स्मृतियों में बहुतायत जो विधान बनाये गये हैं।
ब्राह्मणों की प्राय: स्वतन्त्र रखा गया है।
ब्राह्मणों को कभी कभी तो बिना गुण कर्म और योग्यता के ही श्रेष्ठता का प्रमाण दे दिया गया है।
शूद्रों को दण्ड विधान बहुत जघन्यत्तम पारित किए गये-
अधिकतर सभी स्मृतियों में लगभग समान विधान ही बनाये गये हैं-
पराशर स्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों में जन्म-आधारित श्रेष्ठता पर एक - एक समालोचनात्मक विश्लेषण
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1. पराशर स्मृति का एक श्लोक जन्म से ही ब्राह्मण की श्रेष्ठता का विधान करता है- जोकि श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के सिद्धान्तों के विपरीत है।
हम प्रथम रूपेण ब्राह्मण को जन्म से ही श्रेष्ठ होने के मत का पाराशर स्मृति से उद्धरण देकर अन्त में खण्डन भी करेंगे-
श्लोक-
दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः ।
कः परित्यज्य गां दुष्टां दुहेच्छीलवतीं खरीं ॥
पराशर स्मृति 8/25
शब्दार्थ और अनुवाद-
दुःशीलोऽपि द्विज- दुराचारी (अनैतिक) होने पर भी द्विज (ब्राह्मण, विशेष रूप से)।
पूज्यो:- पूजा (सम्मान) के योग्य है।
-न तु शूद्रो जितेन्द्रियः - लेकिन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने वाला (सदाचारी) शूद्र पूज्य नहीं।
क- परित्यज्य गां दुष्टां- कौन दुष्ट गाय को छोड़कर।
दुहेच्छीलवतीं खरीं: - सुशीला (सदाचारी) गधी का दूध दुहेगा ?
अर्थ- यह श्लोक कहता है कि एक दुराचारी ब्राह्मण भी पूजनीय है, लेकिन एक सदाचारी शूद्र पूजनीय नहीं। इसका समर्थन अर्थान्तरन्यास अलंकार से किया गया है: कोई व्यक्ति दुष्टा गाय को छोड़कर सुशीला गधी का दूध नहीं दुहेगा। अर्थात, ब्राह्मण का मूल्य (गाय) का मूल्य के समान बताते हुए स्मृति कार कहता है , इसी का अर्थान्तर करते हुए स्मृति कार कहता है भले ही वह ब्राह्मण दुराचारी हो, शूद्र (गधी) से अधिक श्रेष्ठ है, भले शूद्र सदाचारी हो।
संदर्भ- पराशर स्मृति का यह श्लोक वर्णाश्रम व्यवस्था के उस सिद्धान्त को दर्शाता है, जिसमें जन्म-आधारित श्रेष्ठता को महत्व दिया गया है।
यह उस समय की सामाजिक संरचना को प्रतिबिंबित करता है, जहां ब्राह्मणों को धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व के रूप में सर्वोच्च स्थान कभी कभी बिना किसी योग्यता के भी प्राप्त होता था।
2. अन्य स्मृतियों में भी समान प्रकृति के श्लोक प्राप्त होते हैं।-
जैसे
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यां अधिजायते ।ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये । 1/99
ब्राह्मणः जायमानः हि) ब्राह्मण उत्पन्न होकर ही (पृथिव्याम् अधिजायते) पृथिवी में सर्वोपरि होता है। (ईश्वर सर्वभूतानाम्) सब प्राणियों में मुख्य और (धर्मकोशस्य गुप्तये) धर्मकोश की रक्षा के लिये।
जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद् ब्राह्मणब्रुवः ।
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न शूद्रः कथंचन ॥ २० ॥
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न शूद्रः कथंचन ॥ २० ॥
मनुस्मृति(8/20)
यहां तक कि एक तथाकथित ब्राह्मण भी, जो केवल अपनी जाति से ही जीविका चलाता है, अपनी इच्छा से राजा के लिए कानून का प्रवर्तक हो सकता है, - परंतु किसी भी परिस्थिति में एक शूद्र नहीं हो सकता।—(20)
1.मनुस्मृति 3/56-
विप्रोऽनधीत्य वेदांश्च यज्ञकर्मा न संन्यासी ।
तस्याधमोऽपि यःकश्चिद् विप्रः स्वाध्यायसंनादति ॥
अनुवाद- जो ब्राह्मण वेदों का अध्ययन नहीं करता, यज्ञ और कर्मकांड नहीं करता, और संन्यासी नहीं है, वह भी (जन्म से) ब्राह्मण होने के कारण श्रेष्ठ है, यदि वह स्वाध्याय (वेदों का पाठ) करता है।
