रविवार, 29 जून 2025

यादवों का वर्ण और गोत्र -


यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्र।

इस आलेख का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality of species ) एवं इसकी उत्पत्ति सिद्धान्त को बताते हुए यादवों की जाति, वर्ण, वंश, कुल एवं गोत्रों की जानकारी देना है।

जो अनेक शास्त्रीय साक्ष्यों व सामाजिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
सभी तथ्य श्रीकृष्णसारांगिणी नाम आगामी ग्रन्थ में यथाक्रम समायोजित हैं-
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इन सभी बातों की क्रमबद्ध जानकारी के लिए इस आलेख को निम्नलिखित- (५) भागों में विभाजित किया गया है।

भाग- (१) जातियों की मौलिकता (Originality of species ) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति।

भाग- (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।

       [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
       [ख]- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
       [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में                 अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।    
  

भाग- (३) यादवों का वंश।
भाग- (४) यादवों का कुल।
भाग- (५) यादवों का गोत्र।

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हम में संसार की विशेषत: भारत की जनजातियों की उत्पत्ति मूलक विवेचना के अन्तर्गत आभीर जाति की विवेचना करते हैं-

भाग-(१)
जातियों की मौलिकता (Originality of species  ) एवं आभीर जाति की उत्पत्ति-

"जातियों का निर्धारण मनुष्य की एक ही तरह के रक्त सम्बन्धी आनुवांशिक प्रवृत्तियों से होता है। जिसमें प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की जन्मजात होती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जाति समूहों में सञ्चारित होती रहती है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वभाव और  चारित्रिक गुण विकसित होता है, जो उस जाति समूह को उसी के अनुरूप कार्य करने को प्रेरित करता है।

और इसी गुण विशेष के आधार पर  एक जाति का पृथक निर्धारण होता है।
अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण और व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं।

इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो सभी जाति  के मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है।

जैसे वणिक समाज का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) खरीद-फरोख्त करना है।  और उसी के अनुसार उनकी स्वभावगत गहराई- लोलुपता और मितव्यता भी उनमें पायी जाती है। यही उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है।

कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को छोटी-छोटी इकाईयों के विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे -
किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से कुल और अनेक कुलों या गोत्रों  से वंश और  जाति का निर्माण होता है। 

एक जाति में कई वंश हो सकते हैं। अर्थात् पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है।
जातियों में वंश और वंश मैं कुल और कुलों की सांस्कृतिक पहचान ही गोत्र है।

और इस क्र में वर्ण का निश्चय ही जाति का निर्धारण करता है।

 सरल शब्दों में  वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। 

ये सभी किसी जाति के विकास क्रम के सोपान हैं   इनके समवेत रूप को जाति का विकास क्रम कहा जाता है।

किसी भी जाति के विकास क्रम में मनुष्यों की प्रवृत्तियों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है क्योंकि मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर अन्ततोगत्वा वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण (चयन) करने में सहायक होती हैं। 

उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उस जाति का वर्ण निर्धारित होता है।
व्यवसायों के वरण के आधार पर ही ब्रह्मा की सृष्टि में  जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) में निर्धारित हुआ है।

ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में एक समान कर्म करने वाले मनुष्य समुदाय को एक ही जाति में निर्धारित किया गया। यही कर्म पीढ़ी- पीढ़ी उनके वंशज भी करने लगे- यही भारतीय पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था है।
 
अब यह सब कैसे सम्भव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना भी होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी।

अब इसी क्रम में हमलोग जानेंगे कि आभीर(आहीर) जाति की उत्पत्ति कैसे हुई और किस आधार पर यादवों को "अहीर"  भी कहा गया ?  आभीर को गोप, गोष(  घोष )गोपाल, (ग्वाल),  वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?

तो इस सम्बन्ध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्वकाल से ही कृषि और पशु पालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी
और शारीरिक रूप सबल हों। चुँकि गोपालक अहीर लोग अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आँधी तूफान, ठण्ड और बारिश की तमाम प्राकृतिक झञ्झावातों को निर्भीकता पूर्वक झेलते हुए पशुओं के बीच में जीवन- यापन करते हैं।
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पशु ही इन अहीरों की सम्पत्ति और पूँजी थी
संसार को पैसा शब्द देने वाले पशुपालक अहीर( जाट गूजर) आदि लोग ही थे।

पाश (श्रृंखला) में सर्वप्रथम  बाँधने के कारण पशु संज्ञा से अभिहित गाय - भैस आदि ही सम्पत्ति का आधार हुआ करते थे।

पाश ( वेणी ) या फन्दा में बाँधकर खुंखार अनियन्त्रित  पशुओं को पालतू बनाया गया ये पशुपालकों की ही सामर्थ्य  थी। इसी लिए ये वीर भी कहलाये - यह वीर शब्द ही आर्य शब्द का समानार्थी व सम्प्रसारित रूप है।

आर्य शब्द का अर्थ अर(हल) और आर( पशुओं को नियन्त्रित करने वाला- अंकुश) लेकर चलने वाला-"आरे खस्थे चतुष्पाद्भ्योभयम्”

इन अहीरों की सम्पत्ति या वाचक पशु 
शब्द भारोपीय( भारत- यूरोप) परिवार का प्राचीन सांस्कृतिक व सामाजिक शब्द है।

प्रोटो-इण्डो-ईरानी भाषा में पकु - *páću तथा, प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन भाषा का पेकु *péḱu  शब्द  ( " मवेशी अथवा पशुधन " ) का वाचक है। 
ईरानी प्राचीन धार्मिक भाषा अवेस्तन में  𐬞𐬀𐬯𐬎  ( pasu ) शब्द पशुधन का  वाचक है।

 यूरोपीय रोमन भाषा लैटिन में पेसु अथवा पेकू( pecū) - मवेशी  के अर्थ में है।  तथा पुरानी अंग्रेज़ी में प्रचलित फ्यु ( feoh ) शब्द भी ( " पशुधन " का वाचक है। जिससे अंग्रेज़ी में (फीस- शुल्क) और पैसा जैसे शब्दों का विकास हुआ।

जर्मन वर्ग का भाषा गॉथिक में फेहु ( 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿- ( faihu ), - मवेशी " )  पशु का वाचक है।
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इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही गोपों ( पशुपालकों) के प्राचीन समाज अथवा जाति को आभीर (अहीर) नाम से कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन की वजह से इन्हें - गोप, गोपाल,( ग्वाल), घोष और वल्लभ कहा गया जो इनकी वृत्ति अर्थात- व्यवसाय मूलक पहचान को बताता हैं।

ये तो रही अहीर जाति की वृत्ति एवं प्रवृत्ति मूलक पहचान।
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किन्तु जबतक गोप (अहीर) जाति के (Blood relations) रक्त सम्बन्धों को न जान लिया जाए, तब तक अहीर जाति की उत्पत्ति मूलक जानकारी अधूरी ही मानी जाएगी।

इसलिए अहीर (गोप) जाति के रक्त सम्बन्धों को जानना आवश्यक है कि अहीर जाति के मूल में किसका प्रारम्भिक रक्त सम्बन्ध विद्यमान है।

बहुत से जाटों का और गूजरों का भी अहीरों से रक्त सम्बन्धी सन्निकटा है। परन्तु अहीर सबसे प्राचीन और शुद्धत्तम जाति है।

जब जाट और गूजर जैसे शब्द भी जब अस्तित्व में नहीं थे। तब भी अहीर शब्द पुराणों वेदों में आवीर/ आभीर आदि रूपों में मिलता है - जाट और गूजर भी पशुपालक जातियाँ हैं।

तो इसके लिए बता दें कि अहीरों की उत्पत्ति के विषय में भारतीय पुराणों में वर्णन है- कि इनमें
गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है।
भगवान श्रीकृष्ण की सनातन आदि रूप स्वराट्- विष्णु है जो गोपेश्वर को रूप में गोलोक में विराजमान हैं। जिनके शरीर कोशिकाओं ( रोमकूपों) से क्लोन विधि से हुआ है।
कृष्ण अपने एक रूप से द्वापर युग में अवतरित होते हैं। 

ब्रह्मवैवर्त पुराण, गर्गसंहिता, देवीभागवतमहापुराण ब्रह्मसंहिता पद्मपुराण नारदपुराण आदि पुराण  ग्रन्थों गोपों कि  यह उत्पत्ति  वर्णन है।
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भारतीय पुराणों में विशेषत:  पद्मपुराण व स्कन्दपुराण आदि ग्रन्थों में इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए  विष्णु से कहा- हे विष्णो ! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे ; और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में होगी।

 उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के अध्याय- (१९३) के श्लोक -(१४ और १५) में मिलता है। 
मूल संस्कृत श्लोक सहित संस्कृत अनुवाद:-

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥


यत्रयत्र  च वत्स्यन्ति  मद्वंशप्रभवा नराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥


अनुवाद -(१४-१५)
आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती है- हे विष्णो ! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे ; और इनकी प्रशंसा विशेषतः देवताओं सहित सभी लोकों में होगी।

तथा मेरे गोप वंश (कुल) के लोग जहाँ भी रहेंगे, वहाँ श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों न हो। १४-१५।

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गायत्री स्वयं अपने को गोप कुल का तथा गोपों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) किस आधार पर कहती हैं ? इसको भी जानना आवश्यक है।

चुँकि भूतल पर देवी गायत्री गोप जाति की सनातनी एवं आदि वैष्णवी शक्ति हैं।  
ब्रह्मा के साथ गायत्री को केवल यज्ञ मूलक अनुष्ठानों को करने के लिए ही नियुक्त किया है।
ब्रह्माजी के साथ गायत्री केवल पुष्कर क्षेत्र में ही कुछ काल के लिए यज्ञ हेतु सहचारिणी बनती हैं-
और गायत्री से अभिशप्त ब्रह्मा के वरदान भी देती हैं। गायत्री के रूप में ब्रह्मा के साथ और  दुर्गा के रूप में शिव के साथ तथा राधा के रूप में कृष्ण के साथ आदि वैष्णवी शक्ति ही रहती हैं जिनके द्वारा को प्रजनन सृष्टि नहीं होती अर्थात् ये सन्तान उत्पन्न नहीं करती हैं-
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इसलिए गायत्री ज्ञान की अधिष्ठात्री रूप में उपस्थित   स्वयं की तथा अपने गोपों की मूल उत्पत्ति का ज्ञान रखती थीं कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों अर्थात उनके क्लोन (समरूपण) विधि से हुई है। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण  वेषेणैव  च  तत्समः। ४२।

अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा 
 के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप-गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- अहीर जाति के मूल में गोपेश्वर श्रीकृष्ण का ही रक्त विद्यमान है। इसी लिए स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागर खण्ड के श्लोक-(१४) में ज्ञान की देवी गायत्री ने भी गोपों अर्थात् आभीरों को श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्धी (blood relative) कहीं हैं।

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अत: भगवान श्रीकृष्ण से उत्पन्न होने से  गोपों का जनन गोत्र कार्ष्ण है। और अत्रि गायत्री के साथ याज्ञनिक पौरोहित्य कर्म होने  से नामित  गुरु गोत्र हैं।

✴️ आभीर जाति को यदि शब्द व्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। 

अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है। 'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो अलग -अलग तरह से भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-

ईसा पूर्व पाँचवी सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की है। नीचे देखें।

आ= समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु =  जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।

किन्तु वहीं पर अमरसिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके ही सुनिश्चित किया  है। नींचे देखें।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर से गायें चराता है या उन्हें घेरता है।

अगर देखा जाय तो उपर्युक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की व्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नहीं है। क्योंकि एक नें अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे नें अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द व्युत्पत्ति को दर्शाया है।
 
अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप आहीर होता है। अब यहाँ पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं।

ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिन्दी में आये हैं,वे 'तद्भव' कहलाते हैं। अर्थात- तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किन्तु कालान्तरण में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिन्दी में आहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी

उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
किन्तु यहाँ पर हमें अहीर और आभीर, शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिन्दी और संस्कृत ग्रन्थों में कब, कहाँ और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।

तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले अहीर शब्द के विषय में जानेंगे कि हिन्दी ग्रन्थों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ।  इसके बाद संस्कृत ग्रन्थों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ।

अहीर शब्द का प्रयोग हिन्दी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रुप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं-
इसी  ग्रन्थ "सुजानरसखान" में अन्यत्र भी रसखान श्रीकृष्ण को अहीर  लिखते हैं ।

देस बदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।
तातें तिन्‍हैं तजि जानि गिरयौ गुन सौगुन गाँठि परैगो।
बाँसुरीबारो बड़ो रिझवार है स्‍याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।

लाड़लौ छैल वही तौ अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ।।18।

बाँकी धरै कलगी सिर ऊपर बाँसुरी-तान कटै रस बीर के।

कुंडल कान लसैं रसखानि विलोकन तीर अनंग तुनीर के।

डारि ठगौरी गयौ चित चोरि लिए है सबैं सुख सोखि सरीर के।

जात चलावन मो अबला यह कौन कला है भला वे अहीर के।।88।।

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इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांँव में हुआ था। जिन्होंने (500) साल पहले दो ग्रन्थ  "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर
हूँ चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।। ५८।

अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्रीकृष्ण) ! आप जगत के तारण तरण (उद्धारक) हो, मैं चारण आप श्रीहरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर गुणों के क्षीर से भरा हुआ है।५८।

और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्रीकृष्ण को अहीर कहते हुए उनका  स्तवन किया है। सूरसागर के दशमस्कन्ध-(पृष्ठ ४७९) में लिखा है-

चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ।८१॥जैतश्री॥ 

सखीरी काके मीत अहीर ।
काहे को भरि भरि ढारति हो इन नैन राह के नीर।।

आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुनके क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरतहै जो यमुना के तीर।। ॥ 

मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे पीर ।।८२॥ 
 सूरसागर.पृष्ठ/
(४७९)
दशमस्कन्ध-१०

ये उपर्युक्त सभी उदाहरण श्रीकृष्ण के अहीर जाति का होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं। अब हम लोग आभीर शब्द को जानेंगे जो प्राकृत भाषा के आहीर का तत्सम रूप है, वह संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रन्थों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।

सबसे पहले हम गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय -(७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्रीकृष्ण और नन्दबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय करता है जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहाँ जाते हैं। किन्तु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहता है कि-

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।

प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।। १६।

अनुवाद -
•  वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वसुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं।१४।

• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीत कर भूमण्डल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूँगा।१६।

उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें भगवान श्रीकृष्ण सहित सम्पूर्ण अहीर अथवा यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- (२०) के श्लोक - (६) और (७) में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बन्धित थे।  
 
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।   


यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।

             
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।

अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी और शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।

इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश के तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या- (१६-१७ और १८ ) में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-

"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।१६।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः। मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।१७।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। १८।
     
               
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं।१७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।१८।

▪ इसी तरह से महाभारत के उद्योगपर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों (अहीरों) को अजेय योद्धा के रूप में वर्णन है-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
           
इसी तरह से जब भगवान श्रीकृष्ण ने  इन्द्र की पूजा बन्द करवा दी, तब इसकी सूचना जब इन्द्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्रीकृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय -(२५ )के श्लोक - (३) से( ५) में मिलता है। जिसमें इन्द्र ने अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।।३।

वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्।। ५।

अनुवाद- ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।३।
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५।

उपर्युक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर तथा यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।

इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग भागवत पुराण स्कन्ध दशम के अध्याय- (६१) के श्लोक (३५) में मिलता है। जिसमें द्यूत- क्रीडा) जूवा खेलते समय रुक्मि बलराम जी को कहता है कि -

नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।।३४।

अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले  गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए  गर्गसंहिता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में लिखते हैं।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया।
जब यज्ञ हेतु सर्वसम्मति श्रीकृष्ण को अग्रपूजा के लिए चुना गया। किन्तु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्रीकृष्ण को यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से सम्बोधित करते हुए उनका तिरस्कार करता है।  यद्यपि शिशुपाल भी स्वयं चेदिवंश का यादव है। परन्तु आज वह गाय नहीं पालता है इस लिए। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय (७४) के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।।१८।

अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।।१९।

यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः।। २०।

             
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
•  यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं।१९।
•  यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्रीकृष्णा ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४।

अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४

उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार यदि शिशुपाल के कथनों पर  विचार किया जाए तो वह श्रीकृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहाँ तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्रीकृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। परन्तु उसकी भाषा में ये शब्द कृष्ण के प्रति क्रोध और घृणा को प्रकट करते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहते हैं जो इस प्रकार है-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
  
 
 
अतः शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कही। किन्तु वह भगवान श्रीकृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहता है, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया।

इसी तरह से पौण्ड्रक ने अपने सभासदों से भी  श्रीकृष्ण के लिए गोपबालक और यदुश्रेष्ठ (यादव श्रेष्ठ) नाम से सम्बोधित किया है। जिसका वर्णन हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- ९१ के श्लोक- १४ में कुछ इस तरह से वर्णित की गयी है।

वासुदेवेति मां ब्रूत न तु गोपं यदुत्तमम्।
एकोऽहं वासुदेवो हि हत्वा तं गोपदारकम्।। १४।
अनुवाद - पौण्ड्रक अपने सभासदों से कहता है कि- मुझे ही वासुदेव कहो उस यदुश्रेष्ठ गोप कृष्ण को नहीं। उस गोपबालक को मारकर एकमात्र मैं ही वासुदेव रहूँगा।

इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - (२६ और ४१ ) में भगवान श्रीकृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। श्रीकृष्ण जाति से गोप ( अहीर)और वंश से यादव हैं। जो पौण्ड्रक, श्रीकृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के बीच पौण्ड्रक भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि-

स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।

अनुवाद-  राजा पौण्ड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव ! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहाँ चले गए थे ? ।२६।

• तब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा- राजन ! मैं सर्वदा गोप हूँ, अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूँ , सम्पूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूँ।

देखा जाए तो उपर्युक्त तीनों श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है। 

• पहली यह कि- राजा पौण्ड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव, यादवश्रेष्ठ, गोपबालक और गोप शब्दों से सम्बोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप (अहीर) एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं।

• दूसरी यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने लिए उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि - "मैं सर्वदा गोप हूँ"।

• तीसरी यह कि- गोप ही एक ऐसी जाति है जो सम्पूर्ण लोकों की रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
  
✳️  ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द के ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें,  ग्वाला कहें,  यादव कहें ,सब एक ही बात है।
    
जैसे भगवान श्रीकृष्ण को तो सभी जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप जाति  में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनकी जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति (व्यवसाय) मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें आभीर या अहीर अथवा गोप कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें, गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है। ये सब भगवान श्री कृष्ण के गुणगत विशेषण हैं।
                    
भगवान श्रीकृष्ण को गोपजाति  के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय- (५) में बताया गया है।

और जहाँ तक बात रही आभीर जाति की वंश मूलक पहचान की, तो इनके वंशमूलक पहचान को इसी अध्याय के भाग (३) में आगे बताया गया है।

अब हमलोग इसके अगले भाग-(दो) में आभीर जाति के यादवों के वर्ण को जानेंगे। क्योंकि जाति के बाद वर्ण का निर्धारण होता है।
वर्ण की सामाजिक पृष्ठभूमि के लिए पञ्च प्रथा को जानना पहले आवश्यक है।

भाग (२) भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।

इस भाग का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना को बताते हुए, भगवान विष्णु के "वैष्णव वर्ण" तथा ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति के साथ-साथ दोनों वर्णों में वैचारिक अन्तर और कुछ मूलभूत विशेषताओं की जानकारी देना  है। 

 इसके लिए इस अध्याय को तीन शीर्षकों और उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है -

(१)- भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना।
   [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
   [ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
   [ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर
।      

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(१)- भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना-
[क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति-
देखा जाए तो प्राचीन भारतीय समाज में पञ्च-पञ्चायत और पञ्चजन जैसे शब्द सामाजिक व्यवस्था में पाँच वर्णों की मान्यता व उनके निर्णयों पर आधारित पञ्च- प्रथा के ही सूचक दिग्दर्शक थे। जो परम्परागत रूप से आज भी ग्रामीण समाज में पञ्चों द्वारा की गयी पञ्चायतों के रूप में प्रचलित व विद्यमान  हैं। 

जिसे भारत की पञ्चायत राज प्रणाली में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। क्योंकि भारत में पञ्चायत राज प्रणाली, भारतीय समाज में पारम्परिक रूप से ग्राम संस्थाओं पर ही आधारित है।

 ग्राम पञ्चायत, गाँव की मन्त्रिपरिषद का काम करती है। जिनके सदस्यों का चुनाव जनता करती है और इस जनता मे सभी पाँचों वर्णों के प्रतिनिधि पञ्च के रूप में उपस्थित  व अनुमोदित होकर अपना निष्पक्ष निर्णय देते हैं।

इस तरह की संकल्पना हमारे समाज में पूर्व काल से ही रही है। जिसकी पुष्टि- सर्वप्रथम ऋग्वेद से होती है जिसमें बताया गया है कि- पञ्चकृष्टी और पञ्चजन शब्द पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व पञ्चों के रूपान्तरण थे।

"आ दधिक्राः शवसा पञ्चकृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान।
सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥ ऋग्वेद ४/३८/१०

तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ ऋग्वेद-१०.५३.४।

पदों का  अर्थ-
(अद्य) = आज (तद् वाचः प्रथमम्) = उस प्रथम वाणी को   (मसीय) = हृदयस्थरूपेण उच्चारण करता हूँ।  (येन) = जिससे  (देवाः) = और देवगण (असुरान्) = आसुरों को (अभि असाम) = अभिभव करते हैं।
(ऊर्जादः) = पौष्टिक (शक्तिवर्धक) अन्नों का सेवन करने वाले (उत) = और (यज्ञियासः) = यज्ञशील (पञ्चजना:) = पाँच वर्ण (जाति) ! (मम होत्रम्) = मेरे हवन को (जुषध्वम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो।
उपर्युक्त ऋचाओं में पञ्च' पञ्चकृष्टी' और पञ्च जन' जैसे पद पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
ऋग्वेद में पञ्चजन: और पञ्चकृष्टी संज्ञा पद बताते हैं कि समाज में पाँच प्रकार के व्यक्ति थे जिनका समाज में वर्चस्व होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित पञ्चजना: शब्द पाँच जातियों के प्रतिनिधियों का ही वाचक है।

श्लोक:
ब्राह्मण क्षत्त्रिय वैश्य शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
तथा स्वतन्त्रा जातिरेका आभीरा च तस्या वर्ण अस्मिन् विश्वे वैष्णवाभिधा।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, एकादश अध्याय, सात्वतीय टीका)
सारांश (टीका के अनुसार)
यह श्लोक ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड से लिया गया है, जिसमें चातुर्यवर्ण्य  व्यवस्था के अतिरिक्त पाँवे वैष्णव वर्ण  की महत्ता को भी दर्शाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि जैसे समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं, वैसे ही विश्व में वैष्णव नाम का एक स्वतन्त्र और सर्वोच्च वर्ण है।

इस वैष्णव वर्ण के अंतर्गत आभीर /आहीर (  यादव अथवा गोप  जाति को एक स्वतन्त्र और विशेष जाति के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो गोप (आभीर) जाति  भगवान स्वराट्-  विष्णु  से उत्पन्न होकर   उनकी सनातन भक्ति में ही  लीन रहती है। वह वर्ण से वैष्णव है।

विस्तृत व्याख्या व भावार्थ:-
यह श्लोक भारतीय दर्शन और सामाजिक संरचना में ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था के साथ-साथ स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न  एक अन्य वर्ण वैष्णव की  सार्वभौमिकता , प्राचीनता  और उसकी सर्वोपरिता को स्थापित करता है।

शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था को समाज के कार्यों को सुचारु व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए बनाया गया था, जिसमें प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र) की अपनी विशिष्ट भूमिका थी।
एक अन्य वर्ण वैष्णव इन सबसे पृथक और सर्वोच्च था।

समाज में प्राचीन काल से ही  वर्ण व्यवस्था के प्रतिनिधित्व के लिए पञ्चायत व्यवस्था भी कायम थी। जो समवेत रूप से सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए सम्मति व निर्णय पारित करती थी।

पञ्च शब्द समाज के पाँच वर्णों के प्रतिनिधीयों को स्वयं में अन्तर्निहित किए हुए है।

वैदिक ऋचाओं में बहुतायत से पञ्चजना, और पञ्चकृष्टय: जैसे पद पाँच वर्णों से सम्बन्धित पञ्चायत व्यवस्था की प्राचीनता को अभिव्यक्त करते है।
जैसे -ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा वर्णन करती है।
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञियास: *पञ्चजना* मम होत्रं जुषध्वम् ॥ (ऋग्वेद-१०/५३/४)

अनुवाद- अग्निदेव कहते हैं- आज उस प्रथम वाणी को हृदयस्थ रूपेण उच्चारण करता हूँ।  जिसके प्रभाव से देवगणों ने असुरो को अभिभूत (पराजित) किया था। पौष्टिक अन्नों का ही सेवन करनेवाले  पाँच वर्णों के यज्ञ कर्ता व्यक्तियों  !  तुम  मेरे हवन को प्रीतिपूर्वक सेवन करो।४।

वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमो  वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।

अनुवाद:-
वेदों में लिखित पञ्चजना विशेषण शब्द  पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तियों का वाचक  हैं।  चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - चारवर्णों ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं।
और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों के वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित ही है।

