गुर् शत्रुकृतताडनंबधोद्यमादिकंवा उज्जरयतियोदेशः।कलिङ्गाःसाहसिका इतिवद्देशस्थजनेलक्षणेतिज्ञेयम्।) गुज्जराटदेशः।इतिशब्दरत्नावलि॥
शब्दरत्नी वली के रचयिता ने काल्पनिक रूप से गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति की है :---
'शत्रु का वध करने वाला '
यद्यपि गुर्जर वीर और निर्भीक होते हीे हैं , इसमें कोई सन्देह नहीं ,परन्तु व्युत्पत्ति-आनुमानिक रूप से ही की गयी है ।
संस्कृत भाषा में और भी गुर्जर जन-जाति के उद्धरण ---
प्राप्त हैं ।
परन्तु बहुत बाद के जो गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति पर स्पष्ट प्रकाश - प्रक्षेपण नहीं करते हैं ।
गुर्जर :--( गुर्+जॄ + णिच् + अच्)।गुरितिशत्रुकृतताडनादिकंतज्जीर्य्यत्यत्रइतिअधिकरणे
अप्। गुर्ज्जरःदेशःतस्यप्रियेतिङीष्।यद्वागुर्ज्जरदेशःप्रियोऽस्याइतिअण्ङीप्च।गुर्ज्जरदेशवासिनीअतोगुर्ज्जरीतिकेचित्।) रागिणीविशेषः।इतिहलायुधः॥इयन्तुभैरवरागस्यरागिणीतिबोध्यम्।
यथा सङ्गीतदर्पणेरागविवेकाध्याये।१६। “भैरवीगुर्ज्जरीरामकिरीगुणकिरीतथा।वाङ्गालीसैन्धवीचैवभैरवस्यवराङ्गनाः॥” अस्यागानवेलानिर्णयोयथा तत्रैव।२०। “वेलावलीचमल्लारीवल्लारीसोमगुर्ज्जरी।” इयंहिग्रीष्मऋतौस्वस्वामिनाभैरवरागेणसहगीयते।यथा तत्रैव।२७।
“भैरवःससहायस्तुऋतौग्रीष्मेप्रगीयते।” इतिसोमेश्वरमतम्।हनूमन्मतेतु।इयमेवमेघरागस्यस्त्री।यथा तत्रैव।३७। “मल्लारीदेशकारीचभूपालीगुर्ज्जरीतथा।टङ्काचपञ्चमीभार्य्यामेघरागस्ययोषितः॥” इयंपुनारागार्णवमतेपञ्चमरागाश्रयारागिणीत्यवधेयम्।यथा तत्रैव।४०। “ललितागुर्ज्जरीदेशीवराडीरामकृत्तथा।मतारागार्णवेरागाःपञ्चैतेपञ्चमाश्रयाः॥”)
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गुर्जर शब्द का यह प्रयोग केवल काव्य-गत है ।
जो राज शेखर से सम्बद्ध है ।
राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे।
वे कान्यकुब्ज के गुर्जरवंशीय नरेश महेंद्रपाल एवं उनके बेटे महिन्द्र पाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्य मनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है।
समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं।
राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं, और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं।
राजशेखर महाराष्ट्र देशवासी थे और यायावर वंश में उत्पन्न हुए थे किन्तु उनका जीवन बंगाल में बीता। इनकी माता का नाम शिलावती तथा पिता का नाम दुहिक या दुर्दुक था , और वे महामंत्री थे। इनके प्रपितामह अकालजलद का विरद 'महाराष्ट्रचूड़ामणि' था। राजशेखर की पत्नी चौहान कुल की क्षत्राणी विदुषी महिला थी जिसका नाम अवन्तिसुन्दरी था। महेंद्रपाल के उपाध्याय होने के साथ ये उसके पुत्र महीपाल के भी कृपापात्र बने रहे। इन दोनों नरेशों के शिलालेख दसवीं शताब्दी के प्रथम चरण (९०० ई. और ९१७ ई.) के प्राप्त होते हैं अत: राजशेखर का समय ८८०-९२० ई० के लगभग मान्य है।
परन्तु इनके समय तक प्राकृत भाषाओं का बोल-बाला था । गुर्जर शब्द प्रारम्भिक चरण गौश्चर के रूप में रहा जो कालान्तरण में गुर्जर रूप हो गया ।
गौश्चर शब्द गोपों का विशेषण था ।
परन्तु यह शब्द ऐैतिहासिक सन्दर्भों में ही रहा है, साहित्य सन्दर्भों में नहीं -
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हिन्दी व्रज भाषाओं के कवियों ने गूजर शब्द अहीरों के लिए किया है । जैसे ---
संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] [स्त्री० गूजरी, गुजरिया] १. अहीरों की एक जाति ग्वाला । २. क्षत्रियों का एक भेद ।
संज्ञा स्त्री० [हिं० गूजरी] १. गूजर जाति की स्त्री । ग्वालिन । गोपी । २. धोबियों के नृत्य में स्त्री के रूप में नाचनेवाला । उ०—लो छनछन, छनछन, छनछन, छनछन, नाच गुजरिया हरती मन ।—ग्राम्या०, पृ० ३१
संस्कृत भाषा के विद्वान् मदन- मोहन झा ने अपने हिन्दी कोश में ये उद्धृत किया है।
मीरा वाई ने गोपिकाओं के लिए अहीरिणी शब्द का प्रयोग अपने पदों में किया है ---
जो ठेठ राजस्थानी रूप है । देखें--
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अच्छे मीठे चाख चाख, बेर लाई भीलणी।।
ऐसी कहा अचारवते, रूप नहीं एक रती;
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हें राम, प्रेम की प्रतीत जाण;
ऊच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऐसी कहा वेद पढ़ी, छिन में बिमाण चढ़ी;
हरि जूँ सूँ बाँध्यो हेत बैकुण्ठ मैं झूलणी।
दासी मीराँ तरै सोइ ऐसी प्रीति करै जोई;
पतित-पावन प्रभु गोकुल अहीरणी।।222।।
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शब्दार्थ-अचारवती = अचार-विचार से रहने वाली। एक रती = रत्ती भर भी। कुचीलणी = मैंले-कुचैले वस्त्रों वाली। प्रतीति = प्रतीत, विश्वास। रस की रसीलणी = भक्ति का प्रेम-रस की रसिकता। छिन में विमाण चढ़ी = स्वर्ग चली गई। हेत = प्रेम। गोकुल = अहीरणी = गोकुल की ग्वालिन; पूर्व जन्म की गोपी।
अब रीति कालीन व्रज के कवियों ने राधा आदि गोपिकाओं को गुजरिया शब्द से सम्बोधित करते हुए वर्णन किया है । इसे भी देखें---
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" खातिर करले नई गुजरिया
रसिया ठाडो तेरे द्वार ।।
ये रसिया नित द्वार न आवे,
प्रेम होय तो दरसन पावे।
अधरामृतको भोग लगावे,
कर महेमानी अब मत चूक
समय न वारंवार ।।
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निश्चित रूप से ये पक्तियाँ श्रृंगारिकता की पराकाष्ठा का भी अतिक्रमण करते हुए, अश्लीलता की उद्भावक हो गयी हैं । जो रीति कालीन हैं ।
गुर्जर जन-जाति का ऐैतिहासिक सन्दर्भों में जो वर्णन है वह यथार्थ की सीमाओं से परे है ।
देखें---
गुर्जर मुख्यत: उत्तर भारत, पाकिस्तान और अफ़्ग़ानिस्तान में बसे हैं। इस जाति का नाम अफ़्ग़ानिस्तान के राष्ट्रगान में भी आता है।
गुर्जरों के ऐतिहासिक प्रभाव के कारण उत्तर भारत और पाकिस्तान के बहुत से स्थान गुर्जर जाति के नाम पर रखे गए हैं, जैसे कि भारत का गुजरात राज्य, पाकिस्तानी पंजाब का गुजरात ज़िला और गुजराँवाला ज़िला और रावलपिंडी ज़िले का गूजर ख़ान शहर।
इसको उदाहरण- है ।
आधुनिक स्थिति में गुर्जर जन-जाति -
" प्राचीन काल में युद्ध कला में निपुण रहे गुर्जर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
निश्चित रूप से ये आभीर जन-जाति से सम्बद्ध हैं " गुर्जर अच्छे योद्धा माने जाते थे ,और इसीलिए भारतीय सेना में अभी भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।
अभीर शब्द भी अपने इसी निर्भीकता के अर्थ को ध्वनित करता है ।
अ नकारात्मक उपसर्ग (Prefix) + भीर -- कायर /डरपोंक अर्थात् जो कायर (भीर) नहीं है ।
वह अभीर है ।
