दीन’ में समाया ‘ध्यान’ [1]
ए क-सी ध्वनि वाले शब्द भी भिन्न अर्थवत्ता की वजह से भाषा को समृद्ध बनाते हैं । हिन्दी में दो “दीन” बसे हुए हैं । एक “दीन” वह है जिसका साथ देना मानवता का धर्म है । ‘दीन’ यानी दुखी, वंचित, विपन्न व्यक्ति । एक अन्य ‘दीन’ वह है जिसका पालन कर हम मानवीय बने रह सकते हैं । ‘दीन’ यानी धर्म । पहला ‘दीन’ हिन्दी की तत्सम शब्दावली का हिस्सा है और दूसरा ‘दीन’ विदेशज शब्दावली में शामिल है । अक्सर ईमानदारी, नैतिकता को अभिव्यक्त करते हुए हम “दीनो-ईमान” और “दीन-धर्म”, “दीन-मज़हब” जैसे मुहावरों का प्रयोग करते हैं । “दीन-दुनिया” भी ऐसा ही मुहावरा है जिसका अर्थ है धर्म और समाज । तात्पर्य यह कि जीवनयापन करते हुए धर्म और समाज दोनो का ध्यान रखना । जो ऐसा नहीं करता, उसे गाफिल, बेफिक्र, बेगाना, बेहोश, पागल समझा जाता है । ऐसे लोगों के बारे में ही “दीन-दुनिया का होश न रहना” जैसा मुहावरा कहा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में “दीन-दुनिया” का अर्थ लोक-परलोक बताया गया है, जो मेरे विचार में सही नहीं है । इन सभी मुहावरों में ‘दीन’ शब्द बराबर मौजूद है जिसमें नैतिक कर्तव्य या धर्म का भाव है और प्रस्तुत आलेख में इसी ‘दीन’ की बात होगी । शब्दकोशों में ‘दीन’ को अरबी ज़बान का बताया गया है । प्लैट्स संकेत करते हैं कि ‘दीन’ का रिश्ता सम्भवतः पहलवी के ‘देन’ dēn से हो सकता है जबकि रज़ाकी के कोश में निश्चयपूर्वक ‘दीन’ को फ़ारसी से आयातित शब्द कहा गया है । पारसी साहित्य में दाएनम पद का प्रयोग भी धर्म के अर्थ में में हुआ है जिससे दीन का विकास हुआ है । ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी ‘दीन’ शब्द का विकास इंडो-ईरानी भाषा परिवार में हुआ नज़र आता है और अन्य भाषाओं में इसका व्यापक प्रसार हुआ है । धर्म, पंथ, मज़हब, कर्तव्य जैसे अर्थों में ‘दीन’ शब्द की व्याप्ति स्वाहिली, फ़ारसी, हिन्दी, पहलवी, किरगिज़ी, तुर्की, अज़रबैजानी, उज़्बेकी आदि अनेक भाषाओं में है । मेरे विचार में ‘दीन” का रिश्ता संस्कृत के “ध्यानम्” से है या यूँ कहें कि दाएनम और ध्यानम् समतुल्य हैं । दरअसल ‘दीन’ शब्द की फ़ारसी में स्वतंत्र अर्थवत्ता है और इसका विकास अवेस्ता के ‘दाएना’ से हुआ जिसमें पंथ, आस्था, मत, भरोसा, धर्म जैसे भाव हैं । इनसाइक्लोपीडिया इरानिका समेत विभिन्न स्रोत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि ‘दाएना’ पहलवी ज़बान के ‘दैन’ में रूपान्तरित होता हुआ फ़ारसी में ‘दीन’ बना । प्रो.डी. एन. मेकेन्जी की “कनसाइज़ पहलवी डिक्शनरी” में ‘दैन’ (dēn ) का अर्थ रिलीजन दिया हुआ है । कोश में ‘दैन-आस्तवान’ और ‘दैन-बुरदार’ जैसे शब्दयुग्म भी हैं जिनका अर्थ “धर्म में भरोसा रखने वाला” बताया गया है । अवेस्ता के ‘आस्तवन’ शब्द पर गौर करें तो यह संस्कृत के ‘आस्थावान’ का ही रूपान्तर नज़र आता है । मगर इसे संस्कृत ‘आस्थावान’ का रूपान्तर न कहते हुए वैदिक भाषा के ‘आस्थावान’ का सहोदर कहना ज्यादा सही होगा । ‘दैन-आस्तवान’ यानी ‘दीन’ में आस्था रखने वाला । ‘दैन-बुरदार’ का बुरदार वही प्रसिद्ध सर्ग है जो फ़ारसी में ‘बरदार’ (उठाने वाला, थामने वाला) के रूप में हिन्दी के कई प्रचलित शब्दों में नज़र आता है जैसे अलमबरदार या हुक्काबरदार जिसका अर्थ क्रमशः ध्वजवाहक या हुक्का उठाने वाला होता है । पारसियों ( प्राचीन ज़रथ्रुस्ती) के साहित्य में “दाएनम वंगुहिम मज़्दायस्निम” पद का उल्लेख आता है । “जोरास्ट्रियन हेरिटेज” में के. ई. एडुलजी बताते हैं कि इसमें ‘मज़्दायस्निम’ का अर्थ है ईश्वर की आराधना । ध्यान रहे, पारसी लोग अहुरमज्द की उपासना करते हैं । ‘मज़्दायस्निम’ में उसका ही उल्लेख है । ‘दाएनम वंगुहिम’ का अर्थ है विवेकयुक्त आस्था । भलीभाँति विचार किया हुआ, सुचिन्तित विश्वास । इस तरह इस पूरे पद का अर्थ हुआ- ईश्वर ( अहुरमज़्द ) की आराधना में सम्यक आस्था । ‘दाएनम् वंगुहिम’ बाद में अवेस्ता में ‘दाएना-वंगुही’ के रूप में ‘उत्तम-धर्म’ के अर्थ में अभिहित हुआ । अवेस्ता का वंगुही पहलवी में ‘वेह’ हुआ । मध्यकालीन फ़ारसी में इसका रूप ‘विह’ और फिर फ़ारसी में ‘बिह’ हुआ । इसी तरह दाएनम > दाएना > दैन होते हुए ‘दीन’ बन गया । –अगली कड़ी में समाप्त ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 11:24 PM 1 comment: Share Thursday, June 28, 2012 मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [2] पिछली कड़ी-मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [1] अ ब आते हैं चाकर / चाकुर पर । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर की तुलना में अल्प प्रचलित है अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ शब्दयुग्म का बहुधा प्रयोग होता है । अकेले ‘चाकर’ का इस्तेमाल हिन्दी की लोकबोलियों में ज्यादा होता है, परिनिष्ठित हिन्दी में कम । दरअसल यह शब्दयुग्म एक व्यवस्था का नाम है जिससे सेवकों के वरिष्ठता-क्रम का पता चलता है । उच्च स्तरीय सेवक ‘नौकर’ के दायरे में आते हैं जैसे मुंशी, गुमाश्ता आदि और निम्नस्तरीय सेवक ‘चाकर’ जैसे रसोइया अथवा माली । मध्यकाल में ‘नौकर’ को मुसाहब समझा जाता था जबकि ‘चाकर’ की श्रेणी में टहलुआ और भृत्य आते हैं । ये अलग बात है कि अब ‘नौकर’ और ‘चाकर’ में कोई अंतर नहीं है । हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है । सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था । ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच. विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’ शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था । एलेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’ भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान में हैं । बलूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’ या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है । अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है । भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता । भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था । सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है । खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है । देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) = काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)। क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर ) = सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) = चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली ) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी । यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और आखिर किसे परिचित करा रहे थे ? ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Pictures have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture. अजित वडनेरकर पर 11:59 AM 5 comments: Share मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [1] नौ कर-चाकर या “नौकरी-चाकरी” हिन्दी के बहुप्रयुक्त शब्दयुग्म है । आमतौर पर इसे विदेशज और देशज शब्दों के मेल से बना संकर युग्म माना जाता है । कई शब्द विदेशी मूल के होते हुए भी दूसरी भाषाओं में इतने समरस हो जाते हैं कि रूप-संरचना के आधार पर उनमें भिन्नता नज़र नहीं आती । ‘चाकरी’ भी हिन्दी का अपना तद्भव या देशज शब्द ही जान पड़ता है । ‘नौकर’ शब्द तो पहली नज़र में ही अरबी-फ़ारसी मूल का नज़र आता है जबकि ‘चाकर’ शब्द को देशज समझा जाता है । दरअसल इस शब्दयुग्म के में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं । ‘नौकर-चाकर’ का पहला सर्ग मंगोलियाई भाषा का है और इसका मूल ‘नुकुर’ है तो दूसरा सर्ग ‘चाकर’ तुर्किश ज़बान का शब्द है जिसका मूल ‘चाकुर’ है । फ़ारसी में आकर दोनों शब्दों का रूप ‘नौकर’, ‘चाकर’ हुआ । हिन्दी में ये दोनों ही शब्द बरास्ता फ़ारसी आए । इसीलिए हिन्दी, अंग्रेजी, सिन्धी, मराठी आदि अधिकांश शब्दकोशों में इन्हें फ़ारसी का बताया गया है । मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नौकर और चाकर मंगोल और तुर्क कबीलों की सैन्य शब्दावली से अर्थान्तरित शब्द है । कई लोग ‘चाकर’ को भारतीय मूल का समझते हैं और ऐसा समझने के पीछे ‘चाकर’ की ‘चक्र’ से सादृश्यता है । ‘चक्र’ से बने ‘चाक्रिक’, ‘चक्कर’, ‘चकरी’, ‘चाकोर’, ‘चाकर’ जैसे शब्द संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बलूच या फ़ारसी मं मौजूद हैं जिनमें कुम्हार, घेरा, घुमाव, फिरकनी, गोलाकार, जैसे भाव हैं । सेवक अपने स्वामी द्वारा सौपे गए कामों को अंजाम देने के लिए उसके इर्द-गिर्द चक्करघिन्नी बना रहता है इस भाव को लक्ष्य कर चक्र से ‘चाकर’ ( सेवक ) का रिश्ता जोड़ा जाता है, जबकि ‘चाकर’ ( सेवक ) की अर्थवत्ता इससे अलहदा है । अपने मूल रूप में ‘चाकुर’ यानी ‘चाकर’, सेवक नहीं बल्कि मित्र, सखा और स्वयंसेवक है । तुर्की ‘चाकुर’ दरअसल मंगोलियाई ज़बान के ‘नुकुर’ की तर्ज़ पर बना है । ‘चाकर’ को समझने के लिए मंगोल शब्द ‘नुकुर’ यानी ‘नौकर’ को जान लेना ज़रूरी है । विभिन्न संदर्भ बताते हैं कि मंगोलियाई ‘नुकुर /नोकोर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की के ‘चाकुर / चाकर’ का जन्म हुआ है । कहीं कहीं इसका उच्चारण ‘चाकोर’ भी है । मंगोल भाषा के ‘नुकुर [ nukur / nokor- प्रोटो मंगोलियन रूप । Nuokur- औपनिवेशिक इंग्लिश ] में बंधु, सखा, मित्र का भाव है । संस्थागत रूप में इसका बहुवचन नोकोद ( nokod ) होता है । प्राचीन मंगोल कबीलों के सैन्य ढाँचे में ‘नूकुर’ का अर्थ विस्तार हुआ और इसमें मित्र-योद्धा का भाव समाहित हुआ । बाद में इसमें अंगरक्षक या निजी सहायक का आशय समाहित हुआ और धीरे-धीरे इस शब्द (नुकुर) ने एक ऐसी संस्था का रूप ले लिया जो मंगोल कबीलों के सामाजिक ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा थी । ये लोग मूलतः स्वतंत्र योद्धा होते थे खुद को खाकान की सेवा में समर्पित करते थे । मंगोल कबीलों के सरदार को खाकान कहा जाता । प्रत्येक ख़ाक़ान के साथ अनुयायियों का जमावड़ा लाज़मी था जिसमें पारम्परिक तौर पर उसकी माँ और पत्नी के पक्ष के रिश्तेदार खास होते थे । मगर कुछ समर्थक कुटुम्बी न होकर सामान्य जन होते थे । सरदार के प्रति निजी आस्था के चलते वे उसके नज़दीकी दायरे में आ जाते थे । ऐसे लोगों को ‘नुकुर’ या ‘नोकोर’ कहा जाता था । अमेरिकी अध्येता लुईस एम.जे. शर्म “ द मंगर्स ऑफ द कान्सु-तिब्बतन फ़्रन्टियर ” में लिखते हैं कि इस वर्ग के लोग स्वेच्छा से खाकान को अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे । इनमें गुलाम भी हो सकते थे और युद्बबंदी भी । वैसे आमतौर पर ये स्वयंसेवक होते थे और युद्ध के दौरान हरावल दस्ते की तरह सबसे आगे चलते थे । चंगेज़ खान के दौर तक नुकुर / नोकोर परिपाटी ने संस्थागत रूप ले लिया था और नोकोर वर्ग के लोग राज्य में उच्चपदों पर तैनात थे । कई नुकुर /नोकोर तो सूबेदार का ओहदा तक पा लेते थे । नुकुर /नोकोर शब्द की व्याप्ति समूचे आल्ताइक भाषा परिवार में है और सभी में इसका आशय सखा, बंधु या अंगरक्षक का है जैसे तातार भाषा में यह नुगर है । उज्बेकी में यह नागार है जहाँ इसका अर्थ या तो खाकान का निजी सहायक है अथवा अथवा विवाह के दौरान दूल्हा-दुल्हन का बन्नायक या बेस्टमैन । तुर्किक भाषा में यह नावकर या नुकुर है जिसमें सेवक का भाव है । रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी के एटिमोलॉजिकल डेटाबेस में संग्रहित तुर्की भाषा विज्ञानी बत्तल अप्तुल्लाह के तुर्की और मंगोल व्युत्पत्ति कोश “इब्नु मुहेन्ना लुगाती” के मुताबिक समूचे मंगोल क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं मसलन-खाल्खा, बुरिअत, कल्मुक, ओर्दोस, दोम्खियन,बओअन, दागुर, शारी-योघुर और मंगर आदि प्रमुख भाषाओं में नुकुर /नोकोर की व्याप्ति है । गौरतलब है कि मंगोल प्रभावित क्षेत्र एशिया के सुदूर दक्षिण साइबेरिया, उत्तरी चीन से लेकर मध्यएशिया और पूर्वी यूरोप के हंगरी तक फैला है । औपनिवेशिक काल के एंग्लो-इंडियन समाज और कंपनीराज में जो शब्द प्रचलित थे उनका उनका संग्रह हेनरी यूल के कोश ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ में है । इसके मुताबिक ‘नौकर’ शब्द तुर्की मूल का है । हेनरी यूल जर्मन भाषाविद् इसाक जेकब श्मिट (1779 –1847) के हवाले से बताते हैं कि ‘नौकर’ शब्द मंगोल मूल के ‘नुकुर’ से निकला है जिसका अर्थ स्वयंसेवक, मित्र या आश्रित है । मंगोल-तुर्क क्षेत्र से लगते सोग्दियाना जैसे उत्तर-पूर्वी ईरान के लोग इससे पहले से ही परिचित थे ।