सूत जी कहते हैं ;- उस समय वहाँ उठ रहे महान वाद्यों के नाद को सुनकर नारद महर्षि अपनी माता सावित्री को समागत जानकर उनके सामने गये तथा उनको प्रणाम करके दीनतापूर्वक धर्रायी वाणी में अपने शाप मोचन के लिए तथा देवी की क्रोध-वृद्धि को देखकर मेघ-गम्भीर स्वर में कदम कदम पर रुकते रुकते कहने लगे- कलह-प्रिय ब्राह्मण नारद देव-स्त्रियों के सामने स्थित होकर कह रहे थे। हे देवी ! मैंने पहले आपको बुलाया था।
उसके बाद पुलस्त्य ने आपका आह्वान किया था। तो भी आपने स्त्री स्वभाव के कारण उसी समय आगमन नहीं किया इसी ब्रह्मा के आदेश से इन्द्र ने एक अन्य स्त्री को बुलाया।
तब ब्राह्मणों ने कहा था कि हे ब्रह्मन् यह ब्राह्मणी हो हमारे कथनानुसार आप इससे पाणिग्रहण कीजिए !
आपसे और अधिक क्या कहा जाय-वे विधाता कि पत्नी-शाला में चलीं गयी। हे सुरेश्वरी दु:ख की बात क्या कहूँ।विधाता ने उस आभीर कन्या के कटि( कमर) में चन्द्रहार पहनाया। मैं यह गर्हित( निन्दित) कर्म देखकर यज्ञ मण्डप से गया। मैं क्रोधान्वित होकर यह दृश्य नहीं देख पाया।७-१२।
हे द्विज श्रेष्ठगण ! महर्षि नारद के मुख से यह वृतान्त सुनकर सावित्री की वह स्थिति हो गयी जिस प्रकार हिम पड़ने पर पद्मिनी की होती है। मूल कट जाने पर लता की,प्रिय से अलग हो जाने पर चकवी की प्रक्षीणा चन्द्रलेखा की हिरन से अलग हिरना की राजा के मर जाने पर सेना की और पति के मर जाने पर सती स्त्री की जो स्थिति होती है। जैसे सूखे फूलों की माला की स्थिति होती अथवा जैसे वह गाय जिसका बछड़ा मर गया हो गायत्री की स्थिति इसी प्रकार परिलक्षित होने लगी। तब देवपत्नीयों ने गायत्री को बेमनवाली( वैमनस्य) तथा निश्चलत्व होते देखकर नारद से कहा-हे कलह-प्रिय तुमको धिक्कार है। तुमने हमारे इस राग को वैराग्य में बदल दिया। तुमने ब्रह्मा के साथ इसका मनमुटाव कराने लिए ही ऐसा किया है ।१४-१८।।
इस कर्म को करते हुए भी नारद प्राण-धारण करता है। हे सावित्री शंकर ने मुझसे पूर्वकाल में बारम्बार कहा था ।हे प्रिये पार्वति ! यदि तुम मेरे साथ सुखपूर्वक रहना चाहो तो नारद का वाक्य कभी भी मत सुनना- जब से मेने शंकर से यह सुना ! तब से मैं नारद के कथन या विश्वास नहीं करती हूँ। जहाँ तुम्हारे पति हैं हम सब वहाँ चलें वहाँ समस्त वृतान्त को जानकर जो कर्तव्य होगा।वह किया जाएगा ! अब चलो !हम इसकी बात मानकर वहाँ नहीं रुकेंगे।१९-२२।।
सूतजी कहते हैं!हे द्विजप्रवरवृन्दों! देवी सावित्री गौरी कि वाक्य सुनकर आनन्द से रहित स्थिति में लड़खड़ाते पैरों से यज्ञ मण्डप की ओर जाने लगी-तब वहाँ मधुर-गीत औरमृदंगादि वाद्यो की ध्वनि इनके कानों में शूल की तरह लगने लगी। जैसे मनुष्य प्रेत को नहीं देख सकते हैं उसी प्रकार यह महा सती यज्ञ मण्डप की ओर जाते-जाते किसी को भी नहीं देख पा रहीं थी। उस समय उनको अपने अंगों के आभूषण अंगार के समान प्रतीत होने लगे । वे आँखों में आँसू भरे हुए दीन भाव से जा रहीं थी उन्होंने यज्ञ मण्डप में इस प्रकार से प्रवेश किया मानों किसी कारागार में जा रही हों-२३-२७।
सावित्री को यज्ञ मण्डप में प्रवेश करते देखकर लज्जा के कारण चतुर्मुखी ब्रह्मा नीचे मुख करके बैठे रह गये।
वहाँ सावित्री ने अपनी सौत के साथ अपने पति को देखा यह देखकर उसके नेत्र क्रोध से रक्तवर्ण हो गये। वह उनसे कठोर वाक्य कहने लगी-२८-३१।।
सावित्री बोली- उसके बाद सावित्री पति को सौत के साथ एक ही आसन पर दौंनो को आसीन देखकर क्रोध से लाल नेत्र करके उनसे कहा । हे वृद्धतमाकृति ! क्या आपका ऐसा करना उचित है जिससे आपने विवाह किया है। वह गोप कन्या है। उनके दोनों कुल में स्त्रीयाँ इच्छा के अनुसार आपस में वरण की जाती हैं। उसके वंश के लोग शोचाचार- और धर्मकृत्य से विमुख (रहित )होते हैं।३२-३३।।
