हिंदी की ध्वनि संरचना डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय एसोसिएट प्रो. एवं अध्यक्ष, भाषाविज्ञान एवं भाषा प्रौद्योगिकी महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ध्वनि के बिना शब्दों, पदों अथवा वाक्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। किसी भी भाषा में ध्वनियों के महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। ध्वनियों का समूहन शब्द, पद, वाक्य यहाँ तक कि भाषा है। प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा में भी ध्वनियों का अध्ययन शिक्षा और प्रातिशाख्य के अंतर्गत किया गया है जबकि भाषाविज्ञान में ध्वनियों का अध्ययन ध्वनि विज्ञान (Phonetics) के अंतर्गत किया जाता है। ध्वनिविज्ञान अथवा स्वनविज्ञान को ध्वनियों के उत्पादन , संवहन और ग्रहण के आधार पर तीन शाखाओं 1. औच्चारिकी ध्वनिविज्ञान (Articulatory phonetics) 2. भौतिकी ध्वनिविज्ञान (Acoustic Phonetics) 3. श्रौतिकी (Auditory Phonetics) में विभक्त किया गया है। औच्चारिकी ध्वनिविज्ञान के अंतर्गत ध्वनि के उच्चारण से संबंधित अध्ययन किया जाता है। ध्वनियों का उच्चारण स्थान क्या है, किन-किन वाक् अवयवों का इसमें योग होता है, वायु किस रूप में ध्वनियों को उच्चरित करती है। अर्थात् ध्वनियों के उत्पादन से संबंधित अध्ययन इस शाखा में किया जाता है। भौतिकी ध्वनिविज्ञान के अंतर्गत ध्वनि के उच्चरित होने के पश्चात ध्वनि वायु तरंगों के माध्यम से किस रूप में सभी के संपर्क में आती हैं। अर्थात् वक्ता और श्रोता के बीच कैसे ये ध्वनियाँ पहुँचती हैं। इसका अध्ययन किया जाता है। ध्वनियों के संवहन से संबंधित अध्ययन ही इस शाखा का आधार है। श्रौतिकी ध्वनिविज्ञान के अंतर्गत ध्वनियाँ वायु तरंगों के माध्यम से हमारे कान तक पहुँचती हैं। इसके अंतर्गत ध्वनियों के सुनने से संबंधित अध्ययन किया जाता है। ध्वनियाँ कैसे हमारे कान के माध्यम से अंदर प्रविष्ट होती हुई हमारे तंत्रिका कोशिका (न्यूरोन) के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक पहुँचती हैं और सुननेवाला कैसे मस्तिष्क में स्थित पदार्थों और भावों के बिंब के माध्यम से बोलनेवाले के भावों को समझ लेता है। इन सबका अध्ययन ध्वनि विज्ञान की इस शाखा के अंतर्गत किया जाता है। अर्थात् ध्वनियों के ग्रहण से संबंधित अध्ययन ही श्रौतिकी ध्वनि विज्ञान के मूल में है। प्रस्तुत आलेख ‘ध्वनि संरचना’ विषय का संबंध केवल औच्चारिकी ध्वनि विज्ञान से है। अतः इसके अंतर्गत ध्वनियों के उत्पादन से संबंधित चर्चा की गई है। भाषा मूलतः उच्चरित होती है। उच्चरित भाषा में शब्दों का निर्माण ध्वनियों अर्थात् वाक् ध्वनियों से होता है। भाषा के द्वारा मानव अपने विचारों का आदान - प्रदान करता है। भाषा के अंतर्गत वाक्य, उपवाक्य, पदबंध, पद, रूपिम तथा स्वनिम (ध्वनि) क्रमशः बड़ी से छोटी इकाई आती है। इनमें सबसे छोटी इकाई स्वनिम (ध्वनि) है। अर्थात् भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है। वाक्य, उपवाक्य, पदबंध, पद तथा रूप अथवा रूपिम आदि सभी सार्थक हैं तथा सभी ध्वनियों के समूह से ही बनते हैं। ध्वनियाँ अपने आप में सार्थक नहीं होतीं परंतु अर्थ भेदक अवश्य होती हैं। ध्वनियाँ मानव मुख से निःसृत होती हैं। होंठ, जिह्वा, दाँत, तालू, वर्त्स, कंठ, स्वरतंत्री, फेफड़ा, नासिकाविवर का ध्वनियों के उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान होता है। इनमें सबसे अधिक चलायमान जिह्वा होती है। ध्वनियों के उत्पादन में जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है वह है वायु। वायु का मुखविवर में उसके किसी स्थान पर अवरोध, स्पर्श, घर्षण, स्वरतंत्रियों के कंपन आदि के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण किया जाता है। वायु का दबाव कितना है, कम है अथवा अधिक इसके आधार पर व्यंजन ध्वनियों में प्राणत्व का निर्धारण किया जाता है। यदि वायु नासिका विवर से निकलती है तो इससे उच्चरित ध्वनियाँ नासिक्य ध्वनियाँ कहलाती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा मानव मुख से निःसृत ध्वनियों का समूहन होती है। भाषा के निर्माणक ध्वनियाँ ही होती हैं। ध्वनियों से शब्द अथवा पद बनते हैं। शब्द/पद से पदबंध, पदबंध से उपवाक्य , उपवाक्य से वाक्य बनते हैं। वाक्य भाषा की सबसे बड़ी इकाई है। भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से ध्वनि को स्वन (Phone) कहते हैं। जिस शास्त्र के अंतर्गत ध्वनि का अध्ययन किया जाता है , वह ध्वनिविज्ञान अर्थात् (Phonetics) स्वनविज्ञान कहलाता है। इस इकाई के अंतर्गत जहाँ स्वरों का वर्गीकरण जिह्वा की ऊँचाई , जिह्वा की स्थिति तथा होठों की आकृति के आधार पर किया गया है वहीं व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उनके उच्चारण स्थान, उच्चारण प्रयत्न आदि के आधार पर किया गया है। अक्षर एवं संयुक्ताक्षर (क्ष, त्र, ज्ञ, श्र) पर भी इस लेख में विचार किया गया है। हिंदी की ध्वनियाँ कुछ वैयाकरणों ने ध्वनि व वर्ण में अभेद संबंध बताया है। उनके अनुसार वर्ण वह लघुतम भाषिक इकाई है जिसे और लघुतम खंडो में विभाजित नहीं किया जा सकता। जैसे - व्यंजन वर्ण, वर्णमाला में हलंत ही होते हैं अतः इनका विभाजन और खंडो में नहीं किया जा सकता । परंतु ‘क’ ध्वनि को क् + अ में विभाजित किया जा सकता है इसीलिए ध्वनिविज्ञान के अंतर्गत खंडीय स्वनिम (Segmental Phoneme) और खंडेतर स्वनिम (Suprasegmental Phoneme) की बात की गई है। अर्थात् खंडीय स्वनिम को स्वर तथा व्यंजन दो उपखंडो में विभाजित किया गया है। खंडेतर स्वनिम स्वनिक अथवा ध्वनि गुण (मात्रा, बलाघात, सुर, अनुतान आदि) के रूप में ध्वनियों के साथ विद्यमान होते हैं। हिंदी में परंपरागत वर्णमाला की व्यवस्था निम्नलिखित है- स्वर: अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए एैे ओ औ अं अः व्यंजन: क ख ग घ ड. च छ ज झ ´ (वर्गीय ध्वनियाँ द्ध ट ठ ड ढ ण स्पर्श त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व अंतस्थ श ष स ह ऊष्म क्ष त्र ज्ञ संयुक्ताक्षर ऊपर दिए गए वर्णमाला के अंतर्गत स्वर वर्णों में ऋ, अं, अः को स्थान दिया गया था परंतु वर्तमान में इन्हें स्वर के अंतर्गत नहीं रखा गया है। वरन् ऋ को ‘रि’ जैसा उच्चारण होने के कारण भाषावैज्ञानिकों ने स्वर के अंतर्गत नहीं रखा। जहाँ हिंदी में ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रि’ जैसा होता है वहीं मराठी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं में ‘रू’ जैसा होता है कुछ क्षेत्रों में विशेषकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश और उससे सटे प्रदेशों में ‘ऋ’ का उच्चारण ‘र’ जैसा भी करते हैं। हिंदी में ऋतु, ऋषि, ऋण आदि का उच्चारण रितु, रिशि, रिण तथा दृष्टि, मृत्यु, कृपा आदि का उच्चारण द्रिश्टि, म्रित्यु तथा क्रिपा होता है। परंपरागत व्याकरण में स्वरों का वर्गीकरण दीर्घता के आधार पर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत रखा गया है। परंतु हिंदी में केवल ह्रस्व एवं दीर्घ स्वर ही विद्यमान हैं। भट्टोजि दीक्षित ने स्वरों के तीन भेद माना है- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। उदात्त का अर्थ है ऊपर उठा हुआ (आरोही) अनुदात्त का अर्थ है अवरोही तथा स्वरित का अर्थ सम होता है। अं को वैयाकरणों ने अनुनासिक ध्वनि माना है ‘अं’ अर्थात् अँ इसे कुछ आधुनिक भाषा वैज्ञानिक ध्वनि गुण के रूप में मानते हैं। अतः ‘अं’ स्वर के अंतर्गत नहीं आता है। हाँ, इसके अंर्तगत स्वरात्मक गुण अवश्य है। अः अर्थात् विसर्ग का अघोष ‘ह’ के रूप में’ उच्चारण होता है। अतः विसर्ग भी स्वर के अंतर्गत नहीं आता। स्पर्श व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उनके वर्गीय ध्वनियों के रूप में किया गया है। क वर्ग (क ख ग घ ङ), च वर्ग (च छ ज झ ञ), ट वर्ग (ट ठ ड ढ ण), त वर्ग (त थ द ध न) तथा प वर्ग (प फ ब भ म) इन पच्चीस व्यंजन ध्वनियों को स्पर्श कहा गया है। य, र, ल, व को अंतस्थ, श, ष, स, ह को ऊष्म तथा क्ष, त्र, ज्ञ को संयुक्ताक्षर कहा गया है। इसके अतिरिक्त ड़, ढ़ ध्वनियाँ परंपरागत वर्णमाला में नहीं थीं। आज इन्हें वर्णमाला में शामिल कर लिया गया है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जिन ध्वनियों को वर्णमाला में स्थान दिया गया है , वे इस प्रकार हैं - ……………………………. {नोट: भाषा विज्ञान की दृष्टि से ऋ का उच्चारण स्वर जैसा नहीं है बल्कि व्यंजन और स्वर का मिला हुआ रूप है।} 1. स्वर ध्वनि ‘ स्वतो राजन्ते इति स्वराः ’ (महाभाष्य - पतंजलि) जो स्वतः उच्चरित हो वह स्वर है अर्थात् जिसका उच्चारण किसी अन्य ध्वनियों की सहायता के बिना हो, वह स्वर है। विश्व की कुछ भाषाएँ (दक्षिण अफ्रिका की बान्तू आदि भाषाएँ) ऐसी हैं जिनमें स्वर के बिना ही व्यंजन उच्चरित होते हैं, अतः उपर्युक्त परिभाषा हिंदी अथवा संस्कृत भाषा के लिए उपयुक्त हो सकती है परंतु विश्व की सभी भाषाओं के लिए नहीं। स्वर की आधुनिक भाषावैज्ञानिक परिभाषा इस प्रकार है ‘‘ जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुखविवर में कहीं भी वायु का कोई अवरोध न हो, उसे स्वर कहते हैं।’’ स्वर मात्रा के प्रतीक हैं , वे ह्रस्व होते हैं अथवा दीर्घ। संस्कृत में मात्रा के आधार पर स्वरों के तीन प्रकार ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत माने गए हैं। किसी स्वर के उच्चारण में लगने वाला समय, मात्रा कहलाती है। पाणिनि ने स्वर की तीन मात्राएँ मानी हैं - ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। ‘‘ एक मात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते। त्रिमात्रस्तु प्लुतो सेयो व्यंजन चार्धमात्रकम् ’’। ह्रस्व:- जिन स्वरों के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगता है, उसे ह्रस्व स्वर कहते हैं, जैसे - अ, इ, उ। दीर्घ:- जिन स्वरों के उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगता है, उसे दीर्घ स्वर कहते हैं, जैसे- आ, ई,ऊ, ए,ओ,औ। इसे द्विमात्रिक भी कहा गया है। प्लुत:- जिन स्वरों के उच्चारण में दो से अधिक मात्रा का समय लगता है, उसे प्लुत कहते हैं। ‘¬’, में ‘ओ’ प्लुत है। किसी भी दूर खड़े व्यक्ति को पुकारने पर प्लुत स्वर का उच्चारण होता है। जैसे - अशो३क, रा३म आदि। इसे त्रिमात्रिक भी कहा गया है। 2. स्वरों का वर्गीकरण हिंदी में स्वर ध्वनियों का वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन आधारों पर किया गया है- 1. जिह्वा की ऊँचाई 2. जिह्वा की स्थिति 3. होठों की आकृति 1. जिह्वा की ऊँचाई - जिह्वा की ऊँचाई के आधार पर स्वरों को चार वर्गों में विभक्त किया गया है। संवृत, अर्ध संवृत, अर्ध विवृत और विवृत। · संवृत - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का जितना अधिक भाग ऊपर उठता है, उससे वायु उतना ही संकुचित होकर बिना किसी रूकावट के बाहर निकलती है, इससे उच्चरित होनेवाले स्वर संवृत कहलाते हैं। ई, इ, ऊ, उ संवृत स्वर हैं। · अर्धसंवृत - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का भाग कम ऊपर उठता है और वायु मुखविवर में कम संकुचित होती है। इससे उच्चरित स्वर अर्ध संवृत कहलाते हैं। ए और ओ अर्ध संवृत स्वर हैं। · अर्धविवृत - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा अर्धसंवृत से कम ऊपर उठती हैे और मुखविवर में वायु मार्ग खुला रहता है । इससे उच्चरित स्वर अर्ध विवृत स्वर कहे जाते हैं। अ, ऐ और औ अर्धविवृत स्वर हैं। · विवृत - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा मध्य में स्थित होती है और मुखविवर पूरा खुला रहता है , ऐसे उच्चरित स्वर को विवृत कहते हैं। ‘आ’ विवृत स्वर है। 2. जिह्वा की स्थिति - किसी स्वर के उच्चारण में जिह्वा की स्थिति के आधार पर स्वरों के तीन भेद किए जाते हैं - · अग्रस्वर - जिन स्वरों के उच्चारण मंे जिह्वा का अग्रभाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को अग्रस्वर कहते हैं। हिंदी में इ, ई, ए, ऐ, अग्रस्वर हैं। · मध्य स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को मध्य स्वर कहते हैं। हिंदी में ‘अ’ मध्य स्वर है। · पश्चस्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को पश्च स्वर कहते हैं। हिंदी में ऊ,उ,ओ,औ, एवं आ पश्च स्वर हैं। 3. होंठो की आकृति - किसी स्वर के उच्चारण में होठों की आकृति के आधार पर स्वरों को दो वर्गों में रख सकते हैं - 1. गोलीय 2. अगोलीय · गोलीय - जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति कुछ गोलाकार होती है, ऐसे उच्चरित स्वर को गोलीय कहते हैं। ऊ, उ, ओ, औ, ऑ गोलीय स्वर हैं। (अंग्रेजी से आए हुए व् स्वर के लिए ऑ का उच्चारण होता है जैसे - डॉक्टर, नॉर्मल आदि।) · अगोलीय - जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति गोलाकार नहीं होती है, ऐसे उच्चरित स्वर को अगोलीय कहते हैं। अ, आ, इ, ई, ए और ऐ अगोलीय स्वर हैं। {नोट: कुछ वैयाकरण एक औेर वर्ग करते हैं ‘उदासीन’। उदासीन स्वर के अंतर्गत ‘अ’ को रखते हैं।} हिंदी के दस स्वरों का स्वानिक रूप चार्ट के माध्यम से इस प्रकार दिखाया जा सकता है - ………. 3. व्यंजन ध्वनियाँ परंपरागत व्याकरण में जिन ध्वनियों का उच्चारण स्वतः होता है और उसके उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की आवश्यकता नहीं होती , उसे स्वर तथा जिन ध्वनियों के उच्चारण के लिए स्वर की सहायता लेते हैं उन ध्वनियों को व्यंजन कहा गया है। ‘‘ स्वयं राजन्ते इति स्वराः अन्वग भवति व्यंजनमिति।” (महाभाष्य- पतंजलि।) अर्थात् स्वर स्वयं शोभा पाते हैं, जबकि व्यंजन स्वरों का अनुकरण करते हैं। आधुनिक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से व्यंजन की परिभाषा इस प्रकार है- जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुखविवर में कहीं न कहीं वायु का अवरोध हो, उसे व्यंजन ध्वनि कहते हैं। 