आत्मानन्द जी:
अध्याय- (१) एक
पूजा-अर्चना के विधि विधान एवं गलत कथाओं को सुनने व कहने के दुष्परिणाम।
समाज में एक कहावत प्रचलित है - "मांगो उसी से जो दे-दे खुशी से" अर्थात् कुछ पानें की अपेक्षा उसी से करनी चाहिए जो देने में सक्षम हो।
ठीक यहीं बात आध्यात्म में भी लागू होती है कि पूजा या अर्चना उसी की करनी चाहिए जो देने में सक्षम हो। अब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत में कौन ऐसा सामर्थ्यवान है, जिससे मांगने पर सबकुछ मिल सकता है ? तो इसका जवाब है "परमेश्वर"। तब फिर प्रश्न उठता है कि परमेश्वर कौन है ?
तो इस प्रश्न का सही जबाब पाना असम्भव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। क्योंकि शास्त्रों से लेकर जितने भी धर्मगुरु या धर्म प्रवर्तक हुए सभी ने अपने-अपने हिसाब से परमात्मा की विशेषताएं और परिभाषाएं बताएं हैं।
जैसे -
१- कोई उसे नूर कहा, तो कोई परम ज्योति कहा।
२- कोई उसे निर्गुण माना, तो कोई उसे सगुण माना।
३- कोई निराकार माना, तो कोई उसे साकार माना।
४- कोई उसे साकार और निराकार दोनों मना।
५- तो कोई उसे निर्गुण और सगुण दोनों माना।
इन उपरोक्त बातों पर यदि विचार किया जाय तो ये सभी बातें परमेश्वर को एक निश्चित दायरे में रखकर कही गईं हैं कि- परमेश्वर निर्गुण हैं, सगुण हैं या दोनों हैं। किंतु परमेश्वर तो सीमाओं से परे अनंत गुणों वाले हैं। जिनका कोई आदि है न अंत है। वे स्थूल से भी स्थूलतम और सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हैं। उनके लिए सगुण, निर्गुण, निराकार, साकार, निर्विकल्प, निर्लिप्त, प्रारंभ, अंत, अनंत, शून्य, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी इत्यादि जितना भी कहा जाय कम ही है।
तब प्रश्न उठता है जब परमेश्वर श्रीकृष्ण ही सबकुछ हैं तो इस माया नगरी मे जहां अनेकों छद्म- वेषधारी अपनी कथाओं के माध्यम से ३३ करोड़ देवी-देवता को पूजने को कहते हों, और स्वयं को अपने भक्तों से पुजवाते हों, ऐसी विकट स्थिति में अनंत गुणों वाले परमात्मा को कैसे पहचाना जाय कि यहीं परमप्रभु परमेश्वर हैं ?
( तो इन सभी प्रश्नों का समाधान अध्याय- (दो) और (तीन) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि- परमप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण ही है। उनके अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है। वहां से इस संबंध में विस्तार पूर्वक जानकारी ले सकते हैं।)
फिर भी यहां पर उससे संबंधित कुछ जानकारी अवश्य दी गई है कि- वास्तव में श्री कृष्ण ही परमप्रभु परमेश्वर हैं। उनको किसी एक गुण से नहीं जाना जा सकता। फिर भी यदि उसको गुणों के आधार पर देखा जाए तो उनके अनंत गुण है। उसमें भी देखा जाए तो वे साकार, निराकार, निर्गुण, सगुण इत्यादि सबकुछ हैं।
जहां तक उनको साकार और निराकार होने का प्रश्न है तो परमेश्वर प्रलय काल में निराकार रूप में रहते हैं किंतु जब वे सृष्टि करतें हैं तो साकार रूप में हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि- श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ४ के श्लोक- ७ में परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७
अनुवाद - जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
इसी तरह से परमेश्वर को सगुण और निर्गुण इत्यादि होने के संबंध में श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय- १० के श्लोक संख्या- १२ में भी होती है। जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरूषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभूम्।। १२
अनुवाद - परम ब्रह्म, परमधाम, और महान पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष,आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक है।
व्याख्या- निर्गुण निराकार के लिए- परं ब्रह्म,
सगुण निराकार के लिए- परं धाम, और सगुण साकार के लिए- "पवित्रं परमं भवान्", इत्यादि रुपों में तत्वज्ञानी परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं।
परम प्रभु श्री कृष्ण का और विस्तृत रूप श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक - १६,१७, और १८ में मिलता है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को अपने बारे में बताए हैं कि-
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हतम्।। १६
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च।। १७
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। १८
अनुवाद - क्रतु मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा मैं हूं, औषध मैं हूं, मंत्र मैं हूं, घृत मैं हूं, अग्नि मैं हूं, और हवन रूप क्रिया
भी मैं हूं। जानने योग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद सामवेद, और यजुर्वेद, भी मैं ही हूं। इस संपूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद् ,उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भंडार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। १६,१७,१८
इस प्रकार से देखा जाए तो भगवान श्रीकृष्ण ही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। बाकी- 33 करोड़ देवी-देवता तो उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंश भूत शक्तियां, कला और कलांश हैं। इन सभी बातों की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -१० के श्लोक संख्या १७,१८,और १९ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।। १७
