शनिवार, 9 फ़रवरी 2019
अलंकार का स्वरूप -
अलंकार की परिभाषा - Definition of Figure of speech :
काव्य में भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजन ढंग को अलंकार कहते हैं। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है, 'आभूषण'। जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य अलंकारों से काव्य की।
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अलंकार अलंकृति ; अलंकार : अलम् अर्थात् भूषण। जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है।
कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं।
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अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार। यहाँ पर अलम का अर्थ होता है ‘ आभूषण। मानव समाज बहुत ही सौन्दर्योपासक है उसकी प्रवर्ती के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है। जिस तरह से एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अथार्त जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं।
उदाहरण :- ‘ भूषण बिना न सोहई – कविता , बनिता मित्त।’
अलंकार के भेद-
शब्दालंकार
अर्थालंकार
उभयालंकार
1. शब्दालंकार -
शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। जब अलंकार किसी विशेष शब्द की स्थिति में ही रहे और उस शब्द की जगह पर कोई और पर्यायवाची शब्द के रख देने से उस शब्द का अस्तित्व न रहे उसे शब्दालंकार कहते हैं।
अर्थार्त जिस अलंकार में शब्दों को प्रयोग करने से चमत्कार हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है।
शब्दालंकार के भेद-
अनुप्रास अलंकार
यमक अलंकार
पुनरुक्ति अलंकार
विप्सा अलंकार
वक्रोक्ति अलंकार
शलेष अलंकार
अनुप्रास अलंकार-
अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास |
यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार -बार और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है। जैसे -
जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप।।
अनुप्रास के भेद-
छेकानुप्रास अलंकार
वृत्यानुप्रास अलंकार
लाटानुप्रास अलंकार
अन्त्यानुप्रास अलंकार
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
1. छेकानुप्रास अलंकार -
जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है। जैसे -
रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।।
2. वृत्यानुप्रास अलंकार -
जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं। जैसे -
चामर- सी ,चन्दन – सी, चंद – सी, चाँदनी चमेली चारु चंद- सुघर है।
3. लाटानुप्रास अलंकार -
जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।
4. अन्त्यानुप्रास अलंकार -
जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है। जैसे -
लगा दी किसने आकर आग।
कहाँ था तू संशय के नाग ?
5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार -
जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है। जैसे -
दिनान्त था , थे दीननाथ डुबते ,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।
2. यमक अलंकार-
यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। जब एक ही शब्द ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार अर्थ अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है। जैसे -
कनक कनक ते सौगुनी , मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराए नर , वा पाये बौराये।
3. पुनरुक्ति अलंकार -
पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है – पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।
4. विप्सा अलंकार-
जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है। जैसे -
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय।
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।।
5. वक्रोक्ति अलंकार-
जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।
वक्रोक्ति अलंकार के भेद -
काकु अक्रोक्ति अलंकार
श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
1. काकु वक्रोक्ति -
जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे -
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
2. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार -
जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे-
को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो ।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।।
6. श्लेष अलंकार-
जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है। जैसे -
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।
2. अर्थालंकार क्या -
जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है।
अर्थालंकार के भेद-
उपमा अलंकार
रूपक अलंकार
उत्प्रेक्षा अलंकार
द्रष्टान्त अलंकार
संदेह अलंकार
अतिश्योक्ति अलंकार
उपमेयोपमा अलंकार
प्रतीप अलंकार
अनन्वय अलंकार
भ्रांतिमान अलंकार
दीपक अलंकार
अपहृति अलंकार
व्यतिरेक अलंकार
विभावना अलंकार
विशेषोक्ति अलंकार
अर्थान्तरन्यास अलंकार
उल्लेख अलंकार
विरोधाभाष अलंकार
असंगति अलंकार
मानवीकरण अलंकार
