बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★★★★अद्यतन संशोधित संस्करण-( ★★★★-भाग प्रथम ★★★★-

श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★★अद्यतन संशोधित संस्करण-( ★★-भाग प्रथम व द्वितीय- ★★ ) प्रतिलिपि-


    ★-(श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-★

पुस्तिका "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं उनके चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त उत्पन्न हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणियों का सम्यक शास्त्रीय उत्तरों को  खोजकर त्वरित समाधान करना ही है।  इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।

इस पुस्तिका का आकार न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा इसलिए भी निर्धारित किया गया है, ताकि इसे आसानी से पाठकगण कहीं भी समाज में ले जाकर जनसाधारण को कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा चरित्र विषयक  बोध करा सके।
यह "श्रीकृष्ण- साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त- गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित विधि से वर्णन किया गया है।

इस पुस्तिका के लेखन कार्य से लेकर श्रीकृष्ण  जीवन के सारगर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने तक प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हँस श्री आत्मानन्द जी महाराज उपस्थित रहे हैं। एतदर्थ उनका साधुवाद !
यह पुस्तक अपने बारह अध्यायों में श्रीकृष्ण के अतीव सार-गर्भित चरित्रों के साथ अपने नाम को सार्थक करती हुई उन परमेश्वर श्रीकृष्ण के ही चरणों में समर्पित है।

   -:अनुनीत- विनीत :-
      लेखक गण-
   गोपाचार्य हंस- योगेशरोहि-
              एवं
  गोपाचार्य हंस- माताप्रसाद -


फोटो- [ १   ]    फोटो -[ २   ]   फोटो -[ ३   ]   लेखक-                    आत्मानन्द             लेखक-
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              "श्रीकृष्ण- अभ्यर्चना" 
 ________               
'हे केशव  मया भवते  
       नमतो  भक्त्या  अर्प्यते।
यत्किमपि अस्मिन् भवे

       नमनानि तुभ्यं भगवते।।१।

अनुवाद:- हे केशव ! आपको  नमन करते हुए इस संसार में जो भी कुछ मेरा है वह सब मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किया जाता है। हे भगवन् मैं तुमको अनेकों नमन करता हूँ।१।

जड-जङ्गम चेतन स्थावरम् 
     आद्यन्ताश्च न्यूनञ्च पुरुम्।
अमूनि सर्वाणि  तवेव 

    त्वमेव सहर्षेण स्वीकुरु।।२।

अनुवाद :- जड़ -चेतन, चल-अचल , आदि-अन्त,
कम-ज्यादा, सब कुछ तुम्हारा ही है। उसे तुम सहर्ष स्वीकार करो।

ज्ञानपुञ्जं  प्रवासिकुञ्जम् 
    मुरलीमधुरं यत्र कदम्ब द्रुम।
गीतां पुनीतां सुवक्तारम् 

  अहं वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम्।।३।।

अनुवाद :- ज्ञान के समुच्चय तथा कुञ्जों में रहने वाले, और कदम्ब वृक्ष के तले मधुर मुरली बजाने वाले, कुरुक्षेत्र में पवित्र गीता का वाचन करने वाले जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।३।

सर्वेचराचरेषु व्याप्नोसि ते सत्ता
           निर्गुणसगुणयोरुभयोर्रूपयोर्।
जानान्ति रहस्यं केशवस्य भक्ता:

          अन्वेषयति तु कर्मकाण्डेषु घोर:।।४।

अनुवाद :- हे केशव! आप की सत्ता समस्त चराचर (जड़-चेतन, संसार के सभी प्राणियों) में निर्गुण और सगुण दोनों रूप में व्याप्त हैं। आपके इस रहस्य को भक्त भली-भाँति जानते हैं। किंतु भयानक और मूढ़मति व्यक्ति आपको कर्मकाण्डों में खोजते है।४।

संसृत्यौ सिन्धौ शष्पिता सरणि।
          वयमाकृण्म भावोर्म्या सम्मध्यता:।
न मज्जेद् मम जीवनस्य तरणि"
          हे मोहन ! तर अत्र लोभमोहावृता:।।५।

भाष्य:- हे मोहन ! अयं आत्मा जगतः समुद्रे जीवनस्य नौकायां उपविष्टोऽयं समुद्रं तरितुं इच्छति; परन्तु अत्र कामलोभादिभावानां तरङ्गाः निरन्तरम् उदयमाना  एव भवन्ति। 

हे मोहन !  अत एव जीवननौकाया  ​​मार्गोऽतीव क्लिष्टोऽभवत् । मा भूत् मम नौका तरङ्गजनितसक्तिलोभादिभ्रमणेषु मज्जति;  तस्मात् त्वं स्वयमेव एतां नौकां तरेत्।५।

अनुवाद:- -हे मोहन ! संसार रूपी सागर के जीवन रूपी नौका में बैठा हुआ यह जीवात्मा- इस सागर को पार करना चाहता है ; परन्तु यहाँ काम,लोभ आदि की भावना रूपी तरंगे निरन्तर उच्छलती रहती हैं। हे मोहन ! इसी कारण से जीवन रूपी नौका का मार्ग बड़ा जटिल हो गया हैं। मझधार में लहरों से उत्पन्न मोह-लोभ आदि के भँवरों में कहीं मेरी नौका डूब न जाय ; इसलिए आप ही इस नौका को पार करें।।५।
भावसाम्य-
उदाहरण-
"भव सागर है कठिन डगर है। 
         हम कर बैठे खुद से समझौते ! 
डूब न जाए जीवन की किश्ती । 
          यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
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                     कृष्ण चित्र-

               

     ★श्रीकृष्ण - स्तुति★ 


"वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम्।  सर्व लोकैरभिनन्दनीयम्।कर्मस्य फलं इति ते नियम।  कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।।१।।                   
भक्त-भावं सुरञ्जनम् । राग-रङ्गं त्वं सञ्जनम्।। बोध -शोधं मनमञ्जनम्।      नमस्कार खलं-भञ्जनम्।२।      
                 
मयूर पक्ष तव मस्तकम्।  मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्।।  ज्ञान रश्मि त्वं प्रभाकरम्।      गुणातीत गुरु-गुणाकरम्।३।    
                  
नमामि याम: त्वमष्टकम्-। हरि-शोकं अति कष्टकम्।। भव-बन्धं मम मोचनम् ।  सर्व भक्तगणं रोचनम्।४। 
                          
कृष्ण श्याम त्वं मेघनम्,  लभेमहि जीवन धनम्।  रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम्।  सकल सिद्धी: त्वमर्जकम्।५।  
                
कृपा- सिन्धु गुरु-धर्मकम्। नमामि प्रभु उरु-कर्मकम्।। 
इन्द्र-यजन त्वं निवारणम्। पशु-हिंसा तस्या कारणम्।६।    
                      
स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् । सदा विराजसे त्वं व्रजम्।। दधान ग्रीवायां मालकम्।        नमामि-आभीर बालकम्।७।     
                
कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् । ते आपीड केकी-पणम्।। कृषाणु शाण हल कर्पणम्। वन्दे संकर्षणं च कृष्णम्।८।   
                  
गोप-गोपयोरधिनायकम्। वैष्णव धर्मस्य विधायकम्।। व्रज रज ते प्रभु भूषणम् ।      नमामि कोटिश: पूषणम्।९।  
                
निष्काम कर्मं निर्णायकम्। सुतान वेणु लय-गायकम्।।दीन बन्धो: सदा सहायकम्।    नमामि यादव विनायकम्।१०। 
                
किशोर वय- सुव्यञ्जितम्। राग-रङ्गं शोभितं नितम्।। 
 नमस्कार प्रभु सद्-व्रतम्। "पेय ज्ञानं गीतामृतम्।११।  
        
वन्यमाल कण्ठे धारिणम्।नमामि  व्रज- विहारिणम्।। वैजयन्ती लालित्य हारिणं।    लीला विलोल विस्तारिणं।१२।

"अनुवाद:-

वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत ) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय( वयं) से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया।१।

"अनुवाद:-

भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले ,राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके  ज्ञान का प्रकाश भरने वाले,  खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले प्रभु  को हम नमस्कार करते हैं।२।
अनुवाद:- हे प्रभु ! मयूर के पंख से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य)है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार है।३।

अनुवाद:- हे मनमोहन ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो साक्षात् हरि हो ! संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे मोहन ! मैं तुझे नमन करता हूँ।४।

अनुवाद:- हे कृष्ण तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम   जीवन के धन रूप आपको प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।

अनुवाद:- कृपा के समुद्र, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु ! महान कर्मों के कर्ता प्रभु ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र का यजन- पूजन बन्द कराये, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का  कारण थे ।६।

अनुवाद:- गाय के निवास स्थान की सुन्दर रज( मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज( गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में वन माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले हे प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार हूँ।७।

अनुवाद:- हे कृष्ण तुम गोप और गोपियों के अधिनायक ( मार्गदर्शन करने वाले ), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले,तथा भक्तों का पोषण करने वाले हो ! प्रभु तुम्हें हम कोटि -कोटि नमस्कार करते हैं।९।

अनुवाद:- संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले , दीन दु:खीयों की सहायता करने वाले, यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं।१०।

अनुवाद:- गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग -रंग से सुशोभित, रासधारी, सत्य व्रतों का पालन करने वाले, हे प्रभु! तुम्हारा गीता का अमृतरूपी ज्ञान सेवन करने  योग्य है ।११।

अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले, भगवान कन्हैया को हम नमस्कार करते हैं।१२।

भगवान्- श्रीकृष्ण की औपचारिक पूजन -विधि-
यज्ञ और हवन के समय - उपर्युक्त  प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त- 
ॐ श्रीकृष्णाय नमः 
प्रभो !  तुभ्यं निजभावंं नैवेद्यं समर्पयामि !

