यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ॥१७॥( ऋग्वेद ५/५२/१७)
शनिवार, 31 जुलाई 2021
वैदिक सन्दर्भों में कृष्ण और अर्जुन यमुना और राधा वामन अवतार विष्णु आदि का वर्णन हैं ।
यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ॥१७॥( ऋग्वेद ५/५२/१७)
बुधवार, 21 जुलाई 2021
भागवत पुराण नवम स्कन्ध-
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पुरुवंशवर्णनं, तत्र दुष्यंतभरतयोश्चरितम् -
श्रीशुक उवाच ।
पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।
यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १ ॥
जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत् सुतस्ततः ।
प्रवीरोऽथ मनुस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २ ॥
तस्य सुद्युरभूत् पुत्रः तस्माद् बहुगवस्ततः ।
संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३ ॥
ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।
जलेयुः सन्नतेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४ ॥
दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।
घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५ ॥
ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।
सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६ ॥
तस्य मेधातिथिः तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।
पुत्रोऽभूत् सुमते रेभ्यो दुष्यन्तः तत्सुतो मतः ॥ ७ ॥
दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।
तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८ ॥
विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।
बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९ ॥
तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः ।
पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ १० ॥
का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे ।
किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११ ॥
व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे ।
न हि चेतः पौरवाणां अधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२ ॥
श्रीशकुन्तलोवाच ।
विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।
वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३ ॥
आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतां अर्हणं च नः ।
भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४ ॥
दुष्यन्त उवाच ।
उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।
स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५ ॥
ओमित्युक्ते यथाधर्मं उपयेमे शकुन्तलाम् ।
गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६ ॥
अमोघवीर्यो राजर्षिः महिष्यां वीर्यमादधे ।
श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७ ॥
कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।
बद्ध्वा मृगेन्द्रान् तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८ ॥
तं दुरत्ययविक्रान्तं आदाय प्रमदोत्तमा ।
हरेः अंशांशसंभूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९ ॥
यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।
श्रृण्वतां सर्वभूतानां खे वाग् आह अशरीरिणी ॥ २० ॥
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१ ॥
रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२ ॥
पितरि उपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः ।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥ २३ ॥
चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः ।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड् विभुः ॥ २४ ॥
पञ्चपञ्चाशता मेध्यैः गंगायामनु वाजिभिः ।
मामतेयं पुरोधाय यमुनामनु च प्रभुः ॥ २५ ॥
अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद् वसु ।
भरतस्य हि दौष्यन्तेः अग्निः साचीगुणे चितः ।
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥ २६ ॥
त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्ध्वा विस्मापयन् नृपान् ।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥ २७ ॥
मृगान् शुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान् ।
अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥ २८ ॥
भरतस्य महत् कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः ।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥ २९ ॥
किरातहूणान् यवनान् अंध्रान् कंकान् खगान् शकान् ।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान् ॥ ३० ॥
जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे ।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत् ॥ ३१ ॥
सर्वान् कामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी ।
समास्त्रिणवसाहस्रीः दिक्षु चक्रमवर्तयत् ॥ ३२ ॥
स सम्राड् लोकपालाख्यं ऐश्वर्यं अधिराट् श्रियम् ।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृन्मृषेत्युपरराम ह ॥ ३३ ॥
तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः ।
जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते ॥ ३४ ॥
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम् ।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥ ३५ ॥
अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः ।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमुपासृजत् ॥ ३६ ॥
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तुत्यागविशंकिताम् ।
नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः ॥ ३७ ॥
मूढे भर द्वाजं इमं भर द्वाजं बृहस्पते ।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८ ॥
चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ।
व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
नवम स्कन्ध: विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद पूरु के वंश, राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अब मैं राजा पूरु के वंश का वर्णन करूँगा। इसी वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंश के वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए हैं। पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान, प्रचिन्वान का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद। चारुपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ। परीक्षित! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भ से रौद्राश्व के दस पुत्र हुए- ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु। परीक्षित! उनमें से ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभार के तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के पुत्र का नाम था कण्व। कण्व का पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथि से प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था। एक बार दुष्यन्त वन में अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे। उस आश्रम पर देवमाया के समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मी के समान अंगकान्ति से वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरी को देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे। उसको देखने से उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मन में काम वासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करने के बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से मुसकराते हुए उससे पूछा- ‘कमलदल के समान सुन्दर नेत्रों वाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता’। शकुन्तला ने कहा- ‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्र जी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करने वाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे! मैं आपकी क्या सेवा करूँ? कमलनयन! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रम में कुछ नीवार (तिन्नी का भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये’। दुष्यन्त ने कहा- ‘सुन्दरी! तुम कुशिक वंश में उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकार का आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पति को वरण कर लिया करती हैं। शकुन्तला की स्वीकृति मिल जाने पर देश, काल और शास्त्र की आज्ञा को जानने वाले राजा दुष्यन्त ने गान्धर्व-विधि से धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया। राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। रात्रि में वहाँ रहकर दुष्यन्त ने शकुन्तला का सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानी में चले गये। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। महर्षि कण्व ने वन में ही राजकुमार के जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान था कि बड़े-बड़े सिंहों को बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता।
