शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

कृष्ण के दार्शनिक दृष्टिकोण-

"कृष्ण का आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण-

श्रीमद्भगवदगीता के कुछ मौलिक अध्याय जीवन और जगत् की दार्शनिक व वैज्ञानिक विवेचना  प्रस्तुत करते हैं।

"श्रीमद्भगवद्गीता के प्रतिपादित विषय:


समता योग :

·मनुष्य को सभी प्रकार के राग-द्वेष , मान- सम्मान सफलता-असफलता, सुख-दु:ख को सृष्टि का द्वन्द्वात्मक विधान मानकर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए-  हमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को समान रूप से स्वीकार करना सीखना चाहिए। गीता में ऐसी समता को  योग ' कहा गया है।

"योगस्थः कुरु कर्माणि सिद्ध्यसिद्ध्योः सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2/48। (श्रीमद्भगवद्गीता )

अनुवाद-

हे धनञ्जय अर्जुन ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।15/7।

अनुवाद

मनसहित इन्द्रियोंको अपना माननेके कारण जीवात्मा किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है -- कृष्ण दृष्टान्तसहित  इसका वर्णन करते हैं।

   "जीव में ईश्वर का ही एक अंश "आत्मा" है। लेकिन इस प्राणी ने अपने क्षणिक भौतिक सुखों के लिए इस संसार को नष्ट करने वाले नाशवान प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपना झूठा संबंध को स्वीकार कर लिया है।,

·जिससे वह जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में पड़ जाता है, और ईश्वर से विमुख हो जाता है।

इस शरीर को त्यागने और उसी संसार में दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी  इच्छा युक्त कर्मों के परिणाम स्वरूप निश्चित है।

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।2/ 22।

अनुवाद-

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही( जीवात्मा) पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।

·मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब यह निश्चय हो जाता है कि उसे अगले जन्म में किस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा।

गीता ज्ञान-

·  गीता सिर्फ एक तरफा प्रवचन मात्र नहीं है। यह कृष्ण और अर्जुन के संवादों का एक संग्रह है।

अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों और कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तरों की संगत में ही श्रीमद्भगवद्गीता का सौन्दर्य निहित  है।

· गीता में अर्जुन एक शिष्य के रूप में और कृष्ण एक सद्- गुरु के रूप में उपदेश देते हुए उपस्थित हैं। और अर्जुन बिना किसी वाद -विवाद और भेद के कृष्ण की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करता है।

योग मार्ग:

श्रीमद्भगवद्गीता  तीन योग मार्गों का वर्णन करती है - कर्मयोग- ज्ञानयोग और भक्तियोग।

1. कर्म योग:

· स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का संसार से अभिन्न संबंध है।

· तीनों को निस्वार्थ भाव से दीन - दु:खी और वञ्चितों की सेवा में लगाओ - यही कर्म योग है।

वैसे भी मनुष्य विना कर्म किए हुए कभी नहीं रह सकता है।  

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।     कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

अनुवाद

अठारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी कहा है कि संसार से अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य कर्मों का सम्पूर्णता से त्याग नहीं कर सकता-

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।      यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।

जो पुरुष कर्माधिकारी है और शरीर में आत्माभिमान(मैं हूँ का भाव) रखनेवाला होने के कारण देहधारी अज्ञानी ही है ? आत्मविषयक कर्तृत्वज्ञान नष्ट न होनेके कारण जो मैं करता हूँ ऐसी निश्चित बुद्धिवाला है उससे कर्म का अशेष त्याग होना असम्भव होनेके कारण? उसका कर्मफलत्याग के सहित विहित कर्मोंके अनुष्ठानमें ही अधिकार है? उनके त्याग में नहीं। यह अभिप्राय दिखलानेके लिये कहते हैं --, देहधारीदेहको धारण करे सो देहधारी? इस व्युत्पत्तिके अनुसार शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला देहभृत् कहा जाता है ? विवेकी नहीं। क्योंकि वेदाविनाशिनम् इत्यादि श्लोकोंसे वह ( विवेकी होने पर) कर्तापन के अधिकारसे अलग कर दिया गया है।


 सम्बन्ध-- पीछे के श्लोक में यह कहा ही गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करने के लिये आगे का श्लोक प्रस्तुत हैं।

"तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।

अनुवाद:-

हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' --  ऐसा मानकर उनमें आसक्त( संलग्न) नहीं होता। तभी वह कर्म के परिणामों से बच सकता है।

अन्यथा नहीं कर्म में जब अहं,  संकल्प और इच्छाऐं विद्यमान हैं तो कर्म अपना फल देगा ही।

"कायया कर्माण्यनेकानि क्रियमाणा ।                मन: प्रभोर्मनने सज्यते।                                  निर्मुह्य मात्रं कर्त्तव्यं कुर्वन्तदा जन:                  सर्वे द्वन्द्वानां विजयते।।

