ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
विषय सूची
१ कृष्ण काल
२ कृष्ण का समय
३ कंस के समय मथुरा
४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
५ पुराणेतर ग्रंथ

संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर गुनगुनाया है।
श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है ।
कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है।
ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की ।
उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।
बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है
वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है।
एक विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है ।
ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।
मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।
शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।
छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं।
इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है ।" - डा प्रभुदयाल मित्तल डॉ० मित्तल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है यह कहीं उल्लेख नहीं है ।
छांदोग्योपनिषद के ई पू 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते ।
कृष्ण का समय
डा॰ मित्तल लिखते हैं -" परीक्षित के समय में सप्तर्षि (आकाश के सात तारे) मघा नक्षत्र पर थे, जैसा शुक्रदेव द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते है । आजकल सप्तर्षि कृतिका नक्षत्र पर है जो मघा से 21 वां नक्षत्र है।
इस प्रकार मघा के कृतिक पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं।
किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है।
इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे।
पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए ।
यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ । परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे । इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है ।"
_________
आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था ।बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी।
महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है । गीता में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
ज्योतिष शास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था । (भारतीय ज्योतिषशाला,पृष्ठ 34) इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है ।
श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे । भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल 1 को हुआ था । आजकल 1887 शक संवत है ।
इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये है । कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था । उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी । उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था।
परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु125 वर्ष वर्णन करता है।
इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृष्ण. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है । भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है ।
भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है ।
पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था । उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था । उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे ।
वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बगदाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है । इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी ।
बगदाद(ईराक) और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश( ईरान) और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है ।
बगदाद प्रलय के पश्चात वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको (दक्षिणी अमेरिका, ) स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा । ऐसी दशा में पुरातत्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है ।
यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है ।
ज्योतिष और पुरातत्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है । यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था । मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे ।
इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं
किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है।
इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे।
पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए ।
यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ । परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे । इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है ।"
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आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था ।बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी।
महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है । गीता में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
ज्योतिष शास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था । (भारतीय ज्योतिषशाला,पृष्ठ 34) इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है ।
श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे । भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल 1 को हुआ था । आजकल 1887 शक संवत है ।
इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये है । कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था । उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी । उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था।
परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु125 वर्ष वर्णन करता है।
इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृष्ण. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है । भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है ।
भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है ।
पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था । उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था । उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे ।
वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बगदाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है । इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी ।
बगदाद(ईराक) और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश( ईरान) और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है ।
बगदाद प्रलय के पश्चात वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको (दक्षिणी अमेरिका, ) स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा । ऐसी दशा में पुरातत्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है ।
यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है ।
ज्योतिष और पुरातत्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है । यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था । मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे ।
इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं
लोकाचरण-खण्ड}- " सम्पूर्ण खण्ड" संशोधित-पाठ - -भाग ४
मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य यवन लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके है ।
मैगस्थनीज ने लिखा है कि मथुरा में शौरसेनी लोगों का निवास है । वे विशेष रूप से हरकुलीज (हरि कृष्ण) की पूजा करते है । उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस (चन्द्रगुप्त) 153 पीढ़ी पहले हुए थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए।
चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है । इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ।
कंस के समय मथुरा-
कंस के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। यद्यपि ये वर्णन अतिशयक्ति पूर्ण व काव्यात्मक ही हैं।
जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।
'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे।
नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी।
नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।'
'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ,
दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।'
'मकानों के दरवाजों पर दही और चन्दन से अनुलेपित तथा जल से भरे हुए मङल-घट रखे हुए थे, फूलों, दीपावलियों, बन्दनवारों तथा फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्षों से द्वार सजाये गये थे और उन पर पताके और झड़ियाँ फहरा रही थी।'
उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन मथुरा से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात. होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी।
इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है ।
आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते है, वे अभी अपूर्ण हैं इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे ।
प्राचीनतम संस्कृत साहित्य-
वैदिक संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है ।
जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर नेमिनाथ जी का चचेरा भाई बतलाया गया है । इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है ।
बौद्ध साहित्य में जातक कथाएं अत्यंत प्राचीन है उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है । यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण – चरित्र के स्त्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ 1. महाभारत 2. हरिवंश, 3. विविध पुराण, 4. गोपाल तापनी उपनिषद और 5. गर्ग संहिता हैं ।
यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है ।
पुराणेतर ग्रंथ
जिन पुराणेतर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “गर्ग संहिता” प्रमुख है ।
यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है – गोपाल तापनी उपनिषद : - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है । इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है । पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है ।
यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथो की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है । इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है । श्रीकृष्ण प्रिया राधा और उनके लीला-धाम ब्रज में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है । इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं ।
डा. प्रभुदयाल मीतल, कृष्ण का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं । वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं । श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते ।
श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291;
विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।
तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच
तद्धैतत्घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच,अपिपास एव
स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत् त्रयँ प्रतिपद्येत, 'अक्षितमसि', 'अच्युतमसि',
'प्राणसँशितमसी'ति । तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ।। ६ ।।
"छांदोग्य उपनिषद (3,17,6),
जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (देखें तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, देवी भागवत अग्नि पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है।
इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं।
पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे।
इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा।
बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे।
अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्कर्षणान्वितः ।
मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥
( मिश्र )
ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर
द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।
ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां
उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥
सौवर्णशृङ्गाटकहर्म्यनिष्कुटैः
श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।
वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः
मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥
जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु
आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।
संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां
प्रकीर्णमाल्याङ्कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥
आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः
प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।
सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः
स्वलङ्कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥
(भागवतपुराण- 10/ 41/20-23)
भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं।
उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने
ही तोरण बने हुए हैं।
नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है।
खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।
स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं।
सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वैदूर्य, हीरे, स्फटिक नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं।
उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।
सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है।
स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे खील और चावल बिखरे हुए हैं।
घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।
चंद्रमा (यानी कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उनकी किरणों के अंश हैं क्योंकि घटकों की प्रकृति आत्मा में मौजूद है। कृष्ण दो भुजाओं से घिरे हुए हैं। उनकी कभी चार भुजाएं नहीं होतीं.
