रविवार, 13 मार्च 2022

गायत्री पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६-१७

अहीर जाति कहीं आभीर कहीं अफर और कहीं अवर और कही आभोर कहीं अबीर कहीं वीर और कहीं आर्य के रूप में भी अति प्राचीन काल से विद्यमान है।

इसके साक्ष्य भारतीय पुराणों में सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के साथ साथ पद्म पुराण से परवर्ती पुराण स्कन्द पुराण के नागरखण्ड और वैष्णवखण्ड में गायत्री या वर्णन आभीर कन्या के रूप में है । 

इन ग्रन्थों के अतिरिक्त -लक्ष्मीनारायण संहिता तथा ना नि दी उप पुराण में भी है । परन्तु मूल वर्णन आभीर कन्या गायत्री का पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में ही सम्यक है ।

सतयुग में एक वार जगतपिता ब्रह्मा ने पुष्कर क्षेत्र में एक बहुत बड़े यज्ञायोजन का संकल्प किया जिसमें सभी देव गण तथा संसार के सभी मनुष्य उपस्थित थे।

यह ब्रह्मा द्वारा संकल्पित सबसे बड़ा यज्ञ था। यह यजनसत्र एक हजार( सहस्र) दिव्य वर्षों से कुछ अधिक समय तक चला-था।

जब यज्ञ प्रारम्भ करने की सभी तैयारीयाँ पूर्ण हुईं और यज्ञ प्रारम्भ करने का मुहूर्त जब सन्निकट आया तो होताओं ने ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री को यज्ञ स्थल पर उपस्थित होने के लिए देवों को सावित्री के पास भिजवाया परन्तु  वे घर पर गृह कार्यों से निवृत होकर केश- प्रसाधन कर रहीं थी और नारी स्वभाव के कारण वे शीघ्र यज्ञ स्थल पर उपस्थित न हों सकी। 

उनका कहना था कि जब मेरी शखियाँ मेरे पास ई जायेंगी तो मैं अवश्य यज्ञ स्थल पर उपस्थित हो जाऊँगी।
जब देवों ने ब्रह्मा जी को सावित्री के शीघ्र उपस्थित न होने कि कारण बताया तो ब्रह्मा जी क्रोधित हो गये। 
और इन्द्र को आदेश दिया कि पृथ्वी पर से कोई योग्य कन्या लाओ जो यज्ञ स्थल में हमारी सहचरी बन सके ।

ब्रह्मा के वचन सुनकर उनके लिए द्विज वर्ण से कोई कन्या लाने के लिए कहा तभी पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इन्द्र ने देखा की मस्तुम( मट्ठा) सा घड़ा मस्तक पर रखे हुए कोई कन्या चली आरी है।
यह आभीर कन्या छरहरे शरीर वाली तन्वी चन्द्र प्रभा से शासित मुख वाली और कमल जैसे नेत्रों वाली सर्व शुभ लक्षणों ये युक्त यौवन वती थी। 
इन्द्र ने उसे देखकर पूछा हे कमल नयनी 
! तुम कौन हो ?  
तुम कुमारी हो अथवा विवाहित? और तुम्हारे पिता कौन है ? तभी उस कन्या ने कहा कि मैं आभीर कन्या ।



अहीर जाति कहीं आभीर कहीं अफर और कहीं अवर और कही आभोर कहीं अबीर कहीं वीर और कहीं आर्य के रूप में भी अति प्राचीन काल से विद्यमान है।
इसके साक्ष्य भारतीय पुराणों में सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के साथ साथ पद्म पुराण से परवर्ती पुराण स्कन्द पुराण के नागरखण्ड और वैष्णवखण्ड में गायत्री या वर्णन आभीर कन्या के रूप में है । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त -लक्ष्मीनारायण संहिता तथा ना नि दी उप पुराण में भी है । परन्तु मूल वर्णन आभीर कन्या गायत्री का पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में ही सम्यक है ।


सतयुग में एक वार जगतपिता ब्रह्मा ने पुष्कर क्षेत्र में एक बहुत बड़े यज्ञायोजन का संकल्प किया जिसमें सभी देव गण तथा संसार के सभी मनुष्य उपस्थित थे।

 यह ब्रह्मा द्वारा संकल्पित सबसे बड़ा यज्ञ था। यह यजनसत्र एक हजार( सहस्र) दिव्य वर्षों से कुछ अधिक समय तक चला-था

जब यज्ञ प्रारम्भ करने की सभी तैयारीयाँ पूर्ण हुईं और यज्ञ प्रारम्भ करने का मुहूर्त जब सन्निकट आया तो होताओं ने ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री को यज्ञ स्थल पर उपस्थित होने के लिए देवों को सावित्री के पास भिजवाया परन्तु  वे घर पर गृह कार्यों से निवृत होकर केश- प्रसाधन कर रहीं थी और नारी स्वभाव के कारण वे शीघ्र यज्ञ स्थल पर उपस्थित न हों सकी। उनका कहना था कि जब मेरी शखियाँ मेरे पास ई जायेंगी तो मैं अवश्य यज्ञ स्थल पर उपस्थित हो जाऊँगी।
जब देवों ने ब्रह्मा जी को सावित्री के शीघ्र उपस्थित न होने कि कारण बताया तो ब्रह्मा जी क्रोधित हो गये। और इन्द्र को आदेश दिया कि पृथ्वी पर से कोई योग्य कन्या लाओ जो यज्ञ स्थल में हमारी सहचरी बन सके ।

ब्रह्मा के वचन सुनकर उनके लिए द्विज वर्ण से कोई कन्या लाने के लिए कहा तभी पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इन्द्र ने देखा की मस्तुम( मट्ठा) सा घड़ा मस्तक पर रखे हुए कोई कन्या चली आरी है। यह आभीर कन्या छरहरे शरीर वाली तन्वी चन्द्र प्रभा से शासित मुख वाली और कमल जैसे नेत्रों वाली सर्व शुभ लक्षणों ये युक्त यौवन वती थी। 
इन्द्र ने उसे देखकर पूछा हे कमल नयनी 
! तुम कौन हो ?  तुम कुमारी हो अथवा विवाहित? और तुम्हारे पिता कौन है ? तभी उस कन्या ने कहा कि मैं आभीर कन्या ।

पद्मपुराणम्-खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)  -अध्यायः१६-


< पद्मपुराणम्‎ | १ ( प्रथम सृष्टिखण्डम्-अध्यायः १६


           भीष्म उवाच
यदेतत्कथितं ब्रह्मंस्तीर्थमाहात्म्यमुत्तमम्
कमलस्याभिपातेन तीर्थं जातं धरातले।१।

तत्रस्थेन भगवता विष्णुना शंकरेण च
यत्कृतं मुनिशार्दूल तत्सर्वं परिकीर्त्तय।२।

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः
के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः।३।

के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का चदक्षिणा
का वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विरंचिना।४।

यो याज्यः सर्वदेवानां वेदैः सर्वत्र पठ्यते
कं च काममभिध्यायन्वेधा यज्ञं चकार ह।५।

यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।

अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।

ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।

कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।

भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।

स्वायंभुवादींश्च मनून्सावित्री समजीजनत्
धर्मपत्नीं तु तां ब्रह्मा पुत्रिणीं ब्रह्मणः प्रियः।१२।

पतिव्रतां महाभागां सुव्रतां चारुहासिनीं
कथं सतीं परित्यज्य भार्यामन्यामविंदत।१३।

किं नाम्नी किं समाचारा कस्य सा तनया विभोः
क्व सा दृष्टा हि देवेन केन चास्य प्रदर्शिता।१४।

किं रूपा सा तु देवेशी दृष्टा चित्तविमोहिनी
यां तु दृष्ट्वा स देवेशः कामस्य वशमेयिवान्।१५।

वर्णतो रूपतश्चैव सावित्र्यास्त्वधिका मुने
या मोहितवती देवं सर्वलोकेश्वरं विभुम्।१६।

यथा गृहीतवान्देवो नारीं तां लोकसुंदरीं
यथा प्रवृत्तो यज्ञोसौ तथा सर्वं प्रकीर्तय।१७।

तां दृष्ट्वा ब्रह्मणः पार्श्वे सावित्री किं चकार ह
सावित्र्यां तु तदा ब्रह्मा कां तु वृत्तिमवर्त्तत।१८।

सन्निधौ कानि वाक्यानि सावित्री ब्रह्मणा तदा
उक्ताप्युक्तवती भूयः सर्वं शंसितुमर्हसि।१९।

किं कृतं तत्र युष्माभिः कोपो वाथ क्षमापि वा
यत्कृतं तत्र यद्दृष्टं यत्तवोक्तं मया त्विह।२०।


विस्तरेणेह सर्वाणि कर्माणि परमेष्ठिनः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण विधेर्यज्ञविधिं परं।२१।

कर्मणामानुपूर्व्यं च प्रारंभो होत्रमेव च
होतुर्भक्षो यथाऽचापि प्रथमा कस्य कारिता।२२।

कथं च भगवान्विष्णुः साहाय्यं केन कीदृशं
अमरैर्वा कृतं यच्च तद्भवान्वक्तुमर्हति।२३।

देवलोकं परित्यज्य कथं मर्त्यमुपागतः
गार्हपत्यं च विधिना अन्वाहार्यं च दक्षिणम्।२४।

अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव तथा स्रुवम्
प्रोक्षणीयं स्रुचं चैव आवभृथ्यं तथैव च।२५।

अग्नींस्त्रींश्च यथा चक्रे हव्यभागवहान्हि वै
हव्यादांश्च सुरांश्चक्रे कव्यादांश्च पितॄनपि।२६।

भागार्थं यज्ञविधिना ये यज्ञा यज्ञकर्मणि
यूपान्समित्कुशं सोमं पवित्रं परिधीनपि।२७।

यज्ञियानि च द्रव्याणि यथा ब्रह्मा चकार ह
विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठ्येन कर्मणा।२८।

क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च
मुहूर्तास्तिथयो मासा दिनं संवत्सरस्तथा।२९।

ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं पुरा
आयुः क्षेत्राण्यपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवम्।३०।

त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयो वर्णास्त्रयो गुणाः।३१।

सृष्टा लोकाः पराः स्रष्ट्रा ये चान्येनल्पचेतसा
या गतिर्धर्मयुक्तानां या गतिः पापकर्मणां।३२।

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।

यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।

सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम्
वेद्यो यो वेदविदुषां यः प्रभुः प्रभवात्मनाम्।३५।

असुभूतश्च भूतानामग्निभूतोग्नि वर्चसाम्
मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम्।३६।

विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि
इत्येतत्सर्वमखिलान्सृजन्लोकपितामहः।३७।

यज्ञाद्गतिं कामन्वैच्छत्कथं यज्ञे मतिः कृता
एष मे संशयो ब्रह्मन्नेष मे संशयः परः।३८।

आश्चर्यः परमो ब्रह्मा देवैर्दैत्यैश्च पठ्यते
कर्मणाश्चर्यभूतोपि तत्त्वतः स इहोच्यते।३९।

पुलस्त्य उवाच
प्रश्नभारो महानेष त्वयोक्तो ब्रह्मणश्च यः
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां तत्परं यशः।४०।

सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्
सहस्रश्रवणं चैव सहस्रकरमव्ययम्।४१।

सहस्रजिह्वं साहस्रं सहस्रपरमं प्रभुं
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्।४२।

हवनं सवनं चैव हव्यं होतारमेव च
पात्राणि च पवित्राणि वेदीं दीक्षां चरुं स्रुवम्।४३।

स्रुक्सोममवभृच्चैव प्रोक्षणीं दक्षिणा धनम्
अद्ध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यान्सदनं सदः।४४।

यूपं समित्कुशं दर्वी चमसोलूखलानि च
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं बन्धनं च यत्।४५।

ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि प्रमाणस्थावराणि च
प्रायश्चित्तानि वाजाश्च स्थंडिलानि कुशास्तथा।४६।

मंत्रं यज्ञं च हवनं वह्निभागं भवं च यं
अग्रेभुजं होमभुजं शुभार्चिषमुदायुधं।४७।

आहुर्वेदविदो विप्रा यो यज्ञः शाश्वतः प्रभुः
यां पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यामिमां कथां।४८।

यदर्थं भगवान्ब्रह्मा भूमौ यज्ञमथाकरोत्
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च।४९।

ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः५० 1.16.50

सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान्प्रजापतिः
पुराणदेवोथ तथा प्रचक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः।५१।

पुरा कमलजातस्य स्वपतस्तस्य कोटरे
पुष्करे यत्र संभूता देवा ऋषिगणास्तथा।५२।

एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः
पुराणं कथ्यते यत्र वेदस्मृतिसुसंहितं।५३।

वराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भूतो विरिंचिनः
सहायार्थं सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः।५४।

विस्तीर्णं पुष्करे कृत्वा तीर्थं कोकामुखं हि तत्
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुहस्तश्चितीमुखः।५५।

अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदांगः श्रुतिभूषणः।५६।

आज्यनासः स्रुवतुंडः सामघोषस्वनो महान्
सत्यधर्ममयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः।५७।

प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्मखाकृतिः
उद्गात्रांत्रो होमलिंगो फलबीजमहौषधिः।५८।

वाय्वंतरात्मा मंत्रास्थिरापस्फिक्सोमशोणितः
वेदस्कंधो हविर्गंधो हव्यकव्यातिवेगवान्।५९।

प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरर्चितः
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्।६०।

उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः
छायापत्नीसहायो वै मणिशृंगमिवोच्छ्रितः।६१।

सर्वलोकहितात्मा यो दंष्ट्रयाभ्युज्जहारगाम्
ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः।६२।

ततो जगाम निर्वाणं पृथिवीधारणाद्धरिः
एवमादिवराहेण धृत्वा ब्रह्महितार्थिना।६३।

उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागरांबुगता पुरा
वृतः शमदमाभ्यां यो दिव्ये कोकामुखे स्थितः।६४।

आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।६५।

दिग्भिर्विदिग्भिः पृथिवी नदीभिः सह सागरैः
चराचरगुरुः श्रीमान्ब्रह्मा ब्रह्मविदांवरः।६६।

उवाच वचनं कोकामुखं तीर्थं त्वया विभो
पालनीयं सदा गोप्यं रक्षा कार्या मखे त्विह।६७।

एवं करिष्ये भगवंस्तदा ब्रह्माणमुक्तवान्
उवाच तं पुनर्ब्रह्मा विष्णुं देवं पुरः स्थितम्।६८।

त्वं हि मे परमो देवस्त्वं हि मे परमो गुरुः
त्वं हि मे परमं धाम शक्रादीनां सुरोत्तम।६९।

उत्फुल्लामलपद्माक्ष शत्रुपक्ष क्षयावह
यथा यज्ञेन मे ध्वंसो दानवैश्च विधीयते।७०।

तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तु ते
विष्णुरुवाच
भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्।७१।

ये चान्ते विघ्नकर्तारो यातुधानास्तथाऽसुराः
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तिष्ठ पितामह।७२।

एवमुक्त्वा स्थितस्तत्र साहाय्येन कृतक्षणः
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रसन्नाश्च दिशो दश।७३।

सुप्रभाणि च ज्योतींषि चंद्रं चक्रुः प्रदक्षिणम्
न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसेदुश्चापि सिंधवः।७४।