शरीर से अनेक कर्मों को करते हुए  मन को प्रभु में लगाने वाला मोह से मुक्त होकर कर्तव्य करते हुए संसार के सभी द्वन्द्व (दो परस्पर विरोधी भावों ) पर विजय प्राप्त कर लेता है।

2. ज्ञान योग:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।


श्रीकृष्ण ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन ! इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) सांख्य दर्शन वेत्ताओं की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से सम्बन्धित है।

3. भक्ति योग:

सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकों की अपनी निष्ठाएँ ( विश्वास- अथवा  स्थिति ) हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु-(शरीरादि-) को मोह से रहित बिना की किसी कामना के होकर कर्तव्य रूप में संसार की ही सेवा में स्वयं को लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। भक्ति वास्तव में ज्ञान और कर्म का समन्वय ( मेल) है। भक्तियोग सबसे श्रेष्ठ मार्ग है

गीता-अमृत:

मनुष्य शरीर :-

·हमारा यह शरीर नष्ट होने वाला( नश्वर) है। यह मन अनेक दुर्वासनाओं  से भरा है। हमारे पास न केवल आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है,अपितु इस भौतिक जगत् का  भी पूर्ण ज्ञान है। 

·  अपने वर्तमान जीवन में भी हम कभी भी एक जैसे नहीं होते हैं। हमारा शरीर हर पल बदलता रहता  है । हमारा शरीर बचपन से यौवन, यौवन से प्रौढ़, और प्रौढ़ से वृद्धावस्था में और फिर मृत्यु में कब बदल जाता है इसका हमें पता तक नहीं चलता क्योंकि शरीर प्राकृतिक तत्वों का समन्वय है  । और परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव व नियम है।

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा l
,तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।2-13। 
(श्रीमद्भगवद्गीता )

·  जीव -विज्ञान- ( biology )कहता है कि शरीर के भीतर की कोशिकाओं का कायाकल्प होता है—पुरानी और मृत कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं निर्माण होती हैं ।  

“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनं:। 
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेत “।। ( 16—21)

अर्थात काम , क्रोध और लोभ -- ये तीनों आत्मा का अधःपतन करने वाले साक्षात् नरक के द्वार हैं।  इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

कृष्ण ने वासना मूलक काम के विषय में कहा-

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।

 
इन्द्रियों को (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आप को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।


निष्कर्ष के रूप में श्रीकृष्ण इस पर बल देकर कहते हैं कि हमें आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी शत्रु का संहार करना चाहिए। क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है और यह दिव्य शक्ति है इसलिए दिव्य पदार्थों से ही अलौकिक आनन्द प्राप्त हो सकता है जबकि संसार के सभी पदार्थ भौतिक हैं। ये भौतिक पदार्थ आत्मा की स्वाभाविक उत्कंठा को कभी पूरा नहीं कर सकते इसलिए इनको प्राप्त करने की कामना करना व्यर्थ ही है। इसलिए परिश्रम करते हुए हमें बुद्धि को तदानुसार क्रियाशील होने का प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए। 

कठोपनिषद् में रथ के सादृश्य से इसे अति विशद ढंग से समझाया गया है:

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।। (कठोपनिषद्-1.3.3-4) 

यह उपनिषद्  वर्णन करता है कि यह शरीर एक रथ है जिसे पांच इन्द्रिय रूपी घोड़े हाँक रहे हैं। उन घोड़ों के मुख में मन रूपी लगाम पड़ी है। यह लगाम रथ के बुद्धि रूपी सारथी के हाथ में है और रथ के पीछे आसन पर  (जीवात्मा) यात्री बैठा हुआ है। यात्री को चाहिए कि वह सारथी को उचित निर्देश दे जो लगाम को नियंत्रित कर घोड़ों को उचित दिशा की ओर जाने का मार्गदर्शन दे सके। 

इस सादृश्य में रथ मनुष्य का शरीर है, घोड़े पाँच इन्द्रियाँ हैं और घोड़ों के मुख में पड़ी लगाम मन है और सारथी बुद्धि है और रथ में बैठा यात्री शरीर में वास करने वाली आत्मा है। इन्द्रियाँ (घोड़े) अपनी पसंद के पदार्थों की कामना करती हैं। मन (लगाम) इन्द्रियों को मनमानी करने से रोकने में अभ्यस्त नहीं होता। बुद्धि (सारथी) मन (लगाम) के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती है। इस प्रकार मायाबद्ध अवस्था में सम्मोहित आत्मा बुद्धि को उचित दिशा में चलने का निर्देश नहीं देती।


कर्मयोग सिद्धान्त

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि “-(2- 47) 
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।


अनासक्त कर्म-

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।

 
अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है।

 वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।

मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।

·अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

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