करणी सेना के आदि माता का विस्तृत परिचय और उनकी उत्पत्ति-
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करणी माता, चारण जाति, और करणी सेना के विषय को संतुलित रूप से समझाने के लिए निम्नलिखित व्याख्या उदाहरणों के साथ प्रस्तुत की गई है। यह व्याख्या संक्षिप्त, तथ्यात्मक, और दोनों संदर्भों (करणी माता और करणी सेना) को समान महत्व देती है, ताकि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक पहलुओं का समग्र दृष्टिकोण मिले।
1- करणी माता- ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व
करणी माता (जन्म: 1387 ईस्वी, सुवाप गांव, जोधपुर) चारण जाति की एक प्रभावशाली महिला थीं, जिनका बचपन का नाम रिघुबाई था। चारण जाति राजस्थान में राजाओं के गुणगान, वंशावली संरक्षण, और कथावाचन के लिए जानी जाती थी। करणी माता को एक आध्यात्मिक शक्ति के रूप में पूजा जाता है, खासकर बीकानेर के देशनोक मंदिर में, जहाँ काबा (चूहे) को उनके भक्तों का पुनर्जन्म माना जाता है।
उदाहरण: देशनोक का करणी माता मंदिर, जहाँ हजारों चूहे भक्तों के बीच स्वतंत्र घूमते हैं, उनकी चमत्कारी शक्ति का प्रतीक है। यह मंदिर चारण संस्कृति और आध्यात्मिक मान्यताओं का जीवंत उदाहरण है, जो आज भी लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है।
2- चारण जाति: उत्पत्ति और सांस्कृतिक भूमिका
स्कन्द पुराण (सह्याद्रिखंड और काशीखंड) के अनुसार, चारणों की उत्पत्ति वैश्य पुरुष और शूद्रा स्त्री से मानी गई है। वे डिंगल बोली में काव्य रचना, गायन, और राजाओं-ब्राह्मणों की प्रशंसा के लिए प्रसिद्ध थे। चारण शिक्षित थे और राजपूतों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते थे, जिनकी वीरता को वे काव्यों में अमर करते थे। चारण और भाट, हालांकि समान कार्य करते थे, लेकिन चारण साहित्यिक और भाट वंशावली संग्रह में अधिक सक्रिय थे। दोनों को राजाओं से कर-मुक्त जागीरें मिलती थीं।
उदाहरण- चारण कवि दुरसा आढ़ा ने 17वीं सदी में मारवाड़ के राठौड़ राजपूतों की वीरता पर "राठौड़ां री ख्यात" लिखी, जो डिंगल बोली में रचित एक महत्वपूर्ण काव्य है। यह चारणों की साहित्यिक प्रतिभा और राजपूतों के साथ सांस्कृतिक निकटता को दर्शाता है।
चारणों ने युद्धों में भी भाग लिया और अपनी स्वामी भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। उनके घर संकटकाल में राजपूत महिलाओं के लिए सुरक्षित आश्रय माने जाते थे।
उदाहरण- 1818 में मराठों के खिलाफ जोधपुर के युद्ध में चारण योद्धा मेघजी चारण ने राठौड़ राजपूतों के साथ वीरता दिखाई। यह उनकी स्वामी भक्ति और योद्धा भावना का उदाहरण है।
3. करणी सेना- स्थापना और उद्देश्य
करणी माता की स्मृति में श्री राजपूत करणी सेना की स्थापना 23 सितंबर 2006 को जयपुर, राजस्थान में लोकेन्द्र सिंह कालवी द्वारा की गई। यह गैर-लाभकारी धार्मिक संगठन चारण, भाट, और बंजारा जातियों द्वारा शुरू किया गया, जो राजपूत संस्कृति, हिंदू धार्मिक मूल्यों, और सामाजिक गौरव की रक्षा के लिए सक्रिय है। इसका मुख्यालय जयपुर में है और यह भारत के साथ-साथ विदेशों में भी सक्रिय है।
उदाहरण- करणी सेना ने 2017 में फिल्म पद्मावत का विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह राजपूत रानी पद्मिनी और उनके इतिहास को गलत तरीके से चित्रित करती है। यह घटना उनकी राजपूत गौरव और सांस्कृतिक संरक्षण की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
4. चारण-भाट और बंजारा का आपसी संबंध
चारण और भाट सामाजिक रूप से समान थे, लेकिन चारण अधिक साहित्यिक और शिक्षित थे, जबकि भाट लोक कथाओं और वंशावली संरक्षण में सक्रिय थे। 18वीं सदी में कुछ चारण और भाट व्यापार में लगे और बंजारा कहलाए, जो घुमक्कड़ व्यापारी थे। बंजारा समुदाय भी करणी माता को पूजता है, जो चारण-बंजारा सांस्कृतिक संबंध को दर्शाता है।
उदाहरण- राजस्थान के लाम्बा बंजारा समुदाय आज भी करणी माता के देशनोक मंदिर में नियमित दर्शन के लिए जाता है। यह चारण-बंजारा समुदायों के साझा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक बंधन को दिखाता है।
5- सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
चारण जाति में ब्राह्मणों (शिक्षा और साहित्य) और राजपूतों (योद्धा भावना) का मिश्रण दिखता है। वे राजस्थानी साहित्य, विशेष रूप से डिंगल काव्य, और राजपूत इतिहास के संरक्षक रहे हैं। करणी सेना इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए आधुनिक समय में राजपूत गौरव और हिंदू संस्कृति की रक्षा करती है। करणी माता की आध्यात्मिक छवि और चारणों की सांस्कृतिक भूमिका आज भी राजस्थान की पहचान का हिस्सा हैं।
उदाहरण- करणी माता के सम्मान में हर साल देशनोक मंदिर में करणी माता मेला आयोजित होता है, जिसमें चारण, भाट, बंजारा, और राजपूत समुदाय शामिल होते हैं। यह मेला उनकी सांस्कृतिक एकता और आध्यात्मिक आस्था का प्रतीक है।
करणी माता चारण जाति की प्रतीक हैं, जिनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत देशनोक मंदिर और डिंगल काव्य में जीवित है। चारण जाति ने राजपूतों के साथ मिलकर राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया, और उनकी स्वामी भक्ति युद्धों में भी दिखी। करणी सेना, जो 2006 में करणी माता की स्मृति में स्थापित हुई, इस विरासत को आधुनिक समय में राजपूत गौरव और हिंदू मूल्यों की रक्षा के रूप में आगे बढ़ाती है।
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