भारत मे गुर्जर की जनसंख्या लगभग 20 करोड की है। गुर्जर महाराष्ट्र (जलगाँव जिला), दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं।
राजस्थान में सारे गुर्जर हिंदू हैं।
सामान्यत: गुर्जर हिन्दू, सिख, मुस्लिम आदि सभी धर्मो मे देखे जा सकते हैं।
वर्ण-व्यवस्था के समर्थकों ने गुर्जर जन-जाति को शूद्र घोषित करने की चेष्टा की तो ये अपने स्वाभिमान की खातिर मुसलमान ,सिक्ख और ईसाई हो गये । ईसाई
मुस्लिम तथा सिख ,गुर्जर, हिन्दू गुर्जरो से ही परिवर्तित हुए थे।
पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है।
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गुर्जर जन-जाति की उत्पत्ति (Origin of Gourjer tribe)
गुर्जर अभिलेखो के हिसाब से ये सूर्यवंशी या रघुवंशी हैं। प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जरों को 'रघुकुल-तिलक' तथा 'रघुग्रामिणी' कहा है। ७ वी से १० वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सुर्यवंशी होने की पुष्टि करती हैं।
परन्तु नन्द और वसुदेव दौनों को हरिवंश पुराण में गोपों के रूप में वर्णित किया गया है ।
जो यदु वंश की पुरातन शाखा है , और यदु वंश को सोम / चन्द्र वंश से सम्बद्ध कर दिया है पुराण कारों ने,
यहूदी जन-जाति के लोग सेमेटिक थे । इज़राएल में अबीर (Abeer) यहूदीयों की एक युद्ध-प्रिय शाखा है।
वस्तुत: यह विरोधाभासी वर्णन काल्पनिक उड़ाने मात्र ही हैं । क्योंकि गुर्जर शब्द घोषी अहीरों की ही एक विस्तृत शाखा है ।
भारतीय गुर्जर जाति मे केवल पाँच गोत्र हूण सरदारों के नाम पर हैं, तथा शेष गुर्जर जाट गोत्रों से संबन्धित हैं। कुछ गुर्जर गोत्र जैसे कि कसाना, खटाना, बिरकेट व घोषी (या घोर्षी), राजपूतों के गोत्र है।
भारतीय मानव विज्ञान शास्त्री के॰एस॰ सिंह के अनुसार-
“ग्वाल(ग्वाला), डाढ़ोर, यादव, यदुवंशी, अहीर, किशनौत, गुज्जर, गडेरिया इत्यादि जिन्हें सम्मिलित रूप से ज्यादा से ज्यादा ग्वालों कि उपजाति कहा जा सकता है।
यह कृष्ण से संबन्धित पौराणिक विरासत व सम्मान से युक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्राचीन जाति समुदाय है, जो कि मथुरा - वृन्दावन मूल से उत्पन्न व प्रसारित है।
ये लोग हिन्दी देवनागरी लिपि मे लिखते हैं, हिन्दी बोलते हैं व जातिगत अंतरगामी व कुल-गोत्र बहिर्गामी विवाह पद्धति का अनुसरण करते है।”
मुस्लिम घोसी भी गुर्जर मूल का दावा करते हैं।
मोटे तौर पर, भारत मे अहीर, चरण, गद्दी, गौढ़ा, गुर्जर-घोष या घोसी, घासी, गोवारी, गुज्जर, गुर्जर, ईडुयान, कावुन्दन आदि गोपालकों के रूप में वर्गीकृत किए गए है।
खानदेश मे अहीरों के पाँच उप-समुदाय हैं- ग्वालवंशी, भार्वतिया,ढिडांवार (ढिंडोर), घोसी व गुर्जर।
क्योंकि प्राचीनत्तम इतिहास में गौश्चर शब्द आभीर जन-जाति का विशेषण है ।
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"गावश्चारयति इति गौश्चर: कथ्यते आभीरस्य विशेषणम्". ( "संस्कृत प्रागितहास")
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राजस्थान में आज भी गुर्जरों को सम्मान से 'मिहिर' बोलते हैं, जिसका अर्थ 'सूर्य' होता है।
परन्तु मिहिर शब्द यादव समाज के वृद्ध व्यक्तियों का सम्मान सूचक उपाधि था ,और मिहिर चन्द्र का भी वाचक है।
