शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

पाराशर की काम-पिपास


रूपसत्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्।।६८।

आसीत्सा मत्स्यगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम्।।६९।

तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः।
अतीव रूपसंपन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम्।।७०।

दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरूं मुनिपुङ्गवः।।७१।


संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।।     
विस्मयाविष्टसर्वाङ्गी जातिस्मरणतां गता।
साब्रवीत्पश्य भगवन्परपारे स्थितानृषीन्।७२।


आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान्नीहारमसृजत्प्रभुः।।७३।

येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा।।७४।

विस्मिता साभवत्कन्या व्रीडिता च तपस्विनी।

सत्यवत्युवाच।
विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम्।।७५।

त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममाऽनघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम।।७६।


गृह गन्तुमुषे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे।
एतत्संचिन्त्य भगवन्विधत्स्व यदनन्तरम्।।७७।


वैशंपायन उवाच।
एवमुक्तवतीं तु प्रीतिमानुषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यति।।७८।


वृणीष्व च वरं भीरुं यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते।।७९।

एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
सचास्यै भगवान्प्रादान्मनः काङ्क्षितं भुवि।।८०।

ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाऽद्भुतकर्मणा।।८१।

तेन गन्धवतीत्येवं नामास्या: प्रथितं भुवि।
तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि।।८२।
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।

इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम्।।८३।

पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।।८४।

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स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।-८५

एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तोद्वीपे यद्बालस्तस्माद्द्वैपायनःस्मृतः।।८६।
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(निर्णय सागर प्रेस संस्करण में आदिपर्व चतुष्षष्टितमोऽध्याय: 64)
(गीताप्रेस संस्करण में आदिपर्व त्रिषष्टितमोऽध्याय: 63)


तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत ।
वरैर् असुलभेैर् उक्ता न प्रत्याख्यातुम् उत्सहे।।१०।
भारत ! सत्यवती भीष्म को अपने बाल्यावस्था की एक घटना को बताते हुई कहती है जब वह यमुना में नाव चलाया करती थी ।


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" तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत ।
वरैर् असुलभेैर् उक्ता न प्रत्याख्यातुम् उत्सहे।।१०।

अभिभूय स माम् बालां तेजसा वशम् आनयत्।
तमसा लोकम् आवृत्य नौगतामेव भारत !)।११।

जब महर्षि पाराशर एक बार यमुना के दूसरी पार जिस नाव में बैठकर जा रहे थे तब उस नाव को चलाने वाली एक बारह साल की लड़की सत्यवती थी एकान्त में उस सुन्दर कन्या को देखकर ऋषि का काम भव
 जाग्रत हो गया और उस कन्या से सैक्स करने की इच्छा की परन्तु कन्या को एक तरफ अपने पिता और परिवार का डर था तो दूसरी ओर यह डर भी था कि कहीं ऋषि उसे शाप न देदें
दुर्लभ वर के द्वारा कह मुझसे संभोग किया जिससे मैं उनसे मना मकर सकी।
मुझे अपने तेजसे दबाकर अन्धेरा करके नाव में ही मेरे साथ संभोग किया।


(महाभारत आदिपर्व सम्भवपर्व का 
एकसौ चारवाँ अध्याय -गीताप्रेस संस्करण)

पुराणों ऋषि लोग असम्भव को सम्भव और सम्भव को असम्भव तो कर देते थे ; परन्तु अपनी कामवासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर पाते थे  जैसे एक बार  मत्स्य रूप में अद्रि नामक अप्सरा के मत्स्य और  मत्स्या  पुत्री हुई मत्स्यासे उत्पन्न  सत्यवती का जन्म जुड़वां रूप में हुआ मत्स्य को राजा उपरिचर ने ग्रहण किया और सत्यवती को मल्लाहों के मुखिया ने ।
जब सत्यवती पिता के साथ यमुना नदी में नाव चलाया करती थी।