स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।। १८
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।। १९
अनुवाद- द्विभुज धारी, किशोर वय, गोप वेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है, वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं। १७
• परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति- मुनि गणों के साथ करते हैं। १८
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षी रूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं। १९
कुछ इसी तरह की बातें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २1 के श्लोक- ४३ में भी लिखी गई है जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण को ही परमेश्वर कहा गया है, और यह भी बताया गया है -
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।। ४३
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३
कुछ इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक- ६ से ८ में भगवान श्री कृष्ण को परमप्रभु परमेश्वर बताया गया है। जिसमें मुनि नारायण, नारद को बताएं हैं कि- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विराट विष्णु इत्यादि श्री कृष्ण के अंश, कलांश और कला विशेष हैं -
चक्षुर्निमेषपतितो जगतां विधाता तत्कर्म वत्स कथितुं भुवि कः समर्थः।
त्वं चापि नारद मुने परमादरेण सञ्चिन्तनं कुरु हरेश्चरणारविन्दम् ।। ६
यूयं वयं तस्य कलाकलांशाः कलाकलांशा मनवो मुनीन्द्राः ।
कलाविशेषा भवपारमुख्या महान्विराड् यस्य कलाविशेषः ।। ७
सहस्रशीर्षा शिरसः प्रदेशे बिभर्त्ति सिद्धार्थसमं च विश्वम् ।
कूर्मे च शेषो मशको गजे यथा कूर्मश्च कृष्णस्य कलाकलांशः।। ८
अनुवाद - जिनके नेत्रों की पलक गिरते ही जगत स्रष्टा ब्रह्मा नष्ट हो जाते हैं, उनके कर्म का वर्णन करने में भू-तल पर कौन सामर्थ्य है? तुम भी श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के चरणारविंद का अत्यंत आदर पूर्वक चिंतन करो। ६
• नारायण मुनि ने कहा - हे नारद! हम और तुम उन भगवान (श्रीकृष्ण) की कला के अंश मात्र ही हैं। महादेव और ब्रह्मा जी भी कलाविशेष है और महान विराट पुरुष भी उनकी विशिष्ट कलामात्र हैं। ७
• सहस्त्र शिरो वाले शेषनाग संपूर्ण विश्व को अपने मस्तक पर सरसों के एक दाने के समान धारण करते हैं। वो भी भगवान कुर्म (कछुआ) के पृष्ठ (पीठ) भाग में ऐसे जान पड़ते हैं, मानो हाथी के ऊपर मच्छर बैठ हो। वे भगवान कुर्म भी श्री कृष्ण की कला के कलांश मात्र हैं। ८
ऐसी ही बात ब्रह्मवैवर्तपुराण- के श्री कृष्ण जन्म खंड के अध्याय- ६६ के श्लोक संख्या - ५६ में भी लिखी गई है कि- ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि प्रमुख देवता श्रीकृष्ण के अंश और कलांश है। जो श्रीकृष्ण और राधा संवाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि -
अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।। ५६
अनुवाद - उस विराट विष्णु के रोम कूपों में स्थित प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) आदि देवता, मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं। ५६
अतः उपर्युक्त सभी श्लोकों से स्पष्ट होता है कि- परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। बाकी ३३ करोड़ देवी-देवता उनसे उत्पन्न उन्हीं की अंशभूत शक्तियां हैं। उसमें भी जो तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश है, वो भी श्रीकृष्ण से उत्पन्न उन्हीं के
कला और कलांश हैं।
तब पुनः प्रश्न उठता है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण जो परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, सर्व सामर्थ्यवान हैं, तो उनको छोड़कर मनुष्य ३३ करोड़ देवी- देवताओं की पूजा अर्चना क्यों करता है ? तो इसका जबाब है अज्ञानता। क्योंकि मनुष्य इस माया नगरी में पाखंडवाद के भ्रम जाल में फंसकर यह भेद नहीं कर पाता कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चना करनी चाहिए या उनसे उत्पन्न ३३ करोड़ देवी-देवताओं की। इसके साथ ही वह यह भी नहीं जान पाता कि- किस देवी देवता की पूजा करने से कौन-कौन सा लाभ और पद प्राप्त होता है। और जो मनुष्य इस रहस्य को जान लिया समझो वह परमेश्वर को भी समझ लिया और मोक्ष को प्राप्त कर लिया। इस लिए परमेश्वर श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
परमप्रभु श्रीकृष्ण का ही सर्वदा ध्यान व पूजा अर्चना करने की शिफारिश प्रमुख देवताओं ने भी किया है।
जैसे -
शिव जी पार्वती को श्री कृष्ण की ही आराधना करने को कहते हैं। जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- ४८ के श्लोक संख्या- ४८ और ४९ में मिलता है। जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि -
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् । ४८
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् । ४९।
अनुवाद- • हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है। ४८
• केवल त्रिगुणातीत परमब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं। अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो शिव जी स्वयं पार्वती को श्री कृष्ण की आराधना करने को कहते हैं। और यह शिव वाणी है। क्या इससे भी बड़ी कोई वाणी मृत्युलोक में हो सकती है ? जबाब होगा नहीं।