वहाँ वह एक ग्वालिन से घिरा हुआ सदैव क्रीड़ा करता रहता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले ही एक पुरुष हैं; ब्रह्मा आदि स्त्रियाँ ही हैं। उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति का एक स्वरूप है।
_
न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान् ।
वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ।५२।
अनुवाद:-
न तो राधा के समान कोई स्त्री है और न ही कृष्ण के समान कोई पुरुष है। किशोरावस्था से बढ़कर कोई (बेहतर) उम्र नहीं है; यह प्रकृति का महान सहज स्वभाव है।५२।
ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम् ।
श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ।५३।
अनुवाद:-
किशोरावस्था में स्थित कृष्ण का ध्यान करना चाहिए. वृन्दावन-उपवन का ध्यान करना चाहिए। सबसे महान रूप (वह) श्याम है , और वह परम रस का प्रथम देव है।५३।
बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि ।
अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ।५४।
बाल्य पाँचवें वर्ष तक रहता है।
पोगण्ड दसवें वर्ष तक होता है।
(पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था की बालक)
किशोरावस्था तेरह वर्ष तक चलती है और
(इसकी) सीमा पन्द्रहवाँ वर्ष है।
यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते ।
तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ।५५।
युवावस्था ( यौवन ) से उत्पन्न होने वाली किशोरावस्था को तरुण युवा ( नवयौवन ) कहा जाता है। बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का अर्थात् ग्यारह से पंद्रह वर्ष तक की अवस्था का बालक किशोर होता है। यह अवस्था ही उसका सर्वस्व है; (उससे भिन्न) आयु अवास्तविक ( प्रपंच ) है।
बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम् ।
बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ।५६।
मैं मनोहर अवस्था बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं उन बाल ग्वाल कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो कामदेव रूपी ग्वाले के रूप में हैं।
वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम् ।
यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ।५७।
एक किशोर की प्रकृति के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।५७।
अध्याय 77 - कृष्ण का वर्णन
पाताल-खंड )
___
सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा ।२६।
यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः ।२७।
अनुवाद:-
तब भगवान ने स्वयं वृन्दावन उपवन में विचरण करते हुए मुझसे कहा:
"मेरा कोई भी रूप उससे बड़ा नहीं है जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, क्रियाहीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद का रूप है, पूर्ण है।"
,जिसकी आंखें पूरी तरह से खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जिन्हें आपने (अभी) देखा था। वेद इसका वर्णन केवल कारणों के कारण के रूप में करते हैं, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद स्वरूप है, बुद्धि का पुंज है, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो,
वैसे ही वृन्दावन भी; इसी प्रकार (अनन्त जानो) यमुना, ग्वाले और ग्वाले। मेरा यह अवतार अनन्त है।२६-२७।
ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः ।२८।
मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम्। २९।
अनुवाद:-
इसमें कोई संदेह न रखें. राधा मुझे सदैव प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महानों से भी महान हूं। मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, मैं सबका स्वामी हूं, मैं संपूर्ण आनंद हूं और महान से भी महान हूं।२८-२९।
काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ।३०।
कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ।३१।
अनुवाद:-
तब मैंने संसार के कारण भगवान से कहा: “ग्वाले कौन हैं? ग्वालिनें क्या हैं? यह किस प्रकार का वृक्ष बताया गया है? यह गिरि कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह महान बांसुरी कौन है, जो सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान है?।।३०-३१।
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ।३२।
गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ।३३।
अनुवाद:-
भगवान ने प्रसन्न होकर और अपने कमल के समान मुख से प्रसन्न होकर मुझसे कहा: “ग्वालों को वेदों को जानना चाहिए। ग्वालों की युवा पुत्रियों को ऋक्स (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। हे राजन, वे दिव्य देवियाँ हैं। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी ग्वाले साधु हैं, वैकुंठमें आनंद स्वरूप हैं।यह कदंब इच्छा-प्राप्ति वाला वृक्ष है, सर्वोच्च आनंद का भंडार है।३२-३३।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडेहुईं।
नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है।
खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।
स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं।
सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
वैदूर्य, हीरे, स्फटिक नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं।
उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।
सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है।
स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे खील और चावल बिखरे हुए हैं।
घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।
चंद्रमा (यानी कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उनकी किरणों के अंश हैं क्योंकि घटकों की प्रकृति आत्मा में मौजूद है। कृष्ण दो भुजाओं से घिरे हुए हैं। उनकी कभी चार भुजाएं नहीं होतीं.
वहाँ वह एक ग्वालिन से घिरा हुआ सदैव क्रीड़ा करता रहता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले ही एक पुरुष हैं; ब्रह्मा आदि स्त्रियाँ ही हैं। उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति का एक स्वरूप है।
_
न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान् ।
वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ।५२।
अनुवाद:-
न तो राधा के समान कोई स्त्री है और न ही कृष्ण के समान कोई पुरुष है। किशोरावस्था से बढ़कर कोई (बेहतर) उम्र नहीं है; यह प्रकृति का महान सहज स्वभाव है।५२।
ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम् ।
श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ।५३।
अनुवाद:-
किशोरावस्था में स्थित कृष्ण का ध्यान करना चाहिए. वृन्दावन-उपवन का ध्यान करना चाहिए। सबसे महान रूप (वह) श्याम है , और वह परम रस का प्रथम देव है।५३।
बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि ।
अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ।५४।
बाल्य पाँचवें वर्ष तक रहता है।
पोगण्ड दसवें वर्ष तक होता है।
(पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था की बालक)
किशोरावस्था तेरह वर्ष तक चलती है और
(इसकी) सीमा पन्द्रहवाँ वर्ष है।
यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते ।
तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ।५५।
युवावस्था ( यौवन ) से उत्पन्न होने वाली किशोरावस्था को तरुण युवा ( नवयौवन ) कहा जाता है। बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का अर्थात् ग्यारह से पंद्रह वर्ष तक की अवस्था का बालक किशोर होता है। यह अवस्था ही उसका सर्वस्व है; (उससे भिन्न) आयु अवास्तविक ( प्रपंच ) है।
बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम् ।
बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ।५६।
मैं मनोहर अवस्था बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं उन बाल ग्वाल कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो कामदेव रूपी ग्वाले के रूप में हैं।
वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम् ।
यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ।५७।
एक किशोर की प्रकृति के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।५७।
अध्याय 77 - कृष्ण का वर्णन
पाताल-खंड )
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सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा ।२६।
यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः ।२७।
अनुवाद:-
तब भगवान ने स्वयं वृन्दावन उपवन में विचरण करते हुए मुझसे कहा:
"मेरा कोई भी रूप उससे बड़ा नहीं है जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, क्रियाहीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद का रूप है, पूर्ण है।"
,जिसकी आंखें पूरी तरह से खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जिन्हें आपने (अभी) देखा था। वेद इसका वर्णन केवल कारणों के कारण के रूप में करते हैं, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद स्वरूप है, बुद्धि का पुंज है, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो,
वैसे ही वृन्दावन भी; इसी प्रकार (अनन्त जानो) यमुना, ग्वाले और ग्वाले। मेरा यह अवतार अनन्त है।२६-२७।
ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः ।२८।
मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम्। २९।
अनुवाद:-
इसमें कोई संदेह न रखें. राधा मुझे सदैव प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महानों से भी महान हूं। मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, मैं सबका स्वामी हूं, मैं संपूर्ण आनंद हूं और महान से भी महान हूं।२८-२९।
काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ।३०।
कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ।३१।
अनुवाद:-
तब मैंने संसार के कारण भगवान से कहा: “ग्वाले कौन हैं? ग्वालिनें क्या हैं? यह किस प्रकार का वृक्ष बताया गया है? यह गिरि कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह महान बांसुरी कौन है, जो सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान है?।।३०-३१।
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ।३२।
गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ।३३।
अनुवाद:-
भगवान ने प्रसन्न होकर और अपने कमल के समान मुख से प्रसन्न होकर मुझसे कहा: “ग्वालों को वेदों को जानना चाहिए। ग्वालों की युवा पुत्रियों को ऋक्स (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। हे राजन, वे दिव्य देवियाँ हैं। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी ग्वाले साधु हैं, वैकुंठमें आनंद स्वरूप हैं।यह कदंब इच्छा-प्राप्ति वाला वृक्ष है, सर्वोच्च आनंद का भंडार है।३२-३३।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडेहुईं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
"नारायण उवाच
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।दृष्ट्वा सालोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।१।
"महादेव उवास
पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके । ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा । २ ।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।३ ।
गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।४।
गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् । ५।
श्री भगवानुवाच हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।६।
तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।७।
तथा जगाम भाण्डीरं विधाता जगतामपि ।स्वयं शेषश्च धर्मश्च भवान्या च भवःस्वयम् । ८ ।
सूर्यश्चापि महेन्द्रश्च चन्द्रश्चापि हुताशनः ।कुबेरो वरुणश्चैव पवनश्च यमस्तथा ।। ९ ।।
ईशानश्चापि देवाश्च वसवोऽष्टौ तथैव च ।सर्वे ग्रहाश्च रुद्राश्च मुनयो मनवस्तथा ।। १० ।।
त्वरिताश्चाऽऽययुः सर्वे यत्राऽऽस्ते भगवान्प्रभुः । प्रणम्य दण्डवद्भूभौ तमुवाच विधिः स्वयम् ।। ११
ब्रह्मवाच परिपूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह । ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर ।१२।
सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना ।स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते। १३।
सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण ।ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नामामि ।१४।
सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर । हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर ते नमामि ।१५।
सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा ।सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नमामि । १६।
त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुन्धरा ।शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ।। १७।
"यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।
"महादेव उवाच
ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुन्धराम् भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो। १९।
त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता। वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् । २०।
ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ।२१।
वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु ।देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले ।। २२ ।
सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् । २३।
"अनन्त उवाच
त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः ।विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।