के साथ नैवेद्य अर्पित करें। किंतु ध्यान रहे उपर्युक्त पांचों मंत्रों को किसी पुरोहित से न पढ़वाया जाय और ना ही उनसे कुछ करवाया जाय क्योंकि इन मंत्रों को केवल कृष्ण भक्त गोप ही सिद्ध और सफल कर सकते हैं बाकी कोई नहीं।
[इसके बारे में विस्तृत जानकारी अध्याय- (१) के भाग-(२) में दी गई है पाठकगण वहां से अपने संशय का निवारण कर सकते हैं।]

(२)- सुबह-शाम श्रीकृष्ण  पूजा, आराधना, या आरती इत्यादि के समय भक्तिभाव से पांचों मंत्रों से श्रीकृष्ण का स्तवन स्वयं करें और प्रत्येक मन्त्रोच्चारण के उपरान्त "अहं सर्वस्यं श्रीकृष्णाय समर्पयामि" ( मैं श्रीकृष्ण को अपना सबकुछ समर्पित करता हूँ)  के साथ नमस्कार करें। यदि कोई भक्त संस्कृत श्लोक नहीं पढ़ सकता तो वह मंत्रों को भक्तिभाव से हिंदी अनुवाद को ही पढ़कर श्रीकृष्ण की आराधना व स्तुति कर सकता है। ऐसा करने से उसे कोई दोष नहीं होगा। किंतु ध्यान रहे फूल, पत्ते इत्यादि को ही उनके चरणों में रखें, बाकी खाद्यान्न इत्यादि पदार्थों को उनके चरणों पर कदापि न रखें। खाद्यान्न पदार्थों को किसी पात्र में रखकर प्रभु के अगल-बगल थोड़ा ऊपर ही रखें।   

ध्यान रहे ये सब क्रिया विधि मात्र एक औपचारिकता है। इसको करते समय किसी प्रकार का आडम्बर या भौकाल नहीं होना चाहिये। क्योंकि भगवान- भाव के ग्राही हैं क्रिया ग्राही नहीं। अर्थात् आप क्या कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। सत्य तो यह है कि -
भक्त के द्वारा निःस्वार्थ भाव से- येन -केन प्रकारेण कुछ भी चढ़ाया गया पदार्थ वे सहर्ष स्वीकार कर ही लेते हैं।

(३)-  अगर भक्त के पास अर्पण के लिए मौके पर कुछ भी उपलब्ध नही है, तो भी वह श्रीकृष्ण की पूजा- अर्चना कर सकता है। इसके लिए भक्त को भक्तिभाव से मंत्रोच्चारण कर प्रभु की स्तुति करनी होगा। यहीं भक्ति की प्रारंभिक क्रिया है। ऐसा बार-बार करने से एक दिन श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव जागृत होगा। उसी दिन से वह प्रभु का सच्चा ज्ञानी भक्त हो जाएगा। तब उसके लिए चढ़ावा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहेगा।
वह दिन-रात मस्त मगन होकर प्रभु का सुमिरन यों ही करता रहेगा। क्योंकि अब तो उसे परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है कि -
"
अर्थात् जब परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कान के सुनता है, हाथ न होते हुए भी विभिन्न तरह के कार्य करता है अर्थात यहां बिना किसी कारण के ही कार्य हो रहा है।
तब परमेश्वर की भक्ति में तेरे-मेरे, अपना-पराया, विधि-विधान, मेरे या दूसरे द्वारा इत्यादि का कोई मतलब ही नहीं रहइसीलिए कहा जाता है कि - परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में स्वयं कहे हैं कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
 

अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६ ।
      
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        - विषय-सूची-                               

                      (अध्याय-)   
१ - 
पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को  सुनने व कहने के दुष्परिणाम।
   [क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
   [ख]-तेैतीस कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
   [ग] - श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ।             
   [घ] - शिव पूजा के लाभ।     
   [ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
   [च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
   [छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
   [ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
   [झ] -गलत कथा कहने व सुनने के                      दुष्परिणाम।
   [ञ] - एक सच्चे गुरु की पहचान।

२- श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनके गोलोक का वर्णन

३- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नहीं है  तथा 
भक्त- भक्ति और भगवान इन तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व हैं।


४- गोलोक में गोप- गोपियों सहित- नारायण,शिव , ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का-विस्तार

५- वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों मे मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं-
   [क] - वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा भारतीय              समाज में पञ्च- प्रथा 
   [ख] - ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति।
   [ग ] - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर-
        [१] जन्मगत एवं कर्मगत अन्तर।
        [२] यज्ञ मूलक एवं भक्ति मूलक अन्तर।
        [३] भेदभाव एवं समता मूलक अन्तर।
   
६-  वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व -

       [१] गोपों का ब्राह्मणत्व (धर्मज्ञ होने )का कर्म-

    (क)- सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर (गोप) हैं।
    (ख)- अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
    (ग)- यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा का परिचय।
    (घ)- ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय।

      [
२] गोपों का क्षत्रित्व कर्म।
      [३] गोपों का वैश्य कर्म।
      [४] गोपों का शूद्र कर्म।

७-  वैष्णव वर्ण के "गोपों" की पौराणिक - प्रशंसा व गोपों की भारतीय संस्कृति में योगदान-



८-  भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण ।

९-  गोप, गोपाल, अहीर और यादव उपाधि धारक कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं, तथा इनका वास्तविक गोत्र वैष्णव है या अत्रि ?
     
१०- गोप कुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान पौराणिक व्यक्तियों का परिचय -
        भाग-(१) श्रीकृष्ण का परिचय।
        भाग-(२) श्रीराधा का परिचय।
        भाग-(३) पुरूरवा और उर्वशी का परिचय।
        भाग-(४) आयुष, नहुष, और ययाति का  परिचय।

११-  गोप जाति के यादव वंश का उदय एवं उसके प्रमुख सदस्यपति -
        भाग- (१) महाराज यदु का परिचय।
        भाग- (२) हैहय वंशी यादवों का परिचय।
        भाग- (३) यदु पुत्र- क्रोष्टा और उनके वंशज

१२-  यादवों का मौसल युद्ध तथा श्रीकृष्ण का गोलोक-गमन
       भाग- (१)- यादवों के सम्पूर्ण विनाश की वास्तविकता एवं श्रीकृष्ण के बहेलिए से मारे जाने का खण्डन।
       भाग- (२)- श्रीकृष्ण का गोलोक गमन।
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            श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी-

                📒अध्याय प्रथम (१)

 
"पूजा-अर्चना के विधि- विधान एवं गलत कथाओं को  सुनने व कहने के दुष्परिणाम- 

इस अध्याय के सम्पूर्ण प्रसंगों को क्रमबद्ध पद्धति से जानने व समझने के लिए निम्नलिखित- (दस) प्रमुख शीर्षकों में विभाजित किया गया है -

[क] - परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।
[ख] -(३३) कोटि देवता में किसकी पूजा करें ?
[ग] - श्रीकृष्ण पूजा के लाभ।             
[घ] - शिव पूजा के लाभ।     
[ङ] - विष्णु पूजा के लाभ।
[च] - श्रीराम पूजा के लाभ।
[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ।
[ज] - श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?
[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम।
[ञ] - सच्चे गुरु की पहचान।


[क]- परमेश्वर की सार्थकता व पहचान।       

                            
आध्यात्मिक जीवन में कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो सक्षम और सामर्थ्यवान हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है जिससे सबकुछ प्राप्त हो सकता ? तो इसका जवाब है सर्वशक्तिमान परिपूर्णतम् परब्रह्म, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी से कुछ पानें की अपेक्षा करना व्यर्थ है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि  परिपूर्णतम् "परब्रह्म" कौन है ?
                    
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से  उस परमात्मा परिपूर्णतम् "परब्रह्म" की विशेषताएं और परिभाषाएं निर्धारित की हैं। जैसे -
१- कोई उसे नूर कहता है तो कोई उसे हुजूर कहता है।
२- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना।
३- कोई उसे निराकार मानता है, तो कोई उसे साकार मानता है।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में मानता है।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों ही मानता है।

इन उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में रखकर कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किंतु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनन्त गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि( प्रारम्भ) है न अन्त है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प सविकल्प, निर्लिप्त, लिप्त‍ प्रारंभ, अंत, अनंत, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय बहुत ही कम है। भगवान् श्रीकृष्ण में ये परिपूर्णताऐं परिलक्षित होती हैं।
             
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सबकुछ हैं तो इस माया नगरी में जहाँ अनेकों छद्म- भेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से (३३) करोड़ देवी-देवों को पूजने को कहते हों, और स्वयं को भी अपने भक्तों से पुजवाते हों। तो ऐसी विकट- आडम्बर पूर्ण एवं भ्रान्त स्थिति में अनन्त गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं ?
              
✳️ तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसी ग्रन्थ के अध्याय- (दो) और अध्याय (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहाँ से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते  हैं।
                

फिर भी यहां पर उससे सम्बन्धित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परमप्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनंत गुण है और उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
                       
जहाँ तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है, तो वे ही परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किंतु जब वे सृष्टि का सृजन करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि- श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय-( ४ ) के श्लोक-( ७) में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।

अनुवाद
:-           
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूँ।
                 
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- (१२ ) में भी लिखा गया है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण क प्रति कहते हैं कि-
परं ब्रह्म  परं धाम  पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।

             
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
                
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म, सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि पद-रूपों में तत्वज्ञानी लोग परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
                
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने बारे में बताते हैं कि-

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्। १८।

          
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषधि मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ॐकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (१६-१७-१८)

इसी तरह से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक- ४२ में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-

अथवा बहुनैतेन  किं  ज्ञातेन  तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२।


अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है?  मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
              
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- (33) कोटि देवी-देवता तो उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश- भूत शक्तियां, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या- (१७-१८)और (१९) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।१९।
                                     

अनुवाद- १७,१८,१९
• द्विभुजधारी, किशोरवय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही  शरीर धारण करते हैं।१७।

• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।
                  
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।४३।            

अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता और साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ।४३।
                   
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - (३०) के श्लोक- (६ ) से (८) में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -

चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।६।

यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।७।

सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।८।
                 
अनुवाद - जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन समर्थ है ? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणार्विंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिन्तन करो।६।
•  नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्माजी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।
•  सहस्र शिरों वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्रीकृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।
                    
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (६६) के श्लोक - (५६) में भी लिखी गई है। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें श्रीकृष्ण राधा जी से अपने विषय में कहते हैं कि-

"अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।
                      
अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम-कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।
                       
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी (३३) करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियां हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के कला और कलांश हैं।

[ख] -तैतीस कोटि देवताओं में किसकी पूजा करें ?    

तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य (३३) करोड़ देवी- देवताओं की पूजा क्यों करता है ? तो इसका जबाब है "अज्ञानता"। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखंडवाद के भ्रम जाल में फंसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा करें या उनसे उत्पन्न (३३) करोड़ देवी-देवताओं की।
इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता है कि- किस देवी- देवों की पूजा करने से कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी पहचान कर यों ही मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इसलिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस बात को प्रमुख देवताओं ने भी स्वीकार किया। जैसे -

शिवजी पार्वती को श्रीकृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खंड के अध्याय-(४८)के श्लोक संख्या- (४८) और (४९) में मिलता है। जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम्।४९।

अनुवाद-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।
• केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो।४९।

उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्रीकृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। क्या इससे भी बड़ी और कोई देव वाणी ब्रह्माण्ड में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं।
          
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२१) के श्लोक- (४३) में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।।४३।

             
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३।

परन्तु प्रश्न यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या (३३) करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जवाब है लाभ अवश्य है, किंतु सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होंगे तथा भूतों को पूजनें वाले भूतों और प्रेतों को प्राप्त होगें और जो परमेश्वर को पूजेगा वह निश्चय ही परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- (७) के श्लोक - (२३) में स्वयं कहें हैं कि -

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३।


अनुवाद - तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।२३।

ऐसी ही बात श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन
से कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

 
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
       
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और  ६६ में कहते हैं कि -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे। ६५।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। ६६


 अनुवाद - (६५-६६)
• तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो, तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है।
• सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
              
और सबसे उचित बात है कि- परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति बहुत ही सरल व आसान है। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।२६।


अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खाता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं।२६।

व्याख्या - देवताओं की पूजा- अर्चना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेम (भक्ति) की, और अपनेपन की प्रधानता है, किसी विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भावग्राही है क्रियाग्राही नहीं।

अन्ततोगत्वा श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इधर-उधर भटकने से नहीं।

तब ऐसे में यह जानना और आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवताओं का कितना होता है? तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देव-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है।
          
जिसमें सबसे पहले हम लोग श्रीकृष्ण पूजा के लाभों को जानेंगे उसके बाद अन्य देवताओं से मिलने वाले लाभों को जानेंगे।


[ ग ]- श्रीकृष्ण की पूजा के लाभ-  


श्रीकृष्ण भक्तों को उनकी पूजा से जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद्देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ६९ से ७०) और( ८५ से ८९) में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -

"करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः॥६९।


वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद्‌ ध्रुवम्॥
७०।

अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्द का भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है।६९-७०।
                   
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरान्त पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है। 
अर्थात् वह अभी भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकता है। तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका जवाब इसके अगले श्लोक- (८५ से ८९) में दिया गया है, जिसमें  बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

'कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम्॥८७।

क्रमेण सुदृढांभक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥८९।


अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा (बुढ़ापा) तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है।८५-८९।
               
यहाँ पर श्रीकृष्ण भक्तों से सम्बन्धित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम साधन- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना ही है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से वे भक्त, श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे इसमें संदेह नहीं है।

✳️ ज्ञात हो मान्यता है कि श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा जहाँ भी रास का आयोजन किया जाता है वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपस्थित रहते हैं। इसलिए रास को मोक्षप्राप्ति का सबसे आसान और उत्तम साधन माना गया हैं। इसके बारे में विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (७) के भाग- दो में दी गई है।
           
किंतु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी नहीं मोक्ष को प्राप्त होते। क्यों नहीं होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा जैसे -      
   

[घ] -शिव पूजा के लाभ-             

शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद्देवीभागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक -( ७१ से ७५ ) में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥७१।

शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७२।

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥७३।

चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्‌करं योऽर्चयेद्‌व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४।

मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥७५।

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं च पार्थिवम्।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११०।

मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत्॥ १११।
               
अनुवाद - ७१-७५ और ११०- १११ तक
• इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्द से रहता है।७१।
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र (बेलपत्थर) अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्या है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है, और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है।७२-७३।

• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मासभर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। ७४-७५।

• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव (मिट्टी) का लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और वह पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहां से पुनः भारतवर्ष में जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११।
         
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह उस लोक तक नहीं पहुंच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ उपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहाँ जाने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किंतु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहां स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है)।

[ङ]-विष्णु पूजा के लाभ- 


  
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय-(३०) के श्लोक- (१०५) और (१०६) में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा स्थान व पद प्राप्त होता है ?

विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते॥१०५।

युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥१०६।
                
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नाम का स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है, और वहां से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है।१०५-१०६।
               
विष्णु भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होता है और वह विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करता है। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उसे पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है।
✳️"यहां पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही है। किन्तु ऐसी बात नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से विराट पुरुष (विराट विष्णु) और विराट विष्णु के एक अंश से अनंत विष्णु अनंत ब्रह्मांड में रहते हैं, जो श्रीकृष्ण के कुछ अंशों से श्रीकृष्ण का प्रतिनिधित्व किया करते है- इस बात को कम ही लोग जानते हैं। इसी अज्ञानता के कारण अधिकांश- कथावाचक और अधिकांश पुराण भी श्री कृष्ण को विष्णु से उत्पन्न बताकर ज्ञान की उल्टी धारा बहाते हैं

 ✳
 [कौन देवता कब, कैसे और कितने अंशों से उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है। वहां से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है।]    

[च]-श्रीराम पूजा के लाभ-  

"श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (७६) और (७७) में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६ ॥

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत्॥७७॥

अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७।

अब यहाँ पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किन्तु यहाँ पर यदि विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुँच कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो पाता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से उपर है। वहां जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।    
  
✳️ ज्ञात हो उपरोक्त श्रीराम भक्तों के श्लोकों से सिद्ध होता है कि श्रीराम और विष्णु में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी हिसाब से रामभक्त विष्णु लोक तक जाता है। जैसे अन्य देवताओं के भक्त उनके ही लोक तक जातें हैं। जैसे शिव भक्त- शिव लोक को, तथा श्रीकृष्ण भक्त गोलोक को प्राप्त होते हैं। यहीं श्रीकृष्ण और अन्य देवताओं की भक्ति में अन्तर है इसको जानना चाहिए।

इसी अन्तर को ध्यान में रखकर भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय- (९) के श्लोक संख्या- (२५) में अर्जुन को अपने और देवताओं की भक्ति में भेद को बताते हुए कहते हैं कि -

"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। ९ / २५।।

 
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
 
और इस बात को अधिकांश लोग नहीं जानते हैं और इसी अज्ञानता वश कहा करते हैं कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं। इसी अज्ञानता वश कभी-कभी श्रीकृष्ण को विष्णु से उत्पन्न करा देते हैं। जबकि वास्तव में देखा जाए तो विष्णु से श्रीराम का अधिक नजदीकी सम्बन्ध है। तभी तो श्रीराम भक्त विष्णु लोक तक जाता है, वह गोलोक में नहीं जाता। इस सम्बन्ध के हिसाब से विष्णु ही राम हैं और राम ही विष्णु हैं

कहना बिल्कुल सत्य है। इसके सापेक्ष श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही कृष्ण हैं कहना उचित नहीं है। इस तरह के समस्त संशयों का सम्पूर्ण समाधान इस पुस्तक के अध्याय- २, ३, और ४ का अध्ययन करने से हो जाएगा।

अब हमलोग इसी क्रम में कुछ देवियों के पूजा अर्चना से होने वाले लाभों को जानेंगे-

[छ] - देवी सावित्री व सरस्वती पूजा के लाभ- 


"देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्मा जी की पत्नियां मानीं जाती हैं। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में पूर्व काल में श्रीराधा से ही हुई है। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय -(३०) के श्लोक- (९७ से ९९) में बताया गया है कि- देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है ?

"भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत्॥९६।

महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥९७।

चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥९८।

संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥९९।
                 

अनुवाद - ९६-९९ • जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। ९६-९७।

• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती को पूजा करता है, वह ब्रह्माके आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है।९८-९९।
            
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त लोग  ब्रह्मा जी के लोक अर्थात् ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते है जो शिव लोक और वैकुण्ठ लोक से बहुत नीचे है। किंतु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।

अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं और अल्प समय तक उन्हीं के लोक में रहकर पुनः अपने लोक (भूलोक) में वापस आ जाते हैं। अर्थात वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते।

किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति को प्राप्त कर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है, और वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।    

[ज]- श्रीकृष्ण कथा कौन कह सकता हैं ?

तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है, तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त (३३) करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
            
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल तीन लोगों को ही है- पहला पंचमुखी शिव, दूसरा- श्री राधा और तीसरा-  भूलोक के गोप और गोपियाँ और गोलोक वासी गोप । 

बाकी (३३) करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से संबंधित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।          

                                   
अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और भूलोकवासी गोप  गोपियां ही जानती हैं। प्रस्तुत श्लोक में 'च' अव्यय पद का प्रयोग और अथवा( and) के रूप पदों के समाहार के लिए हुआ है। इस लिए अर्थ होता है" गोपी गोप और गोलोकवासी " ही कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गोपी और गोप के अतिरिक्त गोलोक वासी कौन हैं।
इसका समुचित उत्तर होगा कि गोलोक वासी से तात्पर्य गोलोक में रहने वाले गोप गणों से ही है। और गोपी- गोप से तात्पर्य भूलोक के गोपीयाँ और गोपों से है।

• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।   
               
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -

• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल

-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो।९।
              

तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों एवं रहस्यों को जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, तथा ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है ? या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
                      
तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को जानता हो, वहीं इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और ऊपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल चार लोग- (१)- शिव जी (२)- श्रीराधा (३)- और गोप- गोपियां और गोलोकवासी ही जानते हैं, ( गोलोक के गोपी गोप ही भूलोक के गोपी गोप हैं।  इस प्रकार से जानने वालों की संख्या शिव' राधा' और गोपी -गोप चार होती है।
गोलोक वासी सभी गोप गोपी कृष्ण की भक्ति तत्व को जानते हैं। परन्तु भूलोक पर केवल कृष्ण की भक्ति करने वाले ही गोप जानते हैं। अतः इन  के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कर सकता और ना ही बता सकता है। क्योंकि श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान रखने वाला उनके सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे बता सकता है?
                  
अब इन सब में देखा जाए तो प्रथम क्रम पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को सम्यक रूप से जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ मिलता है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्री कृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताते  हैं। वह भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर।
इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - (४८) के प्रमुख श्लोकों में मिलता है।

 जो पार्वती -शिव संवाद के रूप में जाने जाते है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -

तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम्।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम्।१४।

आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल।१५।

कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः।१६।

पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।१७।

सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः।१८।

निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः।१९।

मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि। २०।

मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम्।२१।

जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।
               

अनुवाद - आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महात्म्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा -पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए। भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्ता हूँ अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? (१४-१५-१६)

• पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिंता में पड़ गए।१७।

•  तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपने अर्धांग स्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था।१८-१९।

•  परन्तु माहेश्वरी ! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है।२०-२१।

•  अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ सुनो।२२।

(पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहाँ से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती हैं।)
                
अतः इस उपर्युक्त प्रसंग से तो  यही सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के सम्पूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं ?
           
अब रही बात दूसरी श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के सम्पूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। सांसारिक प्रक्रिया के मूल  द्वन्द्वात्मक रूप से परे होने पर दोनों मूलत: एक ही ब्रह्म रूप हैं। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
                  
अब रही बात तीसरे क्रम पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियां भी श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्र एवं गूढ़  रहस्यों को भली- भाँति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियाँ श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विद्यमान है। और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपने लीलाएं किया करते हैं।

(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई ? इस विषय पर सम्पूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहाँ से इसकी जानकारी प्राप्त की सकती हैं।)
              
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि - "श्रीकृष्ण कथा" को केवल गोप और गोपियाँ ही भावपूर्ण विधि से  कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। अतः सम्यक तर्कों से सिद्ध होता है कि- "श्रीकृष्ण कथा कहने के लिए केवल गोप [आभीर] विद्वान ही पात्र हो सकते हैं।

क्योंकि उनके मन- मस्तिष्क में जन्म जन्मान्तर से श्री कृष्ण का संपूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। बस आवश्यकता है - उन्हें श्री कृष्ण का ध्यान व योग से उस सुषुप्त ज्ञान को अपने अंदर जगाने की । और जिस क्षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागृत होगा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे।

 चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो जाए। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४) के श्लोक-(८२)और (८३) में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -

"कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।८३।

                         
अनुवाद - ८२,८३
• श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा भूलोकवासी और गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कृष्ण भक्ति का कुछ ही ज्ञान है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२-८३।  

✳️ किन्तु प्रश्न यह है कि गोलोक के ये गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा की इतनी सारी विशेषताओं को लिए भूतल पर कैसे आये? क्या वास्तव में गोप और गोपियाँ श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप हैं ? क्या गोलोकवासी गोप ही भूतल के गोप,आभीर और यादव हैं ? गोपों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण श्रीकृष्ण कथा क्यों नहीं कह पाता ? ऐसे ही बहुत सारे प्रश्न और विचार मन में अवश्य उठ रहे होंगे। अतः इन सभी का समाधान किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा।

तो इस सम्बन्ध में सबसे पहले गोप और गोपियों की उत्पत्ति और उनके वास्तविक स्वरूप एवं स्थिति इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- ४ में दी गई है, किन्तु उसे संक्षेप में यहां भी बताना आवश्यक है।

गोपों की उत्पत्ति या जन्म के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या-( ४० और ४२) में मिलता है, जिसमें लिखा गया है कि -

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव  रूपेण वेशेनैव  च  तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद - ४० से ४२
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

✳️ ज्ञात हो यह बात गोलोक की है, जहाँ सर्वप्रथम गोप और गोपियों की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों अर्थात् उनकी सूक्ष्मतम इकाई कोशिकाओं से क्लोन विधि (समरूपण विधि ) से हुई। इसलिए सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूपणी उत्पन्न हुईं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि- समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समान रूप में होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है। इसके साथ ही उसके गुण, ज्ञान और व्यवहार भी उसी के अनुरूप होते हैं। यह ध्रुव सत्य है।

किन्तु सवाल यह है कि-  गोलोक के ये गोप और गोपियां भूतल पर कैसे और क्यों आये?

तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि भगवान श्रीकृष्ण गोलोक से जब भी भू-तल पर भूमि भार हरण के लिए अवतरित होते हैं, तो वे अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ ही भूतल पर गोकुल के गोपों के यहाँ ही अवतरित होते हैं।

इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६) से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर गोलोक में भगवान श्री कृष्ण अपने समस्त गोप-गोपियों को बुलाकर कहते हैं-

जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले।।
गोपानामुत्तमानां च मन्दिरे मन्दिरे शुभे।६९।।


अनुवाद - भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -गोप और गोपियों ! तुम सब भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो ।

तब श्रीकृष्ण का आदेश पाकर सभी गोप-गोपियां भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ-शुभ घरों में अवतरित हुए। इसकी पुष्टि- उस समय होती है, जब समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के एक दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ। उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खण्ड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा था-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।

अनुवाद-
नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक के गोपालगण (आभीर) जो साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियां जो श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां (भूतल के ) व्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।

इसी तरह से समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी श्रीकृष्ण के अँश से गोलोक में उत्पन्न हुए थे उन सभी को भू-तल पर गोपकुल के यादव वंश में भगवान श्रीकृष्ण के ही अँश रूप में अवतरित या जन्म लेने की पुष्टि- गर्गसंहिता के विश्वजित्खण्ड के अध्याय (२) के श्लोक- ७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण यादवों के विश्वजीत युद्ध होने से पहले उग्रसेन से कहते हैं-

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:-  समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

अतः उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ कि समस्त गोलोकवासी गोप जो कभी गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण के रोम कूपों (कोशिकाओं ) से या कहें उनके अँश से उत्पन्न हुए थे, वे सभी भूतल पर गोपजाति के यादव वंश में श्रीकृष्ण के ही अँश से प्रकट हुए हैं। ऐसी बात भगवान श्रीकृष्ण ने उपरोक्त श्लोकों में स्वयं कहें हैं कि "समस्त यादव मेरे ही अँश से प्रकट हुए हैं"।
परन्तु कृष्ण का वह प्राचीन रूप स्वराट- विष्णु ही है।  कृष्ण उनका अर्वाचीन ( बाद ) का तत्कालीन रूप है।

इतने प्रमाणों के बाद हम्हें लगता है कि अब कोई यह नहीं कहेगा कि गोलोकवासी" गोप-गोपियाँ- भूतल की गोप-गोपियां नहीं हैं।

किन्तु एक बात अभी भी कुछ लोग कह सकते है कि- क्या प्रमाण है कि भूतल के गोप-गोपियों को श्रीकृष्ण भक्ति का पूर्णरूपेण ज्ञान है और वे ही लोग श्रीकृष्ण कथा कहने के पात्र हैं?

तो इसका सीधा जवाब है कि जो गोप-गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के अँश से या कहें उनके रोम कूपों अर्थात् उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हों और उनका सहचर बनकर सदैव सन्निकट रहते हों, तथा उनके ही साथ भूतल पर आते-जाते हों और उनके प्रत्येक कार्यों में एक साथ मिलकर हाथ बंटाते हों, तो ये गोप-गोपियां श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गुणों और रहस्यों को नहीं जानेंगे, तो क्या ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, देवी देवता या ब्रह्मा जी के- मुख, हाथ, पेट और पैर से उत्पन्न चातुर्वर्ण्य के लोग जानेंगे ? निश्चित रूप से इसका जवाब होगा- नहीं। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जितना एक पुत्र अपनी माता-पिता के जितने गुणों को लेकर जन्म धारण करता है, और उनके अनुरूप ही व्यवहार करते हुए अपने माता-पिता के गुण, ज्ञान और व्यवहार के बारे में जानता है, शायद ही दूसरा कोई  जानता होगा। इसी को विज्ञान की भाषा में आनुवंशिक गुण कहा जाता हैं जो माता-पिता से स्वाभाविक और पैतृक रूप से प्राप्त होता है।

शायद इन्हीं सब कारणों से ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२) और (८३) में लिखा गया है कि-

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः। राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये।८२।।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा। किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम्।८३।।         

                                   
अनुवाद - ८२-८३
• श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं।
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८३।   