इसी तरह की बात ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- २१ के श्लोक- ४३ में भी लिखी गई है। जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण का ही ध्यान व पूजा अर्चना करनी चाहिए।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम्।। ४३
अनुवाद - • वह परमेश्वर सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही परम सत्ता के साक्षी रूप हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे ही सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए। ४३
मगर सवाल यह है कि क्यों श्रीकृष्ण का ही ध्यान व आराधना करनी चाहिए ? क्या ३३ करोड़ देवी-देवताओं और उसमें भी शिव, विष्णु इत्यादि प्रमुख देवताओं के ध्यान व आराधना से कोई लाभ नहीं ? तो इसका जबाब है- देवताओं को पूजने वाले को भी अवश्य फल मिलता है, किंतु जिस देवता का जो पद होगा और जितना उसका सामर्थ्य होगा उसी हिसाब से उसके भक्तों को भी लाभ और पद प्राप्त होता है। उससे अधिक उसको कुछ भी नहीं प्राप्त होता। अर्थात् इसका मतलब यह हुआ कि जो देवताओं को पूजेगा वह देवताओं को प्राप्त होगा, भूतों को पूजने वाला भूत-प्रेतों को प्राप्त होगा और जो परमेश्वर को पूजेगा वह परब्रह्म श्रीकृष्ण को प्राप्त होगा। इस बात को गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय- ७ के श्लोक - २३ में स्वयं कहें हैं कि -
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यानि मापपि।। २३
अनुवाद - तुक्ष बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अंत वाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। २३
ऐसी ही बात श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक संख्या- २५ में भी लिखी गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। २५
अनुवाद - देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं। २५
पुनः भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत पुराण के अध्याय- १८ के श्लोक -६५ और ६६ में कहते हैं कि -
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। ६५
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ६६
अनुवाद - तू मेरा भक्त हो जा, मुझ में मनवाला हो ज
ा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है
६५
संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में
आजा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर। ६६
परमेश्वर श्री कृष्ण की भक्ति भी बहुत ही सरल व आसान है। इस संबंध में भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों के लिए श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय- ९ के श्लोक -२६ में कहते हैं कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। २६
अनुवाद - जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल, आदि को प्रेम पूर्वक मुझे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूं अर्थात स्वीकार कर लेता हूं। २६
व्याख्या - देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परंतु भगवान (श्री कृष्ण) की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान की उपासना में प्रेमकी,अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं। क्योंकि भगवान भाव ग्राही है क्रियाग्राही नहीं।
अंततोगत्वा श्रीमद्भागवत गीता के उपरोक्त श्लोक से यही निष्कर्ष निकलता है कि- परमेश्वर श्री कृष्ण की ही भक्ति, आराधना व ध्यान करने से मनुष्य का कल्याण संभव है। इधर उधर भटकने से नहीं।
तब ऐसे में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि भक्तों के लिए पूजा व आराधना का फल- परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित अन्य देवी देवताओं का कितना होता है। तो इसका विस्तार पूर्वक वर्णन- श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -(३०) में मिलता है। जिसमें परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित छोटे-बड़े सभी देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के लाभ व फलों को बड़े ही सारगर्भित ढंग से बताया गया है। जिसमें सबसे पहले परमेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान व पूजा अर्चना से श्रीकृष्ण भक्तों कौन सा लाभ व पद प्राप्त होता है, उसका वर्णन किया गया है। इसके बाद अन्य देवी देवताओं के भक्तों को उनसे मिलने वाले फलों का वर्णन किया गया है। ताकि लोग श्रीकृष्ण की कही हुई उस बात को समझ सकें कि- "देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं"।
परमेश्वर श्रीकृष्ण के भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उसका वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ६९ से ७० और ८५ से ८९ में मिलता है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों के बारे में बताया गया है कि -
करोति भारते यो हि कृष्णजन्माष्टमीव्रतम् ।
शतजन्मकृतं पापं मुच्यते नात्र संशयः ॥ ६९
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य कृष्णे भक्तिंलभेद् ध्रुवम्॥ ७०
अनुवाद - भारतवर्ष में जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह अपने सौ जन्मों में किये गये पापों छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। और जबतक चौदहों इन्द्रों की स्थिति बनी रहती है, तब-तब वह वैकुण्ठलोक में आनन्दका भोग करता है। इसके बाद वह पुनः उत्तम योनि में जन्म लेकर निश्चित रूप से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करता है। ६९-७०
