रविवार, 23 फ़रवरी 2025

आप ल का उच्चारण ट वर्ग के व्यञ्जनों की भाँति ही जीभ को पीछे घुमाकर करते हैं; तो यह ळ का उचित उच्चारण है।

हिंदी वर्णमाला में अब "ळ" अक्षर को भी सम्मिलित कर लिया गया है; किन्तु इसका उपयोग कैसे करेंगे ?
ळ एक वैदिक व्यञ्जन है। जोकि पहाड़ी भाषाओं, शौरसेनी प्राकृत से उपजी भाषाओं, महाराष्ट्री प्राकृत से उपजी भाषाओं, तथा द्रविड़ भाषाओं में पाया जाता है। हरियाणवी, राजस्थानी, गढ़वाली, गुजराती, मराठी जैसी भाषाओं में ळ एक व्यञ्जन के रूप में पाया जाता है।

आप ल का उच्चारण तो जानते ही होंगे; और ड का भी।

ल का उच्चारण करते हुए आपकी जीभ त वर्ग (त, थ, द, ध, न) के उच्चारण के स्थान की ओर होती है‌।

ड के उच्चारण में आपकी जीभ कुछ पीछे की ओर होती है; और मुर्द्धा को छूती है। यदि आप ल का उच्चारण ट वर्ग के व्यञ्जनों की भाँति ही जीभ को पीछे घुमाकर करते हैं; तो यह ळ का उचित उच्चारण है। यह ड और ल के मध्य कि उच्चारण है।

ळ के ड के के समान मूर्द्धन्य व्यञ्जन होने को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है।

ऋग्वेद परम्परा में ळ वर्णमाला का अङ्ग है। किन्तु अन्य वेदों तथा शास्त्रीय संस्कृत में ळ का ड में ह्रास हुआ है। अतः ऋग्वैदिक इळा को ऋग्वेद से अर्वाचीन विहङ्गम में इडा उच्चारण किया जाता है।

ळ का महाप्राण स्वरूप ळ्ह उत्तर ऋग्वैदिक काल में ढ में परिवर्तन हो गया है। अतः ऋग्वैदिक अजमीळ्ह उत्तर वैदिक काल में अजमीढ हो गया है।

इस आलेख में आप कुछ उत्तर भारतीय भाषाओं में ळ वर्ण वाले कुछ शब्दों की जानकारी पा सकते हैं। यदि आप ळ वर्ण का उचित उच्चारण समझना चाहते हैं तो गढ़वाली, कुमाऊनी, हरियाणवी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, जैसी भाषाओं के वक्ताओं को मित्र बनाकर उनके श्रीमुख से इसके उच्चारण का अनुभव पा सकते हैं।