इसका सर्वाधिक प्रसार चंगेज़ खान के सामरिक अभियानों के दौरान ही हुआ । चंगेज की अधीनता स्वीकारने वाले सरदारों को ‘नुकुर’ का दर्जा मिला । यह लगभग अरबी के गुलाम और माम्लुकों जैसा मामला था जो अधीनस्थ होते हुए भी ऊँचे ओहदे पर थे । भारतीय ‘दास’ शब्द को भी इसी कड़ी में देख सकते हैं । रामदास, रामसेवक, रामगुलाम जैसे नामों से ज़ाहिर है कि ये नाम सर्वशक्तिमान की अधीनता की महिमा बतलाने के लिए बनाए गए । मेरे विचार में उच्चवर्ग के इस शब्द का उपहासात्मक प्रयोग आम लोगों में शुरु हुआ । बाद में मित्रयोद्धा, सहकारी, अंगरक्षक, सहचर की अर्थवत्ता वाला यह शब्द सिर्फ़ सेवक के अर्थ में रूढ़ हो गया । ‘नौकर’ से बने ‘नौकरी’ शब्द में असम्मान का वह भाव नहीं है जो ‘नौकर’ में समझा जाता है । ‘नौकरी’ आज आजीविका-कर्म का पर्याय है जबकि ‘नौकर’ को सिर्फ़ सेवाकर्मी समझा जाता है । अलबत्ता ‘नौकरशाह’ या ‘नौकरपेशा’ शब्दों में इस शब्द का महत्व सुरक्षित है । मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [2] [अगली कड़ी में समाप्त] ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें Pictures have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture. अजित वडनेरकर पर 11:40 AM 2 comments: Share Wednesday, June 27, 2012 फरारी, फुर्र और फर्राटा वि भिन्न समाज-संस्कृतियों में शब्द निर्माण की प्रक्रिया न सिर्फ़ एक समान होती है बल्कि उनका विकास क्रम भी एक जैसा ही होता है । हिन्दी में भाग छूटना, निकल भागना, पलायन करना जैसे अर्थों में ‘फ़रार’ शब्द का सर्वाधिक प्रयोग भी किया जाता है । ‘फ़रार’ अपने आप में क्रिया भी है और संज्ञा भी । वैसे हिन्दी में इसका क्रियारूप ‘फ़रारी’ ज्यादा प्रचलित है । ‘फ़रार’ वह व्यक्ति है जो प्रतिबन्ध के बावजूद भाग खड़ा हुआ है । अचानक गायब हो जाने, भाग खड़ा होने के लिए हिन्दी में अन्य अभिव्यक्तियाँ भी हैं जैसे “रफ़ूचक्कर हो जाना”, “नौ-दो-ग्यारह होना” या “फ़ुर्र हो जाना” आदि । इनमें “फ़ुर्र हो जाना” बेहद सहज मुहावरा है जिसकी अभिव्यक्ति दिन भर में न जाने कितनी दफ़ा इन्ही अर्थों में होती है । कहने की ज़रूरत नहीं है कि फुर्र हो जाना इस अभिव्यक्ति का रिश्ता उड़ जाने से है । ध्यान रहे उड़ जाने का रिश्ता गायब हो जाने से है । यूँ भी चलने-दौड़ने की क्रिया की बनिस्बत उड़ना में तीव्रता का भाव है । इसलिए तेज गति वाली वस्तु निगाहों से बहुत जल्दी ओझल हो जाती है । इसे ही गायब होना कहते हैं । इत्र की शीशी से रिस कर सुगंध हवा में तैरती है । शीशी से जब सुगंध खत्म हो जाती है तो उसे इत्र का उड़ना कहा जाता है । फुर्र या ‘फ़रार’ जैसे शब्दों का रिश्ता मूलतः उड़ने से है । ‘फ़रार’ या ‘फ़रारी’ जैसे शब्द हिन्दी में फ़ारसी से होते हुए आए हैं । इनका मूल ठिकाना अरबी ज़बान है । ‘फ़ुर्र’ शब्द हिन्दी का देशज है या अरबी, फ़ारसी की अभिव्यक्ति है यह कहना मुश्किल है मगर इतना तय है कि फुर्र और फ़रार शब्द सेमिटिक और इंडो-ईरानी परिवारों के बीच रिश्तेदारी के पुख्ता सबूत पेश करते हैं । ‘फुर्र’ से जुड़ी शब्दावली पर गौर करें-फड़फड़ाना, फड़कना, फरफर, फरफराना, फहर-फहर, फहराना आदि । ये सभी शब्द डैनों के ज़रिये उड़ने की आवाज़ से पैदा होने का बोध कराते हैं । हिन्दी में ‘डैना’, ‘पंख’ और ‘पर’ दोनों शब्द प्रचलित हैं । ‘पंख’ हिन्दी का अपना है और ‘पर’ फ़ारसी से आया है । संस्कृत के ‘पक्ष’ से ‘पंख’ के जन्मसूत्र जुड़े हैं जिसका अर्थ है किसी वस्तु, स्थान या विचार के दो प्रमुख भाग या हिस्से । पंख का विकास पक्ष > पक्ख > पंख के क्रम में हुआ । पंख को पंजाबी में 'खंब' भी कहते हैं । गौर करें कि पंख का वर्ण विपर्यय ही खंब में हो रहा है । वैदिक शब्दावली के ‘पर्ण’ से फ़ारसी के पर की रिश्तेदारी है । संस्कृत के ‘पर्ण’ की धातु ‘पृ’ है जिसमें सरपास करना, आगे बढ़ जाना, दूर चले जाना या मात कर देना जैसे भाव हैं । संस्कृत में ‘प’ वर्ण अपने में उच्चता का भाव समेटे है। उड़ान का ऊँचाई से ही रिश्ता है । परम, परमात्मा जैसे शब्दों से यह जाहिर हो रहा है । पंख की उच्चता का संकेत इस बात से भी मिलता है कि सभी प्राचीन संस्कृतियों में पंखों से ही मुकुट बनाए जाते थे । ‘पर’ में भी यही उच्चता लक्षित हो रही है। संस्कृत की पत् धातु का अभिप्राय है उड़ना, फहराना, उड़ान आदि । पत का रिश्ता अंग्रेजी के 'फैदर' ( feather) से है जिसका अर्थ पंख होता है । द्रविड़ परिवार की कोत भाषा में पर्न या पर्नद का मतलब भी उड़ना ही है । यहाँ संस्कृत के ‘पर्ण ‘से सादृश्यता पर विचार करना चाहिए । द्रविड़ और फारसी में एक जैसा रूपांतर यह भी स्थापित करता है कि किसी ज़माने में द्रविड़ भाषाओं का प्रसार सुदूर उत्तर पश्चिम तक था । ‘पर’ से ही बना है फ़ारसी का ‘पर्चः’ जिसका अर्थ काग़ज़ का टुकड़ा या पुर्जा । इस पर्चः का उच्चारण हिन्दी में परचा या पर्चा होता है जिसका रिश्ता पर्चम / परचम से भी जुड़ रहा है जिसका अर्थ है झंडा, झंडे का कपड़ा। ‘पर्चम’ किसी भी राष्ट्र, समाज या संगठन का सर्वोच्च प्रतीक होता है । पुर्जा या काग़ज़ का टुकड़ा पर्चा कहलाता है जो इसी शब्दावली से जुड़ा है । अरबी के ‘फ़रार’ का विकास फ़र्रा से हुआ है जिसका अर्थ है उड़ना या उड़ान । अल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसकी धातु फ़े-रे-रे अर्थात (फ़-र-र) है । भाषाविज्ञानियों के मुताबिक इसका विकास सेमिटिक धातु पे-रे-रे (प-र-र) से हुआ है । प्राचीन सेमिटिक भाषा अक्कद में एक शब्द ह पररू (पर्रू) जिसमें छिटकने, दूर जाने, विभक्त होने का भाव है । इन तथ्यों के मद्देनज़र संस्कृत के ‘पृ’ , फ़ारसी के ‘पर’ और अरबी-सेमिटिक ‘फ़-र-र’ और ‘प-र-र’ समतुल्य जान पड़ते हैं । संस्कृत की ‘पृ’ धातु और सेमिटिक ‘प-र-र’ धातुओं