जाट इतिहासकार दिलीप सिंह अहलावत के अनुसार वृष्णि, अन्धक, हाला ,शेओखन्दे, डागुर ,दीगराना ,खिरवार,बल्हारा , सरन, सिनसिनवार ,सोगरवाल, छोंकर ,भोज ,हंगा,घनिहार और ,(रावत) गौत्र यदुवंशी हैं। ___________
यदुवंश की प्राचीनत्तम शाखा अहीरों के अधिक गोत्र निकास-स्थान के नाम पर भी बने हैं। जहां पर उनका निवास रहा उसी के नाम पर प्रव्रजन काल में गौत्र बना गया ।
प्रसिद्ध पुरुषों के नाम पर प्रचलित इनके गोत्र तो कम हैं। तब भी अहीर गोत्र जाटों के गोत्रों से मिलते हैं। जाट संघ में बहुत से यदुवंशी अहीरों का समावेश हुआ।
1. कादल 2. लोहचब 3. नैन 4. डागर 5. धालीवाल 6. सिसौदिया 7. रावत 8. कठ 9. ठुकरिला 10. मल्ही 11. नारा 12. बोगदा/बोगदावत 13. बूरा 14. मूण्ड 15. भिण्ड 16. यदु 17. सिकरवाल( शिकरवार) 18. अत्री 19. बाछिक 20. हाड़ी 21. दाहिया 22. गोर्सी /गोर्जी (घोषी)
पर अहीर और जाटों के गोत्रों की समानता दर्शाते हैं।
20. जाटों का प्रसिद्ध गोत्र देशवाल जैसा अहीर गौत्र दशवार मूलत: एक ही हैं ।
यह महाभारत पुराण आदि में वर्णित यादवों का दाशार्ह गोत्र अथवा कुल ही है।
21. किंग 22. दहिया 23. झाझड़या 24. मल्ल 25. धारण 26. गहला 27. लाम्बा आदि ।
नोट - भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं में जाटों की भांति अहीर लोग भी मुसलमानधर्मी बन गये।
इसका कारण यही था कि रूढ़िवादी पुरोहित अहीरों को शूद्र और वैश्य वर्ण में निर्धारित कर रहे थे ।
इसी कारण ब्राह्मणों से बगावत करके ये भागवत धर्म का पालन कर रहे थे।
ब्राह्मण लोग अहीरों को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें शूद्र श्रेणि में व्यवस्थित करने में थे ।
पौराणिक ब्राह्मणों ने केवल राजपूतों को शुद्ध क्षत्रिय घोषित कर दिया।
क्योंकि बौद्ध और जैन धर्म से ब्राह्मणों का विरोध था ही
इस समय रूढ़िवादी ब्राह्मण बौद्धों को हराने के लिए राजपूतों को अपना रहे थे ; चारण, भाट बंजारे, शक, सीथियन आदि जन-जातियों ने राजपूत संघ में प्रवेश किया।
इसलिए अनेक जातियों के लोग स्वयं को राजपूत और राजपूतवंशी कहलाने में अपनी महत्ता समझने लगे।
ये सुनार, गड़रिये, छीपी, कोरी, कुर्मी, बंजारे, कहार ,किरार ,बाच ,चारण,और भूभाड़िया आदि जातियां भी अपने को राजपूत कहने लगीं।
राजपूत संघ का निर्माण भी जाट, गुर्जर, अहीर, और भारतीय क्षत्रिय आर्यों तथा शक, सीथियन, हूण आदि अनेक जातियों का मिला जुला संघ है।
अंग्रेज लेखकों ने राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारी और हूणों की सन्तान तक लिखा है जो भारत में आकर बस गये, यह भारत देश के लोग नहीं हैं।
किन्तु राजपूतों के बहुत से गोत्र स्पष्ट तौर से प्रमाण देते हैं कि ये लोगों में भी असली क्षत्रिय हैं।
जो भारतवर्ष के आदि-निवासी हैं, जो राजपूत कहलाने से पहले जाट, गुर्जर और अहीरो के रूप में थे।
जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 113 पर लिखा है कि “दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में बनी राजपूत जाति, जाट और गुर्जरों का संघ है।”
आगे यही लेखक पृ० 66-67 पर लिखते हैं कि “हम चैलेंज पूर्वक कहते हैं कि भाटों और व्यासों की बहियों (पोथियों) में जाटों को राजपूतों में से होने की जो कथा लिखी हुई है, वह सफेद झूठ है।”
सभी राजपूत विदेशी नहीं जिनके गौत्र गुर्जर जाट और अहीरों से मिलते हैं वे मूलतः पहले गुर्जर जाट और अहीरों से सम्बद्ध थे ।
यहां केवल जस्टिस कैम्पवेल का मत इस विषय में दिया जाता है ।
जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने राजपूतों के विषय में लिखा है -
यह दशवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी में जाट ,अहीर और गुर्जरों से बना राजपूत संघ है।
भविष्य पुराण में साफ लिखा हुआ है कि “आबू पर्वत का यज्ञ सम्मेलन बौद्धों के विरुद्ध किया गया था जिसका तात्पर्य बौद्धों के विरुद्ध एक नवीन योद्धा संघ बनाने का था।” (भविष्य पुराण, लेखक एस० आर० शर्मा (1970 बरेली)। (पृ० 171, 174, 175)।
विदित हो कि भविष्य पुराणों का सम्पादन कार्य भी अठारह वीं सदी तक चलता रहा है।
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जाट इतिहास अंग्रेजी, लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून ने राजपूतों के विषय में लिखा है -
अहीरों के कुछ प्रमुख गौत्र जो विभिन्न राज्यों में हैं। गूजरों और जाटों से भी मिलते हैं ।
देखें निम्नलिखित अहीरों के गौत्र।.👇
महाराष्ट्र:- अहीर, यादव, राधव, ग्वाला, गौल्ला, पंवार, शिर्द भालेकर, धूमल, लटके, घोले, धगे, महादिक, खेडकर, वजहा, नारे, फगबले, डाबरे, मिरटल, काटे, किलाजे, तटकर, चीले, दलाया, बनिया, जांगडे , भारवाड़।