इस गोप कन्या के वंश के पुरुष सगी बहिन और माता के अतिरिक्त सभी स्त्रियों से संगत होकर कामाचार( मैथुन क्रिया) करते हैं।जिस प्रकार पशु तृण-घास कि भोजन करते हैं।
जलपान करके मलमूत्रत्याग और भारवहन करते हैं। इसी तरह इनके कुल वाले केवल दूध की जगह मठ्ठा( तक्र) ही पीते हैं।मलमूत्रत्यागना तथा अपना पेट-भरना ही इनके जन्म ग्रहण सा उद्देश्य रहता है। इनका इसके अतिरिक्त अन्य कर्तव्य और धर्म नहीं है।
अन्यज जाति के लोग भी जो घृणित कर्म नहीं करते अहीर जाति के लोग वह कर्म करते हैं।३४-३८।।
हे व्यर्थमुण्ड वाले ब्रह्मा! यज्ञ मेंआपको क्या ऐसा पत्नी या प्रयोजन पड़ गया ।जिसके कारण आपने किसी प्रख्यात वंश वाली ब्राह्मण कन्या से विवाह न करके आभीर कन्या से विवाह किया ? आप अवश्य धूर्त हैं। तभी आपने (शौच-परित्यक्ता-कन्या- भावविदूषिता- बहुभुक्ता( बहुतों के द्वारा भोगी गयी) पापिनी तथा सौ वेश्याओं के बराबर गोप कन्या को ग्रहण किया? अत: आप अब पूजित नहीं होंगे अन्त्यज कन्याऐं कन्या -अवस्था में ही क्षतयौनि हो जाती हैं ।इसी प्रकार कोई गोप कुमारी भी हो जाती है। ऐसी कन्या मातृ पितृ और श्वशुर कुल को भी पतित कर देती है।
इसलिए यदि मुझमें तनिक भी सत्य हो तो आप अन्य देव गणों की तरह जैसे वे पूजित होते हैं। पृथ्वी पर पूजित नहीं होंगे आपकी पूजा करने वाला धन हीन होगा। आप ऐसा घृणित कर्म करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हैं। आपने ऐसा कर्म किया है । कि आपके पुत्र- पौत्र भी देवताओं और ब्राह्मणों के लिए अयोग्य हे गये। ३९-४६।
अथवा यह आपका दोष नहीं क्योंकि काम भावना के वशीभूत मनुष्य लज्जित नहीं होते वे क्या कृत्य है क्या अकृत्य है।क्या शुभ है क्या अशुभ है।क्या शुभ है क्या अशुभ है। इसकी पहचान नहीं कर पाते हैं काम ( sex) के वशीभूत लोग कर्तव्य को अकर्तव्य मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्रवत् मानने लगते हैं। जैसे जुआरी में सत्य चौर में सौहार्द राजा में मित्रता नहीं होती है ।उसी रूप कामी में लज्जा नहीं होती है। भले ही अग्नि शीतल हो जाए चन्द्रमा जलाने लगे खार समुन्द्र मीठा हो जाए तो भी कामी में लज्जा नहीं होती यह ध्रुव सत्य है ।४७-५०।।
यदि आप काम के वश में हो गये थे तो शुद्ध कुलीन स्वजातीय कन्या से विवाह क्यों नहीं किया।
मुझे यही महान दु:ख है। कि तुमने वेश्या के समान नष्ट- चरित्रा अनेक पुरुषों वाली विगर्हिता आभीरी- कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है ।५१-५३।।
आज से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कोई भी व्यक्ति यदि अन्य देव गणों के समान तुम्हारी पूजा करेंगे तब वे और उनके आश्रित जन दरिद्र और दु:ख युक्त हो जाऐंगे-यह निन्दिता आभीर कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है इसके सन्तान नहीं होगी।
यह मेरा वचन है यह भी अन्य देव स्त्रीयों समान पूजित नहीं होगी इसकी पूजा करने वाली स्त्रीयाँ बाँझ और दुर्भगा( दूषित योनि) हो जाऐंगी। ५४-६१।।
यह पापिष्ठा नष्टचरित्रवाली पाँच पतियों वाली कहलाकर दु:ख्याति लाभ करेगी इसके साथी पापी निशाचर होंगे इसके वंशज सत्य-शौच रहित शिष्टसंग रहित अनिकेत( विनाघर के) तथा गौ से व्यवसाय जीविका चलाने वाले होंगे इस प्रकार सावित्री ने आभीर कन्या गायत्री को शाप दिया ।। ६२-६४।।
इसके बाद सावित्री ने सभी देवताओं को शाप प्रदान किया। उन्होंने कहा हे इन्द्र! पाँच पति वाली कन्या को तुम ही लाये थे।इस प्रकार तुमने गुरु बृहस्पति का शुभ किया । अत: तुम नि: सन्देह कारागार में जाओगे- हे वासुदेव ( विष्णु) तुमने ही इस पञ्चपति वाली कन्या कि अनुमोदन किया था। इसलिए मैं तुमको शाप देती हूँ। हे दुर्मति !