नीरजस्का भूमिरासीत्सकला ह्लाददास्त्वपः
जग्मुः स्वमार्गं सरितो नापि चुक्षुभुरर्णवाः।७५।

आसन्शुभानींद्रियाणि नराणामंतरात्मनाम्
महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरवाचयन्।७६।

यज्ञे तस्मिन्हविः पाके शिवा आसंश्च पावकाः
प्रवृत्तधर्मसद्वृत्ता लोका मुदितमानसाः।७७।

विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधना गिरः
ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह।७८।

भूतप्रेतपिशाचाश्च सर्वे तत्रागताः क्रमात्
गंधर्वाप्सरसश्चैव नागा विद्याधरागणाः।७९।

वानस्पत्याश्चौषधयो यच्चेहेद्यच्च नेहति
ब्रह्मादेशान्मारुतेन आनीताः सर्वतो दिशः।८०।

यज्ञपर्वतमासाद्य दक्षिणामभितोदिशम्
सुरा उत्तरतः सर्वे मर्यादापर्वते स्थिताः।८१।

गंधर्वाप्सरसश्चैव मुनयो वेदपारगाः
पश्चिमां दिशमास्थाय स्थितास्तत्र महाक्रतौ।८२।

सर्वे देवनिकायाश्च दानवाश्चासुरागणाः
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा सुप्रीतास्ते परस्परम्।८३।

ऋषीन्पर्यचरन्सर्वे शुश्रूषन्ब्राह्मणांस्तथा
ऋषयो ब्रह्मर्षयश्च द्विजा देवर्षयस्तथा।८४।

राजर्षयो मुख्यतमास्समायाताः समंततः
कतमश्च सुरोप्यत्र क्रतौ याज्यो भविष्यति।८५।

पशवः पक्षिणश्चैव तत्र याता दिदृक्षवः
ब्राह्मणा भोक्तुकामाश्च सर्वे वर्णानुपूर्वशः।८६।

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ
आगत्यवरुणोलोकात्पक्वंचान्नंस्वतोपचत्।८७।

वायुर्भक्षविकारांश्च रसपाची दिवाकरः
अन्नपाचनकृत्सोमो मतिदाता बृहस्पतिः।८८।

धनदानं धनाध्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च
सरस्वती नदाध्यक्षो गंगादेवी सनर्मदा।८९।

याश्चान्याः सरितः पुण्याः कूपाश्चैव जलाशयाः
पल्वलानि तटाकानि कुंडानि विविधानि च।९०।

प्रस्रवाणि च मुख्यानि देवखातान्यनेकशः
जलाशयानि सर्वाणि समुद्राः सप्तसंख्यकाः।९१।

लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्
सप्तलोकाः सपातालाः सप्तद्वीपाः सपत्तनाः।९२।

वृक्षा वल्ल्यः सतृणानि शाकानि च फलानि च
पृथिवीवायुराकाशमापोज्योतिश्च पंचमम्।९३।

सविग्रहाणि भूतानि धर्मशास्त्राणि यानि च
वेदभाष्याणि सूत्राणि ब्रह्मणा निर्मितं च यत्।९४।

अमूर्तं मूर्तमत्यन्तं मूर्तदृश्यं तथाखिलम्
एवं कृते तथास्मिंस्तु यज्ञे पैतामहे तदा।९५।

देवानां संनिधौ तत्र ऋषिभिश्च समागमे
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे स्थितो विष्णुः सनातनः।९६।

वामपार्श्वे स्थितो रुद्रः पिनाकी वरदः प्रभुः
ऋत्विजां चापि वरणं कृतं तत्र महात्मना।९७।

भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते१०० 1.16.100

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३।

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।
११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।

एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह।१२७।

एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।१२८।

यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय।१२९।

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह।१३०।

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम्।१३३।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्।१३४।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।

तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यते
योषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः।१३६।

सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमः
नीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां।१३७।

त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव।१३८।

प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता।१३९।

कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं।१४०।

पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्।१४१।

तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते।१४२।

दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ।१४३।

कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ।१४४।

कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि।१४५।

तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः।१४६।

वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता।१४७।

करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः।१४८।

निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्।१४९।

देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा१५० 1.16.150।

त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः।१५१।

इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि।१५२।

यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्।१५३।

न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने।१५४।

उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती।१५५।

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।१५६।

दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५७।

एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।१५८।

नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्।१५९।

यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते।१६०।

का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल।१६१।

प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते।१६२।

धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति।१६३।

इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले।१६४।

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्।१६५।

कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्।१६६।


मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्।१६७।

तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत।१६८।

यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि।१६९।

अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्।१७०।

भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः।१७१।

सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्।१७२।

लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा।१७३।

तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते।१७४।

अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी।१७५।

कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्।१७६।

अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्।१७७।

अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्।१७८।

त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्।१७९।

शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते।१८०।

समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः।१८१।

विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्।१८२।

यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः।१८३।

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।

देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।

तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्।१८६।

अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः।१८७।

तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय।१८८।

मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः।१८९।

औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते।१९०।

प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्।१९१।

________________________
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः।१६।




पद्मपुराणम्-खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)  -अध्यायः१६-

< पद्मपुराणम्‎ | १ ( प्रथम सृष्टिखण्डम्-अध्यायः १६

                  भीष्म उवाच
यदेतत्कथितं ब्रह्मंस्तीर्थमाहात्म्यमुत्तमम्
कमलस्याभिपातेन तीर्थं जातं धरातले।१।

तत्रस्थेन भगवता विष्णुना शंकरेण च
यत्कृतं मुनिशार्दूल तत्सर्वं परिकीर्त्तय।२।

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः
के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः।३।

के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का चदक्षिणा
का वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विरंचिना।४।

यो याज्यः सर्वदेवानां वेदैः सर्वत्र पठ्यते
कं च काममभिध्यायन्वेधा यज्ञं चकार ह।५।

यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।

अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।

ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।

तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।

कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।

भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापतीन्।११।

स्वायंभुवादींश्च मनून्सावित्री समजीजनत्
धर्मपत्नीं तु तां ब्रह्मा पुत्रिणीं ब्रह्मणः प्रियः।१२।

पतिव्रतां महाभागां सुव्रतां चारुहासिनीं
कथं सतीं परित्यज्य भार्यामन्यामविंदत।१३।

किं नाम्नी किं समाचारा कस्य सा तनया विभोः
क्व सा दृष्टा हि देवेन केन चास्य प्रदर्शिता।१४।

किं रूपा सा तु देवेशी दृष्टा चित्तविमोहिनी
यां तु दृष्ट्वा स देवेशः कामस्य वशमेयिवान्।१५।

वर्णतो रूपतश्चैव सावित्र्यास्त्वधिका मुने
या मोहितवती देवं सर्वलोकेश्वरं विभुम्।१६।

यथा गृहीतवान्देवो नारीं तां लोकसुंदरीं
यथा प्रवृत्तो यज्ञोसौ तथा सर्वं प्रकीर्तय।१७।

तां दृष्ट्वा ब्रह्मणः पार्श्वे सावित्री किं चकार ह
सावित्र्यां तु तदा ब्रह्मा कां तु वृत्तिमवर्त्तत।१८।

सन्निधौ कानि वाक्यानि सावित्री ब्रह्मणा तदा
उक्ताप्युक्तवती भूयः सर्वं शंसितुमर्हसि।१९।

किं कृतं तत्र युष्माभिः कोपो वाथ क्षमापि वा
यत्कृतं तत्र यद्दृष्टं यत्तवोक्तं मया त्विह।२०।


विस्तरेणेह सर्वाणि कर्माणि परमेष्ठिनः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण विधेर्यज्ञविधिं परं।२१।

कर्मणामानुपूर्व्यं च प्रारंभो होत्रमेव च
होतुर्भक्षो यथाऽचापि प्रथमा कस्य कारिता।२२।

कथं च भगवान्विष्णुः साहाय्यं केन कीदृशं
अमरैर्वा कृतं यच्च तद्भवान्वक्तुमर्हति।२३।

देवलोकं परित्यज्य कथं मर्त्यमुपागतः
गार्हपत्यं च विधिना अन्वाहार्यं च दक्षिणम्।२४।

अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव तथा स्रुवम्
प्रोक्षणीयं स्रुचं चैव आवभृथ्यं तथैव च।२५।

अग्नींस्त्रींश्च यथा चक्रे हव्यभागवहान्हि वै
हव्यादांश्च सुरांश्चक्रे कव्यादांश्च पितॄनपि।२६।

भागार्थं यज्ञविधिना ये यज्ञा यज्ञकर्मणि
यूपान्समित्कुशं सोमं पवित्रं परिधीनपि।२७।

यज्ञियानि च द्रव्याणि यथा ब्रह्मा चकार ह
विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठ्येन कर्मणा।२८।

क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च
मुहूर्तास्तिथयो मासा दिनं संवत्सरस्तथा।२९।

ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं पुरा
आयुः क्षेत्राण्यपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवम्।३०।

त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयो वर्णास्त्रयो गुणाः।३१।

सृष्टा लोकाः पराः स्रष्ट्रा ये चान्येनल्पचेतसा
या गतिर्धर्मयुक्तानां या गतिः पापकर्मणां।३२।

चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।

यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।

सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम्
वेद्यो यो वेदविदुषां यः प्रभुः प्रभवात्मनाम्।३५।

असुभूतश्च भूतानामग्निभूतोग्नि वर्चसाम्
मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम्।३६।

विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि
इत्येतत्सर्वमखिलान्सृजन्लोकपितामहः।३७।

यज्ञाद्गतिं कामन्वैच्छत्कथं यज्ञे मतिः कृता
एष मे संशयो ब्रह्मन्नेष मे संशयः परः।३८।

आश्चर्यः परमो ब्रह्मा देवैर्दैत्यैश्च पठ्यते
कर्मणाश्चर्यभूतोपि तत्त्वतः स इहोच्यते।३९।

पुलस्त्य उवाच
प्रश्नभारो महानेष त्वयोक्तो ब्रह्मणश्च यः
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां तत्परं यशः।४०।

सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्
सहस्रश्रवणं चैव सहस्रकरमव्ययम्।४१।

सहस्रजिह्वं साहस्रं सहस्रपरमं प्रभुं
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्।४२।

हवनं सवनं चैव हव्यं होतारमेव च
पात्राणि च पवित्राणि वेदीं दीक्षां चरुं स्रुवम्।४३।

स्रुक्सोममवभृच्चैव प्रोक्षणीं दक्षिणा धनम्
अद्ध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यान्सदनं सदः।४४।

यूपं समित्कुशं दर्वी चमसोलूखलानि च
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं बन्धनं च यत्।४५।

ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि प्रमाणस्थावराणि च
प्रायश्चित्तानि वाजाश्च स्थंडिलानि कुशास्तथा।४६।

मंत्रं यज्ञं च हवनं वह्निभागं भवं च यं
अग्रेभुजं होमभुजं शुभार्चिषमुदायुधं।४७।

आहुर्वेदविदो विप्रा यो यज्ञः शाश्वतः प्रभुः
यां पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यामिमां कथां।४८।

यदर्थं भगवान्ब्रह्मा भूमौ यज्ञमथाकरोत्
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च।४९।

ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः५० 1.16.50

सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान्प्रजापतिः
पुराणदेवोथ तथा प्रचक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः।५१।

पुरा कमलजातस्य स्वपतस्तस्य कोटरे
पुष्करे यत्र संभूता देवा ऋषिगणास्तथा।५२।

एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः
पुराणं कथ्यते यत्र वेदस्मृतिसुसंहितं।५३।

वराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भूतो विरिंचिनः
सहायार्थं सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः।५४।

विस्तीर्णं पुष्करे कृत्वा तीर्थं कोकामुखं हि तत्
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुहस्तश्चितीमुखः।५५।

अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदांगः श्रुतिभूषणः।५६।

आज्यनासः स्रुवतुंडः सामघोषस्वनो महान्
सत्यधर्ममयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः।५७।

प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्मखाकृतिः
उद्गात्रांत्रो होमलिंगो फलबीजमहौषधिः।५८।

वाय्वंतरात्मा मंत्रास्थिरापस्फिक्सोमशोणितः
वेदस्कंधो हविर्गंधो हव्यकव्यातिवेगवान्।५९।

प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरर्चितः
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्।६०।

उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः
छायापत्नीसहायो वै मणिशृंगमिवोच्छ्रितः।६१।

सर्वलोकहितात्मा यो दंष्ट्रयाभ्युज्जहारगाम्
ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः।६२।

ततो जगाम निर्वाणं पृथिवीधारणाद्धरिः
एवमादिवराहेण धृत्वा ब्रह्महितार्थिना।६३।

उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागरांबुगता पुरा
वृतः शमदमाभ्यां यो दिव्ये कोकामुखे स्थितः।६४।

आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।६५।

दिग्भिर्विदिग्भिः पृथिवी नदीभिः सह सागरैः
चराचरगुरुः श्रीमान्ब्रह्मा ब्रह्मविदांवरः।६६।

उवाच वचनं कोकामुखं तीर्थं त्वया विभो
पालनीयं सदा गोप्यं रक्षा कार्या मखे त्विह।६७।

एवं करिष्ये भगवंस्तदा ब्रह्माणमुक्तवान्
उवाच तं पुनर्ब्रह्मा विष्णुं देवं पुरः स्थितम्।६८।

त्वं हि मे परमो देवस्त्वं हि मे परमो गुरुः
त्वं हि मे परमं धाम शक्रादीनां सुरोत्तम।६९।

उत्फुल्लामलपद्माक्ष शत्रुपक्ष क्षयावह
यथा यज्ञेन मे ध्वंसो दानवैश्च विधीयते।७०।

तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तु ते
विष्णुरुवाच
भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्।७१।

ये चान्ते विघ्नकर्तारो यातुधानास्तथाऽसुराः
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तिष्ठ पितामह।७२।

एवमुक्त्वा स्थितस्तत्र साहाय्येन कृतक्षणः
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रसन्नाश्च दिशो दश।७३।

सुप्रभाणि च ज्योतींषि चंद्रं चक्रुः प्रदक्षिणम्
न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसेदुश्चापि सिंधवः।७४।

नीरजस्का भूमिरासीत्सकला ह्लाददास्त्वपः
जग्मुः स्वमार्गं सरितो नापि चुक्षुभुरर्णवाः।७५।

आसन्शुभानींद्रियाणि नराणामंतरात्मनाम्
महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरवाचयन्।७६।

यज्ञे तस्मिन्हविः पाके शिवा आसंश्च पावकाः
प्रवृत्तधर्मसद्वृत्ता लोका मुदितमानसाः।७७।

विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधना गिरः
ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह।७८।

भूतप्रेतपिशाचाश्च सर्वे तत्रागताः क्रमात्
गंधर्वाप्सरसश्चैव नागा विद्याधरागणाः।७९।

वानस्पत्याश्चौषधयो यच्चेहेद्यच्च नेहति
ब्रह्मादेशान्मारुतेन आनीताः सर्वतो दिशः।८०।

यज्ञपर्वतमासाद्य दक्षिणामभितोदिशम्
सुरा उत्तरतः सर्वे मर्यादापर्वते स्थिताः।८१।

गंधर्वाप्सरसश्चैव मुनयो वेदपारगाः
पश्चिमां दिशमास्थाय स्थितास्तत्र महाक्रतौ।८२।

सर्वे देवनिकायाश्च दानवाश्चासुरागणाः
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा सुप्रीतास्ते परस्परम्।८३।