3.1 व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण परंपरागत वैयाकरणों की दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों को स्पर्श, अंतस्थ एवं ऊष्म वर्गों में रखा गया है। स्पर्श के अंतर्गत सभी वर्गीय ध्वनियों (क वर्ग से प वर्ग तक कुल पच्चीस ध्वनियाँ) को रखा गया है, अंतस्थ के अंतर्गत य र ल व को तथा ऊष्म ध्वनियों के अंतर्गत श ष स ह को रखा गया है। यह वर्गीकरण आभ्यंतर प्रयत्न के आधार पर किया गया है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उच्चारण स्थान (Place of Articulation) एवं उच्चारण प्रयत्न (Mannar of Articulation) के आधार पर किया गया है। 3.1.1 उच्चारण स्थान (Place of Articulation) किन्हीं ध्वनियों का उच्चारण मुखविवर के किस स्थान से हो रहा है। इसके आधार पर द्वयोष्ठ्य, दंत्योष्ठ्य, दंत्य, वर्त्स्य, मूर्धन्य, तालव्य, कण्ठ्य और काकल्य आदि ध्वनियाँ निर्धारित की गई हैं। इन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में वायु का दबाव कम होता है अथवा अधिक। इसके आधार पर व्यंजन ध्वनियाँ अल्पप्राण होती हैं अथवा महाप्राण। इन्हें उच्चारण स्थान के आधार पर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है - द्वयोष्ठ्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण दोनों होठों के स्पर्श से होता है । उन ध्वनियों को द्वयोष्ठ्य ध्वनि कहते हैं। हिंदी में प, फ, ब, भ, म,व द्वयोष्ठ्य व्यंजन हैं। दंत्योष्ठ्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण ऊपरी दाँत एवं निचले होंठ के स्पर्श से होता है। ऐसे व्यंजन ध्वनियों को दंत्योष्ठ्य ध्वनि कहते हैं। हिंदी में दंत्योष्ठ्य व्यंजन नहीं पाये जाते। इस प्रकार की व्यंजन ध्वनियाँ फारसी में ‘फ’ अंग्रेजी में एि ट के रूप में विद्यमान हैं। हिंदी की ‘व’ ध्वनि को कुछ ध्वनिविज्ञानी दंत्योष्ठ्य मानते हैं परंतु ‘व’ द्वयोष्ठ्य व्यंजन है। वर्त्स्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण वर्त्स अर्थात् मसूड़ों से किया जाता है, उन्हें वर्त्स्य व्यंजन कहा जाता है। इन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स स्थान अथवा मसूड़ों को स्पर्श करती है। हिंदी में जो पहले दंत्य ध्वनियाँ थीं वे आज वर्त्स्य ध्वनियाँ हैं। दंत्य - जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा दांत को स्पर्श करती है। ऐसे उच्चरित व्यंजन दंत्य कहलाते हैं। जैसे- त, थ,द, ध, न,स। दंत्य ध्वनियाँ दंत व वत्स दोनों के बीच उच्चरित होती हैं। मूर्धन्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण मूर्धा से होता है, उन्हें मूर्धन्य कहा जाता है। इनके उच्चारण में जीभ को कठोर तालु के पिछले भाग में स्थित मूर्धा का स्पर्श करना पड़ता है। ट, ठ, ड, ढ ण, ड़, एवं ढ़ आदि मूर्धन्य व्यंजन हैं। तालव्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण तालु स्थान से होता है, उन्हें तालव्य कहते हैं। इनके उच्चारण में जीभ का अगला भाग तालु को छूता है, जैसे- च , छ, ज, झ, ञ, य तथा श। कंठ्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है, उन्हें कंठ्य व्यंजन कहते हैं। इन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ का पिछला भाग कोमल तालु को छूता है। इसीलिए कुछ भाषावैज्ञानिक कंठ्य व्यंजन को कोमल तालव्य व्यंजन मानते हैं। क, ख, ग, घ, ङ कंठ्य ध्वनियाँ हैं । काकल्य - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण काकल स्थान से किया जाता है। उन ध्वनियों को काकल्य कहा जाता है। इस ध्वनि के उच्चारण के समय स्वरतंत्री में कंपन होता है। हिंदी में ‘ह’ ध्वनि काकल्य व्यंजन है। 3.1.2 उच्चारण प्रयत्न (Mannar of Articulation) जिन व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उनके उच्चारण अवयव के द्वारा किए जाने वाले प्रयत्न के आधार पर किया जाता है उन्हें उच्चारण प्रयत्न कहा जाता है । इसके अंतर्गत स्वरतंत्रियों में कंपन होने अथवा न होने के आधार पर अघोष और सघोष ध्वनियों का निर्धारण होता है। उच्चारण प्रयत्न के आधार पर व्यंजन ध्वनियों को निम्नलिखित वर्गों में रखा गया है - स्पर्श (Stops) - व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है। जिह्वा के उच्चारण स्थान को स्पर्श करते समय वायु मुखविवर में अवरूद्ध होकर झटके से बाहर निकलती है। ऐसे प्रयत्न से उत्पन्न व्यंजन ध्वनि को स्पर्श ध्वनि कहते हैं। इनके अंतर्गत कंठ्य, मूर्धन्य, दंत्य, वर्त्स्य और ओष्ठ्य ध्वनियाँ सम्मिलित हैं। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ स्पर्श ध्वनियाँ हैं। स्पर्श संघर्षी (Africates) - जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है तथा मुखविवर से वायु घर्षण के साथ निकलती है। ऐसे उच्चरित ध्वनियों को स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहते हैं, जैसे - च छ ज झ। संघर्षी (Fricatives) - जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण करते समय मुखविवर में वायु सँकरे मार्ग से निकलती है, इससे मुखविवर में घर्षण होता है। ऐसी ध्वनियाँ संघर्षी कहलाती हैं। जैसे - श, ष, स, ह। पार्श्विक (Laterals) - जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा दंत अथवा वर्त्स स्थान को छूती है, उस समय वायु जिह्वा के अगल-बगल से बाहर निकलती है, उन ध्वनियों को पार्श्विक कहते हैं। हिंदी में ‘ल’ पार्श्विक ध्वनि है। लुंठित (Trills) - जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा एक या अधिक बार वर्त्स स्थान को स्पर्श करती है, उन्हें लुंठित ध्वनि कहते हैं। लुंठित को लोड़ित भी कहा गया है। हिंदी में ‘र’ लुंठित व्यंजन है। उत्क्षिप्त (Flapped) - जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा मूर्धा स्थान को शीघ्रता से स्पर्श करती है। उसे उत्क्षिप्त ध्वनि कहते हैं। हिंदी में ‘ड़’ और ‘ढ़’ उत्क्षिप्त व्यंजन हैं। नासिक्य (Nasals) - जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु मुखविवर में अवरूळ होकर नासिका विवर एवं मुखविवर दोनों मार्ग से एक साथ निकलती है। ऐसी उच्चरित ध्वनियाँ नासिक्य कहलाती हैं। ङ , ´, ण, न, म नासिक्य ध्वनियाँ हैं। म्ह, न्ह, ङ्ह को महाप्राण नासिक्य कहा गया है। हिंदी में इन महाप्राण नासिक्य ध्वनियों का शब्द के आरंभ में प्रयोग नहीं होता। शब्द के मध्य और अंत में संहार, कुम्हार, कान्हा आदि शब्दों में इनका प्रयोग होता है। अर्धस्वर (Semivowels) - जिन ध्वनियों के उच्चारण के समय जिह्वा एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सरकती है और वायु मुखविवर को किंचित सँकरा बना देती है, ऐसी ध्वनि को अर्धस्वर कहते हैं। ‘य’ और ‘व’ अर्धस्वर हैं। घोषत्व - व्यंजन ध्वनियों में घोषत्व का आधार स्वरतंत्रियां हैं। जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कंपन हो तो वे ध्वनियाँ सघोष कहलाती हैं और यदि स्वर तंत्रियों में कंपन न हो अथवा अत्यल्प कंपन हो तो वे ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। जैसे - अघोष - क ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ , श, ष, स और विसर्ग ह (: द्ध। सघोष - ग घ ङ, ज झ ´, ड ढ ण ड़ ढ़, द ,ध, न, ब भ म, य, र, ल, व, ह। (सभी स्वरों को जी.बी. धल आदि जैसे भाषाविद् सघोष ध्वनि मानते हैं।) प्राणत्व - प्राण का अर्थ होता है वायु। ध्वनियों के उच्चारण में वायु का कम प्रयोग किया जाता है अथवा अधिक, इनके आधार पर ध्वनियों का प्राणत्व निर्धारित होता है , ध्वनियाँ या तो अल्पप्राण होती हैं या महाप्राण। अल्पप्राण - जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्राण अथवा वायु का कम अथवा अत्यल्प प्रयोग किया जाता है, उन्हें अल्पप्राण ध्वनि कहते हैं। व्यंजन ध्वनियों के वर्गीय ध्वनियों में प्रथम, तृतीय और पंचम अल्पप्राण ध्वनियाँ हैं। जैसे- क,ग,ङ, च,ज,´, ट,ड,ण, त,द,न ,प,ब,म , य,र,ल,व अल्पप्राण व्यंजन हैं। महाप्राण - जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु का अधिक (अर्थात् अल्पप्राण की अपेक्षा अधिक प्रयोग) किया जाता है, उन्हें महाप्राण कहते हैं। हिंदी में प्रत्येक वर्गीय ध्वनियों के दूसरे और चौथे व्यंजन अर्थात् ख,घ, छ,झ, ठ, ढ, थ, ध तथा फ, भ महाप्राण ध्वनियाँ है। इनके अतिरिक्त ऊष्म ध्वनियाँ श, ष, स और ह महाप्राण ध्वनियाँ हैं। हिंदी में अल्पप्राण व्यंजन के साथ ‘ह’ जोड़ने पर महाप्राण ध्वनियाँ बनती हैं। संस्कृत में व्यंजन ध्वनियों को हल् कहा गया है। अतः व्यंजन ध्वनियाँ वर्णमाला में हलंत् होती हैं, उनमें ‘ह’ जोड़ने पर महाप्राण बनती हैं। जैसे - क् +ह = ख, ग् + ह = घ, च् + ह = छ ज् + ह = झ, ट् + ह = ठ, ड् + ह = ढ त् + ह = थ, द् + ह = ध, प् + ह = फ ब् + ह = भ न् + ह = न्ह, म् + ह = म्ह । व्यंजन ध्वनियों के वर्गीकरण का चार्ट - …………………………….. 