तुम भी पराऐ के भृत्य( सेवक) होंगे। हे रूद्र ! तुमने पास रहकर देखते हुए भी इस कृत्य को नहीं रोका तथा उपेक्षा किया अत: तुम मेरा कथन सुनो ! मैं जिस प्रकार पति के जीवित रहते हुए पति का विरह अनुभव कर रही हूँ।उसी प्रकार तुम भी अपनी पत्नी के मरने पर दु:ख अनुभव करोगे-।।६५-७०।।
हे अग्नि ! तुमने भी उस पाँच पतियों वाली ( अनेक पतियों वाली) के प्रवेश करने पर लोलुपतावश हवि ग्रहण किया था। इस लिए तुम सर्वभक्षी हो जाओ-साथ ही तुम अपनी दौनों पत्नीयों स्वाहा और स्वधा के साथ दु:खी रहोगे- सर्वदा सुखी नहीं हो सकोगे और जिन ब्राह्मणों ने लोभ के वश में होकर इस यज्ञ में धन के लिए होम किया है। तथा पाँच पतियों वाली कन्या को यज्ञ मण्डप में प्रवेश कराया है। तथा इस कन्या को ब्रह्माणी कहा है। इस लिए ऐसे तुम सब ब्राह्मण दरिद्र वृषली स्त्री के पति तथा वेद-विक्रेता हो जाओगे इसमें सन्देह नहीं है।७१-७६।।
हे धनपति कुबेर तुमने इस यज्ञ विप्लव में धनदान किया है इस लिए तुम्हारा सारा धन अयोग्य होगा। इस पाँच पतियों वाली के यज्ञ में जिन देवताओं ने सहायता की है वे सन्तान वर्जित और दानवों से पराजित होकर दु:ख भोग करेगे- इस आभीरीणी के चारों ओर( चतुर्पार्श्व) में रहने वाली जो ध्यान- हर्षिता अहीरिणी हैं वे तथा शिवदूतीगण आपस में संग-लाभ नहीं कर सकेंगी मनुष्यों के अतिरिक्त जो लोग यहाँ उपस्थित हैं।वे मेरी दृष्टि मात्र से पूर्वाग्रह में दुर्ग तथा अगम्य स्थलों में सर्व भोग रहित होकर निवास करेंगे।।७७-८२।
सूत जी कहते हैं ;- कुपित भाव से सावित्री ने यह कहने के बाद देव पत्नी यों को वहीं छोड़ कर उत्तर सी ओक प्रस्थान किया।
तब लक्ष्मी आदि देवपत्नीयाँ चारो दिशाओं में खड़ी होकर उन्हें रोकने लगीं।तो भी उन्होंने किसी के भी अनुरोध को नहीं माना ।८३-८४।। नागर खण्ड उत्तरार्द्ध १५-
सावित्री कहती है:- जहाँ इस कामुक का नाम भी सुनाई न पड़े मैं वहाँ जा रही हूँ। तब उन्होंने वाँया पैर पर्वतपाद और दाहिना पर्वत के शिखर पर रखा।आज भी उनका वाम चरण वहाँ दिखाई देता है ।यह चरण सर्वपापहारी और पुण्यप्रद है । जो पर्वतपाद पर स्थित है।
जो पापी इस चरण की पूजा करता है। वह सर्व पाप रहित होकर परम पद का लाभ प्राप्त करता है। जो व्यक्ति जिस कामना को करके इस चरण का पूजन करता है । वह अपनी दुर्लभ कामना को भी प्राप्त कर लेता है।८५-८९।।
सूतजी कहते हैं:- सावित्री ने पति को पास से इस प्रकार अपमानित होने के बाद पर्वत या आश्रय लिया
वे सब वांछित लाभ कर लेते हैं। नारी रक्त तन्तु ( लाल धागे की बत्ती) तथा घी से यहाँ दीप दान करती है उसको प्राप्त होने वाले फल को सुनिए -इस दीप की बत्ती और घृत दीप जब तक वर्तमान रहता है।दीप प्रदान करने वाली स्त्री उतने जन्मों तक सौभाग्यशाली बनी रहती है ।साथ ही वह पुत्र-पौत्र युक्ता।धनी शीलमण्डिता रहती है। वह कभी दुर्भाग्यशालिनी बन्ध्या, कानी और कुरूपा नहीं होती है ।९०-९४।।
यहाँ यदि विधवा स्त्री भी नृत्य-गीता आदि करती है तब उसको प्राप्त होने वाला फल सुनिए-वह नृत्य काल में जैसे जैसे अंगों को कम्पित करती है ।वैसे वैसे उसके पाप भी कम्पित होते जाते हैं ।जितने प्राणी उसके गीत को सुनते हैं वह उतने हजार वर्ष तक स्वर्ग में निवास करते है। जो नारी सावित्री के उद्देश्य से फल दान करती है।वह जितने फल दान करती है उतने काल तक स्वर्ग में आनन्द का अनुभव करती रहता है।जो व्यक्ति इस स्थान पर पति और पत्नी को मिष्ठान्न देता है वह उसमे जितने दाने हैं उतने युग तक स्वर्ग में आनन्दित होता है।९५-९९।।
जो यहाँ पर श्रद्धा भाव से श्राद्ध प्रदान करता है। भले ही वह मात्र एक ही रस ( षड् रस में से एक ही रस युक्त दृव्य से)वाला अथवा एक ही अन्न से श्राद्ध करता है। उसे गया में श्राद्ध करने के समान फल कि प्राप्ति होती है। जो द्विज उसके दक्षिण दिशा की ओर आश्रय करके अपनी पत्नी के साथ सायं सन्ध्या करता है। उसे २४ वर्ष सन्ध्या करने का फल तत्काल मिल जाता है । जो ब्राह्मण सावित्री के समक्ष तप करते हैं । हे विप्रो! उनको मिलने वाले फल को सुनिए-।१००-१०३।।
उनके दशशत जन्मार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं।तथा तीन हजार वर्षों में किए गये पापों कि नाश हो जाता है। अत: सभी लोग चमत्कार पुर जाकर इस देवी कि पूजा और स्तवन करें ।१०४-१०५।।
देवी गायत्री का उपाख्यान जो मानव पाठ करता है। अथवा सुनता है ।वह सर्वपापों से मुक्त होकर सुखी हो जाता है । हे द्विज गण आप लोंगों ने जो प्रश्न किया था उस सावित्री महात्मय को मैंने आप लोगों से कह दिया है ।
अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ-
अहीर जाति-
सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:) के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है जो की ईश्वर का एक नाम है।
और भारतीय पुराणों में ययाति का वर्णन भी उसी प्रकार है जिस प्रकार सेमेटिक मिथकों में याकूव का
याकूव से जैकव तथा फिर हाकिम जैसे शब्द विकिसित हुए।
उसी प्रकार पद्म पुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर ययाति तथा उनके वाद के यदु: और तुर्वसु को दर्शाया गया है।
जबकि अत्रि ब्रह्मा को सात मानस पुत्रों में से एक हैं।
जो स्वयं वेदों सी अधिष्ठात्री देवी गायत्री का विवाह जगतपिता ब्रह्मा के साथ कराते हैं।
यदि हम सैमेटिक मिथकों में याकूव की।
बात करें तो यह शब्द यूरोप की अनेक भाषाओं में बहुत से उच्चारण भेदी रूपों में दृष्टिगोचर होता है।
इसी सा रूपान्तरण जेम्स( jems) एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है; जिसे हिब्रू मूल का नाम दिया गया है, जो आमतौर पर पुरुषों के लिए उपयोग किया जाता है। यह मूलत: हिब्रू भाषा के याकूब शब्द का रूपान्तरण है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से याकूव और जेम्स शब्द मूलत: एक है।
यह एक आधुनिक याकूव का वंशज शब्द है।जिसे हम जेम्स कहते हैं।
अरबी - हाकिम-
संस्कृत- ययाति-
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अबीर अर्थ-
बाइबिल हिब्रू में अबीर
मैं
अबीर श्रेणियां:
मैं
पुरुष नाम
मैं
दिव्य नाम
मैं
ע
🔼 नाम अबीर: सारांश
अर्थ- पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन( शब्द व्युत्पत्ति)
क्रिया אבר ( 'br ) से, बलवान होना या रक्षा करना। संस्कृत वृ(आवृणोति)
संबंधित नाम
• वाया ( ' br ) : इब्राहीम , अब्राम ,
🔼 बाइबिल में नाम अबीर
अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर( शक्तिशाली) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। (अवर)अबीर नाम बाईबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले नहीं; पाँच बार यह (याकूब) नाम के साथ और एक बार इस्राएल के साथ जोड़ा गया है।
यशायाह 1:24 में हम प्रभु के चार नामों को तेजी से उत्तराधिकार में पाते हैं जैसा कि यशायाह रिपोर्ट करता है: "इसलिए १-अदोन २-यहोवा ३-सबोत ४अबीर इज़राइल घोषित करता है । यद्यपि -"एलॉहिम" भी ईश्वर का एक अन्य नाम है जोकि "एल" का बहुवचन रूप है ।
यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी मिलती है: "सभी मांस जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा मुक्तिदाता, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।
पूरा नाम अबीर जैकब सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों की आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजनहार ने राजा डेविड को याद किया, जिसने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक कि उसे (YHWH) "यह्व" के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132:2-5)।
