रविवार, 8 जून 2025

भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुख से ब्राह्मणों की, बाहुओं से क्षत्रियों की, उरुओं से वैश्यों की और पैरोंसे शूद्रों की उत्पत्ति की।

             सृष्टिप्रकरणम्।

                    -मनुरुवाच।
अहो कष्टतरञ्चैतदङ्गजागमनं विभो!।
कथं न दोषमगमत् कर्मणानेन पद्मभूः।४.१ ।।

परस्परञ्च सम्बन्धः सगोत्राणामभूत्कथम्।
वैवाहिकस्तत्सुतानाच्छिन्धि मे संशयं विभो।४.२।

मनु ने पूछा— सर्वव्यापी भगवन् ! अहो ! पुत्री की और बार-बार अवलोकन तो अत्यन्त कष्ट का विषय है, परन्तु | ऐसा कर्म करने पर भी कमलयोनि ब्रह्मा दोषभागी क्यों नहीं हुए ? तथा उनके सगोत्र पुत्रों का परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? विभो ! मेरे इस संशय को दूर कीजिये ॥1-2॥

दिव्येयमादिसृष्टिस्तु रजोगुणसमुद्भवा।
अतीन्द्रियेन्द्रिया तद्वदतीन्द्रिय शरीरिका।४.३

दिव्यतेजोमयी भूप! दिव्यज्ञानसमुद्भवा।
न मर्त्यैरभितः शक्त्या वक्तुं वै मांसचक्षुभिः।४.४।

मत्स्यभगवान् कहने लगे- राजन्! रजोगुणसे उत्पन्न हुई यह शतरूपारूपी आदिसृष्टि दिव्य है। जिस प्रकार इस (मूल प्रकृति) की इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे अतीत हैं, उसी प्रकार इस (शतरूपा, सहस्ररूपा नारी)का शरीर भी इन्द्रियातीत है। यह दिव्य तेजसे सम्पन्न एवं दिव्य ज्ञानसे समुद्भूत है, अतः मांस-पिण्डरूप नेत्रधारी मानवोंद्वारा | इसका भलीभांति वर्णन नहीं किया जा सकता।३-४।


यथा भुजङ्गाः सर्पाणामाकाशं विश्वपक्षिणाम्।
विदन्ति मार्गं दिव्यानां दिव्या एव न मानवाः।। ४.६।

कार्य्याकार्ये न देवानां शुभाशुभफलप्रदे।
यस्मात्तस्मान्न राजेन्द्र! तद्विचारो नृणां शुभः।४.६।

जैसे सर्पो के मार्ग को सर्प तथा सम्पूर्ण पक्षियों के मार्ग को आकाशचारी पक्षी ही जान सकते हैं, वैसे ही (शतरूपा आदि) दिव्य जीवों के (अचिन्त्य) मार्गको दिव्य जीव ही समझ सकते हैं, | मानव कदापि नहीं जान सकते।५।

राजेन्द्र! चूँकि देवताओंके कार्य (करनेयोग्य अर्थात् उचित) तथा अकार्य (न करनेयोग्य अर्थात् अनुचित) शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले नहीं होते, इसलिये उनके विषयमें विचार करना मानवोंके लिये श्रेयस्कर नहीं है।६।

अन्यच्च सर्ववेदानामधिष्ठाता चतुर्मुखः।
गायत्री ब्रह्मणस्तद्वदङ्गभूता निगद्यते।। ४.७ ।।

दूसरा कारण यह है कि जिस प्रकार ब्रह्मा सारे वेदोंके अधिष्ठाता हैं, उसी प्रकार (शतरूपारूपी) गायत्री ब्रह्मा के अङ्गसे उत्पन्न हुई बतलायी जाती हैं। ७।



अमूर्तं मूर्तिमद्वापि मिथुनं तत्प्रचक्षते।
विरिञ्चिर्यत्र भगवांस्तत्र देवी सरस्वती।।
भारती यत्र यत्रैव तत्र तत्र प्रजापतिः।। ४.८ ।।

इसलिये यह मिथुनरूप (जोड़ा) अमूर्त (अव्यक्त) या मूर्तिमान् (व्यक्त) दोनों ही रूपोंमें कहा जाता है।
यहाँतक कि जहाँ जहाँ भगवान् ब्रह्मा हैं, वहाँ-वहाँ  सरस्वती देवी भी हैं और जहाँ-जहाँ सरस्वती देवी हैं, वहीं-वहीं ब्रह्मा भी हैं।८।