ऋग्वेद में ही पञ्चकृष्टय:  पद पाँच वर्णों का प्रतिनिधि है।

वयमग्ने अर्वता वा सुवीर्यं ब्रह्मणा वा चितयेमा जनाँ अति ।
अस्माकं द्युम्नमधि पञ्च कृष्टिषूच्चा स्वर्ण शुशुचीत दुष्टरम् ॥१०॥
ऋ०२/२/१०
अनुवाद:- 
हे अग्नि ! हम सब गतिशील घोड़े के द्वारा बढ़े हुए बल की वृद्धि से सभी व्यक्तियों को अतिक्रमण करते हुए प्रकाशित हों !
हमारा धन भी पाँच वर्णों में विभाजित ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें वैष्णव वर्ण से भी अधिक ऊँचा हो।  सूर्य के समान दैदीप्यमान हम किसी के द्वारा न पराजित हो। (ऋ०२/२/१०)

(अग्ने) = हे अग्नि ! (वयम्) = हम (अर्वता वा) = अर्वत्- तृतीया विभक्ति एकवचन   घोड़े द्वारा =   (जनान् अति) = सब मनुष्यों को लाँघकर (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट शक्ति को (आ चितयेम) = प्रकाशित करें।   (अस्माकम्) = हमारा (द्युम्नम्) =  धन बल पञ्चे (कृष्टिषु) ='ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र व वैष्णव रूप' पाँच वर्णों में विभक्त हुए मनुष्यों में (उच्चा) = उच्च हो, (दुस्तरम्) = किसी से पराजित न किया जानेवाला हो और (स्वर्ण/ स्वर्+ न ) =  सोना / अथवा सूर्य के समान  (अधिशुशुचीत) = अधिक प्रकाशित हो उठे।

पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।

जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हैं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। ठीक इसी तरह से यादवों यानी गोपों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।

किन्तु पुराणकारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। जबकि देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का अवयव ही माना जा सकता है।

इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम-वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही सन्निकट हैं। अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंग हैं नकि पञ्चम-वर्ण के।

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।

अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ, और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ, और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२

"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)

नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो कभी भयभीत नहीं होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का ही पर्याय है, जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं।



 जैसे-

स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा में काष्टा शब्द जाति नस्ल का सूचक है, जो भारोपीय भाषा परिवार के शब्द "काष्टा और कास्ट शब्द से निर्मित वैदिक कृष्टि के रूपान्तरण हैं । संस्कृत में भी कृष्टि शब्द कृषि- फसल (फलस्) और  सन्तान आदि का- वाचक है।
स्त्रीयों को खेत और उनके पतियों को किसान मानने के रूपक प्रचीन हैं। 

वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा  भवन्ति।

अनुवाद:-
वेदों में लिखित पञ्चजन पाँच वर्णों के प्रतिनिधि पाँच -वर्ण ही हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं। और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों की वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित है।

✳️  चातुर्वर्ण्य की महत्ता कम न हो जाए  इसलिए इस महत्वपूर्ण जानकारी को पुरोहितों ने छुपा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश लोग पञ्चमवर्ण (वैष्णव वर्ण) को नहीं जान सके।

✳️ दूसरी बात यह कि- अधिकांश लोग वर्ण और जाति में अन्तर नहीं जानते हैं, इसलिए अपने वर्ण को ही जाति कहते हैं और जाति को ही वर्ण कहते हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं-
• पहला यह कि या तो उन्हें जाति और वर्ण में अन्तर का ज्ञान नहीं है या-
• दूसरा यह कि पौराणिक ग्रन्थों में अधिकांश लोगों की जातियों का वर्णन नहीं मिलता है, ऐसी स्थिति में वे लोग अपने वर्ण को जाति कहनें लगते हैं। ‌जैसे किसी ब्राह्मण से पूछा जाए कि आपकी जाति क्या है? तो वह अपनी जाति के स्थान पर अपने "वर्ण" ब्राह्मण को ही जाति बताएगा।

इसी तरह से ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के किसी क्षत्रिय वर्ण से यदि पूछा जाए कि आपकी जाति क्या है? तो वह अपनी जाति के स्थान पर अपने वर्ण को ही बताते हुए कहेगा कि मेरी जाति क्षत्रिय है। जबकि उसे पता होना चाहिए कि क्षत्रिय जाति नहीं बल्कि एक वर्ण है।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बहुत से लोगों की जातियों का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों में नहीं मिलता है जिसके कारण अधिकांश लोग अपने वर्ण को जाति और जाति को ही वर्ण बताने लगते हैं।
आश्चर्य इस बात का है कि पौराणिक या ऐतिहासिक ग्रन्थों में जिन जातियों का स्पष्ट रूप से वर्णन मिलता है वे सभी या तो वैश्य वर्ण के हैं या किसी अन्य वर्ण के हैं। जैसे- तेली, कायस्थ, निषाद, कुम्हार, कोहार, गोंड, लोहार, सोनार, बंजारा, मुण्डा, भुइया, खोंड, भील, मिहाल, बिरहोर, गडावां, कमार, गडावां, कमार, नट, बञ्जारा,( पण्यचर) बड़होर, चेंचू, गड़ाबा, गोंड, होस, जटायु, जुआंग, खरिया, कोल, खोंड, कोया, उरांव, संथाल, सओरा, गद्दी, स्वागंला, इत्यादि और भी बहुत सी जातियां हैं, जिनके सदस्यपत्तियों से यदि उनकी जाति का नाम पूछा जाए तो ये लोग स्पष्ट रूप से अपनी जाति को बता पाते हैं। किन्तु वे लोग जिनकी जाति का अता-पता नहीं, पौराणिक ग्रन्थों या इतिहास में जिनका उल्लेख नहीं है, वे ही लोग अपनी जाति के स्थान पर अपने वर्ण को बताया करते हैं।

किन्तु यहाँ पर पाठक गणों को यह संशय अवश्य हुआ होगा कि उपर्युक्त जातियों में "अहीर" जाति का नाम क्यों नहीं लिया गया ? तो इस सम्बन्ध में बताना चाहुँगा कि - उपर्युक्त सभी जातियाँ, जिसमें ब्राहण भी आते हैं वे सभी ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के चातुर्वर्ण्य की जातियाँ हैं। जबकि अहीर जाति एक ऐसी जाति है जो ब्रह्माजी की सृष्टि रचना नहीं है। इस बात को पहले ही जाति वाले प्रकरण में तथा अध्याय (चार) में पहले ही बताया जा चुका है कि गोपों यानी आभीरों की उत्पत्ति गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों अर्थात उनके क्लोन से हुई है। इस लिए ब्रह्माजी से उत्पन्न जातियों में अहीर जाति का नाम नहीं लिया गया है।

✳️ ज्ञात हो कि भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल का भार उतारने के लिए भूमि पर अवतरित होते हैं, तो वें इसी स्वतन्त्र और निर्भीक "अहीर" जाति के यादव वंश के गोपकुल में ही अवतरित होते हैं। इसकी पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) से होती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।


अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

(भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (५,६) में दी गई है वहाँ से पाठकगण इस प्रसंग पर और अधिक जानकारी ले सकते हैं।)


  [क]- पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।

जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हैं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। ठीक इसी तरह से यादवों यानी गोपों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।

किन्तु पुराणकारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। जबकि देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का अवयव ही माना जा सकता है।

इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम-वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही हैं। अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंग हैं ना की पञ्चम-वर्ण के।

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -

पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।

अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ, और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ, और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२

"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)

नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो कभी भयभीत नहीं होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का ही पर्याय है, जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं।

अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो स्वराट
विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

जो  सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।

महेश्वर उवाच-
शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।   
            
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।                                                   
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।   

अनुवाद:-
१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
                    
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                 
३-चूँकि वह विराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।        

यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की  व्यत्पत्ति बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव पद ( विभक्ति युक्त शब्द ) और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।

अब हमलोग इसी क्रम में जानेंगे कि ब्रह्माजी के "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति कैसे हुई ?


    [ख]- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति।

सर्वविदित है कि देवो के पितामह ब्रह्माजी से "चातुर्यवण्य" की उत्पत्ति हुई। इस बात की पुष्टि -विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय के श्लोक- (६) से होती है। जिसमें बताया गया है कि 

ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।।

अनुवाद:-
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।।६।

फिर इसी जन्मगत आधार पर ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था भी चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र) में विभाजित हो गई। इस बात की पुष्टि-

पद्मपुराण  सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम। पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१३०। 

अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।१३०।

इस सम्बन्ध में अत्रि संहिता का (१४० वाँ) श्लोक भी यही सूचित करता है कि -
"जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते॥१४०


अनुवाद:- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हाेने वाला जन्म से ही 'ब्राह्मण' कहलाता है। फिर उपनयन संस्कार हाे जाने पर वह 'द्विज' कहलाता है और विद्या प्राप्त कर लेने पर वही ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। इन तीनाें नामाें से युक्त हुआ ब्राह्मण 'श्राेत्रिय' कहा जाता है।१४०।
(विशेष:- श्रुति (वेद) के ज्ञाता ब्राह्मण ही श्रोत्रिय कहलाता है।)

ज्ञात हो ब्रह्माजी के इन चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। इस बात की पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥


अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।७।

श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन ! 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।११।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय (३)
 
अनुवाद:-
प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के आदिकाल में यज्ञ-कर्मों के विधानसहित प्रजा-(मनुष्य आदि- चार वर्णों ) की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस यज्ञ  के द्वारा देवों की वृद्धि करो 
और वे देवतालोग  तुमलोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।११।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।१२।
 
अनुवाद:-
यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण  प्रजा को इच्छित भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है।१२
विष्णु पुराण और श्रीमद्भगवद्गीता के उपर्युक्त श्लोकों से  सिद्ध होता है कि यज्ञ क्रियाऐं केवल देवों को प्रसन्न करने के लिए ही हैं। यज्ञ करने से किसी को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। केवल स्वर्ग और इच्छित भोग ही प्राप्त होते हैं। वह भी देवों के द्वारा-
इसके अतिरिक्त इस खण्ड के सभी उपर्युक्त श्लोकों एवं साक्ष्यों से यह भी सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण यानी स्वराट्- विष्णु के रोमकूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई, और उनकी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इन्हें आभीर कहा गया। इनकी यहीं निर्भीक प्रवृत्ति ने ही गोपालन और कृषि वृत्ति यानी व्यवसाय का वरण किया जिसके परिणाम स्वरूप उनका वर्ण- वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ। जो उत्पत्ति विशेष के कारण ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से पृथक हैं।

अब हमलोग जानेंगे कि इन दोनों वर्णों (वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य) में मूलभूत अन्तर और विशेषताएँ क्या हैं ?

[ग] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अन्तर-

इस भाग का मुख्य उद्देश्य ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य और विष्णुजी के वैष्णव वर्ण में मूलभूत अन्तरों एवं उनकी तुलनात्मक विशेषताओं को बताना है। इस प्रसंग को क्रमबद्ध तरीके से जानने के लिए निम्नलिखित उप-शीर्षकों में विभाजित किया गया है -
       [१]- जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
       [२]- यज्ञमूलक एवं भक्तिमूलक अन्तर।
       [३]- भेदभाव एवं समतामूलक अन्तर।   
  
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  [१]  जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर-


▪️"ब्राह्मी वर्णव्यवस्था जन्मगत है"-
ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य व्यवस्था- ब्रह्माजी की सृष्टि रचना है, जिसमें जन्म के आधार पर वर्ण- विभाजन की एक विचित्र (अजीब) सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। जिसमें रूढ़िवादी पुरोहितों की मान्यता है कि पूर्वजन्म के पुण्य- पाप कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों के घर में जन्म मिलता है।

यदि व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए हैं तो ब्राह्मण के घर में जन्म मिलेगा और बुरे कर्म किए हैं तो शूद्र के घर में जन्म मिलेगा। कर्मों के अच्छे-बुरे अनुपात से ही व्यक्ति को कभी वैश्य तो कभी क्षत्रिय के घर में जन्म मिलता है। परन्तु पुरोहितों का ये सिद्धान्त दोषपूर्ण है- क्योंकि जन्म से व्यक्ति की महानता का निश्चय नहीं होता है। मानव जाति में मनुष्य के व्यक्तित्व (व्यक्ति के बाह्य और आन्तरिक गुणों) का निर्माण उसका परिवेश और माता-पिता के आनुवांशिक विशेषताएँ ही करती हैं।

 यह तो समाज में प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सभी ब्राह्मण जन्म से ही सात्विक प्रवृत्ति वाले और ईश्वर चिन्तक नहीं होते हैं। 

ब्राह्मणों में भी बहुतायत लोग तामसिक व राजसिक प्रवृत्ति वाले होते हैं। इसी प्रकार स्वयं को परम्परागत रूप से क्षत्रिय कहने वाले लोगों की सन्तानें भी वीर तथा साहसी नहीं होतीं ।
वैश्य और शूद्रों के विषय में भी इसी प्रकार कहा जा सकता है। हर समाज में हर तरह के व्यक्ति पैदा होते हैं। दो चार व्यक्तियों से ही किसी समाज की प्रवृत्तियों का निर्धारण नहीं किया जा सकता। दूसरी बात यह कि व्यक्ति की प्रवृत्तियों का निर्धारण अथवा निश्चय व्यक्ति की वृत्ति (व्यवसाय) एवं उसके कर्म से होता हैं न कि जन्म से।

कुछ प्रवृत्तियों का निर्धारण माता-पिता के आनुवांशिक गुणों तथा कुछ का पूर्वजन्म के कर्म- संस्कारों से होता है

 इसलिए यह कहना महती मूर्खता है कि पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के घर में जन्म मिलता है।

कुल मिलाकर - कहने का तात्पर्य यह है कि- ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से जन्मगत अथवा जन्म के आधार पर भेद करते हुए सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागू करती है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार प्रकार के वर्ग समूह हैं। जबकि इसके विपरित वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं बल्कि कर्मगत है। इसके लिए नींचे देखें-

▪️ वैष्णवी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मगत नहीं कर्मगत है-

ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के जन्मगत आधार के विपरीत वैष्णव वर्ण में गुण' प्रवृति (स्वभाव) और कर्म के आधार पर ही वर्ण विभाजन की सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है। और यही सत्य और न्याय सम्मत भी है। क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता एक वैष्णव ग्रन्थ है जिसमें वर्ण व्यवस्था को कर्म गत ही माना है जन्मगत नहीं। इसकी पुष्टि- श्रीमद्भगवद्गीता -(४/१३) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्"।।१३।।

अर्थात्- मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के आधार पर विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फलों में मेरी कोई स्पृहा (इच्छा) नहीं है, इसलिये मुझे कर्म कभी लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कभी कर्मों से नहीं बँधता है ।१३

✳️ ज्ञात हो- उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- ब्रह्मा ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के निर्देश पर निश्चय ही गुण और कर्म के आधार पर ही व्यक्तियों का वर्ण निर्धारित किया होगा।
अत: इस सृष्टि में ब्रह्मा के नाम से ही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है न की श्रीकृष्ण के नाम से। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण उपादान कारण हैं और ब्रह्मा निमित्त कारण हैं। जो बाद के समय में यह व्यवस्था कर्मगत के स्थान पर जन्मगत हो गई।

जबकि देखा जाए तो श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था ही
सत्य है क्योंकि इच्छाओं से प्रेरित कर्म ही फलदायी होते हैं। और उन अच्छे-बुरे फलों को भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। और यह जन्म व्यक्ति की इच्छा मूलक प्रवृतियों के अनुरूप विभिन्न योनियों (शरीरों) में होता है। यहीं इस संसार का सनातन नियम है।
"कर्म का फल" फलों का भोग।
                  जीवन जगत् का है संयोग"

कर्मा: फलानि उत्पादयन्ते तानि फलानि परिणामानि रूपाणि भोक्तुं प्राणीनि जन्मानि लभन्ते ये च जायन्ते ते अवश्यं म्रियन्ते जन्ममरणं च जगत्।

अर्थ:- कर्म फल उत्पन्न करते हैं और उन फलों, परिणामों और रूपों का भोग अथवा आस्वादन करने  के लिए प्राणियों का जन्म होता है और जो पैदा होते हैं उन्हें मरना ही पड़ता है, जन्म और मृत्यु ही संसार है।

देखा जाए तो भक्ति- ज्ञानयोग और कर्मयोग के मध्य की अवस्था है। यह सच्चे अर्थों में निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् ईश्वर का ईश्वर को समर्पित कर्म ही भक्ति है- श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश है। इसके लिए नींचे श्लोक- देखें।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।2.47।

भावार्थ:-
भगवान कृष्ण कहते हैं !  तेरा कर्म में ही अधिकार है उसके फल में नहीं। अर्थात् (कर्म मार्ग में) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा (इच्छा) होगी तो तू कर्मफल प्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल प्राप्ति का कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना (इच्छा) से प्रेरित होकर कर्म करने  लगता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।

इसी सिद्धान्त के अनुसार वैष्णव वर्ण व्यवस्था भी स्थापित है जो जन्मगत आधार पर न होकर कर्मगत आधार पर स्थापित है।
तात्पर्य यह कि  जाति जन्म पर सुनिश्चित होती है और वर्ण स्वभाव कर्म और गुण पर सुनिश्चित होता है।

अब हमलोग ब्राह्मी और वैष्णवी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर को जानेंगे।

  [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर-
       

▪️ ब्राह्मी वर्णव्यवस्था पूरी तरह से कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर आधारित है-

जिसमें कर्मकाण्ड एवं यज्ञ का विधान ब्राह्मण प्रधान चारों वर्णों के लिए ही है। इस बात को पूर्व में बताया जा चुका है कि- चारों वर्णों की उत्पत्ति यज्ञ के सम्पादन के लिए ही हुई है। जिसकी पुष्टि- विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६) के श्लोक- ७ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥


अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुर्वर्ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति (उत्पादन) के लिए बनाया।। ७।।

वास्तव में देखा जाए तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में भक्ति-भजन की अपेक्षा कर्मकाण्डों एवं यज्ञों पर विशेष महत्व दिया जाता है। इनके कर्मकाण्डी यज्ञों में सर्वप्रथम पशु बलि का प्रावधान इन्द्र के द्वारा किए गए यज्ञों से ही प्रारम्भ हुआ था। इस बात की पुष्टि- मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३ के प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें ऋषियों ने इन्द्र से पूछा कि -

                  "सूत उवाच।
                 "ऋषय ऊचुः!
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।१।


अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।२।

औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।।३।

वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।४।

एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्-

अनुवाद- १-४

ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के
कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
जब कृतयुग (सत्युग) के साथ उसकी सन्ध्या (तथा सन्ध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की सन्धि प्राप्त हुई।
उस समय वृष्टि (वर्षा) होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्तावृत्ति (बाजार) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत रूप से आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?
हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 4॥                

                 "सूत उवाच !
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।।५।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।।६।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।।७।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।।८।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।।९।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये।।१०।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।।११।

विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।।१२।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।।१३।

आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।।१४।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।१५।

उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।।

तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।।१६।

अनुवाद- ५-१६

सूत जी कहते हैं- ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्मों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।
उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वास पूर्वक ऊँचे स्वर से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देव तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले आदिदेव (पूर्वदेव) थे, देवगण उन्हीं अपने पूर्वजों का यजन कर रहे थे।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ (समूह के समूह) ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओं को देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।

सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगमविहित धर्म का अनुष्ठान कीजिये।
सुरश्रेष्ठ! आगम विहित विधि के अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालन से यज्ञके बीजभूत  त्रिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।'

तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।

तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे अभिमान और मोह से भरे हुए थे।

फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।१५-१६।

किन्तु इन्द्र  शक्ति सम्पन्न होने की वजह से ऋषियों की एक भी बात नहीं मानी और यज्ञों में पशु बलि को परम्परागत के रूप में जारी रखा। तभी से देव यज्ञों में पशुबलि की परम्परा प्रारम्भ हुई। जिसमें पशुओं के माँस को भी खाना परम्परागत रूप से स्वीकार किया गया। जिसमें द्विजों (ब्राह्मणों) को माँस खाने की अनिवार्यता को व्यासस्मृति के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (५४) में बड़े ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि -

"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।

अनुवाद:- यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज माँस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है। मृगया (शिकार) से उपार्जित माँस से पितर और देवों की अभ्यर्चना (पूजा) करनी चाहिए।५४।

ऐसी ही बात कूर्मपुराण-उत्तरभाग के अध्याय (१७) के श्लोक (३६ से ४१) में भी कही गई है कि -

मत्स्यान् स शल्कान् भुत्र्जीयात् मासम् रौरवम् एव च । निवेद्य देवताभ्यः तु ब्राह्मणेभ्यः तु न अन्यथा ।।३६।।

मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिञ्जलम्।
वाध्रीणसं वकं भक्ष्यं मीनहंसपराजिता:।।३७।।

शफरम् सिंहतुण्डम् च तथा पाठीनरोहितौ ।
मत्स्याः च एते समुद्दिष्टा भक्षणाय द्विजोत्तमाः।।३८।।

प्रोक्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्तं च प्राणानामपि चात्यये।।३९।।

भक्षयेन्नैव  मांसानि   शेषभोजी  न   लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वां नियोगाद् यजकारणात्।। ४०।।

आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे दैवे वा मांसमूत्सृजेत ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो  नरकान्  व्रजेत् ॥४१॥

अनुवाद- ३६ से ४१
• शल्क मछली और रूरूमृग (काले हिरन) का माँस देवता और ब्राह्मणों को समर्पित करने योग्य (नैवेद्य) के रूप में भोग कराना चाहिए ।३६।
• मोर, तीतर और इसी प्रकार कबूतर, चातक (पपीहा या , कपिञ्जल), गैंडा, बगुला, मछली हँस सभी  जानवर शिकार किए हुए खाने योग्य हैं।३७।
• शफरी-मछली तथा  सिंहतुण्ड (शेर जेसे तुण्ड-वाली एक प्रकार की मछली पाठीन (पढिना),मछली, रोहित मछली ये भी खाने के लिए बतायी गयीं है।३८।
• धो पौंछ कर ही ब्राह्मण को माँस इच्छानुसार खाना चाहिए। शास्त्र विधि के अनुसार शिकार किए हुए प्राणी के प्राण निकल जाने पर ही उसके माँस का भक्षण करना चाहिए ।३९।
• यज्ञ के पश्चात बचा हुआ माँस खाकर ‌व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता है। औषधि के रूप में अशक्त (कमजोर) व्यक्ति को भी माँस खाना चाहिए। ४०।
• यदि पितरों के श्राद्ध अथवा देवों के यज्ञ में आमन्त्रित व्यक्ति माँस को नहीं खाता है, तो वह उतने समय तक नरक में रहता है जितने रोम एक पशु के शरीर पर होते हैं।४१

इन उपर्युक्त श्लोक से यह सिद्ध होता है कि पूर्वकाल में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत देव यज्ञों एवं अन्य प्रमुख अवसरों (मौकों) पर पशु बलि एवं माँस खाने और खिलाने की प्रथा विद्यमान थी। जिसमें देवताओं को माँस चढ़ाया जाता था और द्विज (ब्राह्मण) लोग भी उसे खाते थे। और जो मौके पर नहीं खाता, वह नर्कगामी होता था। क्योंकि ये सभी बातें पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होती हैं।

✴️ दूसरी बात यह कि- उपर्युक्त श्लोक में यज्ञ विधानों के अन्तर्गत जो आगम और निगम शब्द आये हैं - उनका शास्त्रीय अर्थ जानना भी उचित है।
इस सम्बन्ध में तान्त्रिक ग्रन्थों में आगम का लक्षण निम्नलिखित है।
आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजानने ।
मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते”

    (रघुवंश महाकाव्य- १०/२६)

अनुवाद:- शिव के मुख से आया हुआ और पार्वती को मुख में पहुँचा हुआ तथा वासुदेव कृष्ण का मत (माना हुआ ) उसी को आगम कहा जाता है।
आगम की ही एक अपर संज्ञा "तन्त्र" है। तन्त्र और आगम, समानार्थी अर्थों में  शास्त्रों में प्रयुक्त होते रहे हैं।

आगम इन सात लक्षणों से समन्वित होता है- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शान्ति,वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। ये आगम ग्रन्थ के लक्षण हैं।

▪️तन्त्रशास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, उनका साधन, पुरश्चरण-(हवन आदि के समय किसी विशिष्ट देवता का नाम जप अथवा किसी मन्त्र, स्तोत्र आदि को किसी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये किसी निश्चित समय और परिमाण तक नियमपूर्वक जपना या पाठ करना) और चार प्रकार का ध्यानयोग होता है ।

आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतञ्च गिरिजान
ने। मतञ्च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते” ॥
इति (एतल्लक्षणं यथा -“सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां तथार्च्चनं । साधनञ्चैव सर्व्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्म्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तमिर्लक्षणैर्युक्तं त्वागमं तद्विदुर्बुधाः”॥ इति इति यथा रघुवंशे ।१० / २६


कुल मिलाकर वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं और शास्त्रों के उस स्वरूप को आगम कहते हैं जो व्यवहार अथवा आचरण में उतारने वाले उपायों का व्याख्या करता है।। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है।

आगमात् शिववक्त्राद् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेनागमः इति कथ्यते ॥
जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है। [वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी व्याख्या]
उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पञ्चरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धान्त, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम।
द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं।
आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं।
यह शास्त्र साधारणतया तन्त्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम (तन्त्र) भी है। दोनों स्वतन्त्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक व सन् पूरक भी हैं। जिसमें निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। अत: (निगम  सैद्धान्तिक है तो आगम प्रायौगिक)
  
किन्तु इन सबके विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था में देव यज्ञों की तरह ना ही कोई यज्ञ का प्रावधान है और ना ही पशु बलि  एवं माँस खाने का विधान है। क्योंकि वैष्णवी वर्ण व्यवस्था कर्मकाण्डो से कोसों दूर पूर्णरूपेण भक्ति पर आधारित है। जिसको नींचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।