अन्योक्ति अलंकार
काव्यलिंग अलंकार
स्वभावोती अलंकार
1. उपमा अलंकार -
उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है। जैसे -
सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन।
उपमा अलंकार के अंग -
उपमेय
उपमान
वाचक शब्द
साधारण धर्म
1. उपमेय-
उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।
2. उपमान -
उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।
3. वाचक शब्द -
जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।
4. साधारण धर्म -
दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं।
उपमा अलंकार के भेद -
पूर्णोपमा अलंकार
लुप्तोपमा अलंकार
1. पूर्णोपमा अलंकार -
इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय , उपमान , वाचक शब्द , साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है। जैसे -
सागर -सा गंभीर ह्रदय हो ,
गिरी -सा ऊँचा हो जिसका मन।
2.लुप्तोपमा अलंकार-
इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है। जैसे -
कल्पना सी अतिशय कोमल।
जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है।
2. रूपक अलंकार -
जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। जैसे -
उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विगसे संत- सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग।।
रूपक अलंकार की प्रमुख बातें-
उपमेय को उपमान का रूप देना।
वाचक शब्द का लोप होना।
उपमेय का भी साथ में वर्णन होना।
रूपक अलंकार के भेद -
सम रूपक अलंकार
अधिक रूपक अलंकार
न्यून रूपक अलंकार
1. सम रूपक अलंकार-
इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है। जैसे -
बीती विभावरी जागरी,
अम्बर – पनघट में डुबा रही ,
तारघट उषा – नागरी।
2.अधिक रूपक अलंकार -
जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है।
3. न्यून रूपक अलंकार -
इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है। जैसे-
जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक।।
3. उत्प्रेक्षा अलंकार-
:- जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए। अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे -
सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल,
बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।।
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद-
वस्तुप्रेक्षा अलंकार
हेतुप्रेक्षा अलंकार
फलोत्प्रेक्षा अलंकार
1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार -
जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे -
सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।।
2. हेतुप्रेक्षा अलंकार-
जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।
3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार -
इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे -
खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात।
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।।
4. दृष्टान्त अलंकार -
जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे -
एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं।
किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है।।
5.संदेह अलंकार -
जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे
यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।
संदेह अलंकार की मुख्य बातें :-
विषय का अनिश्चित ज्ञान।
यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो।
अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।
6. अतिश्योक्ति अलंकार-
जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे -
हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि।
सगरी लंका जल गई , गये निसाचर भागि।
7. उपमेयोपमा अलंकार -
इस अलंकार में उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की कोशिश की जाती है इसमें उपमेय और उपमान की एक दूसरे से उपमा दी जाती है। जैसे -
तौ मुख सोहत है ससि सो
अरु सोहत है ससि तो मुख जैसो।
8.प्रतीप अलंकार -
इसका अर्थ होता है उल्टा। उपमा के अंगों में उल्ट – फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य। लेकिन इन दोनों वाक्यों में सदृश्य का साफ कथन नहीं होता , वः व्यंजित रहता है। इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है। जैसे -
नेत्र के समान कमल है।
9.अनन्वय अलंकार -
जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है , तब अनन्वय अलंकार होता है। जैसे -
यद्यपि अति आरत – मारत है,
भारत के सम भारत है।
10. भ्रांतिमान अलंकार -
जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है। जैसे -
पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।।
11.दीपक अलंकार -
जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ पर दीपक अलंकार होता है। जैसे -
चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
12. अपहृति अलंकार -
अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे -
सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला ,