ज्ञात हो उपरोक्त श्लोक -८२ में गोपों के बारे में जो बात लिखी गई है कि "श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियां ही जानती हैं। वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर ही लिखी गई है क्योंकि सभी गोप-गोपियां श्रीकृष्ण की कोशिकाओं (रोम कूपों) अर्थात् उनके क्लोन यानी समरूपण से उत्पन्न हुए। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।

श्रीकृष्ण और श्रीराधा के द्वारा समरूपण विधि से उत्पन्न होने से ही सभी गोप-गोपियां रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण और श्रीराधा समान हुए थे ।
परन्तु आज उनमें अनेक संक्रमणों से विकृतियाँ हुईं हैं। परन्तु वे गोप अल्प मनस् -साधनो के द्वारा पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।

इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(५) के श्लोक संख्या- ४० और ४२ के आधार पर उपर बताया गया है। इसी गुण विशेष के कारण ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय- (९४ के श्लोक- ८२ में यह बात लिखी गई है कि-"श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण गोप और गोपियां ही जानतीं हैं। जो वैज्ञानिक आधार पर ध्रुव सत्य है। 

श्रीकृष्ण कथा की सभी पात्रताओं से युक्त केवल गोप और गोपियां ही हैं। इसलिए श्रीकृष्ण कथा के वास्तविक अधिकारी केवल गोप और गोपियां हैं।

किन्तु इसका मतलब यह नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण कथा के लिए सभी गोप-गोपियाँ पात्र हैं। इसका मतलब यह हुआ कि श्रीकृष्ण कथा कहने का केवल वहीं गोप और गोपियाँ पात्र हो सकतीं हैं, जिन्होंने भक्ति, तप और योग साधना से भगवान श्रीकृष्ण के जनेटिक गुणों को अपने अन्दर जागृत कर श्रीकृष्ण का तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो उनके अन्दर पहले से ही आनुवाँशिक रूप से विद्यमान है। क्योंकि सभी गोप श्रीकृष्ण के क्लोन से उत्पन्न हुए हैं इस लिए उनके अन्दर श्रीकृष्ण का तत्व गुण पहले से ही सुषुप्तावस्था में विद्यमान रहता है, बस उसे जगाने की जरूरत है।
और जो धूर्त, अज्ञानी, पाखंडी और छद्मवेषधारी, श्रीकृष्ण गुणों से रहित "गोप-गोपियां"  हैं वे कभी श्रीकृष्ण कथा के अधिकारी नहीं हो सकते। 

फिर भी यदि वे श्रीकृष्ण कथा कहते हैं तो निश्चय ही शास्त्रोचित पाप- दण्ड के भागी होंगे। इस बात को भी इसी अध्याय में आगे बताया गया है।
अतः श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी केवल श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोप और गोपियां ही हो सकतें हैं, अज्ञानी गोप नहीं।
कृष्ण भक्त जो संसार से विरक्त हो गया है। वह भी कृष्ण कृपा से उनकी भक्ति तत्व को जान सकता है। 
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तब पुनः प्रश्न उठता है कि क्या श्रीकृष्ण तत्व ज्ञानी गोपों के अतिरिक्त और कोई श्रीकृष्ण कथा नहीं कह सकता? तो इसका जवाब है अवश्य कह सकता हैं किन्तु वह श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पाएगा क्योंकि वह जब भी श्रीकृष्ण कथा कहेगा तो वह पुराणों के आधार पर अल्प ज्ञान से ही कथा कहते हुए कभी भगवान श्रीकृष्ण को बहेलिया से मारें जाने की बात कहेगा, तो कभी गांधारी और ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण को शापित होने की बात बताएगा। इसके अतिरिक्त वह यह भी बताएगा कि- श्रीकृष्ण की उत्पत्ति विष्णु से हुई है। या वह यह कहेगा कि श्रीकृष्ण ही विष्णु हैं और विष्णु ही श्रीकृष्ण हैं। क्योंकि उसे विष्णु और श्रीकृष्ण में भेद का ज्ञान ही नहीं है। इसके अतिरिक्त वह परम प्रभु श्रीकृष्ण के अतिरिक्त तरह-तरह के देवी-देवताओं को पूजने की बात कहेगा। क्योंकि हमने आजतक जिस किसी कथावाचक की कथा सुनी हैं, सभी ने उपरोक्त बातों को ही बताया है। इससे अधिक वे कुछ नहीं बता पाये।

उनकी कथाओं में हमने कभी नही भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के बारे में सुना। जिसे हमने इस पुस्तक के अध्याय २,३ और ४ में  शास्त्रीय विधि से बताया है। ऐसे में जो कथावाचक अपनी कथाओं में आधी-अधूरी और अल्प ज्ञान से आवेशित होकर श्रीकृष्ण कथा कहते हैं। उनका अंततोगत्वा क्या परिणाम होता है ? इसके लिए अगला प्रसंग देखें।

[झ] - गलत कथा कहने व सुनने के दुष्परिणाम-

 शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय -(८५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म करने वाले एवं धूर्त कथावाचकों के विषय में कहते हैं कि-
                                     
'कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु।
असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु।१९२।  
 
                                          
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु। 
जन्मैकं वर

लश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।   
                                          
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः।१९४।   
                
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः।१९५।       
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि।
मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
                     
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः ।
पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।१९७।                            
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
                    

अनुवाद- (१९२-१९८)
• विद्वानों के कवित्व ( विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२।
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्रे (ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी (माटा/ दींमक) होता है।१९३।
•  उसके बाद क्रमश:  शूद्र ,वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला ब्राह्मण (विप्र) भी कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता- यह ध्रुव सत्य है।१९४।
•  तथा मेरे नाम (श्रीकृष्ण) को बेचने वाला (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तक रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है।१९३।
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों ) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है।१९६।
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम (श्रीकृष्ण) आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है।१९७।
• इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए वह जो षड्यन्त्र रचने में बहुत प्रवीण हो, कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है।१९८।

अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो अपने आप ही विद्वान समझकर स्वार्थ व धनार्जन के लिए भगवान श्रीकृष्ण की ग़लत व झूठी कथा कहता है, वह अन्ततोगत्वा नरकगामी होता है। ऐसी बात शास्त्रों में लिखी गयी है।

  
इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमन्त्र नहीं बल्कि कृष्ण मन्त्र देने वाला हो। जो शिष्यों से स्वयं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो, यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बंधु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः (9) अध्याय (48)- के अध्याय -(४६) में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-

यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५।

दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥६६।

गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७।

आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥ ६८।

तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।

ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥७०।

स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥७१।

न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२।

             
अनुवाद- ६५-७२
भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन (गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे।  गुरु वही है, जो विष्णु (श्रीकृष्ण) का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो।६५-६६।

•  ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से  लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत (उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६७-६८।
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना है। मेरे द्वारा जो ज्ञान तुमको  दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है। और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है। ६९-७०।
•  वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे, और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्ग का निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।७१-७२।
             
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएं बताई गई है- (वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बन्धनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरंतर दर्शन नहीं कराता।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखंडी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरंत त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हंसाई है।

और यादव लोग तो वैसे भी पाखण्ड से सदैव दूर रहते हैं। इस बात की पुष्टि हरिवंशपुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- (२२) के श्लोक (१४) से उस समय होती है जब कंस अपने समस्त यादवों को राज दरबार में बुलाकर कुछ  इस प्रकार कहा-

अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः ।
राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः।।१४ ।।


अनुवाद- आप (यादव) सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्ति से दूर रहते हैं। सबने गुरुकुल में रहकर शिक्षा पाई है। आप सब लोग राजा की गुप्त मन्त्रों को सुरक्षित रखने वाले तथा धनुर्वेद में पारंगत है।१४।

अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कथा कहने का पात्र केवल ज्ञानी गोप और गोपियों ही है। इनके अतिरिक्त और किसी के द्वारा श्री कृष्ण कथा कहने का मतलब श्रीकृष्ण की अधूरी जानकारी देना है। यही कारण है कि गोपों के अतिरिक्त वर्तमान समय में जितने भी कथावाचक हैं, श्री कृष्ण कथा कहते समय श्री कृष्ण के साथ गोप और गोलोक की चर्चा नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनके द्वारा की गई श्रीकृष्ण कथा अधुरी मानी जाती है। और इस सम्बन्ध में उपर बताया गया है कि कैसे आधी अधूरी श्रीकृष्ण कथा कहने वाले नरकगामी होते हैं।

इस प्रकार से परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम तथा सही गुरु का चयन कैसे किया जाए ? इन सभी की जानकारीयों के साथ यह अध्याय समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहाँ स्थापित है"।

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यह अध्याय श्रीकृष्ण भक्तों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा तो करते हैं, किन्तु वे उनके वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक की सूक्ष्म  एवं स्थूल स्थिति की चर्चा नहीं करते हैं। 

इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि या तो उन्हें श्रीकृष्ण और उनके गोलोक का ज्ञान नहीं है, तथा दूसरा यह कि वे लोग अपनी कथाओं में यदि श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक के बारे में बतानें लगेंगे तो उन्हें अपने ३३ करोड़ देवी-देवताओं को पीछे करके श्रीकृष्ण तथा उनके गोपों को आगे करना होगा। किन्तु वे लोग ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इन्हीं (३३) करोड़ देवताओं के भ्रमजाल से अपनी कथाओं में कभी इस देवता को पूजवाते है तो कभी उस देवता को पूजवाते हुए नाना प्रकार के चमत्कार से अपने स्वयं भटकत हुए दूसरों को भी भटकाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप एवं उनके गोलोक की लौकिक एवं भौतिकी स्थिति को जानना आवश्यक हो जाता है।

गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय  में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय २- के क्रमशः (४ से २१) तक के श्लोकों में कुछ इस तरह से बताया गया है -

ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम्।४॥

स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्। 
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम्।५॥

तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।
त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६॥

तेजःस्वरूपं   सुमहद्रत्नभूमिमयं  परम्।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७॥