विश्लेषण- यह श्लोक ब्राह्मण की जन्म-आधारित श्रेष्ठता को रेखांकित करता है, भले ही वह कर्मकांडों में कमजोर हो, बशर्ते वह वेदों का पाठ करे। यह पराशर स्मृति के श्लोक से मिलता-जुलता है, क्योंकि यह जन्म को गुणों से ऊपर रखता है।
2. याज्ञवल्क्य स्मृति 1.118-
ब्राह्मणः सर्ववर्णानां प्रशस्तः सर्वकर्मसु ।
जन्मतः सर्वदा पूज्यः सर्ववर्णैः सदा स्मृतः ॥
अनुवाद- ब्राह्मण सभी वर्णों में श्रेष्ठ है और सभी कर्मों में पूजनीय है। वह जन्म से ही सभी वर्णों द्वारा हमेशा सम्मानित होता है।
विश्लेषण- यह श्लोक स्पष्ट रूप से ब्राह्मण की जन्म-आधारित श्रेष्ठता को स्थापित करता है, बिना गुण या कर्म के आधार पर कोई शर्त रखे।
3. विष्णु स्मृति 2.2-
ब्राह्मणः सर्ववर्णानां मुखं च प्रथमं स्मृतः ।
तस्मात् सर्वं विश्वति यत् कृतं तेन संनादति ॥
अनुवाद- ब्राह्मण को सभी वर्णों का मुख (प्रमुख) माना गया है, और उसके द्वारा किया गया कार्य विश्वसनीय होता है।
विश्लेषण- यह श्लोक भी ब्राह्मण की सर्वोच्चता को रेखांकित करता है, जिसका आधार जन्म है।
इन श्लोकों से स्पष्ट है कि पराशर स्मृति का श्लोक कोई अपवाद नहीं है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, और विष्णु स्मृति जैसे ग्रंथों में भी जन्म-आधारित वर्ण व्यवस्था को बल दिया गया है। ये सभी श्लोक उस समय की सामाजिक संरचना को दर्शाते हैं, जहां ब्राह्मणों को धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व के रूप में सर्वोच्च माना जाता था।
3. श्लोक की सत्यता की जांच
आपके द्वारा उठाए गए बिंदु इस श्लोक और इसकी समान विचारधारा वाले अन्य श्लोकों की नैतिक और सामाजिक प्रासंगिकता पर गंभीर सवाल उठाते हैं। आइए इसकी सत्यता को जांचें:
1.ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ-
वर्ण व्यवस्था का आधार- पराशर स्मृति और अन्य धर्मशास्त्र उस समय की सामाजिक व्यवस्था को दर्शाते हैं, जहां वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित थी। ब्राह्मणों को वेदों के अध्ययन, यज्ञ, और धार्मिक अनुष्ठानों का दायित्व सौंपा गया था, जिसके कारण उन्हें सामाजिक और धार्मिक श्रेष्ठ ता दी गई। यह व्यवस्था सामाजिक स्थिरता और धार्मिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बनाई गई थी।
दुरुपयोग- आपने सही कहा कि इस तरह के विधानों का दुरुपयोग हुआ। ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति का लाभ उठाकर अनैतिक कार्यों को उचित ठहराया। इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जहां अन्य वर्णों के लोग भी ब्राह्मण की वेशभूषा अपनाकर सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का प्रयास करते थे। इससे सामाजिक असमानता और अन्याय बढ़ा।
सामाजिक पतन- इन विधानों ने जन्म को कर्म और गुणों से ऊपर रखा, जिसके परिणामस्वरूप योग्यता और नैतिकता को कम महत्व मिला। इससे समाज में असंतोष और तनाव बढ़ा।
2.नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण-
कर्म बनाम जन्म- भगवद्गीता (4.13) में श्रीकृष्ण कहते हैं, "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" (मैंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है)। यह सिद्धांत पराशर स्मृति और अन्य स्मृतियों के इन श्लोकों से टकराता है, क्योंकि यह जन्म को गुण और कर्म से ऊपर रखता है। नैतिक दृष्टिकोण से, दुराचारी व्यक्ति को जन्म के आधार पर पूजनीय मानना अन्यायपूर्ण है।