बन्धु न होय मोर यह काला।
13. व्यतिरेक अलंकार -
व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे -
का सरवरि तेहिं देउं मयंकू।
चांद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ?
14. विभावना अलंकार -
जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है। जैसे -
बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।
15.विशेषोक्ति अलंकार -
काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है। जैसे -
नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई।।
16.अर्थान्तरन्यास अलंकार -
जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाये वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। जैसे -
बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बडाई पाए।
कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाए।।
17. उल्लेख अलंकार -
जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए , तो उसके अलग-अलग भागों में बटने को उल्लेख अलंकार कहते हैं। अथार्त जब किसी एक वस्तु को अनेक प्रकार से बताया जाये वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है। जैसे -
विन्दु में थीं तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत।
18. विरोधाभाष अलंकार -
जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे -
आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के।
शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें।
19. असंगति अलंकार-
जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है। जैसे -
ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।”
20. मानवीकरण अलंकार -
जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है। जैसे -
बीती विभावरी जागरी ,
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नगरी।
21. अन्योक्ति अलंकार -
जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे-
फूलों के आस- पास रहते हैं,
फिर भी काँटे उदास रहते हैं।
22. काव्यलिंग अलंकार -
जहाँ पर किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को काव्यलिंग अलंकार कहते हैं अथार्त जहाँ पर किसी बात के समर्थन में कोई -न -कोई युक्ति या कारण जरुर दिया जाता है। जैसे -
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
उहि खाय बौरात नर, इहि पाए बौराए।।
23. स्वभावोक्ति अलंकार -
किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे -
सीस मुकुट कटी काछनी , कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ , सदा बिहारीलाल।।
3.उभयालंकार -
जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है। जैसे-
कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।
विशेष:
अलंकार का आधार-
सामान्यत: कथनीय वस्तु को अच्छे से अच्छे रूप में अभिव्यक्ति देने के विचार से अलंकार प्रयुक्त होते हैं। इनके द्वारा या तो भावों को उत्कर्ष प्रदान किया जाता है या रूप, गुण, तथा क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराया जाता है। अत: मन का ओज ही अलंकारों का वास्तविक कारण है।
रुचिभेद आएँबर और चमत्कारप्रिय व्यक्ति शब्दालंकारों का और भावुक व्यक्ति अर्थालंकारों का प्रयोग करता है। शब्दालंकारों के प्रयोग में पुररुक्ति, प्रयत्नलाघव तथा उच्चारण या ध्वनिसाम्य मुख्य आधारभूत सिद्धांत माने जाते हैं और पुनरुक्ति को ही आवृत्ति कहकर इसके वर्ण, शब्द तथा पद के क्रम से तीन भेद माने जाते हैं, जिनमें क्रमश: अनुप्रास और छेक एवं यमक, पररुक्तावदाभास तथा लाटानुप्रास को ग्रहण किया जाता है। वृत्यनुप्रास प्रयत्नलाघव का उदाहरण है। वृत्तियों और रीतियों का आविष्कर इसी प्रयत्नलाघव के कारण होता है। श्रुत्यनुप्रास में ध्वनिसाम्य स्पष्ट है ही। इन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त चित्रालंकारों की रचना में कौतूहलप्रियता, वक्रोक्ति, अन्योक्ति तथा विभावनादि अर्थालंकारों की रचना मं वैचित्र्य में आनंद मानने की वृत्ति कार्यरत रहती हैं। भावाभिव्यंजन, न्यूनाधिकारिणी तथा तर्कना नामक मनोवृत्तियों के आधार पर अर्थालंकारों का गठन होता है। ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अलंकारें की सामग्री ली जाती है, जैसे व्याकरण के आधार पर क्रियामूलक भाविक और विशेष्य-विशेषण-मूलक अलंकारों का प्रयोग होता है। मनोविज्ञान से स्मरण, भ्रम, संदेह तथा उत्प्रेक्षा की सामग्री ली जाती है, दर्शन से कार्य-कारण-संबंधी असंगति, हेतु तथा प्रमाण आदि अलंकार लिए जाते हैं और न्यायशास्त्र के क्रमश: वाक्यन्याय, तर्कन्याय तथा लोकन्याय भेद करके अनेक अलंकार गठित होते हैं। उपमा जैसे कुछ अलंकार भौतिक विज्ञान से संबंधित हैं और रसालंकार, भावालंकार तथा क्रियाचातुरीवाले अलंकार नाट्यशास्त्र से ग्रहण किए जाते हैं।
स्थान और महत्व
आचार्यों ने काव्यशरीर, उसके नित्यधर्म तथा बहिरंग उपकारक का विचार करते हुए काव्य में अलंकार के स्थान और महत्व का व्याख्यान किया है। इस संबंध में इनका विचार, गुण, रस, ध्वनि तथा स्वयं के प्रसंग में किया जाता है। शोभास्रष्टा के रूप में अलंकार स्वयं अलंकार्य ही मान लिए जाते हैं और शोभा के वृद्धिकारक के रूप में वे आभूषण के समान उपकारक मात्र माने जाते हैं। पहले रूप में वे काव्य के नित्यधर्म और दूसरे रूप में वे अनित्यधर्म कहलाते हैं।
