भू-तल का भार दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को अपने गोप और गोपियों के साथ पृथ्वी पर अवतरित होने की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-६ से होती है जिसमें देवताओं के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा-
श्लोक..✍️
यास्यामि पृथिवीं देवा यात यूयं स्वमालयम् ।।
यूयं चैवांशरूपेण शीघ्रं गच्छत भूतलम् ।। ६१ ।।
इत्युक्त्वा जगतां नाथो गोपाना हूय गोपिकाः ।।
उवाच मधुरं वाक्यं सत्यं यत्समयोचितम् ।। ६२ ।।
गोपा गोप्यश्च शृणुत यात नंदव्रजं परम् ।।
वृषभानुगृहे क्षिप्रं गच्छ त्वमपि राधिके ।। ६३ ।।
वृषभानुप्रिया साध्वी नंदगोपकलावती ।।
सुबलस्य सुता सा च कमलांशसमुद्भवा ।।६४ ।।
पितॄणां मानसी कन्या धन्या मान्या च योषिताम् ।।
पुरा दुर्वाससः शापाज्जन्म तस्या व्रजे गृहे ।।६५।।
तस्या गृहे जन्म लभ शीघ्रं नंदव्रजं व्रज ।।
त्वामहं बालरूपेण गृह्णामि कमलानने ।। ६६ ।।
त्वं मे प्राणाधिका राधे तव प्राणाधिकोऽप्यहम्।।
न किंचिदावयोर्भिन्नमेकांगं सर्वदैव हि ।।६७।।
श्रुत्वैवं राधिका तत्र रुरोद प्रेमविह्वला ।।
पपौ चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचंद्रं हरेर्मुने ।।६८।।
जनुर्लभत गोपाश्च गोप्यश्च पृथिवीतले ।।
गोपानामुत्तमानां च मंदिरे मंदिरे शुभे ।।६९।।
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उवाच कमलां कृष्णः स्मेराननसरोरुहः ।।
त्वं गच्छ भीष्मकगृहं नानारत्नसमन्वितम् ।। 4.6.१२० ।।
वैदर्भ्या उदरे जन्म लभ देवि सना तनि ।।
तव पाणिं ग्रहीष्यामि गत्वाऽहं कुंडिनं सति ।। १२१ ।।
ता देव्यः पार्वतीं दृष्ट्वा समुत्थाय त्वरान्विताः ।।
रत्नसिंहासने रम्ये वासयामासुरीश्वरीम् ।। १२२।।
विप्रेंद्र पार्वतीलक्ष्मीवागधिष्ठातृदेवताः ।।
तस्थुरेकासने तत्र संभाष्य च यथोचि तम् ।।१२३।।
ताश्च संभाषयामासुः संप्रीत्या गोपकन्यकाः ।।
ऊचुर्गोपालिकाः काश्चिन्मुदा तासां च संनिधौ ।। १२४ ।।
श्रीकृष्णः पार्वतीं तत्र समुवाच जगत्पतिः ।।
देवि त्वमंशरूपेण जन नंदव्रजे शुभे ।। १२५ ।।
उदरे च यशोदायाः कल्याणी नंदरेतसा ।।
लभ जन्म महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।। १२६ ।।
ग्रामे ग्रामे च पूजां ते कारयिष्यामि भूतले ।।
कृत्स्ने महीतले भक्त्या नगरेषु वनेषु च ।।१२७ ।।
तत्राधिष्ठातृदेवीं त्वां पूजयिष्यंति मानवाः ।।
द्रव्यैर्नानाविधैर्दिव्यैर्बलिभिश्च मुदाऽन्विताः ।।१२८।।
त्वद्भूमिस्पर्शमात्रेण सूतिकामंदिरे शिवे ।।
पिता मां तत्र संस्थाप्य त्वामादाय गमिष्यति ।। १२९ ।।
कंसदर्शन मात्रेण गमिष्यसि शिवांतिकम् ।।
भारावतरणं कृत्वा गमिष्यामि स्वमाश्रमम् ।। 4.6.१३० ।।
अनुवाद:-
• देवताओं ! में पृथ्वी पर जाऊंगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंश से भूतल पर अवतार लो।
• ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं-
गोपों और गोपियों! सुनो। तुम सब के सब नंदराय जी का जो उत्कृष्ट ब्रज है वहां जाओ। (उसे ब्रज में अवतार ग्रहण) करो। राधिके! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी स्त्री बड़ी साध्वी है। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री है। और लक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई है।
• यह सुनकर श्री राधा प्रेम से विह्वल होकर वहां रो पड़ी और अपनें नेत्रचकोरों द्वारा श्री हरि के मुख चंद्र की सौंदर्य सुधा का पान करने लगी।
पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - गोपों और गोपियों! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो।
• इसके बाद भगवान श्री कृष्णा लक्ष्मी से बोले- सनातनी देवी तुम नाना रतन से संपन्न भीष्मक के राज भवन में जाओ और वहां विदर्भ देश की महारानी के उधर से जन्म धारण करो। साध्वी देवी! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करुंगा।
• जगदीश्वर श्री कृष्ण ने वहां पार्वती से कहा- सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामायास्वरुपिणी देवी! शुभे! तुम अंशरूप से नंद के ब्रज में जाओ और वहां नंद के घर यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतलपर गांव गांव में तुम्हारी पूजा करवाऊंगा। समस्त भूमंडल में नगरों और वनों में मनुष्य वहां की अधिष्ठात्री देवी के रूप में भक्ति भाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनंदपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वासुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहां स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर चले जाएंगे। कंस का साक्षात्कार होनेमात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली जाओगी और मैं भूतल का भार उतर कर अपने धाम में आऊंगा।
कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः ।
भुवोऽवतारयद्भारं जविष्ठं जनयन्कलिम् ॥१॥