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्त श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत के उपरांत पापों से मुक्त होकर दीर्घ काल के लिए गोलोक धाम को तो प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि वे दीर्घ काल के पश्चात पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है। अर्थात् वह अभी आवागमन से मुक्त नहीं हो सका।
तब प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण भक्त आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगा ? तो इसका उत्तर इसके अगले श्लोक- ८५ से ८९ में दिया गया है, जिसमें बताया गया है कि श्रीकृष्ण भक्तों को कैसे मोक्ष की प्राप्ति होगी।
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा॥ ८५
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह।
भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश॥ ८६
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्॥ ८७
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः॥ ८८
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत्॥ ८९
अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकारके पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थिति पर्यन्त गोलोक में निवास करत
ा है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्यागके अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है। ८५-८९
यहां पर श्रीकृष्ण भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाए तो श्रीकृष्ण भक्तों के लिए मोक्ष हेतु सबसे उत्तम उपाय- "कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकारके पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधा सहित श्रीकृष्ण की पूजा करना है। यदि श्रीकृष्ण भक्त ऐसा करता है तो वह निश्चित रूप से श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त कर वह मोक्ष को भी प्राप्त होगा इसमें संदेह नहीं है।
किंतु देवी-देवताओं को पूजने वाले कभी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। क्यों नहीं मोक्ष को प्राप्त होते ? तो इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ प्रमुख देवी-देवताओं के पूजन विधि और उसके लाभ को जानना होगा। उसमें से कुछ प्रमुख देवी-देवताओं की भक्ति से मिलने वाले फलों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। जैसे -
शिव भक्तों को जो-जो लाभ व पद प्राप्त होता है उन सभी का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के अध्याय- (३०) के श्लोक - ७१ से ७५ में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -
इहैव भारते वर्षे शिवरात्रिं करोति यः ।
मोदते शिवलोके स सप्तमन्वन्तरावधि ॥ ७१
शिवाय शिवरात्रौ च बिल्वपत्रं ददाति यः।
पत्रमानयुगं तत्र मोदते शिवमन्दिरे ॥ ७२
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य शिवभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
विद्यावान्पुत्रवाञ्छ्रीमान् प्रजावान्भूमिमान्भवेत् ॥ ७३
चैत्रमासेऽथवा माघे शङ्करं योऽर्चयेद्व्रती ।
करोति नर्तनं भक्त्या वेत्रपाणिर्दिवानिशम् ॥ ७४
मासं वाप्यर्धमासं वा दश सप्त दिनानि च ।
दिनमानयुगं सोऽपि शिवलोके महीयते ॥ ७५
शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्गं च पार्थिवम् ।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ ११०
मृदो रेणुप्रमाणाब्दं शिवलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ॥ १११
अनुवाद - • इस भारतवर्ष में जो मनुष्य शिवरात्रि का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों के काल तक शिवलोक में आनन्दसे रहता है। 71
• जो मनुष्य शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकरको बिल्वपत्र अर्पण करता है, वह बिल्वपत्रों की जितनी संख्य है उतने वर्षों तक उस शिवलोक में आनन्द भोगता है। पुनः श्रेष्ठ योनि प्राप्त करके वह निश्चय ही शिवभक्ति प्राप्त करता है और विद्या, पुत्र, श्री, प्रजा तथा भूमि- इन सबसे सदा सम्पन्न रहता है। 72-73
• जो व्रती चैत्र अथवा माघ में पूरे मास भर, आधे मास, दस दिन अथवा सात दिन तक भगवान् शंकर की पूजा करता है और हाथ में बेंत लेकर भक्तिपूर्वक उनके सम्मुख नर्तन करता है, वह उपासना के दिनों की संख्या के बराबर युगों तक शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। 74-75
• जो मनुष्य प्रतिदिन पार्थिव लिंग बनाकर शिव की पूजा करता है और जीवन पर्यन्त इस नियमका पालन करता है, वह शिवलोक को प्राप्त होता है और उस पार्थिव लिंग में विद्यमान रजकणों की संख्या के बराबर वर्षों तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहां से पुनः भारतवर्ष में
जन्म लेकर वह महान् राजा होता है। ११०- १११
उपरोक्त श्लोकों पर यदि विचार किया जाय तो शिव भक्त निश्चित रूप से शिवलोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह उस लोक तक नहीं पहुंच पाता जो शिवलोक से पचास करोड़ उपर है। जिसका नाम है "गोलोक" जो नित्य एवं चिरस्थाई है। वहां पहुंचने के बाद मनुष्य आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। किंतु शिव भक्त शिवलोक तक ही रह जातें हैं और पुनः मृत्यु लोक में आकर जन्म लेते हैं- (कौन सा लोक कहां स्थापित हैं इसकी विस्तृत जानकारी अध्याय- (दो) में दी गई है।)
कृ.प.उ.
