शुक्रवार, 28 जून 2024

कृष्ण की तपस्या-

इस्कॉन:- गोलोक ही नित्य धाम है अन्य कैलाश आदि लोक सब अनित्य है नश्वर है।

ले देवी भागवत स्कंध ९ अध्याय ८ श्लोक १०७:-
दशमन्वन्तरं तप्त्वा श्रीकृष्णः परमं तपः । 
गोलोकं प्राप्तवान्दिव्यं मोदतेऽद्यापि यत्र हि ॥

हे विभो ! प्राचीन कालमें शंकरजीने एक सौ मन्वन्तरतक उन भगवतीका तप किया था। ब्रह्माजीने भी सौ मन्वन्तरतक शक्तिके नामका जप किया था। इसी प्रकार भगवान् विष्णु भी सौ मन्वन्तरतक तपस्या करके सम्पूर्ण जगत्के रक्षक बने ।। 105-106

 श्रीकृष्णने दस मन्वन्तरतक कठोर तप करके दिव्य गोलोक प्राप्त किया, जहाँपर आज भी वे आनन्द प्राप्त कर रहे हैं ।। 107 ।।

उन्हीं भगवतीको भक्तिसे युक्त होकर धर्म दस मन्वन्तरतक तपस्या करके सबके प्राणस्वरूप, सर्वपूज्य तथा सर्वाधार हो गये॥ 108 ॥इसी प्रकार सभी देवता, मुनि, मनुगण, राजा तथा ब्राह्मण भी उन भगवती मूलप्रकृतिकी तपस्याके द्वारा ही पूजित हुए हैं ॥ 109 ॥

[ हे नारद!] इस प्रकार मैंने आगमसहित इस पुराणको गुरुके मुखसे जैसा जाना था, वह सब आपको बता दिया; अब आप आगे क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 110 ॥



अर्थात:- श्री कृष्ण ने दस मन्वन्तर तक कठोर तप करके दिव्य गोलोक प्राप्त किया, जहाँ पर आज भी वे आनन्द प्राप्त कर रहे हैं.....🙂🙂🙂

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके । 
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।
तो प्रेम से बोलो जय माता दी 🙏😌
सारे बोलो जय माता दी 🙏😌

गुरुवार, 27 जून 2024

यशोदा माता की अंगकान्ति गौर अथवा श्यामल थी। एक विश्लेषण-

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग-कान्ति श्यामल वर्ण ( साँवली)की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।
उपर्युक्त श्लोक श्रीश्री राधागणोद्देश्य दीपिका से उद्धृत है।
और नीचे वाला श्लोक गर्गसंहिता के गिरि-राज खण्ड से है। जिसमें यशोदा को गोरे रंग का बताया गया है। और इसी श्लोक में नन्द को गोप होने से वैश्य और वसुदेव को क्षत्रिय बताया गया है। जबकि यथार्थ में बहुतायत ग्रन्थों में वसुदेव को भी  गोप ही बताया गया है। नीचे गर्गसंहिता के श्लोक देखें-
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

"गर्गसंहिता- ३/५/७     

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।

परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

राधा अन्य पुराणों में-

श्रीराधातत्त्वविमर्श - ०२

इस विवाह की बात गर्गाचार्य जी ने नन्दराय को बतायी भी थी किन्तु उन्होंने गोपनीय रखा। जब गोवर्द्धनधारण की लीला हुई तो गोपों को सन्देह हुआ। उन्होंने पूछा कि नन्दजी ! हम गोपों में तो ऐसा अद्भुत पराक्रम देखने को नहीं मिलता है। बलराम यदि ऐसा करते तो समझ में आता है क्योंकि वे वसुदेव-रोहिणी से उत्पन्न क्षत्रिय हैं, किन्तु कृष्ण तो आपकी सन्तान है और गोपों में इतना पराक्रम प्राकृतिक नहीं लगता। ऊपर से आप भी गोरे, यशोदाजी भी गोरी, तो यह आपका बालक काला कैसे हो गया ?

________________________________
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम् ॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

श्लोक 3.5.5 का अंग्रेजी अनुवाद:

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

_______     
यद्वाऽस्तु क्षत्रियाणां तु बाल एतादृशो यथा ।
बलभद्रे न दोषः स्याच्चन्द्रवंशसमुद्‌भवे ॥६ ॥

यत्- जो; वा- या; अस्तु- हो सकता है; क्षत्रियणाम्- क्षत्रियों में ; तु- सचमुच; बाला- बालक; एतादृशः- इस प्रकार; यथा- जैसा; बलभद्रे- बलराम के लिए ; न- नहीं; दोषः- दोष; स्याच- है; चन्द्र-वंश- समुद्भवे- चन्द्रदेव के क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुआ 

श्लोक 3.5.6 का अंग्रेजी अनुवाद:

यह बालक क्षत्रिय जैसा है । बलराम के लिए क्षत्रिय का स्वभाव अप्रत्याशित नहीं है। उनका जन्म क्षत्रिय परिवार में हुआ था जो चंद्रदेव के वंशज थे।