4. अनुस्वार ( ं) एवं अनुनासिकता ( ँ ) अनुस्वार और अनुनासिकता दोनों ही नासिक्य ध्वनियाँ हैं। परंतु दोनों ध्वनियों में अंतर है। जहाँ अनुस्वार पंचमाक्षर है अर्थात् वर्गीय ध्वनियों का पंचम वर्ण ङ्, ´, ण, न, म है, वहीं अनुनासिक ध्वनि स्वतंत्र ध्वनि नहीं है बल्कि वह किसी न किसी स्वर के साथ ही प्रयुक्त होती है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण के समय मुखविवर में कोई अवरोध नहीं होता केवल इसके उच्चारण के समय वायु नासिका व मुखविवर दोनों मार्गों से निकलती है। अतः अनुनासिक में स्वनिमिक गुण होता है। जबकि अनुस्वार स्वतंत्र व्यंजन ध्वनि है। अनुस्वार का चिह्न ( ं ) है तथा अनुनासिक का ( ँ ) है। इनके भेद से अर्थ भेद संभव है। जैसे- हंस - हँस, अंगना - अँगना आदि में जहाँ ‘हंस’ पक्षी है, वहीं हॅंस का अर्थ हॅंसना धातु से है, अंगना का अर्थ जहाँ सुंदर स्त्री है, वहीं अॅंगना का अर्थ आँगन है। 5. हल् हिंदी में हल् चिन्हों का प्रयोग अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। क्योंकि हल् चिन्हों का प्रयोग कहाँ करें और कहाँ न करें ? क्या केवल तत्सम शब्दों में ही हल् चिन्हों का प्रयोग किया जाना चाहिए? यदि हाँ तो हिंदी में जितने भी अकारांत शब्द होते हैं , वे सभी व्यंजनांत होते हैं फिर उनमें भी हल् लगाया जाना चाहिए? हल् को लेकर ऐसे प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। इस तरह से हल् चिन्हों का प्रयोग प्रत्येक शब्दों में प्रायः करना पड़ेगा। भाषा को सरल और सुस्पष्ट होना चाहिए न कि दुरूह और अस्पष्ट। ‘काम’ शब्द हिंदी में व्यंजनांत है, लिखा जाना चाहिए ‘काम्’ परंतु लिखा जाता है ‘काम’। इसी प्रकार कलम, मार, चाक, काल, दिन, रात, हाथ, न्यास आदि सभी शब्द व्यंजनांत हैं। अतः हिंदी में अब हल् चिन्हों का प्रयोग न के बराबर किया जा रहा है। हाँ, जहाँ शब्द अर्थ भेदक होंगे वहाँ संदर्भ से अर्थ लिया जा सकता है। 6. संध्यक्षर - (Diphthong) जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सरकती है, ऐसे उच्चरित स्वर ध्वनियाँ संध्यक्षर कहलाती हैं, जैसे - अइ - अउ आदि। भइआ, गइआ, मइआ, कउआ आदि में इआ और उआ संध्यक्षर हैं । संयुक्त स्वर (ऐ, औ) और संध्यक्षर (अइ - अउ) में मूलभूत जो अंतर है वह यह कि संयुक्त स्वर एक ही श्वासाघात में उच्चरित ध्वनि है और संध्यक्षर एक से अधिक श्वासाघात में उच्चरित ध्वनि समूह। 7. अक्षर (Syllable) अक्षर एक ध्वनि है अथवा ध्वनियों का समूह, यह एक ही श्वासाघात में उच्चरित होते हैं अथवा एक से अधिक श्वासाघात में, अक्षर ही वर्ण है अथवा वर्णों का समूह आदि पर विचार करने से पूर्व कुछ भाषाशास्त्रियों के अक्षर से संबंधित मत द्रष्टव्य हैं - उदय नारायण तिवारी - अक्षर शब्द के अंतर्गत उन ध्वनि समूहों की छोटी से छोटी इकाई को कहते हैं, जिनका उच्चारण एक साथ हो तथा जिन्हें विभक्त करके बोलने पर उसका कोई अर्थ न प्रकट हो। - भाषाशास्त्र की रूपरेखा , पृष्ठ 126 बाबूराम सक्सेना - संयुक्त ध्वनियों के छोटे समूह को अक्षर कहते हैं और अक्षर की ध्वनियों का एक साथ (अति सन्निकटता) में उच्चारण होता है। प्राचीन भाषाविज्ञों का विचार था कि स्वर ही अक्षर बनाने में समर्थ होता है और जितने व्यंजन उसके साथ लिपटे हों उनको साथ लेकर वह अक्षर कहलाता है। - सामान्य भाषाविज्ञान, पंचम संस्करण, पृष्ठ 72 भोलानाथ तिवारी - एक या अधिक ध्वनियों (या वर्णों) की उच्चारण की दृष्टि से अव्यवहित इकाई, जिसका उच्चारण एक झटके में किया जा सके, अक्षर है। - भाषाविज्ञान, 1961, पृष्ठ 354 उपर्युक्त मतों के आधार पर अक्षर की परिभाषा इस प्रकार होगी - ‘‘ एक ही श्वासाघात में उच्चरित ध्वनि अथवा ध्वनि समूह को अक्षर कहते हैं’’। यदि एक ही श्वासाघात में कई ध्वनियाँ एक साथ उच्चरित होती हैं तो उनमें एक मुखर ध्वनि (Sonorous) होती है। वाक् ध्वनियों में सबसे मुखर ध्वनि स्वर होती है । अतः जिन ध्वनियों अथवा ध्वनि समूह में जितनी संख्या मुखर ध्वनि अर्थात् स्वर की होगी उतने ही अक्षर होंगे। हिंदी में जिन शब्दों में जितने स्वर होते हैं, उतने अक्षर होते हैं। अक्षर का विभाजन प्रत्येक श्वासाघात के आधार पर होता है। प्रत्येक स्वर अक्षर होता है, अतः स्वर आक्षरिक कहलाते हैं। जैसे - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ आदि एक-एक अक्षर हैं। एक व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है। जैसे - गा (ग् + आ) का (क् + आ) , रा (र् + आ) आदि। दो व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है जैसे - क्ष (क् + ष् + अ), त्र (त् + र् + अ), ज्ञ (ज्+ ञ्+अ) काम (क् + आ + म्) , नाम (न् + आ + म्) आदि। तीन व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है। जैसे - कृष (क् + र् + इ + ष्), क्रम (क् + र् + अ + म्) आदि। चार व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है - स्वप्न (स् + व् + अ + प् + न्), क्लिष्ट (क् + ल् + इ + ष् + ट्) आदि। पाँच व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है जैसे - स्वास्थ्य (स् + व् + आ + स् + थ् + य्) इस प्रकार सभी स्वर आक्षरिक होते हैं। एक शब्द एक अक्षर का हो सकता है और कई अक्षरों का भी। जैसे - ‘स्वप्न’ एक शब्द है और अक्षर भी परंतु ‘विद्या’ (व्+इ+द्+य्+आ) दो अक्षरों वाला एक शब्द है। 