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८॥

(ब्रह्मवैवर्तपुराण-ब्रह्मखण्डःअध्यायः२ के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम्।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम्।९।

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम्।१०।

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।१३।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण -ब्रह्मखण्डः अध्यायः२ के तेरहवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा।१४।

तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।१५।

नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।१६।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम्।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।

रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम्।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।२०।

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।२१।

अनुवाद- ४-२१
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।४।

• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।

• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभीओर से मण्डलाकार है। ६।

• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न में भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों (श्रीकृष्ण भक्तों) के लिए ही दृश्य और गम्य (पहुँचने योग्य) है।७।

• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है।८।

• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वह लोक गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
            
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक-९ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते नहीं हैं। ]

• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम-भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।

• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३। 

• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।

• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही  निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५।

• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है  जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।

• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७।

• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।

•  वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।    

✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (२१) की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का स्वरूप तथा उनके गोप गोपियों - के विषय में ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (२८) के कुछ प्रमुख श्लोकों में भी बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। जिसका हम निम्नलिखित श्लोकों में प्रस्तुतिकरण करते हैं।

तत्तेजोमण्डलाकारे सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
नित्यं स्थलं च प्रच्छन्नं गोलोकाभिधमेव च।।४०।।

लक्षकोट्या योजनानां चतुरस्रं मनोहरम्।
रत्नेन्द्रसारनिर्माणैर्गोपीभिश्चावृतं सदा।।४१।।

सुदृश्यं वर्तुलाकारं यथा चन्द्रस्य मण्डलम्।
नानारत्नैश्च खचितं निराधारं तदिच्छया।।४२।

ऊर्ध्वं च नित्यवैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम्।
गोगोपगोपीसंयुक्तं कल्पवृक्षसमन्वितम्।।४३।

 
अनुवाद ( ४०- ४३)       
• करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मंडलाकार तेज पुंज है, उसके भीतर नित्य धाम छुपा हुआ है जिसका नाम गोलोक है।४०।

• वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्ष्य कोटि योजन विस्तृत है। सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्न के सारतत्वों से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपांगनाओं से वह लोक सदा भरा हुआ है।४१।

• चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है। रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है। ४२।

• उस नित्य लोक की स्थिति वैकुणठ लोक से पचास करोड़ योजन ऊपर है। वहां गायें, गोप और गोपियां निवास करती हैं। वहाँ कल्पवृक्ष के वन हैं।४३।
            
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक (४३) की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

वृन्दावनवनाच्छत्रं विरजावेष्टितं मुने।४४।।

शतशृङ्गं शातकुम्भैः सुदीप्तं श्रीमदीप्सितम्।।
लक्षकोट्या परिमितैराश्रमैः सुमनोहरैः।४५।।

शतमन्दिरसंयुक्तमाश्रमं सुमनोहरम्।।
प्राकारपरिखायुक्तं पारिजातवनान्वितम्।४६।

कौस्तुभेन्द्रेण मणिना राजितं परमोज्ज्वलम्।
हीरसारसुसंक्लृप्तसोपानैश्चातिसुन्दरैः।४७।।

मणीन्द्रसाररचितैः कपाटैर्दर्पणान्वितैः।
नानाचित्रविचित्राढ्यैराश्रमं च सुसंस्कृतम्।४८।।

षोडशद्वारसंयुक्तं सुदीप्तं रत्नदीपकैः।
रत्नसिंहासने रम्ये महार्घमणिनिर्मिते।४९।

नानाचित्रविचित्राढ्ये वसन्तं वरमीश्वरम्।
नवीननीरदश्यामं किशोरवयसं शिशुम्।५०।

शरन्मध्याह्नमार्त्तण्डप्रभामोचकलोचनम्।
शरत्पार्वणपूर्णेन्दुशुभदीप्तिमदाननम्।५१।

कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितमन्मथम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टं पुष्टं श्रीयुक्तविग्रहम्।५२।

सस्मितं मुरलीहस्तं सुप्रशस्तं सुमङ्गलम् ।
परमोत्तमपीतांशुकयुगेन समुज्ज्वलम्।५३।

वीक्षितं गोपिकाभिश्च वेष्टिताभिस्समन्ततः।
स्थिरयौवनयुक्ताभिः सस्मिताभिश्च सादरम्। ५४।


अनुवाद- (४४-५४)
• मुने ! वह वृन्दावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है। वहाँ सैकड़ो शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। स्वर्ण निर्मित लक्ष्य कोटि के मनोहर आश्रम हैं।४४-४५।

• जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यंत दीप्तिमान एवं श्री संपन्न दिखाई देता है। उन सबके मध्य भाग में एक परम मनोहर आश्रम है जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है। वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है।४६।

• उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभ मणि से हुआ है। इसलिए वह उत्तम ज्योति पुंज से जाज्वल्यमान रहते हैं।

उन भवनों में जो सीढ़ियां हैं वे दिव्य हीरे के सारतत्व से बनी हुई है। उनसे उन भवनों का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है।४७।

• मणीन्द्रसार से निर्मित वहाँ के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं। नाना प्रकार के चित्र -विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली भाँति सुसज्जित है।४८।

• उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यन्त उद्भासित होता है। वह बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित है।४९।

• तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्री कृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अंक कान्ति नवीन मेघमाला के समान श्याम है वे किशोर अवस्था के बालक हैं। ५०।

• उनके नेत्र शरद काल की दोपहरी की सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं।५१।

• उनका मुखमण्डल शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौन्दर्य कोटि कामदेव को लावण्य लीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है।५२।

• उनके मुख पर मुस्कुराहट खेलती रहती है उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपांगनाएं उन्हें सदा सादर निहारती रहती है।५३।

• वे गोपांगनाएं भी सुस्थिर यौवन से युक्त मन्द मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्न के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं।५४।

            
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोक -५२-५३ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं। अथवा जानते नहीं ]

भूषिताभिश्च सद्रत्ननिर्मितैर्भूषणैः परम्।
एवंरूपमरूपं तं मुने ध्यायन्ति वैष्णवाः।६१॥

सततं ध्येयमस्माकं परमात्मानमीश्वरम्।।
अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम्।६२।।

स्वेच्छामयं निर्गुणं च निरीहं प्रकृतेः परम्।।
सर्वाधारं सर्वबीजं सर्वज्ञं सर्वमेव च।६३।।

सर्वेश्वरं सर्वपूज्यं सर्वसिद्धिकरं प्रदम्।।
स एव भगवानादिर्गोलोके द्विभुजः स्वयम्।६४।

गोपवेषश्च गोपालैः पार्षदैः परिवेष्टितः।।
परिपूर्णतमः श्रीमान् श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः।६५।

अनुवाद -६१-६५-
• मुने ! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं। वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं
को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है। ६१-६२।

• वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान है। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ,सर्व स्वरुप है।६३।।

• सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा संपूर्ण सिद्धियों को हाथ में देने वाले हैं। वे आदि पुरुष भगवान स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं।६४।

•उनकी वेशभूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों (गोपों) से घिरे रहते हैं। उन परिपूर्णतम भगवान को श्रीकृष्ण कहते हैं। वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं।६५।

              
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में श्लोकों (६५) की बात भी नहीं बाताना चाहतें हैं।]

 इसके अलावा ऋग्वेद मण्डल (१) के सूक्त- (154) की ऋचा (6) में भी गोलोक का वर्णन मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि- गोलोक में भूरिश्रृंगा गायें रहती है इसीलिए उस परमधाम को गोलोक अर्थात्  गायों का लोक कहा जाता है।

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि॥६।।
पदों के अर्थ व अन्वय:-
जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र)= जहाँ (अयासः)= प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः)= स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः)= गायें हैं (ता)= उन ।(वास्तूनि)= स्थानों को (वाम्)= तुम को  (गमध्यै)= जाने को लिए (उश्मसि)= इच्छा करते हो।  (उरुगायस्य)= बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः)= सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का (परमम्)= उत्कृष्ट (पदम्)= स्थान  (भूरिः)= अत्यन्त (अव भाति) =उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्)= उसको (अत्राह)= यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥६।

अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥

 (ऋग्वेद १/२२/१८)
इस ऋचा के पद-भेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्)= धारण करता हुआ ।  (गोपाः)= गोपालक रूप, (विष्णुः)= संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि)= क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को ।18॥

अर्थात् यह बात वेदों से भी सुनिश्चित हुयी कि - परमेश्वर श्रीकृष्ण का सनातन निवास गोलोक है, जहाँ वे गोप-वेष में अपनी गायों तथा गोपों के साथ रहते हैं और गोप-वेष में ही रहकर धर्म की स्थापना बारम्बार करते है।
            
✳️[ ज्ञात हो अधिकांश कथावाचक अपनी कथाओं में ऋग्वेद की ऋचा १/२२/१८ की बात नहीं बाताना चाहतें हैं।]

इस प्रकार से यह अध्याय- (दो) भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
अब इसके अगले अध्याय -(३) में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।   

    


                          

       अध्याय तृतीय-(३)   

श्री कृष्ण ही एकमात्र परम प्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- (३०) के कुछ प्रमुख श्लोकों से होती है।
जिसमें नारायण मुनि नारद जी को बताते हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -

"चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम्।।६।

  
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः।। ७।   

    
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः ।।८।


गोलोकनाथस्य विभोर्यशोऽमलं श्रुतौ पुराणे नहि किञ्चन स्फुटम्।
न पाद्ममुख्याः कथितुं समर्थाः सर्वेश्वरं तं भज पाद्ममुख्यम् ।।९।

विश्वेषु सर्वेषु च विश्वधाम्नः सन्त्येव शश्वद्विधिविष्णुरुद्राः ।।
तेषां च संख्याः श्रुतयश्च देवाः परं न जानन्ति तमीश्वरं भज ।।१०।