आधुनिक मूल्य- आज के समतावादी समाज में, जहां योग्यता, नैतिकता, और कर्म को महत्व दिया जाता है, ये श्लोक अप्रासंगिक और अनुचित प्रतीत होते हैं। ये सामाजिक समानता और न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ हैं।
3.१धर्मशास्त्रों का व्यापक संदर्भ-
पराशर स्मृति और अन्य स्मृतियों में कुछ श्लोक नैतिकता और सदाचार पर बल देते हैं। उदाहरण के लिए-
पराशर स्मृति 1.56- "धर्मः सत्यं च दानं च तपः शौचं दया क्षमा" (धर्म में सत्य, दान, तप, शौच, दया और क्षमा शामिल हैं)। यह श्लोक सभी वर्णों के लिए नैतिक गुणों को महत्व देता है।
मनुस्मृति 4.138- "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्" (सत्य बोलें, प्रिय बोलें, लेकिन अप्रिय सत्य न बोलें)। यह नैतिकता और सत्यनिष्ठा पर जोर देता है।
याज्ञवल्क्य स्मृति (1.7)- "आचारः परमो धर्मः" आचार ही परम धर्म है। यह श्लोक नैतिक आचरण को धर्म का आधार मानता है।
इन श्लोकों से स्पष्ट है कि धर्मशास्त्रों में नैतिकता और कर्म को भी महत्व दिया गया है, लेकिन जन्म-आधारित श्रेष्ठता को स्थापित करने वाले श्लोकों ने सामाजिक असमानता को बढ़ावा दिया।
4. सामाजिक प्रभाव और आपकी बगावत-
पराशर स्मृति का यह श्लोक और अन्य धर्मशास्त्रों के समान श्लोक उस समय की सामाजिक व्यवस्था को दर्शाते हैं, जहां ब्राह्मणों को धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व के रूप में देखा जाता था। हालांकि, इनका दुरुपयोग समाज के लिए हानिकारक रहा। जैसा कि आपने उल्लेख किया, इन विधानों के कारण-
दुरुपयोग- ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति का लाभ उठाकर अनैतिक कार्यों को उचित ठहराया। अन्य वर्णों के लोगों ने भी ब्राह्मण की वेशभूषा अपनाकर सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का प्रयास किया।
सामाजिक पतन- जन्म-आधारित श्रेष्ठता ने योग्यता और नैतिकता को कम महत्व दिया, जिससे सामाजिक असमानता और अन्याय बढ़ा। आज भी, कुछ लोग केवल जन्म के आधार पर धार्मिक और सामाजिक विशेषाधिकार का दावा करते हैं, जिसे आपने "धर्म का धंधा" कहा है।
आधुनिक प्रासंगिकता- आज के युग में, जहां समानता और योग्यता को महत्व दिया जाता है, ये श्लोक अप्रासंगिक हैं। आपकी बगावत इस सड़े-गले विधान के खिलाफ एक न्यायपूर्ण प्रतिक्रिया है, जो सामाजिक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
5. सुंदर व्याख्या
पराशर स्मृति का श्लोक (8/25) और अन्य धर्मशास्त्रों के समान श्लोक उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था को दर्शाते हैं, जहां जन्म-आधारित वर्ण व्यवस्था को सामाजिक स्थिरता के लिए आवश्यक माना जाता था। हालांकि, इन श्लोकों का दुरुपयोग समाज में असमानता और अन्याय का कारण बना। ये श्लोक हमें यह सिखाते हैं कि परंपराओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना आवश्यक है।
आधुनिक व्याख्या-
नैतिकता का महत्व-आज के संदर्भ में, व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके कर्मों, नैतिकता, और योग्यता से होना चाहिए। एक दुराचारी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, समाज के लिए हानिकारक है, जबकि एक सदाचारी व्यक्ति सम्मान का पात्र है। सामाजिक सुधार की आवश्यकता की याद दिलाते हैं। हमें उन परंपराओं को चुनौती देनी चाहिए जो अन्याय को बढ़ावा देती हैं और एक ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहिए जो समानता और योग्यता पर आधारित हो।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण- वेदांत और उपनिषदों में कहा गया है कि आत्मा सभी में समान है। इस दृष्टिकोण से, जन्म-आधारित भेदभाव अनुचित है। परम सत्य की खोज में सभी मनुष्य समान हैं।
