जादौन: यदुवंशी राजपूत कौन हैं ?
Who are Yaduvanshi Rajput ? Jadon
जादौन या जादों अहीर जाति से उत्पन्न हुए राजपूत है, जिनका राजपूती करण 18 वीं शताब्दी में हुआ। जादौन राजवंश के संस्थापक ब्रह्मपाल अहीर और उनके सगे संबंधियों को छोड़कर अन्य जादौन यहूदियों के धर्म परिवर्तन के फलस्वरूप जादौन अहीरो में जुड़कर जादौनों ने राजपूत समूह बना लिया। और जो नहीं जुड़ पाए वे जादौन बंजारा ही रहे। इसीलिए बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादौन नाम से इतिहास में जाना जाता है।
Caste | Jadaun Rajput ( जादौन ) |
Group | Rajput (राजपूत) |
Claim | Yadav |
Reality | Yahudi Banjara ( Jadon ) |
Origin | Bramhpal Ahir ( A Yaduvanshi Gadaria ) |
Country | India |
Location | Karauli |
अहीर जाति-
🔼 नाम अबीर: सारांश
- अर्थ- पराक्रमी, रक्षक, ढाल
- शब्द-साधन( शब्द व्युत्पत्ति)
- क्रिया אבר ( 'br ) से, बलवान होना या रक्षा करना। संस्कृत वृ(आवृणोति)
🔼 बाइबिल में नाम अबीर
अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर( शक्तिशाली) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। (अवर)अबीर नाम बाईबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले नहीं; पाँच बार यह (याकूब) नाम के साथ और एक बार इस्राएल के साथ जोड़ा गया है।
यशायाह 1:24 में हम प्रभु के चार नामों को तेजी से उत्तराधिकार में पाते हैं जैसा कि यशायाह रिपोर्ट करता है: "इसलिए १-अदोन २-यहोवा ३-सबोत ४अबीर इज़राइल घोषित करता है । यद्यपि -"एलॉहिम" भी ईश्वर का एक अन्य नाम है जोकि "एल" का बहुवचन रूप है ।
यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी मिलती है: "सभी मांस जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा मुक्तिदाता, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।
पूरा नाम अबीर जैकब सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था। अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों की आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजनहार ने राजा डेविड को याद किया, जिसने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक कि उसे (YHWH) "यह्व" के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132:2-5)।
🔼 अबीर नाम की व्युत्पत्ति
अबीर नाम जड़ אבר ( 'br' ) से आया है, जिसका मोटे तौर पर मतलब होता है मजबूत होना:
क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ है मजबूत या दृढ़ होना, विशेष रूप से रक्षात्मक तरीके से (आक्रामक के बजाय)। व्युत्पन्न संज्ञाएं אבר ( ' एबर ) और אברה ( 'एब्रा ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं; जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ने के बजाय रक्षा करने के साधन के रूप में देखा (हस्ताक्षर) इसलिए, स्वर्गदूतों की विशेषता उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।
क्रिया ( ' अबार ) पिनियन से की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना है। विशेषण ( 'अब्बीर' ) , जिसका अर्थ है रक्षात्मक तरीके से मजबूत; सुरक्षात्मक।
सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है। सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है। सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है।
अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है। यह गुप्त काल था जब भागवत धर्म अपने चरम पर था।सभी गुप्त राजा परमभागवत की उपाधि अपने नाम के अन्त में लगाते थे यही वो काल था जब भगवान श्रीकृष्ण सी बहुतायत नीतियों का निर्माण हुआ।
- सातत्व का शाब्दिक अर्थ
- संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (४) यदुवंशी । यादव (५) परन्तु मनुस्मृति-संहिता के अनुसार सात्वत एक वर्ण संकर जाति है ।जिसकी उत्पत्ति जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान सात्वत के अनुयायी । प्राचीन ग्रन्थों में ये सात्वत वैष्णव हैं (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा ॥ ६.१९०.५० ॥ -स्कन्दपुराण नागर खण्ड १९०
न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
गोपाभीरयादवा एकैव वंशजातीनाम् त्रतये। विशेषणा: वृत्तिभिश्च प्रवृत्तिभिर्वंशानां प्रकारा:सन्ति।
जादौन का यहुदयों से सम्बन्ध
Jadon the Meronothite
The prophet Jadon
According to Flavius Josephus, Jadon was the name of a minor prophet referred to in his Antiquities of the Jews VIII,8,5 who is thought to have been “the man of God” mentioned in 1 Kings 13:1. In the Lives of the Prophets he is called Joad. A Rabbinic tradition identifies him with Iddo.
Jadon : Bible Encyclopedias
jā´don ( ידון , yādhōn , perhaps “he will judge” or “plead”): One who helped to rebuild the wall of Jerusalem in company with the men of Gibeon and of Mizpah ( Nehemiah 3:7 ). He is called the “Meronothite,” and another Meronothite is referred to in 1 Chronicles 27:30 , but there is no mention of a place Meronoth. Jadon is the name given by Josephus (Ant. , VIII, viii, 5; ix, 1) to “the man of God” from Judah who confronted Jeroboam as he burned incense at the altar in Bethel, and who was afterward deceived by the lie of the old prophet (1 Ki 13). Josephus may probably have meant Iddo the seer, whose visions concerning Jeroboam (2 Chronicles 9:29 ) led to his being identified in Jewish tradition with “the man of God”, from Judah.
source: https://www.studylight.org/encyclopedias/eng/isb/j/jadon.html
जादौन ब्लॉग लिस्ट तथा उनके उत्तर | Jadaun Rajput History
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बंजारे कैसे बन गए राजपूत ?
How Banjaras Became Rajput ?