ज्ञातेस्त्यागं करिष्यामो यदि सत्यं न भाषसे ।
गोपेषु चास्य वोत्पत्तिं वद चेन्न कलिर्भवेत् ॥७। 

ज्ञातेः- परिवार का ; त्यागम्- त्याग; करिष्यामः- हम करेंगे; यदि- यदि ; सत्यम्- सत्य; न- नहीं; भाषासे- आप बताइए; गोपेषु- गोपों में ; च- और; अस्य- उसका; वा- या; उत्पत्तिम्- जन्म; वद- बताइए ; सेन- यदि; न- नहीं; कलिः- झगड़ा; भवेत्- हो सकता है।

श्लोक 3.5.7 का अंग्रेजी अनुवाद:

अगर तुम हमें सच नहीं बताओगे तो हम समाज छोड़ देंगे। क्या यह लड़का सचमुच गोपों के घर पैदा हुआ था? अगर तुम हमें नहीं बताओगे तो बहुत बड़ा झगड़ा हो जाएगा।


श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
___________________________________


तब न चाहते हुए भी नन्दजी को गर्गाचार्य की बात बतानी पड़ी और उन्होंने कहा -

वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि।
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः॥
(गर्गसंहिता, गिरिराजखण्ड, अध्याय - ०५, श्लोक - १५-१६)

सभी इन्द्रियों को वसु कहते हैं, उन्हीं का देवता चित्त भी है। जो उनमें चेष्टा करे, वह वासुदेव कहलाता है। (इस प्रकार उन्होंने प्रत्यक्ष तो नहीं, किन्तु सङ्केत कर दिया कि श्रीकृष्ण वसुदेवपुत्र हैं) वृषभानु की जो पुत्री कीर्ति से उत्पन्न हुई थी, उस राधा का यह साक्षात् पति है, अतः इसे राधापति भी कहते हैं।

श्रीकरपात्री स्वामीजी का उदाहरण देकर कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने भी श्रीमद्भागवत में राधावन्तः शब्द और राधाजी को स्वीकार किया है। ध्यातव्य है कि यह उनका सिद्धान्तपक्ष नहीं है। एक भक्त के इस भाव को उन्होंने राधादर्शन के निमित्त स्वीकार किया है। श्रीराधासुधा आदि ग्रन्थों में तो उन्होंने शास्त्रीय पक्षों की ही सिद्धान्तव्याख्या की है। मूलप्रसङ्ग के अनुसार सदर्थप्रकाशन करने के अनन्तर भक्त अपनी भावसिद्धि हेतु उसी शब्द के अनेकों भाव व्यक्त करता है, यह भिन्न विषय है, इसे सिद्धान्तपक्ष में परिगणित नहीं किया जाता है। 

अब कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि राधाजी का विवाह रायाणगोप से हुआ था, अथवा इस अनुसार राधाजी श्रीकृष्ण की मामी लगती थीं, आदि आदि। रायाण गोप स्वयं भगवान् के अंशभूत बारह गोपपार्षदों में हैं -

स च द्वादशगोपानां रायाणः परमः प्रिये।
श्रीकृष्णांशश्च भगवान् विष्णुतुल्यपराक्रमः॥

इन रायाण से वास्तविक राधा का नहीं, अपितु छायाराधा का विवाह हुआ था। छायाराधा पिछले जन्म में केदार की पुत्री वृन्दा थी। भगवान् ने उसे बताया था कि जब राधाजी का विवाह रायाणगोप से निश्चित होगा तो वास्तविक राधा अन्तर्धान हो जाएगी और उनके स्थान पर छायाराधा आ जाएगी, जिसका विवाह रायाणगोप से होगा। जो वास्तविक राधा होगी, वो मेरे (श्रीकृष्ण) के साथ होगी और जो छायाराधा होगी, वह रायाण की पत्नी बनेगी, जिसे मूर्खतावश लोग वास्तविक राधा समझते रहेंगे।

वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाहं ग्रहीष्यति॥
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा॥
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरूपिणी।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति॥
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा सान्तर्धाना भविष्यति।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति च गोकुले॥
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न हि पश्यन्ति बल्लवाः।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ८६, श्लोक - १३७-१४१)

और फिर यही हुआ। बारह वर्ष की होने पर नवयौवन से युक्त राधाजी का विवाह रायाण वैश्य के साथ निश्चित कर दिया गया और वास्तविक राधा अन्तर्धान हो गयीं एवं उनका स्थान छाया राधा ने ले लिया -

अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम्।
सार्द्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः॥
छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानं चकार ह।
बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहच्छायया सह॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण)

माहेश्वरतन्त्र भगवान् शिव को समाधि की अवस्था में प्राप्त हुआ था। उसके अध्याय - २६, श्लोक - १४ में कहते हैं - इदं माहेश्वरं तन्त्रं समाधौ यच्छ्रुतं मया। अध्याय - ०९, चौथे श्लोक में कहते हैं - वृषभानुगृहे जाता राधिकेति च विश्रुता। भगवान् श्रीकृष्ण को गोपियों और पार्श्वस्थित राधाजी के साथ देखकर श्रुतियाँ अत्यन्त विस्मित हुईं। कोई गोपी उन्हें चँवर डुला रही थी, कोई उनके सम्मुख दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी, कोई गोपी मणिमयी दीपमालिका सजाकर राधामाधव के मुखकमल की आरती उतार रही थी -

