रविवार, 22 अक्टूबर 2017
रामायण एक परिचय :---
अनेक रामायण यथार्थ और विकृतियां
- डा. रमानाथ त्रिपाठी
मेरे कुछ प्रियजनों ने बताया दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. इतिहास आनर्स (द्वितीय वर्ष) के पाठयक्रम में श्री ए.के. रामानुजन का एक लम्बा शोध निबंध लगा हुआ है-थ्री हण्ड्रेड रामायनास। इसे लेकर विवाद छिड़ गया है। आप राम साहित्य के विशेषज्ञ हैं। आप इसका तर्क-संगत विवेचन कीजिए।"
मैं उपर्युक्त निबंध पढ़ गया। मुझे लगा कि इस निबंध में रामकथा के भव्य रूप के विपरीत विकृतियां खोजकर उनका परिचय देने का प्रयास किया गया है।
वाल्मीकि रामायण भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। भारत की एक-एक इंच भूमि पर इसका प्रभाव है। जैसे-जैसे समय बीतता गया बाल्मीकि प्रणीत रामकथा का विकास होता गया। यह दो रूपों में हुआ- 1. आदि रामकथा को और भी सुन्दर और युग के अनुकूल बनाया गया। 2. इसे विकृत किया गया। समाज पर राम के उदात्त चरित्र का जबरदस्त प्रभाव देखकर एक-दो सम्प्रदायों के अनुयायियों ने अपने को राम से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने अपने मत के सिद्धान्तों के अनुसार रामकथा को बदला हुआ रूप दिया। रामकथा को विकृत करने का एक और भी कारण था। यह जिस देश या प्रदेश में गयी वहीं के परिवेश और परम्परा में ढाल दी गयी। इन प्रदेशों का चिन्तन बहुत उच्च स्तर का नहीं था। रामानुजन ने अपनी रुचि बाल्मीकि रामायण के भव्य चित्रण की अपेक्षा उसकी विकृतियों में प्रस्तुत करने में अधिक दिखायी है। उन्होंने कई बातें कही हैं, मैं उनकी प्रमुख बातों का संक्षिप्त उत्तर दूंगा।
बाल्मीकि से पार्थक्य दिखाने के लिए रामानुजन ने अपने कर्नाटक प्रदेश से एक रामकथा ली है। उन्होंने बताया है कि कन्नड़ भाषी अस्पृश्य जाति के भाट लोग रामकथा-विषयक लोकगीत का गायन किया करते हैं। नि:सन्तान रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने योगी के रूप में प्रकट होकर उसे आम का फल देकर कहा, इसका गूदा मन्दोदरी को देना और तुम इसकी गुठली चूसना। रावण ने इसका उल्टा किया, फलत: उसे गर्भ रह गया। यह गर्भ नौ दिन में नौ मास का हो गया। रावण को छींक आयी, इससे कन्या का जन्म हो गया। यह सीता थी। कन्नड में सीता शब्द का अर्थ है "वह छींका।" इस शब्दार्थ को चरितार्थ करने के लिए यह लोककथा गढ़ी गयी।
इस प्रकार की विकृत कथा को भाटों से कितने लोगों ने सुना होगा- हजार, दस हजार लोगों ने। कन्नड़ भाषा की प्रतिनिधि रामायण है तोरवे रामायण। इस रामायण का ढांचा बाल्मीकि रामायण का है। इसमें बाल्मीकि से पार्थक्य भी है। एक उदाहरण प्रस्तुत है- बाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण पराक्रम के कारण मेघनाद को मारते हैं, तोरवे रामायण में संयम के कारण। उन्होंने 12 वर्ष तक भोजन और नींद का परित्याग किया था तथा ब्राहृचर्य व्रत का पालन किया था। किन्तु रामानुजन की रुचि शुभ नहीं, अशुभ के चित्रण में अधिक है।
रामानुजन ने लिखा है कि सन्थालों की रामकथा में सीता असती हैं। लक्ष्मण और रावण उनके साथ व्याभिचार करते हैं। फादर कामिल बुल्के से सन्थालों में प्रचलित रामकथा का जो विवरण दिया है उसमें ऐसी सत्यानाशी बातें नहीं हैं। बुल्के ने बताया है कि सन्थालों में इस बात का प्रचार है कि रावण वध के बाद लौटकर राम ने सन्थालों के यहां ठहर कर एक शिव मन्दिर बनाया। वे नित्य प्रति सीता के साथ आकर पूजा किया करते थे।
बाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण सीता को देवी जैसा मानते थे और कभी आंख उठाकर उन्हें नहीं देखते थे। राम से प्रथम भेंट होने पर सुग्रीव ने सीता द्वारा फेंके गए गहने दिखाये थे। लक्ष्मण सीता के केवल नूपुर पहचान सके थे, क्योंकि नित्य प्रात: काल वे उनके पैर छूते थे। यह प्रसंग रामानुजन के प्रदेश की तोरवे रामायण में भी है। इस प्रसंग ने भारतीय समाज के समक्ष देवर-भाभी के पवित्र सम्बंध का आदर्श प्रस्तुत किया है, जो आज तक चला आ रहा है।