▪️  वैष्णवी वर्ण व्यवस्था- भक्तिमूलक है -
                   
जैसा कि प्रमाण सहित ऊपर बताया जा चुका है कि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सर्वप्रथम इन्द्र के द्वारा हिंसा पूर्ण देव यज्ञों का विधान किया गया था। जिसमें पशुओं के माँस खाने का भी विधान था। किन्तु इसके विपरीत वैष्णवी व्यवस्था पूर्णतः वैष्णव भक्ति पर आधारित है। क्योंकि यज्ञों में पशु बलि को लेकर मत्स्य पुराण के (१४३) वें अध्याय का (३३) वें श्लोक में देव यज्ञ और भक्ति में भेद करते हुए लिखा गया है कि- यज्ञ और भक्ति का पृथक-पृथक फल होता है।

द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।।३३


अनुवाद- द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकने वाले वैष्णव यज्ञ तप के समान ही हैं। परन्तु पशु वध मूलक यज्ञों से देवताओं की प्राप्ति होती है तथा तपस्या एवं भक्ति से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर- स्वराट् विष्णु) की प्राप्ति होती है।३३।

इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भगभद्गीता के अध्याय - (४ के श्लोक- २८) से भी होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ का वास्तविक अर्थ बताते हुए यज्ञ के पाँच भेद बताए हैं।

"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।२८।


व्याख्या :- इस प्रकार बहुत सारे संयमी पुरुष हैं, जो द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ व  ज्ञानयज्ञ आदि व्रतों का अनुशासित रूप से पालन करते हैं ।२८।

विशेष :- इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञ" के पाँच भेद बताए गए हैं। जो देव यज्ञों के ठीक विपरीत हैं।

(१) द्रव्ययज्ञ :-द्रव्य का अर्थ पदार्थ होता है, इसलिए समाज या लोकहित के लिए सान्सारिक साधनों को उपलब्ध करवाना द्रव्य यज्ञ कहलाता है । जैसे- जरूरतमन्दों को भोजन, वस्त्र व दवाईयाँ आदि उपलब्ध करवाना ।

(२) तपोयज्ञ :- सभी प्रकार की अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों को सहजता से सहन करते हुए कर्तव्य का पालन करना ही तपोयज्ञ कहलाता है।

(३) योगयज्ञ :- योग साधना द्वारा शरीर व मन पर नियंत्रण पाकर, मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना योगयज्ञ कहलाता है।

(४) स्वाध्याय यज्ञ :- मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय यज्ञ कहलाता है ।

(५) ज्ञानयज्ञ :- विवेक व वैराग्य आदि सदगुणों का पालन करते हुए साधना मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना ज्ञानयज्ञ कहलाता है।

देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में भगवान कृष्ण ने पाँच प्रकार के यज्ञों में देव यज्ञों, जिसमें पशु बलि का प्रावधान है  उसका वर्णन नहीं किया है।
अतः मत्स्यपुराण के उपर्युक्त  सभी श्लोकों से सिद्ध होता है कि इन्द्र के सारे यज्ञ पशु-बलि पर ही आधारित थे। जो पशुपालकों के लिए बहुत दु:खद व पशुसंरक्षण की समस्या थी। इसी कारण से गोपालक एवं पशु-पक्षी प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण ने बल पूर्वक सभी देव-यज्ञों को विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी।

क्योंकि इन्द्र के यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती थी। इसके विकल्प में भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा (प्रकृति पूजा) का सूत्रपात किया और स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों से देवों को प्रसन्न किया जाता हो ऐसी देव पूजा व्यर्थ ही है।

क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम और आत्मीयता की प्रधानता होती है किसी पूजन विधि या कर्मकाण्ड की नहीं। दूसरी बात यह कि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं। इसलिए यज्ञ वैष्णव भक्तों अर्थात् गोपों के लिए विहित कर्म नहीं है। क्योंकि गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति के निश्चल भाव से आत्मसमर्ण पूर्वक ईश्वर का भजन एवं संकीर्तन करते हैं; यही  वैष्णवों का परम धर्म और कर्तव्य हैं। इस सम्बन्ध में वैष्णवों का मानना है की कर्मकाण्डों से न तो किसी को कोई आत्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ और नाहीं संसार से किसी की मुक्ति हुई है।

क्योंकि परमेश्वर किसी नैवेद्य- का भी आकाँक्षी नहीं है। नैवेद्य तो देवों के लिए ही विहित कर्म होता है। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण  प्रकृति खण्ड- अध्याय (३) एवं देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) से होती है। जिसमें यहाँ पर देवीभागवतपुराण स्कन्ध (९) अध्याय (३) के श्लोक दिया जा रहा है-
जिसमें गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण विराट विष्णु से कहते हैं कि -

"मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः।
श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते॥२८॥

"प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः।
तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै॥२९॥

"निर्गुणस्य आत्मनः च एव परिपूर्णतमस्य च।
नैवेद्येन च कृष्णस्य न हि किञ्चिद् प्रयोजनम् ।।३०।।

"यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः।
स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा॥ ३१॥


"अनुवाद- २८-२९, ३०-३१
• मन्त्र देकर प्रभु ने उसके (विराट पुरुष) के लिए आहार की भी व्यवस्था की। हे ब्राह्मण  उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ। प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् क्षुद्रविष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट्-विष्णु के होते हैं ।।२८-२९॥
• उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे विराट विष्णु और क्षुद्र विष्णु ही ग्रहण करते हैं ॥३०-३१॥

अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण के लिए किसी भी प्रकार के नैवेद्य या चढ़ावे इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। क्योंकि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं हैं। इसी वजह से वैष्णव भक्तों के लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल एवं आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि -

'अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। १४।
                           {श्रीमद्भगवद्गीता- (८/१४}

अनुवाद- अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिए मैं सुलभ अर्थात उसको सरल रूप से प्राप्त हो जाता हूँ।१४।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।२६।
                         (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२६)

अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।२६।

✴️ अब यहाँ पर यह जानना आवश्यक हो जाता है कि भक्तों द्वारा चढ़ावा या नैवेद्य परमेश्वर श्रीकृष्ण- विराट विष्णु और क्षुद्रविष्णु के माध्यम से औपचारिक रूप से अवश्य ग्रहण करते हैं, किन्तु भक्त के वास्तविक भाव को परमेश्वर श्रीकृष्ण ही ग्रहण करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण भाव ग्राही हैं क्रिया या पाखण्ड ग्राही नहीं हैं।

 क्योंकि भगवान की उपासना में प्रेम की, अपनेपन की और मन की पवित्रता की ही प्रधानता है, किसी कर्मकाण्डीय विधि की नहीं। यह बात श्रीकृष्ण भक्तों को सदैव ध्यान में रखनी चाहिए।

दूसरी बात यह कि वैष्णव भक्त इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं की किसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए; किसकी नहीं। इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों का स्वयं मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं कि -

"अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।

                  श्रीमद्भगवद्गीता- (७/२३)
अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्त वाला अर्थात् (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।
  
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।२५।

                       (श्रीमद्भगवद्गीता- (९/२५)
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

वैष्णव भक्तों के लिए तीसरी बात यह कि - वैष्णव भक्त अपने कर्तव्य पथ से भटक न जाऐं इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को सर्वज्ञत्व का उपदेश देते हुए कहते हैं कि-

अहं ही सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।। २४।।
               [श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/२४)


अनुवाद- सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ,। परन्तु वे अर्थात् देवताओं को पूजने वाले मुझे तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।

पुनः भगवान श्रीमद्भगवद्गीता- अध्याय-(९/१६,१७,१८ कहते हैं कि -

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।१६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।१७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।१८।
 

अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ मन्त्र मैं हूँ घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ऊँकार, ऋग्वेद, सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६,१७-१८।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥२५॥
                 [श्रीमद्भगवद्गीता- (१३/२५)


अनुवाद- जो मनुष्य तत्त्वज्ञ" जीवन्मुक्त महापुरुषों से सुनकर उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनने के परायण हुए मनुष्य मृत्यु को तर जाते हैं।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।१४।
              {श्रीमद्भगवद्गीता- १३/१४}


अनुवाद:- वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी भक्ति प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मुझ को बार-बार प्रणाम करते हुए सदैव मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।

देखा जाए तो वैष्णव भक्ति का वास्तविक भेद- भक्त प्रहलाद को अच्छी तरह से ज्ञात था। इस सम्बन्ध में भक्त प्रहलाद श्रीमद्भागवत पुराण के स्कन्ध- {७} अध्याय- {५ }के श्लोक- {२३} में भक्ति के (नौ) प्रकार के भेद को बताते हुए कहते हैं कि-

              'श्रीप्रह्लाद उवाच -
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।२३।

अनुवाद- प्रह्लाद ने कहा- विराट विष्णु (श्रीकृष्ण) की भक्ति के नौ भेद हैं। (१)- भगवान की लीला गुणों का श्रवण। (२)- उनका ही कीर्तन। (३) उनके रूप आदि का स्मरण। (४)- उनके चरणों की सेवा। (५)- पूजा एवं अर्चन (६)- वन्दन।  (७)- दास्य (८)- सख्य और (९)- आत्मनिवेदन।

अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि है कि- वैष्णवी वर्ण व्यवस्था पूर्णतः भक्तिमूलक विचारधारा पर आधारित है। इसमें कर्मकाण्ड, हिंसा मूलक यज्ञ एवं पाखण्डवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके साथ ही ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के विपरीत वैष्णवी वर्ण व्यवस्था भेदभाव से रहित, समता मूलक समाज की स्थापना करती है। इसके लिए नीचे देखें।

   [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर

  
▪️ ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था भेदभाव मूलक है।

भारतीय समाज में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है कि - ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था पूरी तरह से भेदभाव पर आधारित है। जिसमें ऊँच-नींच का भेद बहुतायत देखने को मिलता है। जिसकी पुष्टि- मनुस्मृति के अध्याय- ८ के श्लोक (२७०) और (२७७) से होती है। जिसमें आचरणगत विधानों के अन्तर्गत शूद्रों के लिए कठोर दण्ड का आदेश दिया है। जिसमें यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति उच्च वर्ण के व्यक्तियों के प्रति अपराध करते है तो उसके लिए सबसे जघन्यतम दण्डों का विधान है। वहीं दूसरी तरफ उच्च वर्गों के लिए न्युनतम दण्ड का प्रावधान किया गया है इसके लिए निम्नलिखित श्लोक देखें -

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः॥२७०॥

विट्शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः॥२७७।।


अनुवाद:-
• शूद्र लोग यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पापी कहे तो उसे जिह्वाच्छेदन का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि उसकी उत्पति जघन्य (सबसे नींचे) के स्थान से है।२७०।
• वैश्य और शूद्र भी इस प्रकर आपस में गाली दें तो पूर्वोक्त दण्ड की व्यवस्था करे अर्थात वैश्य शूद्र को गाली दे तो उसे प्रथम साहस और शूद्र वैश्य को गाली दे तो उसे मध्यम साहस का दण्ड दे। ऐसे अवसर पर शूद्र की जीभ न काटना यही दण्ड का निश्चय है।२७७।
   
कुछ इसी तरह का वर्णन गौतमस्मृति द्वादश- अध्याय- के श्लोक- (१) से (६) में मिलता है। जिसमें भेदभाव पर आधारित दण्ड का प्रावधान किया गया है।

शूद्रो द्विजातीनभिसन्धायाभिहत्य च वाग्‌दण्ड।
पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात् ॥१॥

आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च ॥२॥

गोप्ता चेद्वधोऽधिकः॥३॥

अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूर
णमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः॥४॥

आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्डयः ॥५॥

शतं क्षत्र्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे ॥६॥


अनुवाद- १-६
• शूद्र यदि द्विजातीय वर्ण के व्यक्ति से अपशब्द बोले तो उसकी जिह्वा खींच लेनी चाहिए जिस अँग से कुछ परुषता (अपराध) या कठोरता होने पर उसको भी काट देना चाहिए।१।
• यदि शूद्र तीनों वर्ण की किसी स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो उसका लिंग काट देना चाहिए और उसकी सब सम्पत्ति छींन लेनीं चाहिए।२।
• यदि उसके रक्षक के वध की जिससे अधिक सम्भावना हो तो उनकी भी निगरानी रखनी चाहिए।३।
• वेदों को सुनने वाले शूद्रों के कानों में पिघलता हुआ सीसा (lead) धातु उसके कानों में डलवा देना चाहिए।४।
अर्थात्- वैदिक पाठ सुनने के लिए शूद्रों के कानों को पिघले हुए टिन या लाख से भरने का अधिकार है, वेदों की ऋचाओं को बोलने पर उसकी जीभ काट दी जानी चाहिए तथा उसे अंगभंग कर देना चाहिए ।।४।
और यदि वह याद करता है, तो उसके शरीर को अलग कर दिया जाना चाहिए।
• यदि शूद्र आसन शयन वाणी और मार्ग में बराबरी करता है तो वह दण्ड पाने योग्य है।५।

कुछ इसी तरह का विधान मनु ने भी अपनी मनुस्मृति में किए हैं। नींचे देखें-

शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।३७४।
      (मनुस्मृति के अध्याय - ८ /३७४)


अनुवाद- यदि शूद्र किसी असुरक्षित द्विज (ब्राह्मण) स्त्री के साथ सम्भोग करता है तो उसे अपना अपराधी अंग को खोना पड़ता है, और यदि वह वही अपराध किसी सुरक्षित द्विज स्त्री के साथ सम्भोग करता है तो उसे अपने प्राण गंवानें पड़ते हैं।३७४।

ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥१३५)

      (मनुस्मृति के अध्याय - २/ १३५)

अर्थात्- दस साल का ब्राह्मण भी सौ साल के क्षत्रिय के पिता के समान है।

मनुस्मृति के समान ही कुछ श्लोक मत्स्यपुराण के अध्याय -२७७ में भी मिलता है। जिसमें जातिगत आधार पर भेदभाव करते हुए दण्ड का प्रावधान किया गया है। इसके लिए नीचे देखें।

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।८४।

केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च।८५।

अनुवाद- ८४-८५
• यदि कोई नींच जाति वाला व्यक्ति उत्कृष्ट जाति वाले व्यक्ति के साथ आसन पर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमर में एक चिन्ह बनाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दे या उसके गुदा (नितम्ब) भाग को कटवा दे।८४।
• इसी प्रकार यदि कोई निम्न जाति वाला किसी उच्च जातीय व्यक्ति के केशों को पकड़ता है तो उसके हाथ को बिना विचार किए ही कटवा देना चाहिए। इसी प्रकार का दण्ड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोष (वृषण) के पकड़ने पर भी देना चाहिए।८५।

✴️  कुछ इसी तरह की बातें मूर्ख, पाखण्डी और कर्महीन ब्राह्मणों के लिए भी देवी भागवतपुराण तृतीय स्कन्ध के अध्याय-(१०) के निम्नलिखित श्लोकों में कहीं गई है कि-

'यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३॥

"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण शूद्र-तुल्य होता है। क्योंकि वह न तो सम्मान (पूजा) के ही योग्य होता है। और न ही वह दान देने का पात्र ही होता है। वह सभी धार्मिक शुभ कार्यों में निन्दनीय होता है। ।३३।

देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा ॥३४॥

"अनुवाद:- किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्र विहीन ब्राह्मण कर (टेक्स) देने वाले शूद्र की भाँति राजा द्वारा  समझा जाना चाहिए।३४।

नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता ॥३५॥

अनुवाद:-  फल की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि वह पितृ कार्य और देव पूजा के अवसर पर उस मूर्ख ब्राह्मण को आसन पर न बिठाऐ ।३५।

राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु ।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः॥३६॥


अनुवाद:- राजा भी वेदज्ञान विहीन ब्राह्मण को शूद्रतुल्य समझे और उसे धार्मिक शुभ कार्यों में नियुक्त न करे अपितु उसे खेती बाड़ी के कार्य में लगा दे।३६।

विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥

"अनुवाद:- वेद ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से स्वयं श्राद्ध कार्य कर लेना उचित है। किन्तु मूर्ख (अज्ञानी) ब्राह्मण से कभी श्राद्ध कार्य नहीं कराना चाहिए ।३७।

आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते ।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः॥३८॥


"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण को भाेजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिए ! क्यों की दान देने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। और दान लेने वाला तो घोर नरकों में ही जाती है।३८।

धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि ॥३९


"अनुवाद:- उस राजा के राज्य को धिक्कार है जिसके राज्य में मूर्ख लोग निवास करते हैं। और मूर्ख ब्राह्मण भी ‌दान सम्मान आदि से पूजित होते हैं।३९।

आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि ।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै ॥४०


"अनुवाद:- जहाँ मूर्ख और विद्वान के बीच आसन-पूजन और दान में किञ्चित्मात्र भी भेद नहीं माना जाता है। अत: विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञानी और मूर्ख की अवश्य पहचान कर ले।३९-४०।

मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन ॥४१॥

"अनुवाद:-
जहाँ दान' मान और परिग्रह में मूर्ख व धूर्त लोग महान गौरवशाली माने जाते हैं। उस देश में विद्वानों को किसी भी प्रकार नहीं रहना चाहिए।४१।

असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते ॥४२॥


"अनुवाद:- दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जन व्यक्तियों के उपभोग के लिए ही होती हैं। जैसे नीम के फल (निबोरीयों) से अधिक लदे हुए नीम के वृक्ष पर बैठकर केवल कौए ही निबोरियाें को खाते  हैं।४२।
इतना ही नहीं यज्ञों में पशुमेध करने वाले ब्राह्मणों का भी वर्णन है।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के द्वारा पशुहिंसा और मांस खाने के विधानों की पुष्टि श्रीमद्देवी भागवत पुराण से भी होती है। इसके लिए निम्नलिखित उदहारण दिये जा सकते हैं -

वेदधर्मेष हिंसा स्यादधर्मबहुला हि सा।
कथं मुक्तिप्रदो धर्मो वेदोक्तो बत भूपते।।४९

प्रत्यक्षेण त्वनाचार: सोमपानं नराधिप।
पशुनां हिसांनं तद्वभ्दक्षणां चामिषस्य च।। ५०

सौत्रामणौ तथा प्रयोक्ता: प्रत्यक्षेण दुराग्रह:।
द्यूतक्रीडा तथा प्रोक्ता व्रतानि विविधानि च ।।५१

( श्रीमद्देवी भागवत पुराण - १/ १९)

अनुवाद - शुकदेव जी जनक जी से बोले -
हे भूपते ! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं, ऐसी दशा में वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है ? हे राजन! सोमरस - पान, पशुहिंसा और मांस भक्षण तो स्पष्ट ही आनाचार है। सौत्रामणियज्ञ से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूत क्रीड़ा एवं अन्यान्य प्रकार के व्रत बताये गये हैं।

द्विजैर्भोगरतैर्वेदे दर्शितं हिंसनं पशो:।
जिह्वास्वादपरै: काममहिंसैव परा मता।। ५६

  ( श्रीमद्देवी भागवत पुराण - ४/ १३ व्यास जन्मेजय संवाद )

अनुवाद -
व्यास जी जन्मेजय से कहते हैं कि - भोगपरायण तथा अपनी जिह्वा के स्वाद के लिए सदा तत्पर रहने वाले द्विजोंने 
 वेदोंमें पशुहिंसा का उल्लेख कर दिया है। किन्तु सच्चाई यह है कि अहिंसा को ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है।



ये उपर्युक्त सभी बातें ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें सामाजिक एवं जातीय भेद भाव के आधार पर दण्ड और तिरस्कार का विधान निर्धारित किया गया है जो किसी भी तरह से न्याय संगत नहीं है। किन्तु इसके ठीक विपरीत वैष्णव वर्णव्यवस्था- समानता मूलक सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण अन्तर को नींचे देखें -

▪️ वैष्णवी वर्ण- व्यवस्था समतामूलक है-  

ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के ठीक विपरीत वैष्णवी व्यवस्था समतामूलक सामाज पर आधारित है। जिसमें स्त्री-पुरुष, जाति-पाँति, ऊँच-नींच, अपना-पराया इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं है। इस सम्बन्ध में वैष्णव वर्ण के महा प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-(९) के श्लोक- (३२) में अर्जुन से कहते हैं कि -

'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।३२।।


अनुवाद - हे पार्थ ! यदि स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले भी हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।३२।

इसी प्रकार से भागवत पुराण में वैष्णव धर्म की प्रवृत्ति के बारे में बहुत ही अच्छा लिखा गया है कि वैष्णव धर्म में ऊँच-नींच एवं जातीय भेद-भाव नहीं है।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥२१।

            (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१४/२१)
भगवान् के वचन – मैं सन्तों का प्रिय और आत्मा हूँ, मेरी प्राप्ति श्रद्धा व अनन्य भक्ति से ही होती है । मेरी अनन्य भक्ति में यह सामर्थ्य है कि वह जन्मजात (श्वपाक) चाण्डाल को भी अत्यन्त पवित्र बना देने वाली है।२१।

न यस्य जन्म कर्मभ्याम् न वर्ण आश्रमजातिभिः।
सज्जते अस्मिन् अहंभावः देहे वै स हरेः प्रियः।।५१।।


न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥५२॥
     (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/२/५१,५२)


अनुवाद -५१-५२
• भागवत धर्म (वैष्णव वर्ण) में न वर्णाश्रमगत भेद है, न जातिगत भेद ही, न जन्मगत भेद है, न कर्मगत । यहाँ तक कि देह-धर्मों का भी भेद नहीं है। ऐसा सर्वभूत शम ही उत्तम भागवत धर्म है ।५१।
• जो धन सम्पत्ति अथवा शरीर आदि में- "यह अपना है और यह पराया" इस प्रकार का भेदभाव नहीं रखता, समस्त पदार्थ में समस्वरूप परमात्मा को देखता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।५२।

न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान् नृणामखिलपापक्षयः।
यन्नाम सकृच्छ्रवणात् पुल्कसकोऽपि विमुच्यते संसारात् ॥ ४४ ॥           

               (श्रीमद्भागवत पुराण-१६/६/४४)
अनुवाद -
भगवान् ! आप के दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षींण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है।४४।

भगवान श्रीकृष्ण समाज में ऊँच-नींच का भेदभाव रखनें वालों से अपनी भक्ति तथा कृपा से सदैव दूरी बनाकर रखते हैं। और ऐसे लोग जो समाज में भेदभाव पैदा करते हैं उनके लिए दण्ड का प्रावधान करते हुए कहते हैं कि-

यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥६॥
                 (भागवत पुराण- ३/१६/६)

अनुवाद:-
मेरी निर्मल सुयश सुधा में गोता लगाने से चाण्डाल पर्यन्त सारा जगत तुरन्त पवित्र होकर कुण्ठा रहित हो जाता है। इसलिए मैं विकुण्ठ कहलाता हूँ। किन्तु मुझे यह पवित्र कीर्ति आप भक्तों से ही प्राप्त होती है। इसलिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, मैं उसे तत्काल काट डालुँगा चाहें वह मेरी बाहू (भुजा) ही क्यों न हो।६।

और वैष्णव भक्तों की रक्षा तथा वैष्णव धर्म एवं समता मूलक समाज को स्थापित करने के लिए भगवान समय-समय पर भूतल पर अवतरित भी होते हैं।

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।
                        (श्रीमद्भगवद् गीता- ४/७)

अनुवाद:-
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।७।

अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरो में भटकते हुए व्यक्ति को कहीं शान्ति और सत्य के दर्शन नहीं होते तो भगवान श्रीकृष्ण यह सार्वजनिक घोषणा करते हैं कि-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६।
                
  (श्रीमद्भगवद्गीता (१८/६६)
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर।६६।

(व्याख्या)- भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के प्रति यह उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि जिस-जिस धर्म और समाज में भेद-भाव की प्रधानता हो उसे तुरन्त छोड़कर भक्तों को मेरी शरण में आ जाना चाहिए। मैं उन सभी भक्तों को पाखण्डपूर्ण समाज से मुक्त करके अवश्य उनका कल्याण करूँगा।

सामान्य रूप से देखा जाए तो वैष्णव-वर्ण और चातुर्वर्ण्य में प्रमुख रूप से (६) प्रकार के निम्नलिखित वैचारिक अन्तर भी देखे जाते हैं।

(१) पहला यह की ब्राह्मी वर्णव्यवस्था- में सभी मनुष्य एकसमान अधिकार वाले नहीं हैं। जबकि वैष्णव वर्ण में सभी बराबर हैं।
वैष्णव सन्तो का उद्घोष है कि-"हरि को भजे सो हरि को होई !  जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"

(२)- दूसरा अन्तर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है कि- ब्रह्माजी की वर्ण - व्यवस्था में चारो वर्णों के लोग अपने-अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर करते  हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो। 

जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।

(३) - इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन जन्म के आधार पर चार मानव समूहों (ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में होता है।
जबकि वैष्णव वर्ण में बिना वर्ग विभाजित हुए इसके सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार सभी कर्मों को करने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। चाहे वह क्षत्रियोचित कर्म हो या ब्राह्मणत्व कर्म हो।

(४) - चौथा सबसे बड़ा अन्तर यह है कि- श्रौत और स्मार्त (श्रुति- वेद मूलक) स्मार्त (स्मृति- मूलक) ब्राह्मण, (धर्मशास्त्रमूलक) धर्म की कट्टरता को नासमझ लोग भागवत धर्म में घटाने लगते हैं। परन्तु भागवत धर्म ही वैष्णव वर्ण- व्यवस्था का आधार है। जबकि स्मृतियाँ- ब्राह्मण वर्णव्यवस्था- का आधार है।

(५) पाँचवां इन दोंनो व्यवस्थाओं में अन्तर यह है कि- ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है कि- चातुर्वर्ण्य के लोग अपने वर्ण के दायरे में रहकर ही कार्य (जीविका-उपार्जन के व्यवसाय) करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह पुरोहित- कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।
इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से भी होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए परिव्राट् मुनि कहते है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥


सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।


अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।३०-३६।

विशेष:-मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कारुष वंश के एक राजा नाभाग जो दिष्ट के पुत्र थे। विशेष—इनकी कथा उक्त पुराण में इस प्रकार है—जब ये युवावस्था को प्राप्त हुए तब एक वैश्य की कन्या को देखकर मोहित हो गए और उस कन्या के पिता द्धारा अपने पिता से विवाह की आज्ञा माँगी। ऋषियों की सम्मति से पिता ने आज्ञा दी कि पहले एक क्षत्रिय कन्या से विवाह करके तब वैश्य कन्या से विवाह करे तो कोई दोष नहीं होगा। नाभाग ने पिता की बात न मानी। पिता पुत्र में युद्ध छिड़ गया। परिव्राट् मुनि ने यह युद्ध शान्त किया। नाभाग वैश्य कन्या का पाणिग्रहण करके वैश्यत्व को प्राप्त हुए।

इन उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्माजी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
       
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबन्ध के कर सकते हैं। वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन  अध्याय- (११) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, वाणिज्य एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतन्त्र रूप से बिना किसी प्रतिबन्ध के करते हैं।

(६)- और अन्त में सबसे महत्वपूर्ण छठवाँ अन्तर यह है कि -
ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में दास को सबसे निकृष्ट कर्म करने वाला बताया गया तथा उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति- अध्याय २- के श्लोक संख्या- (३१ और ३२) से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥३१।

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥३२।

अनुवाद- ३१-३२
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत्- (यज्ञ में पशु बलि करने से सम्बन्धित अथवा मूलक) होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से सम्बन्धित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से सम्बन्धित होना चाहिए, जबकि शूद्र (दास) का नाम घृणित होना चाहिए। ३१।
• ब्राह्मण का नाम शर्मवत् , क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम दासत्व (गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए। ३२।

जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में सभी भक्त अपने आप को भगवान का दास मानते हुए अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझाते हैं। या यूं कहें कि वैष्णव भक्तों को दास ही कहा जाता है जैसे- रैदास, सूरदास, कबीरदास, मलूकदास इत्यादि। और एक सच्चा वैष्णव भक्त जब भी अपनी भक्ति का फल भगवान से मांगता हैं, तो वह केवल भगवान के दासत्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगता।
      
वास्तव में देखा जाए तो वैष्णव सन्तों में दास पदवी का प्रचलन वैष्णव भक्त राजा ययाति के द्वारा ही हुई।

क्योंकि पूर्वकाल में जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का का ही वर माँगा।
इस सत्य की पुष्टि -पद्मपुराण-भूमिखण्ड के अध्याय-( ८३) के श्लोक- (८०) से होती है।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०


अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी ! हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) ही दीजिए।८०।

अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में परमोदार ( दाता ) और दानी  के रूप में भी हुई है। दास शब्द दान देने (दासृ= दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस निम्न ऋचा को देख  लें-
यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥  

                             (ऋग्वेदः सूक्तं ४/२/७)

▪️हे अग्निदेव ! उसके यहाँ एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान्सा- यणभाष्यम्)
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि- वैष्णव भक्तों के लिए दास शब्द ही यथार्थ है। जिसका अर्थ- दान कर्ता भी है। जिसमें दास शब्द अपने विकास क्रम में कई अर्थों को धारण करता हुआ आज वैष्णव भक्तों का वाचक है।। इस सम्बन्ध में और विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय -(७) के भाग- (१) "महाराज यदु के परिचय" में दी गई है।

इस प्रकार से यह भाग (दो) वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताओं की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब हमलोग इसी क्रम में भाग (तीन) में भारतीय समाज में वंश की अवधारणा एवं यादवों के वंश को जानेंगे।

भाग-(३) यादवों का वंश।


जाति और वंश में बस इतना ही अन्तर है कि जाति एक सामूहिक नाम है और वंश उस जाति समूह का व्यक्तिगत नाम है। वास्तव में देखा जाए तो वंश- दो प्रकार के होते हैं।
(१) प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश।
(२) टोटम या आध्यात्मिक वंश

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(१) प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश-:

जब किसी जाति के अन्तर्गत किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर सर्वप्रथम पहचान स्थापित होती है तो उस व्यक्ति के नाम पर उस जाति का एक वंश स्थापित होता है। इस तरह के वंश को प्राथमिक या व्यक्तिगत वंश कहा जाता है।
इस तरह के वंश के लिए कोई आवश्यक नहीं है कि वह विशेष व्यक्ति जिसके नाम पर वंश बना है, वह राजा ही हो। क्योंकि ऐसे बहुत से वंश हैं जो किसी ऋषि-मुनि के नाम से ही बनें हैं। जैसे ब्राह्मण जाति में जो वंश बनें हैं वे सभी किसी न किसी ऋषि मुनि के नाम से ही हैं।
इस तरह के वंश में उस जाति का( Blud rilative) ब्लड रिलेशन होता है।
जैसे यादवों का वंश "यदुवंश" सर्वप्रथम महाराज यदु से स्थापित हुआ जिसमें यादवों का ब्लड रिलेशन है। इसके बारे में आगे विस्तार से बताया गया है।


(२) टोटम या आध्यात्मिक वंश -:

टोटम किसी समूह के लोगों का प्रतीक होता है, जैसे कि परिवार, कबीला, वंश या जनजाति. यह एक पवित्र वस्तु, आत्मिक प्राणी या प्रतीक हो सकता है. 
गणचिह्नवाद या टोटम प्रथा (totemism) किसी समाज के उस विश्वास को कहतें हैं जिसमें मनुष्यों का किसी जानवरवृक्षपौधे या अन्य आत्मा से सम्बन्ध माना जाए। 'टोटम' शब्द ओजिब्वे (Ojibwe) नामक मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले की भाषा के 'ओतोतेमन' (ototeman) से लिया गया है, जिसका मतलब 'अपना भाई/बहन रिश्तेदार' है। इसका मूल शब्द 'ओते' (ote) है जिसका अर्थ एक ही माँ के जन्में भाई-बहन हैं जिनमें ख़ून का रिश्ता है और जो एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते। अक्सर टोटम वाले जानवर या वृक्ष का उसे मानने वाले क़बीले के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है और उसे मारना या हानि पहुँचाना वर्जित होता है,

जब किसी जाति के लोग सामूहिक रूप से किसी प्राकृतिक वस्तु जैसे तारे, ग्रह या उपग्रह को आध्यात्मिक प्रतीक या चिन्ह के रूप स्वीकार करते हुए उसको अपना ईष्ट देव मानकर उसी के नाम पर अपना एक वंश स्थापित करते हैं तो इस तरह के वंश को टोटम या आध्यात्मिक वंश कहा जाता है। इस तरह के वंश में उस जाति का किसी भी तरह से ब्लड रिलेशन नहीं होता है। जैसे चंद्रवंश और सूर्यवंश।

हो सकता है कि जो लोग अपने को सूर्यवंशी मानते हों उनका सूर्य से ब्लड रिलेशन होता होगा किन्तु जितने चन्द्रवंशी हैं उनका चन्द्रमा से ब्लड रिलेशन नहीं है। 
क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि तारे और ग्रहों से पुत्र इत्यादि पैदा करके किसी जाति की जन्मगत वंशावली बताकर उनमें ब्लड रिलेशन स्थापित करना महामूर्खता होगी क्योंकि चन्द्रमा कोई मानव नहीं है कि उससे पुत्र या पुत्री उत्पन्न होंगी। वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए चन्द्रमा से पुत्र इत्यादि उत्पन्न करना अवैज्ञानिक एवं कोरी कल्पना ही है। जिसे वर्तमान समय में किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसा वंश अर्थात् आकाशीय पिण्डों वाला वंश केवल आस्था, टोटम और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही स्वीकार्य किये जा सकतें हैं। इसी आस्था और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यादवों का प्रथम वंश "चन्द्रवंश" हुआ है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि यादव चन्द्रमा से उत्पन्न हुए हैं। जबकि इस सम्बन्ध में वास्तविकता यह है कि सभी यादव चन्द्रमा से नहीं बल्कि भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं। इसकी पुष्टि- गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि समस्त यादवों की उत्पत्ति चन्द्रमा से नहीं बल्कि श्रीकृष्ण से हुई है।

और जिस तरह से यादवों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से हुई, उसी तरह से प्रारम्भिक काल में चन्द्रमा की भी उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से उत्पन्न विराट विष्णु से हुई। इसकी पुष्टि ऋग्वेद के १०/९०/१३ की ऋचा से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।


अर्थात् - परमात्मा-रूपी पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, उसके चक्षु से सूर्य, श्रोत्र से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि, उत्पन्न हुई।

✳️ ज्ञात हो पूर्व काल से ही चन्द्रमा और यादवों की उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों और चन्द्रमा में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। जिसके परिणाम स्वरूप यादवों ने भूतल पर चन्द्रमा को अपना प्रथम ईष्ट देव मानकर चन्द्रमा के नाम पर अपना आध्यात्मिक एवं प्राथमिक वंश "चन्द्रवंश" को स्थापित किया।

और हर द्वापर युग में भूतल पर इसी चन्द्रवंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ करता है। इसकी पुष्टि- विष्णु पुराण के पञ्चंम अंश के अध्याय-२३ के श्लोक सं- २४ में कहते हैं कि-
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः कुले।
वसुदेवस्य  तनयो  यदोर्वंशसमुद्भवः।।२४।

अनुवाद - मैं चन्द्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।

और आगे चलकर इसी चन्द्रवंश में महाराज यदु के नाम पर यदुवंश का उदय हुआ जिसके समस्त सदस्यपत्तियों को यादव कहा जाता है। इसकी पुष्टि-
विष्णु पुराण के चौथे अंश के अध्याय- ग्यारह के श्लोक २८ से ३० से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

यतो वृष्णिसंज्ञामेतद्  गोत्रमवाप।। २८।।
मधुसंज्ञाहेतुश्च  मधुरभवत्।। २९।।
यादवाश्च यदुनामोपलक्षणादिति।। ३०।।


अनुवाद - २८-३०
मधु के कारण इसकी संज्ञा मधु हुई और यदु के नामानुसार  इस वंश के लोग यादव कहलाए।

• जिस तरह से भगवान श्रीकृष्ण को चन्द्रवंश में अवतरित होने की पुष्टि होती है उसी तरह से उनको यादव वंश में भी अवतरित होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ के पूर्वाद्ध से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।

अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण को अहीर जाति के यादव वंश के गोकुल में जन्म लेने की पुष्टि- हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ से होती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।


अनुवाद - इसीलिए  व्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों (आभीरों) में अवतार ग्रहण किया है।

(यादव वंश को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय (७) में बताया गया है। जहाँ आपको यादवों के आदि पुरुष महाराज यदु का जीवन परिचय एवं यादव वंशावली की क्रमिक जानकारी मिलेगी।)

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि आभीर जाति के विकास क्रम में चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुवंश का उदय हुआ। यदुवंश में भगवान श्रीकृष्ण को अवतरित होने से ही उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको आभीर जाति  में जन्म लेने से उन्हें आभीर  कहा गया जो उनके जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति अर्थात् व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी कुल मूलक पहचान के लिए वार्ष्णेय कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण सहित आभीरो को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
                    
अब हमलोग इसी क्रम में यादवों के कुल के बारे में जानेंगे। जो इस अध्याय के भाग (४) में वर्णित है।

भाग- (४) कुल

ज्ञात हो कि- कुल और गोत्र में बहुत अन्तर नहीं होता है। क्योंकि कुल और गोत्र दोनों ही रक्त सम्बन्ध के ही प्रतीक हैं। दोनों में केवल अंग और अंगी जैसा अन्तर है किन्तु दोनों का मूल आधार रक्त सम्बन्ध ही है। जिसमें गोत्र परिवारों एवं परिवारों का एक सामूहिक रूप है, जिसमें उनका एक जनन अर्थात् (Genetic) गोत्र होता है, जो सदैव निर्देशित करता है कि सात पीढ़ी तक एक ही कुल या परिवार में विवाह वर्जित है।
वास्तव में देखा जाए तो गोत्र नाम की आवश्यकता विवाह इत्यादि के समय होती है। बाकी अपनी पहचान इत्यादि के समय गोत्र और कुल का नाम एक ही सन्दर्भ में प्रयुक्त होता। इस भिन्नता को समझने की आवश्यकता है तभी भगवान श्रीकृष्ण सहित यादवों के जन्म और उनके कुल, गोत्र, वर्ण, और वंश  व जाति की वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो पाएगा। जैसे-

पौराणिक ग्रन्थों में कहीं-कहीं यादवों के वंश "यदुवंश" को ही "कुल" तथा कहीं-कहीं यादवों के वर्ण "वैष्णव" को कुल और कहीं पर यादवों के कुल "गोप कुल" को मुख्य कुल मानकर भगवान श्रीकृष्ण को भूतल पर जन्म लेने को बताया गया है। किन्तु सभी तरह से कही गई बातें एक ही है, इसको अच्छी तरह से समझनें की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित (तीन) उदाहरण प्रस्तुत है।

(१)- श्रीकृष्ण का जन्म यदु वंश में -

(क)- पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- (१७) के श्लोक संख्या-(१६१) में सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-
यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१६१।


अनुवाद - हे विष्णु ! जब तुम यदु के वंशज (वृष्णि) कुल में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बनकर गोप रूप में लम्बे समय तक इधर-उधर भ्रमण करते रहोगे।१६१।

(ख)- गर्गसंहिता के विश्वजितखण्ड के अध्याय- (२८) के श्लोक संख्या (४५) व (४६) में श्रीकृष्ण का जन्म यादवों के कुल वृष्णि में होने की पुष्टि होती है।

राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५


भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।।४६।

अनुवाद - ४५-४६
• राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुओं ( यादवों) के वृष्णि नामक कुल में  श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए है। अर्थात्  यदु के एक सौ एक कुल हैं जिसमें वृष्णि कुल  में कृष्ण का जन्म हुआ है ।४५।
• पृथ्वी का भार उतारने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण ने उग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए सम्पूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४६।

(उपर्युक्त श्लोकों में श्रीकृष्ण को यदुवंश के  कुल में जन्म लेने की बात कही गई है। ऐसे ही बहुत से उदाहरण हैं उन सभी को दोहराना उचित नही है।)
विशेष:- एक जाति में  अनेक वंश और एक वंश में अनेक कुल ऱ एक कुल या गोत्र में अनेक परिवार होते हैं। यद्यपि कुल के लिए कभी कभी गोत्र शब्द एक विवाह में वर -वधु के रक्त विभेदक की भूमिका में महत्वपूर्ण होता है।

(२)- श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में -

(क)- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कन्ध के अध्याय-(६) के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में होने की पुष्टि होती है। जिसमें ब्रह्माजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि-

अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।। २३।

यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पंचविंशाधिकं प्रभो।।२५।

    
अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएँ कीं ।२३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये "एक सौ पचीस वर्ष" बीत गए हैं।२५।
       
(ख)- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध के अध्याय -(४) के श्लोक संख्या- (२२) में श्रीकृष्ण का जन्म यदुवंश में होने की पुष्टि होती है।


(३)- श्रीकृष्ण का जन्म गोप कुल या आभीर जाति में -

हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में श्रीकृष्ण का जन्म गोप जाति या आभीर जाति में होने को बताया गया है। जिसकी पुष्टि स्वयं श्रीकृष्ण ने ही किये हैं।

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८


अनुवाद - इसीलिए  व्रज में मेरा यह निवास हुआ है ; और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।

(हरिवंश पुराण उपर्युक्त श्लोकों में श्रीकृष्ण को गोपजन्म विशेषण पद से   गोपजाति में जन्म लेने की बात कही गई है। ऐसे ही और भी बहुत से उदाहरण हैं।)

अतः भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से सम्बन्धित उपर्युक्त सभी श्लोकों से सिद्ध होता है किसी भी जाति में एक वंश होता है और वंश में अनेकों कुल और गोत्र होते हैं एक कुल में अनेक परिवार होते हैं।।

महाभारत काल में यादवों के कुलों की संख्या एक सौ से भी अधिक थी। उन सभी का एक ही मुख्य महाकुल था जिसका नाम था "वैष्णव महाकुल" इसी वैष्णव महाकुल में यादवों के अनेकों कुल- अन्धक, वृष्णि, कुकुर, भोज इत्यादि थे।
जिनको कुल या खानदान के नाम से जाना भी जाता था। इसकी पुष्टि- वायुपुराण के उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-(३४) के श्लोक- २५५ और २५६ से होती है।

कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।


अनुवाद:- २५५-२५६
• यादवों के एक सौ एक वैष्णव महाकुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
•  अर्थात् उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

इसी तरह से मत्स्यपुराण के अध्यायः (४७) के श्लोक (२८)और (२९) में यादवों के मुख्य वैष्णव महाकुल में सौ से अधिक उपकुल होने को बताया गया है-

कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।२८।

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।२९।

अनुवाद - २८-२९
•  इन महाभाग यादवों के एक सौ एक कुल थे। जो सब-के सब श्रीकृष्ण से सम्बन्धित वैष्णव महाकुल के अन्दर ही विद्यमान थे।।२८।
• भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) उनके नेता और स्वामी थे। तथा वे सभी यादव श्रीकृष्ण की आज्ञा के अधीन रहते थे "ऐसा कहा जाता है।।२९।

अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि यादवों का एक मुख्य अथवा महाकुल है जिसका नाम है "वैष्णव महाकुल है।" इसी वैष्णव महाकुल में अनेकों उपकुल हैं जो वैष्णव नाम से ही जानें जातें हैं, क्योंकि उन सभी में प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित रहते हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं। इस बात की प्रमाणिकता के लिए नीचे वर्णित वायुपुराण उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-३४ के श्लोक- २५६ को देख सकते हैं-

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।


अनुवाद:- उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

अब हमलोग इसके अगले भाग- (५) में यादवों के प्रमुख गोत्रों के बारे में जानेंगे कि यादवों में कितने प्रकार के गोत्र होते हैं।

भाग- (5) यादवों का गोत्र-


इस भाग का मुख्य उदेश्य किसी जाति के अन्तर्गत गोत्रों का निर्धारिण कब और कैसे होता है इस तथ्य की जानकारी देना है। इसी क्रम में यादवों के प्रमुख गोत्रों के बारे में भी जानकारी देना है कि यादवों में कितने गोत्र और उपगोत्र हैं ?

तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि किसी भी जाति में व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार या कहें तीन तरह से स्थापित होता है-

(१)- जनन या (Genetic) गोत्र।
(२)- स्थानीय गोत्र।
(३)- गुरु गोत्र।


उपर्युक्त तीनों प्रकार के गोत्रों के बारे नीचे क्रमबद्ध रूप से बताया गया है।

(१)- जनन या (Genetic) गोत्र।

जनन गोत्र को मूल गोत्र भी कहा जाता है। शास्त्रों में जनन गोत्र को ही पिण्ड गोत्र कहा गया है। यह गोत्र अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करते हुए यह पहचान कराता है कि किसी व्यक्ति का जन्मगत आधार क्या है और उसकी प्रारम्भिक उत्पत्ति किससे हुई है। अर्थात उसके प्रथम जनक कौन हैं।
जनन गोत्र में किसी जाति के समस्त व्यक्तियों का रक्त सम्बन्ध होता है जिनके प्रत्येक सदस्यों की (D.N.A.) संरचना लगभग एक समान होती है।
डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (संक्षिप्त रूप में DNA) वह अणु है जो किसी जीव के विकास और प्रवृत्तिमूलक तथ्यो के लिए आनुवंशिक जानकारी कराता है।
ये मनुष्यों के वंशमूलक गुणों का संवाहक है। गोत्र भी वंश मूलक अवयव ही हैं।
गोपों (यादवों) का जनन गोत्र "कार्ष्ण" है।
जो कृष्ण पद में सन्तान वाचक अण् प्रत्यय लगाने पर कृष्ण से "कार्ष्ण" पद बना है। (कृष्णस्येदम् + अण् = कार्ष्ण) जिसका अर्थ है श्रीकृष्ण की सन्तान अर्थात् जो श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ हो।
और इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि यादवों (गोपों) का जन्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण के क्लोन (Clone) से हुआ है, इसलिए समस्त यादवों का जनन गोत्र कार्ष्ण है। इसके बारे में आगे विस्तार बताया गया है कि कैसे यादवों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण से होने की वज़ह से उनका जनन गोत्र "कार्ष्ण" है।

कृष्ण का गोलोक में विराजमान गोपेश्वर ररूप से ही गोपों की उत्पत्ति हुई है।
किन्तु जनन गोत्र की बात तब तक अधूरी रहेगी जब तक भारतीय संस्कृति और शास्त्रों के आधार पर इसकी जानकारी न हो जाए।

भारतीय संस्कृति व पौराणिक ग्रन्थों में मुख्यतः तीन प्रकार के जनन गोत्रों की जानकारी मिलती है -
(१) गोत्र
(२) प्रवर गोत्र
(३) पिण्ड गोत्र


ये तीनों ही प्रकार के गोत्र सन्निकट रक्त सम्बन्धों की श्रृंखला है। इन तीनों के बारे जानना आवश्यक है।

(१)- "गोत्र" शब्द से तात्पर्य विवाह इत्यादि के अवसरों पर अपने किसी आदि पुरुष के नाम पर अपना परिचय देना या उसके नाम का आह्वान करना है।
गोत्र के बारे में भरत मुनि का कहना हैं कि - "गोत्रम्- गवते शब्दयति पूर्व्वपुरुषान् यतिति"।
अर्थात्- जिसके द्वारा अपने "कुल" के पूर्व पुरुष का आह्वान किया जाए वह गोत्र है।

ध्यान रहे अमरकोश के अनुसार गोत्र कुल का भी पर्याय है।

(२)- प्रवर गोत्र

प्रवर का मतलब प्रधान, सर्वश्रेष्ठ या पूज्य होता है। इसी आधार पर "प्रवर" गोत्र की स्थिति बनी है। इस प्रकार के गोत्र श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों के नाम पर ही आधारित होते हैं। जो अधिकांशतः ब्राह्मणों के ही गोत्र हैं।

भारतीय विवाहों में प्रवर गोत्र का भी ध्यान रखा जाता है, अर्थात् समान प्रवर वालों में विवाह वर्जित है। देखिए गौतम, नारद तथा आपस्तम्ब के वचन-
समानैक: प्रवरो येषां तैः सह न विवाहः" (1.23.12)
A line of ancestors.पूर्वजों की एक पंक्ति प्रवर है।
प्रारम्भ में 'प्रवर' का अर्थ याज्ञिक कार्य से सम्बद्ध अग्नि का आवाहन करने वाले ऋषियों से ही था। वरणीय/ प्रार्थनीय/ आवाहनीय श्रेष्ठ ऋषि 'प्रवर' कहलाते थे। ये ऋषि उद्गाता भी कहे जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान में पुरोहित अपने सर्वश्रेष्ठ पूर्वज ऋषि का नाम-स्मरण करते थे, जो उनके समुदाय या समाज के प्रतीक थे। कालान्तर में ये ऋषि अपने वंशजों की सामाजिक, सांस्कारिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था से जुड़ते चले गए। ये ही ऋषि आगे चलकर प्रवर-प्रवर्तक हुए और उनके नामों पर अनेकों प्रवर गोत्र बने जो सभी ब्राह्मणों के लिए ही हैं।

(३)- पिण्ड गोत्र।

दरअसल देखा जाए तो जनन गोत्र और पिण्ड गोत्र का रक्त सम्बन्धी उत्पति सिद्धान्त एक ही है। बस इन दोनों में थोड़ा बहुत अन्तर है उसे जानना आवश्यक है। इसके लिए नीचे देखें -

(क)- जनन गोत्र-  
जनन गोत्र उस प्रारम्भिक स्थिति को दर्शाता है जहाँ से किसी जाति विशेष लोगों की प्रारम्भिक उत्पत्ति हुई है। जैसे- गोपों की प्रारम्भिक उत्पत्ति पूर्व काल में गोलोक में श्रीकृष्ण से हुई है। इस लिए गोपों का जनन गोत्र श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण है। यह गोपों का मूल व प्रारम्भिक गोत्र है।
इसके बारे में आगे विस्तार से बताया गया है।

(ख)- जनन गोत्र की ही तरह पिण्ड गोत्र भी हैं। किन्तु पिण्ड गोत्र "जनन" गोत्र के बाद की उत्पत्ति को दर्शाता है। पिण्ड गोत्र को पितृ- गोत्र भी कहा जाता है, जो किसी जाति विशेष के पूर्वजों के नाम से होता है जिसके कारण अनेक पिण्ड गोत्रों की उत्पत्ति होती है। इसी पितृ गोत्र को ध्यान में रखकर सगोत्र विवाह वर्जित होते है।

किन्तु माता की पाँचवीं तथा पिता की सातवीं पीढ़ियों के बाद सपिण्डता का दोष नहीं रहता है। वर्तमान समय में यादवों में उनके पूर्वजों के नाम पर बहुत से पिण्ड-गोत्र हैं जिनका यहाँ पर वर्णन करना सम्भव नहीं है।

इसी तरह से कुछ लोग अपनी प्रारम्भिक उत्पत्ति या जन्म को किसी ऋषि-मुनि से मानते हुए उनके नाम पर जनन गोत्र का निर्धारण करते हुए अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का सन्तान हूँ।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा की सन्तान मानते हैं। उन सभी का जनन गोत्र कहें या मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि का गोत्र।

अब आप लोगों यहाँ पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों ? सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं ? तो इसका जवाब है नहीं। क्योंकि सभी ब्राह्मण ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं।