7.1 अक्षर विभाजन शब्दों के सही उच्चारण के लिए अक्षरों का विभाजन कहाँ से करें यह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। शब्द या तो एकाक्षरी होते हैं या अनेकाक्षरी। एकाक्षरी शब्दों के उच्चारण में जो मुखर ध्वनि ह,ै उसी पर बलाघात भी होता है। परंतु जहाँ अनेकाक्षरी शब्द हैं, उच्चारण में विभाजन ठीक होना चाहिए। उदाहरण के लिए ‘वक्ता’ शब्द का अक्षर विभाजन होगा ‘वक् + ता’ न कि ‘व-क्ता’। इसी प्रकार ‘पक्का’ शब्द में अक्षर विभाजन होगा पक् + का न कि पक्क् + आ। अक्षर विभाजन से संबंधित कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं - अद्धा = अद् + धा, व्याघ्र = व्याग् + घ्र विद्यालय = विद्+ द्या + लय , विद्या = विद् + द्या पत्ता = पत् + ता, कंगन = कड्. + गन् अंदर = अन् + दर (जहाँ शांत एक अक्षर है वहीं शांति दो अक्षरों वाला एक शब्द) सिंगारदान = सिंङ+गार्+दान्, विद्वान = विद् + द्वान् पश्चिम = पश् + चिम्, उद्योग = उद् + द्योग् अत्याचार = अत्+त्या+चार्, अद्वितीय = अद् + द्वि + तीय विद्यार्थी = विद् + द्यार् + थी, शत्रु = शत् + त्रु अन्यत्र = अन् + न्यत्र्, विख्यात = विक् +ख्यात् अम्लान = अम् +म्लान् , अध्यापक = अद् + ध्या + पक् , अभ्यास = अब्+भ्यास् आदि। 8. ध्वनि गुण ध्वनियों के साथ कुछ ऐसे तत्व होते हैं जिन्हें ध्वनियों से अलग नहीं किया जा सकता परंतु वे अपने आप में ध्वनि नहीं होते। इन्हें ध्वनि गुण कहा जाता है। भाषाविज्ञान में इन्हें खंडेतर ध्वनि (Supra Segmental) कहते हैं। ये ध्वनि गुण मात्रा, बलाघात, सुर, अनुनासिकता और संगम आदि के रूप में ध्वनियों में विद्यमान होते हैं। 8.1 मात्रा किसी ध्वनि के उच्चारण में जितना समय लगता है, उसे हम उस ध्वनि की मात्रा कहते हैं। इसी के आधार पर स्वरों को ह्रस्व एवं दीर्घ कहा जाता है। यदि ये मात्राएँ अर्थभेदक होंगी तो वे ध्वनि स्वनिमिक होती हैं। हिंदी में स्वरों के मात्रा-भेद के उदाहरण इस प्रकार हैं - कल - काल जल - जाल तुल -तूल आदि। मल - माल मन - मान मिल - मील दिन - दीन हिंदी में व्यंजन ध्वनियों में भी काल मात्रा होती है। इसके कारण अर्थभेद भी होता है। परंतु यह काल मात्रा लेखन में व्यंजन के द्वित्व के रूप में प्रयोग करने की परंपरा है जैसे - पका - पक्का , सजा - सज्जा ,पता - पत्ता आदि। 8.2 बलाघात बोलते समय कभी - कभी किसी ध्वनि पर विशेष जोर दिया जाता है। इसे ही सामान्यतः बलाघात कहा जाता है। ‘‘किसी विशेष ध्वनि पर वाक्य अथवा पद की अन्य ध्वनियों की अपेक्षा उच्चारण में अधिक प्राणशक्ति लगाना बलाघात कहलाता है। ‘डॉ. बाबू राम सक्सेना - सामान्य भाषाविज्ञान’ ‘‘ बलाघात का अर्थ है शक्ति अथवा वेग की वह मात्रा जिससे कोई ध्वनि या अक्षर उच्चरित होता है। इस शक्ति के लिए फुफ्फुस को एक प्रबल धक्का देना पड़ता है परिणामतः एक अधिक बलवाला निःश्वास फेंकना पड़ता है, जिससे प्रायः ध्वनि में उच्चता की प्रतीति होती है। डॉ. रामदेव त्रिपाठी - भाषाविज्ञान की भारतीय परंपरा और पाणिनि। कम अथवा अधिक आघात का प्रयोग कुछ भाषाओं में अर्थ परिवर्तन का कारण भी होता है। जैसे- अंग्रेजी के Present शब्द में यदि प्रथम अक्षर पर अधिक बल दिया जाए तो 'Present उपस्थिति का अर्थ होता है और यदि दूसरे अक्षर पर बल दिया जाए तो Per'sent उपहार देने का अर्थ होता है। 8.3 सुर ध्वनि को उत्पन्न करनेवाली कंपन की आवृत्ति ही सुर का प्रमुख आधार होती है। इसी आधार पर इसे उच्च या निम्न कहा जा सकता है। सुर का प्रमुख आधार स्वरतंत्री होती है। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति की स्वरतंत्री एक जैसी नहीं होती। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति का सुर एक जैसा नहीं होता। सुर के तीन भेद बताए गए हैं - उच्च, निम्न और सम। उच्च में सुर नीचे से ऊपर जाता है, निम्न में ऊपर से नीचे आता है और सम में बराबर रहता है। इसे आधुनिक भाषाविज्ञान में उच्च सुर, निम्न सुर और सम सुर कहा गया है। 8.4 अनुनासिकता - अनुनासिक खंडेतर (Segmental Phoneme) ध्वनि है। इसे स्वरगुण के रूप में जाना जाता है। अनुनासिकता अर्थभेदक इकाई है। जैसे - सॉंस-सास, सॅंवार-सवार, मॉंग-मांग आदि। 