ऋषीन्पर्यचरन्सर्वे शुश्रूषन्ब्राह्मणांस्तथा
ऋषयो ब्रह्मर्षयश्च द्विजा देवर्षयस्तथा।८४।

राजर्षयो मुख्यतमास्समायाताः समंततः
कतमश्च सुरोप्यत्र क्रतौ याज्यो भविष्यति।८५।

पशवः पक्षिणश्चैव तत्र याता दिदृक्षवः
ब्राह्मणा भोक्तुकामाश्च सर्वे वर्णानुपूर्वशः।८६।

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ
आगत्यवरुणोलोकात्पक्वंचान्नंस्वतोपचत्।८७।

वायुर्भक्षविकारांश्च रसपाची दिवाकरः
अन्नपाचनकृत्सोमो मतिदाता बृहस्पतिः।८८।

धनदानं धनाध्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च
सरस्वती नदाध्यक्षो गंगादेवी सनर्मदा।८९।

याश्चान्याः सरितः पुण्याः कूपाश्चैव जलाशयाः
पल्वलानि तटाकानि कुंडानि विविधानि च।९०।

प्रस्रवाणि च मुख्यानि देवखातान्यनेकशः
जलाशयानि सर्वाणि समुद्राः सप्तसंख्यकाः।९१।

लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्
सप्तलोकाः सपातालाः सप्तद्वीपाः सपत्तनाः।९२।

वृक्षा वल्ल्यः सतृणानि शाकानि च फलानि च
पृथिवीवायुराकाशमापोज्योतिश्च पंचमम्।९३।

सविग्रहाणि भूतानि धर्मशास्त्राणि यानि च
वेदभाष्याणि सूत्राणि ब्रह्मणा निर्मितं च यत्।९४।

अमूर्तं मूर्तमत्यन्तं मूर्तदृश्यं तथाखिलम्
एवं कृते तथास्मिंस्तु यज्ञे पैतामहे तदा।९५।

देवानां संनिधौ तत्र ऋषिभिश्च समागमे
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे स्थितो विष्णुः सनातनः।९६।

वामपार्श्वे स्थितो रुद्रः पिनाकी वरदः प्रभुः
ऋत्विजां चापि वरणं कृतं तत्र महात्मना।९७।

भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।

सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।

ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते१०० 1.16.100

अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।

पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३।

यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।

ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।

भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।

अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।

द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।

तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।

द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।
११०।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।

उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।

सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।

उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।

इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।

प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।

ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।

अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।

वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।

सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।

भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।

एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह।१२७।

एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।१२८।

यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय।१२९।

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह।१३०।

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम्।१३३।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित्।१३४।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।

तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यते
योषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः।१३६।

सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमः
नीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां।१३७।

त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव।१३८।

प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता।१३९।

कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं।१४०।

पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्।१४१।

तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते।१४२।

दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ।१४३।

कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ।१४४।

कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि।१४५।

तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः।१४६।

वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता।१४७।

करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः।१४८।

निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम्।१४९।

देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा१५० 1.16.150।

त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः।१५१।

इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि।१५२।

यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्।१५३।

न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने।१५४।

उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती।१५५।

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।१५६।

दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५७।

एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।१५८।

नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्।१५९।

यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते।१६०।

का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल।१६१।

प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते।१६२।

धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति।१६३।

इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले।१६४।

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्।१६५।

कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्।१६६।


मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्।१६७।

तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत।१६८।

यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि।१६९।

अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्।१७०।

भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः।१७१।

सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्।१७२।

लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा।१७३।

तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते।१७४।

अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी।१७५।

कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्।१७६।

अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्।१७७।

अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्।१७८।

त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्।१७९।

शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते।१८०।

समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः।१८१।

विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्।१८२।

यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः।१८३।

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।

देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।

तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्।१८६।

अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः।१८७।

तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय।१८८।

मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः।१८९।

औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते।१९०।

प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्।१९१।

________________________
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः।१६।


 
पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १७

< पद्मपुराणम्‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्) अध्यायः १६ पद्मपुराणम्±
अध्यायः।। १७।।


भीष्म उवाच
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।

गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्३
पुलस्त्य उवाच
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप
४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ५
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।

गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

 शक्र-
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि८
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह११।

पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्१३
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
______________________
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।।१५।
____________________
अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६.।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
  
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।
२१

भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका२५
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता२६
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः२७
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः२८ॐ
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
_____
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
____________
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।

कथं त्वमिह संप्राप्तो निंदितो वेदवादिभिः
एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निंद्यमानः स तैर्द्विजैः३४।
उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः
अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि३५
कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः
उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज३६
कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः
एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः३७
तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः
मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्३८
उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः
तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।

वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः
स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः४०

कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते
कपालांतान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।

विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं
उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्४२
तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतम्
एवं द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।


पंचाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा
एवं नांतः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः४४
नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः
पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।

तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयम्
ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितः शिवः।४६।

उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान्
पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।

कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम
एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।

तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्
कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।४९।

वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम्
सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो५० 1.17.50


ब्रह्मोवाच
न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः
सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।।५१।
एवं वदंतं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्
तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।

ततो मन्वंतरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्
ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शंभुना।५३।

चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः
तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।

संभाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः
तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।

प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः
प्रहसंति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।

अपरे पांसुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः
लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।

प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्
ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चांतिकम्।५८।
पृच्छंति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता
अत्र वामास्त्रियः संति तासामर्थे त्वमागतः।५९।

केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना
येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।

शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः
उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।

मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्
महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये़।६२।

उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद
मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः६३
ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना
गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृतेन तु।६४।

कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै
एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शंकरः।६५।
स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम
किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।

यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः
वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।

मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः
कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।

दंडैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्
पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्
६९।
ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः
ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।
वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः
न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति७१।

सर्वे च मोहिताः संतु सर्वेंद्रियविवर्जिताः
रौद्रीं भिक्षां समश्नंतु परपिंडोपजीविनः।७२।
आत्मानं वर्तयंतश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः
कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि सांप्रतम्।७३।

तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह७४।
एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः
गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।

अन्विष्यंतोपि यत्नेन न चापश्यंत ते यदा
तदा नियमसंपन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।

स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम्
जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्७७।

अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः
आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्७८
शांता दांता द्विजा ये तु भक्तिमंतो मयि स्थिराः
न तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि संततिः।७९।


अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमंतो जनार्दने
पूजयंति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्

८०।
नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः
एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।

लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्
आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पिता महल
विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयंतोऽग्रतः स्थिताः
तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।

ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः
को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।

अग्निहोत्राणि वेदाश्च शास्त्राणि विविधानि च
सांतानिकाश्च ये लोका वरदानाद्भवंतु नः।८५।
एवं प्रजल्पतां तत्र विप्राणां कोपमाविशत्
के यूयं केत्र प्रवरा वयं श्रेष्ठास्तथापरे।८६।

नेतिनेति तथा विप्रा द्विजांस्तांस्तत्र संस्थितान्
ब्रह्मोवाचाभिसंप्रेक्ष्य ब्राह्मणान्क्रोधपूरितान्।
८७।
यस्माद्यूयं त्रिभिर्भागैः सभायां बाह्यतः स्थिताः
तस्मादामूलिको गुल्मो ह्येको भवतु वो द्विजाः।८८।

उदासीनाः स्थिता ये तु उदासीना भवंतु ते
सायुधाबद्धनिस्त्रिंशा योद्धुकामा व्यवस्थिताः।८९


कौशिकीति गणो नाम तृतीयो भवतु द्विजाः
त्रिधाबद्धमिदं स्थानं सर्वं युष्मद्भविष्यति।९०।

बाह्यतो लोकशब्देन प्रोच्यमानाः प्रजास्त्विह
अविज्ञेयमिदं स्थानं विष्णुः पालयिता ध्रुवम्।९१।
मया दत्तं चिरस्थायि अभंगं
 च भविष्यति
एवमुक्त्वा तदा ब्रह्मा समाप्तिं तामवैक्षत।९२।

ब्राह्मणाः सहितास्ते तु क्रोधामर्षसमन्विताः
अतिथिं भोजयानाश्च वेदाभ्यासरतास्तु ते९३।
एतच्च परमं क्षेत्रं पुष्करं ब्रह्मसंज्ञितम्
तत्रस्था ये द्विजाः शांता वसंति क्षेत्रवासिनः।९४।

न तेषां दुर्लभं किंचिद्ब्रह्मलोके भविष्यति
कोकामुखे कुरुक्षेत्रे नैमिषे ऋषिसंगमे९५।

वाराणस्यां प्रभासे च तथा बदरिकाश्रमे
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगा सागर संग में।
रुद्रकोट्यां विरूपाक्षे मित्रस्यापि तथा वने
तीर्थेष्वेतेषु सर्वेषु सिद्धिर्या द्वादशाब्दिका।९७।

प्राप्यते मानवैर्लोके षण्मासाद्राजसत्तम
पुष्करे तु न संदेहो ब्रह्मचर्यमना यदि।९८।

तीर्थानां परमं तीर्थं क्षेत्राणामपि चोत्तमम्
सदा तु पूजितं पूज्यैर्भक्तियुक्तैः पितामहे।९९।

अतः परं प्रवक्ष्यामि सावित्र्या ब्रह्मणा सह
वादो यथानुभूतस्तु परिहासकृतो महान्१०० 1.17.100
________
सावित्रीगमने सर्वा आगता देवयोषितः
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना विष्णुपत्नी यशस्विनी१०१
आमन्त्रिता सदा लक्ष्मीस्तत्रायाता त्वरान्विता
मदिरा च महाभागा योगनिद्रा विभूतिदायु१०२।
श्रीः कमलालयाभूतिः कीर्तिः श्रद्धा मनस्विनी
पुष्टितुष्टिप्रदा या तु देव्या एताः समागताः१०३।
सती या दक्षतनया उमेति पार्वती शुभा
त्रैलोक्यसुंदरी देवी स्त्रीणां सौभाग्यदायिनी।१०४।
जया च विजया चैव मधुच्छंदामरावती
सुप्रिया जनकांता च सावित्र्या मंदिरे शुभे।१०५।

गौर्या सह समायातास्सुवेषा भरणान्विताः
पुलोमदुहिता चैव शक्राणी च सहाप्सराः।१०६।

स्वाहा चापि स्वधाऽऽयाता धूमोर्णा च वरानना
यक्षी तु राक्षसी चैव गौरी चैव महाधना।१०७।

मनोजवा वायुपत्नी ऋद्धिश्च धनदप्रिया
देवकन्यास्तथाऽऽयाता दानव्यो दनुवल्लभाः।
१०८।
सप्तर्षीणां महापत्न्य ऋषीणां च वरांगनाः
एवं भगिन्यो दुहिता विद्याधरीगणास्तथा।१०९।

राक्षस्यः पितृकन्याश्च तथान्या लोकमातरः
वधूभिः सस्नुषाभिश्च सावित्री गंतुमिच्छति।११०।

अदित्याद्यास्तथा सर्वा दक्षकन्यास्समागताः
ताभिः परिवृता साध्वी ब्रह्माणी कमलालया।१११।
काचिन्मोदकमादाय काचिच्छूर्पं वरानना
फलपूरितमादाय प्रयाता ब्रह्मणोंतिकम्।११२।

आढकीः सह निष्पावा गृहीत्वान्यास्तथापरा
दाडिमानि विचित्राणि मातुलिंगानि शोभना।११३।
करीराणि तथा चान्या गृहीत्वा कमलानि च
कौसुंभकं जीरकं च खर्जूरमपरा तथा।११४।
उत्तमान्यपरादाय नालिकेराणि सर्वशः
द्राक्षयापूरितं काचित्पात्रं शृंगाटकं तथा११५।

कर्पूराणि विचित्राणि जंबूकानि शुभानि च
अक्षोटामलकान्गृह्य जंबीराणि तथापरा।११६।

बिल्वानि परिपक्वानि चिपिटानि वरानना
कार्पासतूलिकाश्चान्या वस्त्रं कौसुंभकं तथा।११७।
एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः
सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः११८।

सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।
त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।

पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।

वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।

मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।
१२३।
शक्रेणान्याहृताभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा‌१२४।

कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया।१२५।

वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः१२६

पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्
१२७।
सर की 
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा१२८
द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।
१२९।
पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा१३०
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः१३१
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा१३२
उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता१३३
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्१३४
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता१३५
यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि१३६
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो१३७
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः१३८
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो१३९
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्१४०
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
ब्रह्मोवाच
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्१४१
पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना१४२
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते१४३
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
पुलस्त्य उवाच
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता१४४
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च१४५
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव१४६
करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्१४७
भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्१४८
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्१४९
अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे१५० 1.17.150
शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति१५१
भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः१५२
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः१५३
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि१५४
तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर१५५
भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति१५६
विहीनः पौरुषेण त्वं मुनिशापाच्च पीडितः
गंगाद्वारे स्थिता पत्नी सा त्वामाश्वासयिष्यति१५७
अग्ने त्वं सर्वभक्षोसि पूर्वं पुत्रेण मे कृतः
भृगुणा धर्मनित्येन कथं दग्धं दहाम्यहम्१५८
जातवेदस्स रुद्रस्त्वां रेतसा प्लावयिष्यति
अमेध्येषु च ते जिह्वा अधिकं प्रज्वलिष्यति१५९
ब्राह्मणानृत्विजः सर्वान्सावित्री वै शशाप ह
प्रतिग्रहार्थाग्निहोत्रो वृथाटव्याश्रयास्तथा१६०
सदा तीर्थानि क्षेत्राणि लोभादेव भजिष्यथ
परान्नेषु सदा तृप्ता अतृप्तास्स्वगृहेषु च१६१
अयाज्ययाजनं कृत्वा कुत्सितस्य प्रतिग्रहम्
वृथाधनार्जनं कृत्वा व्ययं चैव तथा वृथा१६२
प्रेतानां तेन प्रेतत्वं भविष्यति न संशयः
एवं शक्रं तथा विष्णुं रुद्रं वै पावकं तथा१६३
ब्रह्माणं ब्राह्मणांश्चैव सर्वांस्तानाशपद्रुषा
शापं दत्वा तथा तेषां निष्क्रांता सदसस्तथा१६४
ज्येष्ठं पुष्करमासाद्य तदा सा च व्यवस्थिता
लक्ष्मीं प्राह सतीं तां च शक्रभार्यां वराननाम्१६५
युवतीस्तास्तथोवाच नात्र स्थास्यामि संसदि
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न च ध्वनिम्१६६
ततस्ताः प्रमदाः सर्वाः प्रयाताः स्वनिकेतनम्
सावित्री कुपिता तासामपि शापाय चोद्यता१६७
यस्मान्मां तु परित्यज्य गतास्ता देवयोषितः
तासामपि तथा शापं प्रदास्ये कुपिता भृशम्१६८
नैकत्रवासो लक्ष्म्यास्तु भविष्यति कदाचन
क्षुद्रा सा चलचित्ता च मूर्खेषु च वसिष्यति१६९
म्लेच्छेषु पार्वतीयेषु कुत्सिते कुत्सिते तथा
मूर्खेषु चावलिप्तेषु अभिशप्ते दुरात्मनि१७०
एवंविधे नरे स्यात्ते वसतिः शापकारिता
शापं दत्वा ततस्तस्या इंद्राणीमशपत्ततदा१७१
ब्रह्महत्या गृहीतेंद्रे पत्यौ ते दुःखभागिनि
नहुषापहृते राज्ये दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति१७२
अहमिंद्रः कथं चैषा नोपस्थास्यति बालिशा
सर्वान्देवान्हनिष्यामि न लप्स्येहं शचीं यदि१७३
नष्टा त्वं च तदा त्रस्ता वाक्पतेर्दुःखिता गृहे
वसिष्यसे दुराचारे मम शापेन गर्विते१७४
देवभार्यासु सर्वासु तदा शापमयच्छत
न चापत्यकृतां प्रीतिमेताः सर्वा लभिष्यथ१७५
दह्यमाना दिवारात्रौ वंध्याशब्देन दूषिताः
गौर्य्यप्येवं तदा शप्ता सावित्र्या वरवर्णिनी१७६
रुदमाना तु सा दृष्टा विष्णुना च प्रसादिता
मा रोदीस्त्वं विशालाक्षि एह्यागच्छ सदा शुभे१७७
प्रविश्य च सभां देहि मेखलां क्षौमवाससी
गृहाण दीक्षां ब्रह्माणि पादौ च प्रणमामि ते१७८
एवमुक्ताऽब्रवीदेनं न करोमि वचस्तव
तत्र चाहं गमिष्यामि यत्र श्रोष्ये न वै ध्वनिम्१७९
एतावदुक्त्वा सारुह्य तस्मात्स्थानद्गिरौ स्थिता
विष्णुस्तदग्रतः स्थित्वा बध्वा च करसंपुटं१८०
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भक्त्या परमया स्थितः
विष्णुरुवाच
सर्वगा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतोद्भुता१८१
सदसच्चैव यत्किंचिद्दृश्यं तन्न विना त्वया
तथापि येषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः१८२
स्मर्तव्या भूमिकामैर्वा तत्प्रवक्ष्यामि तेग्रतः
सावित्री पुष्करे नाम तीर्थानां प्रवरे शुभे१८३
वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी
प्रयागे ललितादेवी कामुका गंधमादने१८४
मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथांबरे
गोमंते गोमती नाम मंदरे कामचारिणी१८५
मदोत्कटा चैत्ररथे जयंती हस्तिनापुरे
कान्यकुब्जे तथा गौरी रंभा मलयपर्वते१८६
एकाम्रके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरी तथा
कर्णिके पुरुहस्तेति केदारे मार्गदायिका१८७
नंदा हिमवतः पृष्टे गोकर्णे भद्रकालिका
स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वके बिल्वपत्रिका१८८
श्रीशैले माधवीदेवी भद्रा भद्रेश्वरी तथा
जया वराहशैले तु कमला कमलालये१८९
रुद्रकोट्यां तु रुद्राणी काली कालंजरे तथा
महालिंगे तु कपिला कर्कोटे मंगलेश्वरी१९०
शालिग्रामे महादेवी शिवलिंगे जलप्रिया
मायापुर्यां कुमारी तु संताने ललिता तथा१९१
उत्पलाक्षी सहस्राक्षे हिरण्याक्षे महोत्पला
गयायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे१९२
विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्यवर्द्धने
नारायणी सुपार्श्वे तु त्रिकूटे भद्रसुंदरी१९३
विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले
कोटवी कोटितीर्थे तु सुगंधा माधवीवने१९४
कुब्जाम्रके त्रिसंध्या तु गंगाद्वारे हरिप्रिया
शिवकुंडे शिवानंदा नंदिनी देविकातटे१९५
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृंदावने तथा
देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी१९६
चित्रकूटे तथा सीता विंध्ये विंध्यनिवासिनी
सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चंद्रे तु चंद्रिका१९७
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती
करवीरे महालक्ष्मी रुमादेवी विनायके१९८
अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी
अभया पुष्पतीर्थे तु अमृता विंध्यकंदरे१९९
मांडव्ये मांडवी देवी स्वाहा माहेश्वरे पुरे
वेगले तु प्रचंडाथ चंडिकामरकंटके२०० 1.17.200
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती
देवमाता सरस्वत्यां पारापारे तटे स्थिता२०१
महालये महापद्मा पयोष्ण्यां पिंगलेश्वरी
सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये तु शंकरी२०२
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा सिंधुसंगमे
उमा सिद्धवने लक्ष्मीरनंगा भरताश्रमे२०३
जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किंधपर्वते
देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमंडले२०४
भीमा देवी हिमाद्रौ च तुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा
कपालमोचने श्रद्धा माता कायावरोहणे२०५
शंखोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिः पिंडारके तथा
काला तु चंद्रभागायामच्छोदे सिद्धिदायिनी२०६
वेणायाममृता देवी बदर्यामूर्वशी तथा
औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका२०७
मन्मथा हेमकूटे तु कुमुदे सत्यवादिनी
अश्वत्थेवंदनीया तु निधिर्वै श्रवणालये२०८
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसन्निधौ
देवलोके तथेंद्राणी ब्रह्मास्ये तु सरस्वती२०९
सूर्यबिंबे प्रभानाम मातॄणां वैष्णवी तथा
अरुंधती सतीनां तु रामासु च तिलोत्तमा२१०
चित्रे ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणां
एतद्भक्त्या मया प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमं२११
अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतं
यो जपेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते२१२
येषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्येन्नरोत्तमः
सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं ब्रह्मपुरे वसेत्२१३
नामाष्टकशतं यस्तु श्रावयेद्ब्रह्मसन्निधौ
पौर्णमास्याममायां वा बहुपुत्रो भवेन्नरः२१४
गोदाने श्राद्धदाने वा अहन्यहनि वा पुनः
देवार्चनविधौ शृण्वन्परं ब्रह्माधिगच्छति२१५
एवं स्तुवंतं सावित्री विष्णुं प्रोवाच सुव्रता
सम्यक्स्तुता त्वया पुत्र त्वमजय्यो भविष्यसि२१६
अवतारे सदारस्त्वं पितृमातृषु वल्लभः
इह चागत्य यो मां तु स्तवेनानेन संस्तुयात्२१७
सर्वपापविनिर्मुक्तः परं स्थानं गमिष्यति
गच्छ यज्ञं विरिञ्चस्य समाप्तिं नय पुत्रक२१८
कुरुक्षेत्रे प्रयागे च भविष्ये चान्नदायिनी
समीपगा स्थिता भर्त्तुः करिष्ये तव भाषितम्२१९
एवमुक्तो गतो विष्णुर्ब्रह्मणः सद उत्तम्
गतायामथ सावित्र्यां गायत्री वाक्यमब्रवीत्२२०
शृण्वंतु वाक्यमृषयो मदीयं भर्तृसन्निधौ
यदिदं वच्म्यहं तुष्टा वरदानाय चोद्यता२२१
ब्रह्माणं पूजयिष्यंति नरा भक्तिसमन्विताः
तेषां वस्त्रं धनं धान्यं दाराः सौख्यं धनानि च२२२
अविच्छिन्नं तथा सौख्यं गृहे वै पुत्रपौत्रकम्
भुक्त्वासौ सुचिरं कालमंते मोक्षं गमिष्यति२२३
पुलस्त्य उवाच
ब्रह्माणं च प्रतिष्ठाप्य सर्वयत्नैर्विधानतः
यत्पुण्यफलमाप्नोति तदेकाग्रमनाः शृणु२२४
सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ वेदेषु यत्फलम्
तत्फलं कोटिगुणितं लभेतैतत्प्रतिष्ठया२२५
पौर्णमास्युपवासं तु कृत्वा भक्त्या नराधिप
अनेन विधिना यस्तु विरिंचिं पूजयेन्नरः२२६
प्रतिपदि महाबाहो स याति ब्रह्मणः पदम्
विरिंचिं वासुदेवं तु ऋत्विग्भिश्च विशेषतः२२७
कार्तिके मासि देवस्य रथयात्रा प्रकीर्तिता
यां कृत्वा मानवा भक्त्या संयांति ब्रह्मलोकताम्२२८
कार्तिके मासि राजेंद्र पौर्णमास्यां चतुर्मुखम्
मार्गेण ब्रह्मणा सार्द्धं सावित्र्या च परंतप२२९
भ्रामयेन्नगरं सर्वं नानावाद्यसमन्वितः
स्नपयेद्भ्रमयित्वा तु सलोकं नगरं नृप२३०
ब्राह्मणान्भोजयित्वाग्रे शांडिलेयं प्रपूज्य च
आरोपयेद्रथे देवं पुण्यवादित्रनिःस्वनैः२३१
रथाग्रे शांडिलीपुत्रं पूजयित्वा विधानतः
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु कृत्वा पुण्याहमङ्गलम्२३२
देवमारोपयित्वा च रथे कुर्यात्प्रजागरं
नानाविधैः प्रेक्षणिकैर्ब्रह्मघौषैश्च पुष्कलैः२३३
कृत्वा प्रजागरं देवं प्रभाते ब्राह्मणान्नृप
भोजयित्वा यथाशक्ति भक्ष्यभोज्यैरनेकशः२३४
पूजयित्वा जनं धीर मंत्रेण विधिवन्नृप
आज्येन तु महाबाहो पयसा पायसेन च२३५
ब्राह्मणान्वाचयित्वा तु स्वस्त्या तु विधिवन्नृप
कृत्वा पुण्याहशब्दं च तद्रथं भ्रामयेत्पुरे२३६
विप्रैश्चतुर्वेदविद्भिर्भ्रामयेद्ब्रह्मणो रथम्
बह्वृचाथर्वणैर्वीरछंदोगाध्वर्युभिस्तथा२३७
भ्रामयेद्देवदेवस्य सुरश्रेष्ठस्य तं रथं
प्रदक्षिणं पुरं सर्वं मार्गेण सुसमेन तु२३८
न वोढव्यो रथो वीर शूद्रेण हितमिच्छता
न चारोहेद्रथं प्राज्ञो मुक्त्वैकं भोजकं नृपः२३९
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे गायत्रीं स्थापयेन्नृप
भोजकं वामपार्श्वे तु पुरतः पंङ्कजं न्येसेत्२४०
एवं तूर्यनिनादैस्तु शंखशब्दैश्च पुष्कलैः
भ्रामयित्वा रथं वीर पुरं सर्वं प्रदक्षिणम्२४१
स्वस्थाने स्थापयेद्देवं दत्वा नीराजनं बुधः
य एवं कुरुते यात्रां यो वा भक्त्यापि पश्यति२४२
रथं वा कर्षयेद्यस्तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदं
कार्तिके मास्यमावास्यां यश्च दीपप्रदीपनं२४३
शालायां ब्रह्मणः कुर्यात्स गच्छेत्परमं पदम्
गंधपुष्पैर्नवैर्वस्त्रैरात्मानं पूजयेत्तु यः२४४
तस्यां प्रतिपदायां तु स गच्छेद्ब्रह्मणः पदम्
महापुण्यातिथिरियं बलिराज्यप्रवर्तिनी२४५
ब्रह्मणः सुप्रिया नित्यं बालेयी परिकीर्तिता
ब्रह्माणं पूजयेद्योऽस्यामात्मानं च विशेषतः२४६
स याति परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः
चैत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदां वरा२४७
तस्यां यः श्वपचं स्पृष्ट्वा स्नानं कुर्यान्नरोत्तमः
न तस्य दुरितं किंचिन्नाधयो व्याधयो नृप२४८
भवंति कुरुशार्दूल तस्मात्स्नानं समाचरेत्
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनं२४९
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्२५० 1.17.250
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्वह
तिस्रो ह्येताः पुरा प्रोक्तास्तिथयः कुरुनंदन२५१
कार्तिकाश्वयुजे मासि चैत्रेमासि तथा नृप
स्नानं दानं शतगुणं कार्त्तिके या तिथिर्नृप२५२
बलिराज्ञस्तु शुभदा पशूनां हितकारिणी
गायत्र्युवाच
यदुक्तं तु तया वाक्यं सावित्र्या कमलोद्भवं२५३
न तु ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
मदीयं तु वचः श्रुत्वा ये करिष्यंति चार्चनं२५४
इह भुक्त्वा तु भोगांस्ते परत्र मोक्षभागिनः
एतां ज्ञात्वा परां दृष्टिं वरं तुष्टः प्रयच्छति२५५
शक्राहं ते वरं दास्ये संग्रामे शत्रुनिग्रहे
तदा ब्रह्मा मोचयिता गत्वा शत्रुनिकेतनम्२५६
स्वपुरं लप्स्यसे नष्टं शत्रुनाशात्परां मुदं
अकंटकं महद्राज्यं त्रैलोक्ये ते भविष्यति२५७
मर्त्यलोके यदा विष्णो अवतारं करिष्यसि
भ्रात्रा सह परं दुःखं स्वभार्याहरणादिजं२५८
हत्वा शत्रुं पुनर्भार्यां लप्स्यसे सुरसन्निधौ
गृहीत्वा तां पुना राज्यं कृत्वा स्वर्गं गमिष्यसि२५९
एकादशसहस्राणि वर्षाणां च पुनर्दिवं
ख्यातिस्ते विपुला लोके अनुरागं जनैस्सह२६०
सांतानिका नाम तेषां लोका स्थास्यंति भाविताः
त्वया ते तारिता देव रामरूपेण मानवाः२६१
गायत्री तु तदा रुद्रं वरदा प्रत्यभाषत
पतितेपि च ते लिंगे पूजां कुर्वंति ये नराः२६२
ते पूताः पुण्यकर्माणः स्वर्गलोकस्य भागिनः
न तां गतिं चाग्निहोत्रे न क्रतौ हुतपावके२६३
यां गतिं मनुजा यांति तव लिंगस्य पूजनात्
गंगातीरे सदा लिंगं बिल्बपत्रेण ये तव२६४
पूजयिष्यंति सुप्राता रुद्रलोकस्य भागिनः
प्राप्यापि शर्वभक्तत्वमग्ने त्वं भव पावनः२६५
त्वयि प्रीते सुराः सर्वे प्रीता वै नात्र संशयः
त्वन्मुखेन हविर्देवैः प्रीताः प्रीते त्वयि ध्रुवम्२६६
भुंजते नात्र संदेहो वेदोक्तं वचनं यथा
गायत्री ब्राह्मणांस्तांश्च सर्वांश्चैवाब्रवीदिदं२६७
युष्माकं प्रीणनं कृत्वा सर्वतीर्थेषु मानवाः
पदं सर्वे गमिष्यंति वैराजाख्यं न संशयः२६८
अन्नप्रकारान्विविधान्दत्वा दानान्यनेकशः
श्राद्धेषु प्रीणनं कृत्वा देवदेवा भवंति ते२६९
ये च वै ब्राह्मणश्रेष्ठास्तेषामास्ये दिवौकसः
भुंजते च हविः क्षिप्रं कव्यं चैव पितामहाः२७०
यूयं हि धारणे शक्तास्त्रैलोक्यस्य न संशयः
प्राणायामेन चैकेन सर्वे पूता भविष्यथ२७१
विशेषात्पुष्करे स्नात्वा मां जप्त्वा वेदमातरं
प्रतिग्रहकृतान्दोषान्न प्राप्स्यथ द्विजोतमाः२७२
पुष्करे चान्नदानेन प्रीताः स्युः सर्वदेवताः
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोट्याः फलमवाप्स्यते२७३
ब्रह्महत्यादिपापानि दुष्कृतानि कृतानि च
करिष्यंति नरास्सर्वे दत्वा युष्मत्करे धनम्२७४
मदीयेन तु जाप्येन पूजनीयस्त्रिभिः कृतैः
ब्रह्महत्यासमं पापं तत्क्षणादेव नश्यति२७५
दशभिर्जन्मभिर्जातं शतेन च पुरा कृतं
त्रियुगेन सहस्रेण गायत्री हंति किल्बिषं२७६
एवं ज्ञात्वा सदा पूता जाप्ये तु मम वै कृते
भविष्यध्वं न संदेहो नात्र कार्या विचारणा२७७
प्रणवेन त्रिमात्रेण सार्द्धं जप्त्वा विशेषतः
पूताः सर्वे न संदेहो जप्त्वा मां शिरसा सह२७८
अष्टाक्षरा स्थिता चाहं जगद्व्याप्तं मया त्त्विदं
माताहं सर्ववेदानां पदैः सर्वेरलंकृता२७९
जप्त्वा मां भक्तितः सिद्धिं यास्यंति द्विजसत्तमाः
प्राधान्यं मम जाप्येन सर्वेषां वो भविष्यति२८०
गायत्रीसारमात्रोपि वरं विप्रः सुसंयतः
नायंत्रितश्चतुर्वेदी सर्वाशी सर्वविक्रयी२८१
यस्माद्विप्रेषु सावित्र्या शापो दत्तः सदस्यथ
अत्र दत्तं हुतं चापि सर्वमक्षयकारकम्२८२
दत्तो वरो मया तेन युष्माकं द्विजसत्तमाः
अग्निहोत्रपरा विप्रास्त्रिकालं होमदायिनः२८३
स्वर्गं ते तु गमिष्यंति सैकविंशतिभिः कुलैः
एवं शक्रस्य विष्णोश्च रुद्रस्य पावकस्य च२८४
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गायत्रीवरमुत्तमम्
तस्मिन्वै पुष्करे दत्त्वा ब्रह्मणः पार्श्वगाऽभवत्२८५
चारणैस्तु तदाऽऽख्यातं लक्ष्म्या वै शापकारणम्
युवतीनां च सर्वासां शापान्ज्ञात्वा पृथक्पृथक्२८६
लक्ष्म्याश्चैव वरं प्रादाद्गायत्री ब्रह्मणः प्रिया
अकुत्सितान्सदा सर्वान्कुर्वन्ती धनशोभना२८७
शोभिष्यसे न संदेहः सर्वेभ्यः प्रीतिदायिनी
ये त्वया वीक्षिताः पुत्रि सर्वे ते पुण्यभोजनाः२८८
परित्यक्तास्त्वया ये तु सर्वे ते दुःखभागिनः
तेषां जातिः कुलं शीलं धर्मश्चैव वरानने२८९
सभायां ते च शोभंते दृश्यंते चैव पार्थिवैः
अर्थित्वं चैव तेषां तु करिष्यंति द्विजोत्तमाः२९०
सौजन्यं तेषु कुर्वंति त्वं नो भ्राता पिता गुरुः
बांधवोपि न संदेहो न जीवेयं त्वया विना२९१
त्वयि दृष्टे प्रसन्ना मे दृष्टिर्भवति शोभना
मनः प्रसीदतेत्यर्थं सत्यं सत्यं वदामि ते२९२
एवंविधानि वाक्यानि त्वद्दृष्ट्या ये निरीक्षिताः
सज्जनास्ते तु श्रोष्यंति जनानां प्रीतिदायकाः२९३
इंद्रत्वं नहुषः प्राप्य दृष्ट्वा त्वां याचयिष्यति
त्वद्दृष्ट्या तु हतः पापो ह्यगस्त्यवचनाद्ध्रुवम्२९४
सर्पत्वं समनुप्राप्य प्रार्थयिष्यति तं तु सः
दर्पेणाहं विनष्टोस्मि शरणं मे मुने भव२९५
वाक्येन तेन तस्यासौ नृपस्य भगवानृषिः
कृत्वा मनसि कारुण्यमिदं वाक्यं वदिष्यति२९६
उत्पत्स्यते कुले राजा त्वदीये कुलनंदनः
सर्परूपधरं दृष्ट्वा स ते शापं हि भेत्स्यति२९७
तदा त्वं सर्पतां त्यक्त्वा पुनः स्वर्गं गमिष्यसि
अश्वमेधकृतेन त्वं भर्त्रा सह पुनर्दिवम्२९८
प्राप्स्यसे वरदानेन मदीयेन सुलोचने
पुलस्त्य उवाच
देवपत्न्यस्तदा सर्वास्तुष्टया परिभाषिताः२९९
अपत्यैरपि हीनानां नैव दुःखं भविष्यति
गौरी चैव तु गायत्र्या तदा सापि विबोधिता३०० 1.17.300
बृंहिता परितोषेण वरान्दत्त्वा मनस्विनी
समाप्तिं तस्य यज्ञस्य कांक्षंती ब्रह्मणः प्रिया३०१
वरदां तां तथा दृष्ट्वा गायत्रीं वेदमातरम्
प्रणिपत्य तदा रुद्रः स्तुतिमेतां चकार ह३०२
रुद्र उवाच
नमोस्तु ते वेदमातरष्टाक्षरविशोधिते
गायत्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा३०३
सर्वाणि स्तुतिशास्त्राणि गाथाश्च निखिलास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि लक्षणानि तथैव च३०४
भाष्यादि सर्वशास्त्राणि ये चान्ये नियमास्तथा
अक्षराणि च सर्वाणि त्वं तु देवि नमोस्तुते३०५
श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समानना
बिभ्रती विपुलौ बाहू कदलीगर्भकोमलौ३०६
एणशृंगं करे गृह्य पंकजं च सुनिर्मलम्
वसाना वसने क्षौमे रक्तेनोत्तरवाससा३०७
शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजिता
दिव्यकुंडलपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां सुविभूषिता३०८
चंद्रसापत्न्यभूतेन मुखेन त्वं विराजसे
मकुटेनातिशुद्धेन केशबंधेन शोभिता३०९
भुजंगाभोगसदृशौ भुजौ ते भूषणन्दिवः
स्तनौ ते रुचिरौ देवि वर्तुलौ समचूचुकौ३१०
जघनेनातिशुभ्रेण त्रिवलीभंगदर्पिता
सुमध्यवर्त्तिनी नाभिर्गंभीरा शुभदर्शिनी३११
विस्तीर्णजघना देवी सुश्रोणी च वरानने
सुजातवृत्तोरुयुगा सुजानु चरणा तथा३१२
त्रैलोक्यधारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना
भविष्यसि महाभागे वरदा वरवर्णिनी३१३
पुष्करे च कृता यात्रा दृष्ट्वा त्वां संभविष्यति
ज्येष्ठे मासे पौर्णमास्यामग्र्यां पूजां च लप्स्यसे३१४
ये च वा त्वत्प्रभावज्ञाः पूजयिष्यंति मानवाः
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा३१५
कांतारेषु निमग्नानामटव्यां वा महार्णवे
दस्युभिर्वानिरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्३१६
त्वं सिद्धिः श्रीर्धृतिः कीर्तिर्ह्रीर्विद्या सन्नतिर्मतिः
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा कालरात्रिस्त्वमेव च३१७
अंबा च कमला मातुर्ब्रह्माणी ब्रह्मचारिणी
जननी सर्वदेवानां गायत्री परमांगना३१८
जया च विजया चैव पुष्टिस्त्वं च क्षमा दया
सावित्र्यवरजा चासि सदा चेष्टा पितामहे३१९
बहुरूपा विश्वरूपा सुनेत्रा ब्रह्मचारिणी
सुरूपा त्वं विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी३२०
नगरेषु च पुण्येषु आश्रमेषु वरानने
वासस्तव महादेवि वनेषूपवनेषु च३२१
ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु ब्रह्मणो वामतः स्थिता
दक्षिणेन तु सावित्री मध्ये ब्रह्मा पितामहः३२२
अंतर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चापि दक्षिणा
सिद्धिस्त्वं हि नृपाणां च वेला सागरजा मता३२३
ब्रह्मचारिणि या दीक्षा शोभा च परमा मता
ज्योतिषां च प्रभा देवी लक्ष्मीर्नारायणे स्थिता३२४
क्षमा सिद्धिर्मुनीनां च नक्षत्राणां च रोहिणी
राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां संगमेषु च३२५
पूर्णिमा पूर्णचंद्रे च बुद्धिर्नीत्यां क्षमा धृतिः
उमादेवी च नारीणां श्रूयसे वरवर्णिनी३२६
इंद्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनोपगा
ॠषीणां धर्मबुद्धिस्त्वं देवानां च परायणा३२७
कर्षकाणां च सीता त्वं भूतानां धरणी तथा
स्त्रीणामवैधव्यकरी धनधान्यप्रदा सदा३२८
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता शमयिष्यसि
तथा तु कार्तिके मासि पौर्णमास्यां सुपूजिता३२९
सर्वकामप्रदा देवी भविष्यसि शुभप्रदे
यश्चेदं पठते स्तोत्रं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः३३०
सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः
गायत्र्युवाच
भविष्यत्येवमेवं तु यत्त्वया पुत्र भाषितम्३३१
विष्णुना सहितः सर्वस्थानेष्वेव भविष्यसि
______________________
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे सावित्रीविवादगायत्रीवरप्रदानं नाम सप्तदशोऽध्यायः१७







पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/विषयानुक्रमणिका

< पद्मपुराणम्‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)
प्रथमं सृष्टिखण्डम् ।। १ ।।

१-- मंगलाचरणम् लोमहर्षणेनोग्रश्रवसऋपीन्प्रति सर्वधर्मकथनायाज्ञादानम्, नैमिषा- रण्योत्पत्तिप्रस्तावः, नैमिषारण्यंप्रतिगतस्योग्रश्रवसस्तत्रन्यमहर्षिभिः सह संवा- दः, पुराणश्रवणाय शौनकप्रार्थना, सूतोत्पत्तिवर्णनम्, व्यासजन्मकथानिरूपणम, पुराणप्रशंसायां पाद्मपुराणस्याधिकप्रशंसावर्णनम्, तत्रत्यमुख्यविषयवर्णनम् श्लोकांकाः ६७ ।।

२-- सूतकृतमंगलाचरणम्, सृष्टिखंडस्थविषयवर्णनम्, पुराणप्रशंसा,गंगाद्वारे पुलस्त्य- भीप्मसंवादः, पुलस्त्येन ब्रह्मणः सृष्टिप्रकारवर्णनम्, महदादिसकलसृष्टिवर्णनम्. श्लोकांकाः ११९ ।।

३-- कालपरिमाणम्, प्रलये जलनिमग्नायाः पृथिव्या उद्धारणाय वाराहरूपस्य जलंप्र- विष्टस्य भगवतः पृथ्वीकृतस्तुतिवर्णनम्, भगवत्कृतपृथिव्युद्धरणम्, ब्रह्मदेवकृत नवविधसृष्टीनां संक्षेपेण वर्णनम्,सुरादिस्थावरांतचतुर्विधप्रजानां विस्तरेण सृष्टिवर्णन म्, मुखाद्यवयवविशेषाद्ब्राह्मणादिवर्णोत्पत्तिवर्णनपुरःसरं यज्ञनिष्पत्त्यर्थमोषध्यादि वर्णनम्, सृष्टप्राणिनां स्थानवर्णनम्, मानससृष्टिकथने भृग्वाद्युत्पत्ति, रुद्रोत्पत्तिः, स्वायंभुवोत्पत्तिः, स्वायंभुवप्रजासर्गवर्णनम् भृगोर्लक्ष्म्युत्पत्तिवर्णनम्, श्लोकांकाः २०६ ।।

४- समुद्रमंथनप्रस्तावे दुर्वाससइंद्राय शापप्रदानवर्णनम्, देवदैत्यैरेकत्रमिलित्वा समुद्रमन्थनम्, मथ्यमानात्समुद्रात्सुरभ्यादिरत्नोत्पत्तिः, लक्ष्म्युत्पत्तिसमनंतरं लक्ष्म्या विष्णु वरणम्, अमृतोत्पत्तौ देवानाममृतप्राशनम्, पुनर्भृगोः ख्यात्यां लक्ष्म्युत्पत्तिः,नर्मदा तीरे लक्ष्मीपुरयाचनावसरे भृगुणा विष्णोः शापदानम्, ब्रह्मणा पुनःसृष्टिकरणम, नारदेन ब्रह्मणः सृष्टिस्वरूपवर्णनम, ब्रह्मणा नारदाय वरप्रदानम् श्लोकांकाः १३७ ।।

५-- दक्षयज्ञविध्वंसकथानकम, तत्र दक्षेण यज्ञे समारब्धे सति सत्याः दक्षेण सह संवा दः, दक्षकृतसतीसांत्वनम्, सत्या देहत्यागः, दक्षकृत शंकरस्तुतिः, शिवेन दक्षाय व रप्रदानम, सतीनिमित्तं शिवस्य गंगाद्वारे चिताकरणम्, हिमवदुत्पन्नायाः पार्व त्या शिवेन सह विवाहः। श्लोकाकाः ९५ ।।

६-- दक्षात्प्राक् संकल्पदर्शनस्पर्शजन्यासृष्टिः, दक्षादूर्ध्वं मैथुनतः सृष्टिः, हर्यश्वानां                 शबलाश्वानां च नारदोपदेशेन मोक्षपथाश्रयणम्, विश्वदेववसुरुद्रादित्यदैत्यानामुत्पत्तिः, तत्र दैत्योत्पत्तौ संक्षिप्तबाणचरित्रम्, दानवशुक्रादिगरुडादि- । . समुत्पत्तिः ' श्लो० ७९

७-- मरुदुत्पत्ति-कथानकवर्णम्, तत्र दितिव्रतकरणम्, कश्यपाद्गर्भप्राप्तिवर्णनम्, गर्भिणीधर्माः, व्रतलोपे सतींद्रेण दित्याः कुक्षीप्रविश्य वज्रेण गर्भस्यैकोनपंचाशत्खं डकरणम् तेषां जीवतांगर्भखंडानां मरुदित्यभिधाकरणम्, तन्निरुक्तिश्च, । प्रतिसर्गवर्णने पृथुप्रभृतीनामाधिपत्यवर्णनम्, स्वारोचिषोत्तमितामसरैवतचाक्षुषवै वस्वतसावर्ण्यरौच्यमेरुसावर्णिऋभुऋतुधामविष्वक्सेनानां चतुर्दशमनूनामुद्देशेन तत्तदंतरवर्णनम् श्लोकांकाः ११५ ।।