काचिद्गोपी सचमरकरा बीजयन्ती स्वकान्तं
काचिच्चाग्रे करयुगपुटं कृत्य तस्थौ निरीहा।
काचित्स्थाल्यां मणिगणमयीं कृत्य दीपावलिं तां राधाकृष्णप्रतिमुखगता कुर्वती दीपकृत्यम्॥
(माहेश्वरतन्त्र, अध्याय - ५०, श्लोक - ४५) 

बैल के रूप में आए अरिष्टासुर को मारने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण गौवध की आशंका से जब चिन्तित हो गए थे तो राधाजी ने राधाकुण्ड का निर्माण करके उसके पवित्र जल से उन्हें स्नान कराया था -

स्नातस्तत्र तदा कृष्णो वृषं हत्वा महासुरम्।
वृषहत्यासमायुक्तः कृष्णश्चिन्तान्वितोऽभवत्॥
वृषो हतो मया चायमरिष्टः पापपूरुषः।
तत्र राधा समाश्लिष्य कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥
स्वनाम्ना विदितं कुण्डं कृतं तीर्थमदूरतः।
राधाकुण्डमिति ख्यातं सर्वपापहरं शुभम्॥
(वराहपुराण, अध्याय - १६४)

धर्मरक्षा हेतु अपने श्रीकृष्णावतार की भविष्यवाणी करते हुए भगवान् विष्णु ने ब्रह्मदेव को वृषभानुजा राधाजी के अवतार की भविष्यवाणी भी बतायी थी -

भूभारासुरनाशार्थं पातुं धर्मं च धार्मिकान्।
वसुदेवाद्भविष्यामि देवक्यां मथुरापुरे॥
कृष्णोहं वासुदेवाख्यस्तथा सङ्कर्षणो बलः।
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भविष्यन्ति यदोः कुले॥
गोपस्य वृषभानोस्तु सुता राधा भविष्यति।
वृन्दावने तया साकं विहरिष्यामि पद्मज॥
(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, वासुदेवमाहात्म्य, अध्याय - १८)

श्रीराधाजी की प्रार्थना पर कल्कि अवतार लेंगे, यह भविष्यवाणी भी द्रष्टव्य है -

राधया प्रार्थितोऽहं वै यदा कलियुगान्तके।
समाप्य च रहःक्रीडां कल्की च भवितास्म्यहम्॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, खण्ड - ०४, अध्याय - ०५, श्लोक - २८)

स्वयं सुदर्शनावतार निम्बार्काचार्य जी कहते हैं -

नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै
नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै।
सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्तः 
प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्थम्॥

परम वैष्णव श्रीजीवगोस्वामीजी लिखते हैं कि जीवन और मरण दोनों में श्रीराधाकृष्ण ही उनकी गति हैं -

कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवने निधने नित्यं राधाकृष्णौ गतिर्मम॥

श्रीरूपगोस्वामीजी कहते हैं कि दुर्गम वेदों के सार, सृष्टि और संहार करने वाले, नवीन किशोरस्वरूप, नित्य वृन्दावन में रहने वाले, भय आदि को दूर करने वाले, पापियों को तारने वाले श्रीराधाकृष्ण का भजन करो। अरे मन ! भजन करो।

अगमनिगमसारौ सृष्टिसंहारकारौ 
वयसि नवकिशोरौ नित्यवृन्दावनस्थौ।
शमनभयविनाशौ पापिनस्तारयन्तौ 
भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ॥

श्रीचैतन्यमहाप्रभु, हितहरिवंश महाप्रभु, भक्तराज खड्गसेन आदि का तो पूरा जीवन राधाभक्ति से ओतप्रोत रहा है। श्रीराधाजी कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं जिन्हें विधर्मियों ने बाद में मिला दिया।  

त्रैलोक्यपावनीं राधां सन्तोऽसेवन्त नित्यशः।
यत्पादपद्मे भक्त्यार्घ्यं नित्यं कृष्णो ददाति च॥
(नारदपाञ्चरात्र, द्वितीय रात्र, अध्याय - ०६, श्लोक - ११)

भगवान् शिव कहते हैं - सज्जन सदैव उन त्रिलोकपावनी राधाजी की सेवा करते हैं, जिसके चरण कमलों में स्वयं श्रीकृष्ण भक्तिपूर्वक नित्य अर्घ्य प्रदान करते हैं। सनत्कुमारसंहिता में कहते हैं - हे कृष्ण की स्वामिनी ! कृष्ण की प्राणभूता ! कृष्ण को मन को चुराने वाली ! भक्तों को अपना धाम देने वाली राधिके ! तुम मुझपर प्रसन्न हो -

राधे राधे च कृष्णेशे कृष्णप्राणे मनोहरे। 
भक्तधामप्रदे देवि राधिके त्वं प्रसीद मे॥
(सनत्कुमारसंहिता)