🔼 अबीर नाम की व्युत्पत्ति
अबीर नाम जड़ אבר ( 'br' ) से आया है, जिसका मोटे तौर पर मतलब होता है मजबूत होना:
क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ है मजबूत या दृढ़ होना, विशेष रूप से रक्षात्मक तरीके से (आक्रामक के बजाय)। व्युत्पन्न संज्ञाएं אבר ( ' एबर ) और אברה ( 'एब्रा ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं; जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ने के बजाय रक्षा करने के साधन के रूप में देखा (हस्ताक्षर) इसलिए, स्वर्गदूतों की विशेषता उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।
क्रिया ( ' अबार ) पिनियन से की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना है। विशेषण ( 'अब्बीर' ) , जिसका अर्थ है रक्षात्मक तरीके से मजबूत; सुरक्षात्मक।
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हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता हुए हैं।
अभी अभी एक शूद्र वादी विचारधारा के पोषक विद्वान लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की है।
उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का
परन्तु लेखक ने संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।
("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।
यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
परन्तु मोर पंख का मुकुट अहीर जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
मयूर पालना गुप्त काल में मगध के मौर्यों का कार्य रहा है ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।
क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब भी अहीर जाति थी।
क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।
आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।
गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।
और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी कृष्ण उठाते हैं।
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य कृषि-और गोपालन करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।
फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ?
अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।
अहीरों तुम हिन्दू नहीं हो उन अर्थों में जिन अर्थों में तुम आज स्वयं को कह रहो हो ।
हिन्दू ब्राह्मण वाद या पूरक शब्द है ।
और हिन्दु को रूप में वर्णव्यवस्था को अन्तर्गत आपको शूद्र वर्ण में स्थित किया जाएगा ।
अहीर भागवत हैं सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।
"वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
"कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च॥10.23 )
-मनुस्मृति-
वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और (सात्वत) कहते हैं।
जबकि पुराणों के अनुसार (सात्वत) यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।
सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है।
सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है।
सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है।
अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है। यह गुप्त काल था जब भागवत धर्म अपने चरम पर था।सभी गुप्त राजा परमभागवत की उपाधि अपने नाम के अन्त में लगाते थे यही वो काल था जब भगवान श्रीकृष्ण सी बहुतायत नीतियों का निर्माण हुआ।
सातत्व का शाब्दिक अर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (४) यदुवंशी । यादव (५) परन्तु मनुस्मृति-संहिता के अनुसार सात्वत एक वर्ण संकर जाति है ।जिसकी उत्पत्ति जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान सात्वत के अनुयायी । प्राचीन ग्रन्थों में ये सात्वत वैष्णव हैं (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
विशेषण (१) विष्णु से संबंधित । वैष्णव (२) भक्त (३) पंचरात्र से संबंधित
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मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को भी वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।
"ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः॥[मनु स्मृति 10.15]
उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) उसमें ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं ।
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जबकि स्मृतियों से पूर्व लिखित ग्रन्थ पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व सिद्ध होता है जब कोई वर्णसंकर जाति भी सृष्टि में नहीं थी तब अहीर थे । अत: अहीरों को वर्णसंकर कहना शास्त्रकार की मूढ़ता का परिचायक है ।
अहीर वह प्राचीनतम जाति है जिसमें सतयुग को प्रारम्भ में ही गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
अत: अहीर प्रत्येक रूप में वैष्णव ही हैं ।
और इनकी सात्विकता तथा सदाचार या वर्णन सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण भी करता है।
"धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया (गायत्र्या) तारितो गच्छ ( युवां भो ! आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान् ।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
हिन्दी अनुवाद -★
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।१५।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।१६।
और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) तब होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।१७।
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स्कन्दपुराणनागर खण्ड-में भी गायत्री की कथा-का वर्णन निम्न लिखित है।
"
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
(तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥
तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि ॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं (गोपसंज्ञितः) ॥
तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥ १२ ॥
एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः ॥
तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि ॥ १३॥
तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः।१४॥
यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥
भोभोः शक्र भवानुक्तो यत्तया कोपयुक्तया ॥
पराजयं रिपोः प्राप्य कारागारे पतिष्यति ॥ १६ ॥
तन्मुक्तिं ते स्वयं ब्रह्मा मद्वाक्येन करिष्यति।१७।
ततः प्रविष्टः संग्रामे न पराजयमाप्स्यसि ॥
त्वं वह्ने सर्वभक्षश्च यत्प्रोक्तो रुष्टया तया ॥ १८ ॥
तदमेध्यमपि प्रायः स्पृष्टं तेऽर्च्चिर्भिरग्रतः ॥
मेध्यतां यास्यति क्षिप्रं ततः पूजामवाप्त्यसि।१९ ।
स्वाहा नाम च भार्या या देवान्सन्तर्पयिष्यति॥
स्वधा चाऽपि पितॄन्सर्वान्मम वाक्यादसंशयम्॥६.१९३.२।
यद्रुद्र प्रियया सार्धं वियोगः कथितस्तया ॥
तस्याः श्रेष्ठ तरा चान्या तव भार्या भविष्यति ॥
गौरीनामेति विख्याता हिमाचलसुता शुभा ।२१ ॥
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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।१९३।
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यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥
स्कन्दपुराण को नागर खण्ड में वर्णन है कि गोपा अथवा आभीर जहाँ भी रहेंगे वहीं वहीं मेरे वंश के प्रभाव से सभी देवता और लक्ष्मी निवास करेंगे चाहें वह स्थान वन ही क्यों न हो!!
