"गोलोक का स्वरूप तथा गोपों का सनातन निवास स्थान-
भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों - के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।
श्लोक -✍️
तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च ।।1.28.४०।।
अनुवाद:-करोड़ सूर्य के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।
लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम् ।।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा ।।४१।।अनुवाद:- वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है। ४१।
सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम् ।।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया ।४२।अनुवाद:- चंद्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है।४२।
ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम् ।।४३।
अनुवाद:- उस नित्य लोक की स्थिति वैकुण्ठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती है। वहां कल्पवृक्ष के वन है।४३।
वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने ।४४ ।।अनुवाद:- मुने ! वह वृंदावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित( घिरा हुआ) है। ४४।
शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम् ।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः ।। ४५।।
अनुवाद:- वहां सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि मनोहर आश्रम है।४५।
शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम् ।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।। ४६।
अनुवाद:- जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मंदिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।
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कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम् ।।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।। ४७।।
अनुवाद:- उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौंदर्य बहुत बढ़ गया है।४७।
मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम् ।४८।
अनुवाद:- मणिन्द्रसार से निर्मित वहां के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र- विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भांति सुसज्जित है।४८।
षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः ।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते ।४९ ।अनुवाद:- उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यंत उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।
नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम् ।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम् । 1.28.५०।
अनुवाद:- तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कांति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।
शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम् ।।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम् ।। ५१ ।।अनुवाद:- उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम् ।। ५१ ।।अनुवाद:- उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।
उनका मुखमंडल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चंद्रमा की शोभा को ढक देता है।५१।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम् ।५२।
अनुवाद:- उनका सौंदर्य कोटी कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चंद्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।
सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम् ।। ५३।अनुवाद:-उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। परम उत्तम पीताम्बर जिन कृष्ण के कन्धों पर विराजित है।५३।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम् ।। ५३।अनुवाद:-उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। परम उत्तम पीताम्बर जिन कृष्ण के कन्धों पर विराजित है।५३।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः ।।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम् ।५८ ।।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम् ।५८ ।।
अनुवाद:-सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है। वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मंद मुस्कान से सुशोभित है।५८।
स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च ।। ६३ ।।अनुवाद-: वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। वे ही सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ, और सर्व स्वरुप है।६३।
रासेश्वरं सुरसिकं राधावक्षस्थलस्थितम् ।।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१ ।।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१ ।।
अनुवाद:- वे परमात्मा रास का ईश्वर सुन्दर रसिक और राधा जी जिनके वक्ष: स्थल पर स्थित हैं। हे मुने ! वैष्णवजन उन साकार और निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं।६१।
सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम् ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।। ६२ ।।अनुवाद:- वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है।६२।
स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम् ।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च ।। ६३ ।।अनुवाद:- वह परमात्मा स्वेच्छा मयी निर्गुण इच्छाओं से रहित और प्रकृति से परे है। वह सबका आधार सबका बीज सबकुछ जानने वाला तथा सबकुछ( सर्वरूप) है।६३।
सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम् ।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।।६४।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।।६४।।
अनुवाद:- सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।
गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।।
अनुवाद:- उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।
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