उत्तर प्रदेश:- अहीर, घोसी, कमरिया, ग्वाला, यादव, यदुवंशी इनमें भी बहुत से उपगोत्र हैं विशेषत कमरिया और घोसी अहीरों में |
अहीरों की शाखाएं हें: वेणुवंशी, भिरगुडी, दोहा, धनधौरी, गद्दी, गोमला, घोड़चढ़ा, घोषी, गूजर, खूनखुनिया, राजोरिया, और रावत |
मध्य युग में यादवों का एक समूह मराठों में, दूसरा जाटों में और तीसरा समूह गूजरों और कुछ राजपूतों में विलीन हो गया|
जैसलमेर के भाटी अहीर यादव राजपूत हो गये,
कुछ गूजरों में चले गये ।
पटियाला, नाभा, आदि के जादम शासक जाट हो गए|
इसी प्रकार भरतपुर के यादव शासक भी कालांतर में जाट संघ में विलीन होकर जाट कहलाने लगे|
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, व मध्य प्रदेश के जादौन अपने को कृष्ण के वंशज बताते हें पर ठाकुर कहलवाते हें
जादौनों की निकासी मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है ।👇
करौली के जादौनों का उदय आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध नवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से हुआ जो दशवें अहीर राजा थे ।⬇🔄
राजा धर्मपाल बाद ईस्वी सन् 879 में इच्छपाल (ऋच्छपाल) मथुरा के शासक हुए ।
इनके ही दो पुत्र थे प्रथम पुत्र ब्रहमपाल जो मथुरा के शासक थे हुए दूसरे पुत्र विनयपाल जो महुबा (मध्यप्रदेश) के शासक हुए
विजयपाल भी करौली के यादव अहीरों की जादौंन शाखा का मूल पुरुष/ आदि पुरुष/ संस्थापक विजयपाल माना गया परन्तु इतिहास में ब्रह्मपाल ही मान्य हैं
विजयपाल जिसने 1040 ईस्वी में अपने राज्य की राजधानी मथुरा से हटाकर बयाना
( विजय मंदिर गढ़) को बनाया ------------
यदुकुल वंश प्रवर्तक महाराज वज्रनाभ एवं महाराजा
जियेन्द्रपाल मथुरा --------
श्री कृष्ण मथुरा से द्वारिका पुरी गये।
श्रीकृष्ण के पुत्र प्रधुम्न के पुत्र अनुरुद्ध सभी द्वारिका में रहे।अनिरुद्ध के पुत्र यदुकुल वंश प्रवर्तक महाराज श्री वज्रनाभ द्वारिका से पुनः मथुरा नगरी के राजा बने ।
महाराज बज्रनाभ के 74 पीढ़ी बाद ई0 सन् 800 के लगभग मथुरा के राजा धर्मपाल हुए ।
राजा धर्मपाल के नाम के साथ ही
पाल गोपाल का वाचक शब्द इनकी गोपालन वृत्ति के कारण ही चरितार्थ हुआ।
ये गोप अपने गोपालन अथवा सेवा के लिए विख्यात हुए
इनकी वीरता प्रवृत्ति ने इन्हें अभीर अथवा समूह वाची रूप में आभीर बना दिया
सभी यादव राजा जो करौली रियासत के शासक थे पाल विशेषण से ही युक्त थे । विदित हो कि पाल शब्द पूर्व काल में आभीर गोपालकों का विशेषण था ।
राजा धर्मपाल बाद ई0 सन् 879 में इच्छापाल मथुरा के शासक हुए ।
इनके दो पुत्र थे प्रथम पुत्र ब्रहमपाल जो मथुरा के शासक थे हुए दूसरे पुत्र विनयपाल जो महुबा (मध्यप्रदेश) के शासक हुए
जिनके वंशज "बनाफर"कहलाये। जो वन में फिर फिर के गायें चराते थे । ब्रहमपाल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जयेन्द्रपाल ई0 सन् 966 में मथुरा के शासक हुए ।
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शिवाजी की माँ जिवाबाई यादव वंश में पैदा हुई थीं |
विभिन्न प्रान्तों मेंवअहीरों के विशेषण-
मध्य प्रदेश:- अहीर, ग्वाला, ग्वाल, गोलाआ, कंस, ठाकुर, जाधव (जादव), गोप, रावत, राव, घोषी आदि|
इनके दो मुख्य भाग है:- हवेलियों में रहने वाले, तथा बिरचिया- जंगलो में बसनेवाले यादव|
आन्ध्र प्रदेश:- गोल्ला, धनगर, एड्द्यर, कोनार, कुब्र, कुर्वा, यादव, पेरागेल्ला (कुछ अपने नाम के अंत में राव, रेड्डी, रेड्द्य्याह, स्वामी, आदि लगाते है|
गोत्र/ शाखाए:- फल्ला, पिनयानि, प्रकृति, दुई, सरसिधिदी, सोनानोयाना, नमी, डोकरा, प्रिय्तल, मनियाला, रोमला, बोरी, तुमदुल्ला, खारोड़, कोन एव गुन्तु बोयना|
आसाम, त्रिपुरा, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल आदि पूर्वी राज्य:- ग्वाला, घोष, गोअल, गोआला, गोप, अहीर, यादव, मंडल, पाल|
आन्दमान तथा निकोबार द्वीप समूह:- यादव, रोलाला, काटू, भाटी एवं कोणार|
बिहार:- यादव, ग्वाला, गोप, अहीर, सदगोप, घोषी, नंदगोप, गोरिया, गोयल, सफलगोप|
मुख्य शाखाएं:- महरोत, सत्मुलिया, किशनोंत, गोरिया या दहिराज तथा धहियारा, मंडल, महतो (महता), गुरुमहता, खिरहरी, मारिक, भंडारी, मांजी, लोदवयन, राय, रावत, नन्दनिया|
हरियाणा, चन्दीगढ़, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, एवं देहली के यादव अहीर, ग्वाला, गोवाला, राव तथा यादव कहलाते है|
कर्णाटक:- गौल्ला, गौवली, गोपाल, यादव, अस्थाना, अडवी, गोल्ला, हंबर, दुधिगोला, कोणार, गौडा, गौड़ा|
कन्नड़ गौला की शाखाएं:- हल, हव, कड, कम्पे, उज|
बेलगाँव की शाखाएं:- अडवी अथवा तेलगु, हनम, किश्नौत, लेंगुरी, पकनक, और शस्यगौला|
बीजापुर की शाखाएं:- मोरे, पवार, शिंदे, और यादव अथवा जाधव (जादव)
