- संस्कृत > सम् + सुट् + 'कृ करणे' + क्त, ('सम्पर्युपेभ्यः करोतौ भूषणे' इस सूत्र से 'भूषण' अर्थ में 'सुट्' या सकार का आगम/ 'भूते' इस सूत्र से भूतकाल(past) को द्योतित करने के लिए संज्ञा अर्थ में क्त-प्रत्यय /कृ-धातु 'करणे' या 'Doing' अर्थ में) अर्थात् विभूूूूषित, समलंकृत(well-decorated) या संस्कारयुक्त (well-cutured)।
क्या संस्कृत भाषा को पहली शताब्दी में बनाया गया?
कुछ दिनों पहले Reborn Manish ji ने लिखा था कि संस्कृत पहली शताब्दी की भाषा है न कि 1500 ई.पू. की जब ऋग्वेद के अधिकाँश भागों की रचना हुई, और ऐसा लिखने वाले ये अकेले नहीं, नवभाषावैज्ञानिक तो इसे बहुत पहले से लिखते आ रहे हैं।
ख़ैर, हमें यह देखना है कि क्या वाकई संस्कृत भाषा, जिसे ये लोग वैदिक भी मानते हैं(पर वैदिक और संस्कृत में अंतर है, हाँ वैदिक को प्रोटो संस्कृत कहा जा सकता है) पहली शताब्दी के आसपास बनाई गई थी?
ध्यान दें कि ऐसा लिखने वालों का यह भी कहना है कि जब संस्कृत ही पहली शताब्दी में बनी तो संस्कृत भाषा में ऋग्वेद जैसे ग्रन्थ का रचनाकाल तो और बाद का है।
जबकि सभी देशी-विदेशी इतिहासकार और भाषावैज्ञानिक वैदिक श्रुति भाषा और लिखित संस्कृत में काफी अंतर बताते हैं।
पहले तो ये जान लें कि "संस्कृत" शब्द का सबसे पहला आर्कियोलॉजिकल एविडेन्स छठी शताब्दी का है, फिर तो इन लोगों के अनुसार किसी भाषा का संस्कृत नाम भी इससे पुराना नहीं हो सकता और ऋग्वेद की पांडुलिपियाँ भी चौदहवीं सदी का उपलब्ध है तो ऋग्वेद भी तभी का हुआ😊
उस पोस्ट के अनुसार संस्कृत एक संस्कारित भाषा है यानी सुधरा हुआ, सुंदर और बेहतर किया हुआ। हाँ यह बात सही है, संस्कृत का शाब्दिक अर्थ होता है संस्कारित और ऐसा माना जाता है कि पाणिनि ने व्याकरण ग्रन्थ अष्टध्यायी बनाकर इसका संस्कार किया था(पाणिनि कब हुए इसका सटीक समय बताना बड़ा मुश्किल है,बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ उन्हें नन्दो के समय का बताते हैं अर्थात चौथी-पाँचवीं शताब्दी ई. पू. बाकी पाणिनि ई. पू. के पहले हो चुके थे इसकी सूचना अश्वघोष के ग्रन्थ देते ही हैं)।
उनका कहना है, संस्कृत पाली से साफ सुधरी और विकसित भाषा है इसलिये यह पाली से प्राचीन नहीं हो सकती(यह भी सही है पर ऐसा लिखते समय वे प्राकृत भाषा को भूल जाते हैं जिसका उपयोग हमारे यहाँ के प्राचीनतम शिलालेखों में हुआ है, पाली उसी प्राकृत का एक क्षेत्रीय रूप है पर दोनों में एक महीन अंतर है)।
आगे वे संस्कृत भाषा के उत्पत्ति और विकास के लिए उपलब्ध प्राचीनतम भारतीय शिलालेखों का प्रमाण देते हैं जिनमें वाकई शुरुआती संस्कृत का कच्चा रूप(बेसनगर, अयोध्या, घोसुंडी अभिलेख) और फिर 100-200 साल के अंदर ही उसका अति परिष्कृत रूप(रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख) देखने को मिलता है।
अब नया सवाल है कि क्या वाकई संस्कृत की उत्पत्ति और विकास को शिलालेखों की लिपि के आधार पर तय किया जा सकता है?
