त्रयोदशानां पत्नीनां या तु दाक्षायणी वरा। मारीच: कश्यपस्त्वस्यामादित्यान्समजीजनत् ।१०। | ||||
इन्द्रादीन्वीर्यसंपन्नान्विवस्वन्तम थापि च। विवस्वतः सुतो जज्ञे यमो वैवस्वतः प्रभुः।।११। | ||||
मार्ताण्डस्य यमी चापि सुता राजन्नजायत'। मार्तण्डस्य मनुर्धीमानजायत सुतः प्रभुः।।१२। | ||||
धर्मात्मा स मनुर्धीमान्यत्र वंशः प्रतिष्ठितः। मनोर्वंशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।।१३। | ||||
ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः। ततोऽभवन्महाराज ब्रह्म क्षत्रेण सङ्गतम्।।१४। महाभारते आदिपर्णि सम्भव पर्ववणि पञ्चसप्ततितमो८ध्याय ।।७५।। _____________________________________ ।हिन्दी अनुवाद।। मरीचिनन्दन कश्यप ने अपनी तेरह पत्नियों में से जो सबसे बड़ी दक्ष-कन्या थीं, उनके गर्भ से इन्द्र आदि बारह आदित्यों को जन्म दिया ।१०। जो इन्द्र आदि बड़े पराक्रमी थे ; तदनन्तर उन्होंने अदिति से ही विस्वान् को उत्पन्न किया। विवस्वान् के पुत्र यम हुए, जो वैवस्वत कहलाते हैं।११। विस्वान् के ही पुत्र परमबुद्धिमान मनु हुए, जो बड़े प्रभावशाली हैं। मनु के बाद उनसे यम नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई, जो सर्वत्र विख्यात हैं।१२। बुद्धिमान मनु बड़े धर्मात्मा थे, जिन पर सूर्यवंश की प्रतिष्ठा हुई। मानवों से सम्बन्ध रखने वाला यह मनुवंश उन्हीं से विख्यात हुआ।१३। उन्हीं मनु से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मानव उत्पन्न हुए हैं। महाराज ! तभी से ब्राह्मण कुल क्षत्रिय से सम्बद्ध हुआ।१४। _____________________________________ कभी ब्राह्मण से क्षत्रिय उत्पन्न हो जाते हैं तो कभी क्षत्रिय से ब्राह्मण भी उत्पन्न हो जाते हैं। अर्थात ये दोैनों एक दूसरे को उत्पन्न करके एक दूसरे के वाप ( पिता) भी बन जाते हैं । महाभारत के निम्न श्लोकों में ब्राह्मणों ने प्रतिस्पर्धा पूर्वक एक इस प्रकार की काल्पनिक कथा भी सृजित कर डाली जिसमें क्षत्रियों को ब्राह्मण परशुराम को इक्कीस वार पृथ्वी से नष्ट करते हैं । और महेन्द्र पर्वत पर तप करने लगते हैं । परन्तु वर्ण व्यस्था की सैद्धांतिक कषोटी पर यह कथा मिथ्या सिद्ध होती है । क्योंकि कि जब शास्त्र स्वयं पूर्व ही इस बात का उद्घोष ( एलान) करते हैं हैं तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।। अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है __________________________________________ तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।।७।। (महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) __________________________________________ त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा । जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।1-65-4 •पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।1-65-4| तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति। ब्राह्मणान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।1-65-5-| •उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 1-65-5-| ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः। ऋतावृतौ नरव्याघ्रन कामान्नानृतौ तथा।1-65-6 •नररत्न! वे कठोर व्रत धारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; न तो कामवश न बिना ऋतुकाल के ही। 1-65-6| तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः। ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।1-65-7 •राजन! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त वीर्यवान क्षत्रिय कुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। 1-65-7। कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये। एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।।1-65-8 •इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई।1-65-8| _______________________________________ अब प्रश्न यह भी उठता है ! कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं -- कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है । देखें निम्न श्लोक - भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।। (महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व) कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी ! और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।। इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।। अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७। (महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण) _____________________________________________ महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र -पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई ? दोैनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है । मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की --- कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य गो जाएगा ? भर्तरि पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु कर्तरि । आहुरुत्पादकं के चिदपरे क्षेत्रिणं विदुः ।।9/32 पिता का पुत्र है ऐसा सब जानते हैं और पिता के विषय में दो प्रकार के गुण हैं। कोई कहता है कि वीर्यवान् का पुत्र है तथा कोई कहता है कि स्त्री (क्षेत्र) का पुत्र है। 9/32| क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् ।क्षेत्रबीजसमायोगात्संभवः सर्वदेहिनाम् ।।9/33। स्त्री क्षेत्र स्वरूपा है और पुरुष बीज का कारण है क्षेत्र और बीज के संयोग से सभी देह धारियों की उत्पत्ति है।(9/33) विशिष्टं चिद्बीजं स्त्रीयोनिस्त्वेव कुत्र चित्। उभयं तु समं यत्र सा प्रसूति: प्रशस्यते।9/34 । (मनुस्मृति) कहीं वीर्य विशिष्ट है तो कहीं क्षेत्र(स्त्री) जहाँ दोनों की समानता है वह सन्तान उत्तम है ।9/34। बीजस्य चैव योन्याश्च बीजं उत्कृष्टं उच्यते ।सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ।।9/35 बीज और क्षेत्र दोनों में बीज ही उत्कृष्ट है; सब जीवों की उत्पत्ति बीज( वीर्य) के आधार पर ही देखी जाती है।9/35-(मनु स्मृति) ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं ; वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. _________________________________________ ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12) इसमें प्रयुक्त क्रिया पद (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है । नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय आत्मने पदीय एक वचन रूप है । नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं । तथा आसीत् क्रिया पद "आस्" धातु का (लड्. लकार) का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है । तथा अजायत क्रिया पद (जन् )- धातु का आत्मनेपदीय रूप। एकवचनम्- द्विवचनम्- बहुवचनम् (प्रथमपुरुषः) अजायत- अजायेताम् -अजायन्त । _________________________________________ (मध्यमपुरुषः) अजायथाः- अजायेथाम्- अजायध्वम् । _________________________________________ (उत्तमपुरुषः) अजाये -अजायावहि- अजायामहि। उपर्युक्त ऋचा में लड्.लकार ( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है । क्योंकि इस लड् लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है । क्योंकि लिट्लकार का अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो वस्तुत: ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है। और लड्. लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है । ___________________________________________ वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध । अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :- लिट् लकार का क्रिया रूप--- (प्रथमपुरुषः) जज्ञे -जज्ञाते -जज्ञिरे । ________________________________________ (मध्यमपुरुषः ) जज्ञिषे -जज्ञाथे- जज्ञिध्वे । _________________________________________ (उत्तमपुरुषः) जज्ञे -जज्ञिवहे- जज्ञिमहे। ________________________________________ लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है । इनका कुछ और स्पष्टीकरण:- 2. लङ् लकार -- Past tense - imperfect (लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था । ______________________________________ भूतकाल का एक और लकार :-- 3. लुङ् -- Past tense - aorist लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- मैंने गाना खाया । __________________________________________ व्याकरण की दृष्टि से शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक निरन्तरता दर्शाता था, इस संदर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है। 1. शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्ति करण, अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना समायोजन को दर्शाता है । अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है। अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें--- 4. लिट् -- Past tense - perfect( पूर्ण ) लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल ; जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो जैसे :- राम ने रावण को मारा था । संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं:- 5. लुट् -- Future tense - likely। 6. लृट् -- Future tense - certain। 7. लृङ् -- Conditional mood। 8. विधिलिङ् -- Potential mood। 9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood। 10. लोट् -- Imperative mood। लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं -- लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। दोनों के शब्द-रूप तथा धातु-रूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं। इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :- (1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं। इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है। तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है। तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है. (2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है। जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुङ् लकार (Injunctive) (जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ (नहीं)निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)। इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्.प्रकृति से भी बनते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि। _________________________________________ निष्कर्ष रूप में हम निश्चित रूप से पुरुष सूक्त को पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ सिद्ध करते है । कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है । क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है। और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है । विशेषत: लेट लकार का .. जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र परियोजना है । जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया। ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी । जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे । वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था । और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे । परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया । यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी । ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं । _________________________________________ क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे यह विचारणीय है ? ________________________________________ वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है । आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं । १–गमन करना Togo २– मारना tokill ३– हल (अरम् Harrow ) चलाना मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना । _________________________________________ प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे । इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में ऋृ (अर्) धातु तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है। वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल) identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः( Araval )तथा (Aravalis) हैं । यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं । _________________________________________ अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य है। संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥ अर्य पुल्लिंग _____________________________________ ऋग्वेद का वह ऋचा जिसमें कृषक पुत्री का मनोहारी स्वाभाविक वर्णन है । पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥ ऋग्वेद-१/१२३/१ अर्थ- (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) - कृषक की कन्या (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)- अकेली (दक्षिणायाः)- कुशलता से (एनम्)- इसको (पृथुः) -विशाल (रथः)- रथ (अमृतास:) -अमरता के साथ (देवासः) -देवगण (आ, अस्थुः)- उपस्थित होते हैं ॥ १ ॥ देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों की रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में जिस प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है जिस प्रकार कोई कृषक ललना ( पुत्री) कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह उठ जाती है ।१। आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था । जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है । वास्तव में ये सब गोलमाल है । कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है । न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ... क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है । ____________________________________ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ! उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रोऽजायत !! (ऋग्वेद 10/90/12) इससे पहले की ऋचा भी विचारणीय है - "कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।। (ऋग्वेद 9/112//3) अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है । उपर्युक्त ऋचा में समाज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है । इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी ।ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं ; वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है. _________________________________________ ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12) इसमें प्रयुक्त क्रिया पद (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है । नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय आत्मने पदीय एक वचन रूप है । नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं । तथा आसीत् क्रिया पद "आस्" धातु का (लड्. लकार) का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है । तथा अजायत क्रिया पद (जन् )- धातु का आत्मनेपदीय रूप। एकवचनम्- द्विवचनम्- बहुवचनम् (प्रथमपुरुषः) अजायत- अजायेताम् -अजायन्त । _________________________________________ (मध्यमपुरुषः) अजायथाः- अजायेथाम्- अजायध्वम् । _________________________________________ (उत्तमपुरुषः) अजाये -अजायावहि- अजायामहि। उपर्युक्त ऋचा में लड्.