वास्तव में वैष्णव ही इन अहीरों का अपना वर्ण है विष्णु" का एक मत्स्य मानव के रूप में जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णन है वे वहाँ भी विष्णु एक सुमियिन देवता है।
वे विष्णु ही वेदों में गोप के रूप में गायों का पालन करता है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेते हैं । और यह
अहीर शब्द भी अपने पूर्व में वीर शब्द का रूपान्तरण होता है।
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"विदित हो की "आभीर शब्द अभीर शब्द का समूह वाची रूप है।
परन्तु परवर्ती शब्दकोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की। है जैसे क्रमश: देखें-
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यह प्रथम उत्पत्ति अमरसिंह के शब्दकोश अमरकोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोशकार
(२)-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति (अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर: ) के रूप में की अमरसिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
तो तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि अहीर ही गो और महिष पालने वाले "वीर" चरावाहे थे !
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शलआर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है
क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
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अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि "अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका के जिम्बाब्वे में था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थी ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।
परन्तु परवर्ती पुराण तथा स्मृतियों में अहीरों की महानता से द्वेष रखने वाले पुरोहितों ने अहीरों को शूद्र और व्यभिचारी रूप में वर्णित किया है ।
जैसा कि वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को मानते हुए भी स्कन्द पुराण ,नान्दी उपपुराण, और लक्ष्मी नारायणसंहिता आदि ग्रन्थों में अहीरों को सावित्री के शाप के बहाने से दुराचारी तक बताया गया है ।
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा शक्रं प्रोवाच सादरम् ॥
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥
सहस्राक्षं त्वया कष्टं मन्मखे विपुलं कृतम् ॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा ॥ ६.१९०.५०
॥ -स्कन्दपुराण नागर खण्ड १९०
स्कन्द पुराण के १९२ वें अध्याय में प्रक्षेप रूप में
गायत्री का नामकरण कथानक का भाव कम शं भंग करके शंकर( ईश्वर) के द्वारा गायत्री का नामकरण कराया गया जबकि इससे इसी नागरखण्ड के पहले १९०वें अध्याय में अहीर कन्या को गायत्री नाम पहले से ही ब्रह्मा को द्वारा संबोधित है।
और तो और इस पुराण के इस खण्ड में अहीरों को अपवित्र तथा उनकी स्त्रियों को बहुत से पतियों वाली बताकर दुराचारी रूप नें दर्शाया है ।
स्कन्दपुराणम्- खण्डः ६ (नागरखण्डः)अध्यायः १९२वाँ अध्याय-
॥ सूत उवाच ॥
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम् ॥
नारदः सम्मुखः प्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम्॥ १॥
प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥
आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये ॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरः स्थितः ॥३॥
मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे ॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम् ॥४॥
स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता॥५॥
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ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता ॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥ ६ ॥
गोमुख में प्रवेश कराकर गुदा मार्ग से निकालने पर गायत्री नाम का विधान तथा आभीर कन्या को ब्राह्मणी बनाना-★
गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात् ॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात् ॥७॥
सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता ॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥८॥
ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्॥
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो॥९॥
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देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम् ॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम् ॥६.१९२. १० ॥
किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता ॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि॥११॥
तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात् ॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥१२॥
एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥ १३॥
तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः ॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥१४ ॥
लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥१५॥
प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता ॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥ १६ ॥
संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी ॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम् ॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा ॥ १७ ॥
धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम् ॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥ १८ ॥
॥ गौर्युवाच ॥
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः ॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः ॥ १९ ॥
अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः ॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये ॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति ॥ ६.१९२.२० ॥
ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित् ॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः ॥ २१ ॥
स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः ॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२॥
॥ सूत उवाच ॥
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता ॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥ २३ ॥
प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा ॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥२४॥
कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः ॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥ २५ ॥
प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती ॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे ॥२६॥
शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥२७॥
ततः कृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम् ॥२८॥
अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम् ॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रः संस्थितोऽधोमुखो ह्रिया।२९॥
तथा शम्भुश्च शक्रश्च (वासुदेवस्तथैव) च ॥
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे ॥ ६.१९२.३०॥
ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥
अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
॥ सावित्र्युवाच ॥
किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम्।३३।
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उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः ॥
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः ॥३४॥
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यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्॥ ३५॥
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तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥३६॥
विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च॥९
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम् ॥३७॥
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कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात्॥३८।
अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् ॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥
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अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये ॥ ६.१९२.४०॥
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नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥
प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥
अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥
मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥
न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मेस्ति ऋतं क्वचित्॥४४॥
पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥
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पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥
अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥
अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥
द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥
अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥
न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥ ५२॥
कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥
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एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४॥
तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥
अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥५६ ॥
अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥
भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ॥५८॥
एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९॥
न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥
करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता ॥ ६१ ॥