 वास्तविकता यह है कि- प्रारम्भ में ब्रह्माजी के मुख से केवल ब्राह्मण पुरुष वर्ग ही उत्पन्न हुआ था न की ब्राह्मणी स्त्रियाँ। क्योंकि किसी भी पौराणिक ग्रन्थों में यह नहीं लिखा गया है कि ब्रह्माजी के मुख से ब्राह्मणों के साथ-साथ ब्राह्मणी स्त्रियाँ भी उत्पन्न हुईं थीं।

यहीं कारण है कि कुछ पौराणिक ग्रन्थों में ब्राह्मणों के जन्म विस्तार को अन्य तरह से बताया गया है। किन्तु यहाँ पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति या उनका गोत्र बताना हमारा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई इन बातों को जानना ही चाहता है तो वह स्कन्दपुराण खण्ड- (३) के अध्याय- (३९ ) के प्रसंगों को पढ़कर इस विषय की जानकारी ले सकता है कि कुछ ब्राह्मणों का जनन का विस्तार कैसे हुआ है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि जनन गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की व्यक्ति की प्रारम्भिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसी के नामानुसार उस व्यक्ति का जनन गोत्र निर्धारित होता है।


✴️ यादवों का जनन गोत्र- "कार्ष्ण"

जनन गोत्र सिद्धान्त के अनुसार यादवों का जनन गोत्र कार्ष्ण है। क्योंकि कृष्ण पद में सन्तान वाचक "अण्" प्रत्यय लगाने पर "कार्ष्ण" पद बना है। (कृष्णस्येदम् + अण् = कार्ष्ण) जिसका अर्थ है श्रीकृष्ण की सन्तान अर्थात् जो श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ हो।
इस हिसाब से देखा जाए तो आभीर जाति के अन्तर्गत समस्त गोप-गोपियों अर्थात् यादवों का जन्म प्रारम्भिक काल में गोलोक में ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से हुआ है। तो ऐसे में जाहिर सी बात है कि- गोपों में श्रीकृष्ण का तथा गोपियों में श्रीराधा का रक्त अवश्य ही विद्यमान होगा। और रक्त सम्बन्ध ही किसी जाति या जनन गोत्र का मूल आधार है कि उसमें प्रारम्भिक रक्त किसका है।

इस हिसाब से भी देखा जाए तो समस्त गोपों में श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि- उस समय होती है जब सावित्री द्वारा विष्णु को दिये गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कुछ कहा उसका वर्णन- स्कन्द पुराण खण्ड- (६) के नागरखण्ड के अध्याय- (१९३) के श्लोक -(१४) में मिलता है। जिसमें आभीर कन्या गायत्री विष्णु से कहती हैं कि -

"तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यन्ति श्लाघ्यताम्॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

अनुवाद - हे विष्णो (कृष्ण)! तुम्हारे रक्त सम्बन्धी (blood relative) सभी गोप (अहीर) बिना कुछ किये ही तुम्हारे द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त हो जाऐंगे।१४

देखा जाए तो उपर्युक्त श्लोक में देवी गायत्री बड़े ही स्पष्ट रूप से गोपों (आभीरों) को श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्धी (blood relative) होने को कहतीं हैं। और जहाँ तक गोप और गोपियों का जन्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से होने की बात है तो इसकी पुष्टि के लिए निम्नलिखित साक्ष्य प्रस्तुत हैं-

(१)-  ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) केश्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-

"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों (कोशिकाओं) से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों  (कोशिकाओं) से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।

(ध्यान रहे रोमकूपों को ही आज विज्ञान की भाषा में कोशिका कहा जाता है)
विशेष:-कोशिका" (Koshika) या "सेल" (Cell) सजीवों के शरीर की सबसे छोटी रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है. यह जीवन की मूलभूत संरचना है जो सभी जीवों को बनाती है. कोशिका के बारे में:
  • रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई:
    कोशिकाएं शरीर की संरचना का निर्माण करती हैं और सभी जैविक क्रियाओं को भी संचालित करती हैं. 
  • कोशिका सिद्धान्त:
    कोशिका सिद्धान्त के अनुसार, सभी जीव एक या एक से अधिक कोशिकाओं से बने होते हैं, और सभी कोशिकाएं पहले से मौजूद कोशिकाओं से उत्पन्न होती हैं. 
  • कोशिकाएं छोटी लेकिन जटिल:
    कोशिकाएं बहुत छोटी होती हैं, लेकिन इनकी संरचना और कार्य बहुत जटिल होते हैं. 
  • विभिन्न प्रकार की कोशिकाएं:
    शरीर में विभिन्न प्रकार की कोशिकाएं होती हैं, जैसे कि रक्त कोशिकाएं, मांसपेशी कोशिकाएं, तंत्रिका कोशिकाएं, आदि. 
  • अंगक:
    कोशिकाओं के अंदर अंगक होते हैं, जो विशिष्ट कार्य करते हैं, जैसे कि ऊर्जा का उत्पादन, पदार्थों का पाचन, और पदार्थों का संश्लेषण. 
  • कोशिका विभाजन:
    कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिकाएं बनाती हैं, जिससे शरीर का विकास और मरम्मत होती है. 

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(२)- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) , जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण   वेषेणैव  च  तत्समः। ४२


अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष-रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

(३)-  ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-

"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।

अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

(४) - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्याय- (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।

अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों (यादवों) का जन्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से ही हुआ है। तो जाहिर सी बात है कि गोपों अर्थात् यादवों का जनन (Genetic) गोत्र सिद्धान्त के अनुसार इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार "कार्ष्ण" ही हुआ। यह वैज्ञानिक और ध्रुव सत्य है।

✳️ किन्तु आश्चर्य है कि अधिकांश यादव लोग अपने जनन गोत्र "कार्ष्ण" के स्थान पर एक ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम पर अपना जनन गोत्र स्थापित कर अपने मूल जनन गोत्र को ही भूल गए।
यादवों का जनन गोत्र "कार्ष्ण" है या अत्रि ? इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (१०) में दी गई है। तथा संक्षेप में यहाँ भी (गुरुगोत्र) वाले प्रसंग में दी गई है।

अब हमलोग स्थानीय गोत्रों के बारे में भी जानेंगे।


✴️ (२)- स्थानीय गोत्र-

स्थानीय गोत्र को कभी-कभी कुल या खानदान भी कहा जाता है। स्थानीय गोत्र वे होते हैं- जो किसी व्यक्ति समूह की भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचाँन कराते हैं। इस तरह के गोत्रों की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति और वंश के लोग किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से प्रव्रजन (Migrate) कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनका एक उपगोत्र बन जाता हैं। किन्तु उनका मूल जननगोत्र पूर्ववत बना रहता है।
इस तरह के स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रान्तों में यादवों की पहचान अलग-अलग स्थानीय गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" जिसमें श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है वह पूर्ववत बना रहता है।

महाभारत काल में यादवों के स्थानीय गोत्र (कुल) एक सौ से भी अधिक थे। जिनको कुल या खानदान के नाम से जाना भी जाता था। इनके सभी कुलों को श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव महाकुल कहा गया है, क्योंकि उनमें भी श्रीकृष्ण का ही रक्त सम्बन्ध है। इसकी पुष्टि- वायुपुराण उत्तरार्द्ध भाग के अध्याय-(३४) के श्लोक- (२५५) और (२५६) से होती है।

"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। २५६।


अनुवाद:- २५५-२५६
• यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
•  उन सबके प्रमाण और प्रभुत्व में श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) व्यवस्थित हैं। जिनके निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।२५६।

इसी तरह से श्रीमद्भागवतपुराण उत्तरार्द्ध स्कन्ध १० अध्याय-९० के श्लोक- ४४ में यादवों के स्थानीय गोत्रों एवं कुलों की संख्या के बारे में लिखा गया कि-

तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले ।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषां एकाधिकं नृप॥४४॥

अनुवाद :- उन दैत्यों का निग्रह (दमन) करने के लिए ही यादव वंश के कुलों में हरि (श्रीकृष्ण ) के कहने पर देवों ने अवतार लिया था। उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थीं।४४

इसी तरह से मत्स्यपुराण के अध्यायः (४७) के श्लोक( २८ और २९ )में यादवों के गोत्रों (कुलों) की संख्या के बारे में लिखा गया है कि

"कुलानां शतमेकं च यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेतत्कुलं यावद्वर्तते वैष्णवे कुले।२८।

विष्णुस्तेषां प्रणेता च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।
निदेशस्थायिनस्तस्य कथ्यन्ते सर्वयादवाः।२९।

अनुवाद - २८-२९
•  इन महाभाग यादवों के एक सौ एक कुल थे। जो सब-के सब श्रीकृष्ण से सम्बन्धित वैष्णव महाकुल के अन्दर ही विद्यमान थे।। २८।
• भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) उनके नेता और स्वामी थे। तथा वे सभी यादव श्रीकृष्ण की आज्ञा के अधीन रहते थे। ऐसा कहा जाता है।।२९।

इसी तरह से विष्णुपुराण के चौथे अंश के अध्याय- १५ के श्लोक ४७,४८ और ४९ में भी यादवों के गोत्रों (कुलों) की संख्या के बारे में लिखा गया है कि-

देवासुरे हता ये तु दैतेयास्मुमहाबलाः।
उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥४७।

तेषामुत्सादनार्थाय  भुविदेवा यदो: कुले।
अवतीर्णा: कुलशतं यत्रैकाभ्यधिकं द्विज:।४८।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेश्षस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥४९।

अनुवाद:-४७-४८,४९
• देवासुर संग्राम में महाबली दैत्यगण मारे गये थे।
वे मनुष्य लोक में उपद्रव करने वाले राजालोग बनकर उत्पन्न हुए।४७।
• उनका नाश करने के लिए देवों ने यदुवंश में जन्म लिया उस यदुवंश में एक सौ एक कुल थे।४८।
• विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध (बन्धे हुए) हैं।४९।

तब ऐसे में प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि यादवों में इतनें कुल या स्थानीय गोत्र क्यों और कैसे हुए ? तो यादवों में इतनें कुल (परिवार) या स्थानीय गोत्र होने का मुख्य कारण यह रहा कि- यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्वकाल से ही रही है। देखा जाए तो पूर्वकाल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए।

इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल( महावन) में जा बसे। किन्तु वहाँ पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ  व्रज के बृन्दावन में रहने लगे।
इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहाँ पर जरासन्ध के बार बार आक्रमण से तंग आकर अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा छोड़कर द्वारकापुरी में रहने लगे।
कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्वकाल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप यादवों के अनेकों स्थानीय गोत्रों (परिवारों) कुलों का उदय हुआ। जैसे- अन्धक, वृष्णि, कुकुर, भोज इत्यादि जितने भी हुए उन सभी का जनन गोत्र "कार्ष्ण" या कहें उनका मुख्य कुल-खान्दान "वैष्णव ही था।

 क्योंकि (स्वराट विष्णु) अर्थात् श्रीकृष्ण उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित थे ऐसी बात उपर्युक्त श्लोकों में लिखी गई है।

ठीक उसी तरह से आज वर्तमान समय में भी यादवों  की पहचान हर प्रान्तों में अलग-अलग गोत्रों, परिवारों, या कुलों से होती हैं। किन्तु उनका मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण गोत्र" ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है, उन सभी को यहाँ बता पाना सम्भव नहीं है।

इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत से स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के वैष्णव महाकुल के ही स्थानी गोत्र, उपगोत्र, परिवार या कुल हैं। और इन सभी में किसी न किसी रूप में भगवान श्रीकृष्ण का रक्त सम्बन्ध है। और रक्त सम्बन्ध ही इनके मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को सिद्ध करता है। 
क्योंकि अभीर जाति के समस्त यादवों यानी समस्त गोपों की उत्पत्ति पूर्व काल में श्रीकृष्ण के रोमकूपों से ही हुई है। इस बात को जनन गोत्र वाले प्रसंग में पहले ही बताया गया है।

अब हमलोग तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र के बारे में जानेंगे।


✴️ (३)- गुरु गोत्र- 


तीसरे प्रकार के गोत्र का नाम  "गुरुगोत्र" है। इस तरह का गोत्र तब निर्धारित होता है, जब कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने मनपसन्द के विश्वसनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुखी होकर उसका अनुयायी बनकर उसके नाम पर अपने गोत्र का निर्धारण करता हैं तब उस ऋषि या गुरु के नाम से उसका गोत्र निर्धारित होता है। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि) और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त सम्बन्ध न  होकर केवल गुरु शिष्य का सम्बन्ध रहता है।

इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना होता है। जैसे यादवों का "गुरुगोत्र" अत्रि है। किन्तु इस अत्रि गोत्र से यादवों का किसी भी तरह से रक्त सम्बन्ध नहीं है।

यादवों के इस वैकल्पिक "गुरुगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। 
जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारण से सम्पन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" होता- (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्नता का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से गुरुगोत्र स्वीकार किया।

अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को यह जानकारी लेनी है तो वह  वहाँ से ले सकता है।

किन्तु अज्ञानता वश ९९% यादव समाज  ने"अत्रि" को ही अपना जनन गोत्र मान लिया, और अपने मूल जनन गोत्र "कार्ष्ण" को ही भूल गया कि गोपों अर्थात् यादवों का जन्म किसी  ऋषि-मुनि से न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा से हुआ है।

किन्तु आश्चर्य है कि कुछ लोग ऋषि अत्रि को भी यादव ही मानते हैं। यह एक हास्यास्पद स्थिति है, क्योंकि किसी को भी यादव होने से पहले उसे अभीर और गोप होना पड़ेगा तभी वह यादव हो सकता है।

 इस स्थिति में ऋषि अत्रि गोप और अभीर तभी हो सकते जब उनका भी जन्म श्रीकृष्ण  से हुआ होता। किन्तु ऋषि अत्रि तो ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। इसलिए ऋषि अत्रि ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण हो सकते हैं ।

किन्तु गोप और अहीर कभी नहीं हो सकते। और जब ऋषि अत्रि गोप, अहीर नहीं हो सकते तो निश्चित रूप से वह यादव भी नहीं हो सकते। यह ध्रुव सत्य है।

इसलिए ऋषि अत्रि को यादव कहना और उनसे यादवों की उत्पत्ति करना तथा उनके नाम पर यादवों का जनन गोत्र स्थापित करना महती-मूर्खता होगी।

यादवों का जनन गोत्र श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण है या अत्रि ? इसके बारे विस्तृत जानकारी इसके अगले अध्याय (१०) में भी दी गई है।

इस प्रकार से यह अध्याय- (५) जातियों की मौलिकता एवं आभीर जाति की उत्पत्ति तथा भारतीय समाज में पञ्च-प्रथा की संकल्पना सहित यादवों के गोत्र, कुल , वंश,
और वर्ण व्यवस्था की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसके अगले अध्याय (१०) में जानकारी दी गई है कि "यादवों का जनन गोत्र- अत्रि है या वैष्णव ?


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               अध्याय - दशम् (१०)

यादवों का वास्तविक गोत्र कार्ष्ण है या अत्रि ?
  

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जैसा कि इसके पिछले-(९) अध्याय में बताया जा चुका है कि गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई, तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं।
उसी क्रम में इस अध्याय में बताया गया है कि यादवों का वास्तविक गोत्र अत्रि है या श्रीकृष्ण के नामानुसार कार्ष्ण ?  क्योंकि अधिकांश यादव अज्ञानता वश अत्रि गोत्र को ही अपना जनन व वास्तविक गोत्र मान बैठे हैं। इसी अज्ञानता को दूर करना  इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य है।

तो इस सम्बन्ध में देखा जाए तो पौराणिक ग्रन्थों में गोत्रों की उत्पत्ति मुख्य रूप से उन चार ऋषियों से बतायी गयी है जो इन्द्रिय संयम और तप से ही वेदों के विद्वान तथा समाज में प्रतिष्ठित हुए थे। इसकी पुष्टि- महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है। जिसमें  - पराशर ऋषि राजा जनक से कहते हैं कि-

मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।

अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। १८।

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव








अनुवाद - २६-२८
तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोलीं - ब्रह्मदेव ! यहाँ (गोलोक) में करोड़ों  ब्रह्माण्ड  इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आप लोग अपना नाम गाँव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है की कभी यहाँ आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्माण्ड समझते हैं। २६-२८।

                 "श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत्॥२९॥

                   श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम्॥ ३०॥


                 "श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम्॥३१॥

अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते॥३२॥

अनुवाद - २९- ३२

• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्माण्ड़ में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्माण्ड़ में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं।२९-३०।

• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओं ने परम सुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहाँ गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२।

अतः उपर्युक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी अन्य से नही की जा सकती। क्योंकि इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।

इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियाँ ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामिका हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म- विधान इन्हीं के द्वारा सम्पन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप-गोपियों को आधार मानकर ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किन्तु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड  के अध्याय (६०) के श्लोक -संख्या (४०) में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।।४०।


अनुवाद - जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा यादव गोपों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।

और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्रीकृष्ण हैं, जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध है। इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्रीकृष्ण को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय- (५) में दी गई है।
        
✳️ वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (९) में किया गया है वहाँ से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।

अब हमलोग गोपों के क्षत्रिय कर्म को जानेंगे की ये लोग ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के क्षत्रिय ना होते हुए भी कैसे क्षत्रिय धर्म को निभाते हुए समय-समय पृथ्वी के भार को भी दूर करते रहते हैं।


भाग- [२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म-
                       

वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है। किन्तु ध्यान रहे- ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के क्षत्रियों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्रीकृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि-भार हरण के उद्देश्य से ही किया था। भगवान श्रीकृष्ण सहित इस नारायणी सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में महाक्षत्रिय कहा जाता है।
     
इस सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म से ही अपने को क्षत्रिय कहा हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्यपर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिशाचों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।।१०।


अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूँ। प्राकृतिक मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।
 
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के जन्मगत
क्षत्रियों से , और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण में नही।

इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) में अपने गोपों को अजेय योद्धा के रूप में बताते हैं-

"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।

अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। अर्थात् वे सभी नारायण नाम से विश्व विख्यात हैं। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं।।१८।।
           
अतः उपर्युक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि भूतल पर गोपों (अहिरों) से बड़ा क्षत्रियोचित कर्म करने वाला दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं गोपों को लेकर नारायणी सेना का गठन करके पृथ्वी का भार उतारते हैं।
इसीलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है।

✳️ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- (५) जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहाँ से इस विषय पर पाठकगण  विस्तार से जानकारी ले सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भाँति नन्दबाबा की पुत्री योगमाया- विन्ध्यवासिनी (एकानंशा) को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।।२३।
        
अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिया हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐकार एवं वषट्कार हो।
    
किन्तु इस सम्बन्ध में ध्यान रहे कि योगमाया- विन्ध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण की। क्योंकि योगमाया विन्ध्यवासिनी, गोप नन्द बाबा की एकलौती पुत्री हैं।

कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्माजी की वर्ण -व्यवस्था के जन्मजात क्षत्रिय।
इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शस्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण- दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना के गोप (अहीर) हैं।
    
अब यहाँ पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे सम्बन्धित सभी सेनाएँ जैसे- "नारायणी सेना" अपराजिता एवं अजेया है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक और परलोक को जीतने की क्षमता हैं। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उन पर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात्  देवता, गन्धर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक संख्या- (७) में भगवान श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-

ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।।
७।    
   
अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
         
इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेया एवं अपराजिता है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय भी कहा जाता है।


भाग [३] गोपों का वैश्यत्व कर्म-
           
ब्रह्माजी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप स्वतन्त्रत्तता पूर्वक करते हैं। इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किन्तु ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र हैं। अतः गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर शस्त्र भी उठाते हैं। इसके साथ ही गोप लोग कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं।

जिसमें ये गोप पशुपालन में मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है।
गोपालन एवं कृषि कार्य से गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध पूर्व काल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृँगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मण्डल (१) के सूक्त- (154) की  ऋचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
             
अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।

इससे सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण सहित गोप वैश्य कर्म के अन्तर्गत गोपालन करते थे जो आज भी परम्परागत रूप गोपों में देखा जा सकता है। अर्थात् गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किन्तु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं  नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६) के श्लोक-(२६) में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-

'कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।।२६।

        
अनुवाद- बाबा हम सभी गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।२६।
           
इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी को हल और मूसल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
           
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने की पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कन्ध के अध्याय- (२०) के श्लोक-(६०) और (६१) से होती है-

"तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।।६०।

वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१।

          
अनुवाद- वहाँ पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी शूरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था।६०-६१।

इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण भी नन्द बाबा से बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि- बाबा हम सभी गोप किसान हैं।


भाग [४] गोपों का शूद्रत्व कर्म-
      

देखा जाए तो  ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किन्तु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य इत्यादि कर्मों के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना किसी प्रतिबन्ध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्रीकृष्ण का भी ऐसा ही कर्मगत स्वभाव देखने को मिलता है। क्योंकि पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और भक्तों के कल्याणार्थ व समाज सेवा के लिए ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
   
भगवान श्रीकृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध (उत्तरार्द्ध ) के अध्याय-(७५) के श्लोक- (४-५)और (६) से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने।।४।

गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।।५।


युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।।६।

अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे, सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, आए हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।४-५-६।
( ज्ञात हो यह घटना महाभारत युद्ध से पहले की है।)
    
इन उपर्युक्त श्लोक को यदि शुद्ध अन्तरात्मा से विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने समाज सेवा में वह कार्य किया जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने वैष्णव वर्ण के गोप होकर पांव- पखार (धोकर) कर यह सिद्ध कर दिया कि-  वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) का कर्म करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्माजी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से सेवा कर्म को निंदनीय माना गया है।

जबकि वैष्णव वर्ण में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबन्ध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य में ऐसी नहीं है।      
        
इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (१२) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
  
इस प्रकार से यह अध्याय-(११) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।


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            अध्याय- द्वादश (12)

वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रन्थों में प्रशंसा एवं सांस्कृतिक विरासत-

इस अध्याय के महत्वपूर्ण प्रसंगों को अच्छी तरह से समझने के लिए इसको प्रमुख रूप से (दो) भागों में विभाजित किया गया है-

भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान।

       (क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
       (ख)-गोपों की देन "पञ्चम वर्ण"।
       (ग)-किसान और कृषि शब्द कृष्ण सहित गोपों की देन है। 
       (घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
       (ङ)-आभीर छन्द और आभीर राग।
   
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▪️भाग [१]- गोपों की पौराणिक प्रशंसा।
          

पौराणिक ग्रन्थों में वैष्णव वर्ण के गोपों अर्थात यादवों की समय-समय पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। जैसे-
(१)- ब्रह्माजी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्माजी से होने को सुनिश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या- (१७) में कहते हैं कि-
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत: कन्यादत्ताचैषा विरञ्चये।।१७।

अनुवाद-  तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या को ब्रह्मा को प्रदान किया है।१७। 

अतः उपर्युक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।

(२)- गोपों (यादवों) की कुछ इसी तरह की प्रशंसा और  विशेषताओं को कंस स्वयं करता है। यादवों को अपने दरबार में बुलाकर उनसे जो कुछ कहा उसका वर्णन- हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -(२२ के १२ से २५ ) तक के श्लोकों में मिलता है। जो इस प्रकार है -

"भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः।
न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः।।१२।

कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः।
तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः।।१३।।

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः।

राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।

यशः प्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः।
आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः।।१५।।

प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् ।
भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम्।।१६।।

एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः ।
द्यौरप्यनुगृहीता स्याद्भवद्भिः किं पुनर्मही।। १७।।

ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव ।
रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसारमिव।।१८।।

व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यात कीर्तिभिः ।
धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव।।१९।।

अनुवाद -
आप (यादव) समस्त कर्तव्य कर्मों के ज्ञाता, वेदों के परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित वार्ता में कुशल, धर्म, अर्थ, और काम के प्रवर्तक, कर्तव्य पालक, जगत के लिए देवों के समान माननीय महान आचार्य विचार में दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहने वाले और पर्वत के समान अविचल हैं। १२-१३।

• आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रणाओं को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत हैं।१४।

• आपके यशस्वी रूप प्रदीप सम्पूर्ण जगत में अपना प्रकाश फैला रहे हैं। आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।

✳️ ज्ञात हो श्लोक- (१५) में जो बात कही गई है वह यादवों के अतिरिक्त अन्य किसी पर लागू नहीं हो सकती क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में  जन्मगत आधार पर यह  प्रतिबन्धित कर दिया गया है कि (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) लोग अपने ही वर्ण में रहकर कार्य करें दूसरे वर्ण का कार्य कदापि न करें। जबकि वैष्णव वर्ण में इस तरह कोई प्रतिबन्ध नहीं है इस लिए वैष्णव वर्ण के गोप सभी तरह के कर्म बिना बन्धन के स्वतन्त्रता पूर्वक करते हैं। इसलिए कंस यह बात कहा कि-" आप लोग वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं। चारों वर्णों के जो क्रमिक धर्म हैं, उसके आप लोग पारंगत विद्वान हैं।१५।

• आप लोग उत्तम विधियों के वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।१६।
• आपके सदाचार में कभी आँच नहीं आने पाई है। आप लोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषों की चर्चा होते समय आप लोगों का नाम बारम्बार लिए जाते हैं। आप लोग चाहें तो स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं फिर इस भूतल की तो बात ही क्या ?।१७।

• आपका (यादवों का) आचार ऋषियों के,  प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रुद्रों के, और तेज अग्नि के समान है।१८।
• यह महान यदुकुल जब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्ति वाले आप जैसे वीरों ने ही इसे मर्यादा में स्थापित किया, ठीक उसी तरह से जैसे पर्वतों नें इस भूतल को दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है।१९।