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: बलराम के साथ और यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक राक्षसों का वध किया। तत्पश्चात् पृथ्वी का भार दूर करने के लिए भगवान ने कुरुक्षेत्र का महान युद्ध आयोजित किया, जो अचानक कौरवों और पाण्डवों के बीच हिंसा में बदल गया।१।
ये कोपिताः सुबहु पाण्डुसुताः सपत्नैः
दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान् ।
कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्
हत्वा नृपान्निरहरत्क्षितिभारमीशः॥२॥
चूँकि पाण्डु के पुत्र अपने शत्रुओं के अनेक अपराधों, जैसे कपटपूर्ण जुआ, मौखिक अपमान, द्रौपदी के केशों को पकड़ना, तथा अनेक अन्य क्रूर अपराधों से क्रुद्ध थे, अतः परमेश्वर ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उन पाण्डवों को तत्काल कारण बनाया। कुरुक्षेत्र के युद्ध के बहाने, भगवान कृष्ण ने पृथ्वी पर बोझ डालने वाले सभी राजाओं को युद्ध के मैदान के विपरीत दिशाओं में अपनी सेनाओं के साथ एकत्र होने की व्यवस्था की, और जब भगवान ने युद्ध के माध्यम से उन्हें मार डाला, तो पृथ्वी अपने बोझ से मुक्त हो गई।२।
भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य
गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेय।
मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं
यद्यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते ॥३॥
भगवान ने अपनी ही भुजाओं से सुरक्षित यदुवंश का उपयोग उन राजाओं को नष्ट करने के लिए किया जो अपनी सेनाओं के साथ इस पृथ्वी का भार थे। तब अथाह भगवान ने मन ही मन सोचा, "यद्यपि कुछ लोग कहते हैं कि पृथ्वी का भार अब समाप्त हो गया है, किन्तु मेरे मत में यह अभी समाप्त नहीं हुआ है, क्योंकि अभी भी यादव वंश ही बचा हुआ है, जिसका बल पृथ्वी के लिए असहनीय है।३।
"नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्
मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥४॥
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"व्याकरण मूलक शब्दार्थ व अन्वय विश्लेषण-
१-न एव अन्यतः परिभव: अस्य= नहीं किसी अन्य के द्वारा इस यदुवंश का परिभव( पराजय/ विनाश)
२-भवेत् = हो सकता है ।
३- कथञ्चिद्= किसी प्रकार भी।
४-मत्संश्रयस्य विभव = मेरे आश्रम में इसका वैभव है।
५-उन्नहनस्य नित्यम् = यह सदैव बन्धनों से रहित है।
६-अन्तः कलिं यदुकुलस्य= आपस में ही लड़ने पर यदुवंश का नाश( शमन) होगा।
७-विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निमिव= जैसे बाँशों का समूह आपस में टकराकर घर्षण द्वारा उत्पन्न आग से शान्त हो जाता है।
८-उपैमि धाम= फिर मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा।
॥४॥
अनुवाद:-
इसका ( यदुवंश का ) किसी के द्वारा किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता है।
यह स्वयं कृष्ण उद्धव से कहते हैं। फिर इसके विनाश में ऋषि मुनि अथवा देवों की क्या शक्ति है ? कृष्ण कहते हैं-यह यदुवंश मेरे आश्रित है
सभी बन्धनों से रहित है।
बाँस वृक्ष समूह में परस्पर घर्षण से उत्पन्न अग्रि के समान ही इस यदुवंश में भी परस्पर कलह होने से ही इसका शमन ( नाश) हो जाएगा ! अब मैं भी अपने गोलोकधाम को जाऊँगा॥४॥
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व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ १ ॥
कौरवों ने कपटपूर्ण जूए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारों से पाण्डवों को अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवों को निमित्त बनाकर भगवान् श्रीकृष्णने दोनों पक्षों में एकत्र हुए राजाओं को मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया ॥ २ ॥
अपने बाहुबल से सुरक्षित यदुवंशियों के द्वारा पृथ्वी के भार—राजा और उनकी सेना का विनाश करके, प्रमाणों के द्वारा ज्ञान के विषय न होने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने विचार किया कि लोकदृष्टि से पृथ्वीका भार दूर हो जाने पर भी वस्तुत: मेरी दृष्टि से अभी तक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ॥ ३ ॥
शब्दच्छेदः -
न एव अन्यत: परिभवः अस्य भवेत् कथंचिद्
मद् संश्रयस्य विभव उत् ( [सं० उद्√नह्+घञ्] नहनस्य नित्यम् ।
अन्तर् कलिं यदु कुलस्य विधाय वेणु स्तम्बस्य वह्निम् इव शान्तम् उपैमि धाम ।।४।।
इसका ( यदुवंश का ) किसी के द्वारा परिभव( पराजय) किसी प्रकार भी नहीं हो सकता है।
यह यदुवंश मेरे आश्रित है
सभी बन्धनों से रहित है।
बाँस के वन में परस्पर घर्षण से उत्पन्न अग्रि के समान इस यदुवंश में भी परस्पर कलह( अन्तर्- कलि-( कलह) होने वह नष्ट हो जाएगा और मैं शान्ति प्राप्त कर अपने धाम में जाऊँगा ॥ ४ ॥
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श्रीमद्भागवतपुराण. स्कन्धः (११)अध्यायः (१)
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