"गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग- तथा शक्ति" भक्ति" "सौन्दर्य और ज्ञान" की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म लेने का वर्णन- शास्त्रों में वर्णित है।
"स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए, इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में
विष्णु के लिए प्रयुक्त '
गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। ये विशेषण शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धरके अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले।
विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।
कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
(ऋग्वेद १/२२/१८)
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
विशेष:- गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है । भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया।
वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
भले ही विभिन्न भाष्य कारों ने उसके अर्थ बदलने की कोशिश की हो।
लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो
"पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक विशेष विचारणीय हैं।
१- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है !
इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर अहीरो को दिव्य लोको में निवास करने का अधिकारी बनाकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।
___________
"आभीर लोग पूर्वकाल में भी धर्मतत्व वेत्ता धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल कहकर सम्बोधित किए गये हैं।
तीनों तथ्यों के प्रमाणों का वर्णन इन श्लोकों में निर्दशित है।
(क)"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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(ख)"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
(ग)अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा ! मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है।
विशेष:-
इसका कारण यही था (कि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का प्राचीन काल में पालन करती थीं।
भगवान् विष्णु बोले ! हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
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और पुराण शास्त्रों में यह भी लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल निम्न ऋचा में
विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है।
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”
ऋग्वेद 1.22.18
"सायण भाष्य पर आधारित अर्थ-
.विष्णु जगत् के रक्षक हैं, उनको आघात करनेवाला कोई नहीं है। उन्होंने समस्त धर्मों का धारण कर तीन पैरों का परिक्रमा किया।18।
अर्थात्-
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इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण (गमन) किया।
इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है।
"विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान माना गया है -
"तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर का विस्तृत (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥
अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं।
ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) का ऋचा संख्या (6)
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः ।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि"
ऋग्वेद-१/१५४/६।
सायण- भाष्य-"हे यजमान और उसकी पत्नी ! तुम दोनों के लिए जाने योग्य उन प्रसिद्ध सुखपूर्वक निवास करने योग्य स्थानों पर हम कामना करते हैं।
अर्थात तुम्हारे जाने के लिए विष्णु से प्रार्थना करते हैं। जिन स्थानों पर किरणें अत्यन्त उन्नत और बहुतों के द्वारा आश्रयवाली होकर अति विस्तृत हैं। अथवा न जाने वाली अर्थात् अत्यन्त प्रकाशवाली हैं।
उन निवास स्थानों के आधारभूत द्युलोक में बहुत से महात्माओं के द्वारा स्तुति करने योग्य और कामनाओं की वर्षा करने वाले विष्णु का गन्तव्य रूप में प्रसिद्ध निरतिशय स्थान अपनी महिमा से अत्यधिक स्फुरित होता है।६।
हे पत्नीयजमानौ १-“वां =युष्मदर्थं। २-“ता= तानि {गन्तव्यत्वेन प्रसिद्धानि}३- “वास्तूनि =सुखनिवासयोग्यानि स्थानानि ४- “गमध्यै युवयोः = गमनाय ।५-“उश्मसि= कामयामहे । तदर्थं विष्णुं प्रार्थयाम इत्यर्थः । ६- तानीत्युक्तं =कानीत्याह । “यत्र येषु वास्तुषु ७-"गावः धेनव: । ८-भूरिशृङ्गाः = वृहच्छ्रंगा । ९-“अयासः =
यासो गन्तारः । अतादृशाः । अत्यन्तप्रकाशयुक्ता इत्यर्थः । “अत्राह अत्र खलु वास्त्वाधारभूतं द्युलोके
१०-“उरुगायस्य= बहुभिर्महात्मभिर्गातव्यस्य स्तुत्यस्य ।
११-“वृष्णः = कामानां वर्षितुर्विष्णु:।
१२-“पदं= स्थानं “भूरि =अतिप्रभूतम् स्वर्णं वा“
१३-अव “भाति = प्रकाशयति।
अयं ऋचायां गोशब्दो धेनु वाचक इति
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उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है।
जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे
विष्णु गोप रूप में अहिंस्य ( अवध्य) है)।
