बचपन से ही हम रामायण' की कहानी सुनते आए हैं। “जब सीता ने अग्निपरीक्षा द्वारा अपनी पवित्रता पहले ही सिद्ध कर दी थी, तो राम ने उन्हें वनवास क्यों दिया ?" इस प्रश्न का कोई समुचित व युक्तियुक्त उत्तर हमें नहीं मिलता।
यह प्रश्न तो 'रामायण' के हर अध्येता के समक्ष बारबार उत्पन्न होता ही है, बहुत से सुप्रसिद्ध व्यक्तियों का कथन है कि वे 'रामायण' में सीतावनवास उपाख्यान को पसंद नहीं करते और इसे वे राम के चरित्र पर एक कलंक (आक्षेप) मानते हैं।
एक मिसाल कायम करना चाहते थे। पर यह तर्क भी प्रबुद्ध जनों को प्रभावित नहीं करता, क्योंकि हम जानते हैं कि राम एक अत्यधिक आदर्श राजा के रूप में प्रसिद्ध हैं। आज भी रामराज्य' का अर्थ होता है 'सर्वश्रेष्ठ शासन' या 'सर्वश्रेष्ठ सरकार' अब, राजा का निर्णय भी आदर्श तो होगा ही।
जैसा कि हर पाठक जानता है, सीता पवित्र थी, पतिव्रता थीं, अपने समय की सर्वश्रेष्ठ स्त्री थीं। राम जानते थे कि सीता पतिव्रता है, क्योंकि अग्निपरीक्षा में वह पवित्र प्रमाणित हुईं।
क्या राम, अथार्त आदर्श राजा राम, क्या सीता को किसी ऐसे आक्षेप पर सजा देगा, जिस (आक्षेप) के बारे में वह जानता है कि वह (आक्षेप) आधारहीन है ?
साधारण स्थिति में राजा के रूप में, राम से हम अपेक्षा करते हैं कि या तो वह अफवाह पर कान ही नहीं देगें या फिर अफवाह फैलाने वाले को दंड देगें। इस तरह हम सीता वनवास के लिए राजा राम को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते।
इस प्रश्न के किसी युक्तियुक्त उत्तर के लिए हमें राम, व्यक्ति रूप में राम के अंतस में झांकना होगा।
फिर, यदि वह राजा राम के रूप में यह निर्णय कर रहा थे, तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह सीता को अपनी सफाई देने का मौका देते। यह मौका उन्होंने नहीं दिया। उन्होंने लक्ष्मण से, यह कह कर कि सीता वन जाना चाहती है, उसे वन में वाल्मीकि आश्रम के पास छोड़ आने को कहा। सीता के वन जाने से पूर्व वह (राम) उस से मिले तक नहीं। इस से लगता है कि राम यह कार्य एक व्यक्ति, एक मनुष्य के रूप में ही कर रहा थे, न कि राजा के रूप में।
सीता परित्याग (भाग तृतीय)
राम हमारे नायक के रूप में
जब अपनी पत्नी के सतीत्व में संदेह किसी व्यक्ति के दिमाग में मुख्य द्वार से प्रवेश करता है, तो शांति पिछले दरवाजे से निकल जाती है। और अविश्वास और आशंकाओं के धूल और आऑधी उमड़ने लगती है। ऐसी घड़ी में उसे शांति की ही अधिकतम आवश्यकता होती है।
हमें इस बात का ध्यान रखना है कि ये बातें किसी साधारण मनुष्य के दिमाग में नहीं उठ रही हैं। यह व्यक्ति जो एक अभूतपूर्व यंत्रणा के जाल में उलझ गया है, एक उदात्त नायक है। राम के लिए अयोध्या की गद्दी, जो लगभग उनसे छिन गई थी, छोड़ कर वनवास चले जाना इतना कष्टकर नहीं था जितना कि यह क्षण। सीताहरण उस के लिए व्यथा का कारण था, लेकिन उस में उस के मन में अंतर्द्वद्व नहीं उठा, इस ने उसे कुछ कर गुजरने को प्रेरित किया।
युद्ध के मैदान में लक्ष्मण के बेहोश हो जाने से उस में निराशा उत्पन्न हुई थी, पर यह उस के अपने किए का परिणाम नहीं था।
राम की परीक्षा की असली घड़ी तब शुरू हुई जब सीताहरण के बाद, लंका के विजित युद्ध क्षेत्र में उस का सामना सीता से हुआ। क्रोध, प्रसन्नता व हीनता की भावनाएं एक साथ उस के चेहरे पर प्रकट हुई, वाल्मीकि ने पुनः कहा,
“राम को सीता के लौट आने पर, वस्तुतः प्रसन्नता नहीं हुई। "
अब तक वह एक सम्मोहित व्यक्ति की भांति एक लंबी आत्मविस्मृति में बढ़ता जा रहा था। अब, जब रावण मर चुका था और सीता उस के सामने थी, तो उस का सामना यथार्थं से हुआ। वह सीता का क्या करेगा ? वह अपने मन का विश्लेषण करता है।
उन्हें पता चलता है कि उस की कुछ कर गुजरने की प्रेरणा के मूल में सीता को पुनः प्राप्त करने की इच्छा नहीं थी, बल्कि उस के पीछे था उस का आहत अभिमान, आत्मगौरव की भावना और उस का पौरुष, जिस ने उसे अपना अपमान करने वाले से बदला लेने को मजबूर कर दिया था।
इस आधार पर कि रावण ने सीता की शुचिता भंग कर दी होगी, वह सीता को फिर से ग्रहण करने से इनकार कर देता है। वह यह भी कहता है कि उसे सीता के चरित्र पर भी संदेह होने लगा है।