नवम स्कन्ध: विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद वह बालक भगवान का अंशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पति के पास गयी। जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगों ने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई- ‘पुत्र उत्पन्न करने में माता तो केवल धौंकनी के समान है। वास्तव में पुत्र पिता का ही है। क्योंकि पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त! तुम शकुन्तला का तिरस्कार न करो, अपने पुत्र का भरण-पोषण करो। राजन्! वंश की वृद्धि करने वाला पुत्र अपने पिता को नरक से उबार लेता है। शकुन्तला का कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भ को धारण कराने वाले तुम्हीं हो’। परीक्षित! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जाने के बाद वह परमयशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसका जन्म भगवान् के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वी पर उसकी महिमा का गान किया जाता है। उसके दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न था और पैरों में कमलकोष का। महाभिषेक की विधि से राजाधिराज के पद पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था। भरत ने ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को पुरोहित बनाकर गंगा तट पर गंगासागर से लेकर गंगोत्री-पर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये और इसी प्रकार यमुना तट पर भी प्रयाग से लेकर यमुनोत्री तक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञों में उन्होंने धनराशि का दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरत का यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुण वाले स्थान में किया गया था। उस स्थान में भरत ने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणों में प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक बद्व (13084) गौएँ मिली थीं। इस प्रकार राजा भरत ने उन यज्ञों में एक सौ तैतीस (55+78) घोड़े बाँधकर (133 यज्ञ करके) समस्त नरपतियों को असीम आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों के द्वारा इस लोक में तो राजा भरत को परम यश मिला ही, अन्त में उन्होंने माया पर भी विजय प्राप्त की और देवताओं के परमगुरु भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया। यज्ञ में एक कर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरत ने सुवर्ण से विभूषित, श्वेत दाँतों वाले तथा काले रंग के चौदह लाख हाथी दान किये। भरत ने जो महान कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथ से स्वर्ग को छू सकता है? भरत ने दिग्विजय के समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मार डाला। पहले युग में बलवान् असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातल में रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवांगनाओं को रसातल में ले गये थे। राजा भरत ने फिर से उन्हें छुड़ा दिया। उसके राज्य में पृथ्वी और आकाश प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरत ने सत्ताईस हजार वर्ष तक समस्त दिशाओं का एकछत्र शासन किया। अन्त में सार्वभौम सम्राट् भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गये।
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।सूत उवाच ।
(अनुष्टुप्)
एवं निशम्य भगवान् देवर्षेर्जन्म कर्म च ।
भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन् व्यासः सत्यवतीसुतः।१॥
।व्यास उवाच।
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिस्तव ।
वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्भवान् ॥२॥
स्वायंभुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः।
कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम् ॥३॥
प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम।
न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः ॥४॥
।नारद उवाच ।
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिर्मम ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥५ ॥
एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।
मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबंधनम् ॥६ ॥
सास्वतंत्रा न कल्पासीद् योगक्षेमं ममेच्छती।
ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥७॥
अहं च तद्ब्रह्मकुले ऊषिवांस्तदपेक्षया ।
दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालकः पञ्चहायनः ॥८॥
एकदा निर्गतां गेहाद् दुहन्तीं निशि गां पथि।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः॥९॥
तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सतः ।
अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥ १०॥
स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामव्रजाकरान् ।
खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च ॥११॥
चित्रधातुविचित्राद्रीन् इभभग्नभुजद्रुमान् ।
जलाशयान् शिवजलान् नलिनीःसुरसेविताः।१२॥
चित्रस्वनैः पत्ररथैः विभ्रमद् भ्रमरश्रियः ।
नलवेणुशरस्तम्ब कुशकीचकगह्वरम् ॥ १३ ॥
एक एवातियातोऽहं अद्राक्षं विपिनं महत् ।
घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥१४॥
परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षितः ।
स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः ॥१५॥
तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रितः ।
आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥१६ ॥
ध्यायतश्चरणांभोजं भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः॥१७॥
प्रेमातिभरनिर्भिन्न पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।
आनंदसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥१८॥
रूपं भगवतो यत्तन् मनःकान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ॥१९॥
दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि नापश्यं अवितृप्त इवातुरः ॥२०॥
एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥ २१ ॥
हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥२२॥
सकृद् यद् दर्शितं रूपं एतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्कामःशनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान्॥२३॥
सत्सेवयाऽदीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥२४॥
मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २५ ॥
(इंद्रवंशा)
एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्
भूतं नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसे
शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकंपितः ॥ २६ ॥
नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्
गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटन् तुष्टमना गतस्पृहः
कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥२७॥
(अनुष्टुप्)
एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन् असक्तस्यामलात्मनः ।
कालः प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥२८॥
प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।
आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पांचभौतिकः ॥२९॥
कल्पान्त इदमादाय शयानेऽम्भस्युदन्वतः ।
शिशयिषोरनुप्राणं विविशेऽन्तरहं विभोः ॥३०॥
सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः ।
मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥३१ ॥
अंतर्बहिश्च लोकान् त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितव्रतः ।
अनुग्रहात् महाविष्णोः अविघातगतिः क्वचित्॥ ३२॥
देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥ ३३ ॥
प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥ ३४ ॥
एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।
भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥ ३५ ॥
यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुंदसेवया यद्वत् तथात्माद्धा न शाम्यति ॥३६॥
सर्वं तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥ ३७ ॥
।सूत उवाच ।
एवं संभाष्य भगवान् नारदो वासवीसुतम् ।
आमंत्र्य वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ३८ ॥
अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन्माद्यन्निदं तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-16 प्रथम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग श्रीसूत जी कहते हैं- शौनक जी ! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान श्रीव्यास जी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया।
श्रीव्यास जी ने पूछा- नारद जी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी।
स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया? श्रीनारद जी ने कहा- मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत किया- यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी।
मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी।
मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था। वह मेरे योगक्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थी, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी।
जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है। मैं भी अपनी माँ के स्नेहबन्धन में बँधकर उस ब्राह्मण-बस्ती में ही रहा।
मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था। एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी। मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा।
उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं।
शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौंरे मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था।
इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा।
उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे।
उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था। चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली।
उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी। उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, हृदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा।
मंगलवार, 20 जुलाई 2021
आह्लाद और उदयबल- की वीर गाथाऐं-
वीर अहीर-आल्हा( आह्लाद) की जयंती को उपलक्ष्य में गुरुदेव सुमन्त कुमार यादव "जौरा" जी समर्पित यह तथ्याँजलि-
आल्हा-उदल-मलखान जीवन परिचय. ________
★-पुराण भारतीय संस्कृति और इतिहास के आधार स्तम्भ हैं अत: पुराणों की बातें ही हमारे इतिहास का सम्यक दर्पण हैं ।
भविष्य पुराण प्रति सर्गपर्व के अनुसार आधुनिक विहार के बक्सर जिला के अन्तर्गत कठिन व्रतों का पालन करने वाली एक "व्रतपा" - नामक अहीराणी रहती थी।
उन्होंने अपने कुल देवी दुर्गा जी का नौ दिन व्रत रखाकर बलराम-कृष्ण की तरह बलशाली पुत्रो की मन्नत मांगी। व्रतपा का विवाह वसुमान नामक राजा/व्यक्ति से हुआ । व्रतपा और वसुमान से ही देशराज और वत्सराज नामक दो पुत्र पुत्र हुए। एक समय वत्सराज -देशराज जंगल में भैस चरा रहे थे।
उन्होंने आपस मे लड़ रही भैसों के सींग पकड़कर अलग कर दिया। इस घटना को महोबा के चंदेल राजा परमादि(परमाल) ने देखा । वे उनके बलपराक्रम से प्रसन्न हुए और दोनों को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया।
कुछ समय बाद देशराज और वत्सराज का विवाह ग्वालियर( गोपालपुर) के अहीर राजा दलिवाहनपाल की पुत्रियों से हुआ।
वहीं के शासक दलिवाहनपाल अहीर ने स्वयम्बर में शर्त लगा रखा थी कि जो भी भैसों को नियंत्रित करके खूंटे में बांध देगा,उनसे अपने पुत्रियों की शादी करुँगा। देशराज और-वत्सराज ने इस शर्त को पूरा किया।
देशराज से देवल/देवकी की शादी हुई और इस दम्पति से (आल्हा) आह्लाद और उदयबल-(उदल) पैदा हुए।
वत्सराज और ब्राह्मी से बलखान (मलखान) नामक पुत्र पैदा हुआ ।
आल्हा -उदलऔर मलखान ने कुल 52 युद्ध लड़े। इसी समय सन् (1182) में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया।
बैरागढ़ के इस युद्ध मे उदल शहीद हुए।अपने गुरु गोरखनाथ के सुझाव पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को छोड़कर सन्यास ग्रहण किया।
और आज भी लोक मान्यता है कि आल्हा-उदल अमर है और रोज मैहर-मध्यप्रदेश के शारदा मन्दिर में ब्रह्मबेला में पहला फूल चढ़ाने वे आते है।
प्रमरो नाम भूपालः कृतं राज्यं च षट्समाः।।
महामदस्ततो जातः पितुरर्धं कृतं पदम् ।।८।।
देवापिस्तनयस्तस्य पितु स्तुल्यं कृतं पदम् ।।
देवदूतस्तस्य सुतः पितुस्तुल्यं स्मृतं पदम् ।। ९ ।।
तस्माद्गंधर्वसेनश्च पंचाशदब्दभूपदम् ।।
कृत्वा च स्वसुतं शंखमभिषिच्य वनं गतः ।।3.1.7.१०।।
शंखेन तत्पदं प्राप्तं राज्यं त्रिंशत्समाः कृतम् ।।
देवांगना वीरमती शक्रेण प्रेषिता तदा ।। ११ ।।
गंधर्वसेनं संप्राप्य पुत्ररत्नमजीजनत् ।।
सुतस्य जन्मकाले तु नभसः पुष्पवृष्टयः ।। १२ ।।
पेतुर्दुंदुभयो नेदुर्वांति वाताः सुखप्रदाः ।।
शिवदृष्टिर्द्विजो नाम शिष्यैस्सार्द्धं वनं गतः ।।१३।
( विक्रमादित्य वर्णन )
विंशद्भिः कर्मयोगं च समाराध्य शिवोऽभवत् ।।
पूर्णे त्रिंशच्छते वर्षे कलौ प्राप्ते भयंकरे ।। १४ ।।
शकानां च विनाशार्थमार्यधर्मविवृद्धये ।।
जातश्शिवाज्ञया सोऽपि कैलासाद्गुह्यकालयात् ।। १५।।
विक्रमादित्यनामानं पिता कृत्वा मुमोद ह ।।
स बालोऽपि महाप्राज्ञः पितृ मातृप्रियंकरः ।। १६ ।।
पञ्चवर्षे वयःप्राप्ते तपसोऽर्थे वनं गतः ।।
द्वादशाब्दं प्रयत्नेन विक्रमेण कृतं तपः ।१७ ।।
पश्चादम्बावतीं दिव्यां पुरीं यातः श्रियान्वितः ।।
दिव्यं सिंहासनं रम्यं द्वात्रिंशन्मूर्तिसंयुतम् ।१८ ।।
शिवेन प्रेषितं तस्मै सोपि तत्पदमग्रहीत् ।।
वैतालस्तस्य रक्षार्थं पार्वत्या निर्मितो गतः।१९।
एकदा स नृपो वीरो महाकालेशश्वरस्थलम् ।।
गत्वा सम्पूजयामास देवदेवं पिनाकिनम् ।। 3.1.7.२० ।।
सभा धर्ममयी तत्र निर्मिता व्यूहविस्तरा ।।
नानाधातुकृतस्तम्भा नानामणिविभूषिता ।।२१।।
नानाद्रुमलताकीर्णा पुष्पवल्लीभिरन्विता ।।
तत्र सिंहासनं दिव्यं स्था पितं तेन शौनक ।२२ ।।
आहूय ब्राह्मणान्मुख्यान्वेदवेदांगपारगान् ।।
पूजयित्वा विधानेन धर्मगाथामथाऽशृणोत् ।२३।।
एतस्मिन्नन्तरे तत्र वैतालो नाम देवता ।।
स कृत्वा ब्राह्मणं रूप जयाशीर्भिः प्रशस्य तम् ।। २४ ।।
उपविश्यासने विप्रो राजानमिदमब्रवीत् ।।
यदि ते श्रवणे श्रद्धा विक्रमादित्यभूपते ।। २५ ।।
वर्णयामि महाख्यानमितिहाससमुच्चयम् ।। २६ ।।__________________________________
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापर पर्याये कलियुगसंभूतरविशशिवंशभूपवर्णनं नामसप्तमोऽध्यायः ।। ७।। इति प्रथमखंडः संपूर्णः ।। १ ।।
भविष्यपुराणम् /पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ३/अध्यायः ०१ < भविष्यपुराणम् | पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ३
।। ऋषयः ऊचुः ।।
भगवन्विक्रमाख्यानकालोऽयं भवतोदितः ।।
शतद्वादशमर्यादो द्वापरस्य समो भुवि ।। ।। १ ।।
अस्मिन्काले महाभाग लीला भगवता कृता ।।
तामेतां कथयास्मान्वै सर्वज्ञोऽस्ति भवान्सदा । २।
।। सूत उवाच ।।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। ३ ।।
भविष्याख्ये महाकल्पे प्राप्ते वैवस्वतेन्तरे ।।
अष्टाविंशद्द्वापरान्ते कुरुक्षेत्रे रणोऽभवत् ।। ४ ।।
पांडवैर्निर्जिताः सर्वे कौरवाः युद्धदुर्मदाः ।।
अष्टादशे च दिवसे पांडवानां जयोऽभवत् ।। ५ ।।
दिनान्ते भग वान्कृष्णो ज्ञात्वा कालस्य दुर्गतिम् ।।
शिवं तुष्टाव मनसा योगरूपं सनातनम् ।। ६ ।।
।। कृष्ण उवाच ।।
नमः शांताय रुद्राय भूते शाय कपर्दिने।।
कालकर्त्रे जगद्भर्त्रे पापहर्त्रे नमोनमः ।। ७ ।।
पांडवान्रक्ष भगवन्मद्भक्तान्भूतभीरुकान् ।।
इति श्रुत्वा स्तवं रुद्रो नंदियानोपरिस्थितः ।।
रक्षार्थं शिबिराणां च प्राप्तवाञ्छूलहस्तधृक् ।। ८।
तदा नृपाज्ञया कृष्णः स गतो गजसाह्वयम् ।।
पांडवाः पंच निर्गत्य सरस्वत्या स्तटेऽवसन् ।। ९ ।
निशीथे द्रौणिभोजौ च कृपस्तत्र समाययुः ।।
तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तेभ्यो मार्गं शिवोददात् ।। 3.3.1.१० ।।
अश्वत्थामा तु बलवाञ्छिवदत्तमसिं तदा ।।
गृहीत्वा स जघानाशु धृष्टद्युम्नपुरःसरान् ।। ११ ।।
हत्वा यथेष्टमगमद्द्रौणिस्ताभ्यां समन्वितः।१२ ।।
पार्षतस्यैव सूतश्च हतशेषो भयातुरः ।।
पांडवान्वर्णयामास यथा जातो जनक्षयः ।। १३ ।।
आगस्कृतं शिवं ज्ञात्वा भीमाद्याः क्रोधमूर्च्छिताः ।।
स्वायुधैस्ता डयामास देवदेवं पिनाकिनम् ।१४ ।।
अस्त्रशस्त्राणि तेषां तु शिवदेहे समाविशन् ।।
दृष्ट्वा ते विस्मिताः सर्वे प्रजघ्नुस्तलमुष्टिभिः ।। १५।।
ताञ्छशाप तदा रुद्रो यूयं कृष्णप्रपूजकाः ।।
अतोऽस्माभी रक्षिणीया वधयोग्याश्च वै भुवि ।। १६ ।।
पुनर्जन्म कलौ प्राप्य भोक्ष्यते चापराधकम् ।।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः पांडवा दुःखितास्तदा । १७।
हरिं शरणमाजग्मुरपराधनिवृत्तये ।।
तदा कृष्णयुताः सर्वे पांडवाः शस्त्रवर्जिताः ।। १८।
तुष्टुवुर्मनसा रुद्रं तदा प्रादुरभूच्छिवः ।।
वरं वरयत प्राह कृष्णः श्रुत्वाब्रवीदिदम् ।। १९ ।।
शस्त्राण्यस्त्राणि यान्येव त्वदंगे क्षपितानि वै।।
पांडवेभ्यश्च देहि त्वं शापस्यानुग्रहं कुरु ।। 3.3.1.२०।।
इति श्रुत्वा शिवः प्राह कृष्णदेव नमोऽस्तु ते ।।
अपराधो न मे स्वामिन्मोहितोऽहं तवाज्ञया ।। २१।
तद्वशेन मया स्वामिन्दत्तः शापो भयंकरः ।।
नान्यथा वचनं मे स्यादंशावतरणं भवेत् ।। २२ ।।
(मलखान वर्णन )
वत्सराजस्य पुत्रत्वं गमिष्यति युधिष्ठिरः ।।बलखानिरिति ख्यातः शिरीषाख्यपुराधिपः।२३।
भीमो दुर्वचनाद्दुष्टो म्लेच्छयोनौ भविष्यति ।।
वीरणो नाम विख्यातः स वै वनरसाधिपः ।२४।
अर्जुनांशश्च मद्भक्तो जनिष्यति महामतिः ।।
पुत्रः परिमलस्यैव ब्रह्मानन्द इति स्मृतः।।२५।।
कान्यकुब्जे हि नकुलो भविष्यति महाबलः।।
रत्नभानुसुतो सौ वै लक्ष्मणो नाम विश्रुतः।।२६।।
सहदेवस्तु वलवाञ्जनिष्यति महामतिः।।
भीष्मसिंह सुतो जातो देवसिंह इति स्मृतः ।।२७।।
धृतराष्ट्रांश एवासौ जनिष्यत्यजमेरके ।।
पृथिवीराज इति स द्रोपदी तत्सुता स्मृता ।।२८।।
वेला नाम्ना च विख्याता तारकः कर्ण एव हि ।।
रक्तबीजस्तथा रुद्रो भविष्यति महीतले ।।२९।।
कौरवाश्च भविष्यन्ति मायायुद्धविशारदाः।।
पांडुपक्षाश्च ते सर्वे धर्मिणो बलशालिनः ।।3.3.1.३०।।
।। सूत उवाच ।।
इति श्रुत्वा हरिः प्राह विहस्य परमेश्वरम् ।।
मया शक्त्यवतारेण रक्षणीया हि पांडवाः ।।३१।।
महावती पुरी रम्या मायादेवीविनिर्मिता ।।
देशराजसुतस्तत्र ममांशो हि जनिष्यते ।। ३२ ।।
देवकीजठरे जन्मोदयसिंह इति स्मृतः ।।
आह्लादो मम धामांशो जनिष्यति गुरुर्मम ।।३३ ।।
हत्वाग्निवंशजान्भूपान्स्थापयिष्यामि वै कलिम् ।।
इति श्रुत्वा शिवो देवस्तत्रैवांतरधीयत ।। ३४ ।।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये विक्रमाख्यानकाले प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
भविष्यपुराणम् /पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ३/अध्यायः ०२< भविष्यपुराणम् | पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व)/खण्डः ३
भविष्य पुराण भाग-2 आर्कियालोगिकल सर्वे की रिपोर्टआल्खण्ड ,खेमराज प्रकाशन ,मुंबई (गोप -आभीर-यादव पुस्तक)आल्हा-ऊदल अहीरों की वीर गाथा ...
आल्हा-ऊदल अहीरों की वीर गाथा ..