'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो वै विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है।
"एवं पुरा विष्णुरभूच्च वामनो धुन्धुं विजेतुं च त्रिविक्रमोऽभूत्।
यस्मिन् स दैत्येन्द्रसुतो जगाम महाश्रमे पुण्ययुतो महर्षे।।( ७८/९०)
इति श्रीवामनपुराण अध्याय।52।
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विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु के इन छै: गुणों से युक्त होने के कारण
भगवत् - संज्ञा है।
१-अनन्त ऐश्वर्य, २-वीर्य, ३-यश, ४-श्री, ५-ज्ञान और ६-वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण परमात्मा को भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
"इस कारण वैष्णवों को भागवत नाम से भी जाना जाता है - भगवत्+अण्=भागवत।
जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत् है। श्रीमद् -वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत में 'भगवान्' कहा गया है।
उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है वल्लभाचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ में वर्णन है।
श्रीमद्वल्लभाचार्य लिखित -सिद्धान्त मुक्तावलि "
वैष्णव धर्म मूलत: भक्तिमार्ग है।
"भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य भक्ति को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
"वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ और वहीं से दक्षिण भारत में मधुरा शब्द ही चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है।।
तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध. ये चार व्यूह माने गये हैं।
राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं।
और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं।
विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं।
इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।
अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहा करती हैं।
यह उसी परम्परा भी उसी का अवशेष हैं।
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं।
इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी
के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं।
उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में इस महाशक्ति ने अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं ।
विष्णु अथवा नारायण के उर( जंघा ) अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया ।
प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं। जैसे किसी पुष्प में समाहित गन्ध पराग और मकरन्द( पुष्प -रस) होता है।
कहीं कहीं पुराणों में उर्वशी को नारायण अथवा विष्णु" के जंघा से उत्पन्न बताकर भी उसकी वैष्णवी सृष्टि का समर्थन किया गया है।
"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।
"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।
"ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।
ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।
ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।
वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।
दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।
कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।
नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।
लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9 पर देखें-
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अध्याय 9 - दिव्य देवियों और सूर्य का क्षेत्र का वर्णन-
शिवशर्मन ने कहा :
-1. सौंदर्य, तेज और दांपत्य आनंद की भंडार, दिव्य आभूषण पहनने वाली और दिव्य सुखों का आनंद लेने वाली ये महिलाएं कौन हैं ?
शिव शर्मा ने कहा ! रूप -लावण्य से युक्त सौभाग्य शालिनी दिव्य अलंकार धारिणी दिव्य भोगों से युक्त ये स्त्रीयाँ कौन हैं?
परिचारकों ने कहा :
-2. ये सुन्दरी अप्सराऐं हैं जो देवताओं के लिए प्रिय हैं। । वे संगीत की जानकार, नृत्य में विशेषज्ञ और संगीत वाद्ययंत्र बजाने की कला में बहुत कुशल होती हैं।
तभी विष्णु भगवान् के पार्षदों कहते हैं ! ये अप्सराऐं हैं। ये अप्सराऐं इन्द्र आदि देवों की प्रियकारिणी और वारविलासिनी हैं।
-3. ये प्रेम करने की कला में माहिर और पासे के खेल में बहुत चतुर होती हैं।. वे चीज़ों की सुंदरता की सराहना करती हैं। वे दूसरों की अंतरतम भावनाओं को समझती हैं। वे उपयुक्त प्रत्युत्तर देने में बहुत चतुर होती हैं। अर्थात ्
रसिकता मनोविज्ञान हाव-भाव की विशेषज्ञा और समय और प्रसंग के अनुसार वाणीप्रयोग इनका मौलिक गुण है। अनेक देशों की विशेष जानकार अनेक भाषाओं की जानकार तथा रहस्य कथन करने में ये पारंगता हैं। ये अप्सराऐं आनन्द युक्त हो दल दल में विचरण करती हैं।ये अकेले कभी नहीं रहती हैं। हाव-भाव प्रकाशन में चतुर और मधुरा आलाप करने में तो विदुषी ही हैं। ये अप्सराऐं अपने हावभाव से पुरुषों का मन हर लेती हैं।
ये संगीत गीत, नृत्य और वाद्य वादन में पारंगत है। और साथ ही काम कला की विषशज्ञा भी होती हैं। और दूतविद्या में पारदर्शिता इनकी विशेषता है।