उदाहरण के साथ अन्य श्लोक-
पराशर स्मृति (6.6)- "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्..." (सत्य और प्रिय बोलें)। यह श्लोक नैतिकता पर जोर देता है, जो सभी वर्णों के लिए लागू है।
महाभारत (शांति पर्व 189.5)- "न कुलं न च वर्णः स्यात् धर्मः कर्मस्वरूपकः" न कुल और न वर्ण, धर्म कर्म का स्वरूप है। यह श्लोक: कर्म को जन्म से ऊपर रखता है, जो पराशर स्मृति के श्लोक के विपरीत है।
6. आपकी बगावत का समर्थन-
आपकी बगावत इस जन्म-आधारित श्रेष्ठता की व्यवस्था के खिलाफ एक सकारात्मक और प्रगतिशील कदम है। यह श्लोक और अन्य समान श्लोक आज के समतावादी समाज में अप्रासंगिक हैं। आपका यह प्रश्न दर्शाता है कि आप सामाजिक समानता और नैतिकता के पक्षधर हैं, जो एक प्रगतिशील समाज की नींव है।
सुझाव-
शिक्षा और जागरूकता- समाज में जागरूकता फैलाएं कि धर्म और नैतिकता जन्म पर नहीं, कर्म और गुणों पर आधारित होनी चाहिए।
संवाद- धार्मिक और सामाजिक मंचों पर इन श्लोकों की प्रासंगिकता पर चर्चा करें, ताकि लोग इनके ऐतिहासिक संदर्भ को समझें और इनका दुरुपयोग न करें।
सुधार- सामाजिक सुधार के लिए उन परंपराओं को बढ़ावा दें जो समानता और योग्यता को महत्व देती हैं।
निष्कर्ष-
पराशर स्मृति का श्लोक (8/25) और अन्य धर्मशास्त्रों (मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति) के समान श्लोक उस समय की सामाजिक व्यवस्था को दर्शाते हैं, जहां जन्म-आधारित वर्ण व्यवस्था को महत्व दिया गया। हालांकि, इनका दुरुपयोग समाज में असमानता और अन्याय का कारण बना। इस व्यवस्था के खिलाफ एक न्यायपूर्ण कदम है। धर्मशास्त्रों में नैतिकता और कर्म धर्म का आधार सत्य, दया, और नैतिकता है। आज हमें एक ऐसे समाज की ओर बढ़ना चाहिए, जहां व्यक्ति का मूल्यांकन उसके कर्म और योग्यता के आधार पर हो, न कि जन्म के आधार पर।
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श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में अध्याय एकादश ( ग्यारह) में वर्णित निम्नलिखित श्लोक जन्म की अपेक्षा गुण( योग्यता) कर्म और स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति सा मूल्यांकन करते हैं-
यह श्लोक 33 एवं 36, वर्ण-व्यवस्था, और ज्ञान के महत्व पर आधारित हैं।
श्लोक 33
यथा शूद्रस्तथा मूर्खा ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३।
शब्दार्थ-
- यथा = जैसे
- शूद्रः = शूद्र (वर्ण व्यवस्था में सेवा कार्य करने वाला वर्ण)
- तथा = वैसे ही
- मूर्खा = मूर्ख (अज्ञानी)
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण (वर्ण व्यवस्था में विद्या और धर्म का पालन करने वाला वर्ण)
- नात्र संशयः = इसमें कोई संदेह नहीं
- न पूजार्हो = पूजा के योग्य नहीं
- न दानार्हो = दान के योग्य नहीं
- निन्द्यश्च = निंदनीय है
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
अनुवाद-
जैसे शूद्र होता है, वैसे ही मूर्ख ब्राह्मण भी होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। वह न तो पूजा के योग्य है, न दान के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है।
व्याख्या
यह श्लोक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण के कर्तव्यों और गुणों पर जोर देता है। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण को विद्या, तप, और धर्म का प्रतीक माना जाता था। यह श्लोक कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण अज्ञानी (मूर्ख) है, तो वह अपने वर्ण के गुणों को खो देता है और शूद्र के समान हो जाता है। यहाँ "शूद्र" का उल्लेख संभवतः प्रतीकात्मक है, जिसका अर्थ है कि वह अपने उच्च कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है। ऐसा ब्राह्मण न तो सम्मान (पूजा) के योग्य है, न ही दान पाने के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है। यह श्लोक ज्ञान और विद्या के महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से ब्राह्मण के लिए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि विद्या और सद्गुण आवश्यक हैं।