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सोमवार, 19 जुलाई 2021
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे व्याकरणनिरूपणं नाम पञ्चोत्तरद्विशततमोऽध्यायः
गरुडपुराणम्/आचारकाण्डः/अध्यायः २०६
श्रीगरुडमहापुराणम् (२०६)
सूत उवाच ।
सिद्धोदाहरणं वक्ष्ये संहितादिपुरः सरम् ।
विप्राः स्वसागता वीदं सुत्तमं स्यात्पितॄषभः॥ १,२०६.१॥
ळकारो विश्रुता सेवं लाङ्गलीषा मनीपया।
गङ्गोदकं तवल्कार ऋणार्णं प्रार्णमित्यपि॥ १,२०६.२॥
शीतार्तश्च तवल्कारः सैन्द्री सौकार इत्यपि।
वध्वासनञ्च पित्रर्थो लनुबन्धो नये जयेत्॥ १,२०६.३॥
नायको लवणं गावस्त एते न त ईश्वराः।
देवीगृहमथो अत्र अ अवेहि पटू इमौ ॥१,२०६.४॥
अमी अश्वाः षडस्येति तन्न वाक्षड्दलानि च।
तच्चरेत्तल्लु नातीति तज्जलं तच्छ्मशानकम्॥ १,२०६.५॥
सुगन्नत्र पचन्नत्र भवांश्छादयतीति च।
भवाज्झनत्करश्चैव भवांस्तरति संस्मृतम्॥ १,२०६.६॥
भवांल्लिखति ताञ्चक्रे भवाञ्शेतेऽप्यनीदृशः।
भवाण्डीनं त्वन्तरसि त्वङ्करोषि सदार्चनम् ॥ १,२०६.७॥
कश्चरेत्कष्टकारेण क कुर्यात्क फले स्थितः।
कःशेते चैव कःषण्डः कस्को याति च गौरवम्॥ १,२०६.८॥
क इहात्र क एवाहुर्देवा आहुश्च भो व्रज।
स्वभूर्विष्णुर्व्रजति च गीष्पतिश्चैव धूर्पतिः॥ १,२०६.९॥
अस्मानेष व्रजेत्सस्यादृक्साम स च गच्छति ।
कुटीच्छाया तथा छाया सन्धयोऽन्ये तथेदृशाः॥ १,२०६.१०॥
समासाः षट्समाख्याताः स द्विजः कर्मधारयः ।
द्विगुस्त्रिवेदी ग्रामश्च अयं तत्पुरुषः स्मृतः॥ १,२०६.११॥
तत्कृतश्च तदर्थश्च वृकभीतिश्च यद्धनम् ।
ज्ञानदक्षेण तत्त्वज्ञो बहुव्रीहिरथाव्ययी॥ १,२०६.१२॥
भावोऽधिस्त्रि यथोक्तं तु द्वन्द्वो देवर्षिमानवाः ।
तद्धिताः पाण्डवः शैवो ब्राहयं च ब्रह्मतादयः॥ १,२०६.१३॥
देवाग्निसखिपत्यंशुक्रोष्टुस्वायम्भुवः पिता।
ना प्रशस्ताश्चरा गौर्ग्लौरबजन्ताश्च पुंस्यपि॥ १,२०६.१४॥
हलन्तश्चाश्वयुक्क्ष्माभुङ्मरुत्क्रव्यान्मृगाविधः।
आत्मा राजा युवा पन्थाः पूषब्रह्महणौ हली॥ १,२०६.१५॥
विड्वे धा उशनानड्वान्मधुलिट्काष्ठतट्तथा।
बनवार्यस्थिवस्तूनि जगत्सामाहनी तथा॥ १,२०६.१६॥
कर्मसर्पिर्वपुस्तेज अज्झलन्ता नपुंसके।
जाया जरा नदी लक्ष्मीः श्रीस्त्रीभूमिर्वधूरपि॥ १,२०६.१७॥
भ्रूः पुनर्भूस्तथा धेनुः स्वसा माता च नौ स्त्रियः।
वाक्स्रग्दिङ्मुत्क्रुधः प्रायो युवतिः कुकुभस्तथा॥ १,२०६.१८॥
द्योदिवौ प्रावृषश्चैव सुमान उष्णिगस्त्रियाम्।
गुणद्रव्यक्रियायोगात्स्त्रीलिङ्गांश्च वदामि ते॥ १,२०६.१९॥
शुक्लकीलालपाश्चैव शुचिश्च ग्रामणीः सुधीः।
पटुः कमलभूः कर्ता सुमतो बहवः सुनौः॥ १,२०६.२०॥
सत्या नाग्न्यस्तथा पुंसो ह्यभक्षयत दीर्घपात्।
सर्वविश्वोभ ये चोभौ एकोन्यान्यतराणि च॥ १,२०६.२१॥
डतरो डतमो नेमस्त्वः समोऽथ सिमेतरौ ।
पूर्वश्चैवाधरश्चैव दक्षिणश्चोत्तरावरौ ॥१,२०६.२२॥
परश्चान्तरमप्येतद्यत्त्यत्किमदसस्त्विदम्।
युष्मदस्मत्तत्प्रथमचरमाल्पतयार्धकाः॥ १,२०६.२३॥
तथा कतिपयो द्वौ चेत्येवं सर्वादयस्तथा ।
शृणोत्याद्या जुहोतिश्च जहातिश्च दधात्यपि॥ १,२०६.२४॥
दीप्यतिः स्तूयतिश्चैव पुत्त्रीयति धनीयति ।
त्रुट्यति म्रियते चैव चिचीषति निनीषति॥ १,२०६.२५॥
सर्वे तिष्ठन्ति सर्वस्मै सर्वस्मात्सर्वन्तो गतः ।
सर्वेषां चैव सर्वस्मिन्नेवं विश्वादयस्तथा॥ १,२०६.२६॥
पूर्वे पूर्वाश्च पूर्वस्मात्पूर्वस्मिन्पूर्व ईरितः।
सूत उवाच।
सुप्तिङन्तुं सिद्धरूपं नाममात्रेण दर्शितम् ।
कात्यायनः कुमारात्तु श्रुत्वा विस्तरमब्रवीत्॥ १,२०६.२७॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमानाचारदृ नाम षडुत्तरद्विशततमोऽध्यायः
गरुड पुराण सोम वंश प्रकरण-
गरुडपुराणम्/आचारकाण्डः/अध्यायः १३८
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श्रीगरुडमहापुराणम् (१३८)
(इति व्रतानि समाप्तानि) ।
।हरिरुवाच ।
राज्ञां वंशान्प्रवक्ष्यामि वंशानुचरितानि च ।
विष्णुनाभ्यब्जतो ब्रह्मा दक्षोऽङ्गुष्ठाच्च तस्य वै॥ १,१३८.१॥
ततोऽपितर्विवस्वांश्च ततः सूनुर्विवस्वतः मनुरिक्ष्वाकुशर्याती नृगो धृष्टः प्रषध्रकः॥१,१३८.२॥
नरिष्यन्तश्च नाभागो दिष्टः शशक एव च।
मनोरासीदिला कन्या सुद्युम्नोऽस्य सुतोऽभवत्॥ १,१३८.३॥
इलायां तु बुधाज्जातो राजा रुद्र पुरूरवाः ।
सुतास्त्रयश्च सुद्युम्नादुत्कलो विनतो गयः ॥ १,१३८.४ ॥
अभृच्छ्रद्रो गोवधात्तु पृषध्रस्तु मनोः सुतः ।
करूषात्क्षत्त्रिया जाता कारूषा इति विश्रुताः॥ १,१३८.५ ॥
_____________________________________
दिष्टपुत्रस्तु नाभागो वैश्यातामगमत्स च ।
तस्माद्भलन्दनः पुत्रो वत्सप्रीतिर्भलन्दनात् ॥ १,१३८.६ ॥
________________
ततः पांशुः खनित्रोऽभूद्भूपस्तस्मात्ततः क्षुपः ।
क्षुपाद्विंशोऽभवत्पुत्रो विंशाज्जातो विविंशकः ॥ १,१३८.७ ॥
विविंशाच्च खनीनेत्रो विभूतिस्तत्सुतः स्मृतः ।
करन्धमो विभूतेस्तु ततो जातोऽप्यविक्षितः ॥ १,१३८.८ ॥
मरुत्तोऽविक्षितस्यापि नरिष्यन्तस्ततः स्मृतः ।
नरिष्यन्तात्तमो जातस्ततोभूद्राजवर्धनः ॥ १,१३८.९ ॥
राजवर्धात्सुधृतिश्च नरोऽभूत्सुधृतेः सुतः ।
नराच्च केवलः पुत्रः केवलाद्धुन्धुमानपि ॥ १,१३८.१० ॥
धुन्धुमतो वेगवांश्च बुधो वेगवतः सुतः ।
तृणबिन्दुर्बुधाज्जातः कान्या चैलविला तथा ॥ १,१३८.११ ॥