8.5 संगम अथवा संहिता (Juncture) - जिन भाषिक ध्वनियों का प्रयोग वाक्य में होता है, उन ध्वनियों की सीमाओं का स्पष्ट होना अनिवार्य होता है। किन्हीं दो भाषिक इकाइयों (ध्वनियों) के बीच कुछ क्षण के लिए रूका जाता है तो उस अनुच्चरित समय का सीमांकन होता है। इस प्रकार के समय सीमांकन को संहिता या संगम कहा जाता है। यदि उपयुक्त संगम या संहिता न हो तो अभिप्सित अर्थ से परे अर्थ मिलने की संभावना बढ़ जाती है। जैसे - खा +ली = खाली। पी + ली = पीली । उग + आया है = उगाया है । बंद + रखा गया = बंदर + खा गया । दी + या नहीं = दीया + नहीं। रोको मत + जाने दो = रोको + मत जाने दो । भारतीय प्राचीन शास्त्रों में अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिससे यह सि) होता है कि शु) उच्चारण का कितना महत्व था। यदि ‘इंद्रशत्रु’ में प्रथम अक्षर पर उदात्त हो तो बहुव्रीहि समास होगा और अर्थ होगा ‘इंद्र है शत्रु जिसका’ और यदि अंतिम अक्षर पर उदात्त होगा तो तत्पुरूष समास होगा, अर्थ होगा इंद्र का शत्रु। इस प्रकार सुर भेद से अर्थ भेद हो जाता था। एक - एक अक्षर के शुद्ध उच्चारण का महत्व प्राचीन भारतीय परंपरा में भी था। पाणिनीय ‘शिक्षा’ (ध्वनिविज्ञान) में एक स्थान पर आया है। ‘‘ अवाक्षरम् अनायुष्यम् विस्वरम् व्याधि पीड़ितम्। अक्षता शास्त्ररूपेण वज्रम पतति मस्तके।। ’’ जब किसी मंत्र में कोई अक्षर कम हो तो जीवनक्षय हो सकता है और जब अक्षर उचित सुर के साथ न पढ़ा जाए तो इससे पढ़ने वाला व्याधि से पीड़ित हो सकता है और कोई अक्षर अशुद्ध ही उच्चरित किया जाए तो वह उच्चरित रूप दूसरे के सिर पर वज्र की तरह पड़ता है। भाषाविज्ञान की अन्य शाखाएँ जैसे- रूपविज्ञान, वाक्यविज्ञान तथा अर्थविज्ञान वस्तुतः ध्वनि पर ही आधारित हैं। ध्वनियों से रूप बनते हैं, रूप से पद तथा वाक्य। ऐसे ही अर्थ का आधार पद अथवा वाक्य है। जब तक ध्वनियों का सम्यक् ज्ञान न हो तब तक रूपविज्ञान, वाक्यविज्ञान एवं अर्थ विज्ञान का सम्यक् ज्ञान कठिन है। ध्वनियों का ज्ञान लिपि चिह्नों के निर्माण के लिए भी आवश्यक है। संसार में आज भी ऐसी भाषाएँ बोली जाती हैं जिनकी अपनी कोई लिपि नहीं है। उनकी लिपियों के निर्माण के लिए ध्वनियों का ज्ञान अति आवश्यक है। आदर्श लिपि वही माना जाता है जिसमें एक ध्वनि के लिए एक लिपि संकेत की व्यवस्था दी गई हो। देवनागरी लिपि एक आदर्श लिपि कही जाएगी, जबकि रोमन लिपि में यह गुण नहीं है। उदाहरण के लिए - जहाँ हिंदी में ‘क’ के लिए एक लिपि चिन्ह है, वहीं रोमन में छह k,c,q, ck,cc,ch ऐसे ही c से कहीं ‘स’ का बोध होता है तो कहीं ‘क’ का और कहीं ‘च’ का। स्वर के लिए रोमन में पाँच लिपि चिह्न (a,e,i,o,u) हैं जिससे अंग्रेजी में इक्कीस स्वरों का काम लिया जाता है। कहने का तात्पर्य है कि लिपि चिह्न निर्माण के लिए ध्वनियों का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत में ड़ और ढ़ ध्वनियाँ नहीं थीं पर हिंदी में हैं। संस्कृत में क्रीडति, पीडा शब्द था जो आज हम इसका उच्चारण क्रीड़ति और पीड़ा करते हैं। दृढ, गूढ, रूढ संस्कृत शब्दों का उच्चारण आज दृढ़, गूढ़ और रूढ़ हो गया है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से ध्वनियों का सही-सही उच्चारण उत्तम भाषा का द्योतक है। किसी भाषा पर तब तक अच्छी पकड़ नहीं बन सकती जब तक उन भाषाओं की ध्वनियों का शुद्ध उच्चारण करने का ज्ञान न हो। अतः यदि हिंदी भाषा का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना है तो हिंदी की ध्वनियों का सही उच्चारण और अक्षर ज्ञान आवश्यक है। इससे न केवल हिंदी अच्छी बोली जा सकेगी बल्कि हिंदी भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकेगा। संदर्भ-ग्रंथ सूची · गर्ग रमेशचंद्र (1973) ‘हिंदी व्यंजन स्वनिमों के प्रभेदक अभिलक्षण’ हिंदी भाषाविज्ञान विशेषांक (1973) भाषा प्र्रौद्योगिकी , केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली · धल.जी.बी. - ‘ध्वनिविज्ञान’, द्वितीय संस्करण-1984, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना · जग्गी, शारदा (1973) ‘हिंदी स्वर स्वनिमों के प्रभेदक लक्षण’ हिंदी भाषाविज्ञान विशेषांक (1973), भाषा (त्रैमासिक), केंद्रीय हिंदी निदेशालय · Jones Daniel (1956) An Outline of English Phonetics, Cambridge · Jones D. (1950) The Phoneme, its Nature & use, Cambridge · Chatterji S-K. - 'Phonetic Transcriptions in Indian Languages', Indian Linguistics,Vol.17, June 1957. LINGUISTICS EXPERTS at 10:36 PM Share 2 comments: vashini sharmaNovember 20, 2016 at 10:21 PM बेहतरीन शुरुआत के लिए बधाई ! वशिनी Reply Ritesh PandeyJanuary 22, 2017 at 6:07 AM सारगर्भित... Reply Load more...
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