महरा (= बड़ा, श्रेष्ठ)] [स्त्री० महरि] १. व्रज में बोला जानेवाला एक आदर- सूचक शब्द जिसका व्यवहार विशेषतः जमादारों और वैश्यों आदि के सम्बन्ध में होता है। (कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल श्रीकृष्ण के पालक और पिता नन्द के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है)। उदाहरण-- महर विनय दोउ कर जोरे घृत मिष्टान षय बहुत मनाया।—सूरदास पदावली ।
(ख) फूर आभलाषन को चाखने के माखन लै दाखन मधुर भरे महर मंगाय रे।—दीन ।
(ग) व्रज की विरह अरु संग महर की कुवरिहि वरत न नेकु लजान।—तुलसी ।
२. एक प्रकार का पक्षी। उ०— सारो सुवा महर कोकिला। रहसत आइ पपीहा मिला।—जायसी ।
३. दे० 'महरा'। उ०—नाऊ बारी महर सब, धाऊ धाय समेत।—रघुराज ।
⋙ मिहर-
(मिह--किरच् ) १ सूर्य्ये २ अर्कवृक्षे ३ वृद्धे मेदिनी कोश ४ मेघे हेमचन्द्र कोश ५ वायौ, ६ चन्द्रे, विक्रमादित्यसभास्थे नवरत्नमध्यस्थे पण्डितभेदे च शब्दक० । तच्चिन्त्यम् । “धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटकर्परकालि- दासः ।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य” ज्योतिर्विदाभरणवाक्ये वराहः मिहिराइवेत्येव तत्र समासे वराहमिहिर इत्येकः “वराहमिहिरात्मजेन पृथुयशसा” तत्पुत्रकृतषट्पञ्चा- शिकायामुक्तेः द्वित्वे
लल्लूलाल कृत सुखसागर में नन्द को महर कह कर सम्बोधित किया गया है।
अन्यत्र भी व्रज के कवियों ने राधा को महर की बेटी कहा है ।
संज्ञा स्त्री० [हिं० महरेटा] वृषभानु महर की लड़की, श्रीराधिका। उदाहरण-
(क) नूपुर की धुनि सुनि रीझत है ।
महरेटी खोलति न याते जब जब आषु गसि जात।—(कवि रघुनाथ )।
(ख) लाली महरेटी के अधर सरसान लागे अधरन बान लागे बतिया रसाल की।—रघुराज ।
महाराष्ट्र के जादव /जाधव महारों की शाखा भी इन्हीं का रूप है । क्योंकि मराठी भाषा का विकास शौरसेनी प्राकृत से हुआ है। और राजस्थानी व्रज का ही प्राचीनत्तम रूप -
कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुर्जर मध्य एशिया के कॉकस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे।
कुछ विद्वान इन्हे विदेशी भी बताते हैं ।
क्योंकि गुर्जरों का नाम एक अभिलेख में हूणों के साथ मिलता है, परन्तु इसका कोई एतिहासिक प्रमाण नहीं है।
संस्कृत के विद्वानों के अनुसार, गुर्जर शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'शत्रु का नाश करने वाला' अर्थात 'शत्रु विनाशक' होता है।
प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य में दहाड़ता गुर्जर कह कर सम्बोधित किया है।
कुछ इतिहासकार कुषाणों को गुर्जर बताते हैं तथा कनिष्क के रबातक शिलालेख पर अंकित 'गुसुर' को गुर्जर का ही एक रूप बताते हैं।
उनका मानना है कि गुशुर या गुर्जर लोग विजेता के रूप में भारत में आये क्योंकि गुशुर का अर्थ 'उच्च कुलीन' होता है।
परन्तु प्रबल प्रमाणों के अभाव में ये सारी हास्यास्पद बातें हैं तथा काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
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Georgia -- is the Western exonym for the nation in the Caucasus natively known as Sakartvelo (Georgia)The Russian exonym is Gruziya
The native name is derived from the core central Georgian region of Kartli i.e. Iberia of the Classical and Byzantine sources around which the early medieval cultural and political unity of the Georgians was formed.