विशालं जनयामास तृणबिन्दोस्त्वलम्बुसा ।
विशालाद्धेमचन्द्रोऽभूद्धेम चन्द्राच्च चन्द्रकः ॥ १,१३८.१२ ॥
धूम्राश्वश्चैव चन्द्रात्तु धूम्राश्वात्सृञ्जयस्तथा ।
सञ्जयात्सहदेवोऽभूत्कृशाश्वस्तत्सुतोऽभवत् ॥ १,१३८.१३ ॥
कृशाश्वात्सोमदत्तस्तुततोऽभूज्जनमेजयः ।
तत्पुत्रश्च सुमन्तिश्च एते वैशालका नृपाः ॥ १,१३८.१४ ॥
_______________________________
शर्यातेस्तु सुकन्याबूत्सा भार्या च्यवनस्य तु ।
अनन्तो नाम शार्यते रनन्ताद्रेवतोऽभवत् ॥ १,१३८.१५ ॥
रैवतो रेवतस्यापि रैवताद्रेवती सुता ।
धृष्टस्य धार्ष्टर्(त) कं क्षेत्रं वैष्णवं (श्यकं) तद्वभूव ह ॥ १,१३८.१६ ॥
नाभागपुत्रो नेष्ठो ह्यम्बरीषोऽपि तत्सुतः ।
अम्बरीषाद्विरूपोऽभूत्पृषदश्वो विरूपतः ॥ १,१३८.१७ ॥
रथीनरश्च तत्पुत्रो वासुदेवपरायणः ।
इक्ष्वाकोस्तु त्रयः पुत्राः विकुक्षिनिमिदण्डकाः ॥१,१३८.१८॥
इक्ष्वाकुजो विकुक्षिस्तु शशादः शशभक्षणात् ।
पुरञ्जयः शशादाच्च ककुत्स्थाख्योऽभवत्सुतः॥ १,१३८.१९ ॥
अनेनास्तु ककुत्सथाच्च पृथुः पुत्रस्त्वनेनसः।
विश्वरातः पृथोः पुत्र आर्द्रेऽभूद्विश्वराततः॥ १,१३८.२०॥
युवनाश्वोऽभवच्चार्द्राच्छावस्तो युवनाश्वतः ।
बृहदश्वस्तुशावस्तात्तत्पुत्रः कुवलाश्वकः॥ १,१३८.२१॥
धुन्धुमारो हि विक्यातो दृढश्वश्चततोऽभवत् ।
चन्द्राश्वः कपिलाश्वश्च हर्यश्वश्च दृढश्वतः॥ १,१३८.२२॥
हर्यश्वाच्च निकुम्बोऽभूद्धिताश्वश्च निकुम्भतः ।
पूजाश्वश्च हिताश्वाच्च तत्सतो युवनाश्वकः॥ १,१३८.२३॥
युवनाश्वाच्च मान्धाता बिन्दुमत्यास्ततोऽभवत् ।
मुचुकुन्दोऽम्बरीषश्च पुरुकुत्सस्त्रयः सुताः॥ १,१३८.२४ ॥
पञ्चाशत्कन्यकाश्चैव भार्यास्ताः सौभरेर्मुनेः ।
युवनाश्वोऽम्बरीषाच्च हरितो युवनाश्वतः ॥ १,१३८.२५ ॥
पुरुकुत्सान्नर्मदायां त्रसदस्युरबूत्सुतः ।
अनरण्यस्ततो जातो हर्यश्वोऽप्यनरण्यतः ॥ १,१३८.२६ ॥
तत्पुत्रोऽभूद्वसुमनास्त्रिधन्वा तस्य चात्मजः ।
त्रय्यारुणस्तस्य पुत्रस्तस्त सत्यरतः सुतः ॥ १,१३८.२७ ॥
यस्त्रिशङ्कुः समाख्यातो हरिश्चन्द्रोऽभवत्ततः ।
हरिश्चन्द्राद्रोहिताश्वो हरितो रोहिताश्वतः ॥ १,१३८.२८ ॥
हरितस्य सुतश्चञ्चुश्चञ्चोश्च विजयः सुतः ।
विजयाद्रुरुको जज्ञे रुरुकात्तु वृकः सुतः ॥ १,१३८.२९ ॥
वृकाद्बाहुर्नृपोऽभूच्च बाहोस्तु सगरः स्मृतः ।
षष्टिः पुत्र सहस्राणि सुमत्यां सगराद्धर ॥ १,१३८.३० ॥
केशिन्यामेक एवासावसमञ्जससंज्ञकः ॥ १,१३८.३१ ॥
_________________________________
तस्यांशुमान्सुतो विद्वान्दिलीपस्तत्सुतोऽभवत्।
भगीरथो दिलीपाच्च यो गङ्गामानयद्भुवम्॥ १,१३८.३२॥
श्रुतो भगीरथसुतो नाभगश्च श्रुतात्किल ।
नाभागादम्बरीषोऽभूत्सिन्दुद्वीपोऽम्बरीषतः॥ १,१३८.३३॥
सिन्दुद्वीपस्यायुतायुरृतुपर्णस्तदात्मजः।
ऋतुषर्णात्सर्वकामः सुदासोऽभूत्तदात्मजः॥ १,१३८.३४॥
सुदासस्य च सौदासो नाम्ना मित्रसहः स्मृतः।
कल्माष पादसंज्ञश्च दमयन्त्यां तदात्मजः॥ १,१३८.३५ ॥
अश्वकाख्योऽभवत्पुत्रो ह्यश्वकान्मूल(न्मृच्छ) कोऽभवत् ।
ततो दशरथो राजा तस्य चैलविलः सुतः॥ १,१३८.३६ ॥
तस्य विश्वसहः पुत्रः खट्वाङ्गश्च तदात्मजः ।
खट्वाङ्गद्दीर्घबाहुश्च दीर्घबाहोर्ह्यजः सुतः॥ १,१३८.३७॥
तस्य पुत्त्रो दशरथश्चत्वारस्तत्सुताः स्मृताः।
रामलक्ष्मणशत्रुघ्नभरताश्च महाबलाः॥१,१३८.३८॥
रामात्कुशलवौ जातौ भरतात्तार्क्षपुष्करौ।
चित्राङ्गदश्चन्द्रकेतुर्लक्ष्मणात्संबभूवतुः॥ १,१३८.३९॥
सुबाहुशूरसेनौ च शत्रुघ्नात्संबभूवतुः।
कुशस्य चातिथिः पुत्रो निषधो ह्यतिथेः सुतः॥ १,१३८.४०॥
निषधस्य नलः पुत्रो नलस्य च नभाः स्मृतः ।
नभसः पुण्डरीकस्तुक्षेमधन्वा तदात्मजः॥ १,१३८.४१॥
देवानीकस्तस्य पुत्रो देवानीकादहीनकः।
अहीनकाद्रुरुर्यज्ञे पारियात्रो रुरोः सुतः॥ १,१३८.४२॥
पारियात्राद्दलो यज्ञे दल पुत्रश्छलः स्मृतः।
छलादुक्थस्ततो ह्युक्थाद्वज्रनाभस्ततो गणः॥ १,१३८.४३॥
उषिताश्वो गणाज्जज्ञे ततो विश्वसहोऽभवत्।
हिरण्यनाभस्तत्पुत्रस्तत्पुत्रः पुष्पकः स्मृतः॥ १,१३८.४४॥
ध्रुवसन्धिरभूत्पुष्पाद्ध्रुवसन्धेः सुदर्शनः।
सुदर्शनादग्निवर्णःपद्मवणोऽग्निवर्णतः॥ १,१३८.४५॥
शीघ्रस्तु पद्मवर्णात्तु शीघ्रात्पुत्रो मरुस्त्वभूत्।
मरोः प्रसुश्रुतः पुत्रस्तस्य चोदावसुः सुतः॥ १,१३८.४६॥
उदावसोर्नन्दिवर्धनः सुकेतुर्नन्दिवर्धनात्।
सुकेतोर्देवरातोऽभूद्वृहदुक्थस्ततः सुतः॥ १,१३८.४७॥
बृहदुक्थान्महावीर्यः सुधृतिस्तस्य चात्मजः ।
सुधृतेर्धृष्टकेतुश्च हर्यश्वो धृष्टकेतुतः॥१,१३८.४८॥
हर्यश्वात्तु मरुर्जातो मरोः प्रतीन्धकोऽभवत् ।
प्रतीन्धकात्कृतिरथो देवमीढस्तदात्मजः ॥ १,१३८.४९ ॥
विबुधो देवमीढात्तु विबुधात्तु महाधृतिः ।
महाधृतेः कीर्तिरातो महारोमा तदात्मजः॥ १,१३८.५०॥
महारोम्णः स्वर्णरोमा ह्रस्वरोमा तदात्मजः ।
सीरध्वजो ह्रस्वरोम्णः तस्य सीताभवत्सुता ॥ १,१३८.५१ ॥
भ्राता कुशध्वजस्तस्य सीरध्वजात्तु भानुमान् ।
शतद्युम्नो भानुमतः शतद्युम्नाच्छुचिः स्मृतः ॥ १,१३८.५२ ॥
ऊर्जनामा शुचेः पुत्रः सनद्वाजस्तदात्मजः ।
सनद्वाजात्कुलिर्जातोऽनञ्जनस्तु कुलेः सुतः ॥ १,१३८.५३ ॥
अनञ्जनाच्च कुलजित्तस्यापि चाधिनेमिकः ।
श्रुतायुस्तस्य पुत्रोऽभूत्सुपार्श्वश्च तदात्मजः॥ १,१३८.५४॥
सुपार्श्वात्सृंजयो जातः क्षेमारिः सृजयात्समृतः ।