अध्याय -(१) भाग -2
इसी तरह से श्रीहरि (विष्णु) भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय-(३०) के श्लोक- १०५ और १०६ में बताया गया है कि विष्णु की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौनसा पद और स्थान प्राप्त होता है-
विद्वान्सुचिरजीवी च श्रीमानतुलविक्रमः ।
यो वक्ति वा ददात्येव हरेर्नामानि भारते ॥ १०५
युगं नाम प्रमाणं च विष्णुलोके महीयते ।
ततः पुनरिहागत्य स सुखी धनवान्भवेत् ॥ १०६
अनुवाद- भारतवर्ष में जो मनुष्य भगवान श्री हरि (विष्णु) के नामका स्वयं कीर्तन करता है अथवा इसके लिए दूसरों को प्रेरणा देता है वह जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है और वहां से पुनः इस लोक (मृत्युलोक) में आकर वह सुखी तथा धनवान होता है। १०५-१०६
विष्णु भक्तों से संबंधित उपरोक्त श्लोकों पर विचार किया जाए तो विष्णु भक्त भी निश्चित रूप से विष्णुलोक को प्राप्त होता है और वह विष्णु के जपे गए नामों की संख्या के बराबर युगों तक विष्णुलोक में निवास भी करता है। इसके बाद जब उसके जपे हुए नाम की संख्या पूरी हो जाती है तब उसे पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। अर्थात वह विष्णु लोक प्राप्त होने के बाद भी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सका।
यहां पर कुछ लोगों को संशय हो सकता है कि विष्णु और श्रीकृष्ण एक ही है। किंतु ऐसी बात नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश से विराट पुरुष (विराट विष्णु) और विराट विष्णु के एक अंश से अनंत विष्णु अनंत ब्रह्मांड में रहते हैं, जो श्रीकृष्ण के कुछ अंशों से श्रीकृष्ण का प्रतिनिधित्व किया करते हैं। इस बात को कम ही लोग जानते हैं। इसी अज्ञानता के कारण है अधिकांश- कथावाचक और कुछ पुराण भी श्री कृष्ण को विष्णु से उत्पन्न बताते हैं जो ज्ञान की उल्टी धारा बहाने के समान है। (कौन देवता कब और कैसे उत्पन्न हुआ है इसकी विस्तृत जानकारी इस पुस्तक के अध्याय- (४) में दी गई है। वहां से इस विषय पर विस्तृत जानकारी ली जा सकती है)
इसी तरह से "श्रीराम" भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३०) के श्लोक- ७६ और ७७ में बताया गया है कि श्रीराम की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है-
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे ॥ ७६ ॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत् ॥ ७७ ॥
अनुवाद - जो मनुष्य भारतवर्ष में श्रीरामनवमी का व्रत सम्पन्न करता है, वह विष्णुके धाम में सात मन्वन्तर तक आनन्द करता है। पुनः उत्तम योनि में जन्म पाकर वह निश्चय ही रामकी भक्ति प्राप्त करता है और जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा महान् धनी होता है। ७६- ७७
अब यहां पर श्री राम भक्तों पर विचार किया जाए तो श्रीराम भक्त भी निश्चित रूप से विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। किंतु वह पुनः मृत्युलोक में उत्तम योनि में जन्म लेता है और महाधनी होता है। श्रीराम भक्तों के बारे में ऐसा ही श्लोक में लिखा गया है। किंतु यहां विचार किया जाए तो रामभक्त विष्णु लोक पहुंचे कर भी आवागमन से मुक्त नहीं हो सका। अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सका। क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य परम धाम गोलोक को प्राप्त होता है। जो सभी लोकों से ऊपर से उपर है। वहां जाने के बाद मनुष्य को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता अर्थात वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
इसी तरह से "देवी सावित्री और सरस्वती" जो दोनों ही ब्रह्म जी की पत्नियां मानीं जाती हैं। जिनका मुख्य स्थान ब्रह्मलोक है। उनके भक्तों के बारे में भी श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय -(३० ) के श्लोक- ९७ से ९९ में बताया गया है कि देवी सावित्री और सरस्वती की आराधना व पूजा करने वाले भक्तों को कौन सा पद और स्थान प्राप्त होता है-
भारतं पुनरागत्य चारोगी श्रीयुतो भवेत् ।
ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीं यो हि पूजयेत् ॥ ९६
महीयते ब्रह्मलोके सप्तमन्वन्तरावधि ।
पुनर्महीं समागत्य श्रीमानतुलविक्रमः ॥ ९७
चिरजीवी भवेत्सोऽपि ज्ञानवान्सम्पदा युतः ।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां पूजयेद्यः सरस्वतीम् ॥ ९८