में समानता है न सिर्फ़ ध्वनिसाम्य बल्कि अर्थसाम्य भी है । दोनों का अर्थ छिटकना, दूर जाना है । दूर जाने, छिटकने के लिए हिन्दी में “परे हटो”, “परे जाओ” कहा जाता है जिसमें उपरि वाला ‘परि’ ही नज़र आ रहा है । इसका रिश्ता परिधी वाले ‘परि’ से भी हो सकता है । दूसरी तरफ़ ‘प’ वर्ण में निहित उच्चता पर ध्यान दें । ‘पंख’ ऊँचाई पर ले जाते हैं । पंख के अर्थ में ‘डैना’ शब्द पर गौर करें । यह संस्कृत के उड्डीन से आर रहा है जिसमें उड़ने का भाव है । उड़ान, उड़ना, उड़ाका, उड़न, उड्डयन जैसे शब्दों के मूल में ‘उड्डीन’ ही है जिसकी धातु ‘उद्’ है और इसका प्रयोग उपसर्ग की तरह भी होता है जिसकी उपस्थिति ‘उदीयमान’, ‘उच्चाटन’, ‘उत्पात’ आदि अनेक शब्दों में नज़र आती है । ‘उद्’ में भी छिटकने, विभक्त होने, दूर जाने, ऊपर उठने का भाव है । कहने का तात्पर्य है है कि उड़ने से जुड़े जितने भी शब्द हैं, उनमें मूल भाव छिटकने, पृथक होने का है । यह पार्थक्य धरातल से दूर जाने में प्रकट होता है । फड़फड़ाहट हर तरह से छिटकने-छिटकाने की क्रिया है । पंखों के गतिशील होने, धरातल से दूर हवा में उठने के लिए यह क्रिया होती है । पंख फड़फड़ाकर पक्षी खुद को सुखाते हैं अर्थात पानी को दूर छिटकाते हैं, खुद को साफ करते हैं । इस छिटकने में गति है । मूल अवस्था या बिन्दू से लगातार दूर जाने का भाव । एन्ड्रास रज्की के कोश में अरबी के ‘फ़र्राटा’ farrata शब्द का उल्लेख है (हिन्दी के फर्राटा से इसके रिश्ते पर सोचें) जिसका अर्थ है सीमा पार कर जाना, आगे बढ़ जाना । हिन्दी के फर्राटा में सरपट, बहुत शीघ्रता जैसे भाव हैं । इसी तरह उड़ने की क्रिया और ‘फरफर’ ध्वनि के आधार पर अरबी में एक चिड़िया का नाम भी फ़ुरफ़ुर है । अल सईद एम बदावी के कोश में फ-र-र का अर्थ पलायन, स्थान छोड़ना, जल्दबाजी में होना आदि है । पलायन का यही भाव फ़रार ( फ़िरार ) में आता है जिसका मूल अरबी अर्थ है दौड़ जाना, भाग जाना, बच निकलना, छोड़ जाना, गच्चा देना या उड़ जाना आदि । हिब्रू में भी छिटकने, दूर जाने के अर्थ में प-र-र धातु ही है । इंडो-ईरानी शब्द सम्पदा के ‘पर्ण’ से फ़ारसी में ‘पर’ का विकास पंख के अर्थ में हुआ । यूँ संस्कृत का ‘पर्ण’ पत्ता है जिसमें छा जाने, रक्षा करने का भाव है । इसकी मूल धातु ‘पृ’ में दूर जाने, छिटकने, ऊँचे उठने, पार जाने की अर्थवत्ता है । पत्तों के ऊँचाई पर स्थित होने, हवा में फड़फड़ाने, उड़ने जैसे लक्षणों से फ़ारसी के ‘पर’ में पंख की अर्थवत्ता स्थापित होती है । सेमिटिक बाराखड़ी में ‘प’ वर्ण है जबकि अरबी में ‘प’ वर्ण नहीं है । अक्कद भाषा अरबी से भी प्राचीन है और प्राचीन सुमेरियाई सभ्यता में इसका चलन था । भाषाविज्ञानियो का स्पष्ट मत है कि प्राचीन सुमेर संस्कृति का प्राचीन भारत से गहरा सरोकार था । उड़ने, छिटकने, पलायन के अर्थ में अरबी के फरार ( फ़र्रा ) का रिश्ता एन्ड्रास रज्की सेमिटिक ‘प-र-र’ से जोड़ते हुए इसका विकास अक्कद भाषा के ‘पररू’ से बताते हैं । अरबी में ‘पर्रू’ का रूप फर्रा हुआ । संस्कृत के पृ > पर्ण का विकास फ़ारसी में ‘पर’ हुआ । समझा जा सकता है कि आर्य परिवार की ध्वनियों का प्रभाव उस दौर में आज के इराक तक रहा होगा । शब्दों का अध्ययन विश्व भाषाओं की अनेकता से ज्यादा उनकी एकता को पहचानने का सफ़र है । ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 10:34 PM 4 comments: Share Tuesday, June 26, 2012 गुण्डे की नेता से रिश्तेदारी "कन्नड़ में गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे ।" प्रा यः सभी भाषाओं में शब्दोंकी अर्थावनति की प्रवृत्ति होती है । प्रभाव और महिमा का बोध कराने वाले शब्द काल के प्रवाह में धीरे धीरे व्यग्यसूचक हो जाते हैं बाद में उनमें विपरीत भाव तक पैदा हो जाता है । शब्दों का सफ़र में ऐसे अनेक उदारहरण मिल जाएँगे जैसे ऐहदी, नौकर, चाकर, पाखण्डी, गुरु आदि। तथाकथित नेता इस बात से नाराज़ रहते हैं कि उन्हें गुण्डा कहा जाने लगा है । अब उन्हें कौन समझाए कि नेता वह है जो किसी समूह को राह दिखाए, अगुवाई करे । नेता शब्द की अभिव्यक्ति वाले न जाने कितने शब्द हैं जैसे-नायक, प्रमुख, प्रधान, सरदार, आक़ा, साहिब, गुरु वगैरह वगैरह । अब गुण्डों का सरदार भी नायक ही होता है । अब अगर गुण्डा शब्द के मूल में ही प्रधान और नेता जैसे भाव हों तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ! और बुरा ही मानना है तो खुद को नेता कहलवाना भी बंद कर दें क्योंकि नेता की अर्थवत्ता ने भी नकारात्मक रूप अपना लिया है । जब कोई व्यक्ति ज्यादा दंद-फद दिखाता है उसे नेता कहते हैं । नेतागीरी शब्द पूरी तरह से नकारात्मक है जिसका अर्थ है निजी स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाना । गुण्डा शब्द की व्याप्ति आर्यभाषा परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में क़रीब क़रीब एक सी है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इसमें निहित नकारात्मक भाव भी सभी भाषाओं में है किन्तु दक्षिण की मराठी, तमिल जैसी भाषाओं से यह संकेत मिलता है कि मूलतः गुण्डा शब्द का आशय शक्तिशाली, प्रभावशाली, ताक़तवर, नायक जैसी अर्थवत्ता रखता था । तेलुगू में गुण्डुराव या गुण्डूराज आख़िर प्रभावी नाम ही हैं जिसका अर्थ नेता, प्रमुख ही है। आखिर गुण्डा शब्द में इन भावों का विकास किस तरह हुआ होगा ? सबसे पहले बात करते है इसके जन्मसूत्रों और रिश्तेदारियों की । संस्कृत के गुंड, गंड, गुड़, खण्ड, खांड, काण्ड जैसे शब्द एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । इन सबमें जो मूल भाव है वह है उभार । ध्यान रहे ये सभी शब्द एक वर्णक्रम में आते हैं अर्थात क-ख-ग आदि । एक ही वर्णक्रम के शब्द आपस में रूपान्तरित भी होते हैं । उभार के अर्थ पर ध्यान दें । समतल पर किसी उठाव का पैदा होना दरअसल उस समतल क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है । कोई भी पर्वत शृंखला दरअसल पार्थिव उभार है जिसके दोनो ओर के इलाके पृथक भूक्षेत्र होते हैं । गुड़ का जन्म हुआ है गड् से जिसमें पिण्ड का भाव भी है, कूबड़ अथवा गाँठ का भी और रस, राब या शीरा का