ऋग्वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है और इसमें नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होती है। ऋग्वेद के निम्नलिखित श्लोकों की प्रतियों में इन्द्र की महिमा का गान करते हुए उन्हें प्राणियों को नचाने वाला कहा है।
देखें विस्तार से वैदिक सन्दर्भ-
भिनत्पुरो नवतिमिन्द्र पूरवे दिवोदासाय महि दाशुषे नृतो वज्रेण दाशुषे नृतो ।
अतिथिग्वाय शम्बरं गिरेरुग्रो अवाभरत् ।
महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा ॥७॥ ऋग्वेद १/१३०/७
सायण भाष्य:-हे “इन्द्र "नृतो रणे =नर्तनशील त्वं "दाशुषे= हविर्दत्तवते "पूरवे =अभिमतपूरकाय" । मनुष्यनामैतत् । “महि= महते "दिवोदासाय= एतन्नामकाय राज्ञे ॥ ‘ दिवो दासे षष्ठ्या अलुक्' ( का. ६. ३. २१.५ ) इति अलुक् ।' दिवोदासादीनां छन्दसि ' इति पूर्वपदाद्युदात्तत्वम् ।। "नवतिम् एतत्संख्याकानि “पुरः =शत्रूणां पुराणि "भिनत्= भिन्नवानसि । तथा हे{ "नृतो= गात्रविक्षेपणकुशल} हस्तपादादिप्रक्षेपेण शत्रूणां हिंसक "वज्रेण क्षेपणसमर्थेनायुधेन "दाशुषे= हविर्दत्तवते दिवोदासाय अन्यस्मै वा भिनत् । तमपि शत्रुं भिन्नवानसि । इदानीं परोक्षेणाह। "अतिथिग्वाय पूजार्थमतिथिं गच्छते दिवोदासाय तदर्थम् ॥ गमेरौणादिको ड्वप्रत्ययः ॥ "उग्रः उद्गूर्णबलः इन्द्रः पूर्वं पुरभेदनसमये विद्धमपि अम्रियमाणं गिरिमारूढं “शम्बरम् एतन्नामानमसुरं "गिरेः दुर्गमात् पर्वतादेः सकाशात् "ओजसा स्वकीयेन बलेन "अवाभरत् अवाङ्मुखमवकृष्य प्राणं हृतवान्। किं कुर्वन् । "महः महान्ति “धनानि तदीयगवाश्वादीनि "दयमानः दिवोदासाय राज्ञे साधयन् ॥ ‘ दय दानगतिहिंसादानेषु'। शपः पित्त्वादनुदात्तत्वे शानचो लसार्वधातुकस्वरेण धातुस्वरः ॥ न केवलमल्पं धनं किंतु "विश्वा “धनानि सर्वाण्यपि तेषां मणिमुक्तादीनि “ओजसा स्वकीयेन बलेन दयमानः साधयन् अवाभरत् ।।
हे (नृतो) अपने अङ्गों को युद्ध आदि में चलाने वा (नृतो) विद्या की प्राप्ति के लिये अपने शरीर की चेष्टा करने नर्तक (इन्द्र) और दुष्टों का विनाश करनेवाले ! जो आप (वज्रेण) शस्त्र वा उपदेश से शत्रुओं की (नवतिम्) नब्बे (पुरः) नगरियों को (भिनत्) विदारते नष्ट-भ्रष्ट करते वा (महि) बड़प्पन पाये हुए सत्कारयुक्त (दिवोदासाय) चहेते पदार्थ को अच्छे प्रकार देनेवाले और (दाशुषे) विद्यादान किये हुए (पूरवे) पूरे साधनों से युक्त मनुष्य के लिये सुख को धारण करते तथा (अतिथिग्वाय) अतिथियों को प्राप्त होने और (दाशुषे)= दान करनेवाले के लिये (उग्रः) तीक्ष्ण स्वभाव अर्थात् प्रचण्ड प्रतापवान् सूर्य (गिरेः) पर्वत के आगे (शम्बरम्) मेघ को जैसे वैसे (ओजसा) अपने पराक्रम से (महः) बड़े-बड़े (धनानि) धन आदि पदार्थों के (दयमानः) देनेवाले (ओजसा) पराक्रम से (विश्वा) समस्त (धनानि) धनों को (अवाभरत्) धारण करते सो आप किञ्चित् भी दुःख को कैसे प्राप्त होवें ॥ ७ ॥