इसका जवाब है नहीं, संस्कृत या किसी भी भाषा की उत्पत्ति लिपि के आधार पर तय नहीं की जा सकती क्योंकि लिपि या लेखन का विकास भाषा बनने के कई शताब्दियों बाद होता है, इसके लिए उस भाषा का प्रयोग भी विस्तृत क्षेत्र और व्यवहार में आना चाहिए। लिपि के अक्षरों के विश्लेषण से केवल भाषा के लिखित रूप के बारे पता लग सकता है और यह उसके होने का निर्विवाद प्रमाण भी है कि उस समय तक उस भाषा का विकास और व्यवहार इतना हो चुका था कि उसे राइटिंग फॉर्म दिया जा चुका था यानी उसके लिखित प्रमाण को उस भाषा का प्राचीनतम आर्कियोलॉजिकल एविडेन्स माना जायेगा लेकिन यह भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सटीक नहीं जहाँ किसी भी ज्ञात भाषा का लिखित रूप मात्र 2400 साल पुराना है। सिंधु घाटी सभ्यता में लिपियाँ मिली हैं पर भाषा क्या थी? हम नहीं जानते, इसलिये इस बहस में यह शामिल नहीं।
प्राचीन भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति और विकास लिपि के आधार पर और भी तय नहीं हो सकती क्योंकि भारत की सभी धार्मिक किताबें जिनमें बौद्ध त्रिपिटक और जैन आगम भी शामिल हैं, शुरुआत में श्रुत परम्परा में ही थे, इनका लेखन भी इनकी रचना के बहुत बाद पहली शताब्दी ई. के आसपास हुआ।
तो क्या लिपि के अक्षरों के हिसाब से संस्कृत भाषा बनने का दावा किया जा सकता है? यानी संस्कृत को बोलने से पहले लिखने के लिए बनाया गया?
अब अगर केवल लिपि या अक्षरों की बनावट के आधार पर तय करना हो तो तमिल भाषा भी तीसरी और चौथी शताब्दी में बनाई हुई बताई जाएगी क्योंकि उसके पहले दक्षिण के शिलालेखों में प्राकृत भाषा ही है और यहाँ भी संस्कृत के जैसे तमिल का क्रमशः विकास हो रहा लिपि के अक्षरों से। ध्यान दें कि केवल लिपि के ऊपरी हिस्से की बनावट से ही दक्षिण की ब्राह्मी 'द्रविड़ लिपि' बन जाती है।
इस नियम को अप्लाई करने में सबसे ज्यादा कठिनाई प्राकृत/पाली भाषा पर ही आएगी क्योंकि प्राकृत भाषा का भी सबसे पुराना लिखित प्रमाण संस्कृत से मात्र 200 साल पुराना है और इन प्राचीन शिलालेखों में प्राकृत का भी जन्म और विकास ठीक संस्कृत के ही जैसा दिखाई देता है,इसके लिए आप अशोक के अभिलेखों से ठीक पहले चंद्रगुप्त मौर्य के सोहगौरा और महास्थान लेख को पढ़ें। इसमें जो प्राकृत भाषा है वह अशोक के अभिलेखों की प्राकृत भाषा से अल्पविकसित है,दीर्घ स्वरों और सयुंक्त अक्षरों का अभाव है जबकि अशोक के अभिलेखों में धीरे-धीरे कम मात्रा में ही दीर्घ स्वरों और संयुक्त अक्षरों को देखा जा सकता है, अधिकाँश संयुक्त अक्षर भी आधे-आधे नहीं बल्कि ऊपर-नीचे रखकर बनाये गए हैं। अशोक के अभिलेखों में ही 20-30 साल के अंदर प्राकृत के अक्षरों का एक विकासक्रम दिखता है, क्षेत्र अनुसार लिपि के अक्षर भी बदले हुए हैं।
जबकि प्राकृत भाषा इस 2400 साल पुराने लिखित शिलालेखों से भी हजारों साल पुरानी एक प्राकृतिक भाषा है जो यहाँ के लोगों ने बहुत पहले बोलना शुरू किया। फिर 2400 साल पहले यूनानी, ईरानी आदि लोगों के लिखित दस्तावेजों को देखकर हमने भी अपनी लिपि बनानी शुरू की जिससे प्राकृत भाषा को लिखा जा सके।
प्राकृत उस समय की सर्वसुलभ आम लोगों और प्रशासन की भाषा थी(अशोक के शिलालेखों के अनुसार) जबकि वैदिक भाषा गिनेचुने पुरोहितों की जो अपनी भाषा और साहित्य को सार्वजनिक करने से परहेज करते थे।
