नाजाइज़ थी जज़िया की इजाज़त ।
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अरबी मूल का इजाज़त शब्द अनुमति, आज्ञा अथवा परवानगी के अर्थ में खूब प्रचलित है।
इसके अतिरिक्त इसमें आदेश, निर्देश या हुक्म का भाव भी शामिल है।
इजाज़त बना है अरबी की ख्यात धातु जज़ा से जिसके एकाधिक सेमिटिक रूप हैं और जिसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है।
जज़ा से अरबी भाषा में कई शब्द बने हैं जिनमें से अनेक बरास्ता फ़ारसी ज़बान होते हुए हिन्दी समेत भारत की कई बोलियों-भाषाओं में भी खूब प्रचलित हैं। जज़ा की सेमिटिक धातु है gwz जिसमें गुज़रना, निकल जाना जैसे भाव हैं। गौरतलब है ज्यादातर प्राचीन भाषा समूहों के शब्दों का निर्माण कुछ सीमित क्रियाओं की वजह से ही हुआ है जो व्यापार-व्यवसाय और विपणन संबंधी थी जिनमें पशुपालन से लेकर देशाटन, पर्यटन और भ्रमण जैसी क्रियाएं आ जाती हैं। इसके अलावा धार्मिक क्रियाएं, आवास-निवास और युद्ध भावना से जुड़ी शब्दावली से भी भाषाएं समृद्ध हुईं। जज़ा की अर्थवत्ता का विकास भी इसी तरह हुआ है। गुज़रना, निकल जाना जैसे भावों से ज़ाहिर होता है कि किसी ज़माने में प्राचीन अरब के घुमंतू बेदुइन समाज की घुमक्कड़ी के विभिन्न आयामों से इसका विकास हुआ होगा। गुज़र जाना और निकल जाना जैसे भाव व्यापारिक काफ़िलों से लेकर सामान्य कबीलों के आवागमन से जुड़ा है। एक कबीला जब दूसरे की अमलदारी से गुज़रता था तो वहाँ से होकर जाने की एवज़ में सौजन्यतावश कुछ भेंट स्थानीय ज़मींदार को देने का रिवाज़ था। बाद में यह सौजन्यव्यवहार सरकारी नीति बन गया। अब कुछ शुल्क या कर चुकाना पड़ता था। कहीं यह जबरी था, तो कहीं यह स्वाभाविक रिवाज़। निश्चित ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते लोगों में वस्तुओं का आदान-प्रदान होता ही होगा। कबीलाई समाज में जब राज्यसत्ता के गुण विकसित हुए तब इस निर्बाध आवागमन के लिए अनुमति या आज्ञा जैसा अनुशासन विकसित हुआ होगा। जज़ा से तभी इजाज़त जैसा शब्द जन्मा होगा। मूल रूप में जज़ा से अरबी में इजाज़ा (ह) बना जिसने उर्दू-हिन्दी में इजाज़त का रूप ले लिया जबकि फ़ारसी में यह एजाज़त और तुर्की में इसाजेत हुआ। समझ सकते हैं कि यहाँ आकर जज़ा में क्षतिपूर्ति, बदले की राशि या एवजी भुगतान जैसे भाव विकसित हुए। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हुए निश्चित ही घुमंतु समाजों में अपनी अपनी अमलदारियाँ कायम करने का सिलसिला भी रहा। प्रवासी मन एक सीमा के बाद निवासी होना चाहता है, सो अपनी अमलदारियों से गुज़रने पर उन्होंने टैक्स भी लगाया और इन इलाकों से गुज़रते दूसरे समाजों के लिए पासपोर्ट या आज्ञापत्र जैसी व्यवस्था भी लागू कर दी। जज़ा से बने इजाज़त लफ़्ज़ से यह स्पष्ट है। यह भी ज़ाहिर है कि अब तक बिना किसी रोक-टोक वहाँ से गुज़रते समाजों को यह नागवार लगता होगा और वे जबर्दस्ती वहाँ दाखिल होकर, बिना महसूल चुकाए गुज़रने की चेष्टा करते होंगे। अरबी में इसके लिए एक शब्द है तजावुज़, जो हिन्दी में अप्रचलित है। तजावुज़ यानी अपनी हद से आगे बढ़ना, सीमोल्लंघन करना, अपने अधिकारक्षेत्र से बाहर जाकर काम करना, अतिक्रमण करना, नाफ़रमानी करना या हुक़्मउदूली करना जैसे भाव इसमें शामिल हैं। तजावुज़ की कड़ी का ही शब्द है तज्वीज़ या तजवीज़ जो हिन्दी में प्रचलित है और आमतौर पर इसमें सलाह, तरकीब, विचार, युक्ति, प्रस्ताव या जुगत जैसे भाव शामिल हैं और आमतौर पर हिन्दी में यह शब्द यही सीमित अर्थछायाएं प्रकट करता है। मूल रूप से तजवीज़ और तजावुज़ एक ही हैं, बस दोनों में भावों की तीव्रता का फ़र्क़ है। यूँ कहें कि तजवीज़ दरअसल तजावुज़ से पहले की अवस्था है। तज्वीज़ में योजना, मंसूबा, प्रयत्न, कोशिश या फ़ैसला जैसे भाव हैं जो तजावुज़ में निहित भावों या क्रियाओं की पूर्वावस्था है। किसी क्षेत्र का अतिक्रमण करने से पहले की योजना या चिंतन को ही प्राचीनकाल में तज्वीज़ कहा गया। वृहत् हिन्दी कोश