रविवार, 9 फ़रवरी 2025

- भक्त और भगवान -




भक्त- भक्ति और भगवान परस्पर सम्पूरक अस्तित्व हैं।

भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करना।
संस्कृत वैदिक भाषा में  भज् धातु विद्यमान है।
जिसका एक प्रमुख अर्थ- सेवा करना है।
सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण भक्ति के मानक निर्धारित करते हैं।
सेवा जब ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति भावना मूलक होती है तब वही सेवा ही भक्ति कहलाती है।
भगवान  भक्त और भक्ति सबके मूल में विद्यमान है भज् धातु-

भज्- सेवायां + घ प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद ता अधिकारी है।
व्याकरणिक दृष्टि से 
भज+ वतुप् प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है।
भज + क्त प्रत्यय करने पर  भक्त  शब्द (पद) बनता है। और 
भगवान् शब्द   (भगवत् शब्द का  ही प्रथमा  विभक्ति एकवचन का रूप है। 

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और भगवद् भक्ति में तल्लीन है वह भागवत है।

भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो  प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है।  कोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ हैं।
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य ( कान्ति ) अथवा श्री -

इस संसार में भी व्यवहारिक रूप से  देखा जाय तो भी क्रमश: बलवान्-  धनवान- रूपवान- ( सुन्दर) आयुष्मान-(वयोवृद्ध)  और ज्ञानवान इन पाँच व्यक्तियों का ही क्रमोत्तर सम्मान होता है। ये ही महत्वपूर्ण होते हैं ये सभी व्यक्ति इस संसार किसी न किसी रूप में सम्मान के हकदार हैं।
वयोवृद्ध व्यक्ति के पास उसकी आयु के अनुसार अनुभवों का सञ्चय होता है।
अत : उसको भी इस कारण  ज्ञानवान  के समान सम्मान मिलता ही है।

व्यक्ति अपने इन सभी गुणों से सम्पन्न होकर संसार की जब परमार्थ हेतु सेवा करता है। वह भगवत् पद का अधिकारी होता है।
अत: सन्तों महापुरुषों को भी भगवन् कह कर सम्बोधित किया जाता है।
भगवान पद लौकिक और अलौकिक दोनों ईश्वरीय सत्ताओं का वाचक है।
ईश्वर शब्द भी ऐश्वर्य सम्पन्न अलौकिक साकार भगवत् सत्ता का वाचक है।

भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है।
वह ही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत है।

दूसरे शब्दों में  जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है।
 
भक्त सायुज्य प्राप्त करके भगवद् - रूप  ही हो जाता है । जैसे एक जल बिन्दु  समुद्र में समाहित होकर स्वयं समुद्रमय हो जाता है।

शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णं भग इत्याङ्गना।११।।
(अग्निपुराण- अध्याय-३७९)

भगवान् =इत्युक्तलक्षणं षडैश्वर्य्यमस्त्यस्येति  भग + नित्ययोगे मतुप् मस्य वः = 

इसी प्रकार भगवान शब्द की परिभाषा को देवीभागवतपुराण में सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव सन्नाम भगवान्नीह ।। 

विष्णु पुराण-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः (५)

सार रूप से भगवद पद सांसारिक ऐश्वर्य से परे अलौकिक ऐश्वर्य के धारक का पर्याय है। जो भगवान है। जहाँ से यह सम्पूर्ण संसार जन्म लेता है वह ईश्वर भगवान है। भगोस्ति अस्मिन् इति 'भगवान-

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य" भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इस स्वरूप का अनुभव करता है।
 '

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्द्यते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म शब्द से अभिहित है,वह सब कारणों कानभी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत या अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण परब्रह्म कहलाते है।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महा शब्द भगवान परम बह्म
_ मय वासुदेव का वाचक है। किसी अन्य का नहीं।
___________ 

वही परं ब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
___________
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रमाण रूप में सामने आते हैं। ऋग्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है।
अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अंतरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात
प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किंतु अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत(अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण भुवन उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
 जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  (गर्भे) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

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