केरल:- यादव, एडायन, एरुमन, कोयला, कोलना, मनियाना, अय्यर, नैयर, उर्लीनैयर, कोणार, पिल्लै, कृष्नावाह, नाम्बियार|
गोवा:- यादव, ग्वलि, ग्वाला, अहीर, गोप, गवली|
तमिलनाडु और पांडिचेरी:- एथियर, एडियर,कोणार, उदयर, यादवन, वडूगा अय्यर, वदुगा एदेअय्यर, गोल्ला, मोंड गोल्ला, कोण, पिल्लै, मंथी, दास, करयालन,
पश्चिमी बंगाल:- अहीर, गोल्ला, गोप, सदगोप, घोष, यादव, मंडल, ग्वार, पाल, दास, महतो, मासिक, फाटक, गुरुमहता, कपास|
उड़ीसा:- प्रधान, गोला, गोल्ला, गोप, सदगोप, अहीर, गौर्र, गौडा, मेकल, गौल्ला, यादव, पाल, भुतियाँ, रावत, गुर्भोलिया,महतो|
दादरा एवं नागर हवेली:- अहीर/ आहिर, भखाद, यादव
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गोत्र उन लोगों को संदर्भित करता है जिनका वंशज एक आम पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है।
व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनी में की गोत्र परिभाषा है 'अपत्यम् पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (4.1.162), अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ हैे पुत्र के पुत्र के साथ प्रारम्भ होने वाली सन्तान से है
अष्टाध्यायी के अनुसार "अपत्यं प्रभृति यद् गोत्रम् पौत्र", एक पुरखा के पोते, पड़पोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी।
मुख्य रूप से चार वंश है
जाट संघ में गोत्र अधिक हैं इनकी संख्या चौदह हजार तक भी है। जाटों में सूर्यवंशी और चन्द्र वंशी नाम से दो गोत्र विभाग है।
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चंद्रवंशी मूल के जाट
आर्यों में क्षत्रिय जो चन्द्रमा की पूजा करते थे अथवा -जो सैमेटिक थे ।
भागवतपुराण के अनुसार ब्रह्मा के एक अत्रि पुत्र थे जिनके पुत्र (चन्द्र) सोम थे. सोम के बुध पुत्र थे.
मनु - पुत्री 'इला' का विवाह 'बुध' के साथ हुआ.
इन दोनों से चन्द्रवंश का चलन होना बताया गया है.
इनका पहला पुरूरवा पुत्र था इनका बेटा 'नहुष' और नहुष का ययाति.
जाट जाति का सम्बन्ध 'ययाति' की संतानों के साथ है।
श्रीकृष्ण का जन्म भी चन्द्रवंश में हुआ था.
जाटों में अधिकांश समूह चंद्रवंशियों के हैं.
चन्द्र-वंशज जाट भी आगे चल कर कुछ भागो में बट गया
व्यक्ति के नाम पर जगह के नाम पर
चन्द्रवंश ( यदुवंश के जाट-★)
वर्गीकृत मुख्य जाट इस गोत्र प्रकार हैं: आभीर,(आहिर) अहलावत, ओहलावत, अका, ओहर,(आभीर) अजमेरिया, अजमीडिया, अंजुरिया, अनजिया, अधरान,अंदार, अंधला, अंधरा, औद्ध, औधरान, ओद्र, ओध्र, ओंद, ओक, आंध्र, आंध्राणा, अंग, अंजना, आनव, बल, बल, बलयाण, बाल्यान, चीमा, चीना, छीना, अर्क, अत्री, आत्रेय, बल्ल, बलारिया, बल्दवा, ठकुरेला, बनगा, बाना, भादू, भाटू, (भाटी,) बलहारा, भोज, भूरी, भूरिया, बमरौलिया, मिटाण, बुधवार, बधवार, बोध, बोधा, चकोरा, चंधारी, चवेल, (दहिया), दोहन, दाहन, दुहन, दनीवाल, दरद, दराल, दार, दियार, ओरा, ओरे, दुसाध, दोसांझ, गौदल, गठवाल, कठवाल, कठिया, कटवार, गठोये, गठोने, गथवाल, गथना, गादड, गंधार, गंधारी, गांधार, गंडीला, गडीर, गैना, गैणा, गेना, गैन्धर, गैन्धल, गैन्धु, हंस, हांस, हंसावत, हरचतवाल, हुदाह, ऐचरा, जाखड़, जग्गल, जानू, जोहे, (योधा), कल्हन, खिरवार, खिरवाल, खिनवाल, खिरवाली, खरे, कितावत, करमी, किरम, किचार, कुंतल, खुटैल, खुंटेल, खुंतल, कौंटेल, कुंठळ, कुंडळ, कैरु, कौरव, कसवां, लम्बोरिया, (मधु,) मदेरणा, मद्रक, मद्र मद्रेणा, मधान, मद्, मध, मल्ल, मल्ला, मालय, महला, महलावत, महलान, महलानिया, मल्ली, महलवार, मेहला, मेला, (मावलिया, मावला, मोटसरा, न्योल , नूहनियाँ, नोहर, यटेसर, नलवा, नौहवार, नववीर, नव, नेतड़ा, नेतड़ा, यौधेय, नृग, पाण्डु, पाँडुर, परसवाळ, फरसवाळ, पौरुसवाल, पोरस, पोरसवाल, पौरूस, पनहार, पनही, (पुण्डीर) फोर, (पवार), पोंवार , पोर, पौरिया, पुनरिया, राठी, सरावग, सिनमार, शिवी, सिबी, सिबिया, शिवाज, शूर, सूरा, श्याम, श्योकंद, शॉकीन, श्योराण, सोगरिया, सोगरवाल, सुराहे, दोहन, दाहन, दनीवाल, सुवाल, सेवा सेवलिया, , सियाल, स्याल, तलान, तालान, ताहलाण, तालियान, याट, बसातिया, बसाति, वसु, वैस, बैसवार, वैसोरा, वासोड़ा, बोचल्या, व्रसोली, जोहिया, जोहिल, कुलहरी, खीचड़, माहिल, यटेसर,
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हैमेटिक या
सूर्यवंशी मूल के जाट
यद्यपि वैदिक कालीन पात्र सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में भी है जैसे राम और इनके पूर्वज जैसे तशरत, राम-सिन, बरत सुन, सिता परशुराम, विश्वामित्र आदि आदि नाम हैं ।
आर्यों में क्षत्रिय जो सूर्य की पूजा करते थे ब्रह्मा के मारीच पुत्र से कश्यप ऋषि पैदा हुए.