नारदपाञ्चरात्र में ही कहते हैं - जैसे श्रीकृष्ण ब्रह्मस्वरूप हैं तथा प्रकृति से सर्वथा परे हैं, वैसे ही श्रीराधा भी ब्रह्मस्वरूपिणी, माया से निर्लिप्त तथा प्रकृति से परे हैं। श्रीकृष्णके प्राणोंकी जो अधिष्ठातृदेवी हैं, वे ही श्रीराधा हैं।

यथा ब्रह्मस्वरूपश्च श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः।
तथा ब्रह्मस्वरूपा च निर्लिप्ता प्रकृतेः परा॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी या राधारूपा च सा मुने।

और कहते हैं,

सौभाग्यासु सुन्दरीषु राधा कृष्णप्रियासु च।
हनुमान्वानराणां च पक्षिणां गरुडो यथा॥
(नारदपाञ्चरात्र, प्रथम रात्र, अध्याय- ०१)

जैसे वानरों में हनुमान् और पक्षियों में गरुड सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाली सभी सौभाग्यवती स्त्रियों में राधाजी श्रेष्ठ हैं। 

वस्तुतः राधा और कृष्ण में कोई भेद शास्त्रज्ञजन देखते ही नहीं हैं। जैसे दूध और उसकी सफेदी एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही श्रीराधाकृष्ण को एक दूसरे से अभिन्न जानना चाहिए -

त्वं कृष्णाङ्गार्धसंभूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः।
श्रीकृष्णस्त्वमयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम्॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - १५)

वेदों और पुराणों में, कहीं भी राधा और कृष्ण में भेद नहीं बताया गया है -

त्वमेव राधा त्वं कृष्णस्त्वं पुमान्प्रकृतिः परा। राधामाधवयोर्भेदो न पुराणे श्रुतौ तथा॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ९४, श्लोक - ०५)

द्वारिका में जो शक्तिरूपा प्रकृति रुक्मिणी कहलाती हैं, वही वृन्दावन में राधाजी हैं। 
******
रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने॥
(मत्स्यपुराण, अध्याय - १३, श्लोक - ३८)

वृन्दावन में श्रीराधाजी की आठ प्रकृतियाँ हो जाती हैं, जिनमें नाम निम्न हैं -

अष्टौ प्रकृतयः पुण्याः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः।
प्रधानप्रकृतिस्त्वाद्या राधा चन्द्रावती समा॥
चन्द्रावली चित्ररेखा चन्द्रा मदनसुन्दरी।
प्रिया च श्रीमधुमती चन्द्ररेखा हरिप्रिया॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ७०, श्लोक - ०७-०८)

प्रधान प्रकृति श्रीराधाजी हैं। फिर उनके ही समान चन्द्रावती हैं। फिर चन्द्रावली, चित्ररेखा, चन्द्रा, मदनसुन्दरी, मधुमती, चन्द्ररेखा और प्रिया अथवा हरिप्रिया। श्रीगर्गसंहिता में बताया गया -

ये राधिकायां मयि केशवे मनाग् -
भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्ल्यवत्।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद् -
अहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः॥ 
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय - १२, श्लोक - ३२)

दूध और उसकी श्वेत कान्ति की भांति जो लोग मुझ कृष्ण में और राधिका में भेद नहीं देखते हैं, अर्थात् एक ही समझते हैं, वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं और वे ही हेतुरहित प्रगाढ़भक्तिके अधिकारी हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी कहा गया है -

योगेनात्मा सृष्टिविधौ द्विधारूपो बभूव सः।
पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः॥ (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड, अध्याय - १२, श्लोक - ०९)

परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचनाके समय दो रूपवाले हो गये। दाहिने से पुरुष और बाएं से प्रकृति राधाजी हो गयीं। इसी बात को वेदों ने भी कहा -
*********
राधया माधवो देवो माधवेन च राधिका विभ्राजन्ते जनेष्विति।
(आश्वलायनशाखा, ऋक्-परिशिष्ट)

स्वयं भगवान् ने अपने वात्सल्यवियोग में कष्ट पा रही यशोदाजी और नन्दबाबा को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हेतु राधाजी के पास भेजा है -

ज्ञानं मोक्षात्मकं सिद्धं परं निर्वाणकारणम्।
निवृत्तिमार्गमारूढं भक्तस्तत्रैव वाञ्छति॥
भक्त्यात्मकं च यज्ज्ञानं तुभ्यं राधा प्रदास्यति।
तस्यां च मानवं भावं त्यक्त्वा ज्ञानं करिष्यति॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय - ११०, श्लोक - १४-१५)

जो अधम लोग श्रीराधाकृष्ण में भेदबुद्धि करते हैं, उनका अपने पूर्वजों के साथ घोर नरक में पतन होता है। उनका वंशनाश होता है, वे विष्ठा के कीड़े बनते हैं और कालसूत्रादि भयङ्कर नरकों में यातना पाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं -

राधामाधवयोर्भेदं ये कुर्वन्ति नराधमाः।
वंशहानिर्भवेत्तस्य पच्यन्ते नरकं चिरम्॥
यान्ति शूकरयोनिञ्च पितृभिः शतकैः सह।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां कृमयस्तथा॥

