मंगलवार, 21 मई 2024

द्वितीय का पूर्वार्द्ध- संस्कृत भाषा का सरल व्याकरण-

★-व्याकरण के भेदों के बारे में जानने से पहले ही जानते हैं कि व्याकरण किसे कहते हैं? 

 तो आपको बता दें कि इसका उपयोग भाषा की रचना के लिए और उसे बोलने के लिए किया जाता है.।

व्याकरण के बिना हम किसी भी भाषा की लिखित या मौखिक रचना नहीं कर सकते.

–★-व्याकरण के कितने अंग होते हैं ?- 
किसी भी शब्द में भाव व्यक्त करने के लिए. व्याकरण का उपयोग किया जाता है. 

व्याकरण की मदद से आप किसी भी भावनाओं को, किसी भी काल को शब्द रूप में ही बता सकते हो. वाक्य की रचना के लिए शब्दों का समूह बनाया जाता है

वाक्य के तीन मूल अवयव निम्न हैं।

वर्ण विचार- Phonology -
शब्द विचार-Morphology-
पद विचार- Inflection -
वाक्य विचार-Syntax- 

1.वर्ण विचार –
वर्ण विचार को हम ऐसा कह सकते हैं की जिसकी वजह से कोई भी वाक्य पूरा किया जा सकता है वह वर्ण है.

वर्ण के बिना किसी भी वाक्य को लिखित रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता.  

हमारे हिंदी भाषा में 52  वर्ण है.  जिसके आधार पर हमारी हिंदी भाषा और हिंदी व्याकरण की रचना की गई है. 

हमारे हिंदी भाषा के 52 वर्णों में 11 स्वर, 33 व्यंजन और एक अनुस्वार, सम्मिलित, विसर्ग हैं.


स्वर
व्यंजन
2. शब्द विचार –
शब्दों को हम एक हिंदी भाषा का खंड कहते हैं. जब कोई एक से अधिक वर्ण को मिलते हैं तब एक शब्द निर्माण होता है. और क्या कई शब्दों से मिलकर एक वाक्य निर्माण होता है.

उदहारण:
जैसे : म +द+ न –मदन

जैसे उपर 3 वर्ण से मिलकर मदन इस शब्द का निर्माण होता है।

३-पद विचार –
व्याकरणिक श्रेणियां जैसे काल, कारक ,वाच्य, पहलू ( aspect )व्यक्ति, संख्या, लिंग, मनोदशा,(mood)   एनिमेशन, और निश्चितता  (definiteness.)।

 क्रियाओं की विभक्ति को संयुग्मन.(conjugation)  कहा जाता है, और कोई संज्ञा, विशेषण, क्रिया विशेषण, सर्वनाम, निर्धारक.(determiners,) कृदंत(,participles )पूर्वसर्ग (postpositions) , अंक, लेख, आदि के विभक्ति को घोषणा के रूप में संदर्भित कर सकता है


"कुत्ते" के लिए स्कॉटिश गेलिक लेक्सेम का विभक्ति , जो एकवचन के लिए cù है, संख्या dà ("दो") के साथ दोहरे के लिए ch, और बहुवचन के लिए-Coin
एक विभक्ति व्याकरणिक श्रेणियों को प्रत्यय (जैसे उपसर्ग , प्रत्यय , इन्फिक्स , परिधि , और ट्रांसफिक्स ), एपोफोनी ( इंडो-यूरोपियन एब्लाट के रूप में ), या अन्य संशोधनों के साथ व्यक्त करता है। 

उदाहरण के लिए, लैटिन क्रिया ducam , जिसका अर्थ है "मैं नेतृत्व करूंगा", प्रत्यय -am , व्यक्त व्यक्ति (प्रथम), संख्या (एकवचन), और तनाव-मनोदशा (भविष्य संकेतक या वर्तमान उपजाऊ) शामिल है।

  अपरिवर्तनीय कहलाते हैं ;

जैसे कि किसी पर वाक्य में एक शब्द का एक स्थान होता है जो कि वाक्य को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण है

वैसे ही शब्द पूर्ण करने के लिए वरना की जरूरत पड़ती है उसी वरना का एक शब्द में एक महत्वपूर्ण पद होता है उसी को हम और विचार कहते हैं. किसी भी शब्द का पद से हमको उस शब्द के बारे में जानने के लिए आसान होता है

वे शब्द जो कभी विभक्ति के अधीन नहीं होते


"४-वाक्य विचार
 यह हिंदी व्याकरण में बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है. वाक्य की रचना शब्दों को मिलाकर की जाती है. हर वाक्यों का कोई सार्थक अर्थ होता है. वाक्य वाक्य के मुख्य तीन प्रकार है ।

जोकि साधारण वाक्य, संयुक्त वाक्य, मिश्रण वाक्य. इन तीनों प्रकार से वाक्य की रचना की जाती है.