असंख्यशेषाः कूर्माश्च ब्रह्मविषणुशिवात्मकाः । असंख्यानि च विश्वानि तेषामीशः स्वयं भवान् ।। २५ ।।
अस्माकमीदृशं नाथ सुदिनं क्व भविष्यति स्वप्नादृष्टश्चयश्चेशः स दृष्टः सर्वजीविनाम् । २६ ।
नाथ प्रयासि गोलोकं पूतां कृत्वा वसुन्धराम् तामनाथां रुदन्तीं च निमग्नां शोकसागरे । २७ ।
त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः ।विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।
असंख्यशेषाः कूर्माश्च ब्रह्मविषणुशिवात्मकाः । असंख्यानि च विश्वानि तेषामीशः स्वयं भवान् ।। २५ ।।
अस्माकमीदृशं नाथ सुदिनं क्व भविष्यति स्वप्नादृष्टश्चयश्चेशः स दृष्टः सर्वजीविनाम् । २६ ।
नाथ प्रयासि गोलोकं पूतां कृत्वा वसुन्धराम् तामनाथां रुदन्तीं च निमग्नां शोकसागरे । २७ ।
"देवा ऊचु:
वेदाःस्तोतुं न शक्ता यं ब्रह्मेशानादयस्तथा ।
वेदाःस्तोतुं न शक्ता यं ब्रह्मेशानादयस्तथा ।
तमेव स्तवनं किं वा वयं कुर्मो नमोऽस्तु ते ।२८।
इत्येवमुक्त्वा देवास्ते प्रययुर्द्वारकां पुरीम् ।तत्रस्थं भगवन्तं च द्रष्टुं शीघ्रं मुदाऽन्विताः।२९।
अथ तेषां च गोपाला ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।पृथिवी कम्पिता भीता चलन्तः सप्तसागराः ।। ३० ।।
हतश्रियं द्वारकां च त्यक्त्वा च ब्रह्मशापतः मूर्तिं कदम्बमूलस्थां विवेश राधिकेश्वरः ।। ३१।
ते सर्वे चैरकायुद्धे निपेतुर्यादवास्तथा ।चितामारुह्य देव्यश्च प्रययुः स्वामिभिः सह ।३२ ।
अर्जुनः स्वपुरं गत्वा समुवाच युधिष्ठिरम् ।स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ।। ३३ ।।
दृष्ट्वा कदम्बमूलस्थं तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।देवा ब्रह्मादयस्ते च प्रणेमुर्भक्तिपूर्वकम् ।। ३४।
तुष्टुवुः परमात्मानं देवं नारायणं प्रभुम् ।श्यामं किशोरवयसं।
व्याधास्त्रसंयुतं पादपद्मं पद्मादिवन्दितम् ।दृष्ट्वा ब्रह्मादिदेवांस्तानभयं सस्मितं ददौ । ३७।
पृथिवीं तां समाश्वास्य रुदन्ती प्रेमविह्वलाम् व्याधं प्रस्थापयामास परं स्वपदमुत्तमम् । ३८ ।
बलस्य तेजः शेषे च विवेश परमाद्भुतम् ।प्रद्युम्नस्य च कामे वै वाऽनिरुद्धस्य ब्रह्मणि ।३९।
अयोनिसंभवा देवी महालक्ष्मीश्च रुक्मिणी वैकुण्ठं प्रययौ साक्षात्स्वशरीरेण नारद । ४०।
सत्यभामा पृथिव्यां च विवेश कमलालया।स्वयं जाम्बवती देवी पार्वत्यां विश्वमातरि।४१।
या या देव्यश्च यासां चाप्यंशरुपाश्च भूतले ।तस्यां तस्यां प्रविविशुस्ता एव च पृथक्पृथक् । ४२।
साम्बस्य तेजः स्कन्दे च विवेश परमाद्भुतम् कश्यपे वसुदेवश्चाप्यदिव्यां देवकी तथा । ४३ ।
रुक्मिणीमन्दिरं त्यकत्वा समस्तां द्वारकां पुरीम् । स जग्राह समुद्रश्च प्रफुल्लवदनेक्षणः ।४४ ।।
लवणोदः समागत्य तुष्टाव पुरुषोत्तमम् ।रुरोद तद्वियोगेन साश्रुनेत्रश्च विह्वलः । ४५।
गङ्गा सरस्वती पद्मावती च यमुना तथा ।गोदावरी स्वर्णरेखा कावेरी नर्मदा मुने । ४६ ।
शरावती बाहृदा च कृतमाला च पुण्यदा ।समाययुश्च ताः सर्वाः प्रणेमुः परमेश्वरम् । ४७ ।
उवाच जाह्नवी देवी रुदती परमेश्वरम् ।साश्रुनेत्राऽतिदीना सा विरहज्वरकातरा ।। ४८ ।।
"भागीरथयुवाच
हे नाथ रमणश्रेष्ठ यासि गोलोकमुत्तमम् । अस्माकं का गतिश्चात्र भविष्यति कलौ युगे ।। ४९
श्रीभगवानुवाच कलेः पञ्चसहस्राणि वर्षाणि तिष्ठ भूतले । पापानि पापिनो यानि तुभ्यं दास्यन्ति स्नात: ।। ५० ।।
मन्मन्त्रोपासकस्पर्शाद्भस्मीभूतानि तत्क्षणात् ।भविष्यन्ति दर्शनाच्च स्नानादेव हि जाह्नवि ।। ५१
हरेर्नामानि यत्रैव पुराणानि भवन्ति हि । तत्र गत्वा सावधानमाभिः सार्धं च श्रोष्यसि ।।५२।।
पुराणश्रवणाच्चैव हरेर्नामानुकीर्तनात् ।भस्मीभूतानि पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ।। ५३
भस्मीभूतानि तान्येव वैष्णवालिङ्गनेन च ।तृणानि शुष्ककाष्ठानि दहन्ति पावका यथा ।। ५४ ।।
तथाऽपि वैष्णवा लोके पापानि पापिनामपि । पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यपि च जाह्नवि।५५।
मद्भक्तानां शरीरेषु सन्ति पूतेषु संततम् मद्भक्तपादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।। ५६ ।।
सद्यः पूतानि तीर्थानि सद्याः पूतं जगत्तथा । मन्मन्त्रोपासका विप्रा ये मदुच्छिष्टभोजिनः ।५७ ।
मामेव नित्यं ध्यायन्ते ते मत्प्राणाधिकाः प्रियाः । तदुपस्पर्शमात्रेण पूतो वायुश्च पावकः ।। ५८ ।।
कलेर्दशसहस्राणि मद्भक्ताः सन्ति भूतले ।एकवर्णा भविष्यन्ति मद्भक्तेषु गतेषु च। ५९।
मद्भक्तशून्या पृथिवी कलिग्रस्ता भविष्यति एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः ।६० ।
चतुर्भुजश्च पुरुषः शतचन्द्रसमप्रभः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः । ६१
सुन्दरं रथमारुह्य श्रीरोदं स जगाम ह ।सिन्धुकन्या च प्रययौ स्वयं मूर्तिमती सती। ६२।
श्रीकृष्णमनसा जाता मर्त्यलक्ष्मीर्मनोहरा । श्वेतद्वीपं गते विष्णौ जगत्पालनकर्तरि ।६३ ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपे च द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणांशश्च द्विभुजो गोपबालकरूपकः । ६४
नपीनजलदश्यामः शोभितः पीतवाससा । श्रीवंशवदनः श्रीमान्सस्मितः पद्मलोचनः ।६५ ।
शतकोटीन्दुसौन्दर्यं शतकोटिस्मरप्रभाम् । दधानः परमानन्दः परिबूर्णतमः प्रभुः ।६६ ।
परं धाम परं ब्रह्मस्वरूपो निर्गुणः स्वयम् । परमात्मा च सर्वेषां भक्तानुग्रहविग्रहः ।। ६७ ।।
नित्यदेहश्च भगवानीश्वरः प्रकृतेः परः ।योगिनो यं वदन्त्येवं ज्योतीरूपं सनातनम् ।। ६८ ।।
ज्योतिरम्यन्तरे नित्यरूपं भक्ता विदन्ति यम् । वेदा वदन्ति सत्यं यं नित्यमाद्यं विचक्षणाः ।। ६९ ।।
यं वदन्ति सुराः सर्वे परं स्वेच्छामयं प्रभूम् । सिद्धेन्द्रा मुनयः सर्वे सर्वरूपं वदन्ति यम् ।। ७० ।
यमनिर्वचनीयं च योगीन्द्रः शंकरो वदेत् । स्वयं विधाता प्रवदेत्कारणानां च कारणम् ।। ७१ ।।
शेषो वदेदनन्तं यं नवधारूपमीश्वरम् ।तर्काणामेव षण्णां च षड्विधं रूपमीप्सितम् ।। ७२ ।।
वैष्णवानामेकरूपं वेदानामेकमेव च ।पुराणानामेकरूपं तस्मान्नवविधं स्मृतम् ।। ७३ ।।
न्यायोऽनिर्वचनीयं च यं मतं शंकरो वदेत् ।नित्यं वैशेषिकाश्चाऽऽद्यं तं वदन्ति विचक्षणाः ।। ७४ ।।
सांख्य वदन्ति तं देवं ज्योतीरूपं सनातनम् मीमांसा सर्वरूपं च वेदान्तः सर्वकारणम् ।। ७५ ।।
पातञ्जलोऽप्यनन्तं च वेदाः सत्यस्वरूपकम् । स्वेच्छामयं पुराणं च भक्ताश्च नित्यविग्रहम् ।। ७६ ।।
सोऽयं गोलोकनाथश्च राधेशो नन्दनन्दनः ।गोकुले गोपवेषश्च पुण्ये वृन्दावने वने ।। ७७ ।।
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे महालक्ष्मीपतिः स्वयम् नारायणश्च भगवान्यन्नाम मुक्तिकारणम् ।७८।
सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्पशतत्रयम् ।गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति नारद ।। ७९ ।।
सुनन्दनन्दकुमुदैः पार्षदैः परिवारितः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः ।। ८० ।।
कौस्तुभेन मणीन्द्रेण भूषितो वनमालया । देवैः स्तुतश्च यानेन वैकुण्ठं स्वपदं ययौ ।। ८१ ।।
