अविमुक्तेश्वरानन्द जी हम यह ज्ञान वर्धक सन्देश आपके लिए प्रेषित कर रहे हैं।
वृद्ध होने नाते हम आपका शिष्टाचार पूर्वक सम्मान करते हैं।
आप केवल ब्राह्मण समाज के शंकराचार्य हैं यादवों के नहीं- क्योंकि यादव ( गोप ) ब्राह्मणों के पितामह ब्रह्मा के भी पूज्य है।
यह पुराणों में वर्णन है।
अविमुक्तेश्वरानन्द जी आपकी विद्वता को स्वीकार नहीं करते हैं।
क्योंकि आप पञ्चम वर्ण के विषय में भी नहीं जानते हैं।
हम आपको बता दें-
पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुके हैं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। ठीक इसी तरह से यादवों यानी गोपों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।
किन्तु पुराणकारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। जबकि देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं।
इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का अवयव ही माना जा सकता है।
इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम-वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया के उच्च भाग से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही सन्निकट हैं।
अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंग हैं ना की पञ्चम-वर्ण के।
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब भागवत धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ, और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ, और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२
"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो कभी भयभीत नहीं होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का ही पर्याय है, जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं।
अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपर्युक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
स्वराट्- विष्णु ( के रोमकूपों से उत्पन्न गोप लोग ही वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो स्वराट
विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से गोप( यादव) ही वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है।
जो सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के उत्तर-खण्ड के अध्याय(६८) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।*
महेश्वर उवाच-
शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।
अनुवाद:-
१-महेश्वर-ने कहा ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
३-चूँकि वह स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।
यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की व्यत्पत्ति बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव पद (विभक्ति युक्त शब्द) बनता है और इन्हीं विष्णु से वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।
कृष्ण की भक्ति और चरित्र को विषय में केवल चार लोग ही जानते हैं- जिनमें गोप अथवा यादव भी हैं।
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।
किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।
अनुवाद -• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी और गोप- गोपियाँ( यादव) ही जानते हैं।• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३।
ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)
अध्यायः( ९४)
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इसलिए भी भागवत कथाओं को वाचने का पूर्ण अधिकार शास्त्र सम्मत विधि से केवल यादवों को ही है। ब्राह्मण अथवा किसी दूसरी जाति के व्यक्तियों को भी नहीं-
भागवत गोपों ( यादवों ) का धर्म है।
और वैष्णव इनका वर्ण है जो ब्रह्मा के चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था से ऊपर है। जिसमें गोप नारायणी सेना के योद्धा बनकर महाभारत का युद्ध करते हैं और गोपालन तथा कृषि कर्म भी करते हैं। वे महाभारत में गीता का गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान भी देते हैं-
और दीन हीन व्यक्तियों को लिए वे सदैव सहायक के रूप में तत्पर भी रहते हैं।
अत: यादवों के खिलाफ की गयी यह सामाजिक गन्दिगी ब्राह्मण को पतन और विनाश का कारण बनेगी-
यह कटु है परन्तु सत्य है।
सन्दर्भ ग्रन्थ:- श्रीकृष्ण साराङ्गिणी
अविमुक्तेश्वरानन्द जो आप शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं। आपने मूत्र छिड़कने वाले धूर्त ब्राह्मणों के समर्थन में कई अपूर्ण और पूर्वदुराग्रह पूर्ण बातें कहीं जैसा कि भागवत कथाओं के वाचक की पात्रता के विषय में भी कहा- जैसा कि
पद्मऱपुराण उत्तरखण्ड के निम्नलिखित श्लोकों को आपने भागवत कथा कहने की शास्त्रीय पात्रता के सन्दर्भ में उद्धृत किया।
विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृहः॥२०॥
अनुवाद:-विरक्त वैष्णव और ब्राह्मण ये तीनों वेदों और शास्त्रों को पवित्र करते हैं ।
शास्त्र वक्ता दृष्टान्तों में कुशल, संयमी होना चाहिए तथा महत्वाकांक्षा से सर्वथा मुक्त होना चाहिए। 20॥अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि ब्राह्मणा:॥२१॥
. जो व्यक्ति स्वयं धर्म के विभिन्न मार्गों से भ्रमित हैं, स्त्रियों में अत्यधिक आसक्त हैं, पाखण्ड को मानते हैं, वे भले ही ब्राह्मण क्यों न हों, भागवत पुराण कहने के अयोग्य ही हैं।२१।
वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः ।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः॥२२॥
भागवत के व्याख्याता के साथ तथा उसकी सहायता के लिए , व्याख्याता के समान योग्यता वाला एक अन्य विद्वान , जो (श्रोताओं के) संदेहों का समाधान करने में समर्थ हो तथा लोगों को ज्ञान देने में तत्पर हो, उसको स्थापित करना चाहिए।२२।
पद्मपुराण-यह उत्तरखण्ड के (193) वें अध्याय में श्रीमद्भागवतम् की महिमा( महात्म्य) का वर्णन है.
आप शंकराचार्य पद पर बैठ कर भी पुराण और वैदिक शास्त्रों जानकार प्रतीत नहीं होते हैं।
उपर्युक्त श्लोकों में वर्णित वैष्णव शब्द विष्णु से उत्पन्न गोप लोगों का वाचक है। स्वयं पुराण भी पाँचवें वर्ण के धारक गोपों को भागवतकथाओं को कहने का पात्र मानते हौं।
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भारतीय हिन्दू समाज के बुराईयों की असल जड़ इनको बनाए रखना है, इससे आगे और क्या ही कहा जाए। क्योंकि पिछले हजार-पंद्रह सौ सालों से इन लोगों ने कुछ ऐसा ही बंदोबस्त बिठाया है कि बहुत मुश्किल से कुछ लोग इससे बाहर निकल पाते हैं।
इनके इस सामाजिक-जातिगत बंदोबस्त का विरोध भी हुआ पर इन लोगों ने अधिकतर बार उन्हें और उनके नाम और यश को ऐसे निगल लिया कि आधुनिक काल के पहले अंतर करना बड़ा मुश्किल था।
बुद्ध, महावीर, बासव, रामानंद सहित कई भक्तिमार्गी संत इसके उदाहरण हैं।
हाँ, आपने ठीक पढ़ा, रामानंद लोकभाषा में अपनी बात कहने वाले जात-पात विरोधी संत थे, वे कबीर के गुरु भी थे लेकिन बाद के ग्रंथों में रामानंद को केवल संस्कृत पदों के रचयिता के साथ विशुद्ध ब्राह्मणवादी संत घोषित करते हुए उनका समय भी एक सदी पहले का कर दिया गया जिससे वे कबीर के गुरु न कहलाएँ।
इसपर अधिक जानकारी के लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल जी कि पुस्तक "अकथ कहानी प्रेम की" पढ़ें।
विप्र समाज के लोग, धार्मिक अनुष्ठान के अलावा यदि किसी अन्य कार्य में सक्रिय पाए जाएं तो उन्हें तुरंत वहां से हटाया जाए, जैसे दुग्ध व्यापार, जूते का व्यापार, लकड़ी का व्यापार, अन्य सभी प्रकार के व्यापार से इनका स्वयं मुक्त हो जाना चाहिए,
केवल धार्मिक अनुष्ठान पर ही अपनी जीवनचार्य निर्भर करें,
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