बुधवार, 4 दिसंबर 2024

वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य और वैष्णव वर्ण में अन्तर" संशोधित संस्करण



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"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से ही वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गया है-

"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बनता है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
      
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसके अन्तर्गत केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं। 

वैष्णव वर्ण के गोपों की उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (4) में प्रमाणों द्वारा बताया जा चुका है। वहां से विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की भी  उत्पत्ति हुई है। 

इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है। 
अब हम लोग वैष्णव वर्ण और ब्राह्मी चातुर्वर्ण्य में कुछ प्रमुख अंतर को जानेंगे। 

इस सम्बन्ध में देखा जाए तो इन दोनों में प्रमुख रूप से (४) प्रकार के युगलान्तर ( भेद) देखने को मिलते है जैसे-

इस अध्याय में ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य (चारों-वर्णों) और विष्णु जी के "वैष्णव वर्ण" में प्रमुख अंतर और उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के विषय में निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा बताया गया है।
इस अन्तर ( भेद ) को हम निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित करते हैं।

दोनों में वर्णों में प्रमुख रूप से ( छ: (6) अन्तर  हैं।✍️)  जिन्हें हम बिन्दुवार तीन रूपों में जोड़ा बनाकर  दर्शाऐंगे जैसे-
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ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर ही वर्ण -विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है।

रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।
यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है

परन्तु ब्राह्मणवादी विचारधारा के समर्थक पुरोहितों का  ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- 

"क्यों कि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व ( व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका "परिवेश और माता - पिता के आनुवांशिक  विशेषताएँ ही करती हैं। यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है। कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। ब्राह्मणों में बहुतायत लोग तामसिक व राजसिक प्रवृत्ति वाले होते हैं।  

इसी प्रकार  स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तान भी सभी की वीर तथा साहसी नहीं होती है । 
वैश्य और शूद्रों के विषय में  इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही आप किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं कर सकते हो।
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जाति विशेष में तो कोई जन्म 
से महान या बुद्धिमान पैदा नहीं होता है।


यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर जन्म होगा । और पाप कर्मों के प्रभाव से शूद्र के घर में  जन्म होगा। ब्राह्मण के घर में जन्म  पूर्वजन्म के अच्छे  कर्मों के प्रभाव से मिलता है। ब्राह्मण-वादी सोच की यह धारणा पूर्णत: दोषपूर्ण होने से त्याग देनी चाहिए‌।

ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था चार वर्णों में विभाजित है।
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र ।
जिसमें ब्रह्मा जी के जन्म और उनकी प्रमुख सन्तान ब्राह्मण के जन्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था निर्धारित है। इस बात की पुष्टि पद्मपुराण  सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०।   

अनुवादपुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।

इसी उपर्युक्त बात को विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय में बताया गया है।

'ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१/६/६।

अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१/६/६।

इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए हुई।

"यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥१,६.७॥

अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुव॑ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया ।
विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६)

अतः इससे सिद्ध होता है कि इन चारों वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही हुई है।  अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए। अत्रिसंहिता का निम्न श्लोक भी यही सूचित करता है।

अनुवाद:-
ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है।
उपनयन संस्कार हाे जाने पर 'द्विज' कहलाता है।विद्या प्राप्त कर लेने पर 'विप्र' कहलाता है।
इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
विशेष:-  श्रुति (वेद) का ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर  ही वर्ण- विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। यही सत्य और विज्ञान सम्मत है।
श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म-गत माना है जन्म-गत नहीं। 

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

अनुवाद:-
मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा( इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।4।13।

विशेष:-
"इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे - बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न यौनियों (शरीरों) में होता है। यही इस संसार का सनातन नियम है।

भक्ति- ज्ञान और कर्म योग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है । अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म-  ही भक्ति है। श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है कि-
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2/47।।
भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं !  
तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् ( कर्म-मार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्था में कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा (इच्छा) होगी तो तू कर्मफलप्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्म-फलप्राप्ति का कारण तू मत बना।

क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने  में लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन जाता है।
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विशेष :- यज्ञ एक संस्कार परक कर्मकाण्ड मूलक पृथा है। मत्स्यपुराण उत्तानपाद के पुत्र उपरिचरवसु ने  यज्ञ को हिंसामूलक बताया है।
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21 ।। मत्स्य पुराण)
अनुवाद:-

मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञ का स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रों के ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रों को उत्पन्न किया है।२१।

 जिसका  विधान भी ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए है। यह बात हम  पूर्व में बता चुके हैं। यज्ञ के द्वारा ब्राह्मण पुरोहित देवताओं को प्रसन्न करके स्वर्ग तथा भौतिक सम्पदाओं की इच्छा आपूर्ति करते हैं। वेदों में इन्द्र के लिए पुरोहित लोग पशुओं की बलि के द्वारा भी यज्ञ करते थे।

पशुबलि मूलक यज्ञों के प्रारम्भ कर्ता - इन्द्र को माना जाता है।
मत्स्य पुराण के अध्याय-(143) अध्याय में इसका वर्णन है।
सूत उवाच।
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।143.5।।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।143.6 ।।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।। 143.7 ।।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।। 143.8 ।।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।। 143.9 ।।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।। 143.10 ।।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा।
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।। 143.11 ।।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।143.12।।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। 143.13 ।।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।143.14 ।।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।। 143.15 ।।

"अनुवाद:-

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
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उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।

उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे।७।

सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वर ( उदात्त- स्वर) से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।८।

पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था।९।

जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभाग के भोक्ता थे। और जो प्रत्येक कल्प के आदि में उत्पन्न होनेवाले  देव थे, देवगण अपने उन्हीं पूर्वज देवों का यजन कर रहे थे।१०।
*********""
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ( समूह ) के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए- और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।

आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है।१२।

ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज( बहाने) से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम( पुराण - तन्त्र आदि) विधि से धर्म का अनुष्ठान कीजिये। १३।

विशेष-निगम -( वेद) तथा आगम - वेद के व्याख्याता - पुराण तन्त्र स्मृति आदि।

सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र-विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञ के बीजभूत त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।

इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे।१५।
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इस प्रकार के साक्ष्य भी शास्त्रों में मिलते हैं। आगे हम यथास्थान इन्द्र की बलि पृथा मूलक तथ्यों को वेद से उद्धृत करेंगे-

वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं का वध करने वाला पुरोहित शर्मन् कहलाता था। और इन्द्र के  सभी यज्ञ पशुओं के वध से सम्पन्न होते थे। यह हम पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं।

"उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
ऋग्वेद 10-/86-/14

"अनुवाद:-

इन्द्र कहते हैं- मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ कोख में  सोम भरते हैं; इंद्र सारी (दुनिया) से ऊपर हैं।

सायण - का भाष्य भी उपर्युक्त ऋचा का यही पशुबलि मूलक अर्थ करता है।
भाष्यार्थ :- इंद्र ने कहा - मेरे लिए यज्ञ करने वाले मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए 15 - 20 बैल मारकर पकाते हैं वह खाकर मैं पुष्ट (मोटा) होता हूँ। वे मेरे पेट की दोनों कोख सोम ( सुरा) से भी भरते हैं) 

 ' उक्ष=बैल। भारोपीय ( भारत और यूरोपीय) वर्ग की कैन्टम( शतम्) परिवार की भाषाओं में है।  प्राप्त oxen- उक्षण- वृषभ का ही वाचक है।
Ox (बॉल) is the oldest word in the Indo-European language - as -

1-Middle English -oxe,

2- Old English -oxa "ox" (plural oxan)

3-Proto-Germanic *ukhson

4- Old Norse- oxi,

5-Old Frisian -oxa

,6-Middle Dutch- osse,

7-Old High German- ohso

,8-German- Ochse,

9-Gothic -auhsa),

10-Welsh -ych "ox

,11-Middle Irish- oss "stag,"

12-Sanskrit -uksa, (उक्ष:)

13-Avestan uxshan-
"ox, bull")

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उक्षा मिमाति प्रति यन्ति धेनवः”( ऋ० ९, ६९, ४)। बैल चिल्लाते  हैं; गायें निकट जाती हैं:

उपर्युक्त ऋचा में भी उक्षा शब्द बैलों( वृषभों) के अर्थ में ही है । जो गायों के साथ हैं।

वैष्णव भक्ति मार्ग को अनुयायी होते हैं । उनकी उपासना- पद्धति में कर्मकाण्डों का कोई महत्व नहीं है।

"कर्म- काण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त  हुआ। और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति ! वह परमेश्वर भी किसी नैवेद्य- का आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य केवल  देवों के लिए ही होता है। 
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मन्त्र देकर प्रभु ने उसके आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्रह्मपुत्र उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ।।28-29॥

उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभुको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ही ग्रहण करते हैं ॥ 30-31॥

सन्दर्भ-
यज्ञ गोपों के लिए  विहित कर्म  नहीं है क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समपर्ण
पूर्वक ईश्वर का भजन -संकीर्तन  करते हैं। गोप वैष्णव हैं  यही  वैष्णवों का परम  कर्तव्य  हैं।  

मत्स्य पुराण में यज्ञ और भक्ति का पृथक पृथक फल बताया -
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।143.33।।

     श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-(4/28)

"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।28।
 
व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।28।

विशेष :- इस श्लोक में  यज्ञ के पाँच भेद बताऐ गये हैं :-

द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सांसारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।

तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।

योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है ।

स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।

ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।
 

समीक्षा- 

(अतः मत्स्यपुराण के उपरोक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है; कि इन्द्र के सारे यज्ञ पशु बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत बड़ी समस्या थी। इसी कारण से गोपालक भगवान -कृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी। क्योंकि इंद्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है। क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और अपनेपन(आत्मीयता) की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इस बात को निम्नलिखित तरीके से बताया गया है कि -

(ख)  वैष्णव वर्णव्यवस्था- भक्तिमूलक है -


"वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति भगवान स्वराड्- विष्णु  से हुई है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से गोप  वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही सम्बन्धित बताई गया है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव 
- तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
      
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही  आती हैं बाकी कोई नहीं। 

क्योंकि  इनकी उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (३) में बताया जा चुका है।

इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है। 
१- ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ऊँच- नीच का बड़ा भेद- विभेद पाया जाता है।

मनुस्मृति में आचरण गत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दंड का आदेश दिया है, जो शूद्र वर्ण के व्यक्ति यदि उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उनके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान  है।  देखें निम्नलिखित श्लोक -

*एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥ मनुस्मृति अध्याय-(8/270)

बालमभट्टी (१/१०७) टिप्पणी करते हैं कि, चूँकि मनुस्मृति के श्लोक -१७७ में शूद्र द्वारा वैश्य का अपमान करने पर जीभ काटने का प्रावधान नहीं है, अतः प्रस्तुत श्लोक में जो कहा गया है, वह शूद्र द्वारा ब्राह्मण या क्षत्रिय का अपमान करने तक ही सीमित होना  समझना चाहिए।

विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥277॥ मनुस्मृति- (8/277)

वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस (अत्याचार) का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।

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गौतमधर्मसूत्र - जिसे इस प्रकार का सबसे पुराना माना जाता है, उसमें प्रावधान है कि वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, इसे दोहराने के लिए, उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।

शूद्रो द्विजातीनभिसंधायाभिहत्य च वाग्‌दण्ड।
पारुष्याभ्यामङगमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥
 (गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय)

आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥

गोप्ता चेद्वधोऽधिकः ॥३॥

अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर।
णमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥

आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥
शतं क्षत्र्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे ॥६॥

गौतमीयधर्मशास्त्र -(12./4-6)
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याज्ञवल्क्य ने सभी गैर-ब्राह्मणों के लिए सामान्य कानून निर्धारित किया है, न कि केवल शूद्रों के लिए कि गैर-ब्राह्मण को उसके उस अंग से वंचित कर दिया जाना चाहिए, जिसके माध्यम से वह ब्राह्मण को पीड़ा पहुँचाता है।
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मनु ने निर्धारित किया है कि यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज( ब्राह्मण) स्त्री के साथ संभोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग खोना पड़ता है और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ करता है तो उसे अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं। [२०]
शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते ।३७४।(
मनुस्मृति- अध्याय-8/374)

वह ब्राह्मणों के लिए विशेष छूट की वकालत करते हैं, जिसमें सिर मुंडवाने का आदेश दिया गया है, जिसके मामले में अन्य जातियों को मृत्युदंड भुगतना पड़ता है।

मौण्ड्यं प्राणान्तिकं दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत् । (८/३७९।( मनुस्मृति )