कुछ ऐसा ही मत गर्गसंहिता का भी है। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं -

ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता 
रम्भोरु यावत्किल चन्द्रभास्करौ ॥ 
(गर्गसंहिता, वृन्दावनखण्ड, अध्याय - १५)

वेदों की काण्वशाखा के सन्दर्भ में ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड में कहते हैं कि श्रीकृष्ण की प्रिया राधिकाजी का जो लोग उपहास करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं, वे कल्पपर्यन्त घोर नरकों में जाते हैं, विष्ठा के कीड़े बनते हैं, वेश्याओं की योनि के (गुप्तरोग के) कीड़े बनते हैं। उन्हें ब्रह्महत्या लगती है और उन्हें गर्म तेल में छाना जाता है, इसमें संशय नहीं है -

ये वा द्बिषन्ति निन्दन्ति पापिनश्च हसन्ति च।
कृष्णप्राणाधिकां देव देवीञ्च राधिकां पराम्॥
ब्रह्महत्याशतं ते च लभन्ते नात्र संशयः।
तत्पापेन च पच्यन्ते कुम्भीपाके च रौरवे॥
तप्ततैले महाघोरे ध्वान्ते कीटे च यन्त्रके।
चतुर्द्दशेन्द्रावच्छिन्नं पितृभिः सप्तभिः सह॥
ततः परमजायन्त जन्मैकं कोलयोनितः।
दिव्यं वर्षसहस्रञ्च विष्ठाकीटाश्च पापतः॥
पुंश्चलीनां योनिकीटास्तद्रक्तमलभक्षणाः। 
मलकीटाश्च तन्मानवर्षञ्च पूयभक्षकाः।
वेदे च काण्वशाखायामित्याह कमलोद्भवः॥

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के स्कन्ध - ०९, अध्याय - ०४ में तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ०४ में दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री को सृष्टिकाल में मूलप्रकृति के पांच रूपों के रूप में गिना गया है। 

गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मीः सरस्वती।
सावित्री च सृष्टिविधौ प्रकृतिः पञ्चधा स्मृता॥

इसका समर्थन महाभागवत आदि में भी मिलता है। नारदपुराण के पूर्वार्ध, अध्याय - ८३ में इन पांचों के पञ्चप्रकृतिमन्त्रकवचादि का निरूपण उपलब्ध है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय - ५६ में अलग से राधाकवच भी वर्णित है। अनेकानेक राधातन्त्र, सम्मोहनतन्त्रादि ग्रन्थों में नामावली और पूजापद्धतियों का भी व्यापक वर्णन है। 

भगवान् शिव ने भी राधामन्त्र की दीक्षा ग्रहण की है। भगवान् नारायण ने उन्हें कहा है कि श्रीकृष्ण की प्रसन्नता चाहिए तो श्रीराधाजी की शरण में जाना ही होगा। यह बड़ा अद्भुत रहस्य है। कोई श्रीकृष्ण की शरणागति तो प्राप्त कर ले किन्तु राधाजी की कृपा न हो तो वह कभी श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता है, अतः हे महादेव ! आप मेरे युगलमन्त्र का जप करें, इससे आप मुझे भक्तिपूर्वक वश में कर लेंगे -

यो मामेव प्रपन्नश्च मत्प्रियां न महेश्वर।
न कदापि स चाप्नोति मामेवं ते मयोदितम्॥
सकृदेव प्रपन्नोयस्तवास्मीति वदेदपि।
साधनेन विनाप्येव मामाप्नोति न संशयः॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मत्प्रियां शरणं व्रजेत्।
आश्रित्य मत्प्रियां रुद्र मां वशीकर्त्तुमर्हसि॥
इदं रहस्यं परमं मया ते परिकीर्तितम्।
त्वयाप्येतन्महादेव गोपनीयं प्रयत्नतः॥
त्वमप्येनां समाश्रित्य राधिकां मम वल्लभाम्।
जपन्मे युगलं मन्त्रं सदा तिष्ठ मदालये॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८२, श्लोक - ८४-८८)

ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद एक स्वर से कहते हैं -

स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनृता॥

ऋग्वेद और सामवेद कहते हैं -

इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते । पिबा त्वस्य गिर्वणः॥ 

वह एक ही ब्रह्मज्योति राधा और माधव, दो रूपों में हो गयी, ऐसा श्रीशिवजी कहते हैं -

तस्माज्ज्योतिरभूद्वेधा राधामाधवरूपकम्।
(सम्मोहनतन्त्र)

ब्रह्म का रसस्वरूप भी तैत्तरीय श्रुति बताती है - रसो वै सः। वह अनादिब्रह्म रसस्वरूप होकर अद्वितीय होता हुआ भी राधा और कृष्ण दो आनन्दमय लीलासिद्ध रूपों में कैसे हो जाता है, यह उपनिषत् बताते हैं -

रसिकानन्दस्य अनादिसंसिद्धा लीलाः भवन्ति। अनादिरयं पुरुष एक एवास्ति। तदेव रूपं द्विधा विधाय समाराधनतत्परोऽभूत् । तस्मात् तां राधां रसिकानन्दां वेदविदो वदन्ति।
(सामरहस्योपनिषत्)

