"यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-
मत्स्यपुराण-अध्याय (143) -
उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति( Marketing) की स्थापना हो गयी।३।
उसके बाद वर्णाश्रम की स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रों द्वारा पुनः संहिताओं को एकत्रकर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई? हमलोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आप लोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये।४।
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।५।
उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए।६।
उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे।७।
सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वर ( उदात्त- स्वर) से सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वर से मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।८।
पशुओं का समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था।९।
जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभाग के भोक्ता थे। और जो प्रत्येक कल्प के आदि में उत्पन्न होनेवाले देव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।१०।
इसी बीच जब यजुर्वेद के अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञ की यह कैसी विधि है ?।११।
आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषा से जो जीव-हिंसा करने के लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है।१२।
ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसा के व्याज से धर्मका विनाश करनेके लिये अधर्म करनेपर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो आगम( पुराण) विधि से धर्म का अनुष्ठान कीजिये। १३।
सुरश्रेष्ठ ! शास्त्र-विहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।१४।
इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्मा ने इसी को महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे।१५।
फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।१६।
यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसु से प्रश्न किया।१७।
ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगों का संशय दूर कीजिये।१८।
सूतजी कहते हैं! उन ऋषियों का प्रश्न ! सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे।१९।
उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलों से भी यज्ञ किया जा सकता है।२०।
मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञ का स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रों को उत्पन्न किया है।२१।
दीर्घ तपस्या के द्वारा प्राप्त युक्ति से उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। २२।***
द्विजवरो ! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।'२३।
वसु द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षि ने अपनी बुद्धि से विचार किया और अवश्यम्भावी विषय को जानकर राजा वसु को विमानसे नीचे गिर जाने का तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।२४।
ऋषियों कि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये।२५।
ऋषियों के शाप से उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करनेवाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए ।२६ ॥
अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्मके विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता।२८।
इसलिये पूर्वकाल में जैसा ऋषियों ने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं।२९।
इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञ की प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं।३०।
ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता,।३१।
ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा| और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं,जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं।३२।
यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्या की सहायिका समता है। यज्ञों से देवताओं की तथा तपस्या से विराट् ब्रह्म (परमेश्वर )की प्राप्ति होती है।३३।**
कर्म (फल) का त्याग कर देने से ब्रह्म-पद की प्राप्ति होती है, वैराग्य से प्रकृति में लय होता है और ज्ञान से कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं।३४।
पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में यज्ञ की प्रथा प्रचलित होने के अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था।३५।
तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्म का विनाश किया जा रहा है, तब वसु के कथन की उपेक्षा कर वे ऋषिगण जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।३६।
उन ऋषियों के चले जाने पर देवताओं ने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नरेश तपस्या के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की थी।३७।
प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस।३८।
प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं।३९।
जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणोंसे सभी प्रकार यज्ञसे बढ़कर है।४०।
पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यद्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्तिका मूल कारण तपही कहा गया है।४१।
-भागवतपुराण
श्रीमद्भागवत् में (४।२५।७।८ मेंं) एक यज्ञ के विषय में लिखा है कि हे राजन् ! तेरे यज्ञ में जो हज़ारों पशु मारे गये हैं तेरी उस क्रूरता का स्मरण करते हुए क्रोधित होकर तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं।भागवत पुराण - स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति - अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन - श्लोक 7
श्लोक
4.25.7
नारद उवाच
भो भो: प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे
संज्ञापिताञ्जीवसङ्घान्निर्घृणेन सहस्रश:॥७।
शब्दार्थ:-
नारद: उवाच—नारद मुनि ने उत्तर दिया; भो: भो:—हे, अरे; प्रजा-पते—हे प्रजा के शासक; राजन्—हे राजा; पशून्—पशुओं को; पश्य—देखो; त्वया—तुम्हारे द्वारा; अध्वरे—यज्ञ में; संज्ञापितान्—मारे गये; जीव-सङ्घान्—पशु समूह; निर्घृणेन— निर्दयतापूर्वक; सहस्रश:—हजारों ।.
अनुवाद:-नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
तात्पर्य:-चूँकि वेदों में पशु-यज्ञ की संस्तुति है, अत: समस्त धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि दी जाती है। किन्तु शास्त्रों में दी गई विधि से पशुबलि करके संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। मनुष्य को इन अनुष्ठानों से ऊपर उठकर वास्तविक सत्य—जीवन लक्ष्य—जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
श्लोक 7: नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
भागवत पुराण » स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति » अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन » श्लोक 8
श्लोक
4.25.8
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव
सम्परेतम् अय:कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यव:॥ ८॥
शब्दार्थ
एते—ये सब; त्वाम्—तुम्हारी; सम्प्रतीक्षन्ते—प्रतीक्षा कर रहे हैं; स्मरन्त:—स्मरण करते हुए; वैशसम्—पीड़ा; तव—तुम्हारी; सम्परेतम्—मृत्यु के पश्चात्; अय:—लोहे के; कूटै:—सींगों से; छिन्दन्ति—छेदेंगे; उत्थित—जागृत; मन्यव:—क्रोध ।.