मनु स्मृति कार ब्राह्मणों के लिए दावा करते ह, जिसका उद्देश्य उन्हें आपराधिक दंड से ऊपर रखना है। उनके अनुसार, किसी ब्राह्मण को उसके द्वारा किए गए किसी भी अपराध के लिए नहीं मारा जाना चाहिए, बल्कि उसे बिना किसी घाव के और उसकी सारी संपत्ति के साथ देश से निकाल दिया जाना चाहिए।

न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम् ।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनं अक्षतम् ।380।
(8/380)।
मनुस्मृति-अध्याय (8)
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राजा को चेतावनी दी जाती है कि उसे कभी भी ब्राह्मण को मृत्युदंड देने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि उसकी हत्या पृथ्वी पर सबसे बड़ा अपराध माना जाता है।
"न ब्राह्मणवधाद् भूयानधर्मो विद्यते भुवि ।
तस्मादस्य वधं राजा मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥381। (मनुस्मृति- अध्याय- (8))
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सहासनं अभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वास्यावकर्तयेत् ।८.२८१।

व्यभिचार के मामले में याज्ञवल्क्यस्मृति भी वर्ण विधान के सिद्धांत को प्रस्तुत करती है । 
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याज्ञवल्क्यस्मृति, 2.286, 287, 289

मनुस्मृति में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का दावा करते हुए घोषणा की है कि दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।
ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥135 ॥
(मनुस्मृति, 2./135)
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गौतमधर्मसूत्र ने यह भी घोषणा की है कि राजा ब्राह्मणों को छोड़कर सभी पर शासन करता है। [29]
राजा सर्वस्येष्ठे ब्राह्मणवर्जम् गौतमधर्मसूत्र, 11.1
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याज्ञवल्क्यस्मृति के व्यवहाराध्याय में शूद्रों से संबंधित एक अपराध का उल्लेख है, जो शूद्रों पर लागू सामाजिक वर्जनाओं को उजागर करता है। इसमें प्रत्येक जाति को शास्त्रों द्वारा अनुमत अपनी आजीविका का पालन करने पर जोर दिया गया है । इसलिए, यदि कोई शूद्र ब्राह्मण के चिह्नों को गलत तरीके से प्रदर्शित करके अपनी आजीविका सुनिश्चित करता है तो इसे आठ सौ पण के जुर्माने से दंडनीय अपराध माना जाता है। यह माना जा सकता है कि समाज में ब्राह्मणों को प्राप्त विशेषाधिकार और प्रतिष्ठित स्थिति के कारण, शूद्र जाति के कुछ सदस्यों ने ब्राह्मणों के झूठे चिह्नों को प्रदर्शित करके उस जाति का लाभ प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण होने का दिखावा किया होगा तभी यह विधान स्मृतियों में पारित किया गया है। 
द्विनेत्रभेदिनो राजद्विष्टादेशकृतस्तथा।
विप्रत्वेन च शूद्रत्व जीवातोऽष्टशतो दम:॥(2/304)-याज्ञवल्क्य स्मृति)
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मिताक्षरा में बताया गया है कि भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से शूद्र ब्राह्मण के पवित्र धागे और अन्य चिह्नों को प्रदर्शित करता है या धारण करता है। दंड के संबंध में, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि टिप्पणीकार ने दो अज्ञात या अनाम स्मृतियों के दो दृष्टिकोणों का उल्लेख किया है। एक दृष्टिकोण के अनुसार, पवित्र धागे जैसा कोई चिह्न उसके शरीर पर गर्म पिन के माध्यम से उकेरा जाना चाहिए। दूसरी स्मृति का दृष्टिकोण यह है कि द्विजों के चिह्न धारण करने वाले शूद्र को शारीरिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए।

तथा यः शूद्रो भोजनार्थं यज्ञोपवीतादिनी ब्राह्मणालिङ्गनि  दर्शयति तेषामस्तशतो दमः...श्रद्धाभोजनार्थं पुनः शूद्रस्य विप्रवेसाधारिनस्तप्तशलाखेवायावयत्पुष्योपयद् यज्ञ स्मृत्यन्त्रोक्तं द्रष्टव्यम्/ वृत्त्यर्थं तु यज्ञोपवीतं ब्राह्मणलिंगधारिणो वधा एव/ दृजटिलिविगिनाः शूद्रंघायत् इति स्मरणात्/ मिताक्षरं , उक्ति.2.304
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'ब्राह्मण क्षत्रियाभ्यां तु दण्डः कार्यो विजानता।
ब्राह्मणे साहसः पूर्वः क्षत्रिये त्वेव मध्यमः॥ ८/२७६॥ मनुस्मृति

बुद्धिमान राजा ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों को यही दण्ड देगा - ब्राह्मण को सबसे कम दण्ड दिया जायेगा और क्षत्रिय को सबसे मध्यम दण्ड दिया जायेगा - (276)


विट् शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥८/२७७॥ मनुस्मृति

वैश्य और शूद्र को भी उनकी जाति के अनुसार एक ही प्रकार का दण्ड दिया जाएगा, केवल अंग-भंग को छोड़कर; ऐसा निर्णय है।—(277)


एष दण्डविधिः प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम्॥ ८/२७८॥

इस प्रकार मौखिक कठोरता के सम्बन्ध में दण्ड से सम्बन्धित विधि की सही व्याख्या की जा चुकी है; इसके बाद मैं शारीरिक हमले से सम्बन्धित इससे ऊपर की विधि की व्याख्या करूँगा।—(278)

येन केन चिदङ्गेन हिंस्याच्चेत्श्रेष्ठमन्त्यजः।
छेत्तव्यं तद्तदेवास्य तन् मनोरनुशासनम्॥ ८/२७९॥

नीच कुल का मनुष्य जिस अंग से श्रेष्ठ पुरुष को कष्ट पहुंचाए, उसके प्रत्येक अंग को काट देना चाहिए; यह मनु की शिक्षा है।—(279)

पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनमर्हति ।
पादेन प्रहरन् कोपात्पादच्छेदनमर्हति॥ ८/२८०॥

यदि वह अपना हाथ या लाठी उठाए तो उसका हाथ काट दिया जाए; यदि वह क्रोध में पैर से वार करे तो उसका पैर काट दिया जाए।—(280)

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाऽस्यावकर्तयेत् ॥ ८/२८१॥

अवनिष्ठीवतो दर्पाद्द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः।
अवमूत्रयतो मेढ्रमवशर्धयतो गुदम्॥ ८/२८२॥

केशेषु गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् ।
पादयोर्दाढिकायां च ग्रीवायां वृषणेषु च॥ ८/२८३॥

त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः ।
मांसभेत्ता तु षण्निष्कान् प्रवास्यस्त्वस्थिभेदकः ॥ ८/२८४॥

(मनुस्मृति- अध्याय अष्टम)

मत्स्यपुराण के (227) वें अध्याय में मनुस्मृति के समान ही श्लोक हैं।  

एकजातिर्द्विजातिन्तु येनाङ्गेनापराध्नुयात्।
तदेव च्छेदयेत्तस्य क्षिप्रमेवाविचारयन् ।२२७.८३।

अवनिष्ठीवतो दर्पात् द्वावोष्ठौच्छेदयेन्नृप!।
अवमूत्रयतोमेढ्रमपशब्दयतो गुदम् ।।२२७.८४।

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत् ।२२७.८५ ।

केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च। २२७.८६ ।

त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः।
मांसभेत्ता च षण्णिष्कान् निर्वास्यस्त्वस्थिभेदकः। २२७.८७ ।

अङ्गभङ्गकरस्याङ्गं तदेवापहरेन्नृपः।
दण्डपारुष्यकृद्दण्ड्यौ समुत्थानव्ययन्तथा । २२७.८८ ।

अर्द्धपादकरः कार्यो गोगजाश्वोष्ट्रघातकः।
पशुक्षुद्रमृगाणाञ्च हिंसायां द्विगुणो दमः ।। २२७.८९ ।

पञ्चाशच्च भवेद्दण्ड्यस्तथैव मृगपक्षिषु।
कृमिकीटेषु दण्ड्यस्याद्रजतस्य च माषकम् ।। २२७.९० ।

एकजातिर्द्विजातिन्तु येनाङ्गेनापराध्नुयात् ।।
तदेव च्छेदयेत्तस्य क्षिप्रमेवाविचारयन् ।।६६।।

अवनिष्ठीवतो दर्पाद्द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः ।।
अवसेचयतो मेढ्रमवशब्दयतो गुदम् ।। ६७ ।।

महासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यावकृष्टजः ।।
कृताङ्कः स विनिर्वास्यो ह्यङ्गं वास्य विकर्तयेत् ।।६८॥

केशेषु गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् ।।
पादयोर्दण्डिकायां तु ग्रीवायां वृषणेषु वा ।। ६९ ।।

त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः ।। 2.72.७० ।।

(विष्णुधर्मोत्तरपुराण- खण्ड (२)/अध्यायाः- (७२)






ब्राह्मण वर्ण- व्यवस्था केवल ब्राह्मणों को ही वंश परम्परागत वरीयता देती है। ब्राह्मण व्यवस्था में क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रों के अधिकारों का उत्तरोतर अभिभव ( दमन ) किया जाता है।
शूद्रों को तो अधिकारों से वञ्चित कर दिया जाता है।

'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।  श्रीमदभगवद्गीता

 
अनुवाद:-
हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्यरङ्गिणः । अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो नहि शुद्धता च ॥
(वैष्णवमताब्जभास्कर -4:42). 

अनुवाद:-संसार में सबको भगवद्‌शरणागति का अधिकार है, चाहे वह समर्थ हो अथवा असमर्थ । क्योंकि भगवद्‌शरणागति में न श्रेष्ठ कुल की अपेक्षा है न अत्यधिक बल की ही, न उत्तम काल की आवश्यकता है, न किसी बाह्य शुद्धि की ही । प्राणीमात्र शुचि-अशुचि सभी अवस्था में सभी काल में भगवद्‌शरणागति ग्रहण कर सकता है ।

 इसी विषय में सन्त सूरदास जी ने भी कहा है –

"हरि, हरि, हरि, सुमिरौ सब कोइ । नारि-पुरुष हरि गनत न दोइ ॥
(सूर विनय पत्रिका-१४७)

सनातन धर्म के इस सूर्य स्वरूप सिद्धान्त पर ग्रहण लगाने वाले राहु-केतु स्वरूप आज के संकीर्ण विचारक सर्वथा त्याज्य हैं।
भूल गये कि जगद्गुरू श्री स्वामी रामानन्द जी ने रैदास (जो कि चमार थे) को भी शिष्य बनाया था जो कलियुग की गोपी मीरा के गुरू हुए ।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥

(भागवत पुराण.११/१४/२१)

श्री भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात ( श्वपाक )चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है ।

न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रम.     जातिभिः ।सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः ।।५१।।

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥

(भागवत पुराण.११/२/५१, ५२)

अनुवाद:-

भागवत  धर्म में न  वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है । ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।

श्रौत (श्रुति- वेद मलक-)स्मार्त ( स्मृति- मूलक ब्राह्मण- धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवतधर्म में घटाने लगते हैं  परन्तु भागवत धर्म वैष्णव वर्ण- व्वस्था का आधार है। और स्मृति ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- कावआधार।

जहाँ वैष्णवधर्म ने नारी-शक्ति को इतना सम्मान दिया, वहीं स्मार्त धर्म ने नारी शक्ति को बाँध दिया गया है ।

भागवत धर्म की प्रवृत्ति

"इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् । धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥

(भगवत पुराण- ७/९/३८)

अनुवाद:-

इस प्रकार, मेरे प्रभु, आप विभिन्न अवतारों में मनुष्य, पशु, महान संत, देवता, मछली या कछुए के रूप में प्रकट होते हैं, इस प्रकार विभिन्न ग्रह प्रणालियों में संपूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं और आसुरी सिद्धांतों का संहार करते हैं। हे मेरे प्रभु, आप युग के अनुसार धर्म के सिद्धांतों की भी रक्षा करते हैं। हालाँकि, कलियुग में, आप स्वयं को भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व के रूप में नहीं मानते हैं, और इसलिए आपको त्रियुग, या तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान के रूप में जाना जाता है।

अर्थात्  देश, काल, परिस्थिति के अनुसार धर्म में जो परिवर्तन आता है, उसे ही युगानुवृत्त  कहा गया है । परमात्मा श्रीकृष्ण इसी धर्म का प्रतिपादन करते हैं।

वैष्णव धर्म युगानुवृत्त धर्म है किन्तु इसका अर्थ मनमानेपन को धर्म के रूप में सिद्ध करना नहीं है । स्वतन्त्रता है, किन्तु स्वच्छन्दता नहीं । 