-4. वे विभिन्न देशों की विशेषताओं को जानने में विशेषज्ञ होती हैं और विभिन्न देशों में बोली जाने वाली भाषाओं पर महारत रखती हैं। ये गुप्त समाचारों की जांच करने में कुशल होती हैं। वे अकेले नहीं बल्कि समूहों में अपनी इच्छानुसार आनंदपूर्वक विचरण करती हैं।
-5. वे कामुक इशारों, रोमांचक कामुक भावनाओं और प्रेम की अभिव्यक्ति और कामुक खेलों की विशेषज्ञ हैं। ये लगातार मधुर बातें करने में माहिर होते हैं। वे हमेशा अपने आकर्षक हाव-भाव और मोहक आकर्षण के माध्यम से युवाओं के मन को हरण करती हैं।
-6. पूर्व में ये दिव्य देवियाँ क्षीर-सागर से तब निकली थीं जब उसका मंथन किया जा रहा था। वे ये तीनों लोकों के विजेता, मन से उत्पन्न प्रेम के देवता (कामदेव) के आकर्षक हथियार हैं ।
7-12. वे हैं: उर्वशी , मेनका , रंभा, चंद्रलेखा , तिलोत्तमा, वपुष्मती, कांतिमती , लीलावती , उत्पलावती , अलंबुषा , गुणवती , स्थुलाकेशी, कलावती , कलानिधि, गुणनिधि, कर्पूरतिलका, उर्वरा, अनंगलाटिका , मदनमोहिनी ,चकोराक्षी , चंद्रकला , मुनिमनोहर, ग्रायद्रावा, तपोद्वेष्टि , चारुणसा, सुकर्णिका, दारुसंजीविनी, सुश्री , ( शुभानना).सुन्दर मुख वाली - क्रतुशुल्का, उपश्शुल्का, तीर्थशुद्धा, हिमावती पञ्चाश्वमेधा- राजसूखार्थिनी, अष्टाग्निहोमिका, वाजपेयश्शतोद्भवा इत्यादि. इन अप्सराओं की संख्या साठ हजार है।७-१२।
13. अप्सराओं की इस दुनिया में अन्य महिलाएं भी रहती हैं। उनकी चमक कभी फीकी या क्षीण नहीं होती। उनकी जवानी भी कभी कम नहीं होती.
14. उनके वस्त्र दिव्य हैं; उनकी मालाएँ दिव्य हैं; गंध दिव्य हैं; वे आनंद के स्वर्गीय साधनों से प्रचुर मात्रा में संपन्न हैं; वे अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। अर्थात्- इस अप्सरा लोक में स्थिरयौवना स्थिरलावण्या और भी अनेक स्त्रियाँ निवास करती हैं। वे भी दिव्यवस्त्र दिव्यगन्ध और दिव्यगन्ध के अनुलेप से युक्त हैं।
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इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयों के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है जहाँ स्वयं विष्णु अवतरण करते हैं।।
"विचारणीय है कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है।
राधा:- राध + अच् । टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ
राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।
गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत् + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)
विशेष:-
"दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री नाद ब्राह्म ( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।
"न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं
काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९।।
स्कन्दपुराणम्-खण्डः ६ (नागरखण्डः)-अध्यायः १९३-
यह दुष्टा( विगर्हिता) आभीर सुता जिसकारण से मेरे स्थान पर आयी है।इसके भविष्य में कभी सन्तान नहीं होगी।५९।
तो फिर गायत्री को ब्राह्मणप्रसु कहना शास्त्रीय विरोध होने से प्रक्षेप है।
______
एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४ ॥
तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥
अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥ ५६।
अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥
भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ।५८ ।
"एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९। "
न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥
करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता॥ ६१॥
अनुवाद:-
सावित्री ने कहा:-
हे कामलुब्ध निर्लज्ज ब्रह्मा ! मैं ऐसे स्थान पर जा रही हूँ। जहाँ आपका कामलुब्ध नाम भी सुनायी न पड़ सके ! हे ब्रह्मा ! देवपत्नी, द्विज और देव गणों के समक्ष आपने मुझे विडम्बित किया ।
इस लिए आप किसी से भी पूजित नहीं होगें ।
यह मेरा वचन है यह भी अन्य देव स्त्रीयों समान पूजित नहीं होगी इसकी पूजा करने वाली स्त्रीयाँ बाँझ और दुर्भगा( दूषित योनि) हो जाऐंगी। ५४-६१।।
निम्न श्लोक इस उपर्युक्त कारण से प्रक्षिप्त है। कि जब गायत्री के सन्तान ही नहीं होगीं तो ब्राह्मण कहाँ से पैदा कर दिए-
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गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं। यह अर्थ किया जाना चाहिए-
गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
प्राचीन काल में पुरुरवस् (पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति “ पुरूरवाः । “
_______________
समाधान:-
"गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। ये मरण धर्मा सन्तानों का प्रसव नहीं करती हैं । सन्तान जनन और प्रजनन सांसारिक प्राणीयों का कर्म है।
देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री नाम को सार्थक करता है। खैर गायत्री शब्द का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही शास्त्र ते अनुरूप है।
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"ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से इन्द्र ने किसी घूमते हुई गोप कन्या को देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
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युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