 एक बार तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से विचरते हुए पाराशर मुनि ने उस कन्या को देखा तो परम बुद्धिमान पाराशर ने उस कन्या के साथ मैथुन करने की इच्छा की दूसरे लोगों से बचने के लिए पाराशर मुनि ने कुहरे (नीहार) की सृष्टि करदी ऋषि ने उस कन्या के साथ खूब रमण ( मैथुन ) किया कि तत्काल ही  एक शिशु को जन्म दिया उसका व्यास नाम  हुआ।
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महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 63-80
त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: आदि पर्व(अंशावतरण पर्व)


महाभारत: आदि पर्व: त्रिषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद

मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालाकों में से जो पुरुष था, उसे स्‍वयं ग्रहण कर ‍लिया। 
वही मत्‍स्‍य नामक धर्मात्‍मा एवं सत्‍यप्रतिज्ञ राजा हुआ। इधर वह शुभलक्षणा अप्‍सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। 
भगवान् ब्रह्मा जी ने पहले ही उससे कह दिया था कि 'तिर्यग योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्‍म देकर शाप से छूट जाओगी।’
 अत: मछली मारने वाले मल्‍लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्‍म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्‍य रुप को प्राप्त हो गयी। 
इस प्रकार वह सुन्‍दरी अप्‍सरा सिद्ध म‍हर्षि और चारणों के पथ से स्‍वर्गलोक चली गयी।
 उन जुड़वी संतानों में जो कन्‍या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्‍ध आती थी।
 अत: राजा ने उसे मल्‍लाह को सौंप दिया और कहा- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे’। 
वह रुप और सत्त्‍व (सत्‍य) से संयुक्त तथा समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्न होने के कारण ‘सत्‍यवती’ नाम से प्रसिद्ध हुई।

मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्‍कान वाली कन्‍या कुछ काल तक मत्‍स्‍यगन्‍धा नाम से ही विख्‍यात रही। 
वह पिता की सेवा के लिये यमुना जी  के जल में नाव चलाया करती थी।
 एक दिन तीर्थयात्रा के उद्देश्‍य से सब ओर विचरने वाले म‍हर्षि पराशर ने उसे देखा।
 वह अतिशय रुप सौन्‍दर्य से सुशोभित थी।
 सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। 
उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। 
उस दिव्‍य वसुकुमारी को देखकर परमबुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्‍छा प्रकट की। और कहा- कल्‍याणी! मेरे साथ संगम करो।
 वह बोली- 'भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। 
और हम दोनों को देख रहे हैं। 
ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ 
उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली भगवान पराशर ने कुहरे की सृष्टि की।

जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्‍छादित-सा हो गया। 
महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्‍या आश्‍चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी। सत्‍यवती ने कहा- भगवन! 
आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्‍या हूँ।
 निष्‍पाप महर्षे! आपके संयोग से मेरा कन्‍या भाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा।
 द्विजश्रेष्ठ! कन्‍या भाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान मुनिश्‍वर! 
अपने कन्‍यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती।
 भगवन! इस बात पर भलि-भाँति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये।

 सत्‍यवती के ऐसा कहने पर मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले- ‘भीरु ! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्‍या ही रहोगी।
 भामिनी! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्‍यर्थ नहीं गया है’।
 महर्षि के ऐसा कहने पर सत्‍यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्‍ध होने का वरदान मांगा।
 भगवान पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया।

महाभारत: आदि पर्व: त्रिषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 81-92 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्‍तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्‍नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम किया। 
उसके शरीर से उत्तम गन्‍ध फैलने के कारण पृथ्‍वी पर उसका गन्धवती नाम विख्‍यात हो गया। 
इस पृथ्‍वी पर एक योजन दूर के मनुष्य भी उसी दिव्य सुगन्ध का अनुभव करते थे इस कारण उसका दूसरा नाम योजनगन्धा हो गया। 




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