वैष्णवी  संस्कृति में नारी ही माता के रूप में प्रथम गुरु है । यदि नारी शक्ति प्रबुद्ध होगी तो देश प्रबुद्ध होगा । नारी शक्ति प्रबुद्ध होगी तो प्रत्येक बालक का भविष्य उज्जवल होगा ।

" माता निर्माता भवति"

आलोचकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि किसी स्त्री में सनातन भागवत धर्म का प्रचार करने की क्षमता है तो उसका विरोध करने से निश्चित ही वे भगवद् कोप के भाजन होंगे ।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।
। (श्रीमद्भगवद्गीता)

अनुवाद:-मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। उन प्राणियोंमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं  उनमें हूँ।

सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः
छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
(भागवत पुराण- ३/१६/६)

मेरी निर्मल सुयश सुधा में  गोता लगाने से  चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित  हो जाता है। इस लिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ।किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इस लिए कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा  मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों नहो।(भागवत पुराण- ३/१६/६)

दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥

(भागवत पुराण-. ११/५/४)

स्त्री, शूद्र तो विशेष दया के पात्र हैं क्योंकि बार-बार धकेले जाने से ये कथा-कीर्तन से दूर हो गये हैं अतः इनके कथा-कीर्तन की सुविधा का अवश्य ध्यान रखा जाये ।

स्वयं जगद्गुरू भगवान् श्रीकृष्ण इस सिद्धान्त के पोषक हैं ।

जहाँ वैष्णवधर्म ने नारी-शक्ति को इतना सम्मान दिया, वहीं स्मार्त धर्म ने नारी शक्ति को बाँध दिया ।

इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥

(भागवत पुराण- ७/९/३८)

देश, काल, परिस्थिति के अनुसार धर्म में जो परिवर्तन आता है, उसे ही युगानुवृत्त कहा गया है ।

और यह परिवर्तन होना भी चाहिए। अन्यथा धर्म की दशा रुके हुए जल के समान दूषित हो जाऐगी-  जिस प्रकार गतिशील जल दूषित नहीं होता और रुका हुआ जल ( पानी) सड़ जाता है।

यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥
(भागवत पुराण-. ६/१६/४४)

एक बार भगवन्नाम श्रवण मात्र से चाण्डाल भी पवित्र हो जाता है, यह भागवत धर्म की सामर्थ्य है ।

यह सामर्थ्य तो न वैदिक धर्म ( श्रोत्रिय) में है, न स्मार्त धर्म में है। । वेद और स्मृति के धर्म तो स्त्री, शूद्र को एक ओर करके चलते हैं 

ब्राह्मण जिसे चाहें शूद्र बनाकर ज्ञान और शिक्षा से वञ्चित रहने का विधान पारित कर देते थे ।

परिष्कार दर्पण नामक एक वैदिक विवेचिका पुस्तक में लेखक :–व्याकरण विद्वान पण्डित वेनिमाधव शुक्ल ने वैदिक विधानों के परिचय के सन्दर्भ में यह उद्धृत किया कि 👇 ___________________

"अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्  इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेऽपि।

 यहाँं यह अनुसन्धान करने योग्य है कि निषाद 'संकर' जाति है । अत: वे शूद्रों के अन्तर्गत होने से ज्ञान और वैदिक शिक्षा के लिए निषिद्ध (मना) हैं । क्यों कि "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम" वेद वाक्य से स्त्रीयों और शूद्रों को ज्ञान नहीं देना चाहिए" परन्तु निषादों का मालिक यज्ञ करे !👇 

"निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते।

वस्तुत इस प्रकार शिक्षा और संस्कारों से वञ्चित रहने का विधान बनाकर व्यक्ति को अशिक्षित व संस्कार हीन बनाकर फिर गुलाम बनाना बहुत आसान था । 

ईश्वरप्रसादो महत्त्वे कारणं तस्य च न जातिराचारो ज्ञानं वा कारणं”
(श्रीधरस्वामीकृतभावार्थदीपिका)

जाति, आचरण, ज्ञान, कारण नहीं है, मात्र भजन ही कारण है । जैसे अभाव से अमृत पीने वाला भी तो अमर हो जाता है ।

ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य समान अधिकार वाले नहीं !
जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।

वैष्णव सन्तो का उद्घोष है-"हरि को भजे सो हरि को होई !  जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
२- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है।  कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर  करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।

जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
३- इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन व्यवसाय (कार्यों) के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में न होकर जन्म के ही आधार  पर हो जाता है।
मनुस्मृति में वर्णन है। कि 

"मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम् ।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥३१॥
शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२॥

(मनुस्मृति अध्याय-2- का 31-और 32 वाँ श्लोक)
अनुवाद-.ब्राह्मण का नाम मंगलमय', क्षत्रिय का नाम 'रक्षात्मक', वैश्य का नाम 'समृद्धि या धनात्मक' तथा शूद्र का नाम घृणा का बोधक होना चाहिए।—(३२)

                 "विष्णूवाच !
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन में स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                   "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                 "'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।


अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं !  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-

इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
______
पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)

मनन
उस अरुण रंग के देव वराह रूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से उत्पन्न सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्मन्) और (वर्मन्)कवच और शरीर को आच्छादित करने वाली ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब (शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से भी आच्छादित करे ।।(ऋ०१/११४/५)

उपर्युक्त ऋचा में शर्म( शर्मन्) शब्द शस्त्र के अर्थ में है।

ऋग्वेद की एक और अन्य ऋचा में शर्मन् शब्द का प्रयोग यज्ञों में पशु को काटकर ( मारकर) हवन करने वाले को अर्थ में हुआ है ।

शर्मन् एक प्राचीन शब्द है; ऋग्वेद संहिता में इसका अर्थ -शस्त्र। बधिक । शरण। आदि-
शरण=(शॄ+ल्युट्)। १- गृह २- रक्षक अमरकोश । ३- रक्षण ४- बध मेदिनीकोश । ५- घातक ( बधिक) -शब्दचन्द्रिका कोश।

"इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव शूर शर्मन्-ना
विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥

अनुवाद- 

हे इन्द्र , तुम भी मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने इस शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया था। ; तुम्हारे यज्ञ का संस्करण करने वाले पुरोहित तुम्हारे लिए पशुओं का वध करने वाले शर्मन- अपनी सुन्दर यज्ञों में अनेक ऋचाऐ बुनते हैं।७।

ऋग्वेदः - मण्डल ३- सूक्त- ५१ ऋचा- ७)

वे + सन् - वेञ् तन्तुसन्ताने भ्वादिः कर्तरि प्रयोगः लट् लकारः परस्मै पदम् )'अन्य पुरुष बहुवचन रूप -विवासन्ति

उपर्युक्त ऋचा में शर्मन् शूर शब्द परस्पर अर्थ सम्पूरक है।

धातुपाठ- में शूर - हिंसक और घातक के अर्थ में प्रचलित है।

माधवीयधातुवृत्ति  धातु-प्रदीप- और  क्षीरतरंगिणी तथा पाणिनीय धातुपाठ में भी शूर्-धातु का अर्थ वध करने वाला है ही है।

शूरी{ शूर्) =हिंसा,स्तम्भनयोः

"उक्षणो हि मे पञ्चदशं साकं पचन्ति विशतिम्।
उत्ताहंमदिम् पीवं इदुभा कुक्षी प्रणन्ति मे विश्वस्मांदिन्द्र ।।
ऋग्वेद 10-/86-/14

इंद्र कहते हैं]: उपासक मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ भरते हैं; इंद्र सभी (दुनिया) से ऊपर हैं।

सायण - का भाष्य भी उपर्युक्त ऋचा का यही अर्थ करता है।

अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे= मदर्थं “पञ्चदश= पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः =वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या प्रेरिता =यष्टारः "पचन्ति । “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव “इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः॥

अथेन्द्रो ब्रवीति = तत्पश्चात इन्द्र कहता है। “मे= मदर्थं ( = मेरे लिए )“पञ्चदश= पञ्चदशसंख्याकान्= पन्द्रह “विंशतिं= बींस। विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः =वृषभान् = बैलों को "साकं= सह = साथ । मम भार्ययेन्द्राण्या = मेरी पत्नी के साथ प्रेरिता =यष्टारः= यज्कर्ता । "पचन्ति = पकाते हैं। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि= ।और मैं अग्नि के द्वारा उसका भक्षण करता हूँ। जग्ध्वा चाहं "पीव  इत स्थूल एव भवामीति शेषः । =और उन्हें खाकर मैं पीव( मोटा  )“ और स्थूल होता हूँ।  किंच "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति = मेरी दोनों कोखें भरती हैं। सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । और याजक सोम का पान कराते हैं। सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः॥ वह मैं इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हूँ।


अर्थ :- इंद्र ने कहा - मेरे लिए यज्ञ करने वाले मेरे याजक पुरोहित मेरे लिए 15 - 20 बैल मारकर पकाते हैं वह खाकर मैं पुष्ट( मोटा) होता हूँ। वे मेरे पेट की दोनों कोख  सोम( सुरा) से भी भरते हैं)

भारोपीय वर्ग की कैन्टम( शतम्) परिवार की भाषाओं में है। Ox (बॉल) is the oldest word in the Indo-European language -                as  -

1-Middle English -oxe,2- Old English -oxa "ox" (plural oxan) 3-Proto-Germanic *ukhson 4- Old Norse- oxi, 5-Old Frisian -oxa,6-Middle Dutch- osse, 7-Old High German- ohso,8-German- Ochse, 9-Gothic -auhsa),10-Welsh -ych "ox,11-Middle Irish- oss "stag," 12-Sanskrit -uksa, (उक्ष:) 13-Avestan uxshan- "ox, bull"),

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वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।
सम्पूर्ण धातुपाठ में शृ -धातु का एक ही अर्थ है।- कत्ल करना।

विदित हो कि शब्दों का निर्माण धातुओं ( क्रिया मूल) से होता है। ये शब्द धातु कहलाते हैं। पाणिनीय धातुपाठ में लगभग (2200) मूल धातुऐं शामिल हैं जिन्हें द्वितीयक मूलों के विपरीत प्राथमिक मूल कहा जा सकता है। सभी धातुऐं प्राय द्विवर्ण मूलक हैं।

शृ- धातु का एक ही अर्थ हिंसा करना है।
जिससे शर्मन् शब्द बना है।
प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप शर्मा- हुआ।

ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।

"अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।

कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।

"अनुवाद:हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।

ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः।        यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।

"अनुवाद:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।

तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।

"अनुवाद:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।

एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।

"अनुवाद:भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।

इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।

"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।

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“वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।      योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)

शर्मन् एक प्राचीन शब्द है; ऋग्वेद संहिता में इसका अर्थ -शस्त्र। बधिक । शरण। आदि-
शरण=(शॄ+ल्युट्)। १- गृह २- रक्षक अमरकोश । ३- रक्षण ४- बध मेदिनीकोश । ५- घातक( बधिक) -शब्दचन्द्रिका कोश।

"इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव शूर शर्मन्-ना
विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥
अनुवाद-
हे इन्द्र , तुम भी मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने इस शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया है ; तुम्हारे दूर-दूर तक फैले हुए जिसका मन्त्रो से यज्य पशु का संस्कार करने वाले  शर्मन्  शूर  रहकर अपनी सुन्दर यज्ञों  के माध्यम से स्तुति करने वाले वे सब  तुम्हारी आराधना करते हैं।७।

ऋग्वेदः - मण्डल ३- सूक्त- ५१ ऋचा- ७)

वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वैदिक काल में इन्द्र के यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।
सम्पूर्ण धातुपाठ में शृ धातु का एक ही अर्थ है।- कत्ल करना।

 विदित हो कि शब्दों का निर्माण धातुओं ( क्रिया मूल) से होता है। ये शब्द धातु कहलाते हैं। पाणिनीय धातुपाठ में लगभग (2200) मूल धातुऐं शामिल हैं जिन्हें द्वितीयक मूलों के विपरीत प्राथमिक मूल कहा जा सकता है। सभी धातुऐं 
प्राय द्विवर्ण मूलक हैं।
शृ- धातु का एक ही अर्थ हिंसा करना है।
जिससे शर्मन् शब्द बना है।
प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप शर्मा- हुआ।


परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्ममता  पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।
जिन्हे संस्कृत में क्रमशः शर्मा तथा वर्मा लिखा जाता है। शर्मा ब्राह्मणों तथा वर्मा क्षत्रियों के नाम के अन्त में प्रयोग की जाने वाली उपाधियाँ हैं।

"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)

ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !

शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।

देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !
इसीलिए भगवान-देव-संस्कृति के  विद्रोही  पुरुष थे।
उन्होंने वन, पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों  में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव विशेषण से सम्बोधित भी किया गया ह।
 जिसका अर्थ है-( देवों को न मानने वाला ) 

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के प्रमाण के लिए  कि "कृष्ण 
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ के नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

श्रीमद्भागवतम्
भागवत पुराण   स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास    अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन  श्लोक 13

श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥
 
शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.
 
अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है। 
परन्तु यह उपर्युक्त कथन मौलिक रूप से कृष्ण का नहीं हैं। अपितु किसी देवयज्ञवादी ने इसे बड़ी चतुराई से भागवत में जोड़ दिया है।

परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी पशु- हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।
  
तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पूजा  का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने  निम्नलिखित कथन दिया है—

"यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥
यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥
भावार्थ:-
इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की पुरोहित संस्तुति करते हैं। 
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।

आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है ? जिसमें जीवों की हत्या के विधान हों।

और इस हिंसामूलक यज्ञों को आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 

इन्द्रोपासक पुरोहितों की मान्यता है। कि
"यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।

इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।

किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है,

क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।

इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है, तब विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कुरान का कलमा पढकर ही करते हैं ।
क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है?  अथवा देवता माँस भक्षी हैं क्या?

यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का पूर्ण  निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।

अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।
इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।

इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—
"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥

अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।
कृष्ण का समय द्वापर युग का अन्तिम चरण और कलियुग का प्रारम्भिक चरण का मध्य है। अत: कलि युग के लिए विधान - निर्देश कृष्ण ने किया ।"

"समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61।
विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।

"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★
कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★
तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।    
            
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।       
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ 
वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★
यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 
जिसके साक्ष्य जहाँ -तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में  रोककर निषिद्ध दिया था। 

पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों  द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:-  कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।
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यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती 
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।
क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण वादी व्यवस्था का पोषक व समर्थक है।

"प्राचीन काल में यज्ञ की अवधारणा -

"यज्ञ का अर्थ और सांस्कृतिक विधान" 

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"यज्ञ" प्राचीन भारतीय देव संस्कृति  के आराधकों  का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य था  जिसमें वे विभिन्न आयोजनों पर प्रायः देवों को लक्ष्य करके हवन किया करते थे।

  1. यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है। जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन के उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप में मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन किया करते थे।

यह अग्नि ही भारतीयों का प्रारम्भिक और अग्रदेव है। यही सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर आगे चला और सबका नेता बना । संस्कृत कोशकारों नें अग्नि शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार से उसके भौतिक गुणों और प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही की हैं।

"अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति अगि--नि नलोपः " = जो नित्य ऊपर को गमन करता है।।

यूरोपीय भाषाओं में अग्नि शब्द सांस्कृतिक रूपों में विद्यमान है।

 लैटिन में इग्निस  = (igneous) ओल्ड चर्च और स्लॉवोनिक भाषाओं में ऑग्नि=  (ogni,) और रूसी परिवार की लिथुआनियन भाषा में ugnis= (उगनिस ) रूप में यह शब्द विद्यमान है।

भारतीयों में अग्नि की महा उपासना आज भी प्रचलित है।

 "ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद१/१/१)

अनुवाद:- यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों का आह्वान करने वाले ऋत्विक् और रत्नधारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।

यज्ञ तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश(।२।७।१३)

८ इष्टिः इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥

यज्ञः शब्द के पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।

समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1

उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥

अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,

यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः

सम्बन्धित : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्

वृत्तिवान् : यजनशीलः
ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः पदार्थ-विभागः : , क्रिया

 विशेष—प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों के आराधकों नें यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या "पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे।

इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे।

इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि कहते थे।

इन्हीं गृह्यकर्म से आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।

और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे।

जैसे,— वैदिक देवता इंद्र को प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे।

ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे।

आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी।

१-होता-

मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था।

२-उद्गाता-

दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता' कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।

३-अध्वर्यु-

तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।

४-ब्रह्मा-

चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था;

और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।

और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।

इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए।

इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे।

इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।

प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।

पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्मणों का महत्व भी बढ़ने लगा।

इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम  स्वरूप भागवत(सात्वत्त) आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया।

यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि।

"असुर संस्कृति के आराधक आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द विकसित हुआ है।

यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव होते थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु और अग्नि भी है।

"यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राजसिक और तामसिक तीन प्रकार हे गये।

पांच महायज्ञ प्रसिद्ध हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रसाद ग्रहण ( कृपा प्राप्ति) के रूप में किया जाता है। 

महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं।

माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं।

आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां भारतीय सनातन धर्म के रूप में सम्पन्न किया जाता है। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकता है।

राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।

1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-

यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दी जाती थीं।.

2. वाजपेय यज्ञ:-

बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है  शक्ति(शक्ति)का (पेय)पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।

3.अश्वमेघ यज्ञ:-

अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था।

वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।

इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.

4. अग्निओष्टम यज्ञ :-

इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।

सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

शब्दार्थ-

(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।

वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)

मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):

वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।

तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।

अब प्रश्न बनता है।

“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”

इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'

आर्यसमाजीयों का मानना है। कि

यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है। अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो " परन्तु गहन अध्ययन से विदित होता है। वेदों में भी हिंसक बलि प्रधान यज्ञ भौतिक उपलब्धियों के लिए कुछ लोगों द्वारा सम्पन्न किए जाते थे।

नीचे स्कन्द पुराण से कुछ सन्दर्भ उद्धृत किए जाते हैं।

स्कन्दपुराण -खण्ड ३ (ब्रह्मखण्डः) धर्मारण्य खण्डः-अध्यायः (३६)

                      "नारद उवाच"

  1. अतः परं किमभवत्तन्मे कथय सुव्रत ।     पूर्वं च तदशेषेण शंस मे वदताम्बर ।१ ।
  2. स्थिरीभूतं च तत्स्थानं कियत्कालं वदस्व मे केन वै रक्ष्यमाणंच कस्याज्ञा वर्तते प्रभो।२।               "ब्रह्मोवाच" 
  3. त्रेतातो द्वापरांतं च यावत्कलिसमागमः।तावत्संरक्षणे चैको हनूमान्पवनात्मजः।३।
  4. समर्थो नान्यथा कोपि विना हनुमता सुत।लंका विध्वंसिता येन राक्षसाः प्रबला हताः ।४।
  5. स एव रक्षते तत्र रामादेशेन पुत्रक।द्विजस्याज्ञा प्रवर्तेत श्रीमातायास्तथैव च। ५।
  6. दिनेदिने प्रहर्षोभूज्जनानां तत्र वासिनाः।पठंति स्म द्विजास्तत्र ऋग्युजुःसामलक्षणान्।६।
  7. अथर्वणमपि तत्र पठंति स्म दिवानिशम्।वेदनिर्घोषजः शब्दस्त्रैलोक्ये सचराचरे।७।
  8. उत्सवास्तत्र जायंते ग्रामेग्रामे पुरेपुरे ।।नाना यज्ञाःप्रवर्तंते नानाधर्मसमाश्रिताः। ८।        "युधिष्ठिर उवाच ।।
  9. कदापि तस्य स्थानस्य भंगो जातोथ वा न वा ।। दैत्यैर्जितं कदा स्थानमथवा दुष्टराक्षसैः ।९।                                            "व्यास उवाच ।।
  10. साधु पृष्टं त्वया राजन्धर्मज्ञस्त्वं सदा शुचिः आदौ कलियुगे प्राप्ते यद्दत्तं तच्छृणुष्व भोः ।3.2.36.१०।
  11. लोकानां च हितार्थाय कामाय च सुखाय च यज्ञं च कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणु भूपते।११।
  12. इदानीं च कलौ प्राप्त आमो नामा वभूव ह कान्यकुब्जाधिपः श्रीमान्धर्मज्ञो नीतितत्परः ।१२।
  13. शान्तो दान्तः सुशीलश्च सत्यधर्मपरायणः।द्वापरांते नृपश्रेष्ठ अनागमे कलौ युगे ।१३।
  14. भयात्कलिविशेषेण अधर्मस्य भयादिभिः।सर्वे देवाः क्षितिं त्यक्त्वा नैमिषारण्यमाश्रिताः।१४।
  15. रामोपि सेतुबंधं हि ससहायो गतो नृप।१५             "युधिष्ठिर उवाच"
  16. कीदृशं हि कलौ प्राप्ते भयं लोके सुदुस्तरम् यस्मिन्सुरैः परित्यक्ता रत्नगर्भा वसुन्धरा। १६ ।।                                                            "व्यास उवाच"
  17. शृणुष्व कलिधर्मास्त्वं भविष्यंति यथा नृप असत्यवादिनो लोकाःसाधुनिन्दापरायणाः ।१७।
  18. दस्युकर्मरताः सर्वे पितृभक्तिविवर्जिताः।स्वगोत्रदाराभिरता लौल्यध्यानपरायणाः। १८।
  19. ब्रह्मविद्वेषिणः सर्वे परस्परविरोधिनः।शरणागतहंतारो भविष्यंति कलौ युगे।१९।
  20. वैश्याचाररता विप्रा वेदभ्रष्टाश्च मानिनः।भविष्यंति कलौ प्राप्ते संध्यालोपकरा द्विजाः -।3.2.36.२०।
  21. शांतौ शूरा भये दीनाः श्राद्धतर्पणवर्जिताः असुराचारनिरता विष्णुभक्तिविवर्जिताः। २१।
  22. परवित्ताभिलाषाश्च उत्कोच ग्रहणे रताः।अस्नातभोजिनो विप्राः क्षत्रिया रणवर्जिताः ।२२।
  23. भविष्यंति कलौ प्राप्ते मलिना दुष्टवृत्तयः।                          मद्यपानरताः सर्वेप्यया ज्यानां हि याजकाः ।२३।
  24. भर्तृद्वेषकरा रामाः पितृद्वेषकराःसुताः।भ्रातृद्वेषकराः क्षुद्रा भविष्यंति कलौ युगे।२४।      
  25. गव्यविक्रयिणस्ते वै ब्राह्मणा वित्ततत्पराः।                                 गावो दुग्धं न दुह्यन्ते संप्राप्ते हि कलौ युगे ।। २५ ।।  
  26. फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
  27. विषविक्रयकर्त्तारोरसविक्रयकारकाःवेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यन्ति कलौ युगे।२७।
  28. नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८। 
  29. न तीर्थसेवनरता भविष्यन्ति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
  30. जिह्मवृत्तिपराः सर्वे वेदनिंदापरायणाः।यतिनिंदापराश्चैव च्छद्मकाराः परस्परम् । 3.2.36.३०।
  31. स्पर्शदोषभयं नैव भविष्यति कलौ युगे ।क्षत्रिया राज्यहीनाश्च म्लेच्छो राजा भविष्यति ।३१।
  32. विश्वासघातिनः सर्वे गुरुद्रोहरतास्तथा ।मित्रद्रोहरता राजञ्छिश्नोदरपरायणाः। ३२ ।
  33. एकवर्णा भविष्यन्ति वर्णाश्चत्वार एव च कलौ प्राप्ते महाराज नान्यथा वचनं मम ।३३।
  34. एतच्छ्रुत्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपो बली राज्यं प्रकुरुते तत्र आमो नाम्ना हि भूतले। ३४।
  35. सार्वभौमत्वमापन्नः प्रजापालनतत्परः ।प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायत।३५।
  36. वैष्णवं धर्ममुत्सज्य बौद्धधर्ममुपागताः ।प्रजास्तमनुवर्तिन्यः क्षपणैः प्रतिबोधिताः।३६।
  37. तस्य राज्ञो महादेवी मामानाम्न्यतिविश्रुता।गर्भं दधार सा राज्ञो सर्वलक्षणसंयुता ।३७।
  38. संपूर्णे दशमे मासि जाता तस्याः सुरूपिणी।दुहिता समये राज्ञ्याः पूर्णचन्द्रनिभानना।३८।
  39. रत्नगंगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता।एकदा दैवयोगेन देशांतरादुपागतः ।३९।
  40. नाम्ना चैवेंद्रसूरिर्वै देशेस्मिन्कान्यकुब्जके।षोडशाब्दा च सा कन्या नोपनीता नृपात्मजा।3.2.36.४०।
  41. दास्यांतरेण मिलिता इन्द्रसूरिश्च जीविकः।शाबरीं मंत्रविद्यां च कथयामास भारत।४१।
  42. एकचित्ताभवत्सा तु शूलिकर्मविमोहिता ।ततः सा मोहमापन्ना तत्तद्वाक्यपरायणा।४२।
  43. क्षपणैर्बोधिता वत्स जैनधर्मपरायणा ।ब्रह्मावर्ताधिपतये कुंभीपालाय धीमते ।४३।
  44. रत्नगंगां महादेवीं ददौ तामिति विक्रमी।।मोहेरेकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहितः।४४। 
  45. धर्मारण्यं समागत्य राजधानी कृता तदा देवांश्च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान्।४५।
  46. सर्वे वर्णास्तथाभूता जैन धर्मसमाश्रिताः।                          ब्राह्मणा नैव पूज्यंते न च शांतिकपौष्टिकम् ।४६।
  47. न ददाति कदा दानमेवं कालः प्रवर्तते ।लब्धशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम् । ४७ ।।
  48. समाकुलितचित्तास्ते नृपमामं समाययुः ।कान्यकुब्जस्थितं शूरं पाखण्डैः परिवेष्टितम् ।४८।
  49. कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप ।गंगोपकण्ठे न्यवसञ्छ्रांतास्ते मोढवाडवाः।४९।
  50. चारैश्च कथितास्ते च नृपस्याग्रे समागताः ।प्रातराकारिता विप्रा आगता नृपसंसदि । 3.2.36.५०।
  51. प्रत्युत्थानाभिवादादीन्न चक्रे सादरं नृपः ।तिष्ठतो ब्राह्मणान्सर्वान्पर्यपृच्छदसौ ततः । ५१।
  52. किमर्थमागता विप्राः किंस्वित्कार्यं ब्रुवंतु तत् ।५२ ।।                              ___________________________________