साधारण वाक्य:
साधारण वाक्य एक ऐसा वाक्य है जिसमें कर्ता मुख्य रहता है.

जैसे – आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगा.

संयुक्त वाक्य:
संयुक्त वाक्य की रचना 2 वाक्य को मिलाकर की जाती है. जिसमें दोनों वाक्य विभिन्न परिस्थिति को दर्शाते हैं.

जैसे – गणेश को खेलना पसंद है और  गौरव को पढ़ना पसंद है

मिश्रण वाक्य:
मिश्रित वाक्य, वाक्य का ऐसा प्रकार है जिसमें 2 वाक्य रहते हैं.  जिसमें पहला वाक्य को प्रधानों के कहते हैं और दूसरे वाक्य को उपवाक्य कहते हैं.  जिसमें कि दूसरा और के पहले वाक्य पर निर्धारित होता है.

जैसे – मैं आज जल्दी सो जाऊंगा, मुझे कल जल्दी उठना है


निष्कर्ष –
यहाँ पर हम व्याकरण के कितने अंग होते हैं?- व्याकरण के कितने भेद होते हैं ? – 
व्याकरण के कितने प्रकार होते हैं? 

व्याकरण शब्द वि + आँड् + कृ धातु + ल्युट प्रत्यय  के योग से बना है ।

"व्याकृयन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम्।

अर्थात जिस शास्त्र के द्वारा शब्द की उत्पत्ति या रचना का ज्ञान करवाया जाता है उसे व्याकरण शास्त्र कहते हैं ।

प्रधानम् च षडांगेषु  व्याकरणम्।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को सबसे प्रधान अंग माना जाता है ।

मुखम् व्याकरणम् स्मृतम् ।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को वेद पुरुष के मुख अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
व्याकरण = मुखम।
ज्योतिष = चक्षु ।
निरुक्त = श्रोतुम (कान)।
कल्प:- हस्तौ (हाथ) 
शिक्षा :-  घ्राणम ( नाक)
छन्द :-  पादौ(पैर)।
महर्षि पतंजलि ने एवं किशोर दास बाजपेई ने व्याकरण को शब्दानुशासन कहकर पुकारा है ।

किशोरी दास बाजपेई ने व्याकरण को भाषा का भूगोल भी कह कर पुकारा है।

डॉक्टर स्वीट महोदय के अनुसार भाषा का व्यवहारिक विश्लेषण व्याकरण है ।
व्याकरण को भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी कहा जाता है।

व्याकरण को भाषा का मेरुदंड भी कहा जाता है।
संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत पाणिनी, वररुचि एवं पतंजलि व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हुए माने जाते हैं।

इन तीनों को मुनित्रय के नाम से भी पुकारा जाता है।

इन तीनों में भी महर्षी पाणिनी सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण हुए हैं , उन्होंने व्याकरण के नियमों को अपनी अष्टाध्याई रचना में सूत्रों के नाम से प्रतिपादित किया है ।

पाणिनी ने वाक्य को ही भाषा की इकाई माना है।

महर्षि वररुचि ने पाणिनी द्वारा बनाए गए सूत्रों में संशोधन करते हुए लगभग 1500 वार्तिक लिखे हैं ।

पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की सरल शब्दों में व्याख्या की इनके द्वारा बनाए गए नियम इष्ठि के नाम से एवं उनकी रचना महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

व्याकरण शास्त्र का उच्चारण में बहुत अधिक महत्व माना जाता है।

व्याकरण की प्रशंसा करते हुए एक पिता अपने पुत्र से कहता है  यद्यपि बहूनाधीषे  तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् । स्वजन: श्वजनो मा भूत सकलम् शकलं सकृच्छ्कृत ( सकृत + शकृत )।