लकार ( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है । क्योंकि इस लड् लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है । क्योंकि लिट्लकार का अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो वस्तुत: ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है। और लड्. लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है । ___________________________________________ वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध । अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :- लिट् लकार का क्रिया रूप--- (प्रथमपुरुषः) जज्ञे -जज्ञाते -जज्ञिरे । ________________________________________ (मध्यमपुरुषः ) जज्ञिषे -जज्ञाथे- जज्ञिध्वे । _________________________________________ (उत्तमपुरुषः) जज्ञे -जज्ञिवहे- जज्ञिमहे। ________________________________________ लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है । इनका कुछ और स्पष्टीकरण:- 2. लङ् लकार -- Past tense - imperfect (लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल ) आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था । ______________________________________ भूतकाल का एक और लकार :-- 3. लुङ् -- Past tense - aorist लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो । जैसे :- मैंने गाना खाया । __________________________________________ व्याकरण की दृष्टि से शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक निरन्तरता दर्शाता था, इस संदर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है। 1. शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्ति करण, अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना समायोजन को दर्शाता है । अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है। अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें--- 4. लिट् -- Past tense - perfect( पूर्ण ) लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल ; जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो जैसे :- राम ने रावण को मारा था । संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं:- 5. लुट् -- Future tense - likely। 6. लृट् -- Future tense - certain। 7. लृङ् -- Conditional mood। 8. विधिलिङ् -- Potential mood। 9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood। 10. लोट् -- Imperative mood। लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं -- लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। दोनों के शब्द-रूप तथा धातु-रूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं। इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :- (1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं। इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है। तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है। तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है. (2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है। जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुङ् लकार (Injunctive) (जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ (नहीं)निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)। इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्.प्रकृति से भी बनते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि। _________________________________________ निष्कर्ष रूप में हम निश्चित रूप से पुरुष सूक्त को पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ सिद्ध करते है । कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है । क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है। और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है । विशेषत: लेट लकार का .. जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र परियोजना है । जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया। ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी । जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे । वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था । और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे । परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया । यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी । ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं । _________________________________________ क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे यह विचारणीय है ? ________________________________________ वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है । आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं । १–गमन करना Togo २– मारना tokill ३– हल (अरम् Harrow ) चलाना मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना । _________________________________________ प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे । इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में ऋृ (अर्) धातु तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है। वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल) identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है । जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः( Araval )तथा (Aravalis) हैं । यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं । _________________________________________ अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य है। संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥ अर्य पुल्लिंग _____________________________________ ऋग्वेद का वह ऋचा जिसमें कृषक पुत्री का मनोहारी स्वाभाविक वर्णन है । पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥ ऋग्वेद-१/१२३/१ अर्थ- (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) - कृषक की कन्या (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)- अकेली (दक्षिणायाः)- कुशलता से (एनम्)- इसको (पृथुः) -विशाल (रथः)- रथ (अमृतास:) -अमरता के साथ (देवासः) -देवगण (आ, अस्थुः)- उपस्थित होते हैं ॥ १ ॥ देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों की रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में जिस प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है जिस प्रकार कोई कृषक ललना ( पुत्री) कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह उठ जाती है ।१। आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था । जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है । वास्तव में ये सब गोलमाल है । कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है । न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ... क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है । ____________________________________ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ! उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रोऽजायत !! (ऋग्वेद 10/90/12) इससे पहले की ऋचा भी विचारणीय है - "कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।। (ऋग्वेद 9/112//3) अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है । उपर्युक्त ऋचा में समाज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है । इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी । __________________________________________ परम श्रद्धेय आदरणीय गुरुजी सुमन्त कुमार यादव "जौरा" की प्रेरणाओं से समन्वित - __________________________________________ परम श्रद्धेय आदरणीय गुरुजी सुमन्त कुमार यादव "जौरा" की प्रेरणाओं से समन्वित - प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219- |
बुधवार, 17 फ़रवरी 2021
क्षत्रियों से ब्राह्मण उत्पन्न हुए और ब्राह्मणों से क्षत्रिय दोनों एक दूसरे उत्पन्न हो जाते हैं ।
क्षत्रियों से ब्राह्मण उत्पन्न हुए और ब्राह्मणों से क्षत्रिय दोनों एक दूसरे उत्पन्न हो जाते हैं ।
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क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुता: ।
और क्षत्रियों से बहुत से जो ब्राह्मण उत्पन्न हुए ऐसा भी सुना गया है ।
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