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इन्द्र॒ यथा॒ ह्यस्ति॒ तेऽप॑रीतं नृतो॒ शव॑: । अमृ॑क्ता रा॒तिः पु॑रुहूत दा॒शुषे॑ ॥ (ऋगवेद-८.२४.९)
सायण- भाष्य-
हे "नृतो= सर्वस्यान्तर्यामितया नर्तयितः “इन्द्र “ते त्वदीयं “शवः= बलं "यथा "अपरीतम् “अस्ति शत्रुभिरपरिगतमव्याप्तं भवति । “हि प्रसिद्धौ । तथा हे “पुरुहूत पुरुभिर्बहुभिराहूतेन्द्र “दाशुषे हविर्दत्तवते यजमानाय “रातिः धनादिदानम् “अमृक्ता शत्रुभिरहिसितं भवति । त्वत्तो लब्धं यजमानस्य धनं शत्रवो न हिंसन्ति । यथा त्वदीयबलस्य रक्षक एवं तस्य धनस्यापि रक्षक इत्यर्थः ।।
नृतो) हे नर्तक ! (पुरुहूत) बहुतों के द्वारा आह्वान किया हुआ (यथा) जैसे (ते+शवः) तेरी शक्ति (अपरीतम्+हि+अस्ति) अविनाशित अविध्वंसनीय है, वैसा ही (दाशुषे) दाताओ के लिए (रातिः) तेरा दान भी (अमृक्ता) अहिंसित और अनिवारणीय है ॥९॥
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नह्यङ्ग नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे ।
राये द्युम्नाय शवसे च गिर्वणः ॥१२॥
ऋग्वेद (८/२४/१२)
सायण भाष्य:-
हे “नृतो= नर्तयितः “गिर्वणः गीर्भिः स्तुतिभिर्वननीय संभजनीयेन्द्र “राधसे बलसंसाधकायान्नाय "राये धनाय “द्युम्नाय द्योतमानाय यशसे “शवसे वर्धकाय बलाय “च “त्वत् त्वत्तः “अन्यं “नहि "विन्दामि न लभे । “अङ्ग प्रसिद्धौ ॥
अधि श्रिये दुहिता सूर्यस्य रथं तस्थौ पुरुभुजा शतोतिम् ।
प्र मायाभिर्मायिना भूतमत्र नरा नृतू जनिमन्यज्ञियानाम् ॥५॥
अर्थ:-
हे (मायिना) प्राज्ञ (पुरुभुजा) बहुतों की पालना करनेवाले (नृतू) अग्रगन्ता (नरा) नायक राजसभा-सेनाधीशो ! तुम (मायाभिः) बुद्धियों से (अत्र) इस (यज्ञियानाम्) सत्सङ्गति के योग्य मनुष्यों के (जनिमन्) जन्म में जैसे (सूर्य्यस्य) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान उषा (शतोतिम्) जिससे सैकड़ों रक्षायें होती उस (रथम्) रमणीय किरण के (अधि, तस्थौ) ऊपर स्थित होती, वैसे (श्रिये) शोभा वा लक्ष्मी के लिये (प्र, भूतम्) समर्थ होओ ॥५॥
सायण भाष्य:-
पुरुभुजा हे पूर्णभुजौ बहूनां रक्षकौ वाश्विनौ युवयोः “शतोतिं बहुरक्षाकं बहुगमनं वा “रथं "सूर्यस्य “दुहिता सूर्या “श्रिये श्रयितुम् "अधि “तस्थौ अध्यतिष्ठत् । अपि च "यज्ञियानां देवानाम् "अत्र “जनिमन् अस्मिन् जन्मनि प्रादुर्भावे "मायाभिः प्रज्ञानैः। शची माया ' इति प्रज्ञानामसु पाठात् । मायिनौ प्रज्ञावन्तौ "नरा नेतारौ नृतू नृत्यन्तौ “भूतं भवतम् । यद्वा । हे मायिनौ प्राज्ञौ नरौ नेतारौ नृतू नृत्यन्तावश्विनौ यज्ञियानां देवानामत्र जनिमन् जन्मनि प्रादुर्भावे प्रभूतं प्राज्ञतममग्न्यादिकं देवं मायाभिः प्रज्ञानैः कौशलैर्वा जितवन्तौ स्थ इत्यर्थः । अयमर्थः ‘ प्रजापतिर्वे सोमाय राज्ञे दुहितरं प्रायच्छत्सूर्यां सावित्रीम्' ( ऐ. ब्रा. ४.७ ) इत्यादिना स्पष्टीकृतः ॥ ॥ ३ ॥