संयतो भक्तितो दत्त्वा चोपचाराणि षोडश ।
महीयते मणिद्वीपे यावद्ब्रह्म दिवानिशम् ॥ ९९
अनुवाद - जो मनुष्य ज्येष्ठ मासके कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथिको भगवती सावित्री का पूजन करता है, वह सात मन्वन्तरों की अवधि तक ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। पुनः पृथ्वी पर लौटकर वह श्रीमान अतुल पराक्रमी, चिरंजीवी, ज्ञानवान् तथा सम्पदा सम्पन्न हो जाता है। 96-97
• जो मनुष्य माघ महीने के शुक्लपक्ष की पंच
मी तिथिको भक्तिपूर्वक सोलहों प्रकारके पूजनोपचारों को अर्पण कर सरस्वती को पूजा करता है, वह ब्रह्माके आयु पर्यन्त मणि द्वीप में दिन-रात प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और पुनः जन्म ग्रहण कर महान् कवि तथा पण्डित होता है। 98-99
उपरोक्त श्लोकों को पर यदि विचार किया जाए तो ब्रह्मा जी की दोनों पत्नियों के भक्त ब्रह्मा जी के लोक, ब्रह्मलोक को अवश्य प्राप्त होते है जो शिव लोक और बैकुंठ लोक से बहुत नीचे है। किंतु इन दोनों देवियों के भक्त मृत्युलोक में पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार से इन देवियों के भक्त भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते। ऐसा ही उपरोक्त श्लोकों में लिखा गया है।
अतः पूजा अर्चना के उपरोक्त सभी श्लोकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि- देवी- देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही होता है और उनके भक्त उन्हीं को प्राप्त होते हैं। किंतु परमेश्वर श्रीकृष्ण को पूजने वाला श्रीकृष्ण को प्राप्त होकर गोलोक में गोप होकर उनका पार्षद हो जाता है। तब वह श्रीकृष्ण के ही रूप व स्वरूप में विलीन हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा जाता है।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि जब देवी-देवताओं को पूजने का परिणाम अल्प ही है तो मनुष्य परिपूर्णतम परब्रह्म श्रीकृष्ण के अतिररिक्त ३३ करोड़ देवी-देवताओं को क्यों पूजते हैं ? तो इसका एकमात्र जबाब है- अज्ञानता। इसके साथ ही कुछ कथावाचकों का परब्रह्म श्रीकृष्ण के बारे में अल्प ज्ञान का होना। यह बात बिल्कुल सत्य है।
क्योंकि श्रीकृष्ण ही परिपूर्णतम परब्रह्म हैं, इस गूढ़ रहस्य का सम्पूर्ण ज्ञान केवल तीन लोगों को ही है- पहला पंचमुखी शिव, दूसरा- श्री राधा और तीसरा- गोप और गोपियां। बाकी ३३ करोड़ देवी-देवताओं सहित बड़े-बड़े तपस्वियों को श्रीकृष्ण से संबंधित अल्प ज्ञान ही है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- ९४ के श्लोक- ८२ और ८३ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये । ८२।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३ ।।
अनुवाद - श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ८२
• ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८३
इतना ही नहीं परमेश्वर श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों की जानकारी देने में पुराण भी सक्षम नहीं हैं। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय - ३० के श्लोक - ९ से होती है। जिसमें नारायण मुनि नारद जी से कहते हैं कि -
गोलोक के सर्वशक्तिमान स्वामी (श्रीकृष्ण) की निर्मल प्रसिद्धि के बारे में पुराणों में भी बहुत कुछ वर्णित नहीं है। कमल-मुख वाले प्रभु की महिमा बताने में ये पुराण भी सक्षम नहीं हैं, इसलिए उन कमल-मुख वाले भगवान श्रीकृष्ण का भजन करो। 9
तब ऐसे में यह निर्णय कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है कि- जब परमेश्वर श्री कृष्ण के गुणों एवं रहस्यों का ज्ञान बड़े-बड़े ऋषि मुनि को नहीं है, पुराणों में अल्प वर्णन है, ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है।
तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठता है कि जब श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गुणों रहस्यों को बड़े-बड़े ऋषि मुनि नहीं जान सके , पुराणों में अल्प वर्णन है, ब्रह्मा और सनत कुमार भी परमात्मा श्री कृष्ण को अल्प ही जानते है। तो श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कौन बता सकता है या कहें कि श्रीकृष्ण कथा कहने का वास्तविक अधिकारी कौन हो सकता है ?