क्षेमारि तस्त्वनेनाश्च तस्य रामरथः स्मृतः ॥ १,१३८.५५ ॥
सत्यरथो रामरथात्तस्मादुपगुरुः स्मृतः ।
उपगुरोरुपगुप्तः स्वागतश्चोपगुप्ततः॥१,१३८.५६॥
स्वनरः स्वागताज्जज्ञे सुवर्चास्तस्य चात्मजः ।
सुवर्चसः सुपार्श्वस्तु सुश्रुतश्च सुपार्श्वतः॥ १,१३८.५७॥
जयस्तु सुश्रुताज्जज्ञे जयात्तु विजयोऽभवत् ।
विजयस्य ऋतः पुत्रः ऋतस्य सुनयः सुतः॥ १,१३८.५८॥
सुनयाद्वीतहव्यस्तु वीतहव्याद्धतिः स्मृतः ।
बहुलाश्वो धृतेः पुत्रो बहुलाश्वात्कृतिः स्मृतः॥ १,१३८.५९॥
जनकस्य द्वये वंशे उक्तो योगसमाश्रयः॥ १,१३८.६०॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे सूर्यवंशवर्णनं नामाष्टत्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः
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सोम वश वर्णन- प्रकरण-
गरुडपुराणम्/आचारकाण्डः/अध्यायः (१३९)
श्रीगरुडमहापुराणम् ( १३९)
।हरिरुवाच।
सूर्यस्य कथितो वंशः सोमवंशं शृणुष्व मे ।नारायणसुतो ब्रह्मा ब्रह्मणोऽत्रेः समुद्भवः॥१,१३९.१॥
अत्रेः सोमस्तस्य भार्या तारा सुरगुरोः प्रिया ।सोमात्तरा बुधं जज्ञे बुधपुत्रः पुरूरवाः।१,१३९.२॥
बुधपुत्रादथोर्वश्यां षट्पुत्रास्तु श्रुतात्मकः।विश्वावसुः शतायुश्च आयुर्धोमानमावसुः॥ १,१३९.३॥
अमावसोर्भोमनामा भीमपुत्रश्च काञ्चनः।काञ्चनस्य सुहोत्रोऽभूज्जह्रुश्चाभूत्सुहोत्रतः॥ १,१३९.४॥
जह्नोः सुमन्तुरभवत्सुमन्तोरपजापकः।बलाकाश्वस्तस्य पुत्रो बलाकाश्वात्कुशः स्मृतः॥ १,१३९.५॥
कुशाश्वः कुशनाभश्चामूर्तरयो वसुः कुशात् । गाधिः कुशाश्वात्संजज्ञे विश्वामित्रस्तदात्मजः ॥ १,१३९.६ ॥
कन्या सत्यवती दत्ता ऋचीकाय द्विजाय सा ।ऋचीकाज्जमदाग्निश्च रामस्तस्याभवत्सुतः॥ १,१३९.७ ॥
विश्वामित्राद्देवरातमदुच्छन्दादयः सुताः। आयुषो नहुषस्तस्मादनेना रजिरम्भकौ॥ १,१३९.८॥
क्षत्त्रवृद्धः क्षत्त्रवृद्धात्सुहोत्रश्चाभवन्नृपः।काश्यकाशौगृत्समदः सुहोत्रादभवंस्त्रयः॥ १,१३९.९ ॥
गृत्समदाच्छौन कोऽभूत्काश्याद्दीर्घतमास्तथा । वैद्यो धन्वन्तरिस्तस्मात्केतुमांश्च तदात्मजः ॥ १,१३९.१० ॥
भीमरथः केतुमतो दिवोदासस्तदात्मजः।दिवोदासात्प्रतर्दनः शत्रुजित्सोऽत्र विश्रुतः॥ १,१३९.११ ॥
ऋतध्वजस्तस्य पुत्रो ह्यलर्कश्च ऋतध्वजात् ।अलर्कात्सन्नतिर्जज्ञे सुनीतः सन्नतेः सुतः॥ १,१३९.१२ ॥
सत्यकेतुः सुनीतस्य सत्यकेतोर्विभुः सुतः। विभोस्तु सुविभुः पुत्रः सुविभोः सुकुमारकः॥ १,१३९.१३ ॥
सुकुमाराद्धृष्टकेतुर्वोतिहोत्रस्तदात्मजः। वीतिहोत्रस्य भर्गोऽभूद्भर्गभूमिस्तदात्मजः॥ १,१३९.१४ ॥
वैष्णवाः स्युर्महात्मान इत्येते काशयो नृपाः।पञ्चपुत्रशतान्यासन्रजेः शक्रेण संहृताः॥ १,१३९.१५॥
प्रतिक्षत्त्रः क्षत्त्रवृद्धात्संजयश्च त दात्मजः । विजयः संजयस्यापि विजयस्य कृतः सुतः ॥ १,१३९.१६ ॥
कृताद्वृषधनश्चाभूत्सहदेवस्तदात्मजः ।सहदेवाददीनोऽभूज्जयत्सेनोऽप्यदीनतः ॥ १,१३९.१७ ॥
जयत्सेनात्संकृतिश्च क्षत्त्रधर्मा च संकृतेः।यतिर्ययातिः संयातिरयातिर्विकृतिः क्रमात् ॥ १,१३९.१८ ॥
नहुषस्य सुताः ख्याता ययातेर्नृपतेस्तथा । यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ॥ १,१३९.१९ ॥
द्रुह्युं चानुं च पूरुञ्च शर्मिष्ठा वार्षपार्वणी ।सहस्रजीत्क्रोष्टुमना रघुश्चैव यदोः सुताः ॥ १,१३९.२० ॥
सहस्रजितः शतजित्तस्माद्वै हयहैहयौ । अनरण्यो हयात्पुत्रो धर्मो हैहयतोऽभवत् ॥ १,१३९.२१ ॥
धर्मस्य धर्मनेत्रोऽबूत्कुन्तिर्वै धर्मनेत्रतः । कुन्तेर्बभूत साहञ्जिर्महिष्मांश्च तदात्मजः ॥ १,१३९.२२ ॥
भद्रश्रेण्यस्तस्य पुत्त्रो भद्रश्रेणयस्य दुर्दमः । धनको दुर्दमाच्चैव कृतवीर्यश्च जानकिः ॥ १,१३९.२३ ॥
कृताग्निः कृतकर्मा च कृतौजाः सुमहाबलः ।कृतवीर्यादर्जुनोऽभूदर्जुनाच्छूरसेनकः ॥ १,१३९.२४ ॥
जयध्वजो मधुः शूरो वृषणः पञ्च सव्रताः ।जयध्वजात्तालजङ्घो भरतस्तालजङ्गतः ॥ १,१३९.२५ ॥
वृषणस्य मधुः पुत्त्रो मधोर्वृष्ण्यादिवंशकः ।क्रोष्टोर्विजज्ञिवान्पुत्त्र आहिस्तस्य महात्मनः ॥ १,१३९.२६ ॥
आहेरुशङ्कुः संजज्ञेतस्य चित्ररथः सतः ।शशबिन्दुश्चित्ररथात्पत्न्यो लक्षञ्च तस्य ह ॥ १,१३९.२७ ॥
दशलक्षञ्च पुत्राणां पृथुकीर्त्यादयो वराः ।पृथुकीर्तिः पृथुजयः पृथुदानः पृथुश्रवाः ॥ १,१३९.२८ ॥
पृथुश्रवसोऽभूत्तम उशनास्तमसोऽभवत् । तत्पुत्रः शितगुर्नाम श्रीरुक्मकवचस्ततः ॥ १,१३९.२९ ॥
रुक्मश्च पृथुरुक्मश्च ज्यामघः पालितो हरिः ।श्रीरुक्मकवचस्यैते विदर्भो ज्यामघात्तथा ॥ १,१३९.३० ॥
भार्यायाञ्चैव शैब्यायां विदर्भात्क्रथकौशिकौ ।रोमपादो रोमपादाद्बभ्रुर्बभ्रोर्धृतिस्तथा ॥ १,१३९.३१ ॥
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कौशिकस्य ऋचिः पुत्रः ततश्चैद्यो नृपः किल ।कुन्तिः किलास्य पुत्रोऽभूत्कुन्तेर्वृष्णिः सुतः स्मृतः ॥ १,१३९.३२ ॥
वृष्णेश्च निवृतिः पुत्रो दशार्हे निवृतेस्तथा । दशार्हस्य सुतो व्योमा जीमूतश्च तदात्मजः ॥ १,१३९.३३ ॥
जीमूताद्विकृतिर्जज्ञे ततो भीमरथोऽभवत् । ततो मधुरथो जज्ञे शकुनिस्तस्य चात्मजः॥ १,१३९.३४ ॥
करम्भिः शकुनेः पुत्रस्तस्य वै देववान्स्मृतः।देवक्षत्त्रो देवनतो देवक्षत्त्रान्मधुः स्मृतः॥ १,१३९.३५॥
कुरुवंशो मधोः पुत्रो ह्यनुश्च कुरुवंशतः। पुरुहोत्रो ह्यनोः पुत्रो ह्यंशुश्च पुरुहोत्रतः ॥ १,१३९.३६ ॥