इस प्रकार के विचारों से अलंकारशास्त्र में दो पक्षों की नींव पड़ गई। एक पक्ष ने, जो रस को ही काव्य की आत्मा मानता है, अलंकारों को गौण मानकर उन्हें अस्थिरधर्म माना और दूसरे पक्ष ने उन्हें गुणों के स्थान पर नित्यधर्म स्वीकार कर लिया। काव्य के शरीर की कल्पना करके उनका निरूपण किया जाने लगा। आचार्य वामन ने व्यापक अर्थ को ग्रहण करते हुए संकीर्ण अर्थ की चर्चा के समय अलंकारों को काव्य का शोभाकार धर्म न मानकर उन्हें केवल गुणों में अतिशयता लानेवाला हेतु माना (काव्यशोभाया: कर्त्तारो धर्मा गुणा:। तदतिशयहेतवस्त्वलंकारा:। -का. सू.)। आचार्य आनंदवर्धन ने इन्हें काव्यशरीर पर कटककुंडल आदि के सदृश मात्र माना है। (तमर्थमवलंबते येऽङिगनं ते गुणा: स्मृता:। अंगाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्या: कटकादिवत्। - ध्वन्यालोक)। आचार्य मम्मट ने गुणों को शौर्यादिक अंगी धर्मों के समान तथा अलंकारों को उन गुणों का अंगद्वारा से उपकार करनेवाला बताकर उन्हीं का अनुसरण किया है (ये रसस्यांगिनी धर्मा: शौयादय इवात्मन:। उत्कर्षहेतवस्तेस्युरचलस्थितयो गुणा:।। उपकुर्वंति ते संतं येऽङगद्वारेण जातुचित्। हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादय:।) उन्होंने गुणों को नित्य तथा अलंकारों को अनित्य मानकर काव्य में उनके न रहने पर भी कोई हानि नहीं मानी (तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि- का.प्र.)। आचार्य हेमचंद्र तथा आचार्य विश्वनाथ दोनों ने उन्हें अंगाश्रित ही माना है। हेमचंद्र ने तो "अंगाश्रितास्त्वलंकारा:" कहा ही है और विश्वनाथ ने उन्हें अस्थिर धर्म बतकर काव्य में गुणों के समान आवश्यक नहीं माना है (शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्मा: शोभातिशयिन:। रसादीनुपकुर्वंतोऽलंकारास्तेऽङगदादिवत्।—सा.द्र.)। इसी प्रकार यद्यपि अग्निपुराणकार ने "वाग्वैधग्ध्यप्रधानेऽपि रसएवात्रजीवितम्" कहकर काव्य में रस की प्रधानता स्वीकार की है, तथापि अलंकारों को नितांत अनावश्यक न मानकर उन्हें शोभातिशायी कारण मान लिया है (अर्थालंकाररहिता विधवेव सरस्वती)।
इन मतों के विरोध में 13वीं शती में जयदेव ने अलंकारों को काव्यधर्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए उन्हें अनिवार्य स्थान दिया है। जो व्यक्ति अग्नि में उष्णता न मानता हो, उसी की बुद्धिवाला व्यक्ति वह होगा जो काव्य में अलंकार न मानता हो। अलंकार काव्य के नित्यधर्म हैं (अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती।- चंद्रालोक)।
इस विवाद के रहते हुए भी आनंदवर्धन जैसे समन्वयवादियों ने अलंकारों का महत्व प्रतिपादित करते हुए उन्हें आंतर मानने में हिचक नहीं दिखाई है। रसों को अभिव्यंजना वाच्यविशेष से ही होती है और वाच्यविशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसादि के प्रकाशक अलंकार, रूपक आदि भी वाच्यविशेष ही हैं, अतएव उन्हें अंतरंग रसादि ही मानना चाहिए। बहिरंगता केवल प्रयत्नसाध्य यमक आदि के संबंध में मानी जाएगी (यतो रसा वाच्यविशेषैरेवाक्षेप्तव्या:। तस्मान्न तेषां बहिरंगत्वं रसाभिव्यक्तौ। यमकदुष्करमार्गेषु तु तत् स्थितमेव। - ध्वन्यालोक)। अभिनवगुप्त के विचार से भी यद्यपि रसहीन काव्य में अलंकारों की योजना करना शव को सजाने के समान है (तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुंडलाद्युपेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात्-लोचन), तथापि यदि उनका प्रयोग अलंकार्य सहायक के रूप में किया जाएगा तो वे कटकवत् न रहकर कुंकुम के समान शरीर को सुख और सौंदर्य प्रदान करते हुए अद्भुत सौंदर्य से मंडित करेंगे; यहाँ तक कि वे काव्यात्मा ही बन जाएँगे। जैसे खेलता हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सचमुच राजा ही समझता है और उसके साथी भी उसे वैसा ही समझते हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकते हैं (सुकवि: विदग्धपुरंध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुंकुमपीतिकाया इव। बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्थममुमर्थं मनसि कृत्वाह।-लोचन)।
वामन से पहले के आचार्यों ने अलंकार तथा गुणों में भेद नहीं माना है। भामह "भाविक" अलंकार के लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग करते हैं। दंडी दोनों के लिए "मार्ग" शब्द का प्रयोग करते हैं और यदि अग्निपुराणकार काव्य में अनुपम शोभा के आजाएक को गुण मानते हैं (य: काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण:) तो दंडी भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलंकार की संज्ञा देते हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा युवती के सहज सौंदर्य से और शालीनता आदि उसके सहज गुणों से देकर गुणरहित किंतु अलंकारमयी रचना काव्य नहीं माना है। इसी के पश्चात् इस प्रकार के विवेचन की परंपरा प्रचलित हुई।
Very nice bro
जवाब देंहटाएंThank you
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