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पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका ॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा ॥ ६२ ॥
एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३ ॥
अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः ॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम् ॥ ६४॥
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ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥
तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६ ॥
कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥
अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८ ॥
समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥ ६९ ॥
जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम् ॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति ॥ ६.१९२.७० ॥
यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका ॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः ॥ ७१ ॥
तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२ ॥
स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः ॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥ ७३ ॥
एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः ॥
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते। ७४ ॥
वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥ ७५ ॥
दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥ ७६ ॥
भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे ॥
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति ॥७७ ॥
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तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः ॥
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥ ७८॥
संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥ ७९ ॥
एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः ॥
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः ॥ ६.१९२.८० ॥
मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः ॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥ ८१ ॥
नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ ॥
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम् ॥
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः ॥ ८२ ॥
॥ सूत उवाच ॥
एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा ॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताः सर्वा याः पार्श्वतः स्थिताः ॥ ८३ ॥
उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः ॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥
तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः ॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम् ॥८५॥
एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि ॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥
अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥ ८७ ॥
अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः ॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥ ८८ ॥
यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः ॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥ ८९ ॥
॥ सूत उवाच ॥
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया ॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा ॥ ६.१९२.९० ॥
यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा ॥९१॥
या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥ ९२ ॥
यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः ॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति ॥
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥
पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना। ॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका ।९४ ॥
या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः ॥
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ॥९५ ॥
यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च ॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥ ९६ ॥
यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च ॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ॥९७॥
सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा ॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥ ९८ ॥
मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः ॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥
यः श्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः ॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः ॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१०० ॥
यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥१०१॥
सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः॥
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी ॥१०२॥
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यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः ॥
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ १०३ ॥
दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ॥१०४॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः ॥१०५॥
सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥१०६॥
एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः ॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥१०७॥
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९२ ॥
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जबकि पद्मपुराण अहीरों को सदाचारी को रूप में वर्णन करता है ।
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जिन अहीरों की जाति में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को भी वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का भी जन्म होता है
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है ;।
"परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा अत: सभी यदुवंश को लोग कालान्तर में अहीर नाम से भी जाने जाते रहे हैं ।
यदु और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम् मण्डल के बासठवें सूक्त की दशम ऋचा में गायों से घिरा हुआ गायों के दाता और त्राता के रूप में स्तुत्य किया गया है ।
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न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ॥९॥
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥
सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
सावर्णेर्देवाः प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम् ॥११॥
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प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते ॥८॥
पदपाठ-
प्र । नूनम् । जायताम् । अयम् । मनुः । तोक्मऽइव । रोहतु ।यः । सहस्रम् । शतऽअश्वम् । सद्यः । दानाय । मंहते ॥८।
भाष्य-
“अयं सावर्णिः “मनुः "नूनं क्षिप्रं “प्र “जायतां =प्रजातो भवतु । धनादिभिः पुत्रादिभिश्च “रोहतु प्रादुर्भवतु । तत्र दृष्टान्तः । “तोक्मेव । यथा जलक्लिन्नं बीजं प्रादुर्भवति एवं कर्मफलसंयुक्तः स मनुः पुत्रादिभिः रोहतु । “यः अयं मनुः “शताश्वं बह्वश्वसंयुक्तं “सहस्रं गवां “सद्यः तदानीमेव “दानाय= “मंहते अस्मा ऋषये दातुं प्रेरयति ॥८।
न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।
“तं सावर्णिं मनुं “कश्चन कश्चिदपि “आरभम् आरब्धुं स्वकर्मणा “न “अश्नोति न व्याप्नोति । यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् । “दिवइव द्युलोकस्य “सानु समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य “सावर्ण्यस्य मनोरियं गवादिदक्षिणा “सिन्धुरिव स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां “पप्रथे विप्रथते । विस्तीर्णा भवति।
उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा ।यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०
“उत =अपि च। "स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ। “गोपरीणसा= गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ।
“दासा =दातारौ दासृ =दाने
( दासति ददास दासिता दासत इत्यादि ) दाशतिवत् 878 (क्षीरतरंगिणीधातुपाठ)
स्थितौ =तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे = माहमहे ।
सहस्रऽदाः । ग्रामऽनीः । मा । रिषत् । मनुः । सूर्येण । अस्य । यतमाना । एतु । दक्षिणा ।सावर्णेः । देवाः । प्र । तिरन्तु । आयुः । यस्मिन् । अश्रान्ताः । असनाम । वाजम् ॥११
“सहस्रदाः गवादीनां सहस्रस्य दाता “ग्रामणीः ग्रामाणां नेता कर्ता जनपदानामयं “मनुः “मा “रिषत् न कैश्चिदपि रिष्टो हिंसितो भवतु । यद्वा । कर्मनेतॄनस्मान्मा हिनस्तु किंतु धनादिदानेन पूजयतु । “अस्य “यतमाना गच्छन्ती “दक्षिणा “सूर्येण सह “एतु संगच्छताम् । त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धा भवत्वित्यर्थः । तस्यास्य “सावर्णेः सवर्णपुत्रस्य मनोः “देवाः इन्द्रादयः “आयुः जीवन “प्र “तिरन्तु प्रवर्धयन्तु । “अश्रान्ताः कर्मसु अनलसाः सर्वं कर्म कुर्वन्तो वयं “यस्मिन् मनौ “वाजं गोलक्षणमन्नम् “असनाम संभजेमहि । नाभानेदिष्ठोऽहमलभ इत्याशास्ते ॥ २ ॥
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और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुष ,नहुष' और ययाति आदि का नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में भारतीयों को इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है।
क्यों कि अहीरों से यादव हैं नकि यादवों से अहीर।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है।
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं
सप्तऋषियों में गिने गये अत्रि ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । नकि जैविक अथवा मैथुनीय पुत्र!