में तज्वीज़-तजवीज़ का अर्थ युक्ति, विचार, तरकीब के सिद्धांतः जज़िया की उगाही की रकम धर्मार्थ कार्यों में ख़र्च की जाती थी या फ़ौजी अभियानों में इसका इस्तेमाल होता था। ध्यान रहे, इस्लाम का विस्तार भी किन्हीं राज्यसत्ताओं के लिए एक किस्म का फ़ौजी अभियान ही था जिसकी आड़ में देश की बहुसंख्यक जाति से इस्लामी शासकों नें खूब दौलत बटोरी। अलावा योजना, आक्रमण या मंसूबा भी बताया गया है। वैध के संदर्भ में हिन्दी में अरबी मूल के जाइज़ (जायज़) jaiz शब्द भी प्रचलित है। उचित, योग्य के संदर्भ में भी इसका प्रयोग होता है। अरबी में तो नहीं, मगर फ़ारसी में आने के बाद ना उपसर्ग लगाकर फ़ारसवालों ने अवैध, अनैतिक के अर्थ में इससे नाजाइज़ (नाजायज़) शब्द बना लिया। यह शब्द भी जज़ा की कतार में खड़ा है। जो कुछ भी इजाज़तशुदा है, यानी जिसकी अनुमति ली जा चुकी है, वह सब वैध या जाइज़ है, बाकी नाजाइज़। अवैध, अनैतिक, ग़लत, पाप, अपराध जैसे तमाम अर्थविस्तार इसके दायरे में आ जाते हैं। परख, निरीक्षण या हिसाब रखने के संदर्भ में जायज़ा शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में शुमार है जो इसी शृंखला से जुड़ा है। अरबी में इसका शुद्धरूप जाइजः jaiza है। इस्लामी दौर में हिन्दुओं पर लगाए गए जज़िया कर के बारे में इतिहास की क़िताबों में खूब उल्लेख आता है जिसका मूल अरबी रूप जिज़्या है। इस्लामी शासकों की पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयों की मिसाल के तौर पर इसका ज़िक्र होता है। जज़िया एक क़िस्म की ज्यादती थी। संदर्भों में उल्लेख है कि इस्लामी शासकों ने तीन से बारह रुपए सालाना तक जज़िया टैक्स वसूला था। जज़िया भी जज़ा से ही बना है। जज़िया को आमतौर पर इस्लामी व्यवस्था माना जाता है पर मेरा अनुमान है कि यह इस्लाम से पूर्व से अरब के कबाइली समाज में प्रचलित रहा है और कबीलों के आवागमन और घुमक्कड़ी संबंधी पूर्वोल्लिखित परिस्थितियों में ही इसका जन्म हुआ। इसकी पुष्टि होती है गैब्रिएल सामां लिखित द आरमेइक लैग्वेज ऑफ द कुरान से जिसमें वे इस्लाम के ख्यात व्याख्याकार विलियम मोंटगोमेरी वाट के हवाले से बताते हैं कि निश्चित ही इस्लामपूर्व के कबीलाई समाज में एक ख़ास इंतजाम के तहत एक ताकतवर जाति के लोग अपने पड़ोसी कमज़ोर क़बीलों की सुरक्षा के बदले उनसे कुछ टैक्स वसूलते थे, जिसे जिज़्या कहते थे। मोंटगुमरी यह भी कहते हैं कि क़रार अगर बीच में ही खत्म हो जाता, तब वसूल की गई राशि लौटा भी दी जाती थी। जज़िया का ज़िक़्र दरअसल आज जिस रूप में होता है, वह इस्लाम के जन्म के बाद का है। इसका कर या शुल्क वाला स्वरूप और ताक़तवर द्वारा कमज़ोर को सुरक्षा देने का भाव तो बना रहा, बस मज़हब इसमें जुड़ गया। जो ग़ैरइस्लामी क़बीले, इस्लामी शासन के तहत रहते, जज़िया उनकी सुरक्षा की गारंटी था, जिसके बदले उन्हें सालाना टैक्स देना पड़ता था। पहले अरबों के इस क़ानून का शिकार बने यहूदी और ईसाई। बाद में भारत आने के बाद हिन्दुओं पर इसकी खूब आज़माईश हुई। सिद्धांतः जज़िया की उगाही की रक़म धर्मार्थ कार्यों में ख़र्च की जाती थी या फ़ौजी अभियानों में इसका इस्तेमाल होता था। ध्यान रहे, इस्लाम का विस्तार भी किन्हीं राज्यसत्ताओं के लिए एक किस्म का फ़ौजी अभियान ही था जिसकी आड़ में देश की बहुसंख्यक जाति से इस्लामी शासकों नें खूब दौलत बटोरी। इस धर्म-कर की वसूली सरकारी सख्ती से होती हुई स्थानीय स्तर पर दुर्दान्त ज्यादती में तब्दील हो जाती थी। जज़िया जैसा कर निश्चित ही अपने पुराने रूप में इजाज़ा यानी अनुज्ञा, आज्ञाशुल्क का ही एक रूप रहा होगा जो बाद में धर्म-कर जैसी भद्दी और विभेदकारी शक्ल में उभरा। पर इस पूरे मामले का जायज़ा लिया जाए तो इतना तो साफ़ है कि जज़िया की इजाज़त किसी ज़माने में नाजाइज़ नहीं थी, मगर धर्म-कर के रूप में इसकी वसूली की तज्वीज़ से इस्लामी शासक खूब फले-फूले। ये सफर आपको कैसा लगा ?
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