इसका विस्तृत लेख भाई योगेश रोही द्वारा लिखे गए लेख से प्राप्त होता है जो इस प्रकार है: यह लेख सीधे भाई योगेश रोही के लिखे गए लेख से लिया गया है जिसका लिंक : असली यदुवंशी कौन ? (1) अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण –भाग-प्रथम http://vivkshablogspot.blogspot.com/2018/07/blog-post_98.html
(भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुहाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब था "तक्वुर" ! जो भारतीय भाषाओं में "ठक्कुर , ठाकुर ,टैंगॉर तथा 'ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबों के तौर पर भारत में इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ।
जो तुर्की काल में जागीरों के अथवा
भू-खण्डों के मालिक थे ।
उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था। केवल ईसाई विचार धाराओं का प्रचार था ।
तब जादौन पठान कबीलों के रूप में ईरानी संस्कृति को आत्मसात् किये हुए थे ।
यद्यपि ये वंशगत रूप से स्वयं यहूदीयों से सम्बद्ध थे ।
उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् (712) में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है।
तब भारत में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार होता है । जब मौहम्मद बिन काशिम के साथ आए इस्लामीय मज़हब के नुमाइन्दों ने देखा कि यहाँ तो आदमी -आदमी को जातिवाद के तराजू में तौला जा रहा है ।
यहाँ तो गरीब व निचले स्तर के इन्सानों को शूद्रों का नाम देकर ; उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है ।
फिर इस्लामीय विचार धारा तो साम्य वाद पर आश्रित थी ।
इस समय छूआ-छूत एवं जातिगत भेद भावना अपनी पराकाष्ठा पर थे । ब्राह्मण हिन्दू-समाज का सर्वेसर्वा थे तथा राजपूत जो विदेशीयों का क्षत्रिय करण रूप था । वे
उन ब्राह्मणों के संरक्षक बन गया थे ।
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सरे आम जब निम्न समझी जाने वाली जन-जातियों की सुन्दर कन्याओं को अपनी हवश आपूर्ति के लिए उच्च वर्ग के लोगों द्वारा अपहरण कर लिया जाता था तब वह दृश्य मानवीय नारी सत्ता के लिए बड़े दु:खद था ।
निम्न वर्ग भूमिहीन ,व गुलाम होकर स्वाभिमान शून्य जीवन जी रहा था।
हीन भावना से ग्रसित होकर अपना दुर्भाग्य समझ कर वह निरन्तर अपमानों के कड़वे घूँट पी रहा था ।
निराशा वाद में श्वाँसें गिन गिन कर जी रहा था।
इस्लामीय विचार धाराओं का उदय भारत में
ऐैसे समय पर इन लोगों को आशा की किरण बन गया ।
इन लोगों ने स्वेैच्छिक रूप से इस्लाम को स्वीकार किया।
परन्तु 15 वीं सदी में तलवार के बल पर भी बुतसिकन बन कर इस्लामीय शरीयत को मुगलों द्वारा प्रसारित किया गया ।
और कुछ गौण मान्यताओं के अनुसार तो केरल के मालावार से भी मौहम्मद बिन काशिम के एक सदी पहले ही इस्लामीय शरीयत का आग़ाज अरब सागर के व्यापारियों द्वारा हुआ ।
परन्तु (712) ई० सन् की घटना को ही ऐैतिहासिक मान्यताऐं हैं ।
इस समय विदेशीयों को यह एहशास हो गया था कि हिन्दुस्तान को जीतना आसान है ।
क्योंकि यहाँ समाज में कौम़परस्ती हावी है ।
हिन्दुस्तान को जीतने का माद्दा तो दारा प्रथम के समय ईरानीयों में भी था ।
यह घटना सिकन्दर से पहले की अर्थात् ई०पू० चतुर्थ सदी की है ।
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भारत में आने वाले प्रथम विदेशी तो हखामनी ईरानी लोग ही थे।
विदेशी भारत को जीतकर गुलाम बनाने में सफल इस लिए भी रहे ; कि उस समय जिन जन-जातियाें को शूद्रों के रूप में श्रेणि बद्ध किया गया ।
उनसे सारे अधिकार जब्त कर लिए गये ।
उन्हें न पढ़ने का अधिकार था ।
न लड़ने का और नाहीं कोई धर्म कर्म करने का विदेशीयों से युद्ध काल में भी निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें के प्रति तिरस्कार व हीनता की भावना ब्राह्मणों तथा राजपूतों द्वारा होने के कारणये लोग शान्त रहते
क्योंकि विधानों के अनुसार क्षत्रिय ही लड़ सकता है ।
शूद्रों का कार्य तो केवल दौनों वर्णों की केवल सेवा करना है ।
स्मृति-ग्रन्थों का सृजन ही शूद्रों के आधिकारिक प्रतिबन्ध को दृष्टि गत कर के हुआ। फिर जब ये लोग समाज से अलग-थलग पड़ गये; तब देश गुलाम बन गया ।
और आज भी समाज की स्थित ग्राम्य-स्तर पर इसी प्रकार की परिलक्षित होती है ।
धार्मिक रूढि वादी अनुष्ठानों की आढ़ में वस्तुतः आज भी अन्ध-विश्वास व व्यभिचार पूर्ण मान्यताओं व क्रिया कलापों का सम्पादन ग्राामीण तथा शहरी स्तर पर देखा जा सकता है ।
राजस्थान में एैसा देखने को अधिक मिलता है।
क्योंकि यहाँ राजपूतों में अभिमान पूर्वक अन्धक मान्यताओं को धर्मानुष्ठानों के रूप में बड़ी अनिवार्यता से लागू किया जाता है ।
जहाँ वस्तुतः शिक्षा नहीं होता वहाँ गरीबी तो होती ही है । वहाँ की जनता भी अन्ध-विश्वासी व रूढ़ि वादी परम्पराओं का निर्वहन करती रहती है ।
राजस्थान राजपूतों का प्रथम गढ़ है । जहाँ पाकिस्तान की कुछ सीमाऐं स्पर्श करती हैं।
विदित हो कि राजपूत विदेशीयों का वह वर्ग है।
जिसके अन्तर्गत कुषाण ,हूण , हित्ती, शक , सिथियन, जॉर्जियन तथा पठान आदि थे ।
जादौन राजपूत की एक शाखा राजस्थान में खाँनजादा
नाम से प्रसिद्ध है ।
और खान पठानों का लकब (Title)
है ।
नीचे कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं देखें—