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है कि प्रारम्भ में गोत्र नहीं थे ।
गोत्र की अवधारणा-"†
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं।
जो ब्राह्मा के पुत्र अत्रि की भी माता सिद्ध होती है
अत्रि- सप्तर्षियों में से एक । विशेष—ये ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं । इनकी स्त्री अनुसूया थीं । दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम इनके पुत्र थे ।
इनका नाम दस प्रजापतियों में भी है।
और जब आभीर कन्या गायत्री का विवाह ब्रह्मा से होता है तब अत्रि ऋषि स्वयं पुरोहित बनते हैं।
अत: अहीरों का गोत्र अत्रि केवल पुरोहित के आधार पर है। सोम जो कि सैमेटिक जन जाति के एक पूर्वज गा नाम है ।
जिसे भारतीय पुराणकारों ने चन्द्रमा के रूप में कल्पित किया।
सोम का सम्बन्ध भी आभीर जाति से सम्बन्धित है।
अत्रि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे जिन्हें सैमेटिक मिथकों में "तिरह" अथवा तेराह के रूप में वर्णन कर दिया है और भारतीय पुराणों में ब्रह्मा का मानस पुत्र अत्रि कर दिया है ।
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अत्रिर्होतार्चिकस्तत्र पुलस्त्योऽध्वर्युरेव च॥
उद्गाताऽथो मरीचिश्च ब्रह्माहं सुरपुंगवः॥7.1.165.३०॥
(स्कन्दपुराणम् | खण्डः ७ (प्रभासखण्डः) | प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्
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परन्तु अहीर जाति का अत्रि और सोम से क्या सम्बन्ध हैं भारतीय पुराणकार यह स्पष्ट नहीं कर पाए क्यों कि पुराण कारों नें यह कथाऐं कनानी और हिब्रू संस्कृतियों से ग्रहण की हैं ।
कनानी मिथकों में एब्राहम को जगत का पिता बताया गया है ।
सुमेर के "उर नामक नगर में जिनका जन्म हुआ था।
भारतीय पुराणों में वर्णित जगत पिता की जैविक समानता सैमेटिक मिथकों से मिलती जुलती है ।कुछ अतिरञ्जनीओं ने कथाओं में परस्पर भिन्नताओं को स्थापित कर दिया है।
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तेरह के पुत्र अब्राहम को ही सैमेटिक मिथकों में जगत का पिता माना गया है । एब्राहम ब्रह्मा का रूपान्तरण है।
हिब्रू कुलपति
वैकल्पिक शीर्षक: अब्राम, अवराम, अवराम, इब्राहीमी
प्रमुख प्रश्न
इब्राहीम क्यों महत्वपूर्ण है?
इब्राहीम कहाँ का था?
इब्राहीम का परिवार कैसा था?
अब्राहम किस लिए जाना जाता है?
अब्राहम किसमें विश्वास करता था?
सांस्कृति रूप से इन मान्यताओं में भिन्नता है।
इब्राहीम , हिब्रू में अव्राहम , जिसे मूल रूप से अब्राम कहा जाता है या, हिब्रू में, अवराम , (शुरुआती दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में फला-फूला नाम ) ,
हिब्रू पितृसत्ताओं में से पहला और तीन महान एकेश्वरवादी धर्मों- यहूदी धर्म , ईसाई धर्म और इस्लाम द्वारा सम्मानित व्यक्ति का नाम।
बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार , अब्राहम ने मेसोपोटामिया में ऊर नगर को छोड़ दिया , क्योंकि ईश्वर ने उसे एक अज्ञात भूमि में एक नया राष्ट्र खोजने के लिए बुलाया।
जिसे बाद में उसने सीखा कि वह देश कनान था । उसने निर्विवाद रूप से परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन किया
जिनसे उसे बार-बार वादे और एक वाचा मिली कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा।
यहूदी धर्म में वादा किया गया वंश समझा जाता है कि यहूदी लोग इब्राहीम के बेटे
यहूदी इसहाक से पैदा हुए थे, जो उनकी पत्नी सारा से पैदा हुए थे ।
इसी तरह, ईसाई धर्म में यीशु की वंशावली का पता इसहाक से लगाया जाता है,।
और इब्राहीम के इसहाक के निकट-बलिदान को क्रूस पर यीशु के बलिदान के पूर्वाभास के रूप में देखा जाता है।
इस्लाम में यह इश्माएल है, इब्राहीम का जेठा पुत्र, हाजिरा से पैदा हुआ , जिसे ईश्वर के वादे की पूर्ति के रूप में देखा जाता है, और पैगंबर मुहम्मद उसके वंशज हैं।
जोजसेफ मोलनार: द मार्च ऑफ अब्राहम
जोज़सेफ मोलनार: अब्राहम का मार्च
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फला-फूला: c.2000 ईसा पूर्व - c.1501 ईसा पूर्व उर
उल्लेखनीय परिवार के सदस्य: पत्नी सारा पुत्र इसहाक
अब्राहम की "जीवनी" की गंभीर समस्या
सामान्य अर्थों में अब्राहम की कोई जीवनी नहीं हो सकती।
सबसे अधिक जो किया जा सकता है वह यह है कि आधुनिक ऐतिहासिक खोजों की व्याख्या को बाइबिल सामग्री पर लागू किया जाए ताकि उसके जीवन में घटनाओं की पृष्ठभूमि और पैटर्न के बारे में एक संभावित निर्णय पर पहुंचा जा सके।
इसमें पितृसत्तात्मक युग का पुनर्निर्माण शामिल है (अब्राहम, इसहाक , जैकब , और जोसेफ ; प्रारंभिक 2 सहस्राब्दी ईसा पूर्व ), जो 19 वीं शताब्दी के अंत तक अज्ञात था।
और लगभग अनजाना माना जाता था। यह माना गया था, काल्पनिक बाइबिल स्रोतों की एक अनुमानित डेटिंग के आधार पर , कि बाइबिल में पितृसत्तात्मक कथाएं बहुत बाद की अवधि (9वीं -5 वीं शताब्दी) की स्थिति और चिंताओं का एक प्रक्षेपण मात्र थीं।
ईसा पूर्व ) और संदिग्ध ऐतिहासिक मूल्य।
आख्यानों की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए गए थे- उदाहरण के लिए, कि पितृसत्ता पौराणिक प्राणी या जनजातियों या लोककथाओं या etiological (व्याख्यात्मक) आकृतियों के व्यक्तित्व थे जिन्हें विभिन्न सामाजिक, न्यायिक या सांस्कृतिक प्रतिमानों के लिए बनाया गया था।
हालांकि, प्रथम विश्व युद्ध के बाद , पुरातात्विक अनुसंधान ने स्मारकों और दस्तावेजों की खोज के साथ काफी प्रगति की है, जिनमें से कई पारंपरिक खाते में पितृसत्ताओं को सौंपी गई अवधि के हैं।
एक शाही महल की खुदाई उदाहरण के लिए, यूफ्रेट्स (फरात नदी) पर एक प्राचीन शहर मारी , हजारों क्यूनिफॉर्म टैबलेट (आधिकारिक अभिलेखागार और पत्राचार और धार्मिक और न्यायिक ग्रंथ) को प्रकाश में लाया और इस तरह व्याख्या को एक नया आधार प्रदान किया, जिसका उपयोग विशेषज्ञों ने यह दिखाने के लिए किया, बाइबिल की पुस्तक में उत्पत्ति , कथाएं अन्य स्रोतों से पूरी तरह से फिट बैठती हैं,