यथा तपो न रहितश्छायया दृश्यते क्वचित्।
गायत्री ब्रह्मणः पार्श्वं तथैव न विमुञ्चति।। ४.९ ।।

जिस प्रकार धूप (सूर्य) छायासे विलग होकर कहीं भी दिखायी नहीं पड़ते, उसी प्रकार गायत्री भी ब्रह्माके सामीप्यको नहीं छोड़ती हैं।९।

वेदराशिः स्मृतो ब्रह्मा सावित्री तदधिष्ठिता।
तस्मान्नकश्चिद्दोषः स्यात् सावित्री गमने विभो।। ४.१० ।।

तथापि लज्जावनतः प्रजापतिरभूत् पुरा।
स्वसुतोपगमात् ब्रह्मा शशाप कुसुमायुधम्।। ४.११ ।।

यस्मान्ममापि भवता मनः संक्षोभितं शरैः।
तस्मात्वद्देहमचिराद्रुद्रो भस्मीकरिष्यति।। ४.१२ ।।

यद्यपि ब्रह्मा वेदसमूहरूप हैं और सावित्री उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं, | इसलिये ब्रह्मा को सावित्री को साथ मैथुन करने से कोई दोष नहीं लगा, तथापि उस समय अपने उस कुकर्मसे प्रजापति ब्रह्मा लज्जासे अभिभूत हो गये और कामदेव को शाप देते हुए यों बोले- 'चूँकि तुमने अपने बाणोंद्वारा मेरे भी मनको भलीभाँति क्षुब्ध कर दिया है, इसलिये भगवान् रूद्र शीघ्र ही तुम्हारे शरीरको भस्म कर डालेंगे।१२।


ततः प्रसादयामास कामदेवश्चतुर्मुखम्।
न मामकारणे शप्तुं त्वमिहार्हसि मानद!।४.१३ ।।

अहमेवंविधः सृष्टस्त्वयैव चतुरानन!।
इन्द्रियक्षोभजनकः सर्वेषामेव देहिनाम्।। ४.१४ ।।

स्त्रीपुंसोरविचारेण मया सर्वत्र सर्वदा।
क्षोभ्यं मनः प्रयत्नेन त्वयैवोक्तं पुरा विभो।४.१६।

तस्मादनपराधेन त्वयाशप्तस्तथा विभो!।
कुरु प्रसादं भगवन्! स्वशरीराप्तये पुनः।। ४.१६।

तदनन्तर कामदेवने बड़ी अनुनय-विनयसे ब्रह्माको प्रसन्न किया। वह बोला 'मानद! इस विषयमें आपका मुझे निष्कारण ही शाप देना उचित नहीं है।१३।

चतुरानन ! आपने ही तो मुझे इस प्रकार सम्पूर्ण देहधारियों की इन्द्रियों को क्षुब्ध करनेके लिये पैदा किया है।१४।

 विभो! आपने ही पहले मुझे ऐसी आज्ञा दी है कि स्त्री-पुरुषका कोई विचार न करके तुम प्रयत्नपूर्वक सर्वत्र सर्वदा उनके मनको क्षुब्ध किया करो। १५।

इसलिये विभो ! मैं निरपराध हूँ, तथापि आपने मुझे वैसा शाप दे डाला है; अतः भगवन्! मुझपर कृपा कीजिये, जिससे मैं | पुनः अपने पूर्वशरीरको प्राप्त कर सकूँ '।१६।


                    ब्रह्मोवाच।
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते यादवान्वयसम्भवः।
रामो नाम यदा मर्त्यो मत्सत्वबलमाश्रितः।४.१७।

अवतीर्य्यासुरध्वंसी द्वारकामधिवत्स्यति।
तद्‌ भ्रातुस्तत्समस्य त्वन्तदा पुत्रत्वमेष्यसि।। ४.१८ ।।

एवं शरीरमासाद्य भुक्त्वा भोगानशेषतः।
ततो भरतवंशान्ते भूत्वा वत्स नृपात्मजः।। ४.१९।