प्राकृत का लिखित रूप आने के बाद धीरे-धीरे वैदिक छंदस और प्राकृत भाषाओं के मेल से बनी संस्कृत को भी लिखने के अक्षरों का निर्माण किया गया जो पहली शताब्दी के आसपास देखने को मिलती है फिर भी संस्कृत को वर्तमान शुद्ध रूप में लिखने के लिए एक विशेष लिपि का अभाव था जिसे नागरी लिपि बनाकर आठवीं सदी में पूरा किया गया(इसके पहले यह सिद्धमातृका और शारदा लिपि में था)।
जहाँ तक मैंने पढ़ा है,लिपि और भाषावैज्ञानिकों के अनुसार अक्षर या लिपि के आधार पर भाषा के विकास को नहीं देखना चाहिए। बल्कि उस भाषा का नैचुरल एवोल्यूशन कैसे हुआ यानी कि वर्ड्स और सेन्टेंस कैसे बन रहे हैं। वर्ड्स का फॉर्मेशन नेचुरल है या आर्टिफिशियल यानी संधि समास का क्या प्रयोग है वर्ड फॉर्मेशन में यह देखना चाहिए क्योंकि रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख जो विशुद्ध संस्कृत का सबसे लम्बा लिखित दस्तावेज है, संस्कृत की गौड़ी शैली में उसकी सामासिक और संधि विशेषताएँ, महाभारत, रामायण और पुराणों की भाषा से अधिक जटिल और अलंकृत है।
यह इतनी जटिल है जितनी सातवीं शताब्दी में रचित "हर्षचरित" है।
तभी तो एक पोस्ट में नवभाषावैज्ञानिक महोदय ने सवाल उठाया था कि रुद्रदामन का अभिलेख दूसरी शताब्दी का नहीं सातवीं शताब्दी का है क्योंकि भाषा की ठीक यही जटिलता हर्षचरित में है।
इस बहस में सबसे अच्छा होगा कि पहली शताब्दी लिखित अश्वघोष की बुद्धचरित पर बात किया जाय जिनके पहले की कुछ बुद्धिष्ट ग्रँथों की भाषा शिलालेखों की संस्कृत के जैसी ही पाली/प्राकृत मिक्स है, तभी तो इस लिखित संस्कृत को कई विद्वान बुद्धिष्ट हाईब्रिड संस्कृत बताते हैं यानी इस विशेष संस्कृत का निर्माण बौद्ध मठों में हुआ जहाँ पाली और संस्कृत दोनों भाषाओं के लोग शास्त्रार्थ करते थे।
रही बात ऋग्वेद और उसकी भाषा की प्राचीनता की तो अबतक सभी देशी-विदेशी इतिहासकार और भाषावैज्ञानिक एकमत से लिखते हैं कि ऋग्वेद की भाषा और विषयवस्तु अवेस्ता से काफी मिलती है, कई अन्य प्रमाण भी ऋग्वेद का रचनाकाल 1500- 1000 ई.पू. निर्धारित करते हैं जिसपर अलग से कई बार लिखा गया है। कुछ एविडेन्स फोटो के रूप में दे रहा।
एक लिंक भी है उसे खोलिए।
बाकी इस बहस में कई और एविडेन्स हैं जिनपर बात करने से पोस्ट बहुत लम्बी हो जाएगी इसलिए आज केवल उसी आर्कियोलॉजिकल प्रमाण पर लिखा हूँ जिसपर इन लोगों की थ्योरी टिकी है।
इस मैटर पर आप चाहें तो लिपि विद्वान गुणाकर मुले की किताब "भारतीय लिपियों की कहानी" मंगवाकर पढ़ सकते हैं जो इस विषय पर कम शब्दों में समझाने वाली किताब है, हिंदी में गौरीशंकर ओझा, परमेश्वरी लाल गुप्त की किताबें भी हैं। अंग्रेजी में तो बहुत हैं, डीसी सरकार या ब्यूहलर को पढ़ें। एपिग्राफी ऑफ इंडिया भी देख सकते हैं।
अंतिम बात कि संस्कृत या वैदिक भाषा न तो देवताओं की भाषा है और न ही सभी भाषाओं की जननी या आदि भाषा। इसलिये भाषा की उत्कृष्टता और प्राचीनता को लेकर मिथ्याभिमान से बचें क्योंकि भाषा के लिखित आर्कियोलॉजिकल एविडेन्स हमारे यहाँ नहीं बल्कि मेसोपोटामिया की सभ्यता में मिलती है।
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