उस की इस तरह की बातें सुन कर सीता स्तब्ध रह गई, पर उस की (राम की) आलोचना के लिए उस के पास एक उपयुक्त उत्तर था। वह कहती है, “मेरा मन, जो मेरे वश में है, अब भी आप के प्रति समर्पित है।
अपने शरीर पर मेरा वश नहीं है, क्योंकि अबला नारी होने के कारण मैं इस की रक्षा नहीं कर सकती। इसलिए मैं निर्दोष हूँ।"
फिर वह राम को झिड़कते हुए कहती है, “जब तुम ने हनुमान को अपना दूत बना कर भेजा था, तब क्यों न मेरा परित्याग कर दिया? उस समय मैं आत्महत्या कर लेती।" और वह लक्ष्मण को चिता बनाने के लिए कहती है, ताकि वह आत्मघात कर सके।
हो सकता है भावोद्रेक में कहे गए सीता के ये कठोर वचन और आत्मदाह की तैयारी ने राम के मन को पिघला दिया हो, या हो सकता है सीता के प्रति अपने व्यवहार को अपने अनुयायियों से अनुमोदन न मिलने के कारण उसे (राम को) झुकना पड़ा हो और वह सीता को अपने साथ ले जाने को राजी हो गया।
फिर अयोध्या आने के बाद, वह आवश्यक राजकार्यों और अपने राज्याभिषेक की तैयारियों में खो गया। उस के सभी नए मित्र-सुग्रीव, अंगद, विभीषण और बहुत से दूसरे जो, उनके के साथ थे। समारोह समाप्त हो जाने के बाद सभी चले गए। तभी सीता के चरित्र व सतीत्व के प्रति संदेह उस के मन में दोबारा स्वतः ही नहीं उठा, तो भी अयोध्या में लोगों की अनर्गल बकवास ने उसे फिर से उठा दिया। जो भी हो, रावण को समाप्त कर देने के उस के वीरतापूर्ण काम की अयोध्या वासियों ने प्रशंसा की थी और उस के विगत वनवास को ले कर सहानुभूति की जैसी भावना उस के प्रति थी वैसी सीता के लिए नहीं थी, यह स्पष्ट है।
आखिरकार, वह स्त्री थी, उस समय के सामाजिक रिवाज और रवायतो के मुताबिक संपत्ति पर केवल पति का अधिकार था।
राम भी उस समाज का अंग थे। उनके सोचने का ढंग भी उसी सोच पर आधारित था। किसी स्त्री की मामूली सी चूक भी, चाहे यह उस की अनिच्छा व मजबूरी से हुई हो, अक्षम्य थी। अहल्या का उद्धार करते समय राम उदार हो सकता थे, क्योंकि अहल्या उस की पत्नी नहीं थी, लेकिन जब उस की अपनी पत्नी का सवाल उस के सामने आया, तो डगमगा गया।
सीता परित्याग (भाग चतुर्थ)
राम के संदेह
सीता की 'पवित्रता' या 'सतीत्व भंग' के प्रति राम के मन में अंतर्द्वद्व इस बात के प्रमाण हैं कि राम मानव रूप ही थे।
इस के दो-तीन अवयव हैं: जैसे
(क) राम इस विषय में संदेहमुक्त नहीं हैं कि रावण द्वारा सीता का हरण उस (सीता) की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती किया गया था या वह स्वयं ही अपनी इच्छा से उस के साथ चली गई थी।
(ख) राम इस विषय में निःशंक नहीं है कि सीता रावण की इच्छाओं के सामने अपने सतीत्व की रक्षा करने में सफल हुई होगी।
(ग) राम इस विषय में भी निःशंक नहीं कि रावण द्वारा उस (सीता) का अपहरण अनिच्छापूर्वक हुआ भी हो, तो भी वह वीर व सुंदर रावण के प्रति अपने मन के झुकाव को रोक पाने में सफल हुई होगी और यह भी कि अब भी उस के दिल में रावण के लिए कोई कोमल स्थान नहीं होगा।
आइए, इन बातों पर बारीबारी से विचार करें। पर इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि राम इन सभी मामलों में सिर्फ संदेही है ।
वाल्मीकि सीताहरण के दृश्य का वर्णन इस प्रकार करते है: सीता कुटिया के बाहर फूल चुन रही है. स्वर्ण मृग चौकड़ी भरते हुए आता है। सीता की नजर उस पर पड़ती है, तो वह उस पर मुग्ध हो जाती है। वह उधर कुटिया में आ कर राम को वह मृग जीवित या मृत पकड़ लाने के लिए कहती है। उस की बात मान कर राम मृग के पीछे जाते हैं।
जब वे दोनों काफी दूर निकल जाते हैं तो राम मृग को घायल कर देता हैं और मृग ' हा लक्ष्मण, हा सीते' कह कर चिल्लाता है। वह चीख कुटिया में सुनाई देती है। सीता लक्ष्मण को जाने और भाई की सहायता करने के लिए कहती है। लक्ष्मण जाने से इनकार कर के उसे समझाते है कि बड़े भाई ने मुझे तुम्हारी (सीता की) रक्षा करने की आज्ञा दी है।
सीता क्रोधित हो जाती है और लक्ष्मण पर इलजाम लगाती है कि वह राम की मदद करने इसलिए नहीं जा रहा, क्योंकि उस की (लक्ष्मण की) उस (सीता) पर कुदृष्टि है।
तब भी लक्ष्मण यह कह कर कि राम पर कोई संकट नहीं आ सकता और यह राक्षसों द्वारा उन की आंखों में धूल झोंकने की चाल हो सकती है, जाने से इनकार कर देता है।
इस पर सीता ने और भी चुभने वाले शब्द कहे..