८-- पृथुराजकथानकम्, तत्र संक्षिप्तपृथूत्पत्तिसमनंतरं पृथुना वत्सपात्रपयोदोग्धृ भेदेन पृथिवीदोहनम्, दोहनोत्तरं पुरग्रामादिव्यवस्थाकरणपूर्वकं पृथिव्याः पृथुदुहितृत्ववर्णनम्, सूर्यवंशवर्णनम् यमयमुनोत्पत्तिः, सावर्णिमनूत्पत्तिः, छाया याः सूर्यपत्न्याः संक्षिप्तचरित्रम्, संज्ञाया वडवारूपधारणम्, सूर्यतेजःशातनम् सूर्यमूर्त्तेः पादावयवाकरणेहेतुः, अश्विनीकुमारोत्पत्तिः, शनेर्ग्रहत्ववर्णनम्, य मुनातपत्योर्नदीत्वम्, विष्टिघोरयोः कालत्वम्, वैवस्वतमनुवंशवर्णनम्, वैवस्वतपुत्रस्येलस्य शंभूपवनगमनात्स्त्रीत्वप्राप्तौ बुधेन सह संयोगः, इक्ष्वाकादीनामिल भ्रातॄणां शिवाराधनम्, तदाराधनतुष्टशंकरेण वरप्रदानादिलस्य मासप्राप्यपुरु षत्वमासप्राप्यस्त्रीत्ववर्णनम् इलात्पुत्रोत्पत्तिः, इलावृतवर्षनामधेयम्, इलस्य वंश वर्णनम्, इक्ष्वाकुवंशवर्णनम श्लोकांकाः १६१ ।।

९-- पितृवंशानुचरितम्, तत्र मायाव्यभिचाराद्भूलोके मत्स्ययोनिजसत्यवतीत्वप्रा प्तिः, पितॄणांश्राद्ध, श्राद्धीयद्रव्य, श्राद्धकाल, श्राद्धस्थान, श्राद्धविधिवर्णनम, अनु पनीतविधुरयोः साधारणश्राद्धविधिः, शूद्रस्यामंत्रकंश्राद्धम्, आभ्युदयिकश्राद्ध- म् श्लोकांकाः १९२, ।।

१ ०-- एकोद्दिष्टश्राद्धविधिः, वर्णानुपूर्व्येण जननाशौचशावाशौचनिर्णयः, अस्थिसंच चयनादिप्रेतकर्म, लेपभाक्सपिंडपितृगणंनिर्णयः, विप्रादिभोजनेन पितृगणतृ प्तिविषयकशंकानिराकरणम् श्राद्धविषये कौशिकसूनुकथानकम् श्लोकांकाः१२७

११- श्राद्धयोग्यप्रशस्तदेशवर्णनम्, सत्यदयेंद्रियनिग्रहशमानामपि तीर्थत्वम्, श्राद्ध योग्यप्रशस्तकालवर्णनम् श्लोकांकाः ९५ ।।
______________________
१२-- सोमवंशवर्णनम्, तत्र चंद्रोत्पत्तिः, चन्द्रकृतयज्ञवर्णनम्, चंद्रेण ताराहरणे कृते सति बृहस्पतियाञ्चयाप्यदत्तायां तस्यां रुद्रकृतयुद्धोत्तरं चंद्रेण बृहस्पतये तारा दानम्, चंद्रवीर्यात्तारायां बुधोत्पत्तिः, बुधात्पुरूरवसोजन्म,पुरूरवसश्चरित्रम् पुरूरवसः पुत्रादिवंशवर्णनम्, बृहस्पतिकृतं रजिपुत्रमोहनम्, कार्तवीर्यनामस्म रणमाहात्म्यम् श्लोकांकाः १४० ।।

१३- क्रोष्टुवंशविस्तारवर्णनम् तत्र वंशानुवंशस्थस्त्रीपुरुषाणां संक्षिप्तचरित्रवर्णन- पुरःसरं स्यमंतकमणिसंक्षिप्त. चरितम्, कुंतीतः पांडवोत्पत्तिवर्णनम्, देवक्यां कृष्णोत्पत्तिवर्णनम्
____________________
 वसुदेवदेवकीनंदयशोदानां पूर्वजन्मवर्णनम् कृष्णसंतान वर्णनम्, पृथिव्यां भगवदवतारकारणवर्णने देवपराजितदैत्यप्रार्थित शुक्रकृत दैत्योत्कर्षार्थकतपश्चर्याकरणम् दैत्यानां शुक्रमातृकृतरक्षणे विष्णुकृतशुक्रमातृ वधवर्णनम्, भृगुणा विष्णवे शापदानम्, भृगुणा स्वपत्नीसंजीवनम्, इंद्रेण स्वकन्याया जयंत्पाः शुक्रसमीपसेवार्थं प्रेषणम्, जयंत्या शुक्रशुश्रूषणम् शुक्रस्य शिवेन वरप्रदा नम्, जयंत्यासह शुक्रस्य शतवर्षपर्यंतम् गुप्तागारेऽदृश्यतया निवासः, बृहस्पतिना शुक्रवेषेण दैत्यमोहनम्, बृहस्पतिशुक्रयोः सरोषवचनानि, शुक्रस्य दैत्यान्प्रतिशापः, गुरुणा दैत्यान्प्रति धर्मभ्रंशकरोपदेशदानम्, बृहस्पतिसाहाय्यार्थं
___________________
 विष्णुना मायामोहसमुत्पादनम् दिगंबरेण मायामोहेन दैत्यान्प्रति जनधर्मोपदे- शः, दानवानां मायामोहमोहितानां गुरुणा दिगंबरजैनधर्मदीक्षादानम् गुरोः देवलोकंप्रति गमनोत्तरमिंद्रेण दैत्योपहासकरणम्, पुनः शुक्रेण दैत्यानां बोधनोत्तरं दैत्यानां त्रैलोक्यहरणोद्योगः. श्लोकांकाः ४१३ ।।

१४-- अर्जुनकर्णयोरुत्पत्तिकथनपुरःसरं वैरकारणकथनम्। तत्र शिवकृतशिर- । श्छेदक्रुद्धब्रह्मस्वेदात्पुरुषोत्पत्तिः, तस्माद्भीतस्य शिवस्य विष्णोः समीपे गमनं प्रार्थना च, स्वेदजविरूपाक्षयाचितेन विष्णुना स्वदक्षिणभुजसमर्पणम्, विरूपाक्षेण विष्णुभुजच्छेदनोत्तरं तद्रक्तेन तस्य भिक्षापात्रपूर्तिः, मथ्यमानात्तद्रक्तात्पु- रुषोत्पत्तिः, स्वेदजरक्तजयोः पुरुषयोर्युद्धवर्णनम्, बिष्ण्वाज्ञया सूर्यशुक्राभ्यां त- यो रक्षणपुरःसरं द्वापरांते पृथायां कर्णार्जुनरूपेणोत्पत्तिवर्णनम् शिवकृतब्रह्म शिरश्छेदकारणम्, ब्रह्महत्याभीतशंकरकृतब्रह्मस्तोत्रवर्णनम् ब्रह्माज्ञया शिवकृत विष्णुस्तोत्रम्, शिवं प्रति विष्णुना ब्रह्महत्याप्रायश्चित्तकथनम्, शिवकृततीर्थ क्षेत्रपर्यटनम्, पुष्करे शिवकृतकापालिकव्रतम्, ब्रह्मणा शिवाय वरप्रदानम्, कपालमोचनतीर्थस्योत्पत्तिः, संक्षेपतोवाराणसीक्षेत्रमाहात्म्यम्, शंकरस्य वारा- णसीं प्रति गमनम् श्लोकांकाः २१३ ।।
_______________
१५- मेरोरुपरि वैराजभवने कांतिमत्याख्यसभायां ब्रह्मदेवस्य चिंताकरणोत्तरं पृथिव्यां प्राक्स्थानं प्रति गत्वा तत्र वृक्षवरप्रदानप्रसंगेन तत्र वासवर्णनम्, विष्णुना सह सर्वदेवानां गमनम्, देवेभ्यो ब्रह्मणोपदेशकरणम्, पुष्करतीर्थोत्पत्तिकारण- वर्णनम् पुष्करक्षेत्रवासविधिवर्णनम् त्रिविधभक्तिभेदवर्णनम्, पुष्करमरणनिवासफलम् पुष्करस्थितानामाचारव्रतानुष्ठानवर्णनम्, ब्राह्मणानां लक्षणानि, आश्रमधर्मवर्णनम् श्लोकांकाः ३९१ ।।

१६-- ब्रह्मदेवकृतयज्ञवर्णनम् तत्र ब्रह्मदेवकृतगोपकन्यारूपगायत्रीपरिणयनम् तत्रेंद्रेण गोपकन्यानयनोत्तरं विष्णुसंमत्या ब्रह्मणा तत्परिणयनम्, ब्रह्मणा सह स्रयुगपर्यन्तयज्ञकरणम्. श्लोकांकाः १९१ ।। ।।
___________________
१७-- ब्रह्मदेवकृतयज्ञे शिवस्य भिक्षोद्देशेनागमनम, सदस्यकृतोपहासकुद्धेन शिवेन कपालोद्धरणम्, तत्र भूयोभूयो भवनाश्चर्यम्, ब्रह्मरुद्रसंवादः, उपहासकरब्राह्मणे भ्यः शिवशापवर्णनम्, अन्येभ्यो वरप्रदानम् गोपकन्यया सह यज्ञकृद्ब्रह्माणं प्रति सावित्रीकृतनिर्भर्त्सनम्, ब्रह्मणा सावित्रीसमीपे स्वापराधक्षमापनम्, ब्रह्म- विष्ण्वादिदेवान्प्रति सावित्रीशापः, पर्वते सावित्र्या निर्गमनम्, विष्णुना सावि त्रीस्तोत्रकरणम्, सावित्र्या विष्णवे वरदानम्, गायत्र्या ब्रह्मव्रतकथनम्, सावि त्रीदत्तशापस्योच्छापकरणं च, गायत्र्या सर्वदेवेभ्यो देवीभ्यश्च वरप्रदानम्, रुद्र- कृत गायत्रीस्तोत्रम्, गायत्र्या रुद्राय वरदानम् श्लोकांकाः ३३१ ।।

१८--ब्रह्मदेवकृतयज्ञस्य विस्तरेण वर्णनम्,विप्णुदानववैरवर्णनम्, पुष्करस्नानादृषी- णां मुख्यवैरूप्यनाशनपुरःसरं सुमुखत्वप्राप्तिः, प्राचीसरस्वतीचरित्रम्, तत्र मंकणकब्राह्मणस्यचरित्रम्,प्राचीसरस्वतीमाहात्म्यवर्णनम्, सर्वदेवप्रार्थनया वडवा- ग्निं गृहीत्वा नदीरूपेण सरस्वत्याः क्षारोदसमुद्रगमनेनान्तर्धानेन पुष्करं प्रति गम- नम्, पुष्करस्थसरस्वतीमाहात्म्यम, पुष्करक्षेत्रसंनिहितखर्जूरीवने सरस्वत्युद्भवः, तस्या नंदाभिधानकरणे प्रभंजनराजकथानकम्, खर्जूरीवनान्नंदायागमनम् सरस्वत्यां स्नानदानादिप्रशंसावर्णनम्. श्लोकांकाः ४७३ ।।

१९-- ऋषिभिर्यज्ञोपवीतैः पुष्करस्य तीर्थविभागकरणम, ब्रह्मणा ऋषिभ्यो वरप्रदानम्, पुष्करक्षेत्रस्यमाहात्म्यवर्णनम, पुष्करस्थब्रह्मर्ष्याद्याश्रमवर्णनम् ,अगस्त्यप्रभावक थनम् वृत्रासुरवधाश्रितकथानकम्, तत्र कालेयभीतदेवप्रार्थितब्रह्माज्ञया देवानां दध्यंचमृर्षिप्रतिप्रार्थना, दधीचा देवेभ्यो निजास्थिदानम्, तेनास्थ्ना वज्रनिर्माणम्, तेन वज्रेण शक्रेण वृत्रहननम्, वृत्रहत्याभीतस्य शक्रस्य सरःप्रवेशः, कालेया सुराणां देवत्रस्तानां समुद्रप्रवेशः,कालेयकृतोपद्रववर्णनम्, देवकृतविष्णुस्तोत्रम्, विष्ण्वाज्ञप्तदेवानामगस्त्याश्रमं गत्वागस्त्यप्रार्थनम्, अगस्त्येन विंध्यनमनवर्णनम्, अगस्त्यकृतसमुद्रप्राशनम्, देवकृतकालेयवधः, ब्रह्मणा भागीरथीकृतसमुद्रस्थल पूरणस्य कथनम्, पुष्करक्षेत्रे श्राद्धादिविधिवर्णनम्, अवर्षणदुर्भिक्षत्रस्तऋषिभिर्मृ तकुमारप्रेतपचने राज्ञः संवादः, प्रतिग्रहदोषः,सुवर्णपूर्णौदुंबरदर्शने तद्ग्रहणविषये निषेधविषये च वसिष्ठप्रभृतिमुनीनामभिप्राया; शातिप्रशंसावर्णनम्, द्रव्यसंग्रहतृ ष्णयोर्दोषः, संतोषप्रशंसा, कामदोषवर्णनम्, अप्रतिग्रहफलम् बुभुक्षिताना मवस्थावर्णनम्, अन्नप्रशंसा, अन्नदानस्य प्रशंसावर्णनम्, दमादिवर्णनम् शांत स्य लक्षणानि, शांतिक्षमाप्रशंसा, मध्यपुष्करप्रशंसा, श्लोकाकाः ३६९।।

२०- मध्यपुष्करमाहात्म्यवर्णनम्, तत्र पुष्पवाहननृपत्याख्यानम्, विभूतिद्वाद- श्यादिषष्टिव्रतलक्षणकथनम्, स्नानतर्पणादिविधिः. श्लोकांकाः११२।।

२ १--धर्ममूर्तिराजकथानकम्,धान्यपर्वतादीनां दानविधिः,विशोकद्वादशीव्रतम् , गुडादिदशविधधेनुदानविधिः, धान्यादिदशविधशैलदानविधिः, सौरधर्मवर्णने विशोकशर्कराकमलमंदारशुभाख्यानां सप्तमीनां व्रतविधानादिवर्णनम्. श्लोकांकाः ३१९।।

२२--भूरादिसप्तलोकानामाधिपत्यप्राप्त्युपायवर्णनप्रसंगेऽग्निमारुतयोरिंद्रकृतसमु- द्रशोषाज्ञाया अपरिपालनादिंद्रदत्तशापेन पृथिव्यां जन्मवर्णनम्, संक्षिप्ततया गस्त्यचरित्रवर्णने ब्रह्मादिकृतवरप्रदानम् अगस्त्यार्घ्यदानविधिः, पार्वत्या शिवं प्रत्यात्मनः सावित्र्यपेक्षयाधिक्यप्राप्तिप्रश्ने शिवोक्तरसकल्याणिनीपापनाशिनी गौरी तृतीयाव्रतविधानम्, रुद्रस्य गौरीसमाश्वासनोत्तरं ब्रह्मणो यज्ञं प्रति गमनम् रुद्रं प्रति स्वधर्मख्यापनाय विष्ण्वाज्ञा, सारस्वतव्रतविधानवर्णनम्. श्लोकांकाः ९४ ।।