Both the Western and the Russian exonyms are likely derived from the Persian designation of the Georgians, gurğān, from an Old Persian varkâna "land of the wolves"
(also reflected in Old Armenian Virk' and a source of the Greco-Roman Iberia).
Today the full, official name of the country is "Georgia", as specified in the Georgian constitution which reads "Georgia shall be the name of the State of Georgia." Before the 1995 constitution came into force the country's name was the Republic of Georgia.
The Georgian government works actively to remove Russian-derived exonym Gruziya from usage around the world.।
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गुर्जर तथा आभीर शब्द विश्व इतिहास में भी सहवर्ती हैं --
"In Greco-Roman geography, Iberia (Ancient Greek: Latin: Hiberia) was an exonym (foreign name) for the Georgian kingdom of Kartli (Georgia), known after its core province, which during Classical Antiquity and the Early Middle Ages was a significant monarchy in the Caucasus, either as an independent state or as a dependent of larger empires, notably the Sassanid and Roman empires.
Iberia, centered on present-day Eastern Georgia, was bordered by Colchis in the west, Caucasian Albania in the east and Armenia in the south.
Kingdom of Iberia
kartlis samepo
Vassal of the Seleucid Empire (302–159 BC), the Roman Republic (65–63 BC, 36–32 BC), the Roman Empire (1–117 AD), the Eastern Roman Empire (298-363 AD).
Tributary state of Sassanid Persia (252-272 AD), vassal state of Sassanid Persia (363 AD-482 AD, 502-523 AD). Direct Sassanid Persian rule (523-580 AD).
c. 302 BC–580 AD
Flag of the kingdom after Christianization of Iberia in an early 4th century
Colchis and Iberia
CapitalArmazi
Mtskheta
Tbilisi
LanguagesGeorgian
GovernmentMonarchy
Historical eraAntiquity
• Pharnavaz I's reignc. 302 BC
• Christianization of Iberia during reign of Mirian III326 ? AD/337 ? AD
• Direct Sasanian control and abolishment of the monarchy.580 AD
Preceded bySucceeded by
Achaemenid Empire
Colchis
Sasanian Iberia
Today part of Georgia
Turkey
Russia
Armenia
Azerbaijan
Its population, the Iberians, formed the nucleus of the Georgians (Kartvelians). Iberia, ruled by the Pharnavazid, Arsacid and Chosroid royal dynasties, together with Colchis to its west, would form the nucleus of the unified medieval Kingdom of Georgia under the Bagrationi dynasty.[
In the 4th century, after the Christianization of Iberia by Saint Nino during the reign of King Mirian III, Christiantity was made the state religion of the kingdom. Starting in the early 6th century AD, the kingdom's position as a Sassanian vassal state was changed into direct Persian rule. In 580, king Hormizd IV (578-590) abolished the monarchy after the death of King Bakur III, and Iberia became a Persian province ruled by a marzpan (governor).
The term "Caucasian Iberia" is used to distinguish it from the Iberian Peninsula in Western Europe.
Further information: Name of Georgia (country)
The provenance of the name "Iberia" is unclear. One theory on the etymology of the name Iberia, proposed by Giorgi Melikishvili, was that it was derived from the contemporary Armenian designation for Georgia, Virkʿ (Armenian: Վիրք, and Ivirkʿ [Իվիրք] and Iverkʿ [Իվերք]), which itself was connected to the word Sver (or Svir), the Kartvelian designation for Georgians.
The letter "s" in this instance served as a prefix for the root word "Ver" (or "Vir"). Accordingly, in following Ivane Javakhishvili's theory, the ethnic designation of "Sber", a variant of Sver, was derived from the word "Hber" ("Hver") (and thus Iberia) and the Armenian variants, Veria and Viria.