“अरे अनार्य ! ओ निर्दयी ! ओ क्रूर ! ओ कुलांगार (कुल कलंकी) मैं समझती हूं कि राम का विनाश ही तुझे विशेष प्रिय है। उन्हें विनाशोन्मुख देख कर ही तू ऐसी बातें बना रहा है. लक्ष्मण ! तू जो कर रहा है, उस में विस्मय की कोई बात नहीं है। तेरे जैसे क्रूर व कपटी मित्र ऐसा ही करते हैं। तू बड़ा दुष्ट है। मुझे अपनी बनाने के लिए या भरत की प्रेरणा से अकेला हमारे साथ वन में आया है। लक्ष्मण ! अच्छी तरह समझ लो, तुम्हारी या भरत की यह दूषित कामना कभी पूरी न होगी।"
"नीलकमल सदृश श्याम और कमल के समान नेत्रों वाले राम की पत्नी हो कर तुम जैसे नीच की भार्या मैं कदापि न होऊंगी।
मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राण त्याग दूंगी। राम से बिछुड़ कर मैं क्षण भर भी न जिऊंगी।"
सीता के ये रोमांचकारी और कठोर वचन सुन कर जितेंद्रिय लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर कहा, 'हे मैथिली! आप ने मेरे प्रति जो अनुचित बातें कही हैं, उन से मुझे कोई विस्मय नहीं हुआ, क्योंकि स्वियों का स्वभाव ही ऐसा होता है। स्त्रियां धर्मभ्रष्ट, चंचल, क्रूर और भेद (फूट) डालने वाली होती हैं।
है जानकी! आप की लांछन भरी बातें मुझे असह्य हो रही हैं। तपा कर लाल किए गए बाण की तरह आप की बातों ने मेरे कान व्यथित कर (बींध) दिए हैं।
'इस वन में रहने वाले सभी जीव साक्षी हो कर मेरी बात सुनें। मैं ने आप से न्यायसंगत बात कही थी। उस के बदले आप ने मुझे ऐसी कठोर बातें कह डालीं? आप को धिक्कार है। आप मुझ पर संदेह कर रही हैं? अब आप का संकट निकट है। स्त्री जाति के दुष्ट स्वभाववश कष्ट में पड़े अपने बड़े भ्राता की आज्ञा में रहने वाले मुझ सेवक पर आप ऐसी शंका कर रही हैं?'
'अच्छा, अब मैं राम के पास जा रहा हूं। तुम्हारा कल्याण हो। हे विशालाक्षि ! इस वन के देवता आप की रक्षा करें। मुझे बड़े भयानक अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। क्या मैं राम के साथ लौट कर आप को आश्रम में देख पाऊंगा?'
लक्ष्मण के ऐसा कहने पर सीता आंखों में आंसू भर कर बोली, 'राम के न होने पर मैं गोदावरी में कूद पहूंगी, गले में फांसी लगा कर मर जाऊंगी, किसी ऊंचे पर्वत पर चढ़ कर कूद पड़गी कोई भयानक विष पी लूंगी या आग में कूद जाऊंगी। राघव रामचंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को मैं पांव से भी न छुऊंगी।'
दुखिनी सीता इस प्रकार लक्ष्मण को कोस कर रो रही है और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। इस प्रकार विकल हो कर रोती हुई विशालनयनी सीता को लक्ष्मण ने देखा, तो उसे धीरज धरने को कहा लेकिन अपने पति के छोटे भाई (देवर) उन्होंने कुछ न कहा। इस के बाद लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर और झुक कर प्रणाम किया और बारबार ( मुड़ कर पीछे) देखते हुए राम के पास चले गए।
अब संन्यासी के भेष में रावण आता है। सीता के सौंदर्य को देख कर रावण काम के वशीभूत हो कर आत्मनियंत्रण खो देता है। वह कुछ वेदमंत्रों का उच्चारण करता है और फिर सीता के रूप की प्रशंसा करने लगता है। फिर वह कहता है। कि सीता जैसी (सुंदर स्त्री ) को जंगल में नहीं, किसी राजमहल में रहना चाहिए। सीता साधु वेष धारी का स्वागत करती है और उसे खाने को फल व कंदमूलादि देती है। तब वह उसे अपने कुल व परिवार आदि के विषय में बताती है और उस के कुल परिवार आदि के बारे में पूछती है।
रावण अपना परिचय उसे देता है और अपने साथ चलने के लिए कहता है. सीता राम के प्रति अपने प्रेम व निष्ठा की बात कह कर (कठोर शब्दों में ) इनकार कर देती है. रावण उसे जबरदस्ती उठा कर आकाशमार्ग से ले जाता है। सीता चीखती चिल्लाती है और हर पदार्थ को साक्षी बना कर कहती है कि देखो, मेरा अपहरण जबरदस्ती किया जा रहा है। रास्ते में वह जटायु को देखती है।
वाल्मीकि द्वारा वर्णित उपर्युक्त प्रसंग में कोई भी यह नहीं देख रहा कि वास्तव में उस पर्णकुटी में क्या हो रहा है। वाल्मीकि जानते है कि रावण ने सीता का हरण बलपूर्वक किया। पाठक के रूप में हम भी जानते हैं कि वहां क्या हुआ। पर राम और लक्ष्मण, जो वहां थे ही नहीं, इस मामले से पूणर्त: अनभिज्ञ थे और न ही कोई अन्य ऐसा व्यक्ति था, जो उन्हें सही बात बताता।
राम तो इतना ही जानता थे कि सीता ने पहले उसे दूर भेज दिया, लक्ष्मण को भी उस (राम) के पीछे जाने लिए मजबूर कर दिया. लक्ष्मण पर फिर जो उस ने आरोप लगाए, उन से भी लक्ष्मण को अपने रास्ते से हटाने की इच्छा ही नजर आती है।
हम जानते हैं कि सीता इस षड्यंत्र में शामिल नहीं थी, पर फिर भी कुल मिला कर सीता की स्थिति बड़ी कमजोर हो जाती है। लक्ष्मण पर अंधाधुंध लगाए गए आरोपों के आधार (स्रोत) के बारे में वह कोई सफाई नहीं दे सकती और बाद में जब राम को उस के चरित्र पर शक हो जाता है तो वह, जहां तक राम का सवाल है, उसे कभी भी संदेहमुक्त (संतुष्ट) करने में सफल नहीं हो सकती। फिर इतनी अवधि बीत जाने के बाद, जब राम संदेहास्पद अवस्था में उस सारे प्रसंग की फिर से परिकल्पना करेगा, तो यह नहीं समझ पाएगा कि सच क्या है और झूठ क्या है?