श्रीमद्भागवत के रासप्रकरण में कहा कि भगवान् ऐसे लीला कर रहे थे जैसे कोई अपने प्रतिबिम्ब के साथ हो। राधिकोपनिषत् में वेद यही कहते हैं कि एक होकर राधा और कृष्ण क्रीडालीला के निमित्त रसपूर्ण दो स्वरूपभेद से छायावत् हो जाते हैं, जिनके बारे में सुनकर और पढ़कर व्यक्ति परमधाम जाता है। 

येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धि -
र्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत्।
देहो यथा छायया शोभमानः 
शृण्वन् पठन् याति तद्धाम शुद्धम् ॥ 
(श्रीराधिकोपनिषत् - १२)

ये श्रीराधामाधव ही साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमामृतस्वरूप परब्रह्म हैं - 

परब्रह्मसच्चिदानन्दराधा कृष्णयोः परस्परसुखाभिलाषरसास्वादन इव तत्सच्चिदानन्दामृतं कथ्यते॥
(राधोपनिषत्)

जैसे अग्निज्वाला से चिंगारी का निकलना, पुनः उससे महाज्वाला का बनना देखा जाता है, वैसे ही सब देवों में सभी अन्य शक्तियाँ निहित होती ही हैं।

स एवायं पुरुषः स्वरमणार्थं स्वस्वरूपं प्रकटितवान्।
सर्वे आनन्दरसा यस्मात् प्रकटिता भवन्ति। आनन्दरूपेषु पुरुषोऽयं रमते। स एवायं पुरुषः समाराधनतत्परोऽभूत्। तस्मात् स्वयमेव समाराधनमकरोत्। अतो लोके वेदे च श्रीराधा गीयते॥ 
(सामरहस्योपनिषत्) 

उन राधाजी का उसी इस पुरुष (माधव) ने अपने रमण के लिये अपने अन्दर से निज मूलस्वरूप को प्रकट किया। अतः वेदों के अनुसार भी मूलप्रकृति राधाजी श्रीकृष्ण से कदापि भिन्न नहीं हैं। अथर्ववेद में कहते हैं कि भगवान् बलरामजी को जिज्ञासा हुई कि ये श्रीकृष्ण का तत्त्वरूप क्या है ? तब उन्होंने ज्ञानबुद्धि से चिन्तन किया -

गोकुलाढ्ये माथुरमण्डले वृन्दावनमध्ये सहस्रदलपद्मे षोडशदलमध्ये अष्टदलकेसरे गोविन्दोऽपि श्यामपीताम्बरो द्विभुजो मयूरपिच्छशिराः वेणुवेत्रहस्तो निर्गुणः सगुणो निराकारः साकारो निरीहः स चेष्टते विराजत इति । पार्श्वे राधिका चेति ।
*******
राधाकृष्णयोः एकमासनम्। एका बुद्धिः। एकं मनः। एकं ज्ञानम्। एक आत्मा। एकं पदम्। एका आकृतिः। एकं ब्रह्म। 
(अथर्ववेदीय पुरुषबोधिनी राधोपनिषत् श्रुति)

उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार आदि दिव्यतम स्वरूपों का दर्शन किया, जहाँ उनके बगल में श्रीराधाजी थीं। उन्होंने जाना कि श्रीराधाकृष्ण का आसन, बुद्धि, मन, ज्ञान, आत्मा, पद, आकृति और ब्रह्मतत्त्व एक ही है, भिन्न नहीं। वेदमन्त्रों ने विचार किया और कहा -

सर्वाणि राधिकाया दैवतानि सर्वाणि भूतानि राधिकायास्तां नमामः।
××××××××××
जगद्भर्तुर्विश्वसम्मोहनस्य श्रीकृष्णस्य प्राणतोऽधिकामपि। वृन्दारण्ये स्वेष्टदेवीञ्च नित्यं तां राधिकां वनधात्रीं नमामः॥
(अथर्ववेदीय राधिकातापनीयोपनिषत्)

सभी देवता श्रीराधाजी के ही आश्रय से हैं। सभी प्राणी राधाजी के ही आधार से हैं, ऐसी राधिका को हम प्रणाम करते हैं। फिर आगे कहा, जो विश्व का पालन और सम्मोहन करने वाले श्रीकृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्यारी हैं, वृन्दावन में रहने वाली उन इष्टदेवी  वनदेवी राधिका को हम नित्य प्रणाम करती हैं। 

श्रीरूपगोस्वामीजी ने उज्ज्वलनीलमणि में लिखा है -

ह्लादिनी या महाशक्तिः सर्वशक्तिवरीयसी ।
तत्सारभावरूपेयमिति तन्त्रे प्रतिष्ठिता॥
सुष्ठुकान्तस्वरूपेयं सर्वदा वार्षभानवी।
धृतषोडशशृङ्गारा द्वादशाभरणान्विता॥
(उज्ज्वलनीलमणि, ०४/६-७)