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Autor: Source: Wikipedia
Editora: Books LLC, Wiki Series
Data de publicação: 2011-07-27
ISBN: 115546883X
Páginas: 38 pages
Tag: muslim, communities, rajasthan, khanzada, mughal, mirasi, qaimkhani, muslimrangrez, manganiar, merat, cheetah, deshwali, langha
Please note that the content of this book primarily consists of articles available from Wikipedia or other free sources online. Pages: 37. Chapters:
Khanzada, Mughal, Meo, Mirasi, Qaimkhani, MuslimRangrez, Manganiar, Merat, Cheetah, Deshwali, Langha, Silawat, Ghanchi, Sindhi-Sipahi, Rath, Pathans of Rajasthan, Pinjara, Shaikh of Rajasthan, Bhutta (भाटी ), Singiwala, Khadim, Sorgar, Kandera, Chadwa, Hiranbaz, Hela Mehtar. Excerpt:
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The Khanzada, or Khanzadah,(Urdu:) (Hindi खान जादा) is a subdivision of Rajputs, now found mainly in the Rajasthan, Haryana and Western Uttar Pradesh of India; and Sindh, Punjab provinces of Pakistan. Khanzadahs, the royal family of Muslim Jadon (also spelt as Jadaun) Rajputs,
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accepted Islam on their association with the Sufi Saints. Khanzadah, the Persian form of the Rajputana word ‘Rajput’, is the title of the great representatives of the ancient Yaduvanshi royal Rajput family, descendants of Krishna and therefore of Lunar Dynasty. They are the Mewatti Chiefs of the Persian historians, who were the representatives of the ancient Lords of Mewat. Khanzada = Khan (Raj) + zada (put Son) = Rajput.
The word Khanzada or Khanzadeh in Persian means ‘son of a Khan’, ‘Khan means king’. Or Pathan . While Khanzadi or Khanzadehi is used for daughters of Khan. Mewat –
The Kingdom of Khanzadahs, Muslim Jadu Rajput clan, Mewatpatti The ancient country of Mewat is roughly contained within a line running irregularly northwards from Dig in Bhartpur to about the latitude of Rewari,
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then westwards below Rewari to the longitude of a point six miles (10 km) west of the city of Alwar, and then south to the Barah stream in Ulwur. The line then turns east Dig,
to form the southern boundary. The Mewat country possesses several hill ranges. Those by Ulwur, and those that form the present boundary to the north-east were the most important. Tijara, lying near the latter, contended with Ulwur for the first place in Mewat.
However, it is prominently a division of Jadubansi Rajputs…
उपर्युक्त तथ्यों का हिन्दी रूपान्तरण देंखें
सम्पादक: पुस्तकें एलएलसी, विकीपीडिया श्रृंखला
डेटा डी publicação: 2011-07-27
आईएसबीएन: 115546883 एक्स
Pagginas: 38 पेज….
टैग: मुस्लिम, समुदायों, राजस्थान, खानजादा, मुगल, मिरासी, कैमखानी, मुस्लिम रेंजरेज़, मंगानीर, मेरेट, चीता, देशवाली, लंगा
कृपया ध्यान दें कि इस पुस्तक की सामग्री में मुख्य रूप से विकिपीडिया या अन्य मुक्त स्रोतों से उपलब्ध लेख शामिल हैं। पृष्ठ 37. अध्याय: खानजादा, मुगल, मेयो, मिरासी,कैमखानी, मुस्लिम रंगरेज़, मंगानी, मेरत, चीता, देशवली, लंघा, सिलावत, घांची, सिंधी-सिपाही, राठ, राजस्थान के पठान, पिंजारा, राजस्थान के शेख , भूट भाटी या भुट्टो, सिंगिवाला, खादिम, सोगर, कंदरा, चाडवा, हिरणबाज, हेला मेहतर।
उद्धरण: खानजादा, या खानजादा, (उर्दू:) वस्तुत: (खान जादा) राजपूतों का एक उपविभाग है, जो मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा और भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया जाता है; और सिंध, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त भी है । मुस्लिम जादौन (जादुन के रूप में भी लिखा गया) के शाही परिवार खानजादा ने सूफी संतों के साथ अपने सहयोग पर इस्लाम को स्वीकार किया। राजपूताना शब्द ‘राजपूत’ का फारसी रूप खानजादा प्राचीन यदुवंशी शाही राजपूत परिवार, कृष्णा के वंशज और इसलिए सोम वंश के महान प्रतिनिधियों का खिताब है।
वस्तुत ये जादौन पठान यहूदीयों की शाखा ही है
—जो भारतीय धरातल पर जादौन राजपूत के रूप में अपने को यदुवंशी कहते हैं।
वे फारसी इतिहासकारों के मेवाट्टी चीफ हैं, जो मेवाट के प्राचीन लॉर्ड्स के प्रतिनिधि थे।
खानजादा = खान (राज) + ज़दा (उत्पन्न) = राजपूत। फारस में खानजादा या खानजादा शब्द का अर्थ है ‘खान का पुत्र’, ‘खान का अर्थ राजा’ है।
खान की बेटियों के लिए खानजादी या खानजादेही का इस्तेमाल किया जाता है। खान पठानों का लकब उपाधि है मेवाट – खानजादाह का राज्य, मुस्लिम जादौन राजपूत कबीले, मेवात्पट्टी मेवाट का प्राचीन देश भारतपुर में डिंग से अनियमित रूप से उत्तर में चलने वाली रेखा के भीतर रेवाड़ी के अक्षांश के बारे में बताया जाता है, फिर रेवाड़ी के नीचे पश्चिम की तरफ छह मील की ऊंचाई पर (10 किमी) अलवर शहर के पश्चिम में, और फिर दक्षिण में उल्वा में बरहा धारा तक की भी भाग । फिर दक्षिणी सीमा बनाने के लिए रेखा पूर्वी डिंग (दीर्घ पुर) बदल जाती है। मेवाट देश में कई पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं।