राम सीता के सतीत्व पर शक कर सकता था?' इस संदेह को हम पहले ही दो वर्गों में विभाजित कर चुके हैं:
(1) क्या सीता रावण की इच्छाओं के विरुद्ध अपने सतीत्व की रक्षा करने में समर्थ या सफल हो सकी होगी?
(2) क्या सीता अपने मन की (काम) भावना पर आत्मनियंत्रण रख सकी होगी?
अब हम बारीबारी से दोनों बातों पर विचार करेंगे।
क्या सीता रावण से अपनी रक्षा कर पाई होगी?
सीता रावण की इच्छा की अवहेलना कर के अपने सतीत्व की रक्षा कर पाई होगी या नहीं, यह संदेह राम के मन में था, यह रामायण के हर रूपांतर से स्पष्ट है।
वाल्मीकि_रामायण' का एक लंबा उद्धरण ही यहां काफी होगा। पर राम की विजय के एकदम बाद बाल्मीकि इस प्रसंग का वर्णन करता है। विभीषण सीता को राम के सम्मुख लाता है। आइए, इस का वर्णन वाल्मीकि के ही शब्दों में करें -
"विभीषण बहुत सीता को ले कर वहां आए, जहां रामचंद्र थे। उस समय रामचंद्र ध्यानमग्न थे। फिर भी विभीषण ने उन्हें सीता के आगमन की सूचना दी। राक्षसराज के घर में दिनों तक रहने के बाद सीता आई है।
इस बात को सोच कर रामचंद्र के हृदय में क्रोध, हर्ष और दीनता तीनों बातें एक साथ उत्पन्न हो गई।
सीता के आगमन से रामचंद्र को विशेष प्रसन्नता नहीं हुई। उन्होंने पास खड़े हुए विभीषण को देख कर चिंतित मन से कहा, 'हे सौम्य, तुम सीता को शीघ्र ही हमारे सामने ले आओ।'
"रामचंद्र की आज्ञा पाते ही विभीषण ने उस स्थान से सब को हटा देने का उपक्रम किया। कुरता और पगड़ी पहने तथा हाथ में बेंत लिए हुए रक्षक वीर वानरों को वहां से हटाने लगे। वहां से जाने की आज्ञा पाते ही वानरों, भालुओं और राक्षसों का दल दूर चला गया। उस बड़ी भारी सेना को हटाने में ऐसा भारी कोलाहल मचा, जैसे वायु के झोंकों से उठती हुई समुद्र की लहरों का हाहाकार मचता है, जो लोग वहां से हटाए जा रहे थे, वे सब बहुत घबरा गए। यह देख कर रामचंद्र ने अपनी उदारता और क्रोध से उन हटाने वालों को रोक दिया। रामचंद्र ने क्रोध से आंखें लाल कर के उलाहने दे कर विभीषण से (इस प्रकार ) कहा:
'विभीषण, मुझ से बिना पूछे ही तुम अपने मन से इन लोगों को क्यों कष्ट दे रहे हो ? ये लोग मेरे स्वजन हैं। इसलिए इस अनुचित कार्य को अभी बंद कर दो। घर, वस्त्र, प्राकार, चारदीवारी आदि स्त्रियों के लिए परदा नहीं है और न ही इस तरह राजसत्कार करते हुए लोगों को हटाना ही परदा है।
स्त्रियों का सच्चा परदा तो उन की सच्चरित्रता है ।और फिर विपत्ति के समय, पीड़ा में, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में और विवाह के समय स्वियों का सब के सामने आना दूषित नहीं होता। यह समय बड़े दुख का है। ऐसे समय हम सब के सामने उन का आना दूषित नहीं है।
अतएव सीता को पालकी से उतार कर पैदल हमारे पास लाओ, जिस से सभी वानर उन को देखें।'
“रामचंद्र की आज्ञा पा कर विभीषण दुखी होते हुए पालकी के पास गए और सीता को ले आए। सुग्रीव और हनुमान के साथ लक्ष्मण भी इस आज्ञा से बहुत दुखी हुए। राम के इस भाव को देख कर उन लोगों ने यह समझा कि राम को अपनी भावों की कुछ भी अपेक्षा नहीं है और वह सीता से रुष्ट हैं।
“पालकी से उतर कर सीता लज्जा से अपने शरीर में ही सिकुड़ कर छिपती हुई विभीषण के पीछे पीछे अपने पति के पास आई। पति को ही देवता जानने (मानने) वाली सीता ने लज्जावश मुंह ढांप कर विस्मय, हर्ष व स्नेह से अपने पति को देखा और 'आर्यपुत्र' कह कर धिधियाती हुई रोने लगी।
रावणाङ्कपरिक्लिष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा।
कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत्॥ २०॥
यदर्थं निर्जिता मे त्वं सोऽयमासादितो मया।
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति॥ २१॥
तदद्य व्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना।