२३--वैष्णवधर्मवर्णनम्, भीमस्य वैष्णवधर्मप्रवर्तकत्ववर्णनम् माघशुक्लपक्षे भीमद्वा- दशीव्रतविधानवर्णनम्, वर्णाश्रमोत्पत्तिवर्णनम्, तत्र वेश्याधर्मवर्णनप्रस्तावे श्रीकृष्णपत्नीनां दाशोपभुक्तानां द्वारिकायां दाल्भ्यमहर्षिणा सह संवादे दाल्भ्येन समुद्रमंथनसमुद्भूतवेश्याभ्यो भगवदुक्त कल्याणिनीवेश्याव्रतविधानवर्णनम्. श्लोकांकाः १४२।

२४-श्रावणकृष्णपक्षीयद्वितीयायामशून्यशयनव्रतविधानवर्णनम्, अंगारकचतुर्थी व्रतविधानम्, तत्रादौ वीरभद्रस्य मंगलग्रहत्वप्राप्तिवर्णनपुरःसरं व्रतविधिवर्णनम् श्लोकांकाः ६१ ।।

२५-आदित्यशयनव्रतविधानवर्णनम्, तत्रोमामहेश्वरार्चाप्रकारः. श्लो० ।। ३७ ।।

२६--रोहिणीचंद्रशयनव्रतविधानम् श्लोकांकाः ३१

२७--तटाकारामकूपवापीसरोवरविधानवर्णनम् श्लो० ६० ।।

२८--वृक्षारोपणविधिवर्णनम्, तत्राश्वत्थादिवृक्षाणां पृथक्पृथक्फलवर्णनम् श्लो० ।। ३२ ।।

२९--सौभाग्यशयनव्रतविधानवर्णनम्, तत्र सौभाग्याष्टकोत्पत्तिकथनपुरःसरं ल लिताराधनविधानवर्णनम् श्लो० ५८ ।।

३ ०-पुष्करक्षेत्रे विष्णुपदपद्धतिकारणप्रश्ने वामनावतारचरित्रवर्णनम्, तत्र वाष्कलि- दैत्यत्रस्तदेवप्रार्थितब्रह्मध्यातविप्णुना तद्भयनिवारणार्थमदितिगर्भप्रवेशे सत्य- दित्यामुखान्निर्गतवाणीवर्णनम् वामनोत्पत्तिसमारंभवर्णनम्, वामनस्य शुक्रेण सह बाष्कलिपुरंप्रति गमनम्, तत्र वामनायेंद्रेण पादत्रयभूमियाचनायां बाष्कलींद्रसंवादः, वामनकृतबलिवंचनम्, बलेः पातालप्रवेशः. श्लोकांकाः २०२ ।।

३ १--नागतीर्थवर्णनम्, तत्र ब्रह्मणा सर्पान्प्रति जनमेजयाद्दाहो भविष्यतीति शाप- दानम्, सर्पकृतप्रार्थनया ब्रह्मणा जरत्कन्यातनयादास्तीकाद्वोरक्षणं भविष्यतीत्यु- च्छापदानम् पुष्करक्षेत्रे नागागमनतो नागतीर्थोत्पत्तिवर्णनम्, श्रावणपंचम्यां नागतीर्थे स्नानं श्राद्धादिमाहात्म्यम्, शिवदूतांचरित्रवर्णनम्, तत्र रुरुदैत्यत्र स्तदेवानां नीलगिरौ तपःस्थितां देवीं प्रति गमनम् देवप्रार्थनया देवीवदनादनेकदेवीनामुत्पत्तिः, देवीगणदैत्यगणयुद्धवर्णनम्, ततो देव्याः शिवदूत्याः पुष्करे देवीग णैः सहस्थितौ बुभुक्षितदेवीगणप्रेरणया शिवदूतीप्रेरितरुद्रकृतस्वरूपवच्छागवृषण- कल्पित तद्भोजनप्रकारवर्णनम्, शिवकृतशिवदूतीस्तोत्रम्, शिवदूत्या रुद्राय वरदानम् स्तोत्रमहिमा च. श्लो० १५४ ।।

३२--प्रेतपंचककथानकम्, तत्र पृथुब्राह्मणस्य पुष्करक्षेत्रे पंच प्रेतैः सह समागमे पृथुना प्रेतत्वनिवर्तककर्मकथनम्, प्रेतत्वकरकर्मकथनम्, पृथुसंभाषणात्प्रेत- मुक्तिः, पंचप्रेतकथाफलम् अंतरिक्षपुप्करस्थितौ दक्षिणापथस्थमहर्षिप्रार्थनया तस्य भूमावागमनम् पुष्करे स्नानाद्यर्थकार्तिकीपौर्णिमादिप्रशस्तयोगवर्णनम्, उदुंबरवनादिभ्यः प्रादुर्भूतया सरस्वत्या पुष्करतीर्थपूरणम, सरस्वत्याः पंचस्रोतो- भिधानम्, सरस्वतीतीरमाहात्म्यवर्णनम् सरस्वत्याः प्राङ्मुखत्वेकारणवर्णनम्, पुनः पश्चिमायां गमनम् शुद्धावटतीर्थमाहात्म्यम्, प्राचीनेश्वरदेवाग्रतआदितीर्थ- माहात्म्यम् ब्रह्मादिभिरनेकसखीसमुत्पत्तिपुरःसरं ताभिः सह सरस्वत्याः पश्चिमा- यां गमनम्. श्लो० १५६ ।।

३३--मार्कडेयोत्पत्तिकथानकवर्णनम्, पुष्करक्षेत्रसमीपे मार्कंडेयाश्रमवर्णनम्, अवि- योगवापीं प्रति रामचंद्रस्यगमने मार्कंडेयेन सह समागमः, मार्कडेयाश्रमे रामस्य स्वप्ने दशरथदर्शनम्, ऋष्याज्ञया रामेण श्राद्धकरणम्, श्राद्धे समागतानां द्विजानामंगे सीतायाः प्रत्यक्षदशरथदर्शनाल्लज्जाकारणकथनम् रामादीनां ज्येष्ठपुष्करे गमनपूर्वकं मासपर्यंतं स्थितिः, तत्र लक्ष्मणस्य मतिविपर्ययाल्लक्ष्मणकृतविरोधवर्णनम् अजगंधशिवं प्रति रामादीनां गमने रामकृताजगंधशिवस्तोत्रवर्णनम् अजगंधरुद्र- कृत रामप्रशंसा, लक्ष्मणस्य पश्चात्तापे रामेण पुष्करक्षेत्रस्थजनानां मतिवैपरीत्यपुरःसर स्वार्थतत्परतावर्णनम् श्लो० १८५ ।।

३४-ब्रह्मकृतयज्ञकालर्त्विग्दक्षिणादिसर्वकृत्यवर्णनम् ब्रह्माज्ञया लक्ष्मीसहितविप्णुना-             सावित्रीमोहनम्, गौर्या सह शिवेन सावित्रीप्रार्थनम्,सावित्र्या ब्रह्मसमीपप्रत्यागम नम्, गायत्रीसावित्र्योः संवादः,यज्ञांतस्नाने ब्रह्मणा सर्वदेवेभ्यो वरप्रदानम्, विष्णुकृत ब्रह्मस्तुतिः, रुद्रकृतब्रह्मस्तोत्रम, ब्रह्मणा स्वस्य निवासस्थानकथनम, ब्रह्मस्थान- माहात्म्यवर्णनम्, पुष्करादितीर्थविविधदानमहिमा, पुप्करे गुरुदीक्षादिसविस्त- रविधिवर्णनम, ग्रहाणां सौम्यत्वकरणोपायविधिः, श्वेतराजकथानकप्रसंगेन नाना विधदानादिमहिमा. श्लो० ४१८ ।।

३५- अन्नदानमाहात्म्यवर्णनप्रस्तावाद्रामकथानकवर्णनम्, तत्र रामेण रावणं निह- त्य राज्यशासने क्रियमाणेऽगस्त्यादिकृतप्रशंसनम, रामेण भीमनामकतपस्विशूद्रा- पचारान्मृतस्य ब्राह्मणपुत्रस्य संजीवनार्थं भीमशूद्रं हत्वा ब्राह्मणबालसंजीवनम्. श्लो० १०० ।।

३६--रामस्यागस्त्याश्रमं प्रतिगमनम्, रामागस्त्यसंवादः, प्रतिग्रहविषयविवेके अक्षयराजकथानकम्, अगस्त्यदत्ताभरणस्य रामेण ग्रहणम्, अगस्त्यस्य आभरण रत्नादिप्राप्तिप्रश्रेऽगस्त्येन श्वेतराज्ञो निजशवभक्षणप्रभृतिवृत्तांतनिवेदनपुरःसरसं- वादवर्णनम्, अगस्त्येन श्वेतराज्ञः सकाशाद्रत्नकंकणप्रतिग्रहवर्णनम्. श्लो० १३१ ।।

३७--दंडकारण्योत्पत्तिवर्णने दण्डराजकथानकम्, रामस्य संध्योपासनादि, गृध्रो- लूकयोर्गृहविषयकविवादे रामकृतनिर्णयवर्णनम् गृध्रस्य पूर्वजन्मवृत्तांतः, रामस्या योध्यां प्रत्यागमनोत्तरं राजसूययज्ञविषयकविचारे प्रस्तूयमाने भरतेन युक्त्या तस्मा- न्निवर्तनम् रामस्य कान्यकुब्जे वामनस्थापनप्रतिज्ञा. श्लो० १७१ ।।

३८--विभीषणवृत्तजिज्ञासया भरतेन सह विमानमारुह्य रामचंद्रस्य दक्षिणापथग- मनम्, तत्र च भरतपुत्रराष्ट्रनिरीक्षणानंतरं दक्षिणस्यां दिशि पूर्वं वनवाससमयेऽ ध्युषितस्थलानां भरताय दर्शनम् किष्किंधायां सुग्रीवादिसगंमः, ततः सुग्रीवं गृहीत्वा लंकां प्रति गमने समुद्रतीरादिप्रदेशेषुवृत्तवृत्तांतवर्णनम्, लंकायां विभीषणसंगमः, चतुर्थे दिवसे केकसीनाम्न्या विभीषणमातू रामदर्शने केकसी रामसंवादः, सरमारामसंवादः, रामेण विभीषणाय नीतिशिक्षणम्, विभीषणेन रामाय नानालंकारसमेतश्रीवामनमूर्तिसमर्पणम्, रामेण तां मूर्तिं गृहीत्वा विमाने स्थापयित्वाऽयोध्याभिमुखं गमनावसरे विभीषणप्रार्थनया समुद्रनिबद्धसेतोस्त्रि धा भंगकरणम, रामेश्वरमहादेवस्य श्रीरामकृतस्तुतिः, शिवरामयोः संवादः, पुष्करे विमानप्रतिबंधे जायमाने सुग्रीवेण प्रतिबंधककारणान्वेषणे विमानादुत्तीर्य श्रीरामेण ब्रह्मस्तवनम्, ब्रह्मरामसंवादः, ततो मथुरायां शत्रुघ्नराज्ये गमनम्, ततो महोदयपर्वणि गंगातीरे वामनं प्रतिष्ठाप्य तस्य द्रव्येण वृत्तिं कल्पयित्वा सुग्रीवस्य किष्किंधां प्रति प्रेषणम्, इत्थं वामनप्रतिष्ठावर्णनम्.श्लो० १९४ ।।

३९-भीष्मस्य पुलस्त्यं प्रति विष्णोर्नाभिपद्मोत्पत्तिपूर्वकं जगत्सृष्टिविषयः प्रश्र करणम्, पुलस्त्येन सृष्टिवर्णने प्रस्तूयमाने परब्रह्मतत्त्वनिर्देशपुरःसरं कृतादियुग- तत्कालसंध्यंशादियुगधर्मादिसृष्टितत्संहारवर्णनम्, संहारकालीनभगवत्स्थितिवर्ण नम्,एकार्णवे प्रसुप्तस्य भगवतो मुखं प्रविष्टेन मार्कंडेयमुनिना भगवतो जठरे ऽनेकविधप्रपंचदर्शनम्, भगवता सह मार्कंडेयस्य संवादे भगवता स्वात्मनो मा- हात्म्यवर्णनम्, ततः परमेश्वराद्भूतसंभवः पद्मसंभवश्च. श्लो० १५४।

४०- पद्ममध्याद्ब्रह्मण उत्पत्तिकथनम्, पद्मस्य पृथिवीत्ववर्णनपूर्वकं पद्मकेसराणां हि मवदादिपर्वतत्वम, पद्मपत्रानुसारेण देशवर्णनम्, मधुकैटभोत्पत्तिः, मधुकैटभ विनाशकथनम्, कपिलयोगाचार्योत्पत्तिपूर्वकदक्षादिप्रजापप्युत्पत्तिवर्णनम्, प्रजापतिभ्यः सकाशात्प्राजापत्यानामुत्पत्तिः, तारकामयसंग्रामवर्णनम्. श्लो० १९६।।

४१- देवसैन्यानां तारकासुरसैन्यैः सह तुमुलयुद्धे संप्रवृत्ते उर्वश्योरोः सकाशा- दौर्वानलोत्पत्तिकथानकवर्णनपुरःसरं कालनेमिवधवर्णनम् कालनेमिप्रमुखदै- त्यवधानंतरं ब्रह्मकृतविष्णुस्तुतिः, विष्णुनेंद्रादिभ्यो वरदानादिपूर्वकब्रह्मलोकगम नवर्णनम् श्लो० ३२० ।।

४२--शंकरमाहात्म्यवर्णनारंभः, तत्र दित्या वज्रांगपुत्रोत्पत्तिः वज्रांगेन दित्या- ज्ञयेंद्रं बद्ध्वा मातुः समीपं प्रत्यानयनोत्तरं ब्रह्मकश्यपवचनादिंद्रमोचनम्, ब्रह्म- णा तदर्थं वरांगीनामकन्यामुत्पाद्य वज्रांगाय पत्न्यर्थे कन्यादानम, वज्रांगस्य वरांग्या सह तपोवनं गत्वा तत्र ब्रह्मणः प्रीतये तपश्चरणम्, तत्तपस्तुष्टेन ब्रह्मणा तस्मै वरप्रदानम्, इंद्रत्रस्तायां वरांग्यां वज्रांगात्तारकासुरोत्पत्तिः, तपस्विने तारका सुराय ब्रह्मणा वरप्रदानम्तारकासुरस्य देवैः सह महायुद्धम्, तत्र देवानां परा- जयवर्णनम् श्लो० १११ ।।

४३--इन्द्रविडंबना,सर्वदेवकृतब्रह्मस्तोत्रम्,ततो ब्रह्मणा शंकरसुतात्तारकासुरवधं क- थयित्वा रात्रिदेवीं प्रति शंकरसुरतभंगविषयेऽनुज्ञाकरणपुरःसरं वरप्रदानम्,हिमाच लपत्न्यां मेनायां पार्वतीजन्मकथनानंतरं नारदेन पार्वत्याः सामुद्रिकलक्षणस्पष्टीक रणम्, देवराजाज्ञप्तमदनविद्धमहेश्वरकृतमदनदाहः रतिकृतमहेशस्तोत्रम्, महे- शेन मदनस्यानंगत्ववरदानम्, पार्वतीकृततपश्चर्या, ऋषिपार्वतीसंवादे शंकरेतरं पतिं न करिष्यामीति पार्वतीप्रतिज्ञा, शिवपार्वतीविवाहः, गणेशवर्णनम्, वीरकगणस्य पार्वत्या पुत्रीकरणम् पार्वतीशरीरे ब्रह्माज्ञप्तरात्र्याः प्रवेशः, पार्वत्या- असितांगत्ववर्णनम् श्लो० ५१६ ।।