अनुवाद:-ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गये आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के अपने सींगों से बेध डालेंगे।
"स्कन्दपुराण*
अध्याय 9 - हिंसा से संबंधित यज्ञों की उत्पत्ति-
1. हे ऋषिवर ! भविष्य में धर्म की हानि होने के कारण काल के प्रभाव से दुर्वासा ने कहा, "मैं क्षमा नहीं करूंगा" और कैलाश को चले गए ।
2. तब देवी श्री भी तीनों लोकों से समुद्र में अन्तर्धान हो गईं। समस्त देव कन्याएँ सशरीर इन्द्र को छोड़कर श्री के पीछे चली गईं।
3. तप, पवित्रता, दया, सत्य, पाद , सच्चा धर्म, समृद्धि, अलौकिक शक्तियाँ, बल, सत्व (अच्छाई का गुण) - ये सभी श्री के पीछे चले।
4. वाहन, हाथी आदि, सोने आदि के आभूषण, कीमती पत्थर आदि और धातु के उपकरण कम हो गए।
5. कुछ ही समय में भोजन, वनस्पति, जड़ी-बूटियाँ, तेल, चिकने पदार्थ आदि सब कुछ समाप्त हो गया। दूध देने वाले पशुओं, जिनमें गाय, भैंस प्रमुख थे, के थनों में दूध नहीं रहा।
6. कुबेर के भवन से नौ निधियाँ भी लुप्त हो गईं। इन्द्र सहित अनेक देवगण तपस्वी हो गए।
7. तीनों लोकों में भोग-सामग्री समाप्त हो गई। देवता, दैत्य और मनुष्य दरिद्रता से ग्रस्त हो गए।
8. चाँद अपनी मनोहर चमक खोकर समुद्र के जल के समान हो गया। भयंकर सूखा पड़ा जिससे अनाज के बीज और दाने पूरी तरह नष्ट हो गए।
9. बार-बार 'भोजन कहाँ है ?' चिल्लाते हुए भूख से व्याकुल और शक्तिहीन लोग गाँवों और कस्बों को छोड़कर जंगलों और पहाड़ों की ओर चले गए।
10. भूख से व्याकुल होकर उनमें से कुछ ने जंगली और पालतू दोनों प्रकार के जानवरों को मार डाला और उनका मांस, चाहे पका हुआ हो या कच्चा, खाया।
11. सच्चे धर्म का पालन करने वाले विद्वान पुरुष और ऋषि मांस नहीं खाते थे, भले ही उन्हें भूखा मार दिया जाता था।
12. उन्हें उपवास और भूखा रहने के लिए प्रेरित देखकर मनु सहित वृद्ध ऋषियों ने उन्हें वेदों में वर्णित विपत्ति में पालन किये जाने वाले धर्म की शिक्षा दी ।
भूख के कारण जिन ऋषियों की इन्द्रियाँ विकृत हो गयी थीं, उनमें से अधिकांश ने वेदों की विकृत व्याख्या की।
13-15. उन्होंने अज जैसे शब्द का अर्थ बकरा लिया और उपदेश दिया, "हे ब्राह्मणों ! (पशु) बलि दो। वेदों द्वारा निर्दिष्ट हिंसा ( हिंसा ) कोई दोष या पाप का कारण बनने वाली हिंसा नहीं है [2] । इसलिए, देवताओं और पितरों के नाम पर शुभ (बलि) पशुओं को मार डालो । अपनी इच्छानुसार (किसी भी पशु के) मांस को जल के छिड़काव से पवित्र करने और देवताओं और पितरों को नैवेद्य के रूप में समर्पित करने के बाद उसका भोग करो । लेकिन अपने स्वार्थ के लिए पशुओं की हत्या मत करो।"
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16. तब देवता, ऋषि, राजा और उनके द्वारा इस प्रकार सिखाए गए मनुष्यों ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार यज्ञ किए, सिवाय उन लोगों के जो केवल हरि के प्रति समर्पित थे ।
17-18. वे गोमेध (बैल-बलि), अश्वमेध (घोड़ा-बलि) और मानव-बलि [3] जैसे यज्ञ करते थे और यज्ञ के बाद बचे हुए मांस का आनंद लेते थे।
19. कुछ लोग नष्ट हुए धन के लिए यज्ञ करते हैं, कुछ लोग स्त्री, पुत्र और घर की प्राप्ति के लिए यज्ञ करते हैं, और कुछ लोग अपने व्यवसाय की समृद्धि के लिए यज्ञ करते हैं।
20. जो लोग महान यज्ञ करने में असमर्थ थे, वे विभिन्न अवसरों पर अपने पितरों के लिए श्राद्ध में पशुओं को मारकर स्वयं खाते थे और दूसरों को भी ऐसा करने को कहते थे।