According to another theory, it is derived from a Colchian word, "Imer", meaning "country on the other side of the mountain", that is of the Likhi Range, which divided Colchis and Iberia from each ।
ग्रीक भाषा में गोर्ज (George) का अर्थ है - गो से सम्बन्ध रखने वाला । अर्थात् कृषक ।
personal name, from French Georges, Late Latin Georgius, from Greek Georgos "husbandman, farmer," properly an adjective, "tilling the ground," from ge "earth" ( Gaia) संस्कृत भाषा में गो + ergon "work" (from PIE आद्य भारोपीय धातु( root) *werg- "to do"). The name introduced in England by the Crusaders (a vision of St. George played a key role in the First Crusade),
but not common until after the Hanoverian succession (18c.). St. George began to be recognized as patron of England in time of Edward III, perhaps because of his association with the Order of the Garter (see garter). His feast day is April 23. The legend of his combat with the dragon is first found in "Legenda Aurea" (13c.). The exclamation by (St.) George! is recorded from 1590।
पुर्तगाल की भाषा है और इसके कई भूतपूर्व उपनिवेशों में भी बहुमत भाषा है, जैसे ब्राज़ील। ये हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की रोमांस शाखा में आती है। इसकी लिपि रोमन है।
इस भाषा के प्रथम भाषी लगभग २० करोड़ हैं।
परिचय-----
पुर्तगाली या (पोर्तगाली) नवलातीनी परिवार की भाषा है। इस परिवार की अन्य भाषाएँ स्पेनी, फ्रांसीसी, रूमेनी, लातीनी, प्रोवेंसाली तथा कातालानी हैं। यह लातीनी वोल्गारे (लातीनी अपभ्रंश) का विकसित रूप है जिसे रोमन विजेता अपने साथ लूसीतानिया में लगभग तीसरी शती ईसवी पूर्व में ले गए थे।
रोमन विजेताओं की संस्कृति मूल निवासियों की अपेक्षा उच्च थी। उसके प्रभाव के कारण स्थानीय बोलियाँ दब गईं, भौगोलिक नामों तथा कुछ शब्दों (एस्क्वेदों वेइगा) में उनके अवशेष मिलते हैं।
पाँचवीं शतीं में आइबीरिया प्रायद्वीप पर बर्बरों का आक्रमण हुआ।
आक्रमणकारियों ने विजितों की भाषा को अपनाया। पुर्तगाली की शब्दावली में जर्मन भाषा वर्ग के बहुत ही कम शब्द हैं। प्राय: युद्ध से संबंधित कुछ शब्द मिलते हैं जो महत्वपूर्ण नहीं हैं।
आठवीं शती में आइबीरिया पर अरब आक्रमण हुआ। इनका अधिकार पाँच सौ वर्षों तक रहा। यद्यपि आक्रामकों की संस्कृति बहुत उन्नत थी तथापि उन्होंने अपनी भाषा को पुर्तगालियों पर थोपा नहीं। दोनों ही अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग करते रहे। ऐसा होने पर भी पुर्तगाली में बहुत से अरबी के शब्द रह गए हैं। ऐसे शब्दों को अरबी के "अल्" उपसर्ग से युक्त होने से आसानी से पहचाना जा सकता है (अल्खूवे अल्मोक्रेवे, अल्मोफारिज़)।.....
13वीं शती की पुर्तगाली नीति कविता पर प्रोवेंसाली का बहुत प्रभाव था। इसलिए कविता को भाषा में अनेक प्रोवेंसाली शब्द प्रयुक्त हुए, किंतु बोलचाल की भाषा में अपेक्षाकृत कम प्रोवेंसाली शब्द मिलते हैं। पुर्तगाली शब्दावली को सबसे अधिक समृद्ध किया स्पेनी और फ्रांसीसी भाषाओं ने। स्पेनी का प्रभाव उनकी भौगोलिक समीपता तथा साहित्यिक समृद्धि, विशेषकर नाट्य साहित्य, के कारण पड़ा। पुर्तगाल पर स्पेन का आधिपत्य (1580-1640) रहना भी प्रभाव का एक कारण है। फ्रांसीसी का प्रभाव में तो पड़ा ही, क्योंकि 11वीं शती में पुर्तगाल के प्रथम राजवंश का प्रतिष्ठाता काउंट ऑव पुर्तगाल बरगंडी का हेनरी था। उसके बाद 18वीं शती से 20वीं शती के आरंभ तक फ्रांसीसी संस्कृति के प्रवेश के कारण फ्रांसीसी भाषा ने पुर्तगाली को प्रभावित किया। आधुनिक युग में यूरोप की अन्य भाषाओं के समान अंग्रेजी का प्रभाव पुर्तगाली पर भी देखा जा सकता है। अमरीकी सभ्यता ने यांत्रिक क्षेत्र में जो प्रगति की, उसका प्रभाव पुर्तगाली भाषा पर भी लक्षित हो रहा है।