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सत्त्वश्रुतः सुतश्चांशोस्ततो वै सात्त्वतो नृपः।भजिनो भजमानश्च सात्वतादन्धकः सुतः॥ १,१३९.३७ ॥
महाभोजो वृष्णि दिव्यावन्यो देवावृधोऽभवत् ।निमिवृष्णी भजमानादयुताजित्तथैव च ॥ १,१३९.३८ ॥
शतजिच्च सहस्राजिद्बभ्रुर्देवो बृहस्पतिः ।महाभोजात्तु भोजोऽभूत्तद्वृष्णेश्च सुमित्रकः ॥ १,१३९.३९ ॥
स्वधाजित्संज्ञकस्तस्मादनमित्राशिनी तथा।अनमित्रस्य निघ्नोऽभून्निघ्नाच्छत्राजितोऽभवत्॥ १,१३९.४० ॥
प्रसेनश्चापरः ख्यातो ह्यनमित्राच्छिबिस्तथा ।शिबेस्तु सत्यकः पुत्रः सत्यकात्सात्यकिस्तथा ॥ १,१३९.४१ ॥
सात्यकेः सञ्जयः पुत्रः कुलिश्चैव तदात्मजः ।कुलेर्युगन्धरः पुत्रस्ते शैबेयाः प्रकीर्तिताः ॥ १,१३९.४२ ॥
अनमित्रान्वये वृष्णिः श्वफल्कश्चित्रकः सुतः ।श्वफल्काच्चैवगान्दिन्यामक्रूरो वैष्णवोऽभवत् ॥ १,१३९.४३ ॥
उपमद्गुरथाक्रूराद्देवद्योतस्ततः सुतः । देववानुपदेवश्च ह्यक्रूरस्य सुतौ स्मृतौ ॥ १,१३९.४४ ॥
पृथुर्विपृथुश्चित्रस्य त्वन्धकस्य शुचिः स्मृतः । कुकुरो भजमानस्य तथा कम्बलबर्हिषः ॥ १,१३९.४५ ॥
धृष्टस्तु कुकुराज्जज्ञे तस्मात्कापोतरोमकः ।तदात्मजो विलोमा च विलोम्नस्तुम्बुरुः सुतः ॥ १,१३९.४६ ॥
तस्माच्चदुन्दुभिर्जज्ञे पुनर्वसुरतः स्मृतः ।तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकस्य तु ॥ १,१३९.४७ ॥
देवकश्चोग्रसेनश्च देवकाद्देवकी त्वभूत्।वृकदेवोपदेवाच सहदेवा सुरक्षिता॥१,१३९.४८॥
श्रीदेवी शान्तिदेवी च वसुदेव उवाह ताः।देववानुपदेवश्च सहदेवासुतौ स्मृतौ॥१,१३९.४९॥
उग्रसेनस्य कंसोऽभूत्सुनामा च वटादयः। विदूरथो भजमानाच्छूरश्चाभूद्विदूरथात्॥ १,१३९.५० ॥
विदूरथसुतस्याथ सूरस्यापि शमी सुतः ।प्रतिक्षत्त्रश्च शमिनः स्वयम्भोजस्तदात्मजः॥ १,१३९.५१ ॥
हृदिकश्च स्वयम्भोजात्कृतवर्मा तदात्मजः। देवः शतधनुश्चैव शूराद्वै देवमीढुषः॥१,१३९.५२॥
दश पुत्रा मारिषायां वसुदेवादयोऽभवन् । पृथा च श्रुतदेवी च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ॥ १,१३९.५३ ॥
राजाधिदेवो शूराच्च पृथां कुन्तेः सुतामदात् । सा दत्ता कुन्तिना पाण्डोस्तस्यां धर्मानिलेन्द्रकैः॥ १,१३९.५४ ॥
युधिष्ठिरो भीमपार्थो नकुलः सहदेवकः । माद्रयां नासत्यदस्त्राभ्यां कुन्त्यां कर्णः पुराभवत् ॥ १,१३९.५५ ॥
श्रुतदेव्यां दन्तवक्रो जज्ञे वै युद्धदुर्मदः ।सन्तर्दनादयः पञ्च श्रुतकीर्त्याञ्च कैकयात् ॥ १,१३९.५६ ॥
राजाधिदेव्यां जज्ञाते विन्दश्चैवानुविन्दकः। श्रुतश्रवा दमघोषात्प्रजज्ञे शिशुपालकम् ॥ १,१३९.५७ ॥
पौरवी रोहीणा भार्या मदिरानकदुन्दुभेः ।देवकीप्रमुखा भद्रा रोहिण्यां बलभद्रकः ॥ १,१३९.५८ ॥
सारणाद्याः शठश्चैव रेवत्यां बलभद्रतः ।निशठश्चोल्मुको जातो देवक्यां षट्च जज्ञिरे ॥ १,१३९.५९ ॥
कीर्तिमांश्च सुषेणश्च ह्युदार्यो भद्रसेनकः । ऋजुदासो भद्रदेवः कंस एवावधीच्च तान् ॥ १,१३९.६० ॥
संकर्षणः सप्तमोऽभूदष्टमः कृष्ण एव च ।षोडशस्त्रीसहस्राणि भार्याणाञ्चाभवन्हरेः ॥ १,१३९.६१ ॥
रुक्मिणी सत्यभामा च लक्ष्मणा चारुहासिनी ।श्रेष्ठा जाम्बवती चाष्टौ जज्ञिरे ताः सुतान्बहून् ॥ १,१३९.६२ ॥
प्रद्युम्नश्चारुदेष्णश्च प्रधानाः साम्ब एव च ।प्रद्युम्नादनिरुद्धोऽभूत्ककुद्मिन्यां महाबलः ॥ १,१३९.६३ ॥
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अनिरुद्धात्सुभद्रायां वज्रो नाम नृपोऽभवत् ।प्रतिबाहुर्वज्रसुतश्चारुस्तस्य सुतोऽभवत् ॥ १,१३९.६४ ॥
वह्निस्तु तुर्वसोर्वंशे वह्नेर्भर्गोऽभवत्सुतः ।भर्गाद्भानुरभूत्पुत्रो भानोः पुत्रः करन्धमः ॥ १,१३९.६५ ॥
करन्धमस्य मरुतो द्रुह्योर्वंशं निबोध मे । द्रह्योस्तु तनयः सेतुरारद्धश्च तदात्मजः ॥ १,१३९.६६ ॥
आरद्धस्यैव गान्धरो घर्मो गान्धारतोऽभवत् । घृतस्तु घर्मपुत्रोऽभूद्दुर्गमश्च घृस्य तु॥१,१३९.६७॥
प्रचेता दुर्गमस्यैव अनोर्वंशं शृणुष्व मे । अनोः सभानरः पुत्रस्तस्मा कालञ्जयोऽभवत् ॥ १,१३९.६८ ॥
कालञ्जयात्सृञ्जयोऽभूत्सृञ्जयात्तु पुरुञ्जयः ।जनमेजयस्तु तत्पुत्रो महाशालस्तदात्मजः ॥ १,१३९.६९ ॥
महामना महाशालदुशीनर इह स्मृतः ।अशीनराच्छिबिर्जज्ञे वृषदर्भः शिवेः सुतः ॥ १,१३९.७० ॥
महामनोजात्तितिक्षोः पुत्रोऽभूच्च रुषद्रथः । हेमो रुषद्रथाज्जज्ञे सुतपा हेमतोऽभवत् ॥ १,१३९.७१ ॥
बलिः सुतपसो जज्ञे ह्यङ्गवङ्गकलिङ्गकाः । अन्धः पैण्ड्रश्च बालेया ह्यनपानस्तथाङ्गतः ॥ १,१३९.७२ ॥
अनपानाद्दिविरथस्ततो धर्मरथोऽभवत् । रोमपादो धर्मरथाच्चतुरङ्गस्तदात्मजः ॥ १,१३९.७३ ॥
पृथुलाक्षस्तस्य पुत्रश्चम्पोऽभूत्पृथुलाक्षतः ।चम्पपुत्रश्च हर्यङ्गस्तस्य भद्ररथः सुतः ॥ १,१३९.७४ ॥
बृहत्कर्मा सुतस्तस्य बृहद्भानुस्ततोऽभवत् ।बुहन्मना बृहाद्भानोस्तस्य पुत्रो जयद्रथः ॥ १,१३९.७५ ॥
जयज्रथस्य विजयो विजयस्य धृतिः सुतः ।धृतेर्धृव्रतः पुत्रः सत्यधर्मा धृतव्रतात् ॥१,१३९.७६॥
तस्य पुत्रस्त्वधिरथः कर्णस्तस्य सुतोऽभवत् ॥ १,१३९.७७ ॥
वृर्षसेनस्तु कर्णस्य पुरुवंश्याञ्छणुष्व मे ॥ १,१३९.७८ ॥
इति श्रीगारुडे महुपाराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे चन्द्रवंशवर्णनं नामैकोनचत्वारिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः
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गरुडपुराणम्/आचारकाण्डः/अध्यायः (१४०)