कश्यप की पत्नी आदिति (दक्ष की पुत्री) से विवस्वान (सूर्य) पैदा हुए एवं उसके मनु पुत्र से इक्ष्वाकु पैदा हुए जिनसे सूर्यवंश चला.
राम और लक्ष्मण का जन्म सूर्यवंश में हुआ.
जाटों में कुछ कम संख्या में समूह सूर्यवंशियों के हैं।
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राम के बेटो के नाम पर
सूर्यवंश में वर्गीकृत मुख्य जाट इस गोत्र प्रकार हैं:
अजमेदिया, असरोध, बुरडक, भारूका, विर्क, वृक, वरिक, चट्ठा, धरतवाल, धनोये, दगोलिया, गरुड़, गोरा, घरूका, गहलोत, गहलावत, गोहिल, इनतर, काक, काकरान, काकराना, कक्कुर, काकतीय, कलसमान, कंग, कांग, कंगरी, कास्या, काश्य, काशिया, कास्यण, (कश्यप), कछवाहा कछवाला, कुश, कसवां, कुसवां, कसुवां, कुसुमा, कुशमान, (कुषाण), (कुशवाह), कोयड़, खोये मौर्य मौर्य, , मौरी, भडाडरा, लांगल, लाङ्गा, लांगर, लावा, लांबा, लामवंशी, मान, मीया, म्यां, मियाला, गोलिया, मांगा, बाजवा, (महार,) महरया, महेरिया, नलवा, नेहरा, यौधेय, नृग, रघुवंशी, राज्यान, राजन राजेन, रोहितिक, वसु, वारसिर, यजानिया, जुनावा, लौर, खत्री।
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अग्नि वशी जाटों का विवरण-
अग्निवंशी
नेविगेशन पर जाएंखोजने के लिए कूदेंअग्निकुल सिद्धांतअग्नि कुंड का अग्नि पुराण प्रकरणराम सरूप जून [2] लिखते हैं: जब क्षत्रिय बौद्ध धर्म अपनाकर असैनिक हो गए और वेदों , शास्त्रों और अन्य धार्मिक शास्त्रों की भी अवहेलना करने लगे , ब्राह्मणों ने इस 'यज्ञ' को गूजर राजाओं के राज्यों के पास स्थित माउंट आबू में शुरू किया , ताकि उन्हें परिष्कृत किया जा सके। क्षत्रिय और धर्म की रक्षा। ब्राह्मणों की एक विशाल मण्डली थी जो अपने साथ ऋषियों, मुनियों, ब्रह्मा, विष्णु और अन्य हिंदू देवताओं की मूर्तियों को लेकर आए थे। ब्राह्मणों ने बुद्ध शैतानों के खिलाफ 'आहुति' का पाठ किया ।
- पहले ' अग्नि कुंड ' से नाटकीय रूप से एक व्यक्ति का उदय हुआ । वह एक बहादुर आदमी का चेहरा था और उसे परमार कहा जाता था ।
- फिर एक दूसरा व्यक्ति आया और उसका नाम प्रतिहार रखा गया ।
- तीसरा व्यक्ति पुजारी की हथेली से उठा और उसे चालुक्य कहा गया । वे एक वीर पुरुष भी थे।
- चौथा व्यक्ति जो इस प्रक्रिया के माध्यम से उभरा, वह बड़े कद का, चौड़ी छाती वाला, चौड़ा माथा और दीप्तिमान आँखों वाला व्यक्ति था। व्यक्तिगत रूप से प्रभावशाली होने के कारण उन्हें ' चौमुख ' या चौहान कहा जाता था । उनके हाथों में धनुष-बाण था जिससे उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं का सामान्य नरसंहार शुरू किया ।
- अग्नि कुंड के किनारे केले के पत्तों और टहनियों (डोडीज) का ढेर था। इसमें से एक आदमी निकला और उसे डोड राजपूत कहा गया ।
इन सभी बहादुर, अग्नि कुंड के प्राणियों ने, फिर बौद्ध 'राक्षस' (राक्षसों) का वध किया। ऐसा कहा जाता है कि चमत्कारिक ढंग से इन बौद्ध 'राक्षसों' के खून की एक-एक बूंद ने एक शैतान को जन्म दिया। इसका मुकाबला करने के लिए,
जाटों का इतिहास , पृष्ठ-133 का अंत
चार रानियों 'रानी' ने बहते खून को चूसना शुरू कर दिया और इससे बुद्ध डेविल्स का पुनर्जन्म रुक गया। ये चारों 'रानी' अपनी-अपनी जाति की देवी निम्न प्रकार से बनीं:-
(ए) चौहान आसा पूर्ण माता
(बी) प्रतिहार गजान माता
(सी) चालुक्य खे नौच माता
(डी) परमार सांचिर्य माता
इसके बाद आकाश विजय के जयकारों से गूंज उठा और देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। संतुष्ट होकर, देवी-देवता अपने पवित्र स्थान पर लौट आए और ब्राह्मणों ने शवों के पास एक हार्दिक दावत दी (स्रोत: अग्नि पुराण )।
इतिहासकार इस घटना को सबसे घिनौना और अमानवीय मानते हैं और इसे बनाने वालों के नाम पर कलंक है। इस तरह के नीच कर्मों पर आधारित धर्म को लोकप्रिय मान्यता की बहुत कम उम्मीद हो सकती है। उनके वंशज इस्लाम को बलपूर्वक फैलाने के बारे में मुखर रहे हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि कैसे उनके पूर्वजों ने बौद्धों को लेह , लद्दाख और हिमालय के अन्य क्षेत्रों में और जापान तक समुद्र के पार देश के सुदूर कोनों में शरण लेने के लिए डरा दिया था ।
इस घटना की जाटों , अहीरों और अपरिवर्तित गूजरों ने निंदा की थी । इस प्रकार उन्होंने नव निर्मित राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध को आमंत्रित किया , और इसलिए भी कि बौद्ध धर्म के पतन पर भी वे पौराणिक चटाई में परिवर्तित नहीं हुए थे ।
उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के प्रति अपना अटूट सम्मान और उनके उपदेशों में रुचि जारी रखी।