पुर्तगाली में, विशेषकर कला से संबंधित, अनेक इतालीय शब्द भी हैं। इनमें से अधिकांश शब्द इतालीय साहित्यिक प्रवृत्तियों की सफलता के कारण 16वीं शती में प्रवेश कर गए थे। 16वीं शती के पश्चात् लातीनी साहत्य के अध्ययन की विशेष रूचि के फलस्वरूप साहित्यिक पुर्तगाली पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। वाक्यविन्यास तथा शब्दावली दोनों पर लातीनी का प्रभाव पड़ा। लातीनी शब्दों से ही वने फ्रियो, फ्रोजिदो, जैसे सरल शब्दों के रहते आडंबरपूर्ण अस्वाभाविक शब्दों (आंदोलोक्वो, उनबीवागो) का प्रयोग होने लगा। ग्रीक से वैज्ञानिक शब्दावली ली गई।
15वीं शती से ही जो खोजें आरंभ हुई उनके माध्यम से पुर्तगालियों का संपर्क अफ्रीका, एशिया और अमरीका के निवासियों से हुआ। फलस्वरूप अनेक नए शब्द पुर्तगाली में आ गए (कांचिम्बा, वातुक्वे, मांदिओका)।
लातीनी और पुर्तगाली की तुलनासंपादित करें
लातीनी की तुलना में पुर्तगाली की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं :
ध्वनिविषयक अनुनासिक व्यंजन के कारण स्वरों में परिवर्तन - मानूऊमाँओ; पोनितऊपोंए;
स्वरमध्यवर्ती अघोष व्यंजनों का घोष हो जाना तऊद, पऊब, चऊज (लाकुऊलागो; सापेरेऊसाबेर);
स्वरों के बीच में आनेवाले द और ल व्यंजनों का लोप हो जाना (फीदेऊफैएऊफे; दोलोरेऊदोर;
स्वर समुदाय अउ के स्थान पर ओर कभी-कभी ओह हो जाता है (ताउरुऊतोउरोऊतोहरो; आउरुऊओउरो, ओहरो) ;
शब्दारंभ में आनेवाले संयुक्त क्ल, फ्ल, प्ल के स्थान पर (क्लावेऊ कावे (शावे) ;
फ्लामाऊकामा (सामा) फ्लोरारेऊकोरार (सोरार) हो जाता है;
शब्द के मध्यवर्ती वल के स्थान पर ल्ह हो जाता है - ओकुलुऊआल्हो।
पुर्तगाली में वाक्यविन्यासात्मक ध्वनिप्रक्रिया ध्यान देने योग्य है : शब्दांत में आनेवाले 'S' का उच्चारण प्राय: ('ship)' के 'श' के समान होता है, किंतु जब उसके पश्चात् और शब्द रहते हैं तब उसका उच्चारण Z (ज़) जैसा होता है, जैसे as में ज़ ; स्वर के पूर्व में रहने से तथा घोष वर्ण के पूर्व उसका उच्चारण (Pleasure )के S जैसा होता है, किंतु अघोष वर्ण के परे S ही रहता है।
अहीरों तथा गुर्जरों की एक शाखा को इतिहास कारों ने आयबरिया तथा जॉर्जिया से सम्बद्ध माना है ।
Old French ire "anger, wrath, violence" (11c.), from Latin ira "anger, wrath, rage, passion," from PIE root *eis- (1), forming various words denoting passion (source also of Greek hieros "filled with the divine, holy," oistros "gadfly," originally "thing causing madness;" Sanskrit esati "drives on," yasati "boils;" Avestan aesma "anger;" Lithuanian aistra "violent passion").
Old English irre in a similar sense is unrelated; it from an adjective irre "wandering, straying, angry," which is cognate with Old Saxon irri "angry," Old High German irri "wandering, deranged," also "angry;" Gothic airzeis "astray," and Latin errare "wander, go astray, angry" (see err ).
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This thesis has been written by Yadav Yogesh kumar Rohi belong to village Azad pur district Aligarh ---
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