उल्वुर के लोग, और जो उत्तर-पूर्व में वर्तमान सीमा बनाते हैं वे सबसे महत्वपूर्ण थे। तिजारा, उत्तरार्द्ध के पास झूठ बोलते हुए, उल्वा में पहली जगह मेवाट के साथ संघर्ष किया।
हालांकि, यह मुख्य रूप से जादौन राजपूतों का एक प्रभाग है …
हम अपनी इसी ऐैतिहासिक श्रृंखला में यह लिपिबद्ध कर चुके हैं कि राजस्थान के जादौन राजपूत जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
ये बड़े वीर तथा यौद्धा होते थे ।
मागी अथवा बिरहमन —जो ईरानी पुरोहित थे
इनकी संस्कृति कुछ कुछ भारतीय ब्राह्मणों से साम्य रखता है ।
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भारत में इन जादौन पठानों का मार्ग दर्शन स्वीडन ,नार्वे से चल कर सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों से परिपुुष्ट हुए इन ब्राह्मणों ने इस भारत में आगमन काल में अपने ब्राह्मण धर्म के लिए समायोजित किया ।
तब यहाँ भरत, किरात, कोल , भील आदि द्रविड जन-जातियाँ निवास कर रहीं थी ।
यहाँ के इन पूर्व वासीयों को दमन करने के लिए पुरोहित समाज ने इन विदेशीयों का समायोजन क्षत्रियों के रूप में किया।
क्योंकि बुद्ध के प्रादुर्भाव से वैदिक कर्म काण्ड परक ब्राह्मण धर्म मन्द पड़ गया था ।
अत: बौद्ध श्रमणों के विध्वंस के लिए भी एैसा हुआ।
सबने माउण्ट आबू की कथा भाटौं की मुखार बिन्दु से श्रवण की गयी होगी ।
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं।
कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है ;
जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था और —जो ब्राह्मणों के समानान्तर भारत में आये और यहाँ की भरत अथवा व्रात्य —जो वृत्र से सम्बद्ध थी ।
उन जातियों को परास्त किया ।
वे उच्च श्रेणी के विदेशी राजपूत कहलाए, चन्द्रबरदाई लिखते हैं ।
कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संपूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउण्ट आबू पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, गुर्जर-प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
यहाँ गुर्जर शब्द जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से आगत विदेशीयों का रूप है ।
न कि गौश्चर: या गूज़र का वाचक —जो अहीरों की एक शाखा है।
गुर्जर शब्द की प्राच्य और पाश्चात्य व्युत्पत्ति-पर आगे विश्लेषण (Etymological Analization)किया गया है
उपर्युक्त माउण्ट आबू की घटना को इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं।
इन्हीं राजपूतों के रूप में जादौन पठानों को भी वर्गीकृत किया गया हैं ।
—जो राजस्थान में बंजारों की एक शाखा है ।
आज भी भूबड़िया बञ्जारे स्वयं को राजपूतों के रूप में मानते हैं ।
राजपूतों में जादौन जन-जाति तो अपने प्रारम्भिक काल में बञ्जारा वृत्ति का निर्वहन करती थी।
ये जादौन पठान थे ।
ये भी यौद्धा व सहासी तो थे ही ।
इन्होंने स्वयं को यहूदी माना तो बाद में यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे ।
परन्तु यहाँ समस्या यह है कि वैदिक सन्दर्भों में यदुस्तुर्वश्च (यदु और तुर्वसु को दास स्वीकार किया है । और दास वैदिक सन्दर्भों में असुर अथवा अदैवीय रूप है तथा इन्हें जीतने के लिए पुरोहितों ने इन्द्र से प्रार्थना भी हैं । इस लिए जादौन राजपूत
प्रत्यक्षत: वैदिक यदु से सम्बद्ध नहीं हैं।
क्योंकि दूसरा बडा़ कारण यह है कि जादौन ठाकुर अपने को कभी भी गोपों से सम्बन्धित नहीं मानते हैं ।
जबकि सम्पूर्ण यदुवंश की पृष्ठ-भूमि गोपालन वृत्ति से सम्बद्ध हैं ।
”उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद-१० /६२ /१०
इस लिए ब्राह्मणों ने इन्हें राजपूतों के रूप में समायोजित किया।
उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था ।
तब जादौन पठान ईरानी एवं यहूदी विचार धारा से ओत-प्रोत थे ।
यद्यपि मनु (नूह) ए-ब्राहम (ब्रह्मा) विश-नु (देवन) इशहाक( इक्ष्वाकु) इत्यादि नाम भारतीय पुराणों में भी हैं।
ब्राह्मणों को भी ईरानी धर्म-ग्रन्थों में बरहमन कहा गया तथा सुमेरियन पुरातन कथाओं बरम (Baram)
यहूदीयों की बहुत सी पृथा ब्राह्मणों जैसी थीं ।
क्योंकि देवर -विवाह जिसे लैविरेट (levirate) पृथा के रूप में भी जाना जाता है ।
यहूदीयों में प्रचलित थी ; वह ब्राह्मणों में यथावत् रही ।
परन्तु नियोग पृथा तो ब्राह्मणों की – मौलिक सृष्टि है। -जैसे बाद में इस्लामीय शरीयत में हलाला की रश्म जो विवाह-विच्छेदन के पुन: समायोजन हेतु ज़िना के तौर पर बनायी गयी
परन्तु इस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय धरातल पर सर्वत्र ईसाई विचार धारा का बोल-बाला था ।
जादौन शब्द (Joda) शब्द से विकसित हुआ है
जिसका अर्थ है यहुदह् अथवा Yehudah की सन्तानें
विदित हो कि ईसाई मज़हब यहूदीयों की विकसित विचार धारा है यह हमने ऊपर बताया
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यहाँ हम ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर भी एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं; कि इसका प्रयोग जादौन पठानों के साथ कब से जुड़ा हुआ है?