गते वैकुण्ठनाथे च राधेशश्च स्वयं प्रभुः चकार वंशीशब्दं च त्रैलोक्यमोहनं परम् ।। ८२ ।।
मूर्च्छांप्रापुर्देवगणा मुनयश्चापि नारद ।अचेतना बभूवुश्च मायया पार्वतीं विना ।। ८३ ।।
उवाच पार्वती देवी भगवन्तं सनातनम् विष्णुमाया भगवती सर्वरूपा सनातनी ।। ८४ ।।
परब्रह्मस्वरूपा या परमात्मस्वरूपिणी । सगुणा निर्गुणा सा च परा स्वेच्छामयी सती।८५।
"पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।
तवाऽऽज्ञया महालक्ष्मीरहं वैकुण्ठगामिनी । सरस्वती च तत्रैव वामे पार्श्वे हरेरपि । ८८।
तवाहं मनसा जाता सिन्धुकन्या तवाऽऽज्ञया । सावित्री वेदमाताऽहं कलया विधिसंनिधौ । ८९ ।
तैजःसु सर्वदेवानां पुरा सत्ये तवाऽऽज्ञया ।अधिष्ठानं कृत तत्र धृतं देव्या शरीरकम् ।। ९० ।।
शुम्भादयश्च दैत्याश्च निहताश्चावलीलया । दुर्ग निहत्य तुर्गाऽहं त्रिपुरा त्रिपुरे वधे ।। ९१ ।।
निहत्य रक्तबीजं च रक्तबीजविनाशिनी । तवाऽऽज्ञया दक्षकन्या सती सत्यस्वरूपिणी ।९२।
योगेन त्यक्त्वा देहं च शैलजाऽहं तवाऽऽज्ञया । त्वया दत्तवा (त्ताः शंकराय गोलोके रासमण्डले ।९३ ।
विष्णुभक्तिरहं तेन विष्णुमाया च वैष्णवी ।नारायणस्य मायाऽहं तेन नारायणी स्मृता । ९४।
कृष्णप्राणाधिकाऽहं च प्राणाधिष्ठातृदेवता महाविष्णोश्च वासोश्च जननी राधिका स्वयम् ।९५।
तवाऽऽज्ञया पञ्चधाऽहं पञ्चप्रकृतिरूपिणी । कलाकलांशयाऽहं च देवपत्नयो गृहे गृहे ।। ९६ ।।
शीघ्रं गच्छ महाभाग तत्राऽहं विरहातुरा । गोपीभिः सहिता रासं भ्रमन्ती परितः सदा ।। ९७ ।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः । रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।
पार्वती बोधयामास स्वयं देवगणं तथा । मायावंशीरवाच्छन्नं विष्णुमाया सनातनी ।। ९९ ।।
कृत्वा ते हरिशब्दं च स्वगृहं विस्मयं ययुः ।शिवेन सार्धं दुर्गा सा प्रहृष्टा स्वपुरं ययौ ।। १०० ।।
अथ कृष्णं समायान्तं राधा गोपीगणैः सह अनुव्रजं ययौ हृष्टा सर्वज्ञा प्राणवल्लभम् ।। १०१ ।।
दृष्ट्वा समीपमायान्तमवरुह्य रथात्सती । प्रणनाम जगन्नाथं सिरसा सखिभिः सह ।। १०२ ।।
गोपा गोप्यश्च मुदिताः प्रफुल्लवदनेक्षणाः । दुन्दुभिं वादयामासुरीश्वरागमनोत्सुकाः ।। १०३ ।।
विरजां च समुत्तीर्य दृष्ट्वा राधां जगत्पतिः अवरुह्य रथात्तूर्णं गृहीत्वा राधिकाकरम् ।। १०४ ।।
शतशृङ्गं च बभ्राम सुरम्यं रासमण्डलम् । दृष्ट्वाऽक्षयवटं पुण्यं पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। १०५ ।।
तुलसीकाननं दृष्ट्वा प्रययौ मालतीवनम् । वामे कृत्वा कुन्दवनं माधवीकाननं तथा ।। १०६ ।।
चकार दक्षिणे कृष्णश्चम्पकारण्यमीप्सिनम् चकार पश्चात्तूर्णं च चारुचन्दनकाननम् ।। १०७ ।।
ददर्श पुरतो रम्यं राधिकाभवनं परम् ।उवास राधया सार्धं रत्नसिंहासने वरे ।। १०८ ।।
सकर्पूरं च ताम्बूलं बुभुजे वासितं जलम् । सुष्वाप पुष्पतल्पे च सुगन्धिचन्दनार्चिते ।। १०९ ।।
स रेमे रामया सार्धं निमग्नो रससागरे ।इत्येवं कथितं सर्वं धर्मवक्त्राच्च यच्छ्रुतम् ।। ११० ।।
गोलोकारोहणं रम्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १११ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-
तब श्रीकृष्ण ने उन ब्रह्मा आदि देवों की ओर मुस्कराते हुए देखकर उन्हें अभयदान दिया। पृथ्वी प्रेमविह्वल हो रही थी; उसे पर्णरूप से आश्वासन दिया और व्याध को अपने उत्तम परम पद को भेज दिया। तत्पश्चात बलदेव जी परम अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का कामदेव में और अनिरुद्ध का ब्रह्मा में प्रविष्ट हो गया। नारद! देवी रुक्मिणी, जो अयोनिजा तथा साक्षात महालक्ष्मी थीं; अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ को चली गयीं। कमलालया सत्यभामा पृथ्वी में तथा स्वयं जाम्बवती देवी जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गयीं। इस प्रकार भूतल पर जो-जो देवियाँ जिन जिनके अंश से प्रकट हुई थीं; वे सभी पृथक-पृथक अपने अंशी में विलीन हो गयीं। साम्ब का अत्यंत निराला तेज स्कन्द में, वसुदेव कश्यप में और देवकी अदिति में समा गयीं। विकसित मुख और नेत्रों वाले समुद्र ने रुक्मिणी के महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया। इसके बाद क्षीरसागर ने आकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके वियोग का कारण उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये और वह व्याकुल होकर रोने लगा। मुने! तत्पश्चात गंगा, सरस्वती, पद्मावती, यमुना, गोदावरी, स्वर्णरेखा, कावेरी, नर्मदा, शरावती, बाहुदा और पुण्यदायिनी कृतमाला ये सभी सरिताएँ भी वहाँ आ पहुँचीं और सभी ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। उनमें जह्नुतनया गंगा देवी विरह-वेदना से कातर तथा अत्यंत दीन हो रही थी। उनके नेत्रों में आँसू उमड़ आये थे। वे रोती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण से बोलीं।
भागीरथी ने कहा- नाथ! रमणश्रेष्ठ! आप तो उत्तम गोलोक को पधार रहे हैं; किंतु इस कलियुग में हमलोगों की क्या गति होगी?
तब श्री भगवान बोले- जाह्नवि! पापीलोग तुम्हारे जल में स्नान करने से तुम्हें जिन पापों को देंगे; वे सभी मेरे मंत्र की उपासना करने वाले वैष्णव के स्पर्श, दर्शन और स्नान से तत्काल ही भस्म हो जाएंगे। जहाँ हरि नाम संकीर्तन और पुराणों की कथा होगी; वहाँ इन सरिताओं के साथ जाकर सावधानतया श्रवण करोगी। उस पुराण-श्रवण तथा हरि नाम संकीर्तन से ब्रह्महत्या आदि महापातक जलकर राख हो जाते हैं। वे ही पाप वैष्णव के आलिंगन से भी दग्ध हो जाते हैं। जैसे अग्नि सूखी लकड़ी और घास फूस को जला डालती है; उसी प्रकार जगत में वैष्णव लोग पापियों के पापों को भी नष्ट कर देते हैं। गंगे! भूतल पर जितने पुण्यमय तीर्थ हैं; वे सभी मेरे भक्तों के पावन शरीरों में सदा निवास करते हैं। मेरे भक्तों की चरण रज से वसुन्धरा तत्काल पावन हो जाती है, तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तथा जगत शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण मेरे मंत्र के उपासक हैं, मुझे अर्पित करने के बाद मेरा प्रसाद भोजन करते हैं और नित्य मेरी ही ध्यान में तल्लीन रहते हैं; वे मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके स्पर्शमात्र से वायु और अग्नि पवित्र हो जाते हैं।
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मेरे भक्तों के चले जाने पर सभी वर्ण एक हो जाएंगे और मेरे भक्तों से शून्य हुई पृथ्वी पर कलियुग का पूरा साम्राज्य हो जायेगा। इसी अवसर पर वहाँ श्रीकृष्ण के शरीर से एक चार-भुजाधारी पुरुष प्रकट हुआ। उसकी प्रभा सैकड़ों चंद्रमाओं को लज्जित कर रही थी। वह श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था और उसके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-