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मखण्डे धर्मारण्य माहात्म्ये हनुमत्समागमो नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः।।३६।।

                   "नारद ने कहा :

1-2. हे धर्मात्मा, कृपया मुझे बताएं कि उसके बाद क्या हुआ। प्रारंभ में, हे उत्कृष्ट वक्ता, इसे पूरा कहो। वह पवित्र स्थान कब तक स्थिर रहा? इसकी सुरक्षा किसके द्वारा की जा रही थी ? हे प्रभु! वहां किसका प्रभुत्व सर्वोच्च था ?

                   "ब्रह्मा ने कहा :

3-5. त्रेता से लेकर द्वापर के अंत तक , कलि के आगमन तक , पवन-देवता, हनुमान के पुत्र , अकेले ही इसकी रक्षा करने में सक्षम थे। हे पुत्र, यह हनुमान के अलावा किसी के लिए संभव नहीं था जिनके द्वारा लंका का विनाश किया गया और शक्तिशाली राक्षसों का वध किया गया। (अब) राम के आदेश पर वे ही रक्षक हैं , प्रिय पुत्र। वहां ब्राह्मण और श्रीमाता का प्रभुत्व है ।

6-8. वहां रहने वाले लोगों का आनंद दिन-ब-दिन बढ़ता गया। ब्राह्मण ऋक, यजुस् और साम वेदों का पाठ करते थे । वे दिन-रात अथर्ववेद का भी उच्च स्वर से पाठ करते थे। वैदिक मंत्रोच्चार से निकलने वाली ध्वनि ने जंगम और स्थावर प्राणियों सहित तीनों लोकों को भर दिया। हर गाँव और शहर में उत्सव मनाया गया। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों पर आधारित विभिन्न प्रकार के यज्ञ जारी रहे।

                "युधिष्ठिर ने कहा :

9. क्या पवित्र स्थान का कभी कोई विनाश हुआ या नहीं ? क्या वह स्थान दैत्यों या दुष्ट राक्षसों द्वारा कब्जा कर लिया गया था ?

                    "व्यास ने कहा :

10 हे राजा, तूमने ठीक ही पूछा है। आप सदैव पवित्र और धर्म के ज्ञाता हैं । कलियुग के आरंभ में क्या हुआ सुनो।

11. समस्त लोकों के कल्याण, संतुष्टि और सुख के लिए मैं एक विशेष यज्ञ का वर्णन करूंगा । हे राजा, सब सुनो।

12-13. अब, जब कलि युग का आगमन आसन्न था, द्वापर के अंत में, जब कलि अभी शुरू नहीं हुआ था, अमा नाम का एक राजा था जो कान्यकुब्ज का शासक बन गया । हे श्रेष्ठ राजा! वह तेजस्वी, धर्म का ज्ञाता, शांत, संयमी, न्याय के प्रति उत्सुक, अच्छे आचरण वाला तथा सत्य और धर्मपरायणता के प्रति समर्पित था।

14-15. अधर्म के तीव्र भय के कारण, कलियुग के विशेष आक्रमण के कारण, सभी देवताओं ने पृथ्वी पर अपना-अपना स्थान त्याग दिया और नैमिष वन का सहारा लिया। हे राजन! राम ने भी उचित सहायता से पुल का निर्माण पूरा किया।

                   "युधिष्ठिर ने कहा :

16. कलि के आगमन पर पूरे विश्व में किस प्रकार का भय व्याप्त हो गया कि उस पर काबू पाना बहुत कठिन हो गया और पृथ्वी जो रत्नगर्भा थी उसको (गर्भ में रत्न धारण करने वाली) सुरों ने त्याग दिया ?

                  "व्यास ने कहा :

17-19. कलियुग की मुख्य विशेषताओं को सुनो जो प्रकट होंगी,  हे राजा !

लोग झूठ बोलनेवाले होंगे। वे अच्छे लोगों की निंदा करने में लगे रहेंगे। उन सभी की  डाकू जैसी गतिविधियों हो जाऐंगीं। वे अपने माता-पिता के प्रति भक्ति से रहित हो जायेंगे। वे अपने रिश्तेदारों की पत्नियों के प्रति यौन प्रवृत्त होंगे। उनकी सोच वासना से भरी होगी. वे ब्राह्मणों से घृणा करेंगे। ये सभी एक दूसरे के विरोधी होंगे.कलियुग में लोग उन लोगों के विनाशक (शोषक) होंगे जो उनको शरण देंगे।

20-21. ब्राह्मण वैश्यों का कार्य अपना लेंगे : वे वेदों के मार्ग से भटक जायेंगे ; वे घमंडी होगे  जब कलियुग  आयेगा,और  तो ब्राह्मण संध्या प्रार्थना करना बंद कर देंगे।

स्वयं को क्षत्रिय मानने वाले जब शांति होती है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वे बहादुर हों; जब ख़तरा होता है तो वे निराश हो जाते हैं मैंदान छोड़कर भाग जायेगे। वे श्राद्ध और तर्पण की उपेक्षा करेंग । आसुरी आचरण में लिप्त होकर, वे विष्णु की भक्ति से वंचित हो गए हैं ।

22-25. लोग दूसरे लोगों के धन के लालची होंगे हैं। वे रिश्वत लेने में लगे रहेंगे । ब्राह्मण बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे । क्षत्रिय युद्ध से बचेंगे । जब कलि आता है, तो सभी लोग अपने आचरण में गंदे और दुष्ट हो जाते हैं। सभी शराब पीने के आदी हो जाते हैं. पुजारी उन लोगों की ओर से यज्ञ करते हैं जो इस तरह के प्रदर्शन के लिए पात्र नहीं हैं। स्त्रियाँ पतियों से घृणा करती हैं; बेटे अपने माता-पिता से नफरत करते हैं। कलियुग में सभी मूर्ख लोग अपने ही भाइयों से बैर करने लगेंगे। धन इकट्ठा करने के लिए उत्सुक, ब्राह्मण दूध उत्पादों के विक्रेता बन जाएंगे। जब वास्तव में कलियुग आ जाएगा , तो गायें दूध नहीं देगीं।

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फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।

विषविक्रयकर्त्तारो रसविक्रयकारकाः ।वेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।

नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।

न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।

अनुवाद:-.वृक्षों पर कभी फल नहीं लगेंगे, हे भरत के वंशज ! कलियुग में लोग अपनी बेटियों, गायों और बकरियों, जहर, शराब और यहां तक ​​कि वेदों के भी विक्रेता बन जाएंगे। एक महिला ग्यारह वर्ष के बाद गर्भधारण करेंगी । सभी लोग चंद्र पखवाड़े में ग्यारहवें दिन उपवास करने से बचते हैं। ब्राह्मण तीर्थ यात्रा नहीं करेंगे. वे बहुत अधिक खायेंगे; वे खूब सोएंगे.२६-२८।

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30-33. सभी कपटपूर्ण कार्यों में लगे रहेंगे, वेदों और वैरागियों से भी घृणा करेंगे। वे एक दूसरे को धोखा देंगे. कलियुग में (अभद्र साथियों से) सम्पर्क का भय नहीं रहेगा। क्षत्रियों से उनका राज्य छीन लिया जाएगा और म्लेच्छ राजा बन जाएंगे। सभी विश्वास तोड़ने वाले बन जायेंगे और सभी बड़ों को परेशान करने में लगे रहेंगे। हे राजा, वे विश्वासघाती मित्र होंगे और लोलुपता और कामवासना में लिप्त होंगे। हे महान राजा, कलि के आगमन पर सभी चार जातियाँ एक जाति में मिल जाएंगी। मेरी बातें कभी अन्यथा नहीं हो सकतीं.

34-38. सीधे अपने गुरु से यह सुनकर, कान्यकुब्ज के अमा नामक शक्तिशाली शासक ने राज्य पर शासन करना जारी रखा। वह सम्राट बन गया और प्रजा की रक्षा में तत्पर रहने लगा। कलि के आगमन के कारण प्रजा पाप करने की ओर प्रवृत्त हो गयी।

क्षपानस  (बौद्ध भिक्षुकों) द्वारा उकसाए जाने और उनके निर्देशों का पालन करते हुए, प्रजा ने अपना वैष्णव पंथ छोड़ दिया और बौद्ध  जीवन शैली अपना ली।

उस राजा की सबसे वरिष्ठ रानी, ​​जो मामा के नाम से प्रसिद्ध थी और सभी अच्छे गुणों से युक्त थी। जब दसवाँ महीना पूरा हुआ, तो सर्वसुन्दर गुणों से सम्पन्न तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाली एक कन्या उत्पन्न हुई।

39-45. वह रत्नागंगा नाम से जानी जाती थी। वह रत्नों से सुसज्जित रहती थी। एक बार संयोग से इन्द्रसूरि नाम का एक भिक्षुक कान्यकुब्ज राज्य में आया। सोलह साल की उक्त लड़की, राजकुमारी को अभी तक धार्मिक पंथ में दीक्षित नहीं किया गया था, उसे एक नौकरानी द्वारा गुप्त रूप से इंद्रसूरि में ले जाया गया था।

हे भरत के वंशज, उन्होंने उसे शाबरी मंत्र विद्या की दीक्षा दी । त्रिशूलधारी भिक्षुक की गतिविधि से मोहित होकर, वह एकाग्रता के साथ इसमें भाग लेने लगी। तब वह और अधिक मोहित हो गई और प्रत्येक कथन को उत्सुकता से समझने लगी (अनुसरण करने लगी)। क्षपणों द्वारा निर्देश दिए जाने पर, हे प्रिय, वह जैन पंथ के प्रति समर्पित हो गई।

महान पराक्रमी राजा ने राजकुमारी रत्नांगा को ब्रह्मावर्त के स्वामी, बुद्धिमान कुम्भीपाल को दे दिया । भाग्य से भ्रमित होकर, राजा ने विवाह के समय मोहेरका को उसे (दामाद को) दे दिया। वह धर्मारण्य आये और अपनी राजधानी स्थापित की। उन्होंने जैन पंथ में वर्णित देवताओं की विधिवत स्थापना की। [6]

46-52. सभी विभिन्न जातियों को जैन पंथ में परिवर्तित कर दिया गया। ब्राह्मणों का सम्मान नहीं किया जाता था। शांतिका और पौष्टिका जैसे कोई धार्मिक संस्कार नहीं किए गए। कभी कोई दान-पुण्य नहीं करता था। ऐसे ही समय बीतता गया.