देखें नीचें (तुर्की ऐैतिहासिक विवरणों से उद्धृत तथ्य )
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Origin and meaning of tekvur name in pathan Tribes…
The Turkish name, Tekfur Saray, means “Palace of the Sovereign” from the Persian word meaning “Wearer of the Crown”.
It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos – which means “born in the Purple Chamber”.
It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and From Middle Armenian (թագւոր ) (tʿagwor) टैंगॉर , from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi’s works…… (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_
हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन)
(takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
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तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ हिन्दुस्तान में आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में देव संस्कृति के अनुयायी आर्य(आयोनियन , हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।
जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था ;
उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों विशेषत: हूणों ,कुषाणों , तुर्कों एवं सीथियन (Scythian) जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ । और फिर नये सिरे से ब्राह्मणों की कर्म काण्ड परक वैदिक क्रियाऐं प्रारम्भ हुईं।
इन राजपूतों में सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी बड़ी संख्या थी। ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं! कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
ये लोग तुर्की होने से खाँन अथवा पठान अथवा तक्वुर tekvur टाइटल लगाते थे ।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदित हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे ठक्कुर के रूप में लिखा गया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी। और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
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समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं। कि ” जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे ” उसमान खलीफ का समय (644 – 656 ) ईस्वी सन् के समकक्ष रहा है भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जा रहा था ।
बौद्ध श्रमणों के पलायन तथा संहार के लिए पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण ब्राह्मण धर्म के विस्तार के लिए विदेशीयों को सम्मोहित कर रहे थे ।
उस्मान फलीफा के नैतृत्व में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार पश्चिमीय एशिया में निरन्तर हो रही था ।
उस्मान को शिया लोग ख़लीफा मानने को तैयार नहीं थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644- से 656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया।
ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था
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पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है। इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून थे ।
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक अकबर के बाद और तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए
–जैसे जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि
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विदित हो कि मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया –और कुछ इस्लामीय विचार धाराओं के खिलाफ रहे ।
इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले राजपूत
जैसे- कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
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और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
—जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
—जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है
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As Follows (1) Dharawat (2)ghuglot (3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat… All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area. from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported : 1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat 5- Meghawat 6- khachkad 7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16- borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat the Rathor and jadon are Charan banjara are more common in the area Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare. A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale. These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted the function along with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function. Rathod is also used as a clan name among the Gormati Banjaras which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra. madren is a clan name reported from the Sonar Banjara….
हिन्दी अनुवाद:—निम्नलिखित के अनुसार (1) धारवत (2) घुह्लोट (3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत … उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं । जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है। लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है: 1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16- बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि.. राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है। बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ; जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले। ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को पीटते हैं।
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।
राठोड़ और जादौन गोर्मती के बीच एक कबीले के नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है। जादौन पठान—जो अफगानिस्तानी मूल के उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे ।
पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में यहूदीयों को सोने – चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन ।
मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है।
जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है। मनिहार– मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है। इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा
जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है।
मुसलमान होने से.. मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द वैदिक हैं –
–जो कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।
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उत्पत्ति का इतिहास— इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ; एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों के नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन आदि
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं; दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था ; और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास नारखी, बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये।
इन पठानों की कुछ उपजातियाँ — (1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन । पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है जिसकी कद- काठी जादौन राजपूतों तथा जादौन बन्जारों से मिलती है ।
-जो पश्तो भाषा बोलते हैं – जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा– पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा ।
(Theory of Pashtun descent from Israelites)
19 वीं सदी के बाद से बहुत से पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बना हुआ है। पश्तून लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।
सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में – पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है। अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः सन् 1837 में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं ! लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करते हैं।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है ।
जे. बी . फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की ‘फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त‘ नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था। जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया। जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। और वह आगे यह भी लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह ऋग्वेद के तीसरे खण्ड की 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में कान्यकुब्ज के राजा हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।
तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ; तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है। राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप “
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए ।
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की और बौद्ध श्रमणों के विरुद्ध प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से युद्ध छेड़ दिया ।
बारहवीं सदी में
“चंद्रबरदाई लिखता हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं “ जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं ।
सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी।
और संस्कृत भाषा में भी ठक्कुर शब्द जमीदार का विशेषण है ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी ।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया । पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
वल्लभाचार्य भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं।
जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ।
इन्होंने ने ही कृष्ण के विग्रह को ठक्कुर नाम दिया।
महमूद गजनबी ने 1000-1030 र्इ. और मुहम्मद गोरी ने 1175-1205 र्इ०सन् के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे ।
तभी से तक्वुर ,ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हो गया था ।
और इसका प्रचलन विस्तारित रूव से तक्वुर tekvur खिताब के तौर पर 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में ;
संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली (क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है । जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है । और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही ।
परन्तु गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है ।
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ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में ।
क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं । इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:- (गां गौर्जातिं पाति रक्षतीति गोप: ।
(गो + पा + कः) जातिविशेषः यादव । गोयल इति हिन्दी भाषा में॥
तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:। इति अमरःकोश ।२।९ ।५७
अमरकोशः में गोप के पर्याय वाची रूप हैं ।
गोसंख्य ,गोधुक, अहीर,वल्लभ (जाट) , गौश्चर: (गुर्जर)
हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।
इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है।
इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे।
कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं । परन्तु हिन्दू समाज की रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए! कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना !
निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है ।
स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है ।
जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है ।
गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है ।
कहीं “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः ” इति पराशरपद्धतिः ॥
अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार कहीं गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार , कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है।
मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः )
अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया ।
इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है !
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आइए देखें— यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ?
एक वार सभी अहीर वीर इस सन्देश को ध्यान पूर्वक पढ़ें! और उसके वाद सुझावात्मक प्रति क्रिया दें ! आपका भाई यादव योगेश कुमार ‘रोहि’
ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र०
ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत सभी अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर परोक्ष रूप में गालियाँ देते रहते हैं अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।
इस लिए ये गोप यदुवंशी नहीं होते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ?
और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं ।
अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं !
गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा —
एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा।
जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा !
इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा !
और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया।
जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी।
पहली दृष्टि का फल—- अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा।
अर्जुन ने कहा, “भगवन् ! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ।
क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
”दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन!
मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो।
अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा।
किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा।
अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ? अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं — 21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक ) यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था ।
संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति- इस प्रकार वर्णित है अक्ष+ ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति +इनि, अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम् “वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च । रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः।
एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः ।
पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः ।
नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु ।
शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति ।
गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ ।
और कुछ शेष भी बच गए थे इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था ।
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है । इसे भी देखें— _________________________________________
“सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या –१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें- इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण सुभद्रा का हरण था —- जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया।
इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया गया।
बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे।
गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे।
गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।
उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा।
कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया ।
एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया।
जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई,
तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया। गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए !
और वहाँ सब हाल कहा।
सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया।
वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे।
सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की आंखें चढ़ गईं।
उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन को उचित दण्ड देने का निश्चय किया।
कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है ।
इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- “हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?”
फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- “जनार्दन!
तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ?
तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया।
यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है।
मैं यह कदापि नहीं सह सकता।
” तब कृष्ण बोले- भाई बलराम
“अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है।
क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था।
उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।” कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव लोग कसमसाए और अर्जुन—से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे — जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है ।
सन्दर्भित ग्रन्थ– ↑ महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220 ↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12
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गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे ।
गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है ।
यदु की सन्तान होने से ” यदोर्पत्यं इति यादव” और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।
क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर ,सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआर्ट का विशेषज्ञ ।
संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है
अ = नहीं + भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है —जो समूह अथवा सन्तान वाची है । इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया ! और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे ! यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था । क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे ।
क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था ।
फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे ।
ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे ।
नारायणी सेना के इन गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था ।
नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था !
लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं । केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा !
परन्तु —जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा !
बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी ।
यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -
भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि —हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था ।