अर्थ-
हे (मायिना) प्राज्ञ (पुरुभुजा) बहुतों की पालना करनेवाले (नृतू) नर्तका (नरा) नायक राजसभा-सेनाधीशो ! तुम (मायाभिः) बुद्धियों से (अत्र) इस (यज्ञियानाम्) सत्सङ्गति के योग्य मनुष्यों के (जनिमन्) जन्म में जैसे (सूर्य्यस्य) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान उषा (शतोतिम्) जिससे सैकड़ों रक्षायें होती उस (रथम्) रमणीय किरण के (अधि, तस्थौ) ऊपर स्थित होती, वैसे (श्रिये) शोभा वा लक्ष्मी के लिये (प्र, भूतम्) समर्थ होओ ॥५॥
अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था।
ऋग्वेद की तरह यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यर्जुवेद के एक मंत्र से यह पता चलता है कि वैदिक युग में नृत्य करने वाले को सूत कहा जाता था और गाने वाले को शैलूष कहते थे। इन लोगों का एक समुदाय स्थापित हो चुका था। ये लोग गा-बजाकर और नाच कर अपना भरण-पोषण किया करते थे। समाज में नृत्य-गान की शिक्षा का कार्य भी यही सूत व शैलूष ही किया करते थे। क्योंकि इस युग में देवी-देवताओं से लेकर स्त्री-पुरुषों तथा सभी वर्गों के लिये नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान था।
सामवेद की रचना ऋग्वेद के पाठ्य अंशों को गाने के लिये की गई अत- यह वेद गान क्रिया से संबंधित है- इसलिये इसमें नृत्य संबंधी सामग्री नहीं मिलती है। नाट्य के चतुर्थ अंग गति को नाट्य वेद के निर्माता परम पिता ब्रह्मा ने सामवेद से ही ग्रहण किया है।
नृत्यकला के विकास में अन्य वेदों की तरह 'अथर्ववेद' का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अध्ययन से नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुरता से मिलती है। इसमें नृत्यकला का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। अथर्ववेद के मंत्रों में गायन-वादन का एक साथ उल्लेख देखने को मिलता है।
युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः ।
सा नो भूमिः प्र णुदतां सपत्नान् असपत्नं मा पृथिवी कृणोतु ॥४१॥
अर्थात- जिस भूमि में आनंद के बाजे बज रहे हैं- जहा- लोग प्रसन्नता से नाचते गाते हैं और वीर लोग उत्साह से अपने राष्ट्र की रक्षा में तत्परयुद्ध करते हैं।
नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। यह केवल 'नृत्त' ही था जिसका प्रयोग समाज में केवल आनंद के अवसरों पर किया जाता था।
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