तो इसका एकमात्र समाधान है - जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को पूर्ण रूप से जानता हो, वहीं इस समस्या का पूर्णतया समाधान कर सकता है। और उपर के श्लोकों में स्पष्ट रूप से बताया जा चुका है कि श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण गूढ़ रहस्यों को केवल तीन लोग- (१) - शिव जी (२) - श्रीराधा (३) - और गोप- गोपियां ही जानते हैं, बाकी कोई नहीं। अतः इन तीन के अलावा और कोई श्री कृष्ण के गुण रहस्यों और उनकी कथाओं को न तो कर सकता और ना ही बता सकता है। क्योंकि अल्प ज्ञान रखने वाला श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण चरित्र को कैसे बता सकता है।
अब इन तीनों में देखा जाए तो पहले नम्बर पर भगवान शिव जी आते हैं, जो श्री कृष्ण के सम्पूर्ण चरित्रों एवं गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। तो क्या शिव जी भू-तल पर आकर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कहेंगे ? इसका जबाब होगा नहीं। क्योंकि उनको भूतल पर श्री कृष्ण कथा कहते हुए कभी नहीं देखा गया और ना ही कहीं ऐसा लिखा हुआ शास्त्रों में मिलता
है। फिर भी भगवान शिव, परमात्मा श्री कृष्ण और श्रीराधा के सम्पूर्ण चरित्रों को केवल पार्वती जी को बताएं हैं, वो भी श्रीकृष्ण की अनुमति मिलने पर। इस बात की पुष्टि - ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय - ४८ के प्रमुख श्लोकों में मिलता है। जो पार्वती शिव संवाद के रूप में जाना जाता है। जिसमें पार्वती शिव जी से कहतीं हैं कि -
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।। १४
आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल ।। १५
कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः ।। १६
पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।। १७
सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः ।। १८
निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना ।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः ।।१९
मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि ।। २०
मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ।। २१
जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।।२२
अनुवाद - आप श्री राधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम- महामात्य, उत्तम पूजा - विधान, चरित्र, स्त्रोत्र, उत्तम कवच, आराधना विधि तथा अभीष्ट पूजा पद्धति का इस समय वर्णन कीजिए।
भक्तवत्सल! मैं आपकी भक्त हूं अतः मुझे यह सब बातें अवश्य बताएं। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालिए कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था ? १४,१५,१६
• पार्वती का उपयुक्त वचन सुनकर भगवान पंचमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गए और चिंता में पड़ गए। १७
• तब उस समय उन्होंने अपने इष्ट देव करुणा निधान भगवान श्री कृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपने अर्धांग स्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले- देवी! आगमाख्यान का आरंभ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्री कृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था। १८,१९
• परंतु माहेश्वरी! तुम तो मेरा आधा अंग हो, अतः स्वरुपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। २०,२१
• अतः इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूं। दुर्गे! यह परम अद्भुत रहस्य है मैं इसका कुछ वर्णन करता हूं सुनो। २२ ( पार्वती को भगवान शिव ने राधाख्यान में क्या बताया उसका विस्तार पूर्वक वर्णन इस पुस्तक के अध्याय- (दो) में किया गया है। वहां से राधाख्यान की कुछ सामान्य जानकारी ले सकते हैं।)
अतः इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि-गोपेश्वर श्री कृष्ण और श्री राधा के संपूर्ण चरित्रों को बताने के लिए शिव को भी श्रीकृष्ण से अनुमति लेनी पड़ी थी। तो ऐसे में भगवान शिव भूतल पर सार्वजनिक रूप से श्री कृष्ण कथा कैसे कह सकते हैं।
अब रही बात दूसरे नंबर पर श्री राधा जी की। क्योंकि श्री कृष्ण के संपूर्ण रहस्यों एवं चरित्रों को श्री राधा भी जानती हैं। तो क्या श्रीराधा जी इस भूतल पर आकर श्रीकृष्ण कथा कहेंगी ? ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण और श्रीराधा में कोई भेद नहीं है। तो ऐसे में वह अपनी ही कथा स्वयं कैसे कहेंगी। क्योंकि आज तक ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कोई अपनी कथा स्वयं कहता हो।
अब रही बात तीसरे नंबर पर गोप और गोपियों की। क्योंकि गोप और गोपियां भी श्रीकृष्ण के संपूर्ण चरित्र एवं गूढ़ रहस्यों को भलि भांति जानते हैं। क्योंकि इनकी उत्पत्ति श्री कृष्ण और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई हैं। ऐसे में भला ये गोप और गोपियां श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों को कैसे नहीं जान सकते ? और सबसे बड़ी बात यह है कि श्री कृष्ण की लीला का सहचर बनकर ये गोप और गोपियां संपूर्ण ब्रह्मांड में उसी तरह से विद्यमान हैं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रत्येक ब्रह्मांड में विद्यमान है। और भगवान श्री कृष्ण इन्हीं गोप और गोपियों को लेकर अपने लीला किया करते हैं।
(गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा से कैसे और कब हुई। इस विषय पर संपूर्ण जानकारी इस पुस्तक के अध्याय (४) में दी गई है वहां से इसकी जानकारी ले सकते हैं।)
अतः उपरोक्त तथ्यों के आधर पर सिद्ध होता है कि - श्रीकृष्ण कथा केवल गोप और गोपियां ही कह सकते हैं, जो मानवीय रूप में भूतल पर बहुतायत संख्या में विद्यमान हैं। और उनके मन मस्तिष्क में जन्म जन्मांतर से श्री कृष्ण का संपूर्ण चरित्र एवं गुणों का ज्ञान सुषुप्तावस्था में विद्यमान है। बस उसे श्री कृष्ण की आराधना करके जगाने की जरूरत है। और जिस क्
षण वह ज्ञान, गोप और गोपियों में जागा, उसी क्षण वह श्री कृष्ण कथा कहने के लिए पात्र हो जाएंगे। चाहे वह गोप हो या गोपी। इनके अतिरिक्त भू-तल पर श्रीकृष्ण कथा कोई नहीं कह सकता भले ही वह कितना ही बड़ा कथावाचक क्यों न हो। क्योंकि इस बात को ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- ९४ के श्लोक- ८२ और ८३ में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि -
कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये । ८२।