भी । ये सभी लक्षण गन्ने हैं । गन्ना का मूल काण्ड और गण्ड दो शब्दों से बताया जाता है । ये दोनों एक ही कतार में खड़े हैं । गण्ड का अर्थ उभार या गाँठ होता है । ध्यान रहे, गन्ने पर एक निश्चित दूरी पर उभार होता है जिसे गाँठ कहते हैं । इसी उभार के लिए संस्कृत में काण्ड शब्द भी है । अध्याय, खण्ड, विभाग जैसे अर्थों पर जो मुख्यतः विभाजन को बताते हैं । पौराणिक ग्रन्थों के अध्यायों को काण्ड कहा जाता था पुस्तक के विभिन्न भाग काण्ड कहलाते थे । गन्ने का तना देखें तो इसमें भी यही काण्ड नज़र आता है । इस काण्ड का ही एक रूप खण्ड है । खण्ड यानी विभाग, क्षेत्र, अंश आदि । हमारे इर्दगिर्द खण्ड से जुड़ी कितनी ही संज्ञाएँ हैं जैसे झारखण्ड, उत्तराखण्ड, बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड आदि इसका ही रूप फ़ारसी में कन्द होता है जैसे ताशकन्द, समरकन्द आदि । आप्टे कोश के मुताबिक काण्ड के मूल में संस्कृत का कण् है । संस्कृत की कण् धातु में क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने का भाव है। कण् में पीसना, चूरना जैसा भाव भी है । पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है । यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या । संस्कृत की कण् धातु में निहित हिस्सा, शाखा, भाग, लघुतम अंश जैसे अर्थों से ही इसमें अध्याय या प्रसंग का भाव विकसित हुआ । घास प्रजाति के पौधे के लिए भी काण्ड शब्द प्रचलित हुआ जिसमें बाँस से लेकर गन्ना भी शामिल है । किसी वृक्ष की शाखा, डाली अथवा तने को भी काण्ड कहा जाता है। इसी कड़ी से जुड़ा है प्रकाण्ड शब्द । संस्कृत का प्र उपसर्ग जब संज्ञा या विशेषण से पहले लगता है तो उस शब्द में सम्पूर्णता का भाव भी समाहित हो जाता है । इस तरह एक नया विशेषण बनता है जिसमें अत्यधिक, आधिक्य या अत्यंत का भाव समाहित है जैसे पेड़ का तना । प्रकांड का दूसरा अर्थ है कोई भी प्रमुख पदार्थ या वस्तु। इसीलिए आमतौर पर किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रवीणता रखनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में प्रकांड पंडित कहा जाता है। संस्कृत के गण्ड में उभार का जो भाव है वह उसे विशिष्ट बनाता है । समतल सतह पर कोई भी उभार विशिष्ट है । समाज में किसी व्यक्तित्व का उभार उसे खास बनाता है । ऐसे लोग नायक कहलाते हैं । गण्ड का एक अर्थ नायक, योद्धा या शूरवीर भी है । संस्कृत के गण्ड का प्रभाव द्रविड़ भाषाओं पर भी है । तमिल में कण्डन का अर्थ भी योद्धा होता है । कन्नड़ में गुण्ड का अर्थ चाकर होता है जो किसी ज़माने में फौज की अग्रिम पंक्ति के नायक होते थे । जे पी फेब्रिसियस के तमिल लैक्सिकन के मुताबिक गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । तेलुगु में व्यक्तिवाचक संज्ञा के तौर पर गुंडूराव नाम खूब प्रचलित है । इसमें नायक का ही भाव है । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे । पर्वतशृंखलाएँ पृथ्वी का उभार ही हैं और पर्वत शिखरों में नायक भाव स्थापित है । उभार से ही गण्ड के गण्डि, गुण्डी, घुण्डी, गण्डा जैसे रूप सामने आते हैं जिसका अर्थ है कोई ग्नन्थि, गूमड़, रूई या कपड़े का गोला, गेंद या मन्त्र विद्ध ताबीज आदि । मराठी में एक शब्द है गांवगुंड जिसका अर्थ है ग्रामनायक या ग्रामयोद्धा । अथवा भांड-मीरासी जैसा कोई पात्र जो देखते ही देखते अपने करतबों से भीड़ जुटा लेता है । मराठी में गुंडा शब्द का अर्थ है एक गोल, चिकना पत्थर । यह सालिगराम भी हो सकता है । इसके अलावा एक दुष्ट या कमीन किस्म का व्यक्ति जो हर तरह की चालें चलना जानता है । कुल मिला कर “गुण्ड” जो किसी समूह का नायक था, बाद में अपनी उद्धत, अहंकारी वृत्ति के चलते खल-चरित्र बन गया । नायक शब्द की अर्थवत्ता तो कायम रही मगर नायक की अर्थवत्ता वाले गण्ड, गुण्ड जैसे शब्दों की अर्थावनति हुई । अशिष्ट, अशालीन, उदण्डतापूर्व व्यवहार करने वाले व्यक्ति को गुण्डा की संज्ञा मिली । ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 7:43 PM 6 comments: Share Saturday, June 23, 2012 शब्दों के सालिगराम लो क की भाषा हमेशा प्रवाहमयी होती है । इसका वेग शब्दों को जिस तरह माँजता, चमकाता है, जिस तरह उनका अनघड़पन तराशकर उन्हें सुघड़ बनाता है, शब्दों का मोटापा घटा कर उन्हें सुडौल बनाता है, वह सब अनुकूलन के अन्तर्गत होता है जो प्रकृति की हर चीज़, हर आयाम में नज़र आता है । अनुकूलन यानी सहज हो जाना । सहजता ही स्थायी है, सहजता में ही प्रवाह है और सहजता ही जीवन है । जीवन यानी गति, प्रवाह । प्रकृति के अर्थ से ही सब कुछ स्पष्ट है । प्रकृति यानी जो मूल है , पहले से है । अपने मूल रूप में ही कोई चीज़ सहज रहती है । इस मूल वस्तु में प्रकृति के विभिन्न रूपाकारों के साहचर्य से निरन्तर बदलाव होता है जिसका आधार ही अनुकूलन है । भाषा पर समाज और भूगोल का बड़ा प्रभाव पड़ता है । मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार भाषा की खोज है । विभिन्न मानव समुदायों में ध्वनियों के उच्चारण भी भिन्न होते हैं । मनुष्य ने ध्वनि-समूहों को पहचाना और फिर शब्दों के रूपान्तर सहज हो गए । क्ष का रूपान्तर क, ख, श हो सकता है । श का रूपान्तर स में हो सकता है । य का रूपान्तर ज में हो सकता है और व का रूपान्तर ब, प में हो सकता है । स के ह में बदलने का क्रम भारत से ब्रिटेन तक एक सा है । दिलचस्प रूपान्तरों के हजारों उदाहरण हमें बोलचाल की भाषा में मिलते हैं । तत्सम या संस्कृत मूल के शब्द जब आमजन की अभिव्यक्ति का हिस्सा बनने लगते हैं तो लोकबोली का प्रवाह उन शब्दों के जड़ स्वरूप को गतिमान बनाता है । लोक में प्रचलित कितने ही शब्दों का मूल जानकर अचरज होता है कि काल के प्रवाह में ये कितने बदल गए । और यह बात भी ध्यान आती है कि ये न बदलते तो बोली-भाषा का अभिन्न अंग भी न बन पाते । अन्यमनस्कता के लिए उचाटपन शब्द का इस्तेमाल भी हो सकता है पर लोकमानस ने सामान्य संवाद के लिए अन्यमनस्कता को बरसों पहले एकतरफ़ रख कर अनमना शब्द बना लिया था । तब क्या हमें अन्यमनस्कता के गायब हो जाने का स्यापा करना चाहिए ? गौर करें कि यह