करोति सृष्टिं स विधेर्विधाता विधाय नित्यां प्रकृतिं जगत्प्रसूम्।
ब्रह्मादयः प्राकृतिकाश्च सर्वे भक्तिप्रदां श्रीप्रकृतिं भजन्ति ।।११।


ब्रह्मस्वरूपा प्रकृतिर्न भिन्ना यया च सृष्टिं कुरुते सनातनः।
श्रियश्च सर्वाः कलया जगत्सु माया च सर्वे च तया विमोहिताः।।१२।


नारायणी सा परमा सनातनी शक्तिश्च पुंसः परमात्मनश्च।
आत्मेश्वरश्चापि यया च शक्तिमांस्तया विना स्रष्टुमशक्त एव ।। १३।

अनुवाद -
•  जिनके नेत्रों के पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर किसकी सामर्थ्य है ? हे नारद ! तुम भी श्री हरि के चरणारविंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६।

• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद ! हम और तुम उन भगवान की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं।७।

• सहस्र शिरो वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण अथवा स्थापित करते है। वे भी भगवान कूर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कूर्म भी श्री कृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं।८।

• गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु (श्रीकृष्ण ) की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान का भजन  करो।९।

• सभी ब्रह्माण्डों में सर्वदा सार्वभौम निवास उन परमेश्वर के प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र विद्यमान हैं।
इन देवताओं की संख्या असंख्य है  और देवता भी उस भगवान के  परम - स्वरूप को नहीं जानते हैं। उस परमेश्वर का भजन करो।१०।

 अर्थात- जो सृष्टिकर्ता एक  नियम से सृष्टि सर्जन करता है वह भी उस शाश्वत प्रकृति का चिन्तन करता है जो ब्रह्माण्ड की जननी है। ब्रह्मा और अन्य तथा सभी प्राकृतिक प्राणीयों को भक्ति प्रदान करने वाली  इस भाग्य की देवी की पूजा करते हैं।)
प्रकृति ब्रह्मस्वरूप है वह उससे भिन्न नहीं है जिससे नित्य सृष्टि होती है। संसार की सारी सुंदरता और सारी माया उसकी कलाओं से  विमोहित हो जाती है।१२।

• नारायणी मनुष्य और परमात्मा की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति है। यहां तक कि आत्मा का स्वामी भी उसके बिना, जो सर्वशक्तिमान है, सृजन करने में असमर्थ है।१३।
            
भगवान श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर एवं ऐश्वर्यशाली होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के  अध्याय- २१ के श्लोक संख्या- (४३) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।।४३।

अनुवाद -
• वह परमेश्वर  सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।

और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -(१०) के श्लोक संख्या (१७) से (१८)और (१९) में भी मिलता है -

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१७।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम्।।१८।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम्।।१९।

अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोर वय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है;  वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।

परम्- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।

• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा  मुस्कान और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।

इन श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(६७) के श्लोक संख्या - (४९) से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-

"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि"।४९।


अनुवाद-  हे राधे !  मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं वे इसी सत्य को राधा जी से कहते हैं।"  
          
 इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-( ११ ) के श्लोक संख्या- (१६) में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत  संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-

"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।

अनुवाद:-
• गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं, और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील  वैष्णव इस भू-मंडल में नहीं है।१६।                        
इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- (6) के श्लोक संख्या- (४२- ४३- ४४ -४५-४६ -४७) और (४८) में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-

"देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः।।४२।


"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३।

"ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः।।४४।

"अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।

"सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।

"भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।

"सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८।


अनुवाद:-
• हे देवो ! मैं  काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२।

• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- स्रष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३।

• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४।

• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।
• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।४६।

• भक्त मेरे अनुयायी (मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।४७।

• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक( डर और शंका रहित) और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं।४८।                        
ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

"अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज।    साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।६३।
                         
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।६४।
अनुवाद-
• मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।

• ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
                  
इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय-(२१) के श्लोक संख्या -(४१ और ४२) में लिखा गया है कि -

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम्।। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम्।४१।

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम्।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम्।४२।

अनुवाद-

• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं।४१।

• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति की गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२।

फिर भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता उस समय सिद्ध होती है। जब भगवान श्रीकृष्ण एक समय राधा जी को अपने बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं थीं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त-पुराण के श्री कृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय -(६६) के श्लोक संख्या -(५० से ५९) तक के श्लोकों में मिलता है।
जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि -
"आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा। ५०।

केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा।५१।

सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः।५२।

अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।

अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः।५४‌।

भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु। ५५।

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६।।

अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चांशतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वांशेन सुभगा तथा । ५७।

तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।५८।

मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९।।

अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियाँ है ।५०-५१।

• प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ।५२।।

• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।

• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता (सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।

• प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।

• वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह) में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५६।।

• विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो।५७।।

• उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश( शिव ) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं।५६।

• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।   
    
अतः उपरोक्त श्लोक के आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा श्रीकृष्ण ही परम परमेश्वर हैं।
इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्री कृष्ण गोलोक में सृष्टि-सृजन  का कार्य करते हैं।

उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियां, उनके  जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी  भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
        
इस बात की पुष्टि-ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(३४) के श्लोक संख्या-(५७) (५- ५९ ) और (६०) से होती है। जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में वर्णित है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -

"चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः।५७।।

"लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः।५८।

"रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।५९।

"ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः।
तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।६०।

"तस्य ज्ञाने विलीनश्च बभूवाथ क्षणं हरेः।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्व शक्तयः।६१।

सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।६२।

श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः।
पद्मांशभूता पद्मायां सा राधायां च सुव्रते।६३।

गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वा वै देवयोषितः।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु सा स्थिता ।६४।

सावित्री च सरस्वत्यां वेदशास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां तस्यैव परमात्मनः।६५।

गोलोकस्थस्य गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनः।६६।

अनुवाद:- (५७ - ६६)
• उस परम्-ब्रह्म परमात्मा के नेत्र - निमीलन (आँखें बन्द करने पर)  प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर  जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले  ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७। 

•और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्-विष्णु में (श्रीकृष्ण) में विलय हो जाते हैं। अर्थात्- इसी क्रम में क्षीरोदशायी विष्णु-नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु  गोपेश्वर श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं।५८।

•  रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।

• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।

• संपूर्ण शक्तियां विष्णु माया दुर्गा में तिरोहित हो जाती है।६१।

• विष्णु माया दुर्गा भगवान श्री कृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है, क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री की देवी है। नारायण के अंश स्वामिकार्तिकेय उनके वक्षः स्थल में लीन हो जाते हैं।६२।

• सुब्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियां लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं।६३।

• गोपियां तथा संपूर्ण देवपत्नियां भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं।६४।

• सावित्री, वेद एवं संपूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। और सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती है।६५।

• गोलोक के संपूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोम कूपों लीन हो जाते हैं। और उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों की प्राण स्वरूप वायु का तथा उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का विलय हो जाता है।६६।
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इसी क्रम में श्रीराम तथा उनके चारो भाइयों सहित सीताजी को भी श्रीकृष्ण के विग्रह में विलीन हो जाने की पुष्टि- गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- (तीन) के श्लोक- (६-७),और (८) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -

"तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥ ६॥

*दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥ ७॥

"लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥ ८॥


अनुवाद - ६-८ • वे पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहां (गोलोक) में पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में सीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। ५-६।
• उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था उसपर निरंतर चम्बर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षा के कार्यों में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाएं फहर रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ स्वर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहां पधारे थे। वह भी श्रीकृष्णचंद्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गए।७-८।         
                   
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर) से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह (शरीर) में विलय भी उसी प्रकार कर लेते हैं। जैसे "मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेट लेती है। 
यही परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ- साथ आदि, अन्त और अनंत तथा सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्रीकृष्ण- सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संहार कर्ता भी है।
यह सृष्टिजगत परमात्मा श्री कृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है। और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- (४८) के श्लोक संख्या-(४८) और (४९) में स्वयं कहकर की हैं - जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-

"आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।४८।

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् ।४९।


अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।४८।

• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९।

फिर भगवान शिव- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-(१७ के श्लोक संख्या-६३) में कहते हैं -

"भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम्।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३।     
    
अनुवाद:- केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य है ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।६३।
            
इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परम प्रभु है, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उसमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम-भाव में स्थापित है। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ होती हैं। इसलिए वे ही  प्रथम सृजन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी है। इस बात को ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय- (३) का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवाँ दर्शाता हैं कि-

"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२।।


अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात (निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं। और जो काम -भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर , सबके बीज (मूल) और  सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।१२।

ध्यान रहे उपरोक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमर कोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम  जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम। अर्थ हुआ है।

नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह अर्थ बहुव्रीहि समास के द्वारा निर्धारित होता है।
ऐसे ही मनुस्मृति कार ने भी अनुत्तमम् पद  का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-

‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय- २ श्लोक संख्या-९)
  
अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस लोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख  प्राप्त करता है। ९।     
          
इन सबके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने बारे में बहुत कुछ कहते हैं  और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहते हैं। जिसे श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के रूप में जाना जाता है जैसे- श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय- (१०) के श्लोक संख्या- (१२ और ४२ ) में अर्जुन- श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-

"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।।१२।।

अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।१२।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रूपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही जानते हैं।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।४२
।।
अनुवाद- अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में है।४२।

परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- (९) के श्लोक - (१६-१७), और (१८) में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को बताते हैं कि-

"अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।।१६।

"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।

"गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८।


अनुवाद - क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ, और हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।१६-१७-१८।
               
अतः उपरोक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि  भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु है, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
  

भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला।
संस्कृत वैदिक भाषा में  भज् धातु विद्यमान है।
जिसका एक प्रमुख अर्थ- सेवा करना है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है।
अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में
सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को  निर्धारित करते हैं।
भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है।
दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है।
सेवा जब ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना मूलक हो जाती है तब वही सेवा  भक्ति कहलाती है।
भगवान-  भक्त- और भक्ति इस   सबके मूल मेंभज् धातु- ही विद्यमान है 

भज्- सेवायां +( घ ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
व्याकरणिक दृष्टि से भी 
भग शब्द  में + वतुप् प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है।
भज् धातु में + क्त प्रत्यय करने पर भक्त  शब्द (पद) बनता है। और    (भगवत् शब्द का  ही प्रथमा  विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् शब्द का है। 

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और भगवद् भक्ति में तल्लीन व्यक्ति  है वह भागवत है।

भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो  प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है।  कोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित  हैं।
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य ( कान्ति ) अथवा श्री -

इस संसार में भी व्यवहारिक रूप से  देखा जाय तो भी क्रमश: बलवान्-  धनवान- रूपवान- ( सुन्दर) आयुष्मान-(वयोवृद्ध)  और ज्ञानवान इन पाँच व्यक्तियों का ही क्रमोत्तर सम्मान होता है। ये ही महत्वपूर्ण होते हैं ये सभी व्यक्ति इस संसार किसी न किसी रूप में सम्मान के हकदार हैं।
वयोवृद्ध व्यक्ति के पास उसकी आयु के अनुसार अनुभवों का सञ्चय होता है। इसी लिए समाज उसका सम्मान करता है।

अत : उस वयोवृद्ध  को भी इस कारण  ज्ञानवान  के समान सम्मान मिलता ही है।

व्यक्ति जब  अपने इन सभी गुणों से सम्पन्न होकर संसार की जब परमार्थ हेतु सेवा करता है।  तब वह भगवत् पद का अधिकारी होता है।

अत: सन्तों , महापुरुषों को भी भगवन् कह कर सम्बोधित किया जाता है।
भगवान पद लौकिक और अलौकिक दोनों ईश्वरीय सत्ताओं का वाचक है।
ईश्वर शब्द भी ऐश्वर्य सम्पन्न अलौकिक साकार भगवत् सत्ता का वाचक है।

भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है।
वह ही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता  है।

दूसरे शब्दों में  जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है।
 
भक्त सायुज्य प्राप्त करके भगवद् - रूप  ही हो जाता है । जैसे एक जल बिन्दु  समुद्र में समाहित होकर स्वयं समुद्रमय हो जाता है।

शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णं भग इत्याङ्गना।११।।
(अग्निपुराण- अध्याय-३७९)

भगवान् =इत्युक्तलक्षणं षडैश्वर्य्यमस्त्यस्येति  भग + नित्ययोगे मतुप् मस्य वः = 


इसी प्रकार भगवान शब्द की परिभाषा को देवीभागवतपुराण में सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्योश्चैव सन्नाम भगवान्नीह ।। 

विष्णु पुराण-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः (५)

सार रूप से भगवद पद सांसारिक ऐश्वर्य से परे अलौकिक ऐश्वर्य के धारक का पर्याय है। जो भगवान है। जहाँ से यह सम्पूर्ण संसार जन्म लेता है वह ईश्वर भगवान है।
 भगोस्ति अस्मिन् इति 'भगवान-

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य" भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इस स्वरूप का अनुभव करता है।

शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्द्यते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥
श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म शब्द से अभिहित है,वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत या अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म कहलाते है।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥
श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महा शब्द भगवान परम बह्म
_ मय वासुदेव का वाचक है। किसी अन्य का नहीं।
___________ 

वही परं ब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
___________
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रमाण रूप में  तथ्य मने आते हैं। ऋग्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है।
अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अंतरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात
प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किंतु अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण भुवन उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
 जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  (गर्भे) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

  
               
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इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय-(तीन) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चार) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?


यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किंतु प्रश्न यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या  ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।

तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तन मयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो  ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण  है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
               
सृष्टि सर्जन के प्रारम्भिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या- (१ से ७) तथा (१८ से ३०) और (३१) में मिलता है। जिसमें सृष्टि के प्रारम्भिक क्रम को दर्शाते हैं।

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।


आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।


आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

अनुवाद- १- से ३१ तक-
• प्रलय काल के उपरान्त भगवान ने देखा की सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जन्तु नहीं है। १।

• तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की।२-३।

• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए।४-५।

• तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंग-कांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।६-७।

• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पांच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।१८।

• तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे। ३०-३१।
   
इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम प्रभु श्री कृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्रीकृष्ण के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि- कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्रीकृष्ण (स्वराट-विष्णु) के द्वारा ही होती है। इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                  
फिर सृष्टि- सर्जन के उसी क्रम में ब्रह्मा, शिव नारायण आदि की उत्पत्ति के समय ही गोपों की भी उत्पत्ति हुई। जिसका वर्णन- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(5) के श्लोक संख्या- २५, (४० और ४२) से होती है, जिसमें लिखा गया है कि -

"आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे।
२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।

अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम-पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर-वय थी।२५।

• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।

• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।

गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्रीराधा के समरूप इसलिए थे, क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्मतम इकाई रूप अर्थात उनके क्लोन से हुई हैं। इसलिए - सभी गोप श्रीकृष्ण के समरूप तथा सभी गोपियों श्रीराधा के समरूप उत्पन्न हुईं।

इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-  समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।

और विज्ञान के इस समरूप सिद्धान्त से परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूपण विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति  कर चुके हैं।

किन्तु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धान्त को आज अपनी उपलब्धियाँ मानकर फूले नहीं समा रहा है।
    
इस प्रकार से सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्रीराधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं  सहित परमात्मा श्रीकृष्ण ने भी स्वीकार किया है।

अब प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है ! कि राधा और कृष्ण तो द्वापर युग (आज से  लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए ) और आभीर अथवा गोप जाति तो सतयुग से ही अस्तित्व में है।

तो इसका समाधान यही है कि राधा और कृष्ण का गोलोक वासी रूप सनातन है। उसी से 
सत्युग के प्रारम्भ में गोलोक में ही गोपीयों और गोपों  की उत्पत्ति राधा और कृष्ण से हुई -

जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही दृष्टान्त सुनाया था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक संख्या- (४३) में मिलता है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।

अनुवाद -• श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोम कूपों से प्रारम्भिक रूप से गोलोक में ही हुई है। 
  
इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति  को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक संख्या -(६२) में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः
। ६२।
अनुवाद:- 
हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।

और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहते हैं- जब वे स्वयं भूतल पर गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित होते हैं।, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं।

और इसके  कुछ समय पश्चात उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श करते हैं।। उसी प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- 
"सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (५-६) और-(७) से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

"सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति॥५॥

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥

अनुवाद:- 
• तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५।

• प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाईये।६।

• क्योंकि ये समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब  समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमण्डल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े, तब उस समय दन्तवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ।
उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-( 11 ) के श्लोक संख्या-(२१और २२) में दन्तवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहा-

"नन्दो द्रोणो वसुः साक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः। गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परै:।२२।

अनुवाद-
नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वसु हैं, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण( आभीर) हैं, वे साक्षात श्रीकृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उत्पन्न हुई हैं। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वरों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है।२१-२२।
                 
इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति की है। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रहने दिया, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर उन्हें आना होता हैं, तो वे अपने गोपों के साथ ही आते हैं, और भूमि का भार-हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
            
गोलोक में जब भगवान श्री कृष्ण ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- एवं दायित्वों को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-(६ ) के श्लोक संख्या-(७१) और-(७२) में कहते हैं-

"मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ।७१।


इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम्।
जगाम सार्द्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ।
७२। 

अनुवाद-
• महाभाग विधे ! अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।

• ऐसा कह कर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृंदावन है)
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ करते हैं।
इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे संपूर्ण ब्रह्मांड में अनंत लोकों रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय सृष्टि  के चातुर्यवर्ण की भी रचना की है। जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों  की सामाजिक स्थितियां बनी है।
       
किंतु ब्रह्मा जी सबसे ऊपर वाले गोलोक और उससे क्रमशः नीचे शिव लोक और वैकुण्ठ लोक तथा गोप और गोपियों की सृष्टि रचना नहीं करते हैं। यहीं कारण है कि गोपों को ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना का भाग नहीं माना जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय-५ के श्लोक -१२ से १७ में  भी होती है
जो इस प्रकार है-

"ब्राह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः।
कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय।१२।

"ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः।
मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाज्ञया प्रभोः।१३।।

"वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्तां मग्नां रसातलात् ।
विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः।१४।


"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे ।
त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना।१५।


'एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे।
किंचिन्निरूपणं सृष्टे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१६।


"अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतांपतिः।
एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।१७।

   
अनुवाद -( १२ से १७ ) तक-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद (चर्बी) से मेदिनी ( पृथ्वी ) की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि- कर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी (तीन लोक) है, उसकी  रचना की। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुण्ठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है ) उसकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।     
कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिरस्थाई- वैकुण्ठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते। 
क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम-कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी, गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं ?

तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो स्पष्ट सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए होगें। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के भाग नहीं हैं तो इनका वर्ण क्या है ? अर्थात् ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- पांच और छः में किया गया है। वहां से इस विषय पर संपूर्ण जानकारी मिलेगी।
      
इस प्रकार से यह अध्याय इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं जिनसे सर्वप्रथम गोलोक में नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति हुई जो ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग हैं।
    
अब इसके अगले अध्याय- (५) में जानकारी दी गई है कि - वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति तथा दोनों में मूलभूत अन्तर एवं विशेषताएं क्या है ?

 

   

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