लक्ष्मणे वाथ भरते कुरु बुद्धिं यथासुखम्॥ २२॥
शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा विभीषणे।
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना॥ २३॥
नहि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम्।
मर्षयेत चिरं सीते स्वगृहे पर्यवस्थिताम्॥ २४॥
ततः प्रियार्हश्रवणा तदप्रियं
प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मानिनी।
मुमोच बाष्पं रुदती तदा भृशं
गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी॥ २५॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चदशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११५ ॥
अपने प्यारे पति के चिर-अपेक्षित पूर्णचंद्रमुख को देख कर सीता का शोक दूर हो गया और उस समय उस का मुखमंडल निर्मल चंद्रमा के समान देदीप्यमान हो उठा। (युद्धकांड, सर्ग 117, श्लोक 15-36)
'सीता को अपने पास आई देख कर रामचंद्र अपने हृदय के भाव को प्रकट करने लगे। उन्होंने कहा, 'हे भद्रे युद्ध में शत्रु को मार कर हम ने तुम्हारा उद्धार कर दिया। बल द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब कर दिया। अब हमारा क्रोध भी शांत हो गया। शत्रु ने जो अपमान किया था, उस का बदला भी मिल गया।
'हम ने अपने शत्रु के साथ ही साथ अपमान को भी मार कर गिरा (समाप्त कर) दिया. आज हमारा पराक्रम प्रकाशित हुआ. आज हमारा परिश्रम सफल हुआ। आज हमारी प्रतिज्ञा पूरी हुई। आज तक हम अपने प्रभाव को प्राप्त हो गए। आश्रम पर मेरे न रहने के समय कपटी रावण ने तुम्हारा हरण किया था, देवकोप से ही यह बात हुई थी। उस देवकोप को मैंने मनुष्य हो कर भी दूर कर दिया। जो मनुष्य अपने अपमान को तेज द्वारा दूर नहीं करता उस अल्प तेजस्वी मनुष्य का पुरुषार्थ व्यर्थ है।
'समुद्र लांघ कर लंका में आना, पुनः लंका में आग लगा कर उसे भस्म करना आदि, जो प्रशंसनीय कार्य पराक्रमी हनुमान ने किए थे वे सब आज सफल हुए। वानरों के राजा सुग्रीव का युद्ध में पराक्रम करना, समयसमय पर उचित सम्पति देना और सेना को साथ ले कर युद्ध में परिश्रम करना आज सफल हुआ। अपने भाई रावण को अपराधी समझ कर मेरी शरण में आने वाले मेरे भक्त विभीषण का मनोरथ भी आज सफल हो गया।'
रामचंद्र की इन बातों को सुनती हुई मृगनयनी सीता आंसू बहाने लगी। सीता को देख कर एकाएक राम का क्रोध उसी प्रकार बढ़ गया। जैसे घी की आहुति पा कर आग धधक उठती है, उन वानरों और राक्षसों के मध्य बैठे हुए राम ने महि चढ़ा तथा नजर टेढ़ी कर के सीता से ये कठोर वचन कहे।
'शत्रु से बदला लेने के लिए जो बात (कुछ) एक मनुष्य कर सकता है, वह मैं ने रावण को मार कर पूरी कर दी। इस से मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा हुई। जिस प्रकार भगवान अगस्त्य ने इल्वल व वल्वल को मार कर अपने तपोबल से दक्षिण दिशा को जीत लिया था, उसी तरह मैं ने तुम्हारा उद्धार किया है।'
'तुम्हारा कल्याण हो। मैं ने तुम्हारे लिए जो युद्ध में बड़ेबड़े बलवान राक्षसों को मारा है, वह अपने मित्रों की सहायता से मारा है। मैं ने यह युद्ध अपमान को दूर करने, कुल में कलंक न आने देने और लोकनिंदा से बचने के लिए अपने मित्रों के पराक्रम से लंका को जीता है, (सिर्फ ) तुम्हारे लिए नहीं।'
"तुम रावण के यहां बहुत दिनों तक रही हो, इसलिए मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह हो गया है। तुम मेरे सामने खड़ी हुई उसी तरह अच्छी नहीं लग रही हो, जिस तरह दुखती हुई आंखों को दीपक अच्छा नहीं लगता। इसलिए हे सीते! अब तुम जहां चाहो, वहीं चली जाओ, मैं तुम से किसी तरह का संबंध नहीं रख सकता। उत्तम कुल में उत्पन्न हो कर कोई भी तेजस्वी पुरुष दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को प्रेम भरे हृदय से स्वीकार नहीं करेगा।