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परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा ! हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।
अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक स्थान पर रहता है।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।
रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "
निष्कर्ष:-
"गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति
"प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।
गायन्तं त्रायते यस्माद्गायत्रीत्यभिधीयते।
प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
१२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
(बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
अनुवाद:- तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।
"ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।
शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।
"युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः ।
एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।
गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम्
पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
लक्ष्मी नारायण संहिता अध्याय 509 ने भी यही बात है।।
निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तों को नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँसने
जैसा कार्य कर डाला।
और कृष्ण के मुखारविन्द कहलवाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें भी शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं।
"श्रीवासुदेव उवाच"
गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥
धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
" रुद्र उवाच"
प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥
" ब्रह्मोवाच"
वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥
"ब्राह्मणा ऊचुः"
एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥
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इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥
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दुर्गा:- विराटपर्व-8 महाभारतम्
महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-
वैशंपायन उवाच।
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
विराटपर्व-8 महाभारतम्
महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"
"वैशंपायन उवाच।
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम्।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35
षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद:-
‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही
जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय
उनके लिए बता दें कि दुर्गा के यादवी अर्थात् यादव कन्या होने के पौराणिक सन्दर्भ हैं
परन्तु महिषासुर के अहीर या यादव होने का कोई पौराणिक सन्दर्भ नहीं !
देवी भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा ही नंदकुल में अवतरित होती है--
हम आपको मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत पुराण से कुछ सन्दर्भ देते हैं जो दुर्गा को यादव या अहीर कन्या के रूप में वर्णन करते हैं...
देखें निम्न श्लोक ...
नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६
उपर्युक्त श्लोक में नन्द जी की प्रिय पुत्री होने से नन्द प्रिया दुर्गा का ही विशेषण है ...
नन्दजा नवरत्नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिःस्वना ॥८६
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६
उपर्युक्त श्लोक में भी नन्द की पुत्री होने से दुर्गा को नन्दजा (नन्देन सह यशोदायाञ् जायते इति नन्दजा) कहा गया है ..
यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्भवा॥१३१॥
~देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ०६
उपर्युक्त श्लोक में दुर्गा देवी यदुवंश में नन्द आभीर के घर यदुवंश में जन्म लेने से (यदुवंशसमुद्भवा) कहा है जो यदुवंश में अवतार लेती हैं
नीचे मार्कण्डेय पुराण से श्लोक उद्धृत हैं
जिनमे दुर्गा को यादवी कन्या कहा है:-
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे ।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा ।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥३९॥
~मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायः ९१
अट्ठाईसवें युग में वैवस्वत मन्वन्तर के प्रगट होने पर जब दूसरे शुम्भ निशुम्भ दैत्य उत्पन्न होंगे तब मैं नन्द गोप के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर उन दोनों(शुम्भ और निशुम्भ) का नाश करूँगी और विन्ध्याचल पर्वत पर रहूंगी।
मार्कण्डेय पुराण के मूर्ति रहस्य प्रकरण में आदि शक्ति की छः अंगभूत देवियों का वर्णन है उसमे से एक नाम नंदा का भी है:-
इस देवी की अंगभूता छ: देवियाँ हैं –१- नन्दा, २-रक्तदन्तिका, ३-शाकम्भरी, ४-दुर्गा, ५-भीमा और ६-भ्रामरी. ये देवियों की साक्षात मूर्तियाँ हैं, इनके स्वरुप का प्रतिपादन होने से इस प्रकरण को मूर्तिरहस्य कहते हैं...