जो आज दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में जानी जाती हैं, लेकिन बाद की अवधि के साथ अपूर्ण रूप से जानी जाती हैं।
1940 के दशक में बाइबल के एक विद्वान ने इस परिणाम को "पुराने नियम की पुनः खोज" कहा।
इस प्रकार, पिता इब्राहीम की आकृति के पुनर्निर्माण के लिए दो मुख्य स्रोत हैं: उत्पत्ति की पुस्तक- तेरह (अब्राहम के पिता) की वंशावली से और अध्याय 11 में ऊर से हारान के लिए उनके प्रस्थान से अध्याय 25 में अब्राहम की मृत्यु तक और हाल ही में उस क्षेत्र और युग से संबंधित पुरातात्विक खोज और व्याख्या जिसमें बाइबिल का वर्णन होता है।
बाइबिल खाता
बाइबिल के खाते के अनुसार, अब्राम ("पिता [या भगवान] ऊंचा है"), जिसे बाद में इब्राहीम ("कई राष्ट्रों का पिता") नाम दिया गया, जो एक मूल निवासी थामेसोपोटामिया में उर ,
परमेश्वर (यहोवा) द्वारा अपने देश और लोगों को छोड़ने और एक अज्ञात भूमि की यात्रा करने के लिए कहा जाता है, जहां वह एक नए राष्ट्र का संस्थापक बन जाएगा।
वह निर्विवाद रूप से कॉल का पालन करता है और (75 वर्ष की आयु में) अपनी बंजर पत्नी, सराय के साथ आगे बढ़ता है, जिसे बाद में नाम दिया गया सारा ("राजकुमारी"), उसका भतीजा लूत, और अन्य साथियों की भूमि के लिए कनान ( सीरिया और मिस्र के बीच )।
वहाँ निःसंतान सेप्टुजेनेरियन को बार-बार वादे और परमेश्वर से एक वाचा प्राप्त होती है कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा और एक असंख्य राष्ट्र बन जाएगा।
आखिरकार, उनका न केवल एक बेटा है,इश्माएल , अपनी पत्नी की दासी द्वारा हाजिरा लेकिन, 100 वर्ष की आयु में, सारा द्वारा एक वैध पुत्र है,इसहाक , जो वचन का वारिस होगा।
फिर भी इब्राहीम इसहाक को बलिदान करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार है, जो उसके विश्वास की परीक्षा है, जिसे अंत में पूरा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमेश्वर एक मेढ़े को प्रतिस्थापित करता है।
सारा की मृत्यु पर, वह खरीदता है मकपेला की गुफा के पास हेब्रोन , साथ में आसपास के मैदान के साथ, एक परिवार के दफन स्थान के रूप में।
यह इब्राहीम और उसकी भावी पीढ़ी द्वारा वादा की गई भूमि के एक टुकड़े का पहला स्पष्ट स्वामित्व है।
अपने जीवन के अंत में, वह यह देखता है कि उसका बेटा इसहाक एक कनानी महिला के बजाय मेसोपोटामिया में अपने ही लोगों की एक लड़की से शादी करता है।
इब्राहीम की 175 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाती है और उसे सारा के बगल में मकपेला की गुफा में दफनाया जाता है।
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यद्यपि गायत्री को भारतीय पुराणों में ब्रह्मा की पत्नी तो बताया है परन्तु गायत्री को पुराणों में ब्राह्मी शक्ति न मानकर वैष्णवी शक्ति का अवतार माना हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंशसमुद्भवा के रूप में नन्दजा भी होता है ।
पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है।
पौराणिक इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं।
कहा जाता है एक बार पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया।
लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।
तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
*-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
*-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
______
*******************************
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
अनया (गायत्र्या )तारितो गच्छ (यूयं भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
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अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्म जी ने कहा–
भरतश्रेष्ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।
एकमात्र सनातन भगवान स्वयम्भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्वयम्भू ब्रह्मा के सात महात्मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्ठ।
ये सभी स्वयम्भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्त प्रजापतियों का वर्णन आरम्भ करता हूँ।
अत्रिकुल मे उत्पन्न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्पन्न हूँ।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।
दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।
उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं।
उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’श्यप मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्हें कश्यप के नाम से जानते हैं।
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्होंने सहस्त्र दिव्य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्तम स्रष्टा) कहे गये हैं।
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्दु के दस हजार स्त्रियाँ थी।
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो ।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -
इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।
उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे।
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।
इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति।
छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।
विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे।
यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं। फिर भी इतिहास की इन कथाओं पर मिथकों और कल्पनाओं की मोटी परत चढ़ी हुई है।
अत: इन कथाओं को प्रतीकात्मक रूप में ही ग्रहण करें यथार्थ रूप में नहीं -
प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि"-
8077160219-
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