बहुत से शास्त्रों का अध्ययन किए हुए पुत्र से पिता कह रहा है कि हे पुत्र तुमनेेेे बहुत शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है फिर भी तुम व्याकरण को अवश्य पढो।

स्वजन = परिजन।
श्वजन = कुत्ता।
सकलम = संपूर्ण ।
शकलम = टुकड़ा ।
सकृत= एक बार ।
शकृत = मल ।

बालकों को भाषा के नियमोंं का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्दों एवं वाक्य रचना का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्द रूप व धातु रूप का ज्ञान करवाना ।
बालकों में तर्क एवं चिंतन शक्ति का विकास करना ।
बालकों में भाषा के चारों मूलभूत कौशलों का क्रमबद्ध विकास करना ।
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महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के निम्नलिखित ५ प्रयोजन माने हैं । "-रक्षोहगमल्घ्वसन्देहा:"  

१-रक्षा = वैदिक ज्ञान की रक्षा करना।
२-ऊह =  नवीन शब्दों की रचना।
३-आगम = पठन में निरंतरता।
४-लघु=  संक्षिप्तता ।
५-असन्देह =  शंका या संदेह का समाधान ।

व्याकरण शिक्षण की विधियां :-
व्याकरण शिक्षण के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है ।

प्राचीन विधियां :- आगमन विधि ,
निगमन विधि ,
सूत्र विधि ,
पारायण विधि ,
भाषा संसर्ग विधि,
विवाद विधि ,
व्याख्या विधि ,
अर्वाचीन या नवीन विधियां :- आगमन निगमन विधि ।
समवाय या सहयोग विधि ।
पाठ्यपुस्तक विधि।
अन्य विधि :- अनौपचारिक विधि या सैनिक विधि।
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शिक्षा शब्द का अर्थ है सीख-परन्तु व्याकरण के  प्रसंग में यह शिक्षा सामान्य सीख न होकर वर्णों अथवा अक्षरों दे उच्चारण की शिक्षा है।

इस शिक्षा ता महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इसे चौथे वेदांग के रूप मे स्थान दिया गया है। वेद को छ: अंग माने गयें हैं।

यद्यपि शिक्षा व्याकरण से पृथक विषय है परन्तु व्याकरण के सम्पूरक के रूप अवश्य है ।
दूसरे शब्दों में शिक्षा व्याकरण को शैशव रूप है।

जैसे नागरिक शास्त्र राजनीति शास्त्र का शैशव है।शिक्षा को वेदांग का
चौथा अंग तो व्याकरण तीसरा वेदांग माना गया है। व्याकरण यदि शब्दों की व्युत्पत्ति तथा भाषा का ज्ञान कराती है। 
शिक्षा में वर्णों का सम्यक् व शुद्ध उच्चारण करने का शिक्षण है।
शुद्ध उच्चारण के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। इसी लिए कोई पिता अपने पुत्र को व्याकरण पढ़ने की प्रेरणा देता हुआ कहता है।
___________________________________
यद्यपि बहु ना अधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।।
स्वजन:श्वजनो मा भूत् सकलं शकलं सकृत् शकृत्।।
( हे पुत्र यदि तू बहुत अध्ययन नहीं करते हो तो भी व्याकरण को पढ़ो इससे स्वजन( अपने जन) परिवार वाले श्वजन:( कुत्ते के जन)  सकल =(सम्पूर्ण) शकल- (टुकड़ा) सकृत्( एकबार) और शकृत् =मल न हो जाये।

जब से वेदों का प्रचलन हुआ तभी से उनके अंग भी प्रचलन में हैं ।
इस आधार पर कहा जाता सकता है कि शिक्षा का प्रचार भी बहुत प्रचीन है।

लगभग सभी वैयाकरणों ने अपने अपने शिक्षा ग्रन्थों की रचना की होगी।
परन्तु वर्तमान में केवल पाणिनीय-शिक्षा ही उपलब्ध है। 
वर्ण- उच्चारण की उचित शिक्षा के अभाव में विद्यार्थी (ऋ) और (ष) वर्णों का उच्चारण प्राय: भूल गये।

पाणिनीय शिक्षा का प्रतिपाद्य विषय संस्कृत वर्णो का सम्यक् ( पूर्ण ) विवेचन करना है जिससे इनके प्रयोग में कोई त्रुटि न हो सके ।

पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: । 
_____     

परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३, ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३। २५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग। ४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):- (य र ल व) । ३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।