हालाँकि उन्होंने बाद में ब्राह्मणों को पुरोहित (पुजारी) के रूप में नियुक्त किया, लेकिन जाटों ने ब्राह्मणों में कभी भी पूर्ण विश्वास विकसित नहीं किया और जाटों के प्रति अपनी जन्मजात नापसंदगी को बनाए रखा और उन्हें दुष्ट और शैतानी कहने में कभी संकोच नहीं किया।
ब्राह्मणों के उपदेशों के अनुसार राजपूतों ने विधवा विवाह को त्याग दिया। इस प्रकार जो लोग विधवा विवाह के पक्ष में थे , वे धीरे-धीरे जाटों , अहीरों और गूजरों में शामिल हो गए, उनकी संख्या में वृद्धि हुई।
जाटों का इतिहास , पृष्ठ-134 का अंत
विश्वामित्र द्वारा अग्निकुल क्षत्रियों का पुनर्निर्माणजेम्स टॉड [3] लिखते हैं कि विश्वामित्र ने अग्निकुल क्षत्रियों के पुन: निर्माण के लिए माउंट आबू के शिखर को चुना, जहां धर्म के कर्तव्यों में निरंतर साधु और संत रहते थे, और जिन्होंने अपनी शिकायतों को खीर समुद्र (समुद्र) तक भी पहुंचाया था। दही), जहां उन्होंने सृष्टि के पिता को हाइड्रा (अनंत काल का प्रतीक) पर तैरते देखा। वह चाहता था कि वे योद्धा जाति को पुनर्जीवित करें, और वे अपनी ट्रेन में इंद्र , ब्रह्मा , रुद्र , विष्णु और सभी निम्न देवताओं के साथ माउंट आबू लौट आए । आग का फव्वारा ( अनहल-कुंडो )) गंगा के जल से आलोकित था ; प्रायश्चित संस्कार किए गए, और, एक लंबी बहस के बाद, यह निर्णय लिया गया कि इंद्र को पुन: निर्माण का कार्य शुरू करना चाहिए।
परमार : दूबा घास की एक मूर्ति ( पुतली ) बनाकर , इंद्र ने उस पर जीवन के जल का छिड़काव किया और उसे अग्नि-फव्वारा में फेंक दिया। वहां से, सजीवन मंत्र (जीवन देने के लिए मंत्र) का उच्चारण करने पर, एक आकृति धीरे-धीरे लौ से निकली, दाहिने हाथ में एक गदा थी, और चिल्ला रही थी, " मार्च ! मार्च !" (हत्या, वध)। उसे प्रमार कहा जाता था ; और अबू , धार , और उज्जैन उसके लिथे उसका भाग कर दिया गया।
सोलंकी : ब्रह्मा को तब अपने सार ( अंसा ) से एक को फ्रेम करने के लिए कहा गया था। उसने एक मूर्ति बनाई, उसे गड्ढे में फेंक दिया, जहाँ से एक हाथ में तलवार ( खरगा ) सेलैस एक आकृति जारी की , दूसरे में वेद और उसके गलेमें एक जनेऊ । उसे चालुक्य या सोलंकी नाम दिया गया था, और अनहलपुर पाटन उसे विनियोजित किया गया था।
[पी.407]: परिहार : रुद्र ने तीसरा स्थान बनाया। छवि को गंगा के पानी के साथ छिड़का गया था, और मंत्र पढ़ने पर, धनु या धनुष से लैस एक काले रंग की अशुभ आकृति उत्पन्न हुई । जब राक्षसों के खिलाफ भेजे जाने पर उनका पैर फिसल गया, तो उन्हें परिहार कहा गया, और उन्हें पोलो , या द्वार के संरक्षक के रूप में रखा गया । उनके पास नो-नंगल मरुस्थली , या 'रेगिस्तान के नौ निवास' उन्हें सौंपा गया था।
चौहान : चौथे की रचना विष्णु ने की थी । जब खुद की तरह एक छवि, चार-सशस्त्र, प्रत्येक के पास एक अलग हथियार होता है, जो आग की लपटों से निकलती है, और तब से चतुर्भुज चौ-हन , या 'चार-सशस्त्र' को स्टाइल किया जाता है। देवताओं ने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया, और मकावती-नगरी ( महेश्वर ) उनके क्षेत्र के रूप में। द्वापर, या त्रेता युग में गर्रा-मंडला का ऐसा नाम था।
ब्राह्मणवाद की लड़ाई लड़ने के लिए पुनर्जीवित :
[p.408]: जेम्स टॉड [4] हमें बताता है कि आइए पूछें कि ये योद्धा कौन थे, जो ब्राह्मणवाद की लड़ाई लड़ने के लिए पुनर्जीवित हुए , और उनके विश्वास के दायरे में आए? वे या तो आदिवासी वंचित वर्ग रहे होंगे, जिन्हें व्यापक धर्म के मंत्रियों द्वारा नैतिक महत्व के लिए उठाया गया था, या विदेशी जातियों ने उनके बीच एक पैर जमा लिया था। संबंधित जातियों की विषम शारीरिक बनावट इस प्रश्न का निर्णय करेगी। आदिवासी काले, मंदबुद्धि और बदकिस्मत होते हैं; पार्थियन राजाओं की तरह प्रमुख विशेषताओं के साथ अग्निकुल अच्छे कद और निष्पक्ष हैं । विचार जो उनकी मार्शल कविता में व्याप्त हैं, जैसे कि सीथियन द्वारा आयोजित किए गए थेदूर के युगों में, और जिसे ब्राह्मणवाद भी मिटाने में विफल रहा है।
अग्निकुलस पर जेम्स टॉडजेम्स टॉड [5] लिखते हैं कि चार जातियां हैं जिन्हें हिंदू वंशावलीविदों ने अग्नि, या अग्नि तत्व को पूर्वज के रूप में दिया है। इसलिए अग्निकुलस वल्कन के पुत्र हैं, जैसे अन्य सोल , मर्क्यूरियस और टेरा के हैं।