21. समुद्र के किनारे या नदियों के किनारे रहने वाले कुछ लोग जाल से मछलियाँ पकड़ते थे और उन्हें खाने लगे।
22. हे ऋषिवर! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए गाय (बैल) और बकरे आदि पशुओं को मारकर उन्हें परोसा।
"गोघ्न- गांव हन्ति तस्मै अतिथि ( जिसके लिए गाय मारी जाए।-
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23. उस समय धन, मकान आदि के अभाव में तथा धर्मों के अनियमित मिश्रण के कारण एक ही जाति के व्यक्तियों के बीच विवाह का कोई नियम नहीं था।
24. समय की माँगों (और नए चलन) के अनुसार, अपनी जाति की वृद्धि और निरन्तरता के लिए, ब्राह्मण क्षत्रियों (और अन्य जातियों) की पुत्रियों से विवाह करते थे और क्षत्रिय तथा अन्य लोग ब्राह्मणों की पुत्रियों से विवाह करते थे।
इस प्रकार उस महाविपत्ति में हिंसा से युक्त यज्ञ प्रारम्भ हुए। धर्म स्वयं भगवती श्री के पीछे-पीछे समुद्र की तलहटी तक चला गया, जबकि धर्म का एक अंश ही शेष रह गया।
26. अधर्म अपने परिणामों सहित तीनों लोकों में व्याप्त हो गया और कुछ ही समय में फलने-फूलने लगा। बुद्धिमान और विद्वान लोगों के लिए भी उसे रोकना अत्यंत कठिन था।
27. उन गरीबी से त्रस्त लोगों ने असंख्य बच्चे पैदा किये और दुनिया में उनके परिवारों का विस्तार बहुत बढ़ गया।
28. उनमें से जो विद्वान हुए, उन्होंने इसे (अर्थात अधर्म, तत्कालीन प्रचलित प्रथाओं को) वास्तविक धर्म माना, और तदनुसार ग्रंथ लिखे।
29. परम्परा की शक्ति से वे ग्रन्थ कालान्तर में प्रामाणिक हो गए। प्रथम त्रेता युग में धर्म ने ऐसा ही कुरूप रूप धारण कर लिया था।
30. इसके बाद से यज्ञों और अन्य धार्मिक अवसरों पर पशु-वध का प्रचलन हो गया। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही सनातन धर्म का प्रभुत्व था।
31 हे ऋषि ! बहुत समय के पश्चात् देवराज इन्द्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और पुनः अपनी समृद्धि प्राप्त की।
32. तब श्री के स्वामी और धर्म के आश्रयदाता श्री हरि की कृपा से वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।
33. फिर भी कुछ देवता, ऋषि और मनुष्य ऐसे हैं, जिनकी अच्छी बुद्धि काम, क्रोध, लोभ और मांसाहार के प्रति आसक्ति से प्रभावित है,******
तथा जो आपद धर्म (अर्थात संकट के समय में किए जाने वाले कर्म) को ही मुख्य धर्म मानते हैं।
34. जो भगवान् के भक्त अपनी वासनाओं पर विजय पा चुके हैं और भगवान् के अनन्य भक्त हैं, वे विवश होने पर भी उन साधनाओं को नहीं अपनाते। अन्य अवसरों की तो बात ही क्या!
35. इस प्रकार, हे ब्राह्मण! मैंने तुम्हें बताया है कि प्रथम कल्प में हिंसायुक्त यज्ञ किस प्रकार प्रचलित हुए।
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :
कुबेर की नौ निधियाँ निम्नलिखित हैं: पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, नंद, नील और खर्व। इन्हें कुबेर या लक्ष्मी के सेवक के रूप में भी जाना जाता है।
[2] :
मीमांसक, पञ्चरात्रिक यानी रामानुज जैसे वैष्णवों का यही रुख रहा है।
[3] :
ऐसा लगता है कि पुराण-लेखक इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि तथाकथित नर-मेध में कभी भी मनुष्यों की हत्या नहीं की जाती थी । एबी कीथ और अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने विशेष रूप से इस ओर ध्यान दिलाया है कि यह नर-यज्ञ या मनुष्य-यज्ञ 'अतिथि-सम्मान' है। अधिक जानकारी के लिए केन, एच.डी., H.ii, अध्याय XXI, पृष्ठ 749-56 देखें।
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