४४--कृष्णवर्णायाः पार्वत्याः शंकरेण विनोदकरणम्, पार्वत्या शंकरभर्त्सना, शिव- कृतभर्त्सनारुष्टायाः पार्वत्या हिमाचलं प्रतिगमनम्, वीरकगणस्यद्वाररक्षार्थं नियोजनम्, शिवंप्रत्याडिदैत्यस्य पार्वतीरूपधृत्वा योनौ वज्रदंतं प्रवेश्य वीरकगणं सर्परूपेण वंचयित्वा गमनम्, तस्य पार्वतीरूपधरस्याडिदैत्यस्य वामपार्श्वे पार्वती. वामपार्श्ववत्पद्मचिह्नमनिरीक्ष्य पार्वत्यभावं निर्णीय शिवकृताडिदैत्यवधः, वायुमु- खाच्छिवस्मपारदारिकत्वश्रवणतः क्रुद्धया तपःस्थितया पार्वत्या द्वारपालननियुक्त- वीरकगणशापदानः क्रोधेन सिंहोत्पत्तिः, तन्मुखं प्रति प्रवेष्टुकामायाः पार्वत्या ब्रह्मणाविर्भूयनिवारणम् ब्रह्मवरेण पार्वत्या निजदेहकार्ष्ण्यकररात्रित्यागः, रात्रिदेव्याश्च ब्रह्मणा एकानंशेति कौशिकीति च नामकरणपूर्वकं विंध्याद्रिं प्रति- प्रेषणम, स्वमदिरं प्रति प्राप्तायाः पार्वत्या वीरकेण निवारणे पार्वतीकृतवीरक शापपश्चात्तापः, वीरकगणकृतपार्वतीस्तोत्रम् पार्वतीशिवसमागमः, कार्तिकेयोत्पत्तिवणर्नम् देवकृतकार्तिकेयस्तुतिः, कार्तिकेयकृततारकासुरवधः. श्लो० २१८ ।।

४५--श्रीनृसिंहावतारवर्णनम् तत्र हिरण्यकशिपुसभास्थानवर्णनम्, नृसिंहहिरण्य- कशिपुयुद्धे महोत्पातवर्णनम्, नरहरिणा हिरण्यकशिपुविदारणम्, ब्रह्मकृतनरह रिस्तुतिः, क्षीरोदोत्तरकूले भगवता नृसिंहरूपं स्थापयित्वा स्वस्थानंप्रति गमनवर्णनम् श्लो० १९७ ।।

४६--अंधकासुरकथानकम् तत्र शिवकृतादित्यस्तुतिः, अंधककृतं शिवस्तोत्रम् अंधकासुरस्य गणत्वप्राप्तिः, ब्रह्मकथितासंवादे ब्राह्मणानां प्रशस्तिः, ब्राह्मणल- क्षणकथनम्
___________      
 गायत्रीमाहात्म्यम् गायत्रीजपविधिः, गायत्रीजपफलवर्णनम् श्लो० २०८

४७--अधमब्राह्मणलक्षणम्, पंचविधस्नानानि, अधमब्राह्मणवधेऽपिपापकथनम् नष्टब्राह्मण्यपुनःप्राप्तिवर्णनम्, तत्रैकस्य ब्राह्मणपुत्रस्य कथा, तत्प्रसंगेन गरुडकथानकम्, प्रतिदिक्षु
____________ 
 यवनोत्पत्तिवर्णनम्., यवनानामस्पृश्यत्वेऽपि कलौ यवनस्पर्शं करिष्यंतीति वर्णनम, गरुडाय विष्णुदत्तवरदानादिप्रसंगवर्णनम् मात्राज्ञया गरुडेनेद्रं पराजित्य स्वर्गादमृतानयनम्, कद्र्वै पीयूषं दत्त्वा मातुर्विनतादासीत्वा- न्मोचनम् इंद्रेण कद्र्वाः सकाशादमृताहरणम् श्लो० १७३ ।।

४८-कश्यपोपदेशेन चांडालपतितद्विजस्य सदाचाराचरणेन स्वर्गप्राप्तिः, ब्राह्म णपीडनादौ नानाविधदुःखप्राप्तिवर्णनम् आतताय्यादिब्राह्मणवधेऽपापत्वम्,व्राह्म णानामुपजीव्यवृत्तिवर्णनम्, स्ववृत्त्योपजीवनाभावे क्षत्त्रियादिवृत्त्यधिकारकथनम्, तुलायामसत्यकरणे नरकवर्णनम् , सत्यस्य स्तुतिः, वाणिज्यकष्टलब्धधनस्य दानेनाक्षयत्वप्राप्तिः, वैश्यवृत्त्योपजीवनाभावे कृषिकर्मतदाचारवर्णनम्, ब्रह्मणो मुखाद्वेदाग्नि गोद्विजोत्पत्तिवर्णनपुरःसरं गोमाहात्म्यम्, गोपूजाविधिः, कपिलादि गोदानविधिः, गोदानस्य फलम् श्लो० १९५ ।।

४९-ब्रह्मतेजोवर्द्धनार्थकनित्यकर्मवर्णनम् स्वर्गागतानां नरकागतानां च नराणां लक्षणम् धर्मबीजपापबीजप्रसूतनरलक्षणम् श्लो. १३४ ।।

५०- पित्रर्चाप्रशंसायां मूकाख्यानम्, पित्रनादरेकृतेसति पापम्, पत्यर्चाप्रशंसायां पतिव्रताख्यानम्, पतिव्रतालक्षणवर्णनम्, सर्वजनसमत्वप्रशंसायां तुलाधारक- थानकम्, मित्राद्रोहप्रशंसायामद्रोहककथानकम् विष्णुभक्तिप्रशंसायां वैष्णवा- ख्यानम, पुत्रस्य कर्तव्यनिरूपणम्, श्राद्धस्य माहात्म्यं फलं च, वाराणस्यादि क्षेत्रेषु श्राद्धस्यविशेषफलकथनयः पवीवेशेर्षषु? श्राद्धविधिः, नांदीश्राद्धविधिः, गणेशस्याग्रपूजावर्णनम् चूडामणियोगवर्णनम्, पितुः पुत्रेण कर्तव्यवर्णनम्, मृतस्य प्रथमादिदिनकर्तव्यकर्मनिर्णयः, आशौचकालनिर्णयः श्राद्धप्रशंसा, श्राद्धासमर्थस्य कर्तव्यनिर्णयः. श्लो३१३


५१--पतिव्रतामाहात्म्यवर्णनम्, तत्र शैब्यापतिव्रतायाः पतिशुश्रूषाकथानकम्, माण्ड- व्यमुनिकथा, सूर्यानुदयवित्रस्तब्रह्मादिदेवैस्तस्याः सांत्वनपूर्वकं तत्पतेः कामसुं दररूपवरप्रदानाश्वासनात्तया शैब्यया सूर्योदयायानुमोदनम्, सूर्योदयः, तत्पतेरुज्जीवनम्, पतिव्रतामाहात्म्यश्रवणपठनफलम्. श्लो० ८८ ।।

५२-माण्डव्यस्य शूलारोपणे पतिव्रतापतेः कुष्ठप्राप्तौ च कारणवर्णनम्, दुष्टस्त्रीदोष वर्णनम् कुलहीनस्त्रीविवाहनिषेधः, पतिव्रतास्त्रीत्यागेन निरयः, रजस्वलादिग मने नरकः, अगम्यागमने दोषः, पत्यासहगमनविषये निर्णयः, विधवाधर्माः, क न्यादानविधिफलवर्णनम् शुल्कग्रहणनिषेधः, अपात्रवराय कन्यादानेदोषः, दा सीदानविधिः. श्लो० १०३ ।।

५३--तुलाधारचरित्रम्, सत्यस्यप्रशंसा, निर्लोभत्वप्रशंसायां शूद्रकथानकम्, वित्ता काम दया संतोषालोभाहिंसाप्रशंसावर्णनम् श्लो० ७७ ।।

५४-कामस्य दुर्जयत्वकथनेऽहल्येंद्रचरित्रम् श्लो० ५१ ।।

५५-कामदुर्जयत्वकथने परमहंसचरित्रम् ब्रह्मणो रेतसः सकाशाद्लौहित्यस्योत्पत्ति पूर्वकं तीर्थराजत्ववर्णनम् लौहित्यतीर्थे परशुरामस्य स्नानमात्रेण क्षत्रवधजनित पापक्षालनम्. श्लो० ५६ ।।

५६--कामाख्याने गंधर्वादिस्त्रीभिः सह शिवक्रीडा, क्षेमंकर्याख्यानम्, मूकादीनां वैकुण्ठागमनकथनम्, पंचाख्यानसमाप्तिवर्णनम् श्लो० ४५ ।।

५७--जलदानमाहात्म्यवर्णनम्, निर्जलदेशेषु खातादिफलम्, जलदानविषयेधनि सुतकथानकम् श्लो० ४६ ।। ।

५८--१७२ अश्वत्थादिवृक्षरोपणविधानफलवर्णनम्। प्रपाविधिः, धर्मघटदानविधिः. । श्लो० ५६ ।।

५९-सेतुबंधनफलम्, पङ्कादौ निर्गमाय पाषाणादिमार्गकरणफलम्, कंटकादिविद्धदु र्मार्गशोधनफलम, तत्राख्यानफलम् गोप्रचारफलम्, गोचारविघ्नकरस्य दण्ड्य त्ववर्णनम्, विष्ण्वादिदेवताप्रासादकरणफलम् दीपाद्यनेकदानानि, देवलकवि प्रवृत्तिवर्णनम्, स्वयंभूलिंगार्चनफलम्, देवमंडपकरणफलम्, श्रोत्रियगृहनिर्मा णफलम, रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनपुरःसरं रुद्राक्षधारणविधिफलवर्णनम्, तत्र रुद्राक्षो त्पत्तिविषयकाख्यायिकाकथनम् श्लो० २११ ।।

६०--धात्रीमाहात्म्यवर्णनम्, तत्रामलकीस्नानधात्रीफलभक्षणफलवर्णनम्, वारादि विशेषेण धात्रीफलभक्षणनिषेधः, प्रेताख्यायिका, तुलसीमाहात्म्यवर्णनम्. श्लो० १४२ ।।

६१-तुलसीस्तोत्रवर्णनम् श्लो० ४३ ।।

६२--गङ्गामाहात्म्यकथनम्, तत्र गङ्गायां स्नानादिविधिवर्णनम्, गङ्गाया भुव्यागमन पूर्वकत्रिस्रोतस्त्वकारणवर्णनम्- श्लो० १२५ ।।

६३--गणपतेरग्रपूज्यतावर्णनम, तत्र पार्वतीप्रेमकथा, गणेशद्वादशनामस्तोत्रम्. क्षो० ३१ ।।

६४--१८२ गणपतेरन्यत्स्तोत्रम् श्लो० ११ ।।

६५--नांदीमुखादिषु प्रथमं गणेशपूजनवर्णनम्, गणेशपूजाविधिः, गणेशस्याग्रपूजा या अकरणाद्देवासुरसंग्रामे देवानां पराजये देवानां शंकरसमीपं प्रत्यागमनम्, शंकरो पदेशेन देवैर्गणेशस्तोत्रपूर्वकपूजाकरणम्, देवेभ्यो गणेशेन वरप्रदानम् गणेशाज्ञया देवानां विष्णुं प्रति गमनम्, विष्ण्वाज्ञया देवानामसुरैः सह संग्रामे चित्ररथकृतकाले यवध. श्लो० १२० ।।

६६--जयंतेन कालेयवधः. श्लो० १९ ।।

६७-इंद्रेण बलनमुचिवधः- श्लो० ५१ ।।

६८-इंद्रेण नमुचिवधः श्लो० ९ ।।

६९-षडाननेन तारेयवधः. श्लो० २३ ।।

७०--यमेन देवांतकदुर्धर्षदुर्मुखवधः. श्लो० २१ ।।

७१-इंद्रेण अन्यनूमुचिवधः. श्लो० २८ ।।

७२-विष्णुना मधुदैत्यवधः श्लो० ३७ ।।

७३--इंद्रेण वृत्रासुरवधः. श्लो० ४० ।।

७४-गणेशेन त्रैपुरिवधः. श्लो० ४५ ।।

७५-देवदैत्यानां द्वंद्वयुद्धम्, तत्र हिरण्याक्षपराजितदेवप्रार्थनया विष्णोर्हिरण्याक्षेण सह युद्धम्, हिरण्याक्षस्य पातालगमने विष्णुना वाराहरूपं धृत्वा हिरण्याक्षस्य वधक रणम्, देवकृतविष्णुविजयस्तोत्रम, श्लो० १०२ ।।

७६-रणे मृतानां दैत्यानामुत्तमगतिप्राप्तिः, रणपराङ्मुखानां च नीचगतिप्राप्तिवर्ण नम्, मनुष्ययोनिगतदैत्यानां स्वभावतो दैत्यत्ववर्णनम्, दैत्यवंश्यानामपि प्रह्ला दादीनां सौम्यस्वभावत्वपूर्वकदेवत्वप्राप्तिवर्णनम् एकेनापि वैष्णवपुत्रेण कोटिकुलो द्धारवर्णनप्रसंग आख्यायिका, मनुप्येष्ववतीर्णानां देवानां लक्षणानि, मनुष्येष्व वतीर्णानां कर्णादीनां दैत्यत्ववर्णनम्, भीष्मद्रोणाश्वत्थामकृष्ण धर्मभीमार्जुन नकुल सहदेवगान्धारीकुन्तीद्रौपदीनां देवत्वम्, पृथिव्युद्धारकपृथिवीक्षयकृतां च लक्ष णवर्णनम् श्लो० १४२ ।।

७७-सूर्यमाहात्म्यवर्णनम्, तत्र सूर्यदर्शनात्पातकनिरसनम्, संक्रान्त्यादिषु दानादिविधिः, तुलाद्यनेकदानानि, सूर्यव्रतानि, अर्कसप्तमीव्रतविधिः. श्लो० १०५ ।।

७८--सूर्यस्यानेकव्रतवर्णनम्, सूर्यस्तोत्रम् श्लो० ६५।

७९-सूर्यमाहात्म्यप्रसंगाद्भद्रेश्वरनामकमध्यदेशनृपतिकथानकम्- श्लो० ३७ ।।

८०-सूर्यपूजाविधिः, सोमस्य च पूजाविधिः, चंद्रार्थदानानि. श्लो० २९ ।।

८१-शंभोः सकाशाद्भौमग्रहस्योत्पत्तिवर्णनम्, अंगारकचतुर्थ्यां भौमपूजनविधिवर्णनम्. श्लो० ४९ ।।

८२--बुधगुरुशुक्रशनिराहुकेतूनां पूजाविधिवर्णनम्, नवग्रहमंत्राः, कृतत्रेताद्वापर- कलियुगानुक्रमेण तपोज्ञानयज्ञदानानां प्रशंसा, अभयदानस्य सर्वदानापेक्षया महत्त्वम्, शूद्रस्य मुख्यत्वेन दानवर्णनम्, पद्मपुराणसृष्टिखण्डपठनश्रवणफ- लम्- श्लो० ४५ ।।

इति पद्मपुराणांतर्गत सृष्टिखण्डस्य विषयानुक्रमणिका संपूर्णा ।। १ ।।




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