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स्कन्दपुराण -‎  खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ | वासुदेवमाहात्म्यम्

                   "स्कन्द उवाच ।

भाविधर्मविपर्यासकालवेगवशोऽथ सः ।          नाहं क्षमिष्य इत्युक्त्वा कैलासं प्रययौ मुने। १।

त्रैलोक्याच्छ्रीरपि तदा समुद्रेन्तर्द्धिमाययौ ।        इन्द्रं विहायाप्सरसः सर्वशः श्रियमन्वयुः ।२।

तपः शौचं दया सत्यं पादः सद्धर्मऋद्धयः।सिद्धयश्च बलं सत्त्वं सर्वतः श्रियमन्वयुः।३।

गजादीनि च यानानि स्वर्णाद्याभूषणानि च ।चिक्षिपुर्मणिरत्नानि धातूपकरणानि च । ४।

अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः ।      न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् । ५ ।

नवापि निधयो नष्टाः कुबेरस्यापि मन्दिरात ।।    इन्द्रः सहामरगणैरासीत्तापससन्निभः । ६ ।

सर्वाणि भोगद्रव्याणि नाशमीयुस्त्रिलोकतः ।।    देवा दैत्या मनुष्याश्च सर्वे दारिद्यपीडिताः । ७।

कान्त्या हीनस्ततश्चन्द्रः प्रापाम्बुत्वं महोदधौ।।अनावृष्टिर्महत्यासीद्धान्यबीजक्षयंकरी । ८ ।

क्वान्नं क्वान्नेति जल्पन्तः क्षुत्क्षामाश्च निरोजसः ।त्यक्त्वा ग्रामान्पुरश्चोषुर्वनेषु च नगेषु च ।९।

क्षुधार्त्तास्ते पशून्हत्वा ग्राम्यानारण्यकांस्तथा ।पक्त्वाऽपक्त्वापि वा केचित्तेषां मांसान्यभुञ्जत । 2.9.9.१० ।।

विद्वांसो मुनयश्चाऽथ ये वै सद्धर्मचारिणः ।म्रियमाणाः क्षुधाऽथापि नाश्नन्त पललानि तु ।११।

तदा तु वृद्धा ऋषयस्तान्दृष्ट्वाऽनशनादृतान् ।मनुभिः सह वेदोक्तमापद्धर्ममबोधयन् ।१२ ।

मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।१३ ।

अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।

या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५

प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।

ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः ।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।

गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।

विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये ।१९।

महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् । 2.9.9.२० ।

केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः ।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे ।२१।

स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२।

सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः ।२३।

ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।

इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् । २५ ।

अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि । २६ ।

दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः।             तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।२७।

विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।      मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८।

ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।          आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।२९।

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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः । 2.9.9.३० ।

कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।   आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।३१ ।

ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः।       यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत । ३२ ।

तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३ ।

एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।

इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि।३५।

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये हिंस्रयज्ञप्रवृत्तिहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः।९।

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यह स्कंद पुराण के वैष्णव-खंड के वासुदेव-महात्म्य का नौवां अध्याय है।

अध्याय 9 - हिंसा से जुड़े यज्ञों की उत्पत्ति

वासुदेव-माहात्म्य-

"अनुवाद:स्कंद ने कहा :हे ऋषि, काल के प्रभाव से भविष्य में धर्म की विकृति हो गई , उन्होंने ( दुर्वासा ने ) कहा, "मैं माफ नहीं करूंगा" और कैलास चले गए ।१।

"अनुवाद: देवी श्री भी फिर तीनों लोकों से समुद्र में लुप्त हो गईं। एक शरीर में सभी दिव्य युवतियों ने इंद्र को छोड़ दिया और श्री का अनुसरण किया।२।

"अनुवाद:तपस्या, पवित्रता, दया, सत्य, पद (?), सच्चा धर्म, समृद्धि, अलौकिक शक्तियाँ, शक्ति, सत्व (अच्छाई का गुण) - इन सभी ने श्री का अनुसरण किया।३।

"अनुवाद:वाहन, हाथी आदि, सोने आदि के आभूषण, बहुमूल्य पत्थर आदि तथा धातु के औजार कम हो गये।४।

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अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः । न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् ।५ ।

"अनुवाद: कुछ ही समय में खाद्य पदार्थ, पौधे, जड़ी-बूटियाँ, तेल, चिकने पदार्थ कम हो गये। दूध देने वाले पशुओं, जिनमें गाय, भैंस प्रमुख थीं, के थनों में दूध उत्पन्न नहीं होता था।५।

कुबेर के भवन से नौ निधियाँ भी गायब हो गईं इन्द्र अनेक देवताओं सहित तपस्वी बन गये।६।

"अनुवाद:तीनों लोकों में भोग-विलास की सभी सामग्रियां समाप्त हो गईं। देवता, दैत्य और मनुष्य दरिद्रता से पीड़ित थे।७।

"अनुवाद:चन्द्रमा अपनी मनोहर कान्ति से रहित हो गया, और समुद्र के जल के समान हो गया। वहाँ एक भयानक सूखा पड़ा जिससे मक्के के बीज और दाने पूरी तरह बर्बाद हो गये।८।

"अनुवाद:बार-बार चिल्लाना 'खाना कहां है?' भूख से क्षीण और शक्तिहीन लोगों ने गांवों और कस्बों को छोड़ दिया और जंगलों और पहाड़ों का सहारा लिया।९।

"अनुवाद:भूख से व्याकुल होकर उन में से कुछ ने जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं को मार डाला, और उनका पका या कच्चा मांस खाया।१०।

"अनुवाद:सच्चे धर्म का पालन करने वाले विद्वान पुरुष और साधु भूख से मरने के बावजूद भी मांस नहीं खाते थे।११।

"अनुवाद:उन्हें व्रत और उपवास करते देखकर मनु सहित वृद्ध ऋषियों ने उन्हें वेदों द्वारा प्रतिपादित विपरीत परिस्थितियों में पालन किये जाने वाले धर्म की शिक्षा दी ।१३।

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मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।।१३।।

"अनुवाद:जिन ऋषियों की इन्द्रियाँ भूख के कारण भ्रमित हो गई थीं, उनमें से अधिकांश ने वेदों की विकृत व्याख्या की।१३।

अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।

"अनुवाद:उन्होंने अज जैसे शब्द का अर्थ बकरी के समान लिया और उपदेश दिया, “हे ब्राह्मणों , (पशु) बलि करो।१४।

या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५

"अनुवाद:वेदों द्वारा विहित हिंसा ( हिंसा ) कोई दोष या पाप उत्पन्न करने वाली हिंसा नहीं है [2] । इसलिए, देवताओं और पितरों के नाम पर शुभ (बलि देने वाले) जानवरों को मार डालो ।१५।

प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।

"अनुवाद:अपने इच्छित किसी भी जानवर के मांस को जल छिड़क कर नैवेद्य के रूप में देवताओं और पितरों को समर्पित करने के बाद उसका आनंद लें । परन्तु अपने लिये जानवरों को मत मारो।”।१६।

ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।

"अनुवाद:तब देवताओं, ऋषियों, राजाओं और उनके द्वारा सिखाए गए मनुष्यों ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार यज्ञ किए, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पूरी तरह से हरि के प्रति समर्पित थे।१७।

गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।

"अनुवाद:उन्होंने गो- मेध (बैल-बलि), अश्वमेध (घोड़ा-बलि) जैसे बलिदान किए और बलिदान जिनमें मानव-बलि प्रमुख थी और बलिदान के बाद बचे हुए मांस का आनंद लेते थे।१८।

विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे ।।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये।१९।

"अनुवाद:कुछ लोगों ने खोए हुए धन के लिये यज्ञ किया। कुछ ने स्त्रियों (पत्नियों), पुत्रों और घर को प्राप्त करने के लिए और कुछ ने अपने पेशे की (समृद्धि) के लिए प्रदर्शन किया।१९।

महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।।निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् ।।2.9.9.२०।

"अनुवाद: जो लोग बड़े-बड़े यज्ञ करने में असमर्थ थे, उन्होंने कई बार श्राद्ध में अपने पितरों के लिए पशुओं को मारकर खाया और दूसरों से भी ऐसा करवाया।२०।

केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे।२१।

"अनुवाद: समुद्र के किनारे या नदियों के किनारे रहने वाले कुछ लोग जाल से मछलियाँ पकड़ते और उनका (मछली) भक्षक बन जाते।२१।

स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२ ।

"अनुवाद:हे ऋषि ! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए उन जानवरों को मार डाला, जिनमें गाय (बैल) और बकरियां प्रमुख थीं।२२।

सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः।२३।

"अनुवाद:उस समय धन, मकान आदि के अभाव में तथा धर्मों के परस्पर मिश्रण के कारण एक ही जाति के व्यक्तियों में विवाह का नियम नहीं चलता था।२३।

ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।

"अनुवाद:समय (और नई प्रवृत्तियों) की मांगों के अनुसार, अपनी जाति के विस्तार और निरंतरता के लिए, ब्राह्मणों ने क्षत्रियों ( और अन्य जातियों) की बेटियों से शादी की और क्षत्रियों और अन्य लोगों ने ब्राह्मणों की बेटियों से शादी की।२४।

इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् ।२५।

"अनुवाद:इस प्रकार उस महान आपदा में, हिंसा से जुड़े बलिदान शुरू किए गए। धर्म ने स्वयं देवी श्री का अनुसरण किया (समुद्र के तल तक), जबकि धर्म का एक अंश बना रहा।२५।

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अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि ।२६।

"अनुवाद:अधर्म अपने परिणामों सहित तीनों लोकों में व्याप्त हो गया और थोड़े ही समय में फल-फूल गया। बुद्धिमान और विद्वान लोगों द्वारा इसकी जाँच करना अत्यंत कठिन था।२६।

दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः ।।  तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।।२७ ।।

"अनुवाद:उन गरीबी से त्रस्त लोगों से असंख्य बच्चे पैदा हुए और उनके परिवारों का विस्तार दुनिया में बहुत बढ़ गया।२७।

विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।।मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८ ।

"अनुवाद:उनमें से जो लोग विद्वान बन गये, उन्होंने इसे (अर्थात अधर्म, तत्कालीन प्रचलित प्रथाओं को) वास्तविक धर्म माना और तदनुसार ग्रंथ लिखे।२८।

ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।।आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।। २९।

"अनुवाद:परंपरा की शक्ति से वे ग्रंथ कालान्तर में प्रामाणिक बन गये। पहले त्रेता युग में धर्म ने इतना बुरा मोड़ ले लिया।

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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।

"अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।

कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।

"अनुवाद:हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।

ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः।        यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।

"अनुवाद:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।

तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।

"अनुवाद:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।

एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।

"अनुवाद:भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।

इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।

"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।

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वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है – 

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।                                        योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५) 

अनुवाद:अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

यज्ञ में पशुबलि की सनातन परंपरा

क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतति द्विजः .-मनु. 3, 55 तथा व्यासस्मृति

"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।(व्यासस्मृति अध्याय तृतीय)

अर्थात यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है.

ऐसी ही बात कूर्मपुराण (2,17,40) में कही गई है.

विष्णुधर्मोत्तरपुराण (1,40,49-50) में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करने वालों की पंक्ति में परोसे गए मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है.