जो सभी शक्तियों में श्रेष्ठ आह्लादिनी शक्ति है, उसका ही सारभूत राधाजी हैं, ऐसा तन्त्रमत है। यह वृषभानुजा सदैव अपने स्वामी को प्रिय लगने वाले सोलह शृंगार एवं बारह आभूषणों से सज्जित रहती हैं। 

श्रीरूपगोस्वामीजी ने जो वर्णन किया है, वही ऋग्वेद में भी वर्णित है -

आह्लादिनीसन्धिनीज्ञानेच्छाक्रियाद्या बहुविधः शक्तयः। तास्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरङ्गभूता राधा। कृष्णेन आराध्यत इति राधा, कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका।
(ऋग्वैदिक राधोपनिषत्)

ब्रह्म की आह्लादिनीशक्ति, सन्धिनीशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति आदि बहुत प्रकार की शक्तियाँ हैं। उनमें सर्वश्रेष्ठ शक्ति आह्लादिनी है, जो उनकी परम अन्तरङ्ग अङ्गीभूता राधाजी हैं। कृष्ण के द्वारा जिनकी आराधना हो, वह राधा हैं और जो सदैव कृष्ण की आराधना करें, वह राधा हैं।

अतः अज्ञानपक्षीय भ्रम या अश्रद्धा के कारण जिन सनातनी बन्धुओं ने श्रीराधाजी को विधर्मियों का षड्यन्त्र समझकर उनका उपहास किया, उनकी निन्दा की, उनके अस्तित्व को नहीं माना, उन्हें चाहिए कि आगे से श्रीराधाकृष्ण में अभेदबुद्धि की श्रद्धा रखते हुए पद्मपुराण के निम्न वचनों से अपने उद्धार हेतु प्रार्थना करें -

संसारसागरान्नाथौ पुत्रमित्रगृहाकुलात्।
गोप्तारौ मे युवामेव प्रपन्नभयभञ्जनौ॥
योऽहं ममास्ति यत्किञ्चिदिह लोके परत्र च।
तत्सर्वं भवतोरद्य चरणेषु समर्पितम्॥ 
अहमस्म्यपराधानामालयस्त्यक्तसाधनः।
अगतिश्च ततो नाथौ भवन्तावेव मे गतिः॥
तवास्मि राधिकाकान्त कर्मणा मनसा गिरा।
कृष्णकान्ते तवैवास्मि युवामेव गतिर्मम॥
शरणं वां प्रपन्नोऽस्मि करुणानिकराकरौ।
प्रसादं कुरुतं दास्यं मयि दुष्टेऽपराधिनि॥
(पद्मपुराण, पातालखण्ड, अध्याय - ८२, श्लोक - ४२-४६)

हे नाथ ! स्त्री, पुत्र, मित्र और घरसे भरे हुए इस बन्धनरूपी संसारसागरसे आप ही दोनों मुझको बचानेवाले हैं। आप ही शरणागतके भयका नाश करते हैं। मैं जो कुछ भी हूँ और इस लोक तथा परलोक में मेरा जो कुछ भी है, वह सभी आज मैं आप दोनों के चरणकमलों में समर्पण कर रहा हूँ। मैं अपराधों का भंडार हूँ। मेरे अपराधों का पार नहीं है। मैं सर्वथा साधनहीन हूँ, गतिहीन हूँ । इसलिये नाथ ! एकमात्र आप ही दोनों प्रिया-प्रियतम मेरी गति हैं। श्रीराधिकाकान्त श्रीकृष्ण ! और श्रीकृष्णकान्ते राधिके ! मैं तन -मन-वचनसे आपका ही हूँ और आप ही मेरी एकमात्र गति हैं। मैं आपके शरण हूँ, आपके चरणों पर पड़ा हूँ। आप दोनों अखिल कृपा के खान हैं। कृपापूर्वक मुझपर दया कीजिये और मुझ दुष्ट अपराधी को अपना तुच्छ दास बना लीजिये।

अन्त में भगवान् परशुरामजी के भावपूर्ण वचनों के साथ मैं लेख को पूर्ण करता हूँ -

या राधा जगदुद्भवस्थितिलयेष्वाराध्यते वा जनैः
शब्दं बोधयतीशवक्त्रविगलत्प्रेमामृतास्वादनम् ।
रासेशी रसिकेश्वरी रमणदृन्निष्ठा निजानन्दिनी
नेत्री सा परिपातु मामवनतं राधेति या कीर्त्यते॥
(ब्रह्माण्डपुराण, मध्यभाग, अध्याय - ४३, श्लोक - ०८)

जो राधा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के समय लोगों के द्वारा आराधिता होती हैं, अपने स्वामी के मुखारविन्द से निर्गत शब्दरूपी प्रेमामृत का आस्वादन करती हैं, महारास की नायिका, रसिकों की स्वामिनी, सदैव अपने स्वामी की ओर दृष्टि रखने वाली, अपने आनन्द में मग्न, भक्तों का नेतृत्व करने वाली वह देवी सदैव मेरी रक्षा करें, जिन्हें राधा कहा जाता है। 


राधाजी के पिता का नाम वृषभानु था लेकिन कुल छह वृषभानु थे।

जिनके नाम थे – नीतिवित् , मार्गद, शुक्ल, पतङ्ग , दिव्यवाहन , गोपेष्ट। 

इनमें से राधाजी के पिता कौन थे ?



