इस अध्याय में भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में प्रमुख अंतर और कुछ मूलभूत विशेषताओं के विषय में प्रकाश डाला गया है।।
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:- वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति -:
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ज्ञात हो कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्री कृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसके अन्तर्गत केवल गोप आते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
उत्पा"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण ) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है। ४३।
इस सन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही सम्बन्धित अथवा उत्पन्न बताया गयी है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव हैं स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर यह शब्द वैष्णवी रूप में - दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु (श्रीकृष्ण ) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है। ४३।
इस सन्ध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही सम्बन्धित अथवा उत्पन्न बताया गयी है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव हैं स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर यह शब्द वैष्णवी रूप में - दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। वैष्णव वर्ण को ही पञ्चमवर्ण कहा जाता है। पञ्चमवर्ण के गोपों की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोलोक में स्वराट विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है। इस बात को इसके पिछले अध्याय- (चार) में बताया जा चुका है। वहाँ से विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इसके आगे अब हमलोग जानेंगे कि ब्रह्मा जी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई।
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-: ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति :-
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सर्वविदित है कि देवों के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक - (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।
अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।
फिर इसी आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि पद्मपुराण सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।
अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।
इस संबंध में अत्रि-संहिता का (१४०) वां श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०।
अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति ( वेद) का ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)
ज्ञात हो ब्रह्मा जी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥
अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया। ७।
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति हुई वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति हुई। अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।
अब ऐसे में उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों वर्णों में प्रमुख रूप से (४) प्रकार के युगलान्तर (भेद) देखने को मिलता है। जिसको क्रमशः निम्नलिखित रूप से बिन्दुवार दर्शाया गया है।
जिसमें चारों प्रकार के अन्तरों का विस्तार पूर्वक वर्णन नीचे किया गया हैं -
________
[१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर
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(क) "ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्म गत है"
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है।
रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है।
(ख) वैष्णवर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत माना है; जन्म गत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चतुर्थ के श्लोक (13) से भी हेती है। से होती है जिसमें लिखा गया है कि -"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।। श्रीमद्भगवद्गीता
अनुवाद:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह कभी कर्मों से नहीं बँधता। 4/13।
विशेष:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह कभी कर्मों से नहीं बँधता। 4/13।
विशेष:-
"इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों ( शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है। भक्ति ज्ञान और कर्म योग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है । अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नीचे श्लोक- देखें।)वर्ण
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् ( कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना( इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर
(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों पर आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक-(७) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं ! तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् ( कर्म मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा( इच्छा ) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना( इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
[२] कर्मकाण्ड एवं भक्ति मूलक अन्तर
(क)- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों पर आधारित है। जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक-(७) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों का विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारंभ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः- (१४३) के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसके विषय में पूर्व ऋषियों ने इन्द्र से पूछा था - जिसे सूत और शौनक आदि ऋषियों के संवाद रूप में निम्नलिखित श्लोकों में दर्शाया गया है। -
"सूत उवाच!
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। ५।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।
***
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।
***
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों का विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारंभ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः- (१४३) के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसके विषय में पूर्व ऋषियों ने इन्द्र से पूछा था - जिसे सूत और शौनक आदि ऋषियों के संवाद रूप में निम्नलिखित श्लोकों में दर्शाया गया है। -
"सूत उवाच!