 १ महाप्राण :- "ह" १ दु:स्पृष्ट वर्ण है :- ळ । 

इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है ।

अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है. जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।

१- (अनुस्वार ां , )२- (विसर्ग ा: )३-  (जिह्वया मूलीय ≈क)४- (उपध्मानीय ≈प ) औरचार यम संज्ञक :- १-क्क्न, २-ख्ख्न ३- ,ग्ग्न,४-घ्घ्न। इस प्रकार 22, +34 +,8 ,= 63 वर्ण हैं। ।

परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित के सहित पच्चीस हैं । 
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी)

 फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए ) तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5 ________________________________________________ 
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ । क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 ________________________________________________ 
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25। तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। 
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।




 वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात्
 १-(अक्षरसमाम्नाय- वर्णमाला),

 २-नाम(संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), 

३-पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , 

४-आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।
"अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभाजित हैं 
व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में कर दिया है। 

जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। 

विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी के समकालिक ही हुआ ।

तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों (भाषा-मूलक तथ्यों) के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।
 माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति के विषय में अतिश्योक्ति भाव अधिक है।रूढ़िवादी पुरोहितों ने कल्पना सृजित की कि माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से है।
वस्तुत जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है । रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 
"  👇 नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥ 
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया। 
इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
 " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। 

👇वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म् स्वरूप भी है । उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।

उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति । माता ने पार्वती से कहा उ ( अरे!) मा ( नहीं) तपश्या करो । तत्पश्चात पार्वती को उमा कहा जाने लगा । यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” ।
इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)। 
यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव । अथवा जो शिव के लिए लक्ष्मी के समान है । उं शिवं माति मिमीते वा आतोऽनुपसर्गेति कः अजादित्वात् टाप् । अथवा जो उं (शिव) का मान करती है वह उमा है । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) दुर्गा का विशेषण ।

वस्तुत ये संपूर्ण व्युत्पत्ति आनुमानिक व भिन्न भिन्न प्रकार से होने से असत्य ही हैं । 

 और संशोधन- अपेक्षित है।
 यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर)  ए,ऐ,ओ,औ का समावेश नहीं होता ! तथा अन्त:स्थ वर्ण    –
 ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं। जो क्रमश: (इ अ=य) (उ अ=व) (ऋ अ=र) (ऌ अ= ल) इसके अतिरिक्त  "ह" महाप्राण भी ह्रस्व "अ" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं । 
(यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है समग्र वर्णमाला में अनिवार्य भूमिका है । 
केवल वर्ग के प्रथम  वर्ण  ( कचटतप) ही सघोष अथवा नादित होकर तृतीय रूप में उद् भासित होते हैं ।

 अन्यथा 👇 प्रथम चरण :– (क् ह्=ख्)  (च् ह् =छ्)  (ट् ह्=ठ्) (त् ह्=थ्)  (प् ह्=फ्) । __________________________________________________

 द्वित्तीय -चरण:– ♪(क् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ग्  ) ♪( च् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ज् ) ♪(ट् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ठ् ) ♪( त् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =द् ) ♪(प् नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =ब् )
 ____________________________________

तृतीय -चरण:– (ग् ह्=घ्)  (ज् ह् =झ्)  (ड् ह्=ढ्) (द् ह्=ध्)  (ब् ह्=भ्) । और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ ङ ण न म  ) है वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न" का स्व- वर्गीय रूप है । यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है । जब यही "न" मूर्धन्य हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆

यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है। 
___________
 न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास अ का पार्श्वविक आलोडित रूप है जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है । अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में क, च ,ट ,त, प, न, ही मूल वर्ण हैं । ऊष्म वर्णों में केवल  "स" वर्ण मूल है ।

 "ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश टवर्गीय और च" वर्गीय होने पर बनते हैं ।
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग का शीत जलवायु के प्रभाव से अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल शकार (श)और षकार (ष) क्रमश "Sh"  और "Sa" का नादानुवाद होंगे। तवर्ग के न होने से सकार (स) उष्म वर्ण उच्चारित नहीं होगा । 

अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण है ।👇 


सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं । _________________________________________________ 
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 _________________________________________________
( १. अइउण्।  २. ॠॡक्।  ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।  ८.  झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्।  ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्। 