अरविन्द व्यास की प्रोफाइल फ़ोटो
अरविन्द व्यास
 · 3वर्ष
"ळ" वर्ण हरयाणवी, मारवाड़ी, राजस्थानी, कुमाऊनी और गढ़वाली इत्यादि भाषाओं में महत्वपूर्ण अङ्ग है, किन्तु मानक हिन्दी इसे स्वीकार नहीं करती। "ळ" को मानक हिन्दी में शामिल करने के लिए क्या प्रयास किए जा सकते हैं?
मैं मूलतः राजस्थान से हूँ। राजस्थानी 'ळ' का उच्चारण अपने उत्तर प्रदेश के मित्रों को सिखाने का असफल प्रयास कर चुका हूँ, वे 'ल्ड' अथवा 'ड्ल' के निकट का उच्चारण ही कर पाए। कारण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक है। हिन्दी भाषा की मानक शब्दावली में 'ळ' नहीं है। अतः इसे हिन्दी वर्णमाला में समाहित करना 'ॠ', 'ऌ', तथा 'ॡ' को सम्मिलित करने जैसा ही निरर्थक प्रयास होगा। हिन्दी में 'ळ' का न होना संस्कृत भाषा में 'ळ' को धीरे-धीरे 'ड' में और 'ळ्ह' को 'ढ' में उच्चारण करने से और इन वर्णों की व्याकरण में तर्कसंगत व्याख्या न कर पाने से इन दोनों वर्णों को संस्कृत वर्णमाला में न लेने से हुआ है। हमारी हिन्दी वर्णमाला वास्तविकता में संस्कृत वर्णमाला का ही कुछ संक्षिप्त किया गया रूप है। ऋग्वेद के अक्षरमालिका उपनिषद में ऋग्वेद में प्रयोग किए 'अ' से 'क्ष' तक के ५१ वर्णों की अक्षमाला में 'ळ' को पचासवॉं स्थान दिया गया है। ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ । ओमाङ्काराकर्षणात्मकसर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।ओमिङ्कारपुष्टिदाक्षोभकर तृतीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।ओमीङ्कार वाक्प्रसादकर निर्मल चतुर्थेऽक्षे प्रतितिष्ठ । … … … … ॐ हङ्कार सर्ववाङ्मय निर्मलैकोनपञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ । ॐ ळङ्कार सर्वशक्तिप्रद प्रधान पञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ । ॐ क्षङ्कार परापरतत्त्वज्ञापक परंज्योतीरूप शिखामणौ प्रतितिष्ठ । किन्तु इसे पाणिनीय व्याकरण में स्थान नहीं दिया गया है। संस्कृत वैयाकरण 'ळ' को 'शेषलकार' (अतिरिक्त ल) बता कर गौड देश में न होना बताते हैं। इसका वैदिक उच्चारण जिह्वमूलीय माना गया है। अतः अन्य जिह्वमूलीय ध्वनियों 'ज़', 'फ़', आदि के समान इसे वर्णमाला में स्थान नहीं दिया गया। ळ, शेषलकारः । गौडदेशे अस्याकारोच्चारणयोर्भेदो नास्ति । किन्त्वस्याध एकबिन्दुमात्रचिह्नं क्रियते । वेदे अस्य उच्चारणस्थाणं जिह्वामूलम् । देवनागरवर्णमालायां अस्याकारः एवं प्रकारः ळ । अस्य प्रयगः । अग्निमीले । हे इन्द्र वोलु चित् । इत्यादि ऋग्वेदः ॥ * ॥ तन्त्रे वर्णमालाजपे अस्य प्रयोजनम् । — कल्पद्रुमः गौड देश अर्थात सरस्वती नदी के किनारे से मिथिला तथा कलिङ्ग तक बसा गुड उत्पन्न करने वाला मैदानी क्षेत्र गौड कहलाता है। यह विन्ध्याचल के उत्तर का क्षेत्र है। इसके दक्षिण में गुज्जरा (वर्तमान राजस्थान, गुजरात), महाराष्ट्र, तैलंग आदि विन्ध्याचल के दक्षिण वाले क्षेत्र नहीं है। मूल हिन्दी भाषी क्षेत्र इसी 'गौड देश' के हैं, जहाँ 'ळ' का उच्चारण नहीं होता। अतः 'ळ' हिन्दी की वर्णमाला में भी नहीं आया। यह मूल हिन्दी भाषियों के लिए एक अपरिचित ध्वनि है। कुमाऊँ, गढवाल, राजस्थान का बहुत विस्तृत भाग (प्राचीन गुर्जरदेश वर्तमान राजस्थान के अरावली और इसके दक्षिण-पश्चिम का क्षेत्र और गुजरात है) मूल गौड क्षेत्र नहीं हैं, अतः इन क्षेत्रों की भाषाओं में वैदिक 'ळ' किसी प्रकार बचा रहा। हिन्दी भाषा में 'ळ' वाले शब्दों के न होने से इस वर्णाक्षर को सिखाना भी दुष्कर कार्य है। किसी भी वर्ण के उच्चारण के लिए उसके उदाहरण शब्दों का होना आवश्यक है। 'ॠ', 'ऌ', तथा 'ॡ' आदि के भी उदाहरण न होने से इन वर्णों को मानक हिन्दी वर्णमाला में स्थान नहीं मिला है। बाल ठाकरे ने हिन्दी वर्णमाला में 'ळ' अपनाने का आग्रह किया था। कुमाऊँनी, गढवाली, राजस्थानी भाषाओं को बहुधा हिन्दी की उपभाषाओं के रूप में देखा जाता है। किन्तु यह अपने आप में स्वतंत्र भाषाएँ हैं। इन भाषाओं में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनमें 'ल', 'ळ' और 'ड' के परिवर्तन से शब्द का अर्थ ही बदल जाता है। जैसे राजस्थानी में :— 'पालो' — भूसा / चारा 'पाळो' — पाला (ठंड से जमी हुई नमी) 'पाडो' — भैंसा 'पाड़ो' — देना 'सेलो' — पर्याप्त होने का भाव 'सेळो' — बरातीयों की मिलनी का कार्यक्रम 'सेडो' — नाक से टपकने वाला अथवा नाक में जमा द्रव्य गढवाली में :— 'खाल' — त्वचा, चमड़ा 'खाळ' — पहाड़ों पर समतल स्थल (पठार) 'खाड' — खड्डा, खाई 'गाल' — गाल, कपोल 'गाळ' — गाली 'गाड' — गाड़ना यदि राजस्थानी, कुमाऊँनी अथवा गढवाली को उपभाषाएँ मानते हैं तो 'ळ' को हिन्दी वर्णमाला में स्वीकार करना आवश्यक है। इसके लिए इन तथाकथित उपभाषाओं को बोलने वालों को मिलकर आग्रह करना चाहिए। इसके साथ ही आँचलिक शैली में हिन्दी में अपनी बोलियों का मेल कर पठनीय साहित्य की रचना करनी चाहिए। जिससे 'ळ' को हिन्दी की मुख्यधारा में स्थान मिल पाए। इस प्रकार के अन्य रोचक उत्तर आप मेरे मञ्च भाषा-विज्ञान और शब्द-व्युत्पत्ति पर देख सकते हैं। © अरविन्द व्यास, सर्वाधिकार सुरक्षित। इस आलेख को उद्धृत करते हुए इस लेख के लिंक का भी विवरण दें। इस आलेख को कॉपीराइट सूचना के साथ यथावत साझा करने की अनुमति है।
विशेष टिप्पणी –

इस प्रश्न के एक भ्रामक उत्तर के कारण यह सुस्पष्ट करना आवश्यक है कि

ळ स्वर नहीं है; न ही इसकी मात्रा ऌ है। ऌ एक स्वर है; तथा इसके उच्चारण में र का लेशमात्र भी अंश नहीं है।

सन्धि के नियम से समझने का प्रयास करें

इ + अ = य

उ + अ = व

तथा

ऋ + अ = र

ऌ + अ = ल

ऌ के उच्चारण में यह समस्या इस कारण आती है कि ऌ तथा लृ को लगभग एक समान लिखा जाता है। जोकि अच्छे-अच्छों को भ्रमित कर देती है।

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