उपर्युक्त श्लोकों में देखा जाए तो यादवों के लिए पाँच महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आती है। वो हैं-

(१)- यादव- पाखण्डपूर्ण वृत्ति से सदैव दूर रहते थे और  आज  भी बहुतायत यादव  दूर रहते हैं।

(२)- यादव- वेदों के तात्पर्य का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। तथा आश्रम के जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें ये लोग भली- भाँति जानते हैं। और ( ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था के जो ) चारों वर्णों के  क्रमिक धर्म है, उसके ये लोग पारंगत विद्वान हैं।   
(३)- यादव- नीतिदर्शी पुरुषों के भी नेता, शत्रु राष्ट्रों के गुप्त रहस्यों का भेदन करने वाले तथा शरणार्थियों के संरक्षक हैं।
(४)- यादवों के दृढ़-संकल्प की बात करें तो ये स्वर्ग लोक पर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतल की तो बात ही क्या।
(५)- यादवों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनके आचार ऋषियों के, प्रभाव मरुद्गणों के, क्रोध रूद्रो के, और तेज अग्नि के समान होता है।

दूसरी बात यह कि- यादवों की इन्हीं विशेषताओं की वजह से जब कालयवन नें नारद जी से पूछा कि इस समय पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन हैं ? इस पर नारद जी विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के अध्याय- २३ के श्लोक संख्या- ६ में नारद जी ने बताया हैं -

स तु वीर्यमदोन्मतः पृथिव्यां बलिनो नृपान्।
अपच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान्।।६।

अनुवाद- तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवन ने नारद जी से पूछा कि- पृथ्वी पर बलवान राजा कौन-कौन से हैं ? इस पर नारद जी ने उसे यादवों को ही सबसे अधिक बलशाली बताया।

इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खण्ड के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या-(८) में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
"नन्दाद्या वसव: सर्वे वृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।।८।

अनुवाद -  नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के अवतार हैं।
नृपेश्वर कंस ! इस व्रजभूमि में जो गोपियाँ हैं, उनके रूप में वेदों की ऋचाएँ यहाँ निवास करती हैं।
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों की उपमा वेदों की ऋचाओं से की जाती है।

(४)- गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्माजी-ने  श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय- (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते  हुए कहा- कि-

"आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।

अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊँ। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा भी इनके चरण धूलि को पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जानें की इच्छा करते हैं।

(५)- इसी तरह से गोपों के बारे में श्रीराधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्रीकृष्ण से- गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-(१८) के श्लोक संख्या -(२२) में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।

अनुवाद
 - गोप सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गङ्गा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
(६)- इसी तरह से परम ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(९४) के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों  की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम्। ७७।

ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम्।७८।

अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाऐं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्रीराधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं।७७-७८।

पुनः उद्धव जी कहते हैं कि -

"षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।।७९।

गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।

ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा।
राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम्।।८१।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।। ८३।।

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४ ।।

मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि।। ८५।।

न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।८६।।

अनुवाद -
• इन्हीं राधिका के चरण-कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।

• गोलोक- वासिनी राधाजी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्रीदामा के शाप से आज-कल भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की १६ (सोलहवीं) कला की भी समानता नहीं कर सकते। ८०-८१।

• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप-गोपियाँं ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।

• इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहाँ गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।

पुनः इसके अगले श्लोक- (८५) और (८६) में उद्धव जी कहते हैं कि-
"मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।।८५।।

न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्।।८६।।

अनुवाद -

• अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को प्राप्त नहीं हुई। ८५ - ८६।               
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।।८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।।८६।

गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।।८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।।८८।

ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।।८९।


अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शालिग्राम- शिला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। 
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।८५-८९।

नारद पुराण में सभी गेपों की पूजा का विधान-

गोपवृंदयुतं वंशीं वादयन्तं स्मरेत्सुधीः ।।
एवं ध्यात्वा जपेदादावयुतद्वितयं बुधः ।८०-५०।


दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।

एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम् ।।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् । ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।८०-६० ।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।।

सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम् ।।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।

दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः ।।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।८०-६५।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

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श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे तृतीयपादे कृष्णमन्त्रनिरूपणं नामाशीतितमोऽध्यायः ।८०।









गोपों की इन्हीं सब आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण इनको पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा
 गया है। इसकी पुष्टि-  गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खण्ड़ के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।

अनुवाद- जो लोग श्रीहरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा गोपालक (गोप), यादवों की मुक्ति का वृत्तान्त पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।।

कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णु पुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- (११) के श्लोक संख्या- (४) में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-

"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति।। ४।

अनुवाद - जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्म ने साकार रूप में अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।४।

✳️ किन्तु वे लोग विशेषकर ऐसे कथावाचक, पापों से मुक्त नहीं हो पाते जो जानबूझकर या स्वार्थवश या लालचवश श्रीकृष्णकथा में श्रीकृष्ण की आधी-अधुरी जानकारी को बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे कथावाचक कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकते। साथ ही वे पाप तथा दण्ड के भागी होते हैं। क्योंकि श्रीकृष्णकथा तभी पूर्ण मानी जाती है जब श्रीकृष्ण के साथ ही उनके पारिवारिक सदस्य गोपों का भी वर्णन किया गया हो। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सहचर गोप हैं जिनके साथ भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाएँ करते रहते हैं। इसीलिए बिना गोपों का वर्णन किये श्रीकृष्ण की कथा अधूरी ही मानी जाती है।

इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज का कथन है कि -"ऐसे छद्म-वेषधारी कथावाचकों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो अल्पज्ञान तथा बिना गोपों का वर्णन किये ही श्रीकृष्ण कथा कहते हैं।"
     

गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणामों की जानकारी अध्याय- १ भाग-(दो) में बतायी जा चुकी है। वहाँ से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।

              
भाग [२]- भारतीय संस्कृति में गोपों का योगदान-

भारतीय संस्कृति में गोपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि समय-समय पर गोपों द्वारा कुछ न कुछ विशेष होता रहा जिसकी छाप भारतीय संस्कृति में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जैसे -
(क)-हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य।
(ख)-गोपों की देन पञ्चम वर्ण।
(ग)-किसान शब्द कृष्ण से सम्बन्धित गोपों की देन है- 
(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं।
(ङ)-आभीर- छन्द और आभीर राग के जनक गोप हैं।
   


[क]- हल्लीसं नृत्य एवं 'रास' नृत्य :-

हल्लीसं और 'रास' नृत्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हल्लीसं क्या है ? और इसका मतलब क्या है ? और रास का क्या मतलब है ? तभी हल्लीसं और 'रास' नृत्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
हल्लीषम् शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो -
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल्- धातु का मूल अर्थ- खेत जोतना या हल चलाना है।

हल वह यन्त्र है जिससे खेतों की जुताई का कार्य किया जाता है। हल के प्रमुख भागों में एक "ईषा" है, जो संस्कृत का शब्द है - (हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठ)अथवा (लाङ्गलदण्ड) अर्थात्  हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - ईषा कहलाता है। हल और ईषा इन दोनों शब्दों से मिलकर तद्धित शब्द बनता है- हल्लीषा- (हल्लीषक)।

✳️  सर्वप्रथम द्वापरयुग में बलराम जी ने "हल" को खेतों की जुताई के लिए, तथा फसलों की मड़ाई के लिए "मूसल" का आविष्कार किया था। उस समय बलराम जी हल और मूसल को युद्ध के समय शस्त्र के रूप मे भी प्रयोग करते थे। बलराम जी सदैव हल को धारण करते थे इसलिए उनका एक नाम हलधर हुआ जो आज हलधर चित्र और नाम दोनों ही किसानों का सांस्कृतिक  प्रतीक है। बलराम जी द्वारा हल और मूसल की खोज किए जाने के बाद उस युग में कृषि क्षेत्र में क्रान्ति आई। तभी से गोप किसान हल को खुशियों और क्रान्ति का देवता मानकर प्रमुख त्योहारों और उत्सवों पर हल और मूसल को भूमि पर रखकर उसके ईषा (दण्ड) के समानान्तर दृश्य में मण्डलाकार आकृति में नृत्य किया करते थे।

उसी समय से इस विशेष नृत्य का नाम हल्लीषा हुआ।

इसके अतिरिक्त गोप किसान शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हल, मूसल और ओखली (उलूखल) को मण्डप में रखकर शुभ कार्य को सम्पन्न करते थे तथा विशेष आगन्तुकों के आगमन पर अन्न, दही और मूसल से परीक्षण करके उनका स्वागत करते थे। अहीरों की लट्ठमार होली जो आज भी भारतीय संस्कृति में अवशेष रूप में देखे जाते हैं, जो गोपों की ही देन है।
  
इसी क्रम में देखा जाए तो हल्लीषं नृत्य का भी प्रारम्भ सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने ही किया। इसकी पुष्टि हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक- (68) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
"जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम्।
हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव  
अनुवाद:-

उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी।  नरदेव पार्थ ! स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।

इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रूप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास" के रुप में प्रतिष्ठित हुआ। 

जो अहीरों का ही सांस्कृतिक नृत्य है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और संकर्षण (बलराम) हैं।

हल्लीसं एवं 'रास' नृत्य में कोई विशेष अन्तर नहीं है। देखा जाए तो हल्लीसं शरीर है तो "रास" उसकी आत्मा है। हल्लीसं कला है, तो रास प्रभु की लीला है। जिसमें गोप और गोपियाँ कृष्ण को केन्द्र बिन्दु मानकर उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति में वृत्ताकार नर्तन करती हुई परमानन्द की अनुभूति करतीं हैं। तब वहीं हल्लीसं नृत्य रास में बदल जाता है। कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका विस्तार "रास" है।

गोपेश्वर श्रीकृष्ण इस तरह की रास का आयोजन अपने गोप-गोपियों के साथ गोलोक और भूलोक दोनों स्थानों पर प्राय:(अक्सर) किया करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य है कि रास के इस गूढ़ रहस्य को लोग भौतिक दृष्टि से एक सामान्य नृत्य के रूप में देखते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रचित रास भक्ति की वह पराकाष्ठा है जहाँ आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध मिलन से मोक्ष की दिशा और दशा तय होती है।

भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी  उपरूपकों के अन्तर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रूपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रूप अलग-अलग विकसित हो गए थे।
 "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रूप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने तीन भेद बताए हैं -

१. मण्डल रासक
२. लकुट रासक तथा
३. ताल रासक।

मण्डलाकार नृत्य मण्डल रासक, हाथों से दण्डा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दण्ड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना सम्भवतः ताल रासक था। 

यह रासक परम्परा बाद में विभिन्न रूपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई। जिसका परिचय यहाँ देना सम्भव नहीं है। कालान्तर में जैन धर्म में ही रासक परम्परा  बहुत बाद में लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना (२३ वाँ) तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मन्दिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया।

कालान्तर में भूतल पर श्रीकृष्ण द्वारा रचित रास द्वारिका के यदुवंशियों का राष्ट्रीय नृत्य बना, जो आज भी अहीर समाज में देखने को मिलता है। गुजरात के अहीर समाज इसे परम्परागत रूप से निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इनका मानना है कि- द्वारिका में रास के विकास क्रम में श्रीकृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध की पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं रास नृत्य में पारंगत थी। उषा पार्वती जी की शिष्या थी। उसने पार्वती जी से ही रास नृत्य की शिक्षा लेकर द्वारिका के नारी- समाज को विशेष रूप से रास नृत्य में प्रशिक्षित किया था।

उसी परम्परा का निर्वहन करते हुए आज के वर्तमान समय की जानी-मानी श्रीकृष्ण भक्त "जाहल"वेन अहिरानी हैं, जिन्होंने (२४ दिसम्बर २०२४ ) को गुजरात के द्वारिका में (५७ हजार अहिराणियों (यादव महिलाओं) को एक साथ लेकर महारास का आयोजन करके विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। 

श्रीकृष्ण भक्त "जाहल" बेन अहिरानी गुजरात के जिला भावनगर, तहसील महुवा, ग्राम- भगुड़ा की निवासी हैं।
वर्तमान में ये भारत के अन्य प्रान्तों में भी जाकर बड़े पैमाने पर रास का आयोजन किया करतीं हैं। इनका जीवन ही श्रीकृष्ण रास लीला को सतत जीवन्त रखना और सामाजिक कल्याण के लिए समर्पित है। मोबाइल नं - 9427751071 पर सम्पर्क कर सकते है।

✳️ ज्ञात हो- "रास" भारत का वह मञ्च है जो कृष्णकाल से आज तक निरन्तर जीवित है। भारत में दूसरा कोई ऐसा मञ्च नहीं जो इतना दीर्घजीवी रहा हो।

✳️ ज्ञात हो- श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भी अपने भक्तों की मुक्ति के लिए रास का आयोजन अधिकांशतः मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को या कार्तिकी पूर्णिमा की आधी रात के समय करते थे।

 इसीलिए इन दोनों समयों में की जाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना गया है। क्योंकि गोपेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं इन विशेष अवसरों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के- १०/ ३५ में कहते हैं कि- "मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः"
अर्थात्- महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अग्रहायन) यानी अगहन और ऋतुओं में वसन्त हूँ।

▪️इसके अतिरिक्त पुराणों में भी वर्णन मिलता है कि गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा सृष्टि रचना का आरम्भ अगहन मास में हुआ। और भूतल पर वर्ष का यह प्रथम मास  मार्गशीर्ष (अग्रहायन) भी है।
जिस तरह से परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में अगहन मास में रास नृत्य करके सृष्टि का विस्तार किया था। उसी तरह से भूलोक पर भी इन्हीं समयों में रास का विशेष आयोजन किया करते थे।
इन विशेषताओं के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है।

इस लिए इन दोनों (अगहन और कार्तिक पूर्णिमा) के मासिक समयों में की जाने वाली रास लीला को ही मोक्षदायिनी माना गया है। क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक आनन्द की रसानुभूति किया करते थे। 
यह परम्परा गोपों की चिर -पुरातन परम्परा है।
इसकी पुष्टि- श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ८५ से ८९ से होती है-

कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।

अनुवाद- (८५-८९)
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा  में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी की स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। तथा पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। तब वह भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।

कुल मिलाकर "हल्लीसं" रास का प्राथमिक स्तर है तथा उसका आध्यात्मिक पराकाष्ठा व विस्तार "रास" है। जिसके जनक श्रीकृष्ण और बलराम हैं।


  (ख)- गोपों की देन "पञ्चमवर्ण"।

भारतीय संस्कृति में पञ्चमवर्ण की अवधारणा गोपों की ही है। जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के चारो वर्णों से स्वतन्त्र है। जिसको विष्णु के नामानुसार वैष्णव" के नाम से भी जाना जाता है। इस वर्ण में केवल गोप आते हैं जो विष्णु यानी श्रीकृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इन्हें वैष्णव जन भी कहा जाता हैं। इसकी पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (११) श्लोक संख्या (४३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि वैष्णव ही गोपों यानी अहीरों का वर्ण है जो चारों वर्णों से श्रेष्ठ एवं स्वतन्त्र है।


ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा ।।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।। ४३।।


अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ ( वर्ण)  जैसे इस विश्व में हैं, वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति (वर्ण) भी इस संसार में है ।४३।

"उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

जहाँ तक बात रही गोपों को श्रीकृष्ण से उत्पन्न होने की, तो इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-  (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव  रूपेण  वेशेनैव   च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।


अनुवाद - ४०-४१
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
भगवान कृष्ण का एक नाम विष्णु और विष्णु का एक नाम कृष्ण भी है।

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥20॥

अर्थ – 55 अग्राह्यः – मन से भी ग्रहण न किये जा सकने वाले, 56 शाश्वतः – सब काल में स्थित रहने वाले, 57 कृष्णः – सब के चित्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित करने वाले परमानन्द स्वरुप, 58 लोहिताक्षः – लाल नेत्रों वाले, 59 प्रतर्दनः – प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करने वाले, 60 प्रभूतः – ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से सम्पन्न, 61 त्रिककुब्धाम – ऊपर, नीचे और मध्य भेदवाली तीनों दिशाओं के आश्रयरूप, 62 पवित्रम् – सबको पवित्र करने वाले, 63 मङ्गलं परम् – परम मंगल स्वरुप ॥20॥

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का उल्लेख महाभारत के अनुशासन पर्व में हुआ है। जब भीष्म पितामह मृत्यु शैया पर होते हैं तब उन्होंने युधिष्ठिर को भगवान विष्णु के दिव्य एक हजार ( 1000 ) नामों से युक्त इस कल्याणकारी स्तोत्र का उपदेश किया था।

कहने का तात्पर्य यह है कि पञ्चम वर्ण अर्थात् वैष्णव वर्ण की अवधारणा गोपों की ही देन है। जो ब्रह्माजी के चार वर्णों से अलग और स्वतन्त्र है। वैष्णव वर्ण के बारे में और विस्तार से अध्याय (९) में बताया गया है।

[ग] - किसान और कृषि शब्द श्रीकृष्ण सहित गोपों की देन है।

व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के कृषाणु/कृषाण शब्द से ही हुई है। कृष्ण और संकर्षण कृषि संस्कृति के जनक थे। कृष्ण से ही कृषाण शब्द विकसित हुआ है।
वाचस्पत्यं संस्कृत भाषा कोश के अनुसार-  (कृष्+आनक्)= कृषाण होता है।

आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार भी कृषाण शब्द- कृष् धातु में आनक् अथवा किकन् प्रत्यय करने पर बनता है। अर्थात् जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
ज्ञात हो- कृष्ण शब्द का धातुमूलक अर्थ- कृषक भी है। किसान कृषि परिश्रम के प्रभाव से श्यामल( सांबले) रंग के भी होते हैं अत: कृष्ण शब्द का परवर्ती और अर्वाचीन एक अर्थ काला अथवा सांबला भी हुआ।

कुल मिलाकर कृष्ण से "कृषाण" और कृषाण से किसान शब्द का विकास हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण का नाम भी इसी के अनुरूप है क्योंकि वे सबसे पहले एक सफल पशु पालक (गोपालक) थे। और पशु पालक ही कृषि और आर्य संस्कृति के जनक हैं। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण सहित सभी गोपों को एक साथ कृषक होने की पुष्टि- श्रीगर्गसंहिता, गिरिराज खण्ड के अध्याय-(६ ) से होती है।
 
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्दबाबा से कहते हैं कि-
                  "श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।

अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।।२६।

इसी तरह से गर्गसंहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय (६) में नन्दबाबा को उस समय भी कृषक होने की पुष्टि होती है जब एक बार कुछ गोप लोग वृषभानु के दरबार में उपस्थित होकर नन्द और वृषभानु के वैभव की तुलना करते हुए नन्द के विषय में वृषभानु जी कहते हैं कि-

त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित्।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥

यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।

अनुवाद:-( ७-८)
• यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है। अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द भी तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
• हे स्वामी ! यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा अवश्य लीजिए, जिससे हम सबके देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८।

ज्ञात हो- जिस तरह से गोपेश्वर श्रीकृष्ण सदैव गोप वेष (रूप) में रहते हैं, उसी तरह से बलराम जी भी सदैव किसान वेष में ही रहते हैं। चाहे वे कृषि-क्षेत्र में हों अथवा, युद्ध-क्षेत्र में हों, सदैव उनके साथ हल और मूसल रहता है।
इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खण्ड के अध्याय-(२) के श्लोक -(१३) से भी होती है। जिसमें बलराम जी भू-तल पर अवतरित होने से पहले अपने हल और मूसल से कहते हैं-

हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।।१३।

अनुवाद - हे हल और मूसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूँ, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना।१३।

उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट होता है श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही कृषि और आर्य संस्कृति के जनक होने के साथ साथ किसानों के आदि पूर्वज और प्रतीक भी हैं। क्योंकि अबतक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में इनके जैसा किसान तथा गोपालक भेष (रूप) वाला न तो कोई देवता न किन्नर न गन्धर्व न दैत्य और न ही कोई दानव देखा गया।

अतः उपर्युक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि कृषि और किसान गोपों की ही देन है।


(घ)-आर्य व ग्राम संस्कृति के जनक गोप हैं
          
आर्य और किसान एक सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि आर्य शब्द भी हल और कृषि से ही जुड़ा हुआ है। जग-जाहिर है कि प्रारम्भ में आर्य चरावाहे ही थे जिन्होंने कालान्तर में कृषि संस्कृति का विकास किया। क्योंकि आर्य शब्द जुड़ा है अरि से जिसमें अरि एक वैदिक देव है। जो सदैव अर (आरा) हाथ में लिए रहता है। ऋग्वेद में अरि सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति का भी वाचक है। जिसकी पुष्टि- ऋग्वेद -(१०/२८/१) से होती है-

"विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्स्वाशितः पुनरस्तं जगायात् ॥१॥

पदान्वय:-  विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः । न । आ । जगाम ।जक्षीयात् । धानाः । उत । सोमम् । पपीयात् । सुऽआशितः । पुनः । अस्तम् । जगायात् ॥१.
ईश्वरोऽप्यरिः” [ निरु० ५। ७]

उपर्युक्त  ऋचा (श्लोक) में अरि शब्द ईश्वर वाची है।
इसके अतिरिक्त यूनानी कथाओं में इस वैदिक देव का वर्णन अरेस (Ares) के रूप में यूनानी युद्ध देवता के लिए है। अरेस नाम की व्युत्पत्ति पारम्परिक रूप से ग्रीक शब्द ἀρή (arē) से जुड़ी हुई है, जो डोरिक भाषा के ἀρά (ara) शब्द का आयोनिक (यूनानी) रूप है, जिसका अर्थ-  "विनाश"।
यूरोपीय विद्वान" वाल्टर बर्कर्ट का कहना है कि "अरेस स्पष्ट रूप से एक प्राचीन अमूर्त संज्ञा है जिसका अर्थ है लड़ाई अथवा युद्ध। वहीं अरि: शब्द कालान्तर में लौकिक संस्कृत में हरि यानी ईश्वर हो गया।

संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द आज भी शस्त्रवाची हैं।  परन्तु वर्तमान में लौकिक संस्कृत में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; जो पीछे से लुप्त हो गई हो। अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु का ही रूपान्तरण, "अर" हो गया हो (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् सम्प्रसारण होता भी है) संस्कृत व्याकरण में य्, व् र्, ल्  अन्त:स्थ वर्णों  का इ, उ, ऋ और लृ में परिवर्तन होना। अथवा सम्प्रसारण की प्रक्रिया है। अर् अथवा ऋ धातु का अर्थ होता है- "हल चलाना"

यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो। क्योंकि- "ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।
 ये दोनों शब्द कृदन्त पद हैं। कृदन्त वे पद (शब्द) होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति किसी धातु (मूल क्रिया) से हुई हो। विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक ही है। कुल मिलाकर चरावाहे कृषक ही आर्य हैं। इस बात को इतिहास भी मानता है।

कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं गोप- गोचारण करते थे और इतिहास साक्षी है कि चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण (बलराम) दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे। इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे। किन्तु आज जो कृषक और चरवाहे नहीं है जैसे बनिया, ब्राह्मण और अन्य वृत्तियों से युक्त जन समुदाय को आर्य थ्योरी में जोड़ दिया गया। जबकि आर्य थ्योरी के हिसाब से ये लोग आर्य नहीं हो सकते। 
क्योंकि आर्य होने के लिए चरावाहा और कृषक होना आवश्यक है। और ये लोग चरावाहा और कृषक संस्कृति के ठीक विपरित है, क्योंकि इनको ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में कृषि कार्यों से इस लिए रोका गया कि कृषि कार्य से जीवों की हत्या होती है। इस बात की पुष्टि- मनुस्मृति ।।10/83। से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83।

अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य को कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है।

इस प्रकार से देखा जाए तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो पशुपालन कर सकता हैं और ना ही कृषि कार्य। अर्थात् कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए निषिद्ध कर दिया गया। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि चरावाहे और कृषक जो आर्य संस्कृति के जनक थे उन्हें ही अनार्य घोषित कर दिया और जो आर्य संस्कृति के विरोधी थे उन्हें आर्य घोषित कर दिया गया।

जबकि सर्वविदित है कि आर्य संस्कृति के जनक गोपेश्वर श्रीकृष्ण और बलराम सहित समस्त गोप ही हैं। इसके साथ ही ये लोग ग्राम संस्कृति के भी जनक है। क्योंकि ग्राम शब्द का मूल अर्थ- ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे; धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और इस प्रकार कालान्तर में  ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं। इसके विपरित गाँवों में कृषकों की बस्तियाँ देखने को मिलती है।

भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास यह उद्घोषणा करता है। कि कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करने वाले आर्य ही कृषक थे। यहीं से इनकी ग्राम- सभ्यता का विकास हुआ था जो अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए ये चरावाहे जहाँ- जहाँ भी विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान) देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे। इनके ये पड़ाव स्थाई होते गये और उसी प्रक्रिया के तहत कालान्तर में ग्राम संस्कृति का जन्म व विकास हुआ। ग्राम शब्द (आभीर-पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया।

श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत: स्वामी, गुरू और सुहद् आदि को सम्बोधन करने में भी इस आर्य शब्द का व्यवहार नाट्यशास्त्र में होने लगा। छोटे लोग बड़े को सम्बोधित करते हुए आर्य का प्रयोग करते हैं। स्त्रियाँ अपने पति को सम्बोधित करते हुए आर्य शब्द का प्रयोग करती, और छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु को आर्य या आर्यपुत्र कहकर सम्बोधित करते हैं ।