अनमना शब्द भी अन्यमनस्कता से ही जन्मा है । हाँ, साहित्यिक लिखत-पढ़त में अथवा शिष्टसंवाद के लिए संस्कृतनिष्ठ, तत्सम प्रभाव वाला अन्यमनस्कता शब्द भी स्मृति से लुप्त नहीं हुआ है और व्यवहार में बना हुआ है । ध्यान रहे अन्यमनस्कता में मुख्य तत्व मन का है । जिसका जी किसी एक जगह न लगता हो । बार-बार ध्यान भंग होता है, कहीँ और भटकता हो । मन का कहीं ओर भटकना ही अनमनापन है । अन्य में इतर, कहीं ओर, भिन्न आदि भाव हैं । मन का कहीं ओर जाना ही अन्यमनस्कता है । हिन्दी में एक और ऐसा ही शब्द है वैमनस्य जिसका प्रचलित अर्थ शत्रुता, द्वेषभाव, बैरी होना है। यह बना है संस्कृत के विमन से । इसका फ़ारसी रूप बेमन है । ध्यान रहे संस्कृत के वि उपसर्ग का फ़ारसी रूप बे होता है । विमन में म्लान, कुम्हलाया हुआ, खिन्न, उदास, निष्चेष्ट, क्लांत जैसे भाव हैं । लगभग यही बात बेमन में है । हिन्दी के तत्सम शब्द बोली-भाषा में अलग रूप लेते हैं जिसकी कुछ जानी-पहचानी प्रवृत्तियाँ हैं । मिसाल के तौर पर व का ब हो जाना बेहद आम है । यह अनुकूलन के लिए ही होता है । सैकड़ों उदाहरण हैं- वेद > बेद । वैद्यनाथ > बैजनाथ । सामान्यतौर पर द्वि की वृत्ति दु में बदलने की है । यह नज़र आता है द्विवेदी के दुबे रूपान्तर में । इसी तरह अच्छा-भला विष्णु बन जाता है बिशन । वञ्क का टेढ़ापन बाँका बन कर नमूदार होता है । वातिंगण > बैंगन । वात > बादी । विमान > बिमान > बेवान । वन > बन । वट > बड़ । वामन > बौना । वकील > बोकील । वाराणसी > बनारस । विकार > बुखार । विष्ट > बीट । वल्लभ > बल्लभ । वाल्मीकि > बाल्मीकी > बामी । वीणा > बीन । वचन > बयन > बैन । विना > बिना > बिन । स्पष्ट है कि हिन्दी की बोलियों ने तत्सम शब्दावली के विमन की तुलना में फ़ारसी बे उपसर्ग लगने से बने बेमन को अपनाया क्योंकि यूँ भी विमन को बेमन होना ही था, जो बरास्ता फ़ारसी मिल गया । वैमनस्य के भीतर का विमन मनमुटाव और उससे भी बढ़कर द्वेष का भाव धारण कर रहा है जबकि स्वतन्त्र रूप में विमन अन्यमनस्कता, उचाटपन या खिन्नता को उजागर कर रहा है । संस्कृत के उच्चाटन का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का उच्चट शब्द है जो उद् और चट् के मेल से बना है । उद्+चट् की संधि उच्चट होती है । उद यानी ऊपर, चट् यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । उच्चाटन भी इसी उच्चट से ही बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि । आग में लकड़ी के जलने की चट्-चट् आवाज़ होती है जो लकड़ी की ऊपरी परत के अलग होने से पैदा होती है । गाल पर पड़े थप्पड़ को चाँटा कहते हैं जिसका मूल यही चट् है । जिस प्रहार को गाल पर जड़ने से चटाक की आवाज़ आती है उस क्रिया को चाँटा कहा गया । अधीरता दिखाते हुए कुछ भी खाने की क्रिया को चलती बोली में भकोसना कहते हैं । भकोसना की अर्थवत्ता इतनी सशक्त है कि बिना चबाए, हप-हप कर खाते व्यक्ति का चित्र सामने आ जाता है । आहार ग्रहण करने, खाना खाने, भोजन करने की की सामान्य क्रिया को संस्कृत में भक्षण कहते हैं । हिन्दी की अल्प प्रचलित तत्सम शब्दावली में भी भक्षण शब्द इसी अर्थ में मगर कुछ नाटकीय अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । आहार ग्रहण करने की अतिमानवीय क्रिया का आभास कराती है भक्षण का प्रयोग । यही नाटकीय अभिव्यक्ति साकार हुई लोकभाषा में और भक्षण > भकसन > भकोसन रूप में सामने आई । इसका एक अन्य रूप भकोसना हुआ । गौर करें अनगढ़ पत्थर या चट्टान पर । अगर ये किसी बहती धारा के रास्ते में हैं तो निश्चित ही समय के साथ इनका आकार चिकना, सुघड़ होता चला जाता है । पानी की धार ने निर्बाध बहने के लिए पत्थर की खुरदुरी सतह को चिकना कर दिया । इसे यूँ भी कह सकते हैं कि पत्थर ने अपनी कठोर सतह को घिस जाने दिया । शब्दों के साथ भी ऐसा ही होता है । भाषा के बहते नीर में घिस-घिस कर शब्दों के सालिगराम ( शालिग्राम) बनते हैं । यही अनुकूलन है । ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 7:56 PM 5 comments: Share Tuesday, June 19, 2012 थप्पड़ की रसीद या रसद की ? पा वती या ‘बिल’ के लिए एक आम शब्द है ‘रसीद’ । यह फारसी का है मगर हिन्दी में ‘पावती’ शब्द बहुत कम इस्तेमाल होता है और ‘रसीद’ ज्यादा । हालाँकि रसीद में पावती का भाव अधिक है । पावती यानी प्राप्ति अर्थात जिसे पा लिया जाए । पावती का बिल के अर्थ में भाव है भुगतान मिलने की सूचना । यह सूचना बिल की शक्ल में आपको सौंपी जाती है । मूलतः रसीद इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और इसकी व्याप्ति भारोपीय भाषा परिवार की कई भाषाओं में देखी जा सकती है । रसीद में मूलतः पहुँचने या प्राप्त होने की क्रिया निहित है । ‘रसीद’ बना है फ़ारसी की क्रिया ‘रसीदन’ से जिसमें पाने, पहुँचने का भाव है । गए बिना कहीं भी कैसे पहुँचा जा सकता है? पहुँचना और पाना गतिवाचक क्रियाएँ हैं और रसीदन में गति का भाव ही खास है । विभिन्न संदर्भों को देखने से पता चलता है कि ‘रसीद’ शब्द में बुनियादी तौर पर वैदिक ध्वनि ‘ऋ’ ( जो एक शब्द भी है ) की महिमा नज़र आती है । देवनागरी का ‘ऋ’ अक्षर दरअसल संस्कृत भाषा का एक मूल शब्द भी है जिसका अर्थ है जाना, पाना । जाहिर है किसी मार्ग पर चलकर कुछ पाने का भाव इसमें समाहित है । ‘ऋ’ की महिमा से कई इंडो यूरोपीय भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू, फारसी अंग्रेजी, जर्मन वगैरह में दर्जनों ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ जिन्हें बोलचाल की भाषा में रोजाना इस्तेमाल किया जाता है । हिन्दी का ‘रीति’ या ‘रीत’ शब्द इससे ही निकला है । ‘ऋ’ का जाना और पाना अर्थ इसके ऋत् यानी रीति रूप में और भी साफ हो जाता है अर्थात् उचित राह जाना और सही रीति से कुछ पाना । हिन्दी संस्कृत का जाना-पहचाना ऋषि शब्द देखें तो भी इस ऋ की महिमा साफ समझ में आती है । ‘ऋ’ से बनी एक धातु है ‘ऋष्’ जिसका मतलब है जाना-पहुँचाना । इसी से बना है ऋषि जिसका शाब्दिक अर्थ तो हुआ ज्ञानी, महात्मा, मुनि इत्यादि मगर मूलार्थ है सही राह पर ले जाने वाला । फारसी के ‘रशद’ या ‘रुश्द’ जैसे शब्द जिसका अर्थ है