देवी को बलि

देवता के निमित्त की गयी हिंसा अहिंसा है

देवी की पूजा में बलि दिया ही जाता है अब इसमे ये सब तर्क की भगवती क्या खुद के ही संतानो को खाएगी बकवास है क्यूंकि जिस प्रकार भगवती इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति आदि कृत्य करती हैं उसी प्रकार से संघार कर्म भी करती हैं जो ये भी तर्क हो सकता है कि जो ईश्वर खुद ही श्रृष्टि कर रहा है वो खुद इसका संहार कैसे कर सकता है आदि।
महामारी आदि के रूप में भगवती ही लोगों का रक्तपान करती हैं ये बात भी शास्त्र सिद्ध है। 

दुर्गा सप्तशती आदि मान्य ग्रंथों में भी बलि का उल्लेख है
सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् । 
पशुपुष्पार्ध्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ॥ 
(दुर्गा सप्तशती १२.२०)

वैश्य और राजा द्वारा भी अपने रक्त की बलि द्वारा भगवती को संतुष्ट करने का वर्णन भी सप्तशती में है
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वषैर्यतात्मनोः ॥
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥
(सप्तशती अध्याय १३ श्लोक १२,१३)

श्री रामचंद्र जी ने रावन से युद्ध में विजयी होने हेतु जिस विधि से भगवती की उपासना की उसमे भी नारदजी ने बलि का उपदेश नवरात्र विधान में किया था
मेध्यैश्च पशुभिर्देव्या बलिं दत्त्वा विशंसितैः।
दशांशं हवनं कृत्वा सुशक्तस्त्वं भविष्यसि।।
(देवी भागवत ३.३०.२०)

वास्तव में देवी को बलि में पशु आदि चढ़ाना हिंसा है ही नहीं क्यूंकि देवताओं के निमित्त जिन पशुओं की हिंसा की जाती है वो निंदित नहीं है क्यूंकि इससे उन पशुओं को भी स्वर्ग लोक प्राप्त होता है ऐसा शास्त्र का निर्णय है एवं ये अहिंसा ही है।
__________
मांसाशनं ये कुर्वन्ति तैः कार्यं पशुहिंसनम् ।
महिषाजवराहाणां बलिदानं विशिष्यते ॥
देव्यग्रे निहता यान्ति पशवः स्वर्गमव्ययम् । 
न हिंसा पशुजा तत्र निघ्नतां तत्कृतेऽनघ ॥
अहिंसा याज्ञिकी प्रोक्ता सर्वशास्त्रविनिर्णये। 
देवतार्थे विसृष्टानां पशूनां स्वर्गतिर्भुवा ॥
(देवी भागवत ३.२६.३२,३३,३४)




बुधवार, 26 जून 2024

"व्रज-वञ्श -प्रकाशिका"


अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ  रहते हुए  वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।        पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी  भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।

कृष्णस्य पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली  और अधिक वृद्धा थीं।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६। 
"अनुवाद:- नन्द के पिता  पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे  और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का  वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये  द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये 
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश ।  हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
__________________________________

नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

"गर्गसंहिता- ३/५/७     

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

"विशेष-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।

परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।

प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह  गोलोक  से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से  भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल  मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति  श्रृँगाल ने कहा :- 
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"      
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
____________________________
 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय


_________________________________
आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।

"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
 
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल  दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल  के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा  कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।  

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ  जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।

सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये  दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा  अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के  कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
 दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई  जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु  है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।


महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।

"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी  पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४। 
अनुवाद:-  ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और  गिरिभानु है।२४।
  
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
अनुवाद:-  गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।

अनुवाद:-  उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।

गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥

यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।

"गर्गसंहिता- ३/५/७     

हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।

*****
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

"विषेश-  यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।

परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं। 
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।


**********************************
मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के  समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:-  मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी 
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:-  दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम  स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला  कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।

यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम  क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।

चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो: 
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ । 
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
 
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।४०।

"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
******
तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के  गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
 
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा  विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक  है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं 
से सुशोभित हैं।४५।
  
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:-  पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।

आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा

कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।

तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती,  कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।

आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता  यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।

अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 


"अनुवाद:-  श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)

राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)



"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

"अनुवाद:-  श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दा के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 

रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******************
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
*****************
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

***********************************
तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

*****************************
स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
___________________________
उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
_____________    
सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।

और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...

और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त  श्रीलरूप गोस्वामी  द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः १३४
__________________________________
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।

भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली ब्रज की आभीर कन्याओं में वृंदावनेश्वरी श्री राधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)

रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""

करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं

500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में  श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--

दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"

अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।

 यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।

सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।

विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था। 
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।

तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है👇

अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

और गर्ग सहिता
 में लिखा है !

 यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।

अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।

जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
________________________________
विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु 
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
 महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है

सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-


प्रस्तुतिकरण - यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219