'हे सीते! हरण करते समय रावण ने तुम्हें गोद में उठाया और बुरे नेत्रों (बुरी नजरों) से देखा है, तब मैं महान कुल में उत्पन्न हो कर तुम को किस तरह स्वीकार कर सकता हूं? मैं ने रावण को मार कर उस के हाथ से तुम्हारा उद्धार कर दिया. मेरा उद्देश्य पूरा हो गया। मेरा बदला मिल गया। अब तुम्हारे साथ मेरा कोई संबंध नहीं है। • तुम जहां चाहो, वहां चली जाओ।
'हे कल्याणी! मैं ने बहुत विचार किया, बहुत सोचा समझा, अंत में यही निश्चित रहा। इसलिए अब तुम अपने जीवन निर्वाह के लिए लक्ष्मण या भरत के पास जा कर रह सकती हो, शत्रुघ्न, सुग्रीव या राक्षसराज विभीषण के पास जा कर रहो या जहां अच्छा समझो वहां जा कर रह सकती हो।
हे सीते अपने घर में रहती हुई तुम्हारे इस मनोहर रूप को देख कर राक्षसराज रावण इतने दिनों तक कामपीड़ा को न सह सका होगा।'
बहुत अधिक दिनों तक पति द्वारा सम्मानित व मीठी बातें सुनने वाली सीता आज अपने पति द्वारा ऐसे अप्रिय वचन सुन कर हाथी द्वारा कुचली हुई लता के समान दीन हो कर कांपती और आंसू बहाती हुई रोने लगीं।
(युद्धकांड, सर्ग 118, श्लोक 1-25)
रोंगटे खड़े कर देने वाले रामचंद्र के क्रोधयुक्त कठोर वचन सुन कर सीता बहुत दुखी हुई। ऐसे जनसमुदाय में उन्होंने ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं। वानर और राक्षसों के समुदाय में बैठे हुए अपने पति की यह कठोर बात सुन कर सीता लज्जा के मारे सिकुड़ गई। वह रामचंद्र के वचन रूपी तीक्ष्ण बाणों से पीड़ित हो कर रोती हुई अपने शरीर में ही सिमटने और आंसू बहाने लगी। फिर वह आंसू पोंछती और बहुत धीरे धीरे सिसकती हुई बोली:
“हे वीर, साधारण मनुष्यों की तरह सुनने के अयोग्य तथा कान फाड़ वाले ऐसे रूखे वचन आप क्यों बोल रहे हैं ? हे स्वामी, ऐसी छोटी बातें तो नीच पुरुष अपनी नीच स्त्रियों से कहा करते हैं। हे महाबाहो, मेरे प्रति आप के हृदय में जो बातें आई हैं वे व्यर्थ हैं। क्योंकि मैं वैसी नहीं हूँ मैं शपथपूर्वक कहती हूं कि मेरा चरित्र शुद्ध है, आप मुझ पर विश्वास करें।"
"हे देव, यदि नीच स्त्रियों के चरित्र पर विचार कर के आप के हृदय में मेरे प्रति यह बात उत्पन्न हो गई हो तो इस बुरे विचार को हृदय से दूर करें क्योंकि आप मेरी परीक्षा ले चुके हैं।"
"जिस समय रावण ने मेरे शरीर को छुआ था, उस समय में विवश थी। उस ने मेरी इच्छा से मुझे नहीं छुआ। दैव की ऐसी ही इच्छा थी। मैं निर्दोष हूं। जिस हृदय पर मेरा अधिकार है, वह आज भी आप में अनुरक्त है। शरीर पर मेरा कोई भी अधिकार नहीं है,
कारण कि मैं निर्बल स्त्री होने के कारण उस की रक्षा नहीं कर सकती थी। इसलिए मैं निर्दोष हूं। बाल्यावस्था से ही मैं आप के साथ रही हूं। इतने दिनों तक साथ रहने पर भी यदि आप मेरे बढ़ते हुए प्रेम को न पहचान सकें, तो मेरा सदा के लिए विनाश हो गया। अब मेरी रक्षा कोई भी नहीं कर सकता।'
हे प्राणेश, जिस समय आप ने महापराक्रमी हनुमान को मुझे देखने के लिए लंका में भेजा था, उसी समय आप ने मुझे क्यों नहीं त्याग दिया ? हे बलशाली, इस वानर द्वारा अपने त्याग की बात सुनते ही मैं इसी के सामने अपने प्राण त्याग देती। मेरे मर जाने पर आप को अपने मित्रों सहित यहां आने और प्राण संकट में डाल कर राक्षसों से भयंकर युद्ध करने का परिश्रम न करना पड़ता।
"हे राजन, इस समय आप मुझे एक साधारण स्त्री समझते हुए साधारण मनुष्य के समान क्रोध के अधीन हो रहे हैं। आप ने मेरे चरित्र को नहीं समझा है।
मैं पृथ्वी से उत्पन्न व जनकपालिता कन्या हूं। इस बात का भी आप ने विचार नहीं किया। बाल्यकाल में ही आप ने मेरा पाणिग्रहण किया और तभी से मैं आप के साथ रही, इस बात को भी आप भूल गए.।मेरा आप पर कितना अनुराग है, इसे भी आप नहीं जानते। मेरे शील व प्रेम को भी आप भूल गए?"