सन्मार्ग, दीक्षा और गुरू की सीख । शब्दकोशों में इन्हें अरबी का बताया गया है, मगर ख्याता भाषाविज्ञानी और आलोचक डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक ये फ़ारसी से अरबी में गए हैं और ऋ का विकास ही हैं । इसी से बना ‘रशीद’ जिसके मायने हैं राह दिखानेवाला । ‘राशिद’ भी इससे ही बना है जिसके मायने हैं ज्ञान पानेवाला । यही नही ‘मुर्शिद’ यानी गुरू में भी इसी ‘ऋ’ की महिमा है । ‘पावती’ के अर्थ में ‘रसीद’ शब्द में इसी ‘ऋष्’ की अर्थछाया नज़र आती है । जॉन प्लैट्स के कोश में फ़ारसी के ‘रस’ का विकास क्रमशः पहलवी रश और ज़ेंद के राश से हुआ है । ये शब्द वैदिक धातु ‘ऋष्’ के समतुल्य हैं । ईरान के भाषाविज्ञानी और खगोलशास्त्रज्ञ मोहम्मद हैदरी मल्येरी लिखते हैं कि फ़ारसी के प्राच्य रूपों में यह ‘रसा’ है जो वैदिक शब्द ‘अर’ से आया है जिसमें चक्रगति, परिक्रमा, भ्रमण जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स के अनुसार यह ‘अर’ भी ‘ऋ’ से ही आ रहा है । हिन्दी में ‘आरी’ उस दाँतेदार यन्त्र को कहते हैं जिससे कठोर सतह को काटा जाता है । आमतौर पर इससे लकड़ी ही काटी जाती है। ‘आरी’ में यही ‘अर’ है । रहँट के मूल में भी अर है जो अरघट्ट से आ रहा है । इसे समझने के लिए किसी गरारी लगे यंत्र के चक्कों में बनें दाँतों पर गौर करें । संस्कृत में इसके लिए ही ‘अर’ शब्द है जिसके मूल में ‘ऋ’ धातु है । ‘ऋ’ में मूलतः गति का भाव है। जाना, पाना, घूमना, भ्रमण करना, परिधि पर चक्कर लगाना आदि । गरारी के दाँतों में फँसी शृंखला घूमते हुए यन्त्र के चक्के लगातार घूमते रहते हैं । इसी ‘रस’ से ‘रसाई’ शब्द भी बना है जिसमें पहुँच का ही भाव है जैसे “ग़ालिब तक अपनी रसाई कहाँ ?” उर्दू का ‘रसाँ’ शब्द प्रत्यय की तरह इस्तेमाल होता है जैसे ‘चिट्ठीरसाँ’ यानी पत्रवाहक या पत्र पहुँचाने वाला । पावती के अर्थ में रसीद में रुक्का, टिकट, सील भी है जिसमें लगने, चस्पा होने, जड़ने, चिपकने, मिलने की निशानी का भाव है । इसी भाव को अभिव्यक्ति मिलती है जब किसी के गाल पर ‘थप्पड़ रसीद’ किया जाता है । गाल पर हथेली के निशान दरअसल पावती ही है जो साबित करती है कि सामने वाले को उसके किए की सज़ा मिल चुकी है । फ़ारसी के ‘रसीद’ और अंग्रेजी के ‘रिसीट’ शब्दों में ग़ज़ब का ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य है मगर इन दोनों के जन्मसूत्र अलग-अलग हैं । अंग्रेजी के ‘रिसीट’ ( receipt ) में भी बुनियादी तौर पर पाने , प्राप्त करने का आशय है इसका आधार रिसीव है जो बना है लैटिन के रेसपिअर recipere से । इसका अर्थ है लेना, पाना । लैटिन के रेसपिअर में री + सिपेअर हैं । री अर्थात पुनः, फिर और सिपेअर यानी प्राप्त करना । इस तरह लैटिन के रेसपिअर का भूतकालिक रूप होता है रिसेप्टा recepta जिसमें प्राप्त हो चुकने का भाव है । इसके एंग्लो-फ्रैंच रूप से प का लोप होकर receite बना । अंग्रेजी की वर्तनी में प की मौजूदगी बनी रही मगर उच्चारण फ्रैंच प्रभावित रहा अर्थात रिसीट हुआ । आज हिन्दी में अंग्रेजी का रिसीट और फ़ारसी का रसीद दोनों शब्द बेहद प्रचलित हैं । गौरतलब है कि मरीज़ का मुआयना करने के बाद डॉक्टर जो पर्चा ( प्रेस्क्रिप्शन ) लिखते हैं उस पर “Rx” चिह्न दर्ज़ करते हैं जिसका भाव यही रहता है कि मरीज़ को देख कर उसके लिए उपचार-विधि लिखी जा चुकी है । यह जो नुस्खा है , यही डॉक्टर द्वारा मरीज़ को दी गई प्राप्ति है । यह मूलतः recipe का संक्षेपीकरण है । कहने की ज़रूरत नहीं कि पाक-विधि के लिए आज हिन्दी में ज्यादातर प्रयुक्त रेसपी शब्द भी यही है जिसमें नुस्खा या विधि का भाव है । फ़ारसी की रसीदन क्रिया से ही निकला है एक और जाना-पहचाना शब्द जिसका इस्तेमाल फौजी शब्दावली में ज्यादा होता है , वह है ‘रसद’ । फौजी राशन या कच्ची खाद्य सामग्री जो सैनिकों में बराबर बाँटी जाती है । आमतौर पर फौज के लाव-लश्कर में रसद सबसे महत्वपूर्ण सामग्री होती है । ‘रसद’ में पाने का भाव यहाँ भी स्पष्ट है । आहार वह है जिसे उदरस्थ किया जाए मगर रसद वह कच्ची सामग्री है जिससे आहार तैयार किया जाता है । रसद में नून, तेल, लकड़ी सब कुछ शामिल है । जॉन प्लैट्स के कोश में रसद के गल्ला, राशन, खाद्यान्न, आपूर्ति, राशन-भत्ता, हिस्सा, कोटा, अंश, प्राप्त, आयात, राजस्व, खाद्य भण्डार जैसे अर्थ शामिल हैं । सम्बन्धित आलेख- 1.घटाओं का घटाटोप.2.टिकट की रिश्तेदारियाँ.3.ऋषि कहो, मुर्शिद कहो, या कहो राशिद ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 10:46 PM 6 comments: Share Tuesday, June 12, 2012 ‘गौड़बंगाल’ या “बंगाल का जादू” क भी-कभी अपनी मातृभाषा से इतर भाषाओं में हमें विभिन्न शब्दों की अर्थछटाएँ देखने को मिलती हैं और कई बार नितांत अपरिचित शब्द की छानबीन करने पर भी अपनी भाषा के किसी न किसी शब्द या मुहावरे से उसका विस्मित करने वाला रिश्ता सिद्ध होता है । बीते एक साल से महाराष्ट्र में हूँ तो ऐसे ही कई शब्दों से साबका पड़ रहा है । जालसाज़ी, ठगी, साज़िश के संदर्भ में अखबारी सुर्ख़ियों आमतौर पर गौडबंगाल शब्द पढ़ने को मिलता है जैसे – “रेल्वेभर्तीचे गौडबंगाल उघड़” अर्थात रेल्वे भर्ती में गौडबंगाल का खुलासा। मराठी में भी लगभग यही भाव हैं । सरमोकदम के कोश में इसका अर्थ लबाडी [यानी झूठा, खोटा] हिकमत [ यानी चातुर्य], मसलत [ यानी युक्ति ] बताया गया है । साथ ही जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र का भाव भी इसमें है । कुल अब ये कहने की बात नहीं कि ठगी का काम चतुराई से किया जाता है जिसे चालाक-होशियार आदमी ही कर सकता है । ठगे जाने के बाद व्यक्ति की पहली प्रतिक्रिया चमत्कृत रह जाने की होती है । इसी भाव की वजह से “ठगा सा रह जाना” जैसा मुहावरा जन्मा है । गौडबंगाल में जो बंगाल शब्द है उसमें बंगाल प्रान्त से ही अभिप्राय है । प्राचीनकाल से ही बंगाल प्रदेश को जादू-टोना की भूमि माना जाता रहा है और इसी वजह से बंगाल का जादू जैसा मुहावरा प्रचलित हुआ । वैदिक संस्कृति के समानात्तर ही भारत में तान्त्रिक संस्कृति का भी विस्तार था । अथर्ववेद इसका प्रमाण है जिसमें तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोना से सम्बन्धित चीज़ों का वर्णन है । मध्यकाल में भारतीय मनीषा के रहस्यवादी दर्शन का एक अंग तन्त्रवादी साधना के रूप में सामने आया । एक वक्त था जब समूचा भारत ही तन्त्र-मन्त्र से आविष्ट था । वृहत्तर भारत में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदाय थे जिनमें पूर्व दिशा में अंग, वंग, कलिंग, गौड, कामरूप, विदेह, मगध आदि प्रान्तों में यह विचारधारा काफी उत्कर्ष तक पहुँची । वङ्ग का एक रूप बंग हुआ और उससे ही यह समूचा क्षेत्र बंगाल कहलाया । इससे सटे हुए गौड क्षेत्र का नाम भी बंगाल के साथ चस्पा हुआ और गौड़बंगाल शब्द ही मध्यकाल में बोला जाता था । आधुनिक बंगाल में भी महान जादूगर हुए हैं और आज भी बंगाली जादूगरों का लोहा पूरा देश मानता है । प्राचीनकाल में भी बंगाल के शक्तिपीठों में तन्त्रसाधना होती थी मगर बारहवीं सदी से सोलहवीं सदी के बीच तो बंगाल तन्त्रसाधना का अखाड़ा ही बन गया । बंगाल शब्द संस्कृत के वङ्ग (मोनियर विलियम्स) से बना है । आप्टे कोश में इसका मूल वङ्गाः बताया गया है । इसमें बंगाल प्रदेश तथा उसके निवासियों की पहचान अभिहित है । इसके अन्य अर्थों में कपास, बैंगन का पौधा, सीसा, रांगा, एक विशिष्ट वृक्ष आदि हैं । पुराणों में अंग, वंग, कलिंग, पुण्ड्र, सुह्म (सूक्ष्म) राज्यों के नाम हैं जो राजा बलि के पुत्रों के नामों पर थे । बलि निस्संतान थे । उनके आग्रह पर रानी सुदेष्णा दृष्टिहीन दीर्घतमा ऋषि के साथ नियोग-संसर्ग से इन पाँच पुत्रों की माँ बनी थीं । प्राचीन अंग की पहचान आज के भागलपुर, सहरसा , पुण्ड्र यानी पूर्णिया ज़िला, वङ्ग यानी ढाका के आसपास का क्षेत्र , सूह्म (सूक्ष्म) की पहचान मुर्शिदाबाद, वीरभूम ज़िलों में तथा कलिंग आज के उड़ीसा का पूर्वोत्तर क्षेत्र है । एक क्षेत्रविशेष के रूप में नामकरण के पीछे इनमें से कौन सा अर्थ प्रभावी हुआ, यह कहा नहीं जा सकता । बंगाल के साथ लगे गौड को पहचाना आपने ? यह वही है गौड़ है जो ब्राह्मणों का एक उपनाम या उपवर्ग भी है । देशभर में फैले गौड ब्राह्मणों के आदिसूत्र बंगाल से या उसके पड़ोसी उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों से जुड़ते हैं । मोनियर विलियम्स और वाशि आप्टे के कोश में गौड शब्द का रिश्ता गुड़, रस, रस-निषेचन गुड़ निर्मित शराब आदि से बताया गया है । मोनियर विलियम्स के कोश में गौड की प्रविष्टि में इसका एक अर्थ " sugar country " बताया है । इसके अलावा इसका मतलब किसी न किसी प्रकार से गौड़ से सम्बद्ध होना भी है । अब गौड़ का अर्थ तो हर हाल में गन्ना और गुड़ से ही जोड़ा गया है । गौड़ प्रान्त की स्थिति के बारे में विभिन्न संदर्भ अलग-अलग जानकारी देते हैं क्योंकि अलग-अलग कालखण्डों में गौड़ प्रान्त का भूगोल बदलता रहा है । गौड़ के साथ बंगाल का युग्म ही महत्वपूर्ण है । एक और दिलचस्प तथ्य यह भी कि आप्टे कोश में गौड और पुण्ड्र क्षेत्र को एक ही बताया गया है और पुण्ड्र का अर्थ भी लाल, कमल, गुड़, गन्ना आदि बताया गया है । पुण्ड्र से ताल्लुक रखते ब्राह्मण पौण्ड्रिक कहलाए । एक विशिष्ट यज्ञ का नाम भी पुडरीक ध्यान रहे गौड से सम्बद्ध लोग भी गौड कहलाए । गौड़ की परम्परा गौडी या गौडीय हुई । गौड़ की शराब भी गौड़ी कही गई और गौड के अनुष्ठानकर्ता, याजक, होतृ, पुरोहित आदि गौड़ ब्राह्मण कहलाए । राजतरंगिणी के मुताबिक गौड़ का राजा जयंत था जिसने तब भागलपुर से लेकर गोड्डा, बांकुड़ा और मुर्शिदाबाद तक अपना राज्य फैला लिया था जो वङ्ग कहलाता था । इस तरह यह समूचा क्षेत्र ही गौडबंगाल कहलाने लगा था । कश्मीर नरेश जयादित्य ने सातवीं-आठवीं सदी में गौड प्रान्त को जीत लिया था । बंगाल के गौड़ ब्राह्मण समूचे देश में फैले । राजस्थान, गुजरात, कश्मीर, उत्तराखण्ड यहाँ तक कि केरल में भी गौड़ ब्राह्मण पहुँचे । तान्त्रिक संस्कृति से प्रभावित पूर्व के अंग, वंग, कलिंग, गौड, कामरूप, विदेह, मगध जैसे प्रान्तों के पुरोहितों की ख्याति पश्चिमी क्षेत्रों तक पहुँची । ईरान के अग्निपूजकों को दीक्षित करने के लिए मगध के पुरोहित ( मग ब्राह्मण) जाते थे जिनकी सौर उपासना प्रणालियों से विस्मित युनानी इतिहासकारों ने उन्हें जादूगर कहा । मग ब्राह्मणों को मागी कहा गया । इनमें से कई लोग ईरान में ही बस गए और कई समूह लौट कर आए । जादू के अर्थ में मैजिक शब्द के पीछे भी मग ही है । स्पष्ट है कि पूर्वांचल की तन्त्रविद्या का प्रभाव व्यापक रहा । कोई आश्चर्य नहीं कि कालान्तर में बंगाल नाम के पीछे पूर्व की इसी विशिष्ट विद्या का आशय रहता था । बंगाल का जादू अर्थात पूरब का जादू । बौद्धयुग में समूचे भारत में तन्त्रविद्या ने जोर पकड़ा । सौरविद्या के माहिर मग ब्राह्मण भी सौर उपासना पद्धति की जगह तन्त्र-मन्त्र की तरफ उन्मुख होने लगे । विभिन्न यात्रियों के अनुभवों से बंगाल का जादू, गौड़बंगाल जैसे मुहावरे और समास लगातार प्रसार पाते गए । कई तमाशेबाजों नें भी बंगाल का काला-जादू , बंगाली जादूगर जैसे शब्दों का मनमाना प्रयोग कर इन्हें प्रचारित किया । इन मुहावरों-शब्दों की अर्थवत्ता में कहीं विस्तार हुआ और कहीं संकुचन भी । मराठी तक आते-आते गौडबंगाल से भूगोल लापता हो चुका था और उसकी जगह मुहावरा हावी हो चुका था जिसमें उस क्षेत्र की प्राचीन संस्कृति का बोध होता है । गौडबंगाल की तर्ज़ पर मायावी या जादूगर को गौडबंगाली कहते हैं । वैसे देखा जाए तो नामों-पुराणों की महिमा न्यारी है । स्कंदपुराण के एक श्लोक के अनुसार पूरे भारत में पंचद्रविड़ की तरह ही पंचगौड़ हैं अर्थात पाँच गौड़नामधारी क्षेत्र हैं । इस पर श्लोक भी है –“कर्णाटकाश्च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रकाः , गुर्जराश्चेति पञ्चैव द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे ।। सारस्वताः कान्यकुब्जा गौडा उत्कलमैथिलाः, पञ्चगौडा इति ख्याता विन्ध्स्योत्तरवासिनः ।। गौरतलब है कि विद्वान झारखण्ड के गोड्डा और उत्तरप्रदेश के गोंडा को भी गौड़ का रूपान्तर ही मानते हैं । ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 6:49 PM 6 comments: Share
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