क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है ।
किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे !
किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है । तो ये अर्जुन का भ्रम था
नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी ! आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है !
कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ। और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था ।
और इधर कृष्ण का भी मान रखना था । क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे । कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे ।
कृष्ण के रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था ।
इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा ।
और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें
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” अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले। भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४ अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ? क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे ।
—जो राजपूत लोग कहते हैं कि यदुवंशीयों के पुरोहित गर्गाचार्य थे । तो उन मूर्खों को यह भी जान लेना चाहिए कि यहाँ तो शाँडिल्य वज्रनाभ के पुरोहित हैं ।—जो गोकुल में नन्द के पुरोहित थे । और केला माता( योगमाया) नन्द की पुत्री थीं।
गर्गाचार्यजी ने कहा-“नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।”
परन्तु गर्गाचार्य केवल शूरसेन के ही समय पुरोहित बने थे । उग्रसेन के पुरोहित काश्य पुरोहित थे भीष्मक के सतानन्द थे जबकि ये सभी राजा यादव थे।
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भगवान् श्री कृष्ण के देहावसान के बाद ब्रजभूमि सूनी हो गयी थी ।
कृष्ण की सभी लीला स्थलियां लुप्त हो गयी । तब उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने व्रज में पुनर्स्थापन किया।
वज्रनाभ को इन्द्रप्रस्थ से लाकर पाण्डवों के वंशज महाराज परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया।
वज्रनाभ की माता विदर्भ राज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नाम रोचना अथवा सुभद्रा था।
अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुक्मवती या शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी।
वज्रनाभ ने कृष्ण कर्म स्थलों का चिन्हांकन किया। लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बनवा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ ने ही की थी ।
महाराज वज्रनाभ का पुत्र प्रतिबाहु हुए उनके पुत्र
सुबाहु हुए सुबाहु के शान्तसेन शान्तसेन के शत्सन हुए।
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वज्रनाभ ने शाण्डिल्य जी के आशीर्वाद से गोवर्धन( दीर्घपुर ), मथुरा , महावन , गोकुल (नंदीग्राम ) और वरसाना आदि छावनी बनाये।
और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।
शाण्डिल्य के विषय में पौराणिक विवरण हम आपको देते हैं -
शाण्डिल्य वंश :शाण्डिल्य मुनि कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र थे।
शंख और लिखित के पिता भी हैं।
हालांकि शाण्डिल्य के 12 पुत्र बताए गए हैं जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली।
महर्षि कश्यप के पुत्र असित, असित के पुत्र देवल मंत्र दृष्टा ऋषि हुए।
इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न हुए।
मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत विवरण मिलता है।
उन्हें त्रेतायुग में राजा दिलीप का राजपुरोहित बताया गया है, वहीं द्वापर में वे पशुओं के समूह के राजा नंद के पुजारी हैं।
एक समय में वे राजा त्रिशंकु के पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह के साथ वार्तालाप करते हुए दिखाए गए हैं।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं।
इसके साथ ही वस्तुत: शाण्डिल्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति है लेकिन कालांतार में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुईं जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियाँ होती हैं।
उस समय मथुरा की आर्थिक दशा बहुत ध्वस्त हो चुकी थी। जरासंध ने सब कुछ नष्ट कर दिया था।
राजा परीक्षत ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली )से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।
इस प्रकार राजा परीक्षत की मदद और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगवान् ने अपनी गोप मण्डली के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।
लीला स्थलों का ठीक ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहां की लीला के अनुसार उस स्थान का नामकरण किया।
भगवान् के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।
स्कन्द पुराण के अनुसार यदुवंशी गोपों के पुरोहित शाण्डिल्य ऋषि की सहायता से श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने पुन: व्रज को बसाया ।
वे गाँव अहीरों तथा जाटों एवम् गूजरों की आधुनिक वस्तीयाँ हैं ।
स्थान स्थान पर भगवान् श्री कृष्ण के नाम से कुण्ड ओर कूए व बगीचे लगवाये।
शिव आदि देवताओ की स्थापना की। गोविन्द , हरिदेव आदि नामो से भगवधि गृह स्थापित किये।
इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सर्वत्र एक मात्र श्री माधव भक्ति का प्रचार किया।
इस प्रकार वजनाभ् जी को ही मथुरा का पुनः संस्थापक के साथ -साथ यदुकुल पुनः प्रवर्तक भी माना जाता है ।इनसे ही समस्त यदुवंश का विस्तार हुआ माना जाता है। वज्रनाभ जी को ही भगवान श्री कृष्ण का प्रतिरूप माना गया है ।
वज्रनाभ के कारण से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा आरम्भ हुई।उन्होंने ही ब्रज में 4 प्रसिद्ध देव प्रतिमा स्थापित की।
मथुरा में केशव देव ,
वृन्दावन में गोविन्द देव ,
गोवर्धन में हरि देव ,
बलदेव में दाऊजी स्थापित किये थे ।
इन यदुवंशियों का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है ।
जब चीनी यात्री सन 635 में भारत आया था ;
उस समय मथुरा का शासक कोई आभीर थे ।
लेकिन मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे मेवात ,भदानका ,शिपथा (आधुनिक बयाना) ,कमन आदि में (8 वीं तथा 9 वीं सदी ) के शासक राजपूत थे जिनका बौद्धों के पलायन के लिए क्षत्रिय करण हुआ था।
जिनके नाम भी प्राप्त है इस काल में मथुरा पर शासन कनौज के (गुर्जर प्रतिहार ) शासकों था ये जॉर्जिया (गुर्जिस्तान)से आये हुए विदेशी थे जिन्हें माउण्ट आबू पर ब्राह्मणों ने क्षत्रिय करण करके बौद्धों के विरुद्ध संगठित किया था ।
परन्तु गुर्जर शब्द का समायोजन अहीरों की शाखा गौश्चर: गा चारयन्ति इति गौश्चरा: अर्थात् गायें चराने वाले से हो गया ।
विदित हो कि विदेशी गुर्जर स्वयं को अग्नि वंशी या सूर्य वंशी लिखते हैं जबकि गूज़र (गौश्चर) यदुवंशी के रूप में
सम्भवत: इस काल में यदुवंशी उनके अधीनस्थ रहे हों लेकिन इसी समय में मथुरा के शासक यदुवंशी राजा धर्मपाल भगवान श्रीकृष्ण के 77 वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है जिनके कई प्रमुख वंशज ब्रह्मपाल ,जयेंद्र पाल मथुरा के शासक 9 वीं सदी तक मिलते है इसके बाद महमूद गजनवी के काल में भी मथुरा /महावन पर यदुवंशियों जैसे कुलचंद राजा का शासन थी ।
इसके बाद भी शूरसेन शाखा के भदानका /शिपथा (आधुनिक बयाना );त्रिभुवनगिरी (आधुनिक तिमनगढ़ ) के कई शासको जैसे राजा विजयपाल (1043),राजा तिमानपल (1073), राजा कुंवरपाल प्रथम (1120), राजा अजयपाल जिनको महाराधिराज की उपाधि थी (1150) नें महावन के शासक थे इनके बाद इनके वंशज हरिपाल (1180), सोहनपाल (1196)महावन के शासक थे ।
इसी समय बयाना और त्रिभुवनगिरी पर राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल द्वित्तीय का शासन था
जिसका युद्ध मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक से हुआ था ।
इसके बाद भी महावन के राजा महिपाल यदुवंशी थे उनके वंशज आज भी जाटों या जाट कह लाते हैं ।
आभीर/ अहीर क्या होता है ?