ग्रीस और रोम के धर्मशास्त्रों के इर्द-गिर्द एक मनोरम भव्यता है , जिसे हम हिंदुओं को प्रदान करने में विफल रहते हैं; हालांकि वह सुरुचिपूर्ण विद्वान। सर विल्हम जोन्स , संस्कृत साहित्य को भी आकर्षक बना सकते थे; और यह कि यह आंतरिक रूप से प्रयास के योग्य है, हम राजस्थान के विद्वान सरदार के आकर्षण से अनुमान लगा सकते हैं । यह पूरी तरह से ग्रीक और रोमन के अनुरूप है , हमें दिखाने के लिए नामों का अनुवाद करना बाकी है। उदाहरण के लिए : -
- सौर ………………………… चंद्र।
- मारीच .... (लक्स) .... अत्रि।
- कश्यप .... (यूरेनस) ... समुद्र (महासागर)।
- वैवस्वत या सूर्य .... (सोल) ... सोम, या इंड (लूना; कु। लूनस?)।
- वैवस्वा मनु .... (फिलियस मिट्टी) ... बृहस्पति (बृहस्पति)।
- इला ....(टेरा)।...बुद्ध (बुध)।
अग्निकुल प्रमार , परिहार , चालुक्य या सोलंकी और चौहान हैं । _
होर्नले (जेआरएएस, 1905, पृ. 20) का मानना है कि परिहार ही एकमात्र ऐसे सेप्ट थे, जिन्होंने चांद (फ्लोर। 1191) से पहले आग की उत्पत्ति का दावा किया था। लेकिन इस तरह की एक किंवदंती दक्षिण भारत में दूसरी शताब्दी ईस्वी [6] में मौजूद थी ।
यह कि अग्नि के पुत्र, इन जातियों का पुनर्जन्म हुआ था, और ब्राह्मणों द्वारा अपनी लड़ाई लड़ने के लिए परिवर्तित किया गया था, उनके अलंकारिक इतिहास की स्पष्ट व्याख्याओं का खुलासा होगा; तथा,
[पी.108]: चूंकि उनके सबसे प्राचीन शिलालेख पाली चरित्र में हैं, जहां कहीं भी बौद्ध धर्म प्रचलित था, उनकी खोज को तस्ता या तक्षक की जाति घोषित किया जा रहा है , हमारे अग्निकुलों को इसी जाति के होने का दावा करता है, जो ईसा से लगभग दो शताब्दी पूर्व भारत पर आक्रमण किया। यह इस अवधि के बारे में था कि तेईसवें बुद्ध पार्श्वनाथ भारत में प्रकट हुए थे; उसका प्रतीक, सर्प। नाग ( तक्षक ) की पत्नी के भागने की कथा प्रसिद्ध कृति पिंगला है, जिसे कृष्ण के गरुड़ गरुड़ ने बरामद किया था, विशुद्ध रूप से अलंकारिक है; और पार्श्वनाथ के अनुयायियों के बीच विवाद का वर्णनात्मक , उनके प्रतीक के तहत, सांप, और कृष्ण के उन लोगों के बीच , जो उनके चिन्ह, चील के नीचे चित्रित हैं।
सूर्य के उपासकों ने संभवतः चंद्र जातियों के गृहयुद्धों को समाप्त करने पर अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त कर लिया , लेकिन अग्निकुलों का निर्माण स्पष्ट रूप से दैत्यों, या नास्तिकों के खिलाफ बाल , या ईश्वर की वेदियों के संरक्षण के लिए कहा गया है ।
The celebrated Abu, or Arbuda, the Olympus of Rajasthan, was the scene of contention between the ministers of Surya and these Titans, and their relation might, with the aid of imagination, be equally amusing with the Titanic war of the ancient poets of the west [91]. The Buddhists claim it for Adinath, their first Buddha ; the Brahmans for Iswara, or, as the local divinity styled Achaleswara. The Agnikunda is still shown on the summit of Abu, where the four races were created by the Brahmans to fight the battles of Achaleswara and polytheism, against the mono-theistic Buddhists, नागों या तक्षकों के रूप में प्रतिनिधित्व किया । इस रूपांतरण की संभावित अवधि का संकेत दिया गया है; लेकिन के
[पृष्ठ 109]: अग्निकुलों से जारी राजवंशों में से कई राजकुमारों ने बौद्ध या जैन धर्म को स्वीकार किया, इतनी देर तक कि मुहम्मदन आक्रमण के रूप में।
अग्निवंशी क्षत्रियचौहान अग्निकुल वंश के साथ आम जाट गोत्रों की सूचीतुगनिया की पुस्तक चहुं वंशी लकड़ा जातों का इतिहास (अध्याय 32) के अनुसार कुछ जाट गोत्रों की उत्पत्ति चाहमानों या चौहानों से हुई है। इन्हें चौहानों में शामिल अग्निवंशी जाट कुल कहा जा सकता है , सूची इस प्रकार है:
- आचरा ,
- अहलान ,
- अंजने ,
- बचाया ,
- बछड़ा ,
- बछरा ,
- बधाक ,
- बालेचा ,
- बेहेडे ,
- बेहेरेवाल ,
- बेनीवाल ,
- बेटलान ,
- भदवार ,
- भरने ,
- भरवार ,
- भरवास ,
- भट्टू ,
- भयन ,
- भिकारा ,
- भुकर ,
- बिलोदा ,
- बोला ,
- ब्राह्मण ,
- बुधवार ,
- बर्दक ,
- चहल ,
- चावड़ा ,
- छिकारा ,
- चोपड़ा ,
- चोफे ,
- चोपड़ा ,
- डबास ,
- दहन ,
- दहिया ,
- दलाल ,
- दयाल ,
- देशवाल ,
- ढाका ,
- धंधी ,
- धया ,
- धुल ,
- दुहून ,
- गहल ,
- गरबरिया ,
- गठवाल ,
- घंटा ,
- घायल ,
- गिरवाडिया ,
- गोधाय ,
- गोधी ,
- गोहला ,
- गोहर ,
- गोरिया ,
- गोथवाल ,
- हुड्डा ,
- जगलान ,
- जसराना ,
- झोटड़ा ,
- झोत्रा ,
- जुडाना ,
- जुजादा ,
- खन्ना ,
- खपरा ,
- खरात ,
- खेतलान ,
- खुग्गा ,
- कुंडू ,
- खुंगा ,
- लकदम ,
- लखलान ,
- लकड़ा ,
- लेगा ,
- लोच ,
- लोहान ,
- लोहिया ,
- लूडी ,
- लूरी ,