(युद्धकांड सर्ग, 119, श्लोक 1-16)
इस उद्धरण की कुछ महत्त्वपूर्ण बातों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:
(1) राम को सीता के शील पर निश्चित रूप से शक है और उन्हें डर है कि लंका में उस का शील भंग हुआ होगा।
(2) राम को सीता के चरित्र पर भी शक होने लगा था।
(3) भविष्य में वह सीता के साथ नहीं रहना चाहते।
(4) सीता यह बताना जरूरी समझती हैं कि रावण ने उस का हरण उस की इच्छा के विरुद्ध किया था।
(5) सीता इस बात पर जोर देती है कि यद्यपि रावण द्वारा उस के शरीर की पवित्रता भंग हुई भी हो, तो भी उस का मन तब भी राम के प्रति निष्ठावान था।
(6) राम स्वयं को मानव मानता है।
(7) विभीषण, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान आदि राम के सीता के प्रति दृष्टिकोण (व्यवहार) से प्रसन्न नहीं थे।
यद्यपि इस मत की पुष्टि में कि राम को संदेह था कि लंका में सीता का शील भंग हुआ था, 'वाल्मीकि रामायण' से काफी लंबा उद्धरण दिया गया है, फिर भी इस संबंध में हम सिर्फ एक उद्धरण और देंगे।
यह उद्धरण 'महाभारत' का है। 'महाभारत' के वनपर्व में अयोध्या में राम के राज्याभिषेक से पूर्व की कहानी दी गई है।
लंका पर विजय हासिल करने के बाद सीता राम के सम्मुख लायी जाती हैं। उस समय राम ने सीता के चरित्र पर सन्देह करते हुए जो बातें की हैं वह किसी मर्यादा पुरुषोत्तम की नहीं बल्कि एक पुरुष प्रधान समाज के औसत पुरुष का कथन ही जान पड़ता है।
राम के सन्देह का सबसे प्रमुख कारण है सीता का शारीरिक सौन्दर्य।
राम कहते हैं-'सीते ! तुम जैसी दिव्य रूप सौन्दर्य से सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में स्थित देखकर रावण चिरकाल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।2 ।
अर्थात् सीता का सौन्दर्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु बन गया। पूरे एक सर्ग मेे राम यह समझाते हैं कि सीता देवि, यह युद्ध मैंने आपको प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि आपके अपहरण से मेरे महान कुल पर जो धब्बा लग गया था उसे दूर करने के लिए किया और अपने पराक्रम से जीता है ।3।
ध्यान रहे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ये सारी बातें सीता से अकेले में नहीं बल्कि भरी सभा में कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि राम भरी महफिल में सीता को बेइज्ज्त करके मन की कोई भड़ास निकाल रहे हैं।
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रावण की मृत्यु के बाद सीता जिस उम्मीद से राम के सम्मुख आयी थीं या बुलायी गयी थीं स्थिति उसके एकदम विपरीत थी। थोड़ी ही देर पहले लंका पर राम का आधिपत्य स्थापित होने के बाद हनुमान राम का सन्देश लेकर पहुँचते हैं और सीता से कहते हैं-'श्री राम ने आपको यह सन्देश दिया है-देवि मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बाँध कर
रावण बध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया(4)। यह सन्देश मिलने के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम का व्यवहार देखने लायक है।
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वे सीता के चरित्र पर सवाल उठाते हैं 'तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है; फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ती हो(5)।
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राम का तर्क यह है कि कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को मन से भी ग्रहण कर सकेगा। इसलिए राम सीता से साफ शब्दों में कहते हैं- 'अत: जनक कुमारी! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ये दशों दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है (6)।
यह कहने के बाद राम उन्हें विकल्प भी सुझा देते हैं। भरत , लक्ष्मण , शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण जहाँ तुम्हें सुख मिले जा सकती हो।7।
यहाँ राम सीता के चरित्र पर सन्देह करते ही हैं इस सन्देह के दायरे में भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुग्रीव और विभीषण सब आ जाते हैं।
भय में, पराजय में, लाभ में और हानि में समभाव रखने वाले राम का यह विचलन आश्चर्य चकित करने वाला है।
अब महाभारत के राम का भी थोड़ा जायजा ले लिया जाय। लंका विजय के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम कहते हैं- 'विदेह कुमारी! मैने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया अब तुम जाओ मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया। 8।
इसके बाद राम सारी हद पार कर देते हैं। वे कहते हैं-
सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामध मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय उवावलीढ़ं हविर्यथा।9।
अनुवाद:-
अर्थात 'मिथिलेश ननिदनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं।
यह महज बानगी मात्र है। स्त्री के बारे में राम के ऐसे संकीर्ण विचारों को उदधृत किया जाय तो अपने आप में एक पूरा ग्रंथ तैयार हो जाय।
महाभारत-अरण्य पर्व अध्याय-275/13
यही पर राम सीता के प्रति कहते है।
अनुवाद:-
अर्थात 'मिथिलेश नन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं।
श्री रांगेय राघव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास' में कुछ तर्कसम्मत अंशों को उद्धृत किया है। उपर्युक्त अंश हम यहां उद्धृत कर रहे हैं।
"सीता के चरित्र पर संदेह कर के राम ने कहा, 'राक्षस से तुम्हें छुड़ा कर मैं कर्त्तव्य पालन कर चुका। अब जहां चाहो चली जाओ। मुझ सा मनुष्य पराए घर में रही हुई पत्नी को पल भर भी कैसे अपने पास रख सकता है ? जानकी, तुम्हारा चरित्र चाहे शुद्ध हो चाहे न हो, परंतु कुत्ते के जूठे किए हुए द्रव्य की तरह मैं तुम को स्वीकार नहीं कर सकता।' (पृष्ठ 203 )