(देखें, धर्मशास्त्रों का इतिहास, जिल्द 3 , पृ. 1244)

महाभारत में गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने का ज़िक्र मिलता है। दाल्भ्य की कथा में आता है-

श्लोक

9.41.11-12

स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः॥ ११॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।

अनुवाद: वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ॥११॥

-(महाभारत , शाल्यपर्व , 41,8-9 व 11-14

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान्‌ ने इस नवधा भक्ति का क्रमपूर्वक उपदेश तो नहीं किया हैपरन्तु  फिर भी  भक्गति योग का प्वारतिपादन करते हुए नवधा भक्ति का वर्णन हो गया है।

(१) श्रवण‒जो मनुष्य तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे सुनकर उपासना करते हैंऐसे वे सुननेके परायण हुए मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं

"ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥25॥
 
श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(13))क

(२) कीर्तन‒भक्त प्रेमपूर्वक मेरे नाम, रूपलीला आदिका कीर्तन करते हैं (९ । १४)हे हृषीकेश ! आपके नाम, रूप आदिका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)-को प्राप्त हो रहा है ।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।14।।
अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर 
मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए 
तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ
 को बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान 
में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं ।१४।

(३) स्मरण‒जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं (८ । १४)महात्मा लोग अनन्य होकर मेरा स्मरण करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १३)तू निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा (१८ । ५७)मुझमें चित्तवाला होनेसे तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्‍नोंको तर जायगा।

"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।    तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।8.14 श्रीमद्भगवद्गीता 

(४) पादसेवन‒भक्त प्रेमपूर्वक मुझे नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १४) । (श्रीमद्भगवद्गीता-)

"सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रता: ॥नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्त उपासते ॥14॥ श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय- (9)॥

अनुवाद:-जो सदैव मेरा कीर्तन करते हुए, बड़े दृढ़ संकल्प के साथ प्रयत्न करते हुए, नम्रतापूर्वक मेरे समक्ष नतमस्तक होकर, प्रेमपूर्वक भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं।१४।

(५) अर्चन‒जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जो सबमें व्याप्त हैउस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा अर्चन (पूजन) करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६)तू मेरा पूजन करनेवाला हो जाफिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४१८ । ६५) ।

"यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥46॥( श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-46)

अनुवाद:-अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्माण्ड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।46।

(६) वन्दन‒तू मेरेको नमस्कार करफिर तू मेरेको ही प्राप्त होगा (९ । ३४१८ । ६५)हे प्रभो आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! (११ । ३९)हे सर्वात्मन् ! आपको आगेसेपीछेसेसब ओरसे ही नमस्कार हो (११ । ४०) हे प्रभो ! मैं शरीरसे लम्बा पड़कर आपको दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्‍न करना चाहता हूँ (११ । ४४) ।श्रीमद्भगवद्गीता

(७) दास्य‒तू मेरा भक्त हो जाफिर तू मुझे ही प्राप्त होगा (९ । ३४१८ । ६५)हे कृष्ण ! मैं आपका शिष्य (दास) हूँ (२ । ७)हे पार्थ ! तू मेरा भक्त है (४ । ३) ।श्रीमद्भगवद्गीता

(८) सख्य‒तू मेरा प्रिय सखा है (४ । ३); हे कृष्ण ! जैसे सखा सखाके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता हैऐसे ही आप मेरे द्वारा किये गये अपमानको सहनेमें समर्थ हैं (११ । ४४) श्रीमद्भगवद्गीता

(९) आत्मनिवेदन‒उस आदिपुरुष परमात्माकी ही शरणमें हो जाना चाहिये (१५ । ४)तू सर्वभावसे उसी अन्तर्यामी परमात्माकी ही शरणमें चला जा (१८ । ६२)तू सब धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा (१८ । ६६) ।(श्रीमद्भग्वद्गीता-)

इस प्रकार उपर्युक्त स्थलोंमें भगवान्‌ने साधन-भक्तिका वर्णन किया हैऔर ‘संसिद्धिं परमां गताः’ (८ । १५) ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५४) भक्तिं मयि परां कृत्वा’ (१८ । ६८)‒इन पदों में भगवान्‌ ने साध्य (परा) भक्ति का वर्णन किया है।

             । श्रीप्रह्राद उवाच।-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् 

   श्रीमद्भागवद्पुराण- ७ । ५ । २४।

प्रह्लाद ने कहा- विष्णु की भक्ति के नौ भेद हैं। भगवान की लीला गुणों का १- श्रवण-उनका ही २-कीर्तन ( महिम-गान) उनके रूप आदि का ३-स्मरण उनके ४-चरणों की सेवा ५- पूजा (अर्चन) ६-वन्दन और ७-दास्य ८-सख्य और ९- आत्मनिवेदन।


हमने ब्राह्मण वर्ण के सन्दर्भ में शर्मन शब्द की उत्प्ति मूलक विवेचना की और देव यज्ञो में उनके योगदान को बताया गया। तथा इसी के सापेक्ष वैष्णव वर्ण के आध्यात्मिक विधान नवधा भक्ति की विवेचना की।


अब शर्मा शब्द के क्रम में वर्मा शब्द की भी व्युत्पत्ति विवेचना अपेक्षित है।

ब्राह्मण वर्ण में क्षत्रिय की उपाधि वर्मा है।
वर्मा शब्द वर्म- कवच धारी यौद्धाओं का वाचक था जिसका मूल वर्मन् शब्द  बिल्कुल शर्मन शब्द की तर्ज पर ।

 वर्मन्-

त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।
स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ (ऋ० १/३१/१)

हे अग्नि, आप परिश्रमपूर्वक धर्मात्मा मनुष्य की रक्षा उस ढाल की तरह करते हैं जो ब्रह्मांड की रक्षा करती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ करता है, वह स्वर्ग के समान है।
हे अग्नि, आप उस मनुष्य की रक्षा करते हैं जो अपनी धार्मिकता के लिए प्रयास कर रहा है, जैसे ढाल उसे सभी तरफ से बचाती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ प्रदान करता है, वह स्वर्ग के समान है।
त्वम् अग्नि प्रयतददक्षिणं नरं वरमेव स्युतम परि पासि विश्वतः  स्वादुक्षाद्मा यो वसतौ स्योनाक्रज जीवयजं यजते सोपमा दिवाः ।।
अनुवाद:
अग्नि , तुम उस व्यक्ति को जानते हो जो हर तरफ से (पुजारियों को) उपहार देता है, अच्छी तरह से सिले हुए कवच की तरह। जो आदमी अपने घर में बढ़िया भोजन रखता है, और उनके साथ (अपने मेहमानों) का मनोरंजन करता है, वह जीवन का बलिदान करता है, और स्वर्ग की तरह है।"
सायण द्वारा भाष्य: ऋग्वेद-भाष्य
वर्मा स्युतम = सिला हुआ कवच, जो बिना कोई दरार छोड़े सुइयों से बनाया जाता है; जीवम्-याजम् यजते, जीवन-यज्ञ का बलिदान: जीवयजनसहितं यज्ञम्, जीवन के बलिदान के साथ बलिदान; जीवनिष्पाद्यम्, जिससे जीवन को सहारा दिया जाता है;
जीवयाजम् = जीवः , जीवित, पुजारी, जो इज्यन्ते दक्षिणाभिः, उपहारों द्वारा पूजे जाते हैं
वर्मन् शब्द की व्याख्या इस प्रकार है; "आवृणोति अङ्गम् (वृ+मनिन्)" जो अङ्ग को आच्छादित करे !। इससे इस शब्द का अर्थ-विस्तार आवरण, कवच, ढाल, सुरक्षा, पेड़ की छाल, छिलका, आदि में हुआ। तथा मनुष्य रूप में शरण, सुरक्षा प्रदान करने वाले के लिए वर्मन् शब्द उनके नाम में जोड़ने की परम्परा बन गई।

गुप्त-
गुप्तम्, त्रि, (गुप्यते स्म । गुप् + कर्म्मणि क्तः  गो पाति रक्षति इति गुप्त वा।) कृतरक्षणम् । तत्पर्य्यायः । त्रातम् २ त्राणम् ३ रक्षितम् ४ अवितम् ५ गोपायितम् ६ । (यथा, महाभारते । १ । १ । १८८ ।

गुप्त वि।
रक्षितम्
समानार्थक:त्रात,त्राण,रक्षित,अवित,गोपायित,गुप्त
3।1।106।1।6

"त्रातं त्राणं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च। अवगणितमवमतावज्ञातेऽवमानितं च परिभूते॥
(अमरकोश)

गो रक्षक- गुप्त( गोपायितृ)
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।
मा मा प्रापत्पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥२९॥ — अथर्ववेदः/काण्डं १७

दास-
अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास शब्द दान देने (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस की ऋचा लें :—

यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥ — (ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)


"(हे अग्निदेव!) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)

अनुकम्पा, दानादि के लिए उपयुक्त पात्र व्यक्ति को दास कहा गया है। ऋसुदास ऋग्वेद में वर्णित राजा सुदास भी वस्तुतः (ईश्वर की) अनुकम्पा के लिए उपयुक्त सुपात्र हैं।
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दास--दाने सम्प्रदाने घञ ५ दानपात्रे सम्प्रदाने ६ शूद्राणां नामान्त प्रयोज्योपाधिभेदे “शर्म्मान्त ब्राह्मणस्य स्यात् वर्म्मान्तं क्षक्षियस्य तु । गुप्तदासान्तकं नाम प्रशस्तं बैश्यशूद्रयोः” उद्वाह० त० 
                 'विष्णूवाच !
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते।७९।


अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा ! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।
और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)

ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेहनि ।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम् ।८ ॥

शर्मेति ब्राह्यणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ॥९॥

नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा ।
नामङ्गल्यं जुगुप्साकं नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥१०॥
(विष्णुपुराण-तृतीयांशः-अध्यायः (१०)

शर्मान्तं ब्राह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ॥१५३/४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३/५

(अग्निपुराण -/अध्यायः १५३)


मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥
अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम शुभ होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से संबंधित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से संबंधित होना चाहिए, जबकि शूद्र का नाम घृणित होना चाहिए।—(३१
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२।
अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम  शर्मवत्( यज्ञ में बलि करने से सम्बन्धित), क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम ' दासत्व(गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए।—(३२)
(मनुस्मृति- अध्याय 2- के श्लोक संख्या- 31-32 )
 -पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल  में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द  शूद्र का वाचक बन गया  और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ।
जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का  का ही वर माँगा। 
                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

"पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है।  कि चातुर्वर्ण्य के लोग जो अपने  वर्ण  के दायरे में रहकर ही कार्य करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह ब्राह्मणत्व कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।

इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥


सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।

अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।। ३०,३६
 
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
         
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के कर सकते हैं।  वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(पांच) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि, एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना प्रतिबंध के करते हैं।

वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-

"सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥४।
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक व्यक्ति का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।

वैष्णव के लक्षण-

महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।

तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम्।२।


विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते।     सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।     अनुवाद:-                 
-१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं । १।                            
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                    

३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाता है; और सभी वर्णों मे वैष्णव श्रेष्ठ कहे जाता है।३।  
      
"पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८)- श्लोक संख्या- १-२-३।
Note- यदि और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम मण्डल के(62) वें सूक्त की ऋचा संख्या- 10  में दासा( दास का द्विवचन) पद से सम्बोधित किया है।      

        यदु (YADU )

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यादवों का वर्ण वैष्णव है और इसे जब ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में समायोजित किया जाएगा तो बड़ी समस्या होगी क्यों कि यादव ( अहीर ) लोग ब्रह्मा के सभी वर्णों का व्यवसाय करते हैं। ये आध्यात्मिक, धीर्मिक और दार्शनिक भी हैं। तो युद्ध के क्षेत्र में भी अग्रणी हैं। गोपालन और कृषि बहुतायत से इन्हीं के द्वारा किया जाता है। दीन दु:खी और दबे कुचले लोगों के हिमायती और उसकी सेवा सहायता भी अहीर लोग ही करते हैं।
ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में एक वर्ण के व्यक्त को एक ही कार्य ( व्यवसाय)  सुनिश्चित है। दूसरा कर्म करने पर शास्त्रों का निषेध ( मनाही) है।

मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए वर्णित है- अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि  ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।

"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप॥30॥

उपर्युक्त श्लोक जो  मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ क्षत्रिय द्वारा युद्ध नहीं किया जा सकता है।

तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे  वे वैश्य कहाँ हुए ?
क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।

महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११)वें स्कंध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
 
  यदुनैवं  महाभागो  ब्रह्मण्येन   सुमेधसा।
  पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।

अनुवाद-  हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। ३१।

अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की  उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। 
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है। जैसे -

संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
 [ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में  "पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' 
(६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
       
ये तो रही "यदु" शब्द की ब्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं। 
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण, युद्ध, दानेषु  ]
          
इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है -
यज् = १- यजन करना।
          २- न्याय (संगतिकरण) करना।
          ३- युद्ध करना।
          ४- दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त चारो ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)-  हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।( ब्राह्मणकर्म-)
(२)-वे सबका यथोचित न्याय किया करते थे।( (क्षत्रिय कर्म) युद्ध और न्याय करण के अर्थ में भी यज् -धातु का अर्थ प्रसारण है। दोनों वीरों ( क्षत्रियों) के मौलिर गुण हैं।

(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी। ( दास्यकर्म) दास्= दाने( दानकरना)
उपर्युक्त सन्दर्भ में दास शब्द दान के द्वारासेवा करने से है।जो उचित ही है - यही दस शब्द का वैदिक अर्थ है।
(४) शत्रुओं से रक्षा हेतु यदु युद्ध- विद्या में निपुण थे।

(५) यदु के लिए तुर्वसु के साथ ऋग्वेद के दशम मण्डल के (62) वें सूक्त की दशम ऋचा में गायों से घिरा हुआ और गोपालक के रूप में वर्णित किया है। गोपालकों ने ही कृषि पद्धति का विकास किया । अत: गोपालन और कृषि को ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में वैश्य -वृत्ति सुनिश्चित किया है। और यदु तथा उनके वंशजों में ये सभी गुण - प्रवृत्ति मौलिक रूप से विद्यमान थे।

तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के ११वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- श्लोक- ३१ में उद्धव जी से कहते हैं कि-

                'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।

अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।

उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
                
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- (६२) की ऋचा-(१०))
में ऋषियों ने उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
     