ब्रह्माने कहा- कामदेव ! वैवस्वत मन्वन्तरके प्राप्त होनेपर असुरोंके विनाशक श्रीराम जब मेरे बल पराक्रमसे सम्पन्न होकर मानव रूपमें यदुवंशमें (बलरामरूपसे) अवतीर्ण होंगे और द्वारकाको अपना निवासस्थान बनायेंगे, उस समय तुम उन्होंके समान बल पराक्रमशाली उनके भ्राता (श्रीकृष्ण) के पुत्ररूपमें उत्पन्न होगे। इस प्रकार शरीरको प्राप्तकर (द्वारकामें) सम्पूर्ण भोगोंका भोग करनेके उपरान्त तुम भरत वंश में  महाराज वत्स के पुत्र होगे।१९।


विद्याधराधिपत्वं च यावदाभूतसंप्लवम्।
सुखानि धर्म्मतः प्राप्य मत्समीपङ्गमिष्यसि।। ४.२०।

एवं शापप्रसादाभ्यामुपेतः कुसुमायुधः।
शोकप्रमोदाभियुतो जगाम स यथागतम्।४.२१।

तत्पश्चात् विद्याधरोंके अधिपति होकर महाप्रलयपर्यन्त धर्मपूर्वक सुखोंका उपभोग करके मेरे समीप वापस आ जाओगे। इस प्रकार शाप और कृपा से संयुक्त कामदेव शोक और आनन्दसे अभिभूत होकर जैसे आया था, वैसे ही चला गया। 17- 21



मनुरुवाच।
कोऽसौ यदुरिति प्रोक्तो यद्वंशे कामसम्भवः।
कथञ्च दग्धो रुद्रेण किमर्थं कुसुमायुधः।। ४.२२।

भरतस्यान्वये कस्य का च सृष्टिः पुराभवत्।
एतत्सर्वं समाचक्ष्व मूलतः संशयो हि मे।। ४.२३ ।

मनुने पूछा भगवन् ! आपने जिनके वंश में कामदेवकी उत्पत्ति बतलायी है, वे यदु कौन हैं ? भगवान् रुद्र ने कामदेव को किसलिये और कैसे जलाया।२२।

 तथा भरतवंश में पहले किसकी और कौन-सी सृष्टि हुई थी?।
इन बातोंको सुनकर ) मेरे मन में महान् संदेह उत्पन्न हो गया है; अतः आप प्रारम्भ से ही इन सबका वर्णन कीजिये ।२३।
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               मत्स्य उवाच।
या सा देहार्घसम्भूता गायत्री ब्रह्मवादिनी।
जननी या मनोर्देवी शतरूपा शतेन्द्रिया।४.२४।

मत्स्य भगवान् कहने लगे- राजन् ! ब्रह्माके शरीरके आधे भागसे जो ब्रह्मवादिनी गायत्री उत्पन्न हुई थी और जो मनुकी माता थी तथा जिसे शतरूपा और शतेन्द्रिया नाम से भी जाना जाता था।४/२४।


रतिर्मनस्तपो बुद्धि महदादि समुद्भवः।
ततः स शतरूपायां सप्तापत्यान्यजीजनत्। ४.२६।

ये मरीच्यादयः पुत्रा मानसास्तस्य धीमतः।
तेषामयमभूल्लोकः सर्वज्ञानात्मकः पुरा।४.२६।

उसी शतरूपाके गर्भ से ब्रह्माजीने रति, मन, तप, बुद्धि, महान्, दिक् तथा सम्भ्रम- इन सात संतानोंको जन्म दिया ।२५।

तथा उन बुद्धिमान् ब्रह्माके पहले जो मरीचि आदि दस मानस पुत्र हुए थे, उन्हींके द्वारा इस सम्पूर्ण ज्ञानात्मक संसारकी रचना हुई।२६।


ततोऽसृजद्वामदेवं त्रिशूलवरधारिणम्!।
सनत्कुमारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम्।४.२७ ।।

वामदेवस्तु भगवानसृजन् मुखतो द्विजान्।
राजन्यानसृजद्‌ बाह्वोर्विट्‌शूद्रानूरुपादयोः।४.२८।
तदनन्तर ब्रह्माने श्रेष्ठ त्रिशूलधारी वामदेवकी और पुनः पूर्वजोंक भी पूर्वज शक्तिशाली सनत्कुमारकी रचना की।२७।
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भगवान् वामदेव (शिव) ने अपने मुख से ब्राह्मणों की, बाहुओं से क्षत्रियों की, उरुओं से वैश्यों की और पैरोंसे शूद्रों की उत्पत्ति की।२८।

(मत्स्यपुराण- अध्याय चतुर्थ)



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