लंका पर विजय हासिल करने के बाद सीता राम के सम्मुख लायी जाती हैं। उस समय राम ने सीता के चरित्र पर सन्देह करते हुए जो बातें की हैं वह किसी मर्यादा पुरुषोत्तम की नहीं बल्कि एक पुरुष प्रधान समाज के औसत पुरुष का कथन ही जान पड़ता है। राम के सन्देह का सबसे प्रमुख कारण है सीता का शारीरिक सौन्दर्य। राम कहते हैं-'सीते ! तुम जैसी दिव्य रूप सौन्दर्य से सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में सिथत देखकर रावण चिरकाल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।2 यानी सीता का सौन्दर्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु बन गया। पूरे एक सर्ग मेे राम यह समझाते हैं कि सीता देवि, यह युद्ध मैंने आपको प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि आपके अपहरण से मेरे महान कुल पर जो धब्बा लग गया था उसे दूर करने के लिए किया और अपने पराक्रम से जीता है ।3 ध्यान रहे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ये सारी बातें सीता से अकेले में नहीं बल्कि भरी सभा में कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि राम भरी महफिल में सीता को बेइज्ज्त करके मन की कोई भड़ास निकाल रहे हैं। रावण की मृत्यु के बाद सीता जिस उम्मीद से राम के सम्मुख आयी थीं या बुलायी गयी थीं सिथति उसके एकदम उलट थी। थोड़ी ही देर पहले लंका पर राम का आधिपत्य स्थापित होने के बाद हनुमान रा म का सन्देश लेकर पहुँचते हैं और सीता से कहते हैं-'श्री राम ने आपको यह सन्देश दिया है-देवि मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बाँध कर राव ण बध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया(4)। यह सन्देश मिलने के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम का व्यवहार देखने लायक है। वे सीता के चरित्र पर सवाल उठाते हैं 'तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपसिथत है; फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ती हो(5)। राम का तर्क यह है कि कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को मन से भी ग्रहण कर सकेगा। इसलिए राम सीता से साफ शब्दों में कहते हैं- 'अत: जनक कुमारी! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ये दशों दिशाएँ तुम्हारे लिए खु ली हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है (6)। यह कहने के बाद राम उन्हें विकल्प भी सुझा देते हैं। भरत , लक्ष्मण , शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण जहाँ तुम्हें सुख मिले जा सकती हो। 7 यहाँ राम सीता के चरित्र पर सन्देह करते ही हैं इस सन्देह के दायरे में भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुग्रीव और विभीषण सब आ जाते हैं। भय में, पराजय में, लाभ में और हानि में समभाव रखने वाले राम का यह विचलन अचमिभत करने वाला है।
अब महाभारत के राम का भी थोड़ा जायजा ले लिया जाय। लंका विजय के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम कहते हैं- 'विदेह कुमारी! मैने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया अब तुम जाओ मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया। 8 इसके बाद राम सारी हद पार कर देते हैं। वे कहते हैं-
सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामध मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय उवावलीढ़ं हविर्यथा।। 9
अर्थात 'मिथिलेश ननिदनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं। यह महज बानगी मात्र है। स्त्री के बारे में राम के ऐसे संकीर्ण विचारों को उदधृत किया जाय तो अपने आप में एक पूरा ग्रंथ तैयार हो जाय।
क्या सीता का पतन हो सकता था?
आइए, अब हम तीसरी संभावना पर विचार करें अर्थात क्या राम को यह संदेह हो सकता था कि सीता अपने मन की बहक पर नियंत्रण नहीं रख पाई होगी?
ऊपर दिए गए उद्धरणों में से एक में हमें रघुकुल के पुरुषों की स्त्रियों के प्रति धारणा का संकेत मिलता है। इस धारणा की अभिव्यक्ति राम के प्रख्यात भाई और अभिन्न साथी-लक्ष्मण द्वारा हुई थी। सीताहरण से पहले जब सीता ने राम के पीछे जाने के लिए लक्ष्मण से जिद की थी तो लक्ष्मण कहता है,
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“स्त्रियां प्रकृति से ही धर्मभ्रष्ट, चंचल, क्रूर व भेद डालने वाली होती हैं। इसी मानदंड और धारणा के आधार पर लक्ष्मण ने सीताहरण से पूर्व, सीता की निंदा की थी।
स्वभावतः उस के हरण के बाद उस की इस धारणा की पुष्टि और भी दृढ़ता से हुई होगी। जब लोगों ने सीता के लंका में रहने पर बातें बनाई होंगी और उस के शीलभंग की चर्चा की होगी, तो उस के हरण के संबंध में उस की संभाव्य सहभागिता तथा रावण के प्रति संभावित प्रेम के विषय में भी कुछ न कुछ ( जरूर ) कहा होगा। जब लोग अफवाहें उड़ाते हैं, तो उन की कल्पना पर अंकुश रखना कठिन होता है। ये सब बातें राम तक भी पहुंची ही होंगी। वैसे भी राम जिस समाज में रहता था, उस का अंग था। राम और लक्ष्मण की सोच में अधिक अंतर नहीं रहा होगा। राम भी स्त्रियों को, प्रकृति से ही धर्मभ्रष्ट, चंचल आदि मानता होगा और सीता भी आखिर एक स्त्री ही थी। पर कहा जा सकता है कि यह विचारधारा पूर्वधारणा पर आधारित है, इसलिए हम डा. कामिल बुल्के की 'रामकथा' से 'रामायण' के विभिन्न रूपांतरों से कुछ ऐसे, उद्धरण दे कर यह दिखाने का प्रयास करेंगे कि राम ने सीता को वनवास क्यों दिया। इन में से कुछ रूपांतरित 'रामायण' न केवल यह दिखाती हैं कि राम को सीता की शुचिता पर संदेह था, बल्कि वे यह दावा भी करती हैं कि राम को सीता के शीलभंग का निश्चय तो ही गया था, यह भी शक हो गया था कि उसे रावण से प्रेम भी हो गया था।