प्राय: वनवासी लोग राम को अपना मानते हैं, क्योंकि दोनों ही धनुषधारी हैं और दोनों ही वनों से भटकते फिरते हैं। ये लोग सृष्टि में जो कुछ भी अच्छा देखते हैं उसे राम-सीता के वरदान के कारण मानते हैं और जो अच्छा नहीं है उसे राम-सीता के शाप का कारण बताते हैं। सन्थाल मानते हैं कि गिलहरी ने राम को सीता का पता बताया, अत: उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेरा। फलस्वरूप उसकी पीठ पर धारियां हैं। बगुला ने राम को सीता का पता नहीं बताया, इसलिए लक्ष्मण ने उसकी गर्दन खींचकर लम्बी कर दी।
मध्य भारत की परजा और जुआंग जनजाति की स्त्रियां नग्न रहती हैं। उनका कहना है कि जब सीता माता साधारण वस्त्र पहने यहां से निकलीं तो इनकी पूर्वजाओं ने अपने सुन्दर वस्त्रों पर गर्व करते हुए सीता का उपहास किया। सीता ने उन्हें शाप दिया "आज से तुम नग्न रहोगी।" तभी से ये स्त्रियां नग्न रहती हैं। जाड़े के रात ये आग तापकर बिताती हैं। कितनी श्रद्धा है सीता के प्रति कि ये शताब्दियों से उनका अभिशाप स्वेच्छा से ढ़ोती आ रही हैं।
प्रत्येक भारतीय भाषा के कवियों ने प्रयास किया है कि सीता को अधिक से अधिक पवित्र दिखाया जाए। वे चरम पतिव्रत की साकार परिभाषा हैं। तुलसीदास के "मानस" में जब सजी-धजी सीता विवाह-मण्डप में आती हैं तो उनका अनुपम सौन्दर्य देख उपस्थित लोग मन ही मन प्रणाम कर उठते हैं। ऐसी सीता को लक्ष्मण और रावण की भोग्या बताने वाले प्रसंग छात्रों के सामने परोसे जा रहे हैं।
रामानुजन ने थाई रामायण के अनुसार बताया कि इस ग्रन्थ में हनुमान प्रेमी के रूप में दिखाये गए हैं। इनको लंका के शयनग्रहों में ताक-झांक करने में कोई परहेज नहीं, साथ ही इन्हें सोती हुई परायी स्त्रियों के देखने में कोई बुराई नहीं दिखायी देती।
बाल्मीकि रामायण के हनुमान तीनों वेदों के ज्ञाता, बहुभाषाविद्, संयमी, ब्राहृचरी, पराक्रमी और चतुर राजनीतिज्ञ हैं। वे जब सीता को खोजते हुए रावण के अन्त:पुर में गए तो अनेक अद्र्धनग्न स्त्रियों का सोता देख चिन्तित हो उठे। वे सोचने लगे कि इस प्रकार गहरी नींद में सोयी परायी स्त्रियों को देखना अच्छा नहीं है। इससे तो मेरे धर्म का विनाश होगा। अभी तक मेरी दृष्टि परायी स्त्रियों पर नहीं पड़ी थी। फिर उन्होंने सोचा, मैंने इन्हें देखा है, किन्तु मेरे मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। मैं माता सीता को स्त्रियों के बीच ही खोज सकता हूं। जीव की जो जाति होती है उसी में उसे खोजा जाता है। खोयी हुई स्त्री को हिरनियों के बीच तो नहीं खोजा जा सकता। मैंने रावण के अन्त:पुर में शुद्ध ह्मदय से खोज की है। (बा.रा.5,11)
रामानुजन ने कहा है कि जैन राम-साहित्य में रावण को उदार, विद्वान और जैन मतावलम्बी दिखाया गया है। उन्होंने सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाए जाने का भी उल्लेख किया है। वस्तुस्थिति यह है कि जैन कवि विमत सूरि (तीसरी-चौथी शती) ने अपने ग्रन्थ पउमचरियं में लिखा है कि सौतों के कहने से सीता ने रावण का चित्र बनाया और इसे राम को दिखाकर सीता के चरित्र पर सन्देह कराया। इस प्रसंग से राम पर दो आक्षेप हुए। 1. उनके कई पत्नियां थीं और 2. उन्होंने सीता के चरित्र पर सन्देह कर उन्हें निर्वासित किया। जैन राम-साहित्य के ये परिवर्तित प्रसंग एशियाई रामकथाओं में उपलब्ध हैं। जैन साहित्य के अनुसार राम और हनुमान की कई पत्नियां हैं। वाल्मीकि रामायण और उससे प्रभावित ग्रंथों में राम एक पत्नीव्रत धारी हैं। उन्होंने कभी सीता के चरित्र पर सन्देह नहीं किया। उन्होंने जनमत (प्रजा का मत) का सम्मान करते हुए बहुत व्यथित ह्मदय से सीता को निर्वासित किया था। सीता के अभाव में वे धार्मिक क्रियाएं बगल में सीता की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित कर किया करते थे। उन्होंने किसी अन्य नारी से विवाह नहीं किया था। उनका दोष यही था कि वे आवश्यकता से अधिक कर्तव्य परायण शासक थे। चित्र प्रसंग और धोबी-प्रसंग वाल्मीकी रामायण में नहीं हैं।