श्लोक ३६
राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यों ब्राह्मणो विद्यावर्जितः॥३६।
शब्दार्थ-
- राज्ञा = राजा द्वारा
- शूद्रसमो = शूद्र के समान
- ज्ञेयो = जाना जाए (समझा जाए)
- न योज्यः = नियुक्त नहीं किया जाए
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
- कर्षकस्तु = कर्षक (कृषक, किसान)
- द्विजः = द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो उपनयन संस्कार द्वारा दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं)
- कार्यों = कार्य में नियुक्त किया जाए
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण
- विद्यावर्जितः = विद्या से रहित (अज्ञानी)
अनुवाद
राजा को चाहिए कि वह मूर्ख ब्राह्मण को शूद्र के समान समझे और उसे किसी भी कार्य में नियुक्त न करे। विद्या से रहित ब्राह्मण को द्विज के रूप में कृषि कार्य में नियुक्त किया जाए।
व्याख्या-
यह श्लोक शासन और सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में है। यहाँ राजा को सलाह दी गई है कि वह अज्ञानी ब्राह्मण को शूद्र के समान माने और उसे महत्वपूर्ण कार्यों (जैसे यज्ञ, पुरोहिताई, या शासन से संबंधित कार्य) में नियुक्त न करे। इसके बजाय, यदि कोई ब्राह्मण विद्या से रहित है, तो उसे द्विज के रूप में (अर्थात् उसके वर्ण के सम्मान को बनाए रखते हुए) कृषि जैसे कार्य में लगाया जाए। यह श्लोक यह दर्शाता है कि विद्या के अभाव में ब्राह्मण का सामाजिक और धार्मिक महत्व कम हो जाता है, और उसे अन्य उत्पादक कार्यों में योगदान देना चाहिए। साथ ही, यह सामाजिक लचीलापन भी दर्शाता है कि यदि कोई ब्राह्मण अपने परंपरागत कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है, तो उसे समाज के लिए अन्य उपयोगी कार्य करने चाहिए।
संदर्भ
ये श्लोक श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध अध्याय एकादश से हैंं।
जो वर्ण-व्यवस्था, कर्तव्यों, और समाज में विद्या के महत्व पर चर्चा करते हैं। हालाँकि, बिना । ये श्लोक प्राचीन भारतीय समाज की उस विचारधारा को दर्शाते हैं, जहाँ ज्ञान और गुणों को जन्म से अधिक महत्व दिया गया है। यह विचारधारा भगवद्गीता (4.13) में भी परिलक्षित होती है, जहाँ कर्म और गुण के आधार पर वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
-आधुनिक परिप्रेक्ष्य-
आधुनिक सन्दर्भ में इन श्लोकों को जातिगत भेदभाव के बजाय योग्यता और ज्ञान के महत्व के रूप में देखा जा सकता है। ये श्लोक इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कौशल, और कर्म से होना चाहिए। यह शिक्षा और आत्म-विकास के महत्व को रेखांकित करता है, जो आज के समाज में भी प्रासंगिक है।
उपर्युक्त विचार ही सुव्यवस्थित समाजिक व राष्ट्रीय उन्नति का आधार है।
सड़ी गली तथा रूढ़िवादी मानसिकता के लोग ही इन विचारों का विरोध करते हैं- जिनके स्वार्थ सहज ही विना किसी परिश्रम और योग्यता के ही सिद्ध हो रहे हो तो वे धूर्त ही इन शास्त्रीय मतों का विरोध करेंगे-
पहले भी देश में इसी प्रकार व्यक्ति के ज्ञान और कर्म कौशल से उसकी महानता का मूल्यांकन होता था-
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