वह एक सुंदर रथ पर सवार होकर क्षीरसागर को चला गया। तब स्वयं मूर्तिमती सिन्धुकन्या भी उनके पीछे चली गयीं। जगत के पालनकर्ता विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर श्रीकृष्ण के मन से उत्पन्न हुई मनोहरा मर्त्यलक्ष्मी ने भी उनका अनुगमन किया। इस प्रकार उस शुद्ध सत्त्वस्वरूप के दो रूप हो गये। उनमें दक्षिणांग हो भुजाधारी गोप-बालक के रूप में प्रकट हुआ।
वह नूतन जलधर के समान श्याम और पीताम्बर से शोभित था; उसके मुख से सुंदर वंशी लगी हुई थी; नेत्र कमल के समान विशाल थे; वह शोभासंपन्न तथा मन्द मुस्कान से युक्त था। वह सौ करोड़ चंद्रमाओं के समान सौंदर्यशाली, सौ करोड़ कामदेवों की सी प्रभावाला, परमानन्द स्वरूप, परिपूर्णतम, प्रभु, परमधाम, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, सबका परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, अविनाशी शरीरवाला, प्रकृति से पर और ऐश्वर्यशाली ईश्वर था। योगीलोग जिसे सनातन ज्योतिरूप जानते हैं और उस ज्योति के भीतर जिसके नित्य रूप को भक्ति के सहारे समझ पाते हैं।
विचक्षण वेद जिसे सत्य, नित्य और आद्य बतलाते हैं, सभी देवता जिसे स्वेच्छामय परम प्रभु कहते हैं, सारे सिद्धशिरोमणि तथा मुनिवर जिसे सर्वरूप कहकर पुकारते हैं, योगिराज शंकर जिसका नाम अनिर्वचनीय रखते हैं, स्वयं ब्रह्मा जिसे कारण के कारण रूप से प्रख्यात करते हैं और शेषनाग जिस नौ प्रकार के रूप धारण करने वाले ईश्वर को अनन्त कहते हैं; छः प्रकार के धर्म ही उनके छः रूप हैं, फिर एक रूप वैष्णवों का, रूप वेदों और एक रूप पुराणों का है; इसीलिए वे नौ प्रकार के कहे जाते हैं। जो मत शंकर का है, उसी मत का आश्रय ले न्यायशास्त्र जिसे अनिर्वचनीय रूप से निरूपण करता है, दीर्घदर्शी वैशेषिक जिसे नित्य बतलाते हैं; सांख्य उन देव को सनातन ज्योतिरूप, मेरा अंशभूत वेदान्त सर्वरूप और सर्वकारण, पतञ्जलिमतानुयायी अनन्त, वेदगण सत्यस्वरूप, पुराण स्वेच्छामय और भक्तगण नित्यविग्रह कहते हैं; वे ही ये गोलोकनाथ श्रीकृष्ण गोकुल में वृन्दावन नामक पुण्यवन में गोपवेष धारण करके नन्द के पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए हैं। ये राधा के प्राणपति हैं। ये ही वैकुण्ठ में चार-भुजाधारी महालक्ष्मीपति स्वयं भगवान नारायण हैं; जिनका नाम मुक्ति प्राप्ति का कारण है।
नारद ! जो मनुष्य एक बार भी ‘नारायण’ नाम का उच्चारण कर लेता है; वह तीन सौ कल्पों तक गंगा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने का फल पा लेता है।
तदनन्तर जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं; जिनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न शोभा देता है; मणिश्रेष्ठ कौस्तुभ और वनमाला से जो सुशोभित होते हैं; वेद जिनकी स्तुति करते हैं; वे भगवान नारायण सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षदों के साथ विमान द्वारा अपने स्थान वैकुण्ठ को चले गये।
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इत्येवमुक्त्वा देवास्ते प्रययुर्द्वारकां पुरीम् ।तत्रस्थं भगवन्तं च द्रष्टुं शीघ्रं मुदाऽन्विताः।२९।
अथ तेषां च गोपाला ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।पृथिवी कम्पिता भीता चलन्तः सप्तसागराः ।। ३० ।।
हतश्रियं द्वारकां च त्यक्त्वा च ब्रह्मशापतः मूर्तिं कदम्बमूलस्थां विवेश राधिकेश्वरः ।। ३१।
ते सर्वे चैरकायुद्धे निपेतुर्यादवास्तथा ।चितामारुह्य देव्यश्च प्रययुः स्वामिभिः सह ।३२ ।
अर्जुनः स्वपुरं गत्वा समुवाच युधिष्ठिरम् ।स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ।। ३३ ।।
दृष्ट्वा कदम्बमूलस्थं तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।देवा ब्रह्मादयस्ते च प्रणेमुर्भक्तिपूर्वकम् ।। ३४।
तुष्टुवुः परमात्मानं देवं नारायणं प्रभुम् ।श्यामं किशोरवयसं।
व्याधास्त्रसंयुतं पादपद्मं पद्मादिवन्दितम् ।दृष्ट्वा ब्रह्मादिदेवांस्तानभयं सस्मितं ददौ । ३७।
पृथिवीं तां समाश्वास्य रुदन्ती प्रेमविह्वलाम् व्याधं प्रस्थापयामास परं स्वपदमुत्तमम् । ३८ ।
बलस्य तेजः शेषे च विवेश परमाद्भुतम् ।प्रद्युम्नस्य च कामे वै वाऽनिरुद्धस्य ब्रह्मणि ।३९।
अयोनिसंभवा देवी महालक्ष्मीश्च रुक्मिणी वैकुण्ठं प्रययौ साक्षात्स्वशरीरेण नारद । ४०।
सत्यभामा पृथिव्यां च विवेश कमलालया।स्वयं जाम्बवती देवी पार्वत्यां विश्वमातरि।४१।
या या देव्यश्च यासां चाप्यंशरुपाश्च भूतले ।तस्यां तस्यां प्रविविशुस्ता एव च पृथक्पृथक् । ४२।
साम्बस्य तेजः स्कन्दे च विवेश परमाद्भुतम् कश्यपे वसुदेवश्चाप्यदिव्यां देवकी तथा । ४३ ।
रुक्मिणीमन्दिरं त्यकत्वा समस्तां द्वारकां पुरीम् । स जग्राह समुद्रश्च प्रफुल्लवदनेक्षणः ।४४ ।।
लवणोदः समागत्य तुष्टाव पुरुषोत्तमम् ।रुरोद तद्वियोगेन साश्रुनेत्रश्च विह्वलः । ४५।
गङ्गा सरस्वती पद्मावती च यमुना तथा ।गोदावरी स्वर्णरेखा कावेरी नर्मदा मुने । ४६ ।
शरावती बाहृदा च कृतमाला च पुण्यदा ।समाययुश्च ताः सर्वाः प्रणेमुः परमेश्वरम् । ४७ ।
उवाच जाह्नवी देवी रुदती परमेश्वरम् ।साश्रुनेत्राऽतिदीना सा विरहज्वरकातरा ।। ४८ ।।
"भागीरथयुवाच
हे नाथ रमणश्रेष्ठ यासि गोलोकमुत्तमम् । अस्माकं का गतिश्चात्र भविष्यति कलौ युगे ।। ४९
श्रीभगवानुवाच कलेः पञ्चसहस्राणि वर्षाणि तिष्ठ भूतले । पापानि पापिनो यानि तुभ्यं दास्यन्ति स्नात: ।। ५० ।।
मन्मन्त्रोपासकस्पर्शाद्भस्मीभूतानि तत्क्षणात् ।भविष्यन्ति दर्शनाच्च स्नानादेव हि जाह्नवि ।। ५१
हरेर्नामानि यत्रैव पुराणानि भवन्ति हि । तत्र गत्वा सावधानमाभिः सार्धं च श्रोष्यसि ।।५२।।
पुराणश्रवणाच्चैव हरेर्नामानुकीर्तनात् ।भस्मीभूतानि पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ।। ५३
भस्मीभूतानि तान्येव वैष्णवालिङ्गनेन च ।तृणानि शुष्ककाष्ठानि दहन्ति पावका यथा ।। ५४ ।।
तथाऽपि वैष्णवा लोके पापानि पापिनामपि । पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यपि च जाह्नवि।५५।
मद्भक्तानां शरीरेषु सन्ति पूतेषु संततम् मद्भक्तपादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।। ५६ ।।
सद्यः पूतानि तीर्थानि सद्याः पूतं जगत्तथा । मन्मन्त्रोपासका विप्रा ये मदुच्छिष्टभोजिनः ।५७ ।
मामेव नित्यं ध्यायन्ते ते मत्प्राणाधिकाः प्रियाः । तदुपस्पर्शमात्रेण पूतो वायुश्च पावकः ।। ५८ ।।
कलेर्दशसहस्राणि मद्भक्ताः सन्ति भूतले ।एकवर्णा भविष्यन्ति मद्भक्तेषु गतेषु च। ५९।
मद्भक्तशून्या पृथिवी कलिग्रस्ता भविष्यति एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः ।६० ।
चतुर्भुजश्च पुरुषः शतचन्द्रसमप्रभः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः । ६१
सुन्दरं रथमारुह्य श्रीरोदं स जगाम ह ।सिन्धुकन्या च प्रययौ स्वयं मूर्तिमती सती। ६२।
श्रीकृष्णमनसा जाता मर्त्यलक्ष्मीर्मनोहरा । श्वेतद्वीपं गते विष्णौ जगत्पालनकर्तरि ।६३ ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपे च द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणांशश्च द्विभुजो गोपबालकरूपकः । ६४
नपीनजलदश्यामः शोभितः पीतवाससा । श्रीवंशवदनः श्रीमान्सस्मितः पद्मलोचनः ।६५ ।
