राजन! रत्न और कन्या पाकर वे भूपाल शिरोमणि बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने असुरों से कहा- 'आप लोग समस्त मनोवांछित भोगों से सम्पन्न तथा स्वयं आकाश में विचरने वाले हैं तो भी आपने न्यायोचित रीति से हमारा सत्कार किया है; अत: बताइये, यह क्षत्रिय समूह आप लोगों को क्या दे? आप जैसे दिव्य वीरों ने पहले-पहल क्षत्रिय-समाज का पूजन किया है।' यह सुनकर हर्ष में भरे हुए देववैरी निकुम्भ ने क्षत्रियों के यथार्थ माहात्म्य का बारम्बार वर्णन करके उस समय उनसे इस प्रकार कहा- श्रेष्ठ नरेशों! हमारा अपने शत्रुओं के साथ युद्ध होने वाला है। उसमें आप लोग सब प्रकार से हमें सहायता प्रदान करें, यह हमारी इच्छा है। प्रभो! जिनके पास क्षीण हो गये थे, उन क्षत्रियों में से वीर पाण्डवों को छोड़कर अन्य सबने ‘एवमस्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। पाण्डव नारद जी से सारी बात सुन चुके थे, इसलिये वे उनसे अलग रहे। करूनन्दन! वे सब क्षत्रिय युद्ध के लिये उद्यत हो वहीं डेरा डालकर डटे रहे। इधर ब्रह्दत्त की पत्नियां यज्ञशाला में प्रविष्ट हुईं और उधर से सेना सहित भगवान श्रीकृष्ण भी षट्पुर में आ पहुँचे। नरेश्वर! महादेव जी के वचन को मन-ही-मन स्मरण करके द्वारका में राजा उग्रसेन को बिठाकर भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ आये थे। भगवान जनार्दन देव उस सेना के साथ आकर षट्पुर वासियों के हित की कामना से यज्ञमण्डप से थोड़ी ही दूर पर उत्तम कल्याणमय प्रदेश में वसुदेव की आज्ञा से छावनी डालकर ठहर गये। श्रीमान भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ विधिपूर्वक रक्षक सैनिकों के दल तैनात कर दिये, जिसके कारण किसी अवांछनीय व्यक्ति को उधर से आने के लिये मार्ग नहीं मिल पाता था। साथ ही उन्होंने अपने पुत्र प्रद्युम्न को सब ओर से घूम-फिरकर सेना की देखभाल करने के लिये नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में षट्पुरवध के प्रसंग में श्रीकृष्ण का षट्पुरगमनविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
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