स्वर वर्ण:–अ इ उ ॠ ॡ एओ ऐ औ य व र ल  । अनुनासिक वर्ण:– ञ ङ ण न म। वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध  । वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द । वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ । वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प । अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स , महाप्राण  वर्ण :-"ह" 
___________________            
उपर्युक्त  14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। 

परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप  मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
___________________________    
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३, ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३,  ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३। २५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग। ४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):- (य र ल व) । ३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
 १ महाप्राण :- "ह" १ दु: स्पृष्ट वर्ण है :- ळ । इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है । अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है. जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।

 (अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: )  (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प ) चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न। इस प्रकार 22 34 8 = 63 । परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित के सहित पच्चीस हैं । पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए ) तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5 ________________________________________________ 
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ । क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 ________________________________________________ 
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25। तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। 
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।

पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: । 

स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं। 
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 ________________________________________________ 

अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है ।
 कण्ठ तथा काकल । ________________________________________________ 
नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं । अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 
👇👇👇👇👇
 अ-<हहहहह.... । अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ । अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं। ______________________________________________
 य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं। क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।
ये अन्त:स्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 
👇 जैसे :-  इ अ = य   अ इ =ए             उ अ = व  अ उ= ओ    ____________________________________
''५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्।  

 उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं । जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त । 
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है । टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है । तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है । _______________________________________________ 
👇💭 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है । 

अतः त थ द ध  तथा स वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है । अतः "श्" वर्ण  के लिए  Sh तथा "ष्" वर्ण के  S वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं । __________________________________________________
 १४. हल्। तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है । इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं ।
 मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं । जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं । ______________________________

स्वरयन्त्रामुखी:-.  ह वर्ण है । "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है । जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं। "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।

काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । 
२. कंठ की मणि या गले की मणि । 

उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇
 उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।

 क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है। इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं। 
मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं। 

हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म  व्यञ्जन नासिक्य हैं।
 इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है। और अनुनासिक भी  -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है। 

वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं । 
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं । 
जैसे :-  कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
 चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
 टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर । 
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध । पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ । _______________________________________________
 इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं। उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है। वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है । तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है । और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं। जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।

 जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है। उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह। __________________________________________________

 1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है। 'ल' ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है। 

हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं। 

2-लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है। 

3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं। ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।


घोष और अघोष वर्ण– व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
 दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है। _________________________________________________
 घोष - अघोष ग, घ,   ङ,क, ख ज,झ,   ञ,च, छ ड, द,   ण, ड़, ढ़,ट, ठ द, ध,   न,त, थ ब, भ,   म, प, फ य,  र,   ल, व, ह ,श, ष, स । प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु  जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है। पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।

वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं। 
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । 
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।) _________________________________________________
 भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।
 किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है । 

शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो  शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं। उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'। यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है। यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है । 

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')। कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')। 

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है। 

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।
 व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है। अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। 

इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

इसमें व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। 
अंग्रेजी भाषा में न, र, ल,  जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। 
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है। __________________________________________ 
ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 
👇 मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? --  ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।

श्रवण तंत्रिकाएँ,  (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है । 

भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।

किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।

ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है। 
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।

 निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
 द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग  (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है। 
अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!

अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।

सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग  343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है। बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है। मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है। 
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।

जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है। माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है। 

किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:- {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है। आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर--- अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है। 

पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है। ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है । 
ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत - ________________________________________________

सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ -- 

ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----   एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे । 

क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
 द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है ! 
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में  द्रूयूद (Druid) रूप में हैं । 

कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि  उनका विश्वास था !

कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है। 

और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से 

ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था । जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं।

वास्तव में ओघम्" (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है । . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है। आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है। 
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।

 तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है।

.अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे । 

मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!

इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! 

इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था। 

.. जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । 

भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे ! 

वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल  जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है। द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है।

 ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति (druid) द्रयूडों  पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप  में मान्य  थी ! 
केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था। द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य -वेत्ता और तत्व दर्शी थे !

 जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड  (द्रव विद) -- समाक्षर लोप से द्रविड  । ...मैं यादव योगेश कुमार "रोहि" भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ !


पाठ द्वितीय का पूर्वाद्ध-

प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार रोहि -

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