शतकोटीन्दुसौन्दर्यं शतकोटिस्मरप्रभाम् । दधानः परमानन्दः परिबूर्णतमः प्रभुः ।६६ ।
परं धाम परं ब्रह्मस्वरूपो निर्गुणः स्वयम् । परमात्मा च सर्वेषां भक्तानुग्रहविग्रहः ।। ६७ ।।
नित्यदेहश्च भगवानीश्वरः प्रकृतेः परः ।योगिनो यं वदन्त्येवं ज्योतीरूपं सनातनम् ।। ६८ ।।
ज्योतिरम्यन्तरे नित्यरूपं भक्ता विदन्ति यम् । वेदा वदन्ति सत्यं यं नित्यमाद्यं विचक्षणाः ।। ६९ ।।
यं वदन्ति सुराः सर्वे परं स्वेच्छामयं प्रभूम् । सिद्धेन्द्रा मुनयः सर्वे सर्वरूपं वदन्ति यम् ।। ७० ।
यमनिर्वचनीयं च योगीन्द्रः शंकरो वदेत् । स्वयं विधाता प्रवदेत्कारणानां च कारणम् ।। ७१ ।।
शेषो वदेदनन्तं यं नवधारूपमीश्वरम् ।तर्काणामेव षण्णां च षड्विधं रूपमीप्सितम् ।। ७२ ।।
वैष्णवानामेकरूपं वेदानामेकमेव च ।पुराणानामेकरूपं तस्मान्नवविधं स्मृतम् ।। ७३ ।।
न्यायोऽनिर्वचनीयं च यं मतं शंकरो वदेत् ।नित्यं वैशेषिकाश्चाऽऽद्यं तं वदन्ति विचक्षणाः ।। ७४ ।।
सांख्य वदन्ति तं देवं ज्योतीरूपं सनातनम् मीमांसा सर्वरूपं च वेदान्तः सर्वकारणम् ।। ७५ ।।
पातञ्जलोऽप्यनन्तं च वेदाः सत्यस्वरूपकम् । स्वेच्छामयं पुराणं च भक्ताश्च नित्यविग्रहम् ।। ७६ ।।
सोऽयं गोलोकनाथश्च राधेशो नन्दनन्दनः ।गोकुले गोपवेषश्च पुण्ये वृन्दावने वने ।। ७७ ।।
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे महालक्ष्मीपतिः स्वयम् नारायणश्च भगवान्यन्नाम मुक्तिकारणम् ।७८।
सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्पशतत्रयम् ।गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति नारद ।। ७९ ।।
सुनन्दनन्दकुमुदैः पार्षदैः परिवारितः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः ।। ८० ।।
कौस्तुभेन मणीन्द्रेण भूषितो वनमालया । देवैः स्तुतश्च यानेन वैकुण्ठं स्वपदं ययौ ।। ८१ ।।
गते वैकुण्ठनाथे च राधेशश्च स्वयं प्रभुः चकार वंशीशब्दं च त्रैलोक्यमोहनं परम् ।। ८२ ।।
मूर्च्छांप्रापुर्देवगणा मुनयश्चापि नारद ।अचेतना बभूवुश्च मायया पार्वतीं विना ।। ८३ ।।
उवाच पार्वती देवी भगवन्तं सनातनम् विष्णुमाया भगवती सर्वरूपा सनातनी ।। ८४ ।।
परब्रह्मस्वरूपा या परमात्मस्वरूपिणी । सगुणा निर्गुणा सा च परा स्वेच्छामयी सती।८५।
"पार्वत्युवाच
एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।
गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।
तवाऽऽज्ञया महालक्ष्मीरहं वैकुण्ठगामिनी । सरस्वती च तत्रैव वामे पार्श्वे हरेरपि । ८८।
तवाहं मनसा जाता सिन्धुकन्या तवाऽऽज्ञया । सावित्री वेदमाताऽहं कलया विधिसंनिधौ । ८९ ।
तैजःसु सर्वदेवानां पुरा सत्ये तवाऽऽज्ञया ।अधिष्ठानं कृत तत्र धृतं देव्या शरीरकम् ।। ९० ।।
शुम्भादयश्च दैत्याश्च निहताश्चावलीलया । दुर्ग निहत्य तुर्गाऽहं त्रिपुरा त्रिपुरे वधे ।। ९१ ।।
निहत्य रक्तबीजं च रक्तबीजविनाशिनी । तवाऽऽज्ञया दक्षकन्या सती सत्यस्वरूपिणी ।९२।
योगेन त्यक्त्वा देहं च शैलजाऽहं तवाऽऽज्ञया । त्वया दत्तवा (त्ताः शंकराय गोलोके रासमण्डले ।९३ ।
विष्णुभक्तिरहं तेन विष्णुमाया च वैष्णवी ।नारायणस्य मायाऽहं तेन नारायणी स्मृता । ९४।
कृष्णप्राणाधिकाऽहं च प्राणाधिष्ठातृदेवता महाविष्णोश्च वासोश्च जननी राधिका स्वयम् ।९५।
तवाऽऽज्ञया पञ्चधाऽहं पञ्चप्रकृतिरूपिणी । कलाकलांशयाऽहं च देवपत्नयो गृहे गृहे ।। ९६ ।।
शीघ्रं गच्छ महाभाग तत्राऽहं विरहातुरा । गोपीभिः सहिता रासं भ्रमन्ती परितः सदा ।। ९७ ।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः । रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।
पार्वती बोधयामास स्वयं देवगणं तथा । मायावंशीरवाच्छन्नं विष्णुमाया सनातनी ।। ९९ ।।
कृत्वा ते हरिशब्दं च स्वगृहं विस्मयं ययुः ।शिवेन सार्धं दुर्गा सा प्रहृष्टा स्वपुरं ययौ ।। १०० ।।
अथ कृष्णं समायान्तं राधा गोपीगणैः सह अनुव्रजं ययौ हृष्टा सर्वज्ञा प्राणवल्लभम् ।। १०१ ।।
दृष्ट्वा समीपमायान्तमवरुह्य रथात्सती । प्रणनाम जगन्नाथं सिरसा सखिभिः सह ।। १०२ ।।
गोपा गोप्यश्च मुदिताः प्रफुल्लवदनेक्षणाः । दुन्दुभिं वादयामासुरीश्वरागमनोत्सुकाः ।। १०३ ।।
विरजां च समुत्तीर्य दृष्ट्वा राधां जगत्पतिः अवरुह्य रथात्तूर्णं गृहीत्वा राधिकाकरम् ।। १०४ ।।
शतशृङ्गं च बभ्राम सुरम्यं रासमण्डलम् । दृष्ट्वाऽक्षयवटं पुण्यं पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। १०५ ।।
तुलसीकाननं दृष्ट्वा प्रययौ मालतीवनम् । वामे कृत्वा कुन्दवनं माधवीकाननं तथा ।। १०६ ।।
चकार दक्षिणे कृष्णश्चम्पकारण्यमीप्सिनम् चकार पश्चात्तूर्णं च चारुचन्दनकाननम् ।। १०७ ।।
ददर्श पुरतो रम्यं राधिकाभवनं परम् ।उवास राधया सार्धं रत्नसिंहासने वरे ।। १०८ ।।
सकर्पूरं च ताम्बूलं बुभुजे वासितं जलम् । सुष्वाप पुष्पतल्पे च सुगन्धिचन्दनार्चिते ।। १०९ ।।
स रेमे रामया सार्धं निमग्नो रससागरे ।इत्येवं कथितं सर्वं धर्मवक्त्राच्च यच्छ्रुतम् ।। ११० ।।
गोलोकारोहणं रम्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १११ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-
तब श्रीकृष्ण ने उन ब्रह्मा आदि देवों की ओर मुस्कराते हुए देखकर उन्हें अभयदान दिया। पृथ्वी प्रेमविह्वल हो रही थी; उसे पर्णरूप से आश्वासन दिया और व्याध को अपने उत्तम परम पद को भेज दिया। तत्पश्चात बलदेव जी परम अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का कामदेव में और अनिरुद्ध का ब्रह्मा में प्रविष्ट हो गया। नारद! देवी रुक्मिणी, जो अयोनिजा तथा साक्षात महालक्ष्मी थीं; अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ को चली गयीं। कमलालया सत्यभामा पृथ्वी में तथा स्वयं जाम्बवती देवी जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गयीं। इस प्रकार भूतल पर जो-जो देवियाँ जिन जिनके अंश से प्रकट हुई थीं; वे सभी पृथक-पृथक अपने अंशी में विलीन हो गयीं। साम्ब का अत्यंत निराला तेज स्कन्द में, वसुदेव कश्यप में और देवकी अदिति में समा गयीं। विकसित मुख और नेत्रों वाले समुद्र ने रुक्मिणी के महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया। इसके बाद क्षीरसागर ने आकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके वियोग का कारण उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये और वह व्याकुल होकर रोने लगा। मुने! तत्पश्चात गंगा, सरस्वती, पद्मावती, यमुना, गोदावरी, स्वर्णरेखा, कावेरी, नर्मदा, शरावती, बाहुदा और पुण्यदायिनी कृतमाला ये सभी सरिताएँ भी वहाँ आ पहुँचीं और सभी ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। उनमें जह्नुतनया गंगा देवी विरह-वेदना से कातर तथा अत्यंत दीन हो रही थी। उनके नेत्रों में आँसू उमड़ आये थे। वे रोती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण से बोलीं।
भागीरथी ने कहा- नाथ! रमणश्रेष्ठ! आप तो उत्तम गोलोक को पधार रहे हैं; किंतु इस कलियुग में हमलोगों की क्या गति होगी?