दुर्गा सप्तशती में देवी दुर्गा को स्थान स्थान पर नंदा और नंदजा कहकर संबोधित किया है जिसमे की नंद आभीर की पुत्री होने से देवी को नंदजा कहा है-
"नन्द आभीरेण जायते इति देवी नन्दा विख्यातम्"
ऋषिरुवाच
'नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
सा स्तुता पूजिता ध्याता वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥१॥
~श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मूर्तिरहस्यं
अर्थ – ऋषि कहते हैं – राजन् ! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली है, उनकी यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं|
आप को बता दें गर्ग संहिता, पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में नन्द को आभीर कह कर सम्बोधित किया है:-
महाभारत के विराट पर्व में दुर्गा को शक्ति की अधिष्ठात्री देवता कह कर सम्बोधित तिया गया है।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
(पाण्डवप्रवेश पर्व)
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-
युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधिष्ठात्री दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ ।
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उर्वशी कश्यप ऋषि और अरिष्टा की सन्तान नहीं है। अपितु यह नारायण के शरीर से उत्पन्न वैष्णवी सृष्टि है।
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।
उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।।
अनुवाद :- नन्दजी को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है। "उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है।
कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी ही है।
क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गयी हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का बस उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (घोष) के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।
इसी प्रकार गायत्री को ब्राह्मण कन्या सिद्ध करने के लिए कहीं उन्हें गाय के मुख में डालकर पिछबाड़े ( गुदाद्वार) से निकालने की काल्पनिक कथा बनायी गयी तो कहीं गोविल और गोविला के नाम से उनके माता पिता को अहीरों के वेष में रहने वाला ब्राह्मण दम्पति बनाने की काल्पनिक कथा बनायी गयी ।
लक्ष्मीनारायण संहिता में गायत्री के विषय में उपर्युक्त काल्पनिक कथा को बनाया गया है कि उनके माता पिता अभीर वेष में ब्राह्मण ही थे।
इसी क्रम में "लक्ष्मी-नारायणसंहिता कार नें अहीरों की कन्या उर्वशी की एक काल्पनिक कथा उसके पूर्व जन्म में "कुतिया" की यौनि में जन्म लेने से सम्बन्धित लिखकर जोड़ दी।
जबकि उर्वशी को मत्स्य पुराण में कठिन व्रतों का अनुष्ठान करनी वाली अहीर कन्या लिखा जो स्वर्ग और पृथ्वी लोक में सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बनी ।
इसी सन्दर्भ में हम यादव योगेश कुमार रोहि उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं।
_____________________________________ "कृष्ण उवाच"
"त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।
अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-
वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८। बात उस समय की है जब
एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।
"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।५९।
अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।
यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।
______________________________
कृत्वा च यामप्सरसामधीशा वेश्याकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीरकन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६१।
जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
_______________________________
मत्स्यपुराण अध्याय-★
(भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-
______________________
अनुवाद-
जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का एक कठिन रूपान्तरण है। तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है।
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। राजा पुरुरवाको जिस कर्मके फलस्वरूप वैसे सुन्दर रूप और उत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति हुई थी, वह बतला रहा हूँ, सुनो। यह राजा पुरूरवा पूर्वजन्ममें भी पुरूरवा नामसे ही विख्यात था। यह चाक्षुष मन्वन्तरमें चाक्षुष मनुके वंशमें उत्पन्न होकर मद्र देश (पंजाबका पश्चिमोत्तर भाग) का अधिपति था (जहाँका राजा शल्य तथा पाण्डुपत्त्री माद्री थी। उस समय इसमें राजाओंके सभी गुण तो विद्यमान थे, पर वह केवल रूपरहित अर्थात् कुरूप था (मत्स्यभगवान्द्वारा आगे कहे जानेवाले प्रसङ्गको ऋषियोंके पूछने पर सूतजीने वर्णन किया है, अतः इसके आगे पुनः वही प्रसङ्ग चलाया गया है।) ।6-8 ।