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता/ दानी ) तथा कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य  गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
                    
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच  अपि च। और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ। वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले ।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ । गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ =
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)
५- दासा = दासतः दानकुरुत: =  दान करने वाले वे दोनों (यदु और तुर्वसु)।
    
 (ज्ञात हो- "दासा" बहुवचन शब्द है जो यदु  
  और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त  है।

दास - शब्द वैदिक काल में ही अपने उच्च अर्थों में प्रतिष्ठित था।
ययाति ने भगवान विष्णु से यह वरदान माँगा कि 
              
                     "राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

  
अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।।

 [ वैदिक शब्द निघण्टु में "दासा"    
  द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]

पाणिनीय धातुपाठ में "दास्" धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता। 
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता 
 ( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।

किंतु समय परिवर्तन के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै  परिवर्तन हुआ ।
घृणा शब्द वैदिक काल में  दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।।
          
ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के  अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - दाता था।
 
उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसी लिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियां और प्रशंसा किया करते थे।

जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में यदु और तुर्वसु को दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।
      
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में वैष्णव वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती से होती है। 

जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए ययाति वैष्णव राजा भगवान विष्णु से वर मांगते हैं हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो!। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक-

                    "विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते।।७९।।


अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।

                     "राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

  
अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।।
                   'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।


अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।

यदि उपरोक्त श्लोक-८१ को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास  इत्यादि इसके उदाहरण हैं।।

किंतु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहित वाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञनी लोग यादवों के पुर्वज यदु को  दास अथवा शूद्र  कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति नही करता था  ?  जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है।
इस प्रकार से इस अध्याय में आप लोगों ने वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर एवं उनकी विशेषताओं को जाना। 

जिसे आप इसी पुस्तक के अध्याय संख्या (11) के भाग (1) में यदु के जन्मगत परिचय के साथ ही यदु  की वंशावली भी देख सकते हैं।

अब इसके अगले अध्याय -(६) में आप लोग जानेंगे कि - वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या हैं ? ।

    





      (अध्याय षष्ठम्)  

 
ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है। ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था में वर्ण जातिगत विशेषण है।
इस बात को पिछले अध्याय- चार (४) में बताया जा चुका है।
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग के विभाजन  है। इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के बड़े ही स्वाभिमान से करते हैं। जैसे -
अर्थात् अहीर जाति में वर्ण गत विधान नहीं है अहीर लोग सभी वर्णों के कर्म करने में स्वतन्त्र हैं।

ब्रह्मणत्व कर्म का मुख्य उद्देश्य पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना प्रमुख है। और ये सभी कर्म- स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारंभ से ही करते आए हैं।
 
गोपों के इसी ब्रह्मणत्व स्वभाव और कर्मों की वजह से  उन्हे पौराणिक ग्रन्थों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी, ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है।
             सत्यनारायणव्रतकथाः 
            
               ॥सूत उवाच॥ 
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा:॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥    एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥

आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥          ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६।

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥ 
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥

सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥

य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्।१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥

भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्।१२॥

इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥

विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥

सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा:॥        
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥

व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥

शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९॥

काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥

उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥

तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३॥

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। 
उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दु:ख प्राप्त किया। 

एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने गोपों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा।

अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी वह राजा पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। 

गोपों  ने राजा को प्रसाद दिया।
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। 

जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है।

वह दुबारा गोपों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरान्त उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।

जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन व्यक्ति  धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। 

संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ।

वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।

उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए।
साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया।
महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  
इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण- गोपेश्वर श्रीकृष्ण, ज्ञान की देवी- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली देवी स्वाहा और स्वधा हैं।

जो सभी वैष्णव वर्ण के गोप जाति के सदस्यपति हैं। इन सभी के बारे में नीचे बताया गया है कि इन्हीं से धर्म  और यज्ञ कर्म का फल फलीभूत होता है। गोपों को ही सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया है। इस बात की पुष्टि-पद्म पुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१७ के श्लोक-( १५-१६ )और (१७ )से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान के उपरांत गोपों से कहते हैं कि-

'भोभोगोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्यायााषतेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।।१५।

योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणाबेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।।१६।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरंचयते।।१७।

अनुवाद -

• हे गोपगण! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धु-गण के लिए आनन्दप्रदा है। इस बाला को हम यहाँ लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलंबन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों ? हे महाभाग! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी इस भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है।१५।

• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना भी करके यह स्थान नहीं पाते, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६।

• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७।
_______________________________
           
इन उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती है-
• पहला यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ। जिनके मंत्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।
जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-१६ के- श्लोक-१५५ से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इंद्र से कहती है -
 
गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।। १५५।


अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मंडराहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५॥

• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी स्वीकार किया।
• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है।
• चौथी बात- यह कि- देवी गायत्री महा विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरी भूरी प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में की, और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
          
देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो दोनों ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन,अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे। इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायण संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -
_______
ब्रह्मणंयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।

श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता६५।

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता ।।६६॥

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे ।।६८।

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।। ६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह  गायत्री नाम्ना।। ७०।

अनुवाद:-
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।

•श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए  उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी  जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।

• सुनो ! मैं  जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५।

• उस परमात्मा ने अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या के  गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।

• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८।

• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित हुईं।६९।

• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको जानना चाहिए गायत्री नाम से ।७०।
          
ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तार रूप है।
     
इसी तरह से देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पितृ- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
  
जिसमें सुशील को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशील को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिण के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- ४५ के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

'गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥ २।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३।
      
अनुवाद - प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी। २-३।

"रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा॥ ७ ॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥ ८॥

        
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥ ७-८।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥

     
अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। ९।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥-१०॥

  _________      
 ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तृत  रूपान्तरण है।
     
इसी तरह से देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा हैं।
 जिनकी यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। 

और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशीला को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।
  
जिसमें सुशीला को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

"गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥२।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥३।
      
अनुवाद - प्राचीनकाल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।२-३।

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७॥

सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥८।।
        
अनुवाद- वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥७-८।।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥

वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥

अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥
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पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा॥१५॥

अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति।१६।

 अनुवाद-  १५-१६
• परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन

करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।१५-१६।

दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५


अनुवाद - हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई। ३५।

इस संबंध में ज्ञात होगी भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिण रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥ ३७ ॥

दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥ ३८ ॥

विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥ ३९ ॥
             
अनुवाद -  जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिण को यज्ञ पुरुष के हाथ में दे दिया। ३७-३८-३९।
             
तब यज्ञ पुरुष देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिण से कहा कि-
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥

राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
      
अनुवाद - हे महाभागे!तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियोंमें परम श्रेष्ठ थी। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी थी। ७१।

कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२॥

आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने॥ ७३॥

फिर यज्ञ पुरुष उस देवी से कहा-
कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥७५॥

त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥
       
अनुवाद-  तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५-७६-७७।
      
और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कंद के अध्याय-४३ के श्लोक-३८ में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के दरम्यान गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-

दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।। ३८
स्वाहान्तं मंत्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे ।
स्वाहायुक्तं च मत्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् ।। ३९॥
               
अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वाहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त  प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे मंत्र के उच्चारण से उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।३९॥
               
इस तरह से देखा जाए तो ब्राह्मणत्व से संबंधित सारे कर्म-विधान और फल, गोप और गोपियों के माध्यम से ही संपन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंगीता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय (60) के श्लोक संख्या (40) में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।
        
अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा गोप,यादव की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०॥

और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्मांड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण को गोप होने को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय-(८)में दी गई है।
         
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता बिना वर्ण विभाजन के ब्राह्मणत्व कर्म को स्वाभाविक रूप से करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।
    

  [ख] गोपों का क्षत्रित्व कर्म ] 

वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रियों से इनका कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि का भार हरण के उद्देश्य से ही किया गया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायण सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
     
इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहें हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिचासों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।। १०।

    
अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्रकृति मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूं।

इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से। और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में।
भगवान श्रीकृष्ण खुद गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहां से इस विषय पर पाठक गण जानकारी ले सकते हैं।
     
भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भांति नंद बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा ।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।। २३।         
अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिय हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐमकार एवं वषट्कार हो।
    
 किंतु इस संबंध में यह बात ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
          
कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय। इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शास्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
     
अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे संबंधित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजित एवं अजेय है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक परलोक सभी को जीतने शक्ति है। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उनपर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् उसपर देवता, गंधर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-२ के श्लोक संख्या- ७ में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।। 
७॥
           
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और संपूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।७॥
         
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेय एवं अपराजित है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय कहा जाता है।
        

  [ग] गोपों का वैश्य कर्म ] 


ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप भी स्वतंत्र रूप से करते हैं इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है।

क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। क्योंकि गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं। जिसमें ये गोप पशुपालन में  मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है। गोपालन कार्य से सम्बन्ध,गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का पूर्व कल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- 154 की  ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥६॥
              
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
   
इससे सिद्ध होता है कि गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परंपरागत रूप से निभाते हैं।
गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-६ के श्लोक-२६ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।। २६।

        
अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६॥

इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हाल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
            
श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कंध के अध्याय- (२० )के श्लोक-६० और ६१ से होती है-

तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।। ६०।
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।

              
अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी सुरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था। ६०-६१।
                   

अध्याय-(६)/२ 
    
इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्णा भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ करते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।
               

      [घ] गोपों का शूद्रत्व कर्म-           

देखा जाए तो  ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही स्वभाव देखने को मिलता है। जिसकी वजह से भगवान श्री कृष्णा जब-जब पृथ्वी पर पाप अत्याचार बढ़ता है, तब- तब वे अपने गोपों के साथ वैष्णव वर्ण के गोप कुल में अवतरित होते हैं। यानी पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा हेतु ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं। भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध (उत्तरार्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५) और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-

भीमो महानसाध्यक्षो थानाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्य साधने।।४।

गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।

युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।

अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्री कृष्ण, आए हुए अतिथियों के पांव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।( ४-५-६)

इन उपरोक्त श्लोक को यदि अंतरात्मा विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार कर यह सिद्ध कर दिया कि वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को करना और कराना दोनों ही निंदनीय माना गया है। जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसा नहीं है।
      
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
   
इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

 
      "अध्याय-एकादश)
          -(भाग प्रथम)           



                  यदु (YADU )
          
महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११)वें स्कंध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि - यदुनैवं  महाभागो  ब्रह्मण्येन   सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।।३१।

अनुवाद-  हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। ३१।

अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की  उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। 
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है। जैसे -

संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
 [ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में  "पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' 
(६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
       
ये तो रही यदु शब्द की ब्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं। 
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ]
          
इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है -
यज् = १- यजन करना।
          २- न्याय (संगतिकरण) करना।
          ३- युद्ध करना।
          ४-दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)-  हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)-वे  सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी। 

तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के ११वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- श्लोक- ३१ में उद्धव जी से कहते हैं कि
                'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।

उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
                
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१०
में ऋषियों ने उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
     
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता/ दानी ) तथा कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य  गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)

और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। अतः इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि किसी एक में गोपों स्थापित करना सिद्धांत विहीन होगा क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या और कुछ कहना निराधार होगा। पाँचवें अध्याय में  यादवों ( अहीरों) की वर्णगत विवेचना विस्तृत रूप से की गयी है।

पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल  में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द  शूद्र का वाचक बन गया  और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ।

जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का  का ही वर माँगा। 

               "राजोवाच"
"यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।अनुवाद:-राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।



पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५) में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।
        
अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है।  चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है।

इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो !
                    
यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके घर से ही प्रारंभ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियां- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम  की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए।

ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वंचित कर पशुपालक होने का शाप दिया और  सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं  प्राह  शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।

अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।

पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे। ७६।

यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारंभ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वंचित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारंभ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों को दरकिनार करते हुए अपने पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र की स्थापना की और प्रजातांत्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।

ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे रखा था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज लिया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र( गणतन्त्र) का जनक माना जाता है।
              
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादवंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपत्तियों को यादव कहा जाता है। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर  यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है। 

 [यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]

यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत में विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। 

जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में  मिलता है।

 और इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस को सहवर्ती ग्रन्थ "श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णं "में किया गया है। वहां से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा  श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंघ- (९ )के अध्याय( २३) में भी मिलता है।

यदु के चार वीर पुत्रों का वर्णन अध्याय एकादश(11) के भाग- द्वितीय और तृतीय में किया गया है।

   

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