इसी क्रम में आर्य शब्द का सम्बोधन आभीरों (गोपों) के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि- हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (६) के श्लोक- ३३ से होती है जिसमें माता यशोदा अपने पति नन्द राय को आर्य शब्द से सम्बोधित उस समय की हैं जब भगवान श्रीकृष्ण शैशवास्था में अपने अंगूठे से छकड़ा को ठोकर मारकर उपर उछाल दिया और जब छकड़ा भूमि पर गिरा तो बहुत ही भयंकर आवाज हुई, जिससे यशोदा जी की नींद खुल गई।

यशोदा त्वब्रवीद् भीता न आर्य जानामि किं त्विदम्।
दारकेण सहानेन सुप्ता शब्देन बोधिता ।३३ ।


अनुवाद :-यशोदा ने भयभीत होकर नन्दराय जी से कहा - "हे आर्य मैं नहीं जानती हूँ !  कि यह क्या है ! मैं अपने पुत्र के साथ सो रही थी और इस भयंकर ध्वनि से मेरी नींद खुल गई।

अतः उपर्युक्त  श्लोक से सिद्ध होता है कि आभीर कृषक चरवाहे ही आर्य संस्कृति के जनक थे। किन्तु कालान्तर में जो कृषि कार्य को जीव हिंसा बताकर ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषेध कर दिया वहीं आज अपने को आर्य कहते हैं। यह कितनी विडम्बना है।


(ङ)- आभीर छन्द और आभीर राग-

श्रीकृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के संगीत विद्या के भी अच्छे विशारद भी थे। उन्होंने संगीत और अन्य ललित कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार भी किया। उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण करके कृष्ण ने स्वरों को नयी दिशा दी। कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला  दोनों रूपों में मानकर अपनी आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी सर्जन किया। देखा जाए तो राग आभीर का प्रचलन प्राचीन काल से है। बाँसुरी सुषिरवाद्य है। सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो (छिद्र) का वाचक है। वैदिक  सुषिर शब्द का ही तद्भव है।
वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद सामवेद को ही कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया-

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।
(१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-)


अनुवाद:- मैं वेदो में सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- (प्राणियों) में चेतना हूँ। अर्थात् कार्य-करण के समुदायरूप शरीर में सदा प्रकाशित रहने वाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है

✴️ ज्ञात हो- सामवेद में गाये जाने वाले मन्त्रों का संकलन है। इसीलिए सामवेद को भारतीय संगीत का मूल माना जाता है। और भगवान श्रीकृष्ण संगीत विद्या के पारंगत थे। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि - मैं वेदों में शामवेद हूँ।
श्रीकृष्ण की उपर्क्त संकल्पना ने ही भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्राण फूँका और भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों ने प्राय: लोक धुनों से प्रेरणा ली, और फिर उन्हें भारतीय राग प्रणाली के सिद्धान्तों के अनुसार औपचारिक रूप दिया। जिसमें अहीर जाति की विशेष भूमिका रही। क्योंकि अहीर भारत में एक प्राचीन जातीय समूह है जो मुख्य रूप से पशुपालक हैं। जब ये लोग अपने पशुओं को चराने के लिए समूह में जाते थे तब वे एक निश्चित राग और छन्द में गाया करते थे। चुँकि ये आभीर जाति के थे इसलिए इनकी गायन विधि से जो राग निकला उन्हीं के नामानुसार उस राग नाम भी आभीर (अहीर) हुआ। जिसकी संगीत की दुनिया में एक अलग पहचान है।

✳️ ज्ञात हो इसी राग अहीर पर हिन्दी फिल्म- "एक दूजे के लिए का गाना- "बाली उमर को सलाम" गाया गया है"। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अहीर जाति की प्राचीनतम एवं अति समृद्धशाली संस्कृति रही है।

राग अहीर भैरव दो रागों का मिश्रण है- "अहीर और भैरव"। अहीर और अहीर भैरव के स्वर एक जैसे ही हैं, लेकिन उनकी मधुर संरचना में अन्तर है।
आभीर एक मात्रिक छन्द का नाम भी है जिसके चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में (११) मात्राएँ होती है और अन्त में जगण होता है । जैसे—
यमाताराजभानसलगा- ये छन्दों के वार्णिक छन्द का अनुक्रम है।
किसी भी वर्णिक छन्द में वर्णों का समूह गण कहलाता है। ये प्रायः तीन वर्णों से मिलकर एक गण का निर्माण करते हैं । इन गणों के नाम इस प्रकार से हैं-

यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण।
इनकी मात्राओं के लिए लघु को ‘I’ और गुरु को ‘s’ कहते हैं। इस लघु-गुरु का के ही क्रम को याद रखने का एक विशिष्ट सूत्र स्थापित किया गया है जोकि ये है:- यमाताराजभानसलगा
इसमें किसी शब्द में जिस गण की जानकारी पता करनी हो तो उसके वर्ण के बाद इसी सूत्र से अगले दो वर्ण उनकी मात्रा समेत उसके बाद और जोड कर लिखें तो शब्द में कौन सा वार्णिक गण है ये ज्ञात हो जाएगा।
जैसे: एक शब्द "ममता" लिया।
तो सूत्र के अनुसार देखे सभी गण को
यगण – अर्थात- यमाता = ।ऽऽ
मगण – मातारा = ऽऽऽ
तगण – ताराज = ऽऽ।
रगण – राजभा = ऽ।ऽ
जगण – जभान = ।ऽ।
भगण – भानस = ऽ॥
नगण – नसल = ॥।
सगण – सलगा = ॥ऽ

ममता शब्द में वार्णिक छन्द का गण "सगण" आता है क्योंकि इस ममता शब्द में प्रथम दो वर्ण लघु और अंतिम वर्ण गुरु है।
यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार ।
                 
इस प्रकार से इस पुस्तक का अन्तिमवाँ अध्याय- (१२) वैष्णव वर्ण के गोपकुल के गोप और गोपियों की भूरि-भूरि प्रसंशाओं और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की जानकारी के साथ समाप्त हुआ। समाप्त

                 ★-जय श्रीकृष्ण-★


  -परिशिष्ट कथा-१-
 "अत्रि की‌ उत्पत्ति और उनका परिचय 
"   


ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से ही सम्बन्धित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-

                "मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।

उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।

अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः।।३।

तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।

छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।

परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।

वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।

अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।

आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।

धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।

इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।


अनुवाद- १-११
मत्स्य भगवान ने कहा- राजेन्द्र अब मुझसे महर्षि अत्रि के वंश के उत्पन्न हुए कर्दमायन तथा शारायणशाखीय गोत्र कर्ता मुनियों का वर्णन सुनिये ये हैं- उद्दालकि, शीणकर्णिरथ, शौकतव, गौरग्रीव, गौरजिन, चैत्रायण अर्धपण्य, वामरथ्य, गोपन, अस्तकि, बिन्दु, कर्णजिहू, हरप्रीति, लैाणि, शाकलायनि, तैलप, सवैलेय, अत्रि, गोणीपति, जलद, भगपाद, महातपस्वी सौपुष्पि तथा छन्दो गेय— ये शरायण के वंश में कर्दमायनशाखा में उत्पन्न हुए ऋषि हैं। इनके प्रवर श्यावाश्व, अत्रि और आर्चनानश ये तीन हैं। इनमें परस्पर में विवाह नहीं होता। दाक्षि, बलि, पर्णवि, ऊर्णुनाभि, शिलार्दनि, बीजवापी, शिरीष, मौञ्जकेश, गविष्ठिर तथा भलन्दन- इन ऋषियों के अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि-ये तीन ऋषिवर माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है।
   
(विशेष - उपर्युक्त वंश एवं गोत्र ऋषि अत्रि के पुत्रों का रहा )
अब इसके आगे भगवान मत्स्य - अत्रि की पुत्री "आत्रेयी" के वंश के बारे में बताते हुए कहते हैं-
अब मुझसे अत्रि की पुत्रिका आत्रेयी से उत्पन्न प्रवर ऋषियों का विवरण सुनिये- कालेय, वालेय, वामरथ्य, धात्रेय तथा मैत्रेय इन ऋषियोंके अत्रि, वामरथ्य और महर्षि पौत्रि—ये तीन प्रवर ऋषि माने गये हैं। इनमें भी परस्पर विवाह नहीं होता।
राजन्! इस प्रकार मैंने आपको इन अत्रि वंशमें उत्पन्न होनेवाले गोत्रकार महानुभाव ऋषियों का नाम सुना दिया, जिनके नामसंकीर्तनमात्र मनुष्य अपने सभी पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है ॥ १-११

इस प्रकार से देखा जाए तो यादवों के वंश एवं गोत्र में जिस ब्राह्मण अत्रि को शामिल किया जाता है उनका एक वंश है जो पूर्ण रूपेण ब्राह्मणों के वंश एवं गोत्र से संबंधित है। 

ऐसे में एक ब्राह्मण (अत्रि) से यादवों के गोत्र एवं वंश को स्थापित करना यादवों के मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" पर कुठाराघात करने के ही समान है।

ऋषि अत्रि को लेकर दूसरा आश्चर्य तब होता है जब ऋषि अत्रि से चन्द्रमा को उत्पन्न करा कर यादवों के मूल वंश- चन्द्रवंश को भी अत्रि से जोड़ दिया गया। सोचने वाली बात है कि जो अत्रि स्वयं वारूणी यज्ञ में अग्नि से उत्पन्न हुए हों या ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हों तो वे चन्द्रमा को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? अर्थात् यह सम्भव नहीं  जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम चन्द्रमा की उत्पत्ति गोलोक में विराट विष्णु से हुई है न कि ब्राह्मण ऋषि अत्रि से।

(ज्ञात हो - विराट विष्णु गोपेश्वर श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं, जिनकी उत्पत्ति गोलोक में ही परमेश्वर श्रीकृष्ण की चिन्मयी शक्ति से श्रीराधा के गर्भ से हुई है, इसलिए उन्हें गर्भोदकशायी विष्णु भी कहा जाता है। इन्हीं गर्भोदकशायी विष्णु के अनन्त रोमकूपों से अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई और उनमें भी उतनें ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश उत्पन्न हुए तथा उतने ही सूर्य और चंद्रमा उत्पन्न हुए। फिर उन प्रत्येक ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा जी ने उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण के आदेश पर द्वितीय सृष्टि की रचना की है। द्वितीय सृष्टि रचना में ब्रह्मा के दस मानस पुत्र उत्पन्न हुए, उन दस मानस पुत्रों में अत्रि भी थे। तो इस स्थिति में ऋषि अत्रि अलग से कैसे चन्द्रमा को उत्पन्न कर सकते हैं ? 

अर्थात यह संभव नहीं है क्योंकि अत्रि के जन्म की तो बात दूर इनके पिता ब्रह्मा की भी उत्पत्ति से बहुत पहले सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हो चुकी होती है। कुल मिलाकर पौराणिक ग्रन्थों  में ऋषि अत्रि से चन्द्रमा की उत्पत्ति बताने का एकमात्र उद्देश्य ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
**********
विराट विष्णु अर्थात् श्रीकृष्ण से चन्द्रमा की उत्पत्ति की पुष्टि-  श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (११) के श्लोक- (१९) से होती है जिसमें विराट पुरुष से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पत्ति एवं विलय क्रम में सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति को सर्वप्रथम भूतल पर अर्जुन ने उस समय देखा और जाना जब भगवान श्रीकृष्ण अपना विराट रूप का दर्शन अर्जुन को कराया। उसे विराट पुरुष को देखकर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -

"अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

              (श्रीमद्भागवत पुराण- ११/१९)

अनुवाद- आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूं।१९।
  
इसी प्रकार से विराट विष्णु से चन्द्रमा की उत्पत्ति का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -

"चन्द्रमा मनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च  प्रणाद्वायुरजायत।।१३।

अनुवाद- महाविष्णु के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य ज्योति, मुख से तेज और अग्नि  तथा प्राणों से वायु का प्राकट्य हुआ।१३।

अतः उपरोक्त साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- चन्द्रमा की उत्पत्ति विराट विष्णु से हुई है अत्रि से नहीं।

और यह भी सिद्ध हुआ कि- विष्णु से उत्पन्न होने के नामानुसार चन्द्रमा भी उसी तरह से वैष्णव हुआ जिस तरह से विष्णु से उत्पन्न गोप (यादव) वैष्णव हैं। यह ध्रुव सत्य है।

 (विशेष) - किन्तु ध्यान रहे चन्द्रमा कोई मानवी सृष्टि नहीं है वह एक आकाशीय पिण्ड है इसलिए उससे कोई पुत्र इत्यादि उत्पन्न होने की कल्पना करना भी महा मूर्खता होगी।

चन्द्रमा के दिन-मान से वैष्णव लोग काल- गणना करते हैं भारतीय पाञ्चांग में यह चान्द्रमास - चैत्र - वैशाख ज्येष्ठ आषाढ आदि का आधार है। तथा अपना प्रथम वंशज और आराध्य देव मानकर वैष्णव गोप चन्द्रमा की सांस्कृतिक पर्व के अवसरों पर  पूजा  भी करते हैं। इसी परम्परा से वैष्णव वर्ण के गोपों में चन्द्रवंश का उदय हुआ।

और भगवान श्रीकृष्ण जब भी भू-तल पर अवतरित होते हैं तो वे चन्द्रवंश के अन्तर्गत वैष्णव वर्ण के अभीर जाति यदुवंश आदि में ही अवतरित होते हैं।
      

गोप कुल में अवतरित होने के सम्बन्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -(५८) में कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपों के कुल में अवतरित होने का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके पिछले अध्याय- (८) में किया जा चुका है। वहाँ से पाठकगण  विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते है।

इन उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि- उत्पत्ति विशेष के कारण गोपों अर्थात् यादवों का मूल गोत्र और वर्ण  दोनों ही "वैष्णव" है जो उनके अनुवांशिक गुणों एवं रक्त सम्बन्धों को संकेत करता है। तथा उनका एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" है जिसमें गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है, जिसका उद्देश्य केवल ब्राह्मण पुरोहितों से पूजा पाठ, हवन, विवाह इत्यादि को संपन्न कराना है।

इस प्रकार से अध्याय- (९) भाग -एक और दो इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि - गोप, गोपाल, अहीर और यादव एक ही जाति, वंश और कुल के सदस्य हैं। जिनका मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" है किंतु यादव लोग पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराने के लिए विकल्प के रूप में "अत्रि गोत्र" को भी मानते हैं।

अब इसके अगले अध्याय- (१०) में गोपकुल के श्रीकृष्ण एवं राधा सहित पुरुरवा और उर्वशी, आयुष, नहुष,ययाति इत्यादि महान पौराणिक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है।

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वसुदेव के गोपालक रूप को इन दोनों पुराणों में 
बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। 
भारतीय समाज में नन्द के गोपालक होने की बातें अधिकतर प्रचलित है  
परन्तु वसुदेव के गोपालक स्वरूप को कथाकारों की अनभिज्ञता के कारण  अथवा जान बूझकर भी प्रस्तुत न करना दु:खद है।

____
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् 
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।१७।
____
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो। 
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य  वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
__
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।   प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____

"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
____
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत 
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः 
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय 
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।

"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः 
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते 
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।

"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।

वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये 
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।

"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा 
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।


"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 - 

"अनुवाद:-
17. हे पितामह, क्या तुम्हे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूँगा।

18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे य।

19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।

20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.

21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।

24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।

23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।

24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायोंको लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।

35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।

फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं। तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।

43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे। और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।
47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।

49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे क्रान्त( रौंदना) कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
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भगवान् हरि  अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। 
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् स्वराट्- विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।

हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।

राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यप ने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll

वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।।45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47। 

भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 । 

काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।

तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥

"कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते॥४२॥
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देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३॥           

                  "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४ ॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६ ॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७ ॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
 
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन  और प्राचीन है।

 "पिता के मृत्यु के पश्चात  -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए  जीवन यापन किया"
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं   नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः॥४१॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२ ॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।

                    "राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते॥ ४४॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ 
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।

"देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-
स्कन्ध 4, अध्याय 3 - 
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम्‎  स्कन्धः (४)
दित्या अदित्यै शापदानम्
             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥६॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥७॥

                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥८॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥९॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥१०॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥

                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥

                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥

अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥३०॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

 इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान  वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
 हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेव की गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोक में जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यप को वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्याय को जानते हुए भी आपने दूसरे के धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो ! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदा से सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपर से मधुर किंतु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ों की सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आप में कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दिति को नींद आने लगी। वह परमा सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दिति के शरीर में प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥42 ॥

उस समय वज्राघात से दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्र ने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥43॥

तत्पश्चात् इन्द्र ने पुनः उन सातों टुकड़ों के सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 

जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुण ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यप के | आश्वासन देने पर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
 जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम- 
     
 "हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -अध्याय - (55) 
"भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय-
हिन्दी-अनुवाद-सहित- 

               "वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।।

विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।३।।

जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।।

नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।

विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।।

कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।।

विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।।

मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।

दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।

सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।।

सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।।

कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।।

अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।

जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।।

विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।।

"यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्।  तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।।
                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।।

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।   त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।      न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।।


इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।।

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

             "वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।

              
*हिन्दी अनुवाद:-★        
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             हरिवंशपर्व सम्पूर्ण।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय !भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं।
वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।

'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।

अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।

मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेन पुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।

कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।

विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।

यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।

मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।

भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।

तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।

मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।

मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।


जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।

मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।

नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
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ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।

ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- 
तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।

ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।

जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।

मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।


ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।

'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे  ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।

महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।

वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा  ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।

विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।

मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।

वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।

वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
__________
 "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
 


परिशिष्ट कथा- ३-

"नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-


दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम्। ८०-५८।

एवं सम्पूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।।

पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।

दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।।८०-६१।।

सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रितांबरभूषणा ।८०-६२।

ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नन्दगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।

गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपाण्डुरौ।८०-६४।


दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी  पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।

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"नन्द के  परिवार का परिचय-
"वृष्णे: कुले उत्पन्नस्य देवमीणस्य पर्जन्यो नाम्न: सुतो। वरिष्ठो बहुशिष्टो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामह।१।
अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
"पुरा काले नन्दीश्वरे प्रदेशे  वसन्सह गोपै:।
स्वराटो विष्णो: तपयति स्म पर्जन्यो यति।।२।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए  वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध घोष (गोप) थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
__________

नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।


गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
अन्तर्विरोध-
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विशेष-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
"वसुदेवसुतो वैश्यःक्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।
आत्मानं भक्तविष्णुश्चमायावी च प्रतारकः।६।"(ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय


_________
आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण (उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सनन्द है। इनकी अंग कान्ति पीलापन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु  है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।



   "कृष्ण की माता के परिवार का परिचय"
"यशोदा के  परिवार का परिचय-
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।

अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७     
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
*
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।


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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही(नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
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तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 
      "श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-
 में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।

"राधा के  परिवार का परिचय-
 "वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
 रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क) 

"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे  उभे।१७०(क) 
"अनुवाद:-
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)

रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
 भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१। 

अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी   ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।

"स्वसा कीर्तिमती  मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।‌१७२।।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

 श्रीराधाया:  पूर्वजो भ्राता श्रीदामा कनिष्ठा  भगिन्यानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या-134-से लगातार- 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

"रायाण  की पत्नी वृन्दा का परिचय-
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
"वृन्दे ! त्वं वृषभानसुता  च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।

*****
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

*******
"अनुवाद:-
तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

*********
स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
_______

उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरे  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौन्दर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
_____    
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः


राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।

और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...

और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त  श्रीलरूप गोस्वामी  द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः (१३४) में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/

लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः (१३४)
__________
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।


भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली व्रज  की आभीर कन्याओं में वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""
करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्रीकृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(उद्धारक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, आपका चरित्र रूपी सागर (समुन्दर) गुणों के दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

यह आज से (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया !!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ( यादव) ने किया था।

विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था। 
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी। तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश ) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।
तिरुपति बालाजी मंदिर, भारत में आंध्र प्रदेश के तिरुमला पर्वत पर स्थित भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है. यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वेंकटेश्वर को समर्पित है और इसे तिरुमाला-तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) द्वारा प्रबंधित किया जाता है. 


तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं 
जैसा की संस्कृत-साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या  (368) पर वर्णित है👇


अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

और गर्ग सहिता में लिखा है !

यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।


अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
________
विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु 
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है

सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-
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पद्मपुराण के इस अध्याय में श्लोकों की संख्या(३३१ ) के लगभग है। विस्तार भय से सम्पूर्ण श्लोकों को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है 
केवल कुछ  गायत्री चरित्र मूलक श्लोकों को ही उद्धृत किया गया है।

परिशिष्ट कथा- (५-)