- लुधन ,
- लुहाच ,
- लुलाह ,
- लूनी ,
- मान ,
- मेला ,
- मेरान ,
- नबिया ,
- नहोवर ,
- नारा ,
- नरवाल ,
- नरवारी ,
- निम्मा ,
- निमरिया ,
- नूरा ,
- ओहलान ,
- पाध्यान ,
- पंघाल ,
- पिलानिया ,
- राय ,
- रायबीदार ,
- राप्रिया ,
- रथ ,
- राऊ ,
- रोडा ,
- रोजिया ,
- साहू ,
- संभरवाल ,
- संगरिया ,
- सांगवान ,
- सौंखड़ा ,
- सयाद ,
- सयान्ह ,
- श्योराण ,
- शिवाह ,
- सिहाग ,
- सीहिबाग ,
- सिंधद ,
- सूरी ,
- सुहाग ,
- सूर्या ,
- तलवार ,
- ठकरान ,
- थलोद ,
- थारा ,
- गुरु ,
- टीकारा ,
- तोमर ,
- तूर ,
- तोतियां ,
- वीरपाल ,
- वेलावत ,
- वेनिपाल ,
परिहार अग्निकुल वंश के साथ आम जाट गोत्रों की सूचीठाकुर देशराज [7] लिखते हैं कि राजकुल जाटों में परिहार आगरा और मथुरा जिलों में पाए जाते हैं । वह जाटों में परिहार गोत्र को शीर्षक पर आधारित मानते हैं और डीआर भंडारकर और वीए स्मिथ जैसे इतिहासकारों द्वारा प्रचारित उनके विदेशी मूल सिद्धांत को खारिज करते हैं। अग्निकुल क्षत्रिय के निर्माण के माउंट आबू महायज्ञ के दौरान कुछ गोत्र जो उनके साथ जुड़ गए वे राजपूत परिहार बन गए और जो इससे बाहर रह गए वे थे जाट परिहार और गूजर परिहार । ठाकुर देशराज महाभारत जनजाति में अपनी उत्पत्ति को परतांगन ( परतंगन) कहते हैं, जो कि निकट के शासक हैं।हिमालय में मानसरोवर , क्योंकि ये चीन सीमा के पास भारत के गेट वे लोग थे । उनके पड़ोसी तांगना (तंगण) लोग थे जो अभी भी राजस्थान के जयपुर और भरतपुर जिलों में जाटों के बीच और उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में तंगर ( तंगड़ ) जाट वंश के रूप में पाए जाते हैं ।
कुछ जाट गोत्र भी शामिल हुए या प्रतिहार परिसंघ में शामिल हो गए। परिहारों के साथ आम जाट कुलों की सूची नीचे दी गई है:
भारत धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में था। मूवी कर्म काल बढ़ा। बुद्ध शनै-शनैष क्षत्रिय क्लास पोस्टिंग स्थान पोस्ट किया गया है। क्षत्रियों की आवृत्ति घटने की स्थिति में. प्रथम क्षत्रिय सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कहलाते। हमणों ने से चिड कर पुराण में यह लिखा है कि कलियुग में ब्राह्णण व शूद्र ही इस और ब्रा राजा शूद्रवत्।
हमणों ने बौद्ध धर्मावलंबी क्षत्रियों को शूद्र की दे दी। उस समय समाज की रक्षा करना क्षत्रिय का उत्तर था। वन धर्म की खेल का जटिल जटिल सवाल हमणों के फाइट्स। पुन: ब्राहमणों के नाम में नया नया स्वरूप भेजा गया है। हमणों के प्रधानाचार्यों ने अथक कोशिशों से चार क्षत्रिय कुलों को वापस अपने धर्म में दी: सफलता में सफलता प्राप्त की। आबू पर्वत पर यज्ञ कर के बाध धर्म से धर्म में पुन: अग्निकुंड का रूप है।[8]
अग्नि कुल क्षत्रिय सिद्धांत के नियंत्रकों के पास सभी प्रकार के लोग होते हैं। राजस्थान के दशरथ के हिसाब से ये अलग-अलग होते हैं। दशरथ शर्मा असुरों के संहार के लिए वशिष्ठ ऋषि ने चार क्षत्रिय उत्पन्न होने वाले- चालुक्य, चौहान, परमार और प्रतिहार। [9] अबुल फूल ने आईने अकबरी में पोस्ट उत्पाती आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि बुद्ध कुंद से आने के आने के बाद आने वाले हैं। (संदर्भ आईने अकबरी वि.2, प.214।) चौहानों के बारे में आबू पर्वत पर अचलेश्वर महादेव के मंदिर में संवत 1377 ई.1320 के देवड़ा लूंबा के समय में लिखा गया है कि सूर्य और चंद्रवंशी अस्त हो जाने पर संसार में उत्पात हुआ वत्स ऋषि ने ध्यान में रखा और चन्द्रमा के एक पुरुष उत्पन्न हुए। [10]
अबू पर्वत पर जो क्षत्रिय मेने जीता से 80 प्रतिशत नागवंशी जाट। शेष अहीर, बरीब आदि। उस r समय rasak शब e प प नहीं नहीं हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ हुआ नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं वस्तु नागवंशी जाट बौद्ध धर्म में। युग्मक हटा दिया गया और नया क्षत्रिय वर्ग विभाजन समाप्त कर दिया गया। गोत्र जोक्ष जोय के वंश में शामिल हो गए थे I भाट की तुलना में। भाट पसंदीदा वंश के हैं इसलिए पसंद करते हैं। ग्रेड का जीरो। Q को अग्नि कुल सिद्धांत कहा गया है।
आग्नेया में प्रवेश करने वालों के आने के बाद आने वाले भी धर्म में क्षत्रिय वंश के वंशज धर्मावलंबी क्षत्रिय से वंश के वंशज थे। हमणों ने ब्रा क्षत्रियों पर श्रेष्ठ सिद्ध होने की क्रिया की। [1 1]
माउंट आबू विमला मंदिर शिलालेख बनाम 1378 (1322 ई.)नोट - माउंट आबू में विवरण देखें
- अर्बुद पर्वत पर ऋषि वशिष्ठ नायक परमार के अग्नि-कुंड ( अनल-कुंड , अग्नि-कुंड ) से निकले ...