किंचित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किंचिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३ ।।
अनुवाद - श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूपेण योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं। ८२,८३
ऐसे में यदि इन तीन - (शिव जी, श्रीराधा, और गोप-गोपियों ) के अतिरिक्त यदि कोई दूसरा अपने को विद्वान बताकर श्री कृष्ण कथा कहता है तो निश्चित रूप से वह श्री कृष्ण के संपूर्ण चरित्रों का वर्णन नहीं कर पायेगा। और शास्त्रों में यह विधान किया गया है कि गलत कथा या आधी अधूरी कथा कहने वाले नरक के भागी होते हैं।
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- के अध्याय - ८५ के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो नन्द बाबा और श्रीकृष्ण संवाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा के पूछे जाने पर, गलत कर्म एवं धुर्त कथावाचकों के बारे में कहते हैं कि-
कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु। असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु ।। १९२
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।। १९३
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः ।। १९४
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः ।। १९५
"ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि । मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।। १९६
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः।। १९७
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।। १९८
अनुवाद- विद्वानों के कवित्व (विद्वत्ता) पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। और जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गांवों की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला होता है। १९२
• और वह एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है, फिर एक जन्म में बर्र ( ततैया) होने के बाद वह वृक्ष की चींटी ( माटा) होता है। १९३
• उसके बाद क्रमश: शूद्र , वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण बनता है, और इन चारो वर्णों मे कन्या बेचने वाला तथा मेरे नाम को बेचने वाला ब्राह्मण ( विप्र) कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता यह ध्रुव सत्य है। १९४
• तथा मेरे नाम को बेचने वाला (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाला) कथावाचक (पुरोहित) शीघ्र ही तामिस्र नरक में जाता है और तब-तब रहता है जब तक सूर्य तथा चन्द्रमा रहते है। उसके बाद मांस बेचने वाला बहेलिया बनता है। १९३
• फिर उसे पूर्व जन्म के कर्म- संस्कारों के कारण बीमारी घेरती है। और मेरे नाम को बेचने वाले (मेरे नाम पर धंधा चलाने वाले) पुरोहितों (कथावाचकों) की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव सत्य है। १९६
• मृत्युलोक में जिसके ध्यान में मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गाय का बछड़ा बनकर जन्म लेता है। १९७
• इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। इस प्रकार बहुत से चक्कर लगाते (महचक्री) हुए वह जो षड्यंत्र रचने में बहुत प्रवीण हो। कुटिल धर्म से हीन मानव बनता है। १९८
इसीलिए किसी ऐसे गुरु को चुनना चाहिए जो तत्व ज्ञानी हो, श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव उत्पन्न करने वाला हो, गुरुमंत्र नहीं वल्कि कृष्ण मंत्र देने वाला हो, जो शिष्यों से स्वं को न पुजवाकर परमेश्वर को पूजने की बात कहता हो। यदि ऐसा गुरु मिल जाए तो उसे गुरु मानकर ज्ञान अवश्य लेना चाहिए। सच्चे गुरु, भाई, बंधु , माता-पिता की कुछ ऐसी ही विशेषताएं देवीभागवतपुराण-स्कन्धः 9- अध्याय 48- के अध्याय -४६ में बताईं गई है। जो इस प्रकार है-
यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५
दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः॥
६६
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम्॥ ६७
आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम्॥ ६८
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम्।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥ ७०
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा॥ ७१
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम्॥ ७२
अनुवाद- भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन ( गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है। वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे। गुरु वही है, जो विष्णु का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो। ६५-६६
• ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्मपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व आविर्भूत( उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है। ६७-६८
• यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना ( जग हँसाई) मात्र है। मेरे द्वार जो ज्ञान तुमको दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है ! और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है। ६९-७०
• वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ? जो बन्धन से मुक्त नहीं करे। और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्गका निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो। ७१-७२
उपरोक्त श्लोकों में जो गुरु की विशेषताएं बताई गई है- ("वह गुरु शिष्य घाती है जो अपने ज्ञान से शिष्यों को मोह-माया के बंधनमुक्त नहीं करता तथा परमानन्द स्वरूप सनातन मार्ग का निरंतर दर्शन नहीं कराता"।) वह बिल्कुल सत्य है। उसी के हिसाब से मनुष्य को गुरु का चयन करना चाहिए। पाखंडी और छद्मवेषधारी गुरुओं को तुरंत त्याग देना चाहिए। इसी में भलाई है नहीं तो फिर जग हंसाई है।
परमप्रभु परमेश्वर कौन हैं ? पूजा-अर्चना के वास्तविक विधि-विधान क्या है ? वास्तव में किसकी पूजा करनी चाहिए किसकी नहीं ? कथावाचकों द्वारा गलत कथा कहने के दुष्परिणाम, सही गुरु का चयन इत्यादि की जानकारी के साथ यह अध्याय- (एक) समाप्त हुआ।
इसके अगले अध्याय- (दो) में जानकारी दी गई है कि- "श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम कैसा है और कहां स्थापित है"।
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