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड से गायत्री का परिचय-- 



  • पद्मपुराणम्-
  • (सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
  • (पदान्वय अर्थसमन्विता सात्वती टीका)
  • पद्मपुराणम्‎ -खण्डः प्रथम (सृष्टिखण्डम्)
  • ___________________________________                                                          "भीष्म उवाच"
  • तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१।                
  • अनुवाद:- हे द्विजश्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ ? और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।     _______________ऊं________________
  • गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।    
  • अनुवाद:-ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ? और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे
  • मुनि !।२।         _______________ऊं________________
  • एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्।आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
  • अनुवाद:-आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३.  _______________ऊं________________       पुलस्त्य उवाच
  • तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
  • अनुवाद:- ( पुलस्त्य ऋषि बोले -)            हे राजन् ! उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित हुई है उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४।                        _______________________________
  • रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः निन्द्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
  • अनुवाद:-उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्यमयी कार्य किया वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये।५।______________ऊं________________
  • विष्णुना न कृतं किञ्चित्प्राधान्ये स यतः स्थितः नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
  • अनुवाद:-इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी है।६।
  • _______________ऊं________________
  • गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम् दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
  • अनुवाद:-और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो  वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या( अभीरकन्या) कमर में मेखला (करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।_______________ऊं________________
  • हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
  • अनुवाद:-यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे उसके भाई (बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी- सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८।_______________ऊं________________
  • केन त्वमिह चानीता अलक्ताङ्का तु सुन्दरी शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
  • अनुवाद:-और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर ( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा  कम्बल से युक्त कर दी गयीं ‌? ।९।_______________ऊं________________
  • केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
  • अनुवाद:-हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने उनसे स्वयं कहा ! ।१०।
  • _______________ऊं________________
  • इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालम्बिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
  • अनुवाद:-यहाँ यह हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त किया गया है। अर्थात ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो !।११।_______________ऊं________________
  • पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
  • अनुवाद:-यह अत्यन्त पुण्यशालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।_______________ऊं________________
  • एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
  • अनुवाद:-इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों  शोक करने के योग्य नहीं होते हो ! यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को ( पति के रूप में ) प्राप्त किया है ।१३।    _______________ऊं________________
  • योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभन्ते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
  • अनुवाद:-तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योग करने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले वेद पारंगत ब्राह्मण भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।_______________ऊं________________
  • धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
  • अनुवाद:-(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
  • _______________ऊं________________
  • अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान् युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये अवतारं करिष्येहं ।१६।
  • अनुवाद:-                _________________                   (द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव-कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अवतरण करुँगा अर्थात इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।_______________ऊं________________
  • सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
  • अनुवाद:-और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं जब नन्द आदि का अवतरण भूलोक पर होगा।१७।_______________ऊं________________
  • करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।
  • अनुवाद:-मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ (रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।_______________ऊं________________
  • तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
  • अनुवाद:-उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।_______________ऊं________________
  • न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
  • अनुवाद:-इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा। भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०। _______________ऊं________________
  • एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
  • अनुवाद:- उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आप ही हमारे जाति कुल (वंश ) में धर्म के सिद्धिकरण के लिए आप अवतार करने योग्य  है ।२१।_______________ऊं________________
  • भवतो दर्शनादेव भवामः गोलोक वासिनः शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
  • अनुवाद:-आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर गोलोक के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।
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  • एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
  • अनुवाद:- हे देवों के स्वामी हे विभो ! आपका ऐसा वरदान हो ! इसके बाद में स्वयं भगवान विष्णु द्वारा अहीरों को अनुनय पूर्वक आश्वस्त किया गया ।२३।_______________ऊं______________
  • ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम् । त्रपान्विता दर्शने तु बन्धूनां वरवर्णिनी ॥ २४॥
  • अनुवाद:-ब्रह्मा जी द्वारा भी अपने बाँये हाथ से सूचित करते हुए कहा गया कि ऐसा ही हो ! उसके दौरान लज्जित होने के कारण वह वर का वरण करने वाली कन्या गायत्री अपने बान्धवों को भी नहीं देख पा रही थी।२४।_______________ऊं________________
  • कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
  • अनुवाद:-किस के द्वारा मैं बता दी गयी जिस कारण ये इस देश को आगये देख कर उन सब को गोपकन्या यह बोली ।२५।_______________ऊं________________
  • वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्।अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
  • अनुवाद:-बाँयें हाथ के द्वारा उन सबको सामने से प्रणाम करती हुई उन अपने माता-पिता के पास जाकर कहा !_______________ऊं________________
  • भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
  • अनुवाद:-मैंने सर्वप्रथम पति रूप में देव ब्रह्मा को प्राप्त कर लिया है ; आप लोगों और मेरे माता- पिता और बान्धवों । मेरे विषय में अब तुम सब को कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।२७।_______________ऊं________________
  • सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
  • अनुवाद:-मेरी सखीयाँ', मेरी बहने और उनके पुत्र -पुत्रीयाँ सभी से मेरा कुशल आप लोग कहेंगे मैं देवताओं (देवीयों) के साथ हूँ।२८।
  • _______________ऊं________________
  • गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
  • अनुवाद:-तत्पश्चात् उन सभी गोपों के अपने घर चले जाने पर अत्यन्ता सुन्दरी गायत्री देवी ब्रह्मा जी के साथ यज्ञ शाला में जाते हुए सुशोभित हुयीं ।२९।_______________ऊं________________
  • याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्। यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
  • अनुवाद:-इसके बाद यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों ने ब्रह्मा जी से कहा आप हम लोगों को इच्छित वरदान दें ! इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन सब आगत ब्राह्मणों को इच्छित वरदान दिया ।३०।_______________ऊं________________
  • तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितं सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
  • अनुवाद:-गायत्री देवी ने भी ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये वरदान का समर्थन किया वह साध्वी देवताओं के समीप बनी रहीं ।३१।
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  • दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदायज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
  • अनुवाद:-वह यज्ञ दिव्य सौ वर्षों से भी अधिक वर्षों तक चलता रहा उसी समय यज्ञशाला में भगवान रूद्र भिक्षा प्राप्त करने के लिए आये ।३२।
  • _______________ऊं________________
  • बृहत्कपालं सङ्गृह्य पञ्चमुण्डैरलङ्कृतः ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः।३३।
  • अनुवाद:-वे अपने हाथ में बहुत बड़ा कपाल लिए हुए और पाँच मुण्डों की माला धारण किए हुए थे उन्हें दूर से उठते हुए देखकर ऋत्विक् और सदस्य उनकी निन्दा करने लगे ३३।_______________ऊं________________
  • कथं त्वमिह सम्प्राप्तो निन्दितो वेदवादिभिः एवं प्रोत्सार्यमाणोपि निन्द्यमानः स तैर्द्विजैः।३४।
  • अनुवाद:-
  • अरे ! तुम यहाँ कैसे आ गये ? वेदज्ञ पुरुष तुम्हारे इस आचरण और स्वरूप की निन्दा करते हैं । इस प्रकार शिव को उन पुरोहितों द्वारा  दूर किये जाते हुए और निन्दा किये जाते हुए  ।३४।
  • _______________ऊं________________
  • उवाच तान्द्विजान्सर्वान्स्मितं कृत्वा महेश्वरः अत्र पैतामहे यज्ञे सर्वेषां तोषदायिनि।३५।
  • अनुवाद:-शंकर ने मुस्कराकर उन ब्राह्मणों के प्रति कहा यहाँ सभी को सन्तुष्ट करने वाले ब्रह्मा जी का यज्ञ है ।३५।_______________ऊं________________
  • कश्चिदुत्सार्य तेनैव ऋतेमां द्विजसत्तमाः उक्तः स तैः कपर्दी तु भुक्त्वा चान्नं ततो व्रज।३६।
  • अनुवाद:-हे द्विज श्रेष्ठो ! तुम किसी के द्वारा मुझे ही दूर हटाया जा रहा है। अर्थात हे ब्राह्मण श्रेष्ठो ! केवल मुझको ही भगाया जा रहा है ? इसके पश्चात वे पुरोहित बोले ! ठीक है तुम भोजन करके चले जाना ।३६।_______________ऊं________________
  • कपर्दिना च ते उक्ता भुक्त्वा यास्यामि भो द्विजाः एवमुक्त्वा निषण्णः स कपालं न्यस्य चाग्रतः।३७।
  • अनुवाद:-इसके प्रत्युत्तर में शंकर जी ने कहा – ब्राह्मणों ! मैं भोजन करके चला जाऊँगा इस तरह से कहकर शंकर जी अपने सामने कपाल रखकर बैठ गये ।३७।
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  • तेषां निरीक्ष्य तत्कर्म चक्रे कौटिल्यमीश्वरः मुक्त्वा कपालं भूमौ तु तान्द्विजानवलोकयन्।३८।
  • अनुवाद:-उन ब्राह्मणों के उस कर्म को देखकर शंकर जी ने भी कुटिलता की और कपाल को भूमि पर रखकर उन लोगों को देखते रहे ।३८।_______________ऊं________________
  • उवाच पुष्करं यामि स्नानार्थं द्विजसत्तमाः तूर्णं गच्छेति तैरुक्तः स गतः परमेश्वरः।३९।
  • अनुवाद:-उन्होंने कहा श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! मैं पुष्कर में स्नान करने के लिए जा रहा हूँ । ब्राह्मणों ने कहा शीघ्र जाओ ! यह सुनकर परमेश्वर शंकर वहाँ से चले गये।३९।_______________ऊं________________
  • वियत्स्थितः कौतुकेन मोहयित्वा दिवौकसः स्नानार्थं पुष्करं याते कपर्दिनि द्विजातयः।४०।
  • अनुवाद:-वे देवताओं को मोहित करके आकाश में वहीं स्थित हो गये; कौतुक के साथ शंकर जी के पुष्कर चले जाने पर ब्राह्मणों ने परस्पर कहा ।४०।_______________ऊं________________
  • कथं होमोत्र क्रियते कपाले सदसि स्थिते कपालान्तान्यशौचानि पुरा प्राह प्रजापतिः।४१।
  • अनुवाद:-जब इस यज्ञ सभा मेंं कपाल विद्यमान है ; तो फिर होम कैसे किया जा सकता है ? कपाल के भीतर रहने वाली वस्तुएँ अपवित्र होती हैं ऐसा स्वयं ब्रह्मा जी ने पूर्व काल में कहा था
  • _______________ऊं________________
  • विप्रोभ्यधात्सदस्येकः कपालमुत्क्षिपाम्यहं उद्धृतं तु सदस्येन प्रक्षिप्तं पाणिना स्वयम्।४२।
  • अनुवाद:-उस सभा में एक ब्राह्मण ने कहा कि मैं इस कपाल को उठाकर फैंक देता हूँ। और स्वयं सदस्य द्वारा अपने हाथ में ले उठाकर उसे फैंक दिए जाने पर ।४२।_______________ऊं________________
  • तावदन्यत्स्थितं तत्र पुनरेव समुद्धृतमेवं  द्वितीयं तृतीयं विंशतिस्त्रिंशदप्यहो।४३।
  • अनुवाद:-वहाँ दूसरा कपाल निकल आया फिर उसके भी फैंक दिये जाने पर तीसरा बींसवाँ तीसवाँ भी कपाल ब्राह्मण द्वारा फैंका गया ।४३।_______________ऊं________________
  • पञ्चाशच्च शतं चैव सहस्रमयुतं तथा एवं नान्तः कपालानां प्राप्यते द्विजसत्तमैः।४४।
  • अनुवाद:-पचासवाँ' सौंवाँ 'हजारवाँ 'दश हजारवाँ 'भी उसी तरह उठाकर फैंका गया इस तरह वे ब्राह्मण कपालों का अन्त नहीं कर पाते थे ।४४।_______________ऊं________________
  • नत्वा कपर्दिनं देवं शरणं समुपागताः पुष्करारण्यमासाद्य जप्यैश्च वैदिकैर्भृशम्।४५।
  • अनुवाद:-इसके पश्चात शंकर जी को नमस्कार करके वे ब्राह्मण शंकर जी की शरण में उनके पास गये पुष्कर वन में जाकर वैदिक स्त्रोतों द्वारा उन ब्राह्मणों ने शंकर (रूद्र) की अत्यधिक स्तुति की।४५।_______________ऊं________________
  • तुष्टुवुः सहिताः सर्वे तावत्तुष्टो हरः स्वयं  ततः सदर्शनं प्रादाद्द्विजानां भक्तितःशिवः।४६।
  • अनुवाद:-परिणामस्वरूप शिव जी प्रसन्न हो गये और ब्राह्मणों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया।४५-४६।_______________ऊं________________
  • उवाच तांस्ततो देवो भक्तिनम्रान्द्विजोत्तमान् पुरोडाशस्य निष्पत्तिः कपालं न विना भवेत्।४७।
  • अनुवाद:- उसके पश्चात शंकर की भक्ति से नम्र बने रहे ब्राह्मणों से शंकर जी ने कहा ! ब्राह्मणों कपाल के विना पुरोडास की सिद्धि अथवा निष्पत्ति नहीं होती है ।४७।
  • विशेष----यव (जौ)आदि के आटे की बनी हुई टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी।
  • विशेषत:— यह आकार में लंबाई लिए गोल और बीच में कुछ मोटी होती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिये मन्त्र पढ़कर आहुति दी जाती थी।
  • अत: यह यज्ञ का अंग है। यही हवि है अर्थात वह हवि या पुरोडाश जो यज्ञ से बच रहे।
  • वह वस्तु जो यज्ञ में होम की जाय। यज्ञभाग।. सोमरस को भी पुरोडाश कहा जाता था आटे की चौंसी
  • _______________ऊं________________
  • कुरुध्वं वचनं विप्राः भागः स्विष्टकृतो मम एवं कृते कृतं सर्वं मदीयं शासनं भवेत्।४८।
  • अनुवाद:-हे ब्राह्मणों ! मेरी बात मानों स्विष्टकृत (अच्छे यज्ञ ) का भाग मेरा होता है ऐसा करने से मेरी सभी आज्ञाओं का पालन अथवा शास्त्रीय विधान हो जाता है ।४८।
  • विशेष- सु+इष्ट= स्विष्ट इज्यते इष्यते वा यज इष वा + भावे क्त ।) इष्ट– यज्ञादिकर्म्म ।
  • _______________ऊं________________
  • तथेत्यूचुर्द्विजाश्शंभुं कुर्मो वै तव शासनम्।कपालपाणिराहेशो भगवंतं पितामहम्।।४९।
  • अनुवाद:-तब सभी द्विज बोले ! हे शम्भु !आप जो भी आदेश दोगे हम करेगें। अर्थात् ब्राह्मणों ने तथास्तु ! कह कर शंकर जी से कहा कि हम आपकी आज्ञाओं का पालन करेंगे हाथ में कपाल लेकर शिवजी ने ब्रह्मा जी से कहा ।।४९।_______________ऊं________________
  • वरं वरय भो ब्रह्मन्हृदि यत्ते प्रियं स्थितम् । सर्वं तव प्रदास्यामि अदेयं नास्ति मे प्रभो।५०।
  • अनुवाद:-हे ब्रह्मा ! आपके हृदय में जो वरदान की प्रिय इच्छा हो वह माँग लीजिए आपको अदेय कुछ भी नहीं है प्रभो !।५०।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मोवाच न ते वरं ग्रहीष्यामि दीक्षितोहं सदः स्थितः सर्वकामप्रदश्चाहं यो मां प्रार्थयते त्विह।५१।
  • अनुवाद:-ब्रह्मा जी ने कहा हे शंकर मैं आपसे वरदान नहीं मागूँगा मैं दीक्षा लेकर इस सभा में उपस्थित हूँ । यहाँ कोई भी मुझसे जो याचना करता है मैं उसकी सारी कामनाऐं पूर्ण कर देता हूँ।५१।_______________ऊं________________
  • एवं वदन्तं वरदं क्रतौ तस्मिन्पितामहम्।तथेति चोक्त्वा रुद्रः स वरमस्मादयाचत।५२।
  • अनुवाद:-उस यज्ञ में इस प्रकार कहने वाले और वरदान देने वाले ब्रह्मा जी से शंकर ने वरदान माँगा ।५२।_______________ऊं________________
  • ततो मन्वन्तरेतीते पुनरेव प्रभुः स्वयम्।ब्रह्मोत्तरं कृतं स्थानं स्वयं देवेन शम्भुना।५३।
  • अनुवाद:- इसके बाद मन्वन्तर बीत जाने पर स्वयं प्रभु शिव ने ब्रह्मोत्तर स्थान पर स्वयं का स्थान बनाया ।।५३।_______________ऊं________________
  • चतुर्ष्वपि हि वेदेषु परिनिष्ठां गतो हि यः तस्मिन्काले तदा देवो नगरस्यावलोकने।५४।
  • अनुवाद:- चारों वेदोंं के जानकार ब्राह्मण उस समय निश्चय ही वे तब देव नगरों को देखने के लिए गये ।५४।_______________ऊं________________
  • सम्भाषणे द्विजानां तु कौतुकेन सदो गतः तेनैवोन्मत्तवेषेण हुतशेषे महेश्वरः।५५।
  • अनुवाद:-शिवजी को सभा में उन्मत्त वेष में गया हुआ देखकर ब्राह्मणों को शिव जी ने कौतूहल से बात करते देखा।५५।_______________ऊं________________
  • प्रविष्टो ब्रह्मणः सद्म दृष्टो देवैर्द्विजोत्तमैः प्रहसन्ति च केप्येनं केचिन्निर्भर्त्सयंति च।५६।
  • अनुवाद:-शंकर जी उस उन्मत्त वेष से ब्राह्मणों के घर में घुस गये। उस समय ब्राह्मणों ने उनको देखकर कुछ ने उनका उपहास किया तो कुछ ने निन्दा की ।५६।_______________ऊं________________
  • अपरे पान्सुभिः सिञ्चन्त्युन्मत्तं तं तथा द्विजाः लोष्टैश्च लगुडैश्चान्ये शुष्मिणो बलगर्विताः।५७।
  • अनुवाद:-दूसरे ब्राह्मण उन्मत्त शंकर के ऊपर धूल फेंकने लगे। बल के गर्व से कुछ ब्राह्मण प्रचण्ड बने थे कुछ ब्राह्मण शंकर को ढ़ेले और लकुटी से मारने लगे ।५७।_______________ऊं________________
  • प्रहरन्ति स्मोपहासं कुर्वाणा हस्तसंविदम्।ततोन्ये वटवस्तत्र जटास्वागृह्य चान्तिकम्।५८।
  • अनुवाद:-कुछ उपहास करते हुए शंकर पर मुक्कों से प्रहार करते हैं तत्पश्चात कुछ अन्य ब्रह्मचारी (वटव) वहाँ उनकी जटा पकड़कर उनके पास जाते हैं।५८।_______________ऊं________________
  • पृच्छन्ति व्रतचर्यां तां केनैषा ते निदर्शिता अत्र वामास्त्रियः सन्ति तासामर्थेत्वमागतः।५९।
  • अनुवाद:-यह व्रतचर्या किससे तुमने पूछी और किसके द्वारा इसको निर्देशित किया गया है यहाँ सुन्दर स्त्रियाँ हैं उनको पाने के लिए तुम यहाँ आये हो।५९।
  • _______________ऊं________________
  • केनैषा दर्शिता चर्या गुरुणा पापदर्शिना येनचोन्मत्तवद्वाक्यं वदन्मध्ये प्रधावसि।६०।
  • अनुवाद:-तुम्हें यह वृतचर्या किस पापदर्शी गुरु के द्वारा दिखाई गयी है ? किस पापी गुरु ने तुमको यह आचरण बताया है किसके कहने से पागल के समान बोलते हुए तुम सबके बीच में दौड़ रहे हो।६०।_______________ऊं________________
  • शिश्नं मे ब्रह्मणो रूपं भगं चापि जनार्दनः उप्यमानमिदं बीजं लोकः क्लिश्नाति चान्यथा।६१।
  • अनुवाद:-शंकर ने कहा मेरा लिंग ब्रह्म स्वरूप है और भग (योनि) भी जनार्दन है अन्यथा यह संसार बीज वपन करते हुए कष्ट अनुभव करता।६१।
  • विशेष- जनान् लोकान् अर्द्दति गच्छति प्राप्नोति रक्षणार्थं पालकत्वादिति जनार्द्दनः । ” इत्यमरटीकायां भरतः
  • (जन: जननं अर्द्दति प्राप्नोति इति जनार्दन-यौनि).      _______________ऊं________________
  • मयायं जनितः पुत्रो जनितोनेन चाप्यहम्।महादेवकृते सृष्टिः सृष्टा भार्या हिमालये।६२।
  • अनुवाद:-मैने इसे पुत्र रूप से उत्पन्न किया और इसने मुझे उत्पन्‍न किया है महादेव के द्वारा सृष्टि किये जाने पर उसकी पत्नी की सृष्टि हिमालय से हुई।६२।_______________ऊं________________
  • उमादत्ता तु रुद्रस्य कस्य सा तनया वद मूढा यूयं न जानीथ वदतां भगवांस्तु वः।६३।
  • अनुवाद:-उमा का विवाह शंकर से हुआ बताओ यह किस की पुत्री है । तुम लोग मूर्ख हो नहीं जानते हो जाकर इस बात को ब्राह्मा जी से पूछो ।६३।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मणा न कृता चर्या दर्शिता नैव विष्णुना गिरिशेनापि देवेन ब्रह्मवध्या कृते न तु।६४।
  • अनुवाद:-इस आचरण को ब्रह्मा ने नहीं किया यह आचरण विष्णु के द्वारा भी नहीं दर्शाया गया है । पर्वत पर सोने वाले देव के द्वारा यह ब्रह्म हत्या करने के निमित्त तो नहीं ! ।६४।_______________ऊं________________
  • कथंस्विद्गर्हसे देवं वध्योस्माकं त्वमद्य वै एवं तैर्हन्यमानस्तु ब्राह्मणैस्तत्र शङ्करः।६५।
  • अनुवाद:-अरे तुम लोग ब्रह्मा जी की निन्दा कर रहे हो आज तुम हम लोगों के बाध्य हो इस तरह से उन ब्राह्मणों द्वारा कहकर मारे जाते हुए है वहाँ शंकर । ६५।_______________ऊं________________
  • स्मितं कृत्वाब्रवीत्सर्वान्ब्राह्मणान्नृपसत्तम किं मां न वित्थ भो विप्रा उन्मत्तं नष्टचेतनम्।६६।
  • अनुवाद:-हे नृप श्रेष्ठ शंकर ने मुस्कराते हुए उन ब्राह्मणों से कहा ब्राह्मणों ! क्या तुम लोग अज्ञानी और उन्मत्त मुझको नहीं जानते हो ।६६।_______________ऊं________________
  • यूयं कारुणिकाः सर्वे मित्रभावे व्यवस्थिताः वदमानमिदं छद्म ब्रह्मरूपधरं हरम्।६७।
  • अनुवाद:-बनाबटी ब्रह्म-रूपधारी शंकर को इस तरह से कहते हुए कि आप लोग दयालु और मेरे मित्र हैं  ।६७।_______________ऊं________________
  • मायया तस्य देवस्य मोहितास्ते द्विजोत्तमाः कपर्दिनं निजघ्नुस्ते पाणिपादैश्च मुष्टिभिः।६८।
  • अनुवाद:-शंकर की माया से मोहित वे ब्राह्मण शंकर को हाथ' पैैर' मुुुक्कोंं से मारते हैं ।६८।_______________ऊं________________
  • दण्डैश्चापि च कीलैश्च उन्मत्तवेषधारिणम्पीड्यमानस्ततस्तैस्तु द्विजैः कोपमथागमत्।६९।
  • अनुवाद:-उन्मत्त वेष धारी शंकर को वे डण्डों और कीलों से पीडित करने लगे तब उन सबके द्वारा पीटे जातेे हुए शंकर क्रोधित हो गये ।६९।
  • _______________ऊं________________
  • ततो देवेन ते शप्ता यूयं वेदविवर्जिताः ऊर्ध्वजटाः क्रतुभ्रष्टाः परदारोपसेविनः।७०।___________________________________
  • अनुवाद:-इसके बाद ने उन ब्राह्मणों को शंकर जी ने शाप दे दिया कि तुम सब वेदज्ञानविहीन, ऊपर की ओर जटा रखने वाले, और  यज्ञाधिकार से रहित परस्त्रीगामी हो जाओ ।७०।_______________ऊं________________
  • वेश्यायां तु रता द्यूते पितृमातृविवर्जिताः न पुत्रः पैतृकं वित्तं विद्यां वापि गमिष्यति।७१।
  • अनुवाद:- तुम सब ब्राह्मण वेश्या- प्रेमी' द्यूतक्रीडाप्रेमी, और माता-पिता से रहित हो जाओगे  तथा तुम लोगों का पुत्र पिता की सम्पत्ति अथवा विद्या को नहीं प्राप्त कर पायेगा।७१।_______________ऊं________________
  • * सर्वे च मोहिताः सन्तु सर्वेन्द्रियविवर्जिताः रौद्रीं भिक्षां समश्नन्तु परपिण्डोपजीविनः।७२।
  • अनुवाद:-तुम सब लोग अज्ञानी तथा शिथिल इन्द्रियों वाले हो जाओगे, रूद्र की भिक्षा को खाने के लिए दूसरों के द्वारा दिये गये अन्न पर ही जीवन धारण करोगे। ७२।
  • _______________ऊं________________
  • आत्मानं वर्तयन्तश्च निर्ममा धर्मवर्जिताः कृपार्पिता तु यैर्विप्रैरुन्मत्ते मयि साम्प्रतम्।७३।
  • अनुवाद:-जिन ब्राह्मणों ने मुझ उन्मत्त के ऊपर इस समय कृपा की है। वे केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले, निर्मम और अधार्मिक हो जाऐंगे, ७३।_______________ऊं________________
  • तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासमजाविकम् । कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
  • अनुवाद:-उन ब्राह्मणों के यहाँ धन पुत्र दासी 'दास बकरी" भेड़ आदि पशु हों मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ हों ।७४।
  • _______________ऊं________________
  • एवं शापं वरं चैव दत्वांतर्द्धानमीश्वरः गतो द्विजागते देवे मत्वा तं शंकरं प्रभुम्।७५।                                      अनुवाद:- इस तरह से ब्राह्मणों को शाप और वरदान देकर अर्द्धनारीश्वर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये उनके चले जाने पर ब्राह्मणों ने जाना कि ये तो भगवान शंकर थे ।७५।_______________ऊं________________
  • अन्विष्यन्तोपि यत्नेन न चापश्यन्त ते यदा तदा नियमसम्पन्नाः पुष्करारण्यमागताः।७६।
  • अनुवाद:-उनका अन्वेषण (खोज) करते हुए यत्न के द्वारा भी ब्राह्मणों ने जब उन्हें वहाँ नहीं देखा पाया तो वे सब नियम का पालन करते हुए पुष्कर क्षेत्र में आये। ७६।_______________ऊं________________
  • स्नात्वा ज्येष्ठसरो विप्रा जेपुस्ते शतरुद्रियम् जाप्यावसाने देवस्तानशीररगिराऽब्रवीत्।७७।
  • अनुवाद:-वहाँ उन ब्राह्मणों ने ज्येष्ठ सरोवर में स्नान करके शतरूद्रीय सूक्त का जप किया जप करके अन्त में शंकर जी ने आकाशवाणी के रूप में उन ब्राह्मणों से कहा ।७७।_______________ऊं________________
  • अनृतं न मया प्रोक्तं स्वैरेष्वपि कुतः पुनः आगते निग्रहे क्षेमं भूयोपि करवाण्यहम्।७८।
  • अनुवाद:-मेरे द्वारा असत्य नहीं कहा गया और स्वेच्छाचारीयों के प्रति तो कहना ही क्या ! निग्रह का विषय बन जाने पर मैं दुबारा क्षमा करता हूँ ‌।७८।_______________ऊं________________
  • शान्ता दान्ता द्विजा ये तु भक्तिमन्तो मयि स्थिराःन तेषां छिद्यते वेदो न धनं नापि सन्ततिः।७९।
  • अनुवाद:- जो ब्राह्मण शान्त और दान्त ( इन्द्रियों के दमन करने वाले) हैं उनकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति है उन सभी के वेद ज्ञान' धन और सन्तान आदि का नाश नहीं होगा।७९।_______________ऊं________________
  • अग्निहोत्ररता ये च भक्तिमन्तो जनार्दनेपूजयन्ति च ब्रह्माणं तेजोराशिं दिवाकरम्।८०।
  • अनुवाद:-अग्निहोत्र करने वाले, भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले, ब्रह्मा जी पूजा करने वाले तथा तेजोराशि सूर्य की पूजा करने वाले ।८०।_______________ऊं________________
  • नाशुभं विद्यते तेषां येषां साम्ये स्थिता मतिः एतावदुक्त्वा वचनं तूष्णीं भूतस्तु सोऽभवत्।८१।
  • अनुवाद:- जिनकी साम्य में बुद्धि स्थित है उन लोगों का कभी अशुभ नहीं होता है इतना कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी ।८१।_______________ऊं________________
  • लब्ध्वा वरं सप्रसादं देवदेवान्महेश्वरात्।आजग्मुः सहितास्सर्वे यत्र देवः पितामहः।८२।
  • अनुवाद:-देवाराध्य भगवान् शंकर से प्रसन्नता पूर्वक वर प्राप्त कर के सभी ब्राह्मण वहीं आगये  जहाँ ब्रह्माजी के साथ पहले विद्यमान थे ।८२।
  • _______________ऊं________________
  • विरिञ्चिं संहिताजाप्यैस्तोषयन्तोऽग्रतः स्थिताः तुष्टस्तानब्रवीद्ब्रह्मा मत्तोपि व्रियतां वरः।८३।
  • अनुवाद:-वेैदिकसंहिता की ऋचाओं से ब्रह्माजी को प्रसन्न करके उनके समक्ष खड़े ब्राह्मणों से ब्रह्मा जी ने कहा आप लोग मुझसे भी वरदान माँगे ।८३।_______________ऊं________________
  • ब्रह्मणस्तेनवाक्येन हृष्टाः सर्वे द्विजोत्तमाः को वरो याच्यतां विप्राः परितुष्टे पितामहे।८४।
  • अनुवाद:-ब्रह्माजी के इस वाक्य को सुनकर सभी ब्राह्मण प्रसन्न हो गये उन्होंने कहा ब्राह्मणों ! प्रसन्न हुए ब्रह्मा जी से कौन सा वरदान माँगा जाय  ।८४।

पद्मपुराण के इस अध्याय में श्लोकों की संख्या (३३१) के लगभग है। विस्तार भय से सम्पूर्ण श्लोकों को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है 
केवल कुछ  गायत्री- चरित्र मूलक श्लोकों को ही उद्धृत किया गया है।

            इति


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