अत्रि गोत्र से संबंधित सभी लोगों का मूल सम्बन्ध अभीर जनजाति से ही है। पौराणिक दृष्टि से अत्रि गोत्र के लोग अभीर / अहीर हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से मूल अभीर जनजाति के लोगों को ही पुराणों में अत्रि गोत्र में समाहित किया गया है। दूसरे शब्दों में सभी सोमवंशी आभीर जनजाति से संबद्ध हैं।
यद्यपि आभीर कन्या गायत्री के विवाह काल में यज्ञवेदी पर अत्रि भी होता अथवा उद्गाता के रूप में उपस्थित थे ।और ये ब्रह्मा के मानस पुत्र थे । सप्त-ऋषियों में से एक के रूप में फिर भी अहीर जाति के प्रति समर्पित ऋषि अत्र को ही गोत्र प्रवर्तक स्वीकार कर लिया इसी अहीर जाति में यदुवंश हुआ ज्समें पूर्वपुरुष यदु ने गोपालन द्वारा आभीर जाति को जीवन्त रखा ।
अर्थात यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा और आनव सभी मूलतः अहीर ही हैं।
अहीर / अभीर शब्द आर्य के समतुल्य ही अर्थ रखता है जिसका अर्थ वीर या शक्तिशाली ही होता है। जैसे अहीर को गुजराती में आयर ओर दक्षिण भारत में अय्यर ।
★-
अहीर शब्द का विश्लेषण भाई योगेश कुमार रोहि जी द्वारा भी किया गया है।
विदित हो प्रत्येक यादव अहीर होता है, परन्तु प्रत्येक अहीर यादव नहीं होता। परन्तु जो अहीर ना हो कर शब्द स्वयं को यादव कहता हो, निश्चित ही उनके पूर्वज यहूदी बंजारे समूहों में रहते थेे|
परन्तु कुछ लोग कहेंगे की केवल यादव ही अहीर होते हैं परन्तु अवेस्ता में राजा ययाति को भी अवीर / अभीर बोला गया है वे तो यदु के पिता थे । यदुवंशी तो थे नहीं। मत्स्य पुराण / हरिवंश पुराण में बार बार ययाति के चरित्र विशेषण के रूप में आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है।
पुरुरवा केे भी चरित्र विशेषण के रुप में अभीर शब्द का उच्चारण पुराणों में बार बार किया गया है।
विदित हो कभी इक्ष्वाकु वंश के किसी भी राजा के लिए अभीर शब्द पुराणों में विशेषण के रूप में भी नहीं प्रयोग किया गया है।
ब्राह्मणों में भी अहीर होते हैं!
“Garg distinguishes a Brahmin community who use the Abhira name and are found in the present-day states of Maharashtra and Gujarat. That usage, he says, is because that division of Brahmins were priests to the ancient Abhira tribe.” from wikipedia तो क्या ब्राह्मण यादव जाति से संबद्ध हैं? हो भी सकते हैं और नहीं भी |
क्यों कि अत्रि गोत्र से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति अहीर / अभीर ही है। कौरव, पांडव, कृष्ण आदि सभी अहीर थे किन्तु कृष्ण अहीर के साथ यादव भी थे क्योंकी वे यदु के वंशज थे। परन्तु कौरव पांडव अहीर होने के साथ पौरव भी थे क्योंकि वे पुरू के वंशज थे।
Wikipedia का यादव पेज
Wikipedia का यादव पेज पर यही लिखा गया है कि अहीर/ आभीर से यादव उत्पन्न हुए हैं परन्तु लोग पढ़कर समझ ही नहीं पाते| अहीर एक खनिज है जिससे यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव आदि तत्वों का जन्म हुआ है।
सम्राट सहस्त्रबाहु अर्जुन के लिए अहीर शब्द का उपयोग पद्मपुराण में
सहस्त्रबाहु को अहीर कहा जाना इस श्लोक के प्रभाव को कम कर देता । आहुक वंशात समुद्भूता आभीरा इति प्रकीर्तिता। (शक्ति संगम तंत्र, पृष्ठ 164) जिसमें ये कहा जा रहा कि अहुक के वंशज अहीर हुए। जबकि कार्तवीर्यार्जुन आहुक के पूर्वज थे।
भागवत में भी वसुदेव ने आभीर पति नन्द को अपना भाई कहकर संबोधित किया है व श्रीक़ृष्ण ने नन्द को मथुरा से विदा करते समय गोकुलवासियों को संदेश देते हुये उपनन्द, वृषभान आदि अहीरों को अपना सजातीय कह कर संबोधित किया है।
पुराणों में राजपूत का अर्थ
क्षत्रात् करण कन्यायां राजपुत्रो बभूव ह |
राजपुत्र्यां तु करणादागरिति प्रकीर्तित: ||१०३|
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में राजपुत्र (राजपूत)जाति की उत्पत्ति हुई है ; और राजपुत्र जाति की कन्या और करण पुरुष से आगरी जाति की उत्पत्ति हुई ||१०३|
ब्रह्मवैवर्तपुराण दशवाँ अध्याय |
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पुराणों में ये सन्दर्भ है जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा ‘परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित ‘न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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‘परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे –
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शूद्रायां क्षत्रियादुभ: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
शास्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।
तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।
हिन्दी अनुवाद:-
क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण 26 )
दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है जो हम पूर्व में बता चुके हैं ।
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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राजपूत्र क्षत्रिय का शुद्धत्तम मानक नहीं है
ये आपने पौराणिक सन्दर्भों से जाना |
ऐसा हो सकता है यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव अहिरो में यादव सबसे अधिक शिक्षित रहें हों जिससे वे अपनी प्राचीन विरासतों को सहेजने में सफल रहे। संभवतः इनका माध्यम गीत रहें होंगे क्योंकी यादव अपने पूर्वजों की चरित्र को बिरहा आदि गीतों में अधिकतर गाते रहते हैं जो इनके इतिहास सहेजने का एक जरिया/ माध्यम रहा हो। आज यदुवंश के अलावा अहीर शब्द का विरासत नागवंशी लोगो के पास है जो अत्रि गोत्र से ही संबंधित राजा नहुष के पुत्रों के वंशज ही है पुराणों में एक कथा है जिसमें नहुष ऋषियों के श्राप से सर्प हो जाते हैं और वहां से नागवंशी अहिरो की उत्पत्ति होती है।
अहीर (आभीर) वंश के राजा, सरदार व कुलीन प्रशासक इस लेख में सभी अहीर राजाओं के बारे में लिखा गया है। जिस में यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव अहीर हो सकते हैं।
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