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। ५।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।
***
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।
***
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।
(अनुवाद- ५ से १५)
अनुवाद:-
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
************************************
उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे।७।
सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वर ( उदात्त- स्वर) से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।८।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था।९।
जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभाग के भोक्ता थे। और जो प्रत्येक कल्प के आदि में उत्पन्न होनेवाले देव थे, देवगण अपने उन्हीं पूर्वज देवों का यजन कर रहे थे।१०।
*********""
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ( समूह ) के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए- और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ( समूह ) के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए- और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।
आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है।१२।
ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज( बहाने) से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम( पुराण - तन्त्र आदि) विधि से धर्म का अनुष्ठान कीजिये। १३।
विशेष-निगम -( वेद) तथा आगम - वेद के व्याख्याता - पुराण तन्त्र स्मृति आदि।
सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र-विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञ के बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र-विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञ के बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे।१५।
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इस प्रकार के साक्ष्य भी शास्त्रों में मिलते हैं। आगे हम यथास्थान इन्द्र की बलि पृथा मूलक तथ्यों को वेद से उद्धृत करेंगे-
वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं का वध करने वाला पुरोहित शर्मन् कहलाता था। और इन्द्र के सभी यज्ञ पशुओं के वध से सम्पन्न होते थे। यह हम पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं।
"उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
ऋग्वेद 10-/86-/14
"उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
ऋग्वेद 10-/86-/14
"अनुवाद:-
इन्द्र कहते हैं- मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ कोख में सोम भरते हैं; इंद्र सारी (दुनिया) से ऊपर हैं।सायण - का भाष्य भी उपर्युक्त ऋचा का यही पशुबलि मूलक अर्थ करता है।
भाष्यार्थ :- इंद्र ने कहा - मेरे लिए यज्ञ करने वाले मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए 15 - 20 बैल मारकर पकाते हैं वह खाकर मैं पुष्ट (मोटा) होता हूँ। वे मेरे पेट की दोनों कोख सोम ( सुरा) से भी भरते हैं)
' उक्ष=बैल। भारोपीय ( भारत और यूरोपीय) वर्ग की कैन्टम( शतम्) परिवार की भाषाओं में है। प्राप्त oxen- उक्षण- वृषभ का ही वाचक है।
Ox (बॉल) is the oldest word in the Indo-European language - as -
1-Middle English -oxe,
2- Old English -oxa "ox" (plural oxan)
3-Proto-Germanic *ukhson
4- Old Norse- oxi,
5-Old Frisian -oxa
,6-Middle Dutch- osse,
7-Old High German- ohso
,8-German- Ochse,
9-Gothic -auhsa),
10-Welsh -ych "ox
,11-Middle Irish- oss "stag,"
12-Sanskrit -uksa, (उक्ष:)
13-Avestan uxshan-
"ox, bull")
_
उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवः”( ऋ० ९, ६९, ४)। बैल चिल्लाते हैं; गायें निकट जाती हैं:
उपर्युक्त ऋचा में भी उक्षा शब्द बैलों( वृषभों) के अर्थ में ही है । जो गायों के साथ हैं।
वैष्णव लोग भक्ति मार्ग के अनुयायी होते हैं । उनकी उपासना- पद्धति में कर्मकाण्डों का कोई महत्व नहीं है।
"कर्म- काण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ। और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति ! वह परमेश्वर भी किसी नैवेद्य- का आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य केवल देवों के लिए ही होता है।
_________________
मन्त्र देकर प्रभु ने उसके आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।28-29॥
उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥ 30-31॥
उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥ 30-31॥
सन्दर्भ-
यज्ञ गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समपर्ण
पूर्वक ईश्वर का भजन -संकीर्तन करते हैं। गोप वैष्णव हैं यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं।
पूर्वक ईश्वर का भजन -संकीर्तन करते हैं। गोप वैष्णव हैं यही वैष्णवों का परम कर्तव्य हैं।
मत्स्य पुराण में यज्ञ और भक्ति का पृथक पृथक फल बताया गया है। -
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।143.33।।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।143.33।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-(4/28)
"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।28।
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।28।
विशेष :- इस श्लोक में यज्ञ के पाँच भेद बताऐ गये हैं :-
द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।
तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।
योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है ।
स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।
ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
समीक्षा-
(ख) वैष्णव वर्णव्यवस्था- भक्तिमूलक है -
"वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति भगवान स्वराड्- विष्णु से हुई है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-
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ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से गोप वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही सम्बन्धित बताई गया है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।
क्योंकि इनकी उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (३) में बताया जा चुका है।
इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से गोप वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही सम्बन्धित बताई गया है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।
क्योंकि इनकी उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (३) में बताया जा चुका है।
इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है।
ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।।३४।
अनुवाद- २७-३४
इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशय का निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्म की गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है। अतः देवताओं और ऋषियों के साथ-साथ, स्वायम्भुव मनु के अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्म के विषय में निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता।
इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये।
हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबल से ही स्वर्गलोक को गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञ की प्रशंसा नहीं करते।
वे तपस्वी अपनी सम्पत्ति के अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं।
जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। यज्ञ द्रव्य और मन्त्रों द्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञोंसे देवताओंकी तथा तपस्यासे विराट् ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।
कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं। २७-३४
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