1998 ई. में भारत सरकार ने मुझे मॉरिशस के अन्तरराष्ट्रीय रामायण सेमिनार में भाग लेने के लिए भेजा था। भाषण के लिए विषय दिया गया था- "एशियाई देशों में रामकथा का स्वरूप।" मैं इस विषय पर तुलसी मानस प्रतिष्ठान (भोपाल) और भारत विकास परिषद् (दिल्ली) के मंचों से भी बोल चुका हूं। रामानुजन ने जैसी बातें बतायी हैं उससे भी भयंकर बातें मैंने बतायी थीं। सुनकर श्रोता उत्तेजित हो उठते थे। लगता था कि वे मुझे बोलने से रोक देंगे। पर जब मैं समापन करता तो तालियों की गड़गड़ाहट होती। उत्तेजित लोग तुष्ट और प्रसन्न जान पड़ते। मेरे भाषण के तीन भाग होते थे। पहले भाग में, मैं बाल्मीकि के राम के उदात्त चरित्र का परिचय देता। दूसरे भाग में एशियाई देशों की विशेषताएं बताता। तीसरे भाग में निष्कर्ष देता कि एशियाई देशों ने पावन रामकथा को अपनी सोच और परिवेश के अनुसार ढाल लिया है। उन्होंने मनोरंजन के लिए रामकथा अपनायी थी। उसमें वे बाल्मीकि द्वारा प्रदत्त उच्च नैतिक मूल्य नहीं दे सके। हमें गर्व होना चाहिए कि इतने सारे देशों तक हमारे राम पहुंचे। हमें प्रेरणा अपनी पारम्परिक रामकथा से ही लेनी है। क्या रामानुजन ने ऐसा दृष्टिकोण अपनाया? वे तो केवल विकृतियां ही खोजते रहे।
रामानुजन का यह आलेख बाउला रिचमैन 1942 में द्वारा सम्पादित पुस्तक "मैनी रामायनास-"दि डाइवर्सिटी आफ ए नैरिटिव ट्रैडिशन इन साउथ एशिया" का एक भाग है। लगता है कि पाउला रिचमैन ने बाल्मीकि-रामायण के प्रभाव को नकारने के लिए यह पुस्तक सम्पादित की है। मैं ऐसी पुस्तकों पर पाबंधी लगाने की बात कभी नहीं कहूंगा। ऐसी पुस्तकें केवल कुछ वयस्क प्रबुद्ध पढ़ेंगे और उनके मन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा।
आपत्तिजनक बात है रामकथा के विकृत अंशों को बी.ए.के छात्रों पर थोप देना। उन्हें ये प्रसंग बलात पढ़ने पड़ेंगे। आदरणीय न्यायमूर्ति श्री हिदायतुल्ला खां ने अश्लीलता के सम्बंध में जो निर्णय दिया था उसे अंशत: यहां उद्धृत किया जा रहा है-
"यदि आलोच्य पुस्तक कच्चे दिमाग वाले के हाथ में पड़े और उसको देखने-पढ़ने से वह चरित्र भ्रष्ट होता हो तो उसे अश्लील कहेंगे।.... लेखक का जीवन दर्शन इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना किशोर मति युवक-युवतियों पर इसका क्या असर पड़ेगा, यह देखना जरूरी हो जाता है।" (ईक्षा, अंक 5, वर्ष 2007 मैं प्रकाशित श्री अवध बिहारी ओझा का लेख) न्यायमूर्ति महोदय ने किशोरमति युवक युवतियों को ध्यान में रखकर जो कुछ कहा है वह इतिहास के पाठ्यक्रम के सम्बंध में भी लागू माना जा सकता है।
अपसंस्कृति और अनास्था के इस युग में जीवन मूल्य ध्वस्त होते जा रहे हैं। ऐसे समाचार आते रहते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि बाप-बेटी, भाई-बहिन और देवर-भाभी के पवित्र सम्बंध विनष्ट हो रहे हैं। आज (मान सेल्फिश, इण्टैलिजेण्ट, वाइल्ड वीस्ट) स्वार्थी, बुद्धिमान जंगली हिंस्र पशु बनता जा रहा है। ऐसे माहौल में विकसित बुद्धि के छात्रों के समक्ष बाल्मीकि रामायण का उज्ज्वल पक्ष रखा जाना चाहिए, न कि दक्षिण एशिया में प्रचारित रामकथा के विकृत अंश। हां, जो छात्र एम.ए.के परीक्षा उत्र्तीण कर इसी विषय पर शोध करना चाहे तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है।
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