तब श्री भगवान बोले- जाह्नवि! पापीलोग तुम्हारे जल में स्नान करने से तुम्हें जिन पापों को देंगे; वे सभी मेरे मंत्र की उपासना करने वाले वैष्णव के स्पर्श, दर्शन और स्नान से तत्काल ही भस्म हो जाएंगे। जहाँ हरि नाम संकीर्तन और पुराणों की कथा होगी; वहाँ इन सरिताओं के साथ जाकर सावधानतया श्रवण करोगी। उस पुराण-श्रवण तथा हरि नाम संकीर्तन से ब्रह्महत्या आदि महापातक जलकर राख हो जाते हैं। वे ही पाप वैष्णव के आलिंगन से भी दग्ध हो जाते हैं। जैसे अग्नि सूखी लकड़ी और घास फूस को जला डालती है; उसी प्रकार जगत में वैष्णव लोग पापियों के पापों को भी नष्ट कर देते हैं। गंगे! भूतल पर जितने पुण्यमय तीर्थ हैं; वे सभी मेरे भक्तों के पावन शरीरों में सदा निवास करते हैं। मेरे भक्तों की चरण रज से वसुन्धरा तत्काल पावन हो जाती है, तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तथा जगत शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण मेरे मंत्र के उपासक हैं, मुझे अर्पित करने के बाद मेरा प्रसाद भोजन करते हैं और नित्य मेरी ही ध्यान में तल्लीन रहते हैं; वे मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके स्पर्शमात्र से वायु और अग्नि पवित्र हो जाते हैं।
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मेरे भक्तों के चले जाने पर सभी वर्ण एक हो जाएंगे और मेरे भक्तों से शून्य हुई पृथ्वी पर कलियुग का पूरा साम्राज्य हो जायेगा। इसी अवसर पर वहाँ श्रीकृष्ण के शरीर से एक चार-भुजाधारी पुरुष प्रकट हुआ। उसकी प्रभा सैकड़ों चंद्रमाओं को लज्जित कर रही थी। वह श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था और उसके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128-
वह एक सुंदर रथ पर सवार होकर क्षीरसागर को चला गया। तब स्वयं मूर्तिमती सिन्धुकन्या भी उनके पीछे चली गयीं। जगत के पालनकर्ता विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर श्रीकृष्ण के मन से उत्पन्न हुई मनोहरा मर्त्यलक्ष्मी ने भी उनका अनुगमन किया। इस प्रकार उस शुद्ध सत्त्वस्वरूप के दो रूप हो गये। उनमें दक्षिणांग हो भुजाधारी गोप-बालक के रूप में प्रकट हुआ।
वह नूतन जलधर के समान श्याम और पीताम्बर से शोभित था; उसके मुख से सुंदर वंशी लगी हुई थी; नेत्र कमल के समान विशाल थे; वह शोभासंपन्न तथा मन्द मुस्कान से युक्त था। वह सौ करोड़ चंद्रमाओं के समान सौंदर्यशाली, सौ करोड़ कामदेवों की सी प्रभावाला, परमानन्द स्वरूप, परिपूर्णतम, प्रभु, परमधाम, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, सबका परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, अविनाशी शरीरवाला, प्रकृति से पर और ऐश्वर्यशाली ईश्वर था। योगीलोग जिसे सनातन ज्योतिरूप जानते हैं और उस ज्योति के भीतर जिसके नित्य रूप को भक्ति के सहारे समझ पाते हैं।
विचक्षण वेद जिसे सत्य, नित्य और आद्य बतलाते हैं, सभी देवता जिसे स्वेच्छामय परम प्रभु कहते हैं, सारे सिद्धशिरोमणि तथा मुनिवर जिसे सर्वरूप कहकर पुकारते हैं, योगिराज शंकर जिसका नाम अनिर्वचनीय रखते हैं, स्वयं ब्रह्मा जिसे कारण के कारण रूप से प्रख्यात करते हैं और शेषनाग जिस नौ प्रकार के रूप धारण करने वाले ईश्वर को अनन्त कहते हैं; छः प्रकार के धर्म ही उनके छः रूप हैं, फिर एक रूप वैष्णवों का, रूप वेदों और एक रूप पुराणों का है; इसीलिए वे नौ प्रकार के कहे जाते हैं। जो मत शंकर का है, उसी मत का आश्रय ले न्यायशास्त्र जिसे अनिर्वचनीय रूप से निरूपण करता है, दीर्घदर्शी वैशेषिक जिसे नित्य बतलाते हैं; सांख्य उन देव को सनातन ज्योतिरूप, मेरा अंशभूत वेदान्त सर्वरूप और सर्वकारण, पतञ्जलिमतानुयायी अनन्त, वेदगण सत्यस्वरूप, पुराण स्वेच्छामय और भक्तगण नित्यविग्रह कहते हैं; वे ही ये गोलोकनाथ श्रीकृष्ण गोकुल में वृन्दावन नामक पुण्यवन में गोपवेष धारण करके नन्द के पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए हैं। ये राधा के प्राणपति हैं। ये ही वैकुण्ठ में चार-भुजाधारी महालक्ष्मीपति स्वयं भगवान नारायण हैं; जिनका नाम मुक्ति प्राप्ति का कारण है।
नारद ! जो मनुष्य एक बार भी ‘नारायण’ नाम का उच्चारण कर लेता है; वह तीन सौ कल्पों तक गंगा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने का फल पा लेता है।
तदनन्तर जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं; जिनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न शोभा देता है; मणिश्रेष्ठ कौस्तुभ और वनमाला से जो सुशोभित होते हैं; वेद जिनकी स्तुति करते हैं; वे भगवान नारायण सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षदों के साथ विमान द्वारा अपने स्थान वैकुण्ठ को चले गये।
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" यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।१८ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-(129)
त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।१८ ।।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-(129)
ब्रह्मा जी बोले ! हे प्रभु !
इस पृथ्वी पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये।
विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़करअपने गोलोक धाम को पधार रहे हैं।१८।
जिसमें ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण के लिए कहते हैं कि-
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।।२५।
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरुषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिकं प्रभो।।२५।
अनुवाद - पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किया एक-सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।
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