर्वसु हुआ।
अपुत्रोह्यभिजित्पूर्वमृषिभिः प्रेरितो मुदा
अश्वमेधंतुपुत्रार्थमाजुहावनरोत्तमः।४८।
48. अभिजीत पहले पुत्रहीन थे; लेकिन पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ इस (राजा) ने, ऋषियों द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर, पुत्र प्राप्ति के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अश्वमेध-यज्ञ किया।
तस्य मध्ये विचरतः सभामध्यात्समुत्थितः
अन्धस्तु विद्वान्धर्मज्ञो यज्ञदाता पुनर्वसु ।४९।।
49. जब वह सभा में (यज्ञ स्थल पर) घूम रहा था तो उसमें से अंधा पुनर्वसु विद्वान, धर्म में पारंगत और यज्ञ देने वाला उत्पन्न हुआ।
तस्यासीत्पुत्रमिथुनं वसोश्चारिजितः किल
आहुकश्चाहुकी चैव ख्याता मतिमतां वर।५०।
50. कहा जाता है कि उस शत्रुविजेता पनर्वसु के दो पुत्र थे। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, वे आहुका और आहुकी के नाम से जाने जाते थे ।
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इमांश्चोदाहरंत्यत्र श्लोकांश्चातिरसात्मकान्
सोपासंगानुकर्षाणां तनुत्राणां वरूथिनाम्।५१।
51- इस विषय में वे बड़ी दिलचस्प उदाहरण रूप में श्लोक उद्धृत किया जाता हैं। उनके पास दस हजार बख्तरबंद सेनिक थे।,
रथानां मेघघोषाणां सहस्राणि दशैव तु
नासत्यवादिनो भोजा नायज्ञा गासहस्रदाः।५२।
52. दशों हजार रथ जो बादलों की तरह गरजते थे और उनके निचले हिस्से में संलग्नक लगे हुए थे। भोज ने कभी झूठ नहीं बोला; वे यज्ञ किये बिना कभी नहीं रहते थे; और कभी एक हजार से कम गाय दान नहीं करते थे।
नाशुचिर्नाप्यविद्वांसो न भोजादधिकोभवत्
आहुकां तमनुप्राप्त इत्येषोन्वय उच्यते।५३।
53. भोज से अधिक पवित्र या अधिक विद्वान कोई व्यक्ति कभी नहीं हुआ। कहा जाता है कि इसी परिवार में आहुका उत्पन्न हुआ था इसी वंश को भोज इस नाम से कहा गया।
आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
54-. और आहुका ने अपनी बहन आहुकी का विवाह ( अवन्ती के राजा ) से कर दिया और अहुका से ही पहले पुत्री और फिर पुत्र दो सन्तानें उत्पन्न हुईं।
उपर्युक्त श्लोक का इस प्रकार अनुवाद भी है।
कुछ अनुवादक निम्न अर्थ भी करते हैं।
आहुक ने अपनी बहिन आहुकी का व्याह अवन्ती देश में किया था।
आहुक की एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- देवक और उग्रसेन वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी हैं।
परन्तु ये उपर्युक्त श्लोक प्रक्षेप हैं। फिर भी सही वंशावली का निर्धारण करने का हमारा प्रयास रहा है।
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हरिवंश पुराण में वर्णन है। कि आहुक के काशीराज की पुत्री काश्या से दो पुत्र उत्पन्न हुए
अनुवाद:- 29.तित्तिर के वंश में नरि हुआ। नरि के अन्य नाम चंदन और दुंदुभि भी थे। इसी दुंदुभि के वंश में अभिजित का पुत्र
पुनर्वसु हुआ उसके पुत्र और पुत्री आहुक आहुकी थे।
30-.आहुका से देवक का जन्म हुआ और फिर उग्रसेन का जन्म हुआ
देववन और उपदेव को देवक का पुत्र माना जाता है।
उनकी सात बहनें थीं। (देवक ने) उनका विवाह वासुदेव से किया।
(अग्निपुराणम्/अध्यायः- २७५)
मत्स्य पुराण में भी आहुक के पुत्रों का वर्णन है।आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।
आहुकात् काश्यदुहिता द्वौ पुत्रौ समसूयत।। ४४.७० ।।
देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ।
देवकस्य सुता वीरा जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।। ४४.७१ ।।
देवानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ।। ४४.७२ ।।
देवकी श्रुतदेवी च यशोदा च यशोधरा।
श्री देवी सत्यदेवी च सुतापी चेति सप्तमी।। ४४.७३ ।।
मत्स्यपुराणम्/अध्यायः ४४
क्रोष्टु-- के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैव्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
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उग्रसेन मथुरा के राजा थे। महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। कंस इन्हीं का पुत्र था, जिसने अपने पिता उग्रसेन को बलपूर्वक राजगद्दी से हटा दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा था।
जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब उसकी अंत्येष्टि के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पुन: उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर बैठा दिया।
उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किये। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे।
★परिचय★
उग्रसेन यदुवंशीय (कुकुरवंशी) राजा आहुक के पुत्र तथा कंस आदि नौ पुत्रों के पिता थे। उनकी माता काशीराज की पुत्री काश्या थीं, जिनके देवक और उग्रसेन दो पुत्र थे। उग्रसेन के नव पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं।
कंस इनका क्षेत्रज पुत्र था और भाइयों में सबसे बड़ा था। इनकी पाँचों पुत्रियाँ वसुदेव के छोटे भाइयों की ब्याही गई थीं।