- परमार - यह शिलालेख अग्निकुल से परमारों के निर्माण के लिए ऐतिहासिक आधार प्रदान करता है। श्लोक 3-6 हमें बताते हैं कि अर्बुदा पर्वत पर ऋषि वशिष्ठ नायक परमार के अग्नि-कुंड (अनल-कुंड, अग्नि-कुंड) से उत्पन्न हुए थे । उनके वंश में नायक कान्हादेव प्रकट हुए ; और उसके परिवार में धंधु (धंधुराज) नाम का एक मुखिया था, जो चंद्रावती शहर का स्वामी था और जो चालुक्य राजा भीमडव प्रथम को श्रद्धांजलि देने से कतराता था और उस राजा के क्रोध से बचने के लिए राजा भोज की शरण लेता था। धरा के स्वामी ।
- राजपूत जाति की सिथियन उत्पत्ति
- ↑ जाटों का इतिहास/अध्याय VIII , पृष्ठ 133-134
- ↑ जेम्स टॉड: एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान, वॉल्यूम II, एनल्स ऑफ हरवती , पी.406-407
- ↑ जेम्स टॉड: राजस्थान के इतिहास और प्राचीन वस्तुएं, खंड II, हरवती के इतिहास , पृष्ठ 408
- राजस्थान के इतिहास और प्राचीन वस्तुएं , खंड I,: अध्याय 7 छत्तीस शाही दौड़ की सूची , पीपी.107-108
- आईए , xxxiv। 263
- ↑ जाट इतिहास ठाकुर देशराज/अध्याय V , पृष्ठ 145-46
- कु . देवी सिंह मंंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007, पन्त. 21 -23
- कु . देवी सिंह मंंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पन्त.18
- कु . देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पृ.19
- कु . देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पन्त.23
- इनसाइक्लोपीडिया ऑफ आर्काइव्स ( घोस मेमोरियल) खंड 11 पृष्ठ 733
- ↑ डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्वस्थ्य', 1983, पृ.117
- डॉ . गोपीनाथ शर्मा: राजस्थान के आनुवंशिकी के रोग, 1983,
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एरी मैं खड़ी निहारूँ बाट -मीराँबाई
मीरा माधव
| एरी मैं खड़ी निहारूँ बाट, चितवन चोट कलेजे बह गई, सुन्दर स्याम सु घाट। (टेर) मथुरा में कुबज्या कर राखी, म्हाजन की-सी हाट। केसर चन्दन लेपन कीन्हो, मोहन तिलक लिलाट।।1।। हमरा पिलँग जड़ाऊ छोड्या, बणिया (रेसम) पीली पाट। क्याँ पर राजी भयो साँवरो, चेरी के नहिं खाट।।2।। अजहुँ न आयो कँवर नन्द को, क्याँरी लागी चाट। छाँड गयो मझधार साँवरो, बिना अकल को जाट।।3।। आप बिना गोपिन सब ब्रज की, ब्याकुल भई निराट। मीराँ के प्रभु दरसण दीज्यो, करज्यो आनँद ठाट।।4।।[1]
राग - सोरठ (मल्हार) : ताल - कहरवा (विरह तथा प्रेम) दूसरी महती साधिका मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी में पाली के कुड़की गांव में में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं मीराका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो में वाड़के महाराणा सांगा के पुत्र थे। मीराबाई ने अपनी पदावली में कहा है कृष्ण के विषय में कृष्ण की अनन्य साधिका राजस्थान को राजपूत घराने की कृष्ण-भक्ति साधिका "मीराबाईलिखती है-(मीराँ प्रकाशन समिति भीलबाड़़ा राजस्थान)"मीरा सुधा सिन्धु" पृष्ठ संख्या- (९५८)(मुरली के पद १५-)व्रजभाव-प्रभाव-मुरलिया कैसे धरे जिया धीर।०।मधुवन बाज वृन्दावन वाजी तट जमुना के तीर।बैठ कदंब पर वंशी बजाई , फिर भयो जमुना नीर।१।'मीराँ के प्रभू गिरिधर-नागर आखिर जात अहीर।____________________राजस्थान के लोक कवि-भक्तकविमहात्मा- ईसरदास प्रणीत)महात्मा" इसरदास" १६वीं सदी के हिंदू संत-कवि थे, जिनकी पूजा पूरे गुजरात और भारत के राजस्थान राज्यों में की जाती है। वह चमत्कारी कार्य करने से जुड़े हैं, इसलिए इसे 'इसारा सो परमेसर' कहा जाता है। देवियां और हरिरास और हला-झालारा कुंडलिया जैसी लोकप्रिय कृतियों का श्रेय इसरदास को दिया जाता है।ईसरदास ने कृष्ण को अहीर कहते हुए वर्णन किया "नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।हूँ चारण हरिगुण चवां , सागर भरियो क्षीर।।_____
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