श्रीगरुडमहापुराणम् १४०
हरिरुवाच ।
जनमेजयः पुरोश्चाभून्नमस्युर्जनमेजयात् । तस्य पुत्रश्चाभयदः सुद्युश्चाभयदादभूत् ॥ १,१४०.१ ॥
सुद्योर्बहुगतिः पुत्रः संजातिस्तस्य चात्मजः ।वत्सजातिश्च सञ्जातेः रौद्राश्वश्च तदात्मजः ॥ १,१४०.२ ॥
ऋतेयुः स्थण्डिलेयुश्च कक्षेयुश्च कृतेयुकः । जलेयुः सन्ततेयुश्च रोद्राश्वस्य सुता वराः ॥ १,१४०.३ ॥
रतिनार ऋतेयोश्च तस्य प्रतिरथः सुतः । तस्य मेधातिथिः पुत्रस्तत्पुत्रश्चैनिलः स्मृतः ॥ १,१४०.४ ॥
___________________
ऐनिलस्य तु दुष्यन्तो भरतस्तस्य चात्मजः ।शकुन्तलायां संजज्ञे वितथो भरतादभूत् ॥ १,१४०.५ ॥
वितथस्य सुतो मन्युर्मन्योश्चैव नरः स्मृतः । नरस्य संकृतिः पुत्रो गर्गो वै संकृतेः सुतः ॥ १,१४०.६ ॥
_______________________________
गर्गादमन्युः पुत्रो वै शिनिः पुत्रो व्यजायत ।मन्युपुत्रान्महावीर्यात्सुतोऽभवदुरुक्षयः ॥ १,१४०.७ ॥
उरुक्षयात्त्रय्यारुणिर्व्यूहक्षत्राच्च मन्युजात् ।सुहोत्रस्तस्य हस्ती च अजमीढद्विमीढकौ ॥ १,१४०.८ ॥
हस्तिनः पुरुमीढश्च कण्वोऽभूदजमीढतः ।कण्वान्मेधातिथिर्जज्ञे यतः काण्वायना द्विजाः॥ १,१४०.९॥
अजमीढाद्वृहदिषुस्तत्पुत्रश्च बृहद्धनुः। बृहत्कर्मा तस्य पुत्रस्तस्य पुत्रो जयद्रथः ॥ १,१४०.१० ॥
जयद्रथाद्विश्वजिच्च सेनजिच्च तदात्मजः ।रुचिराश्वः सेनजितः पृथुसेनस्तदात्मजः ॥ १,१४०.११ ॥
पारस्तु पृथुसेनस्य पाराद्द्वीपोऽभवन्नृपः । नृपस्य सृमरः पुत्रः सुकृतिश्च पृथोः सुतः ॥ १,१४०.१२ ॥
विभ्राजः सुकृतेः पुत्रो विभ्राजादश्वहोऽभवत् ।कृत्यां तस्माद्ब्रह्मदत्तो विष्वक्सेनस्तदात्मजः ॥ १,१४०.१३ ॥
यवीनरो द्विमीढस्य धृतिमांश्च यवीनरात् । धतिमतः सत्यधृतिर्दृढनेमिस्तदात्मजः ॥ १,१४०.१४ ॥
दृढनेमेः सुपार्श्वोऽभूत्सुपार्श्वात्सन्नतिस्तथा । कृस्तु सन्नतेः पुत्रः कृतादुग्रायुधोऽभवत् ॥ १,१४०.१५ ॥
उग्रायुधाच्च क्षेम्यौऽभूत्सुधीरस्तु तदात्मजः ।पुरञ्जयः सुधीराच्च तस्य पुत्रो विदूरथः ॥ १,१४०.१६ ॥
अजमीढान्नलिन्याञ्च नीलो नाम नृपोऽभवत् ।नीलाच्छान्तिरभूत्पुत्रः सुशान्तिस्तस्य चात्मजः ॥ १,१४०.१७ ॥
सुशान्तेश्च पुरुर्जातो ह्यर्कस्तस्य सुतोऽभवत् ।अर्कस्य चैव हर्यश्वो हर्यश्वान्मुकुलोऽभवत् ॥ १,१४०.१८ ॥
यवीनरो बृहद्भानुः कम्पिल्लः सृञ्जयस्तथा ।पाञ्चालान्मुकुलाज्जज्ञे शरद्वान्वैष्णवो महान् ॥ १,१४०.१९ ॥
दिवोदासो द्वितीयोऽस्य ह्यहल्यायां शरद्वतः ।शतानन्दोऽभवत्पुत्रस्तस्य सत्यधृतिः सतः ॥ १,१४०.२० ॥
कृपः कृपी सत्यधृतेरुर्वश्यां वीर्यहानितः ।द्रोणपत्नी कृपी जज्ञे अश्वत्थामानमुत्तमम् ॥ १,१४०.२१ ॥
दिवोदासान्मित्रयुश्च मित्रयोश्च्यवनोऽभवत् ।सुदासश्च्यवनाज्जज्ञे सौदासस्तस्य जात्मजः ॥ १,१४०.२२ ॥
सहदेवस्तस्य पुत्रः सहदेवात्तु सोमकः । जन्तुस्तु सोमकाज्जज्ञे पृषतश्चापरो महान्॥ १,१४०.२३॥
पृषताद्द्रुपदो जज्ञे धृष्टद्युम्नस्ततोऽभवत् ।धृष्टद्युम्नाद्धृष्टकेतुरृक्षोऽभूतजमीढतः ॥ १,१४०.२४ ॥
ऋक्षात्संवरणो जज्ञे कुरुः संवरणादभूत् । सुधनुश्च पीक्षिच्च जह्नुश्चैव कुरोः सुताः ॥ १,१४०.२५ ॥
सुधनुषः सुहोत्रोऽभूच्च्यवनोऽभूत्सुहोत्रतः ।च्यवनात्कृतको जज्ञे तथोपरिचरो वसुः ॥ १,१४०.२६ ॥
बृहद्रथश्च प्रत्यग्रः सत्याद्याश्च वसोः सुताः ।बृहद्रथात्कुशाग्रश्च कुशाग्रादृषभोऽभवत् ॥ १,१४०.२७ ॥
ऋषभात्पुष्पवांस्तस्माज्जज्ञे सत्यहितो नृपः ।सत्यहितात्सुधन्वाभूज्जह्रुश्चव सुधन्वनः ॥ १,१४०.२८ ॥
बृहद्रथाज्जरासन्धः सहदेवस्तदात्मजः । सहदेवाच्च च सोमापिः सोमापेः श्रुतवान्सुतः ॥ १,१४०.२९ ॥
भीमसेनोग्रसेनौ च श्रुतसेनोऽपराजितः ।जनमेजयस्तथान्योऽभूज्जह्नोस्तु सुरथोऽभवत् ॥ १,१४०.३० ॥
विदूरथस्तु सुरथात्सार्वभौमो विदूरथात् । जयसेनः सार्वभौमादावधीतस्तदात्मजः ॥ १,१४०.३१ ॥
अयुतायुस्तस्य पुत्रस्तस्य चाक्रोधनः सुतः ।अक्रोधनस्यातिथिश्च ऋक्षोऽभूदतिथेः सुतः ॥ १,१४०.३२ ॥
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ऋक्षाच्च भीमसेनोऽभूद्दिलीपो भीमसेनतः ।प्रतीपोऽभूद्दिलीपाच्च देवापिस्तु प्रतीपतः ॥ १,१४०.३३ ॥
शन्तनुश्चैव बाह्लीकस्त्रयस्ते भ्रातरो नृपाः ।बाह्लीकात्सोमदत्तोऽभूद्भूरिर्भूरिश्रवास्ततः ॥ १,१४०.३४ ॥
शलश्च शन्तनोर्भोष्मो गङ्गायां धार्मिको महान् ।चित्राङ्गदविचित्रौ तु सत्यवत्यान्तु शन्तनोः ॥ १,१४०.३५ ॥
भार्ये विचित्रवीर्यस्य त्वम्बिकाम्बालिके तयोः ।धृराष्ट्रं च पाण्डुञ्च तद्दास्यां विदुरन्तथा ॥ १,१४०.३६ ॥
व्यास उत्पादयामास गान्धारी धृतराष्ट्रतः । शतपुत्रं दुर्योधनाद्यं पाण्डोः पञ्च प्रजज्ञिरे ॥ १,१४०.३७॥
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द्रौपदी के पाँच पुत्रों के नाम-
प्रतिबिन्ध्यः श्रुतसोमः श्रुतकीर्तिस्तथार्जुनात् ।शतानीकः श्रुतकर्मा द्रौपद्यां पञ्च वै क्रमात् ॥ १,१४०.३८ ॥
यौधेयी च हिडिम्बा च कौशी चैव सुभद्रिका ।
विजया वै रेणुमती पञ्चभ्यस्तु सुताः क्रमात् ॥ १,१४०.३९ ॥
देवको घचोत्कचश्च ह्यभिमन्युश्च सर्वगः ।
सुहोत्रो निरमित्रश्च परीक्षिदभिमन्युजः ॥ १,१४०.४० ॥
जनमेजयोऽस्य ततो भविष्यांश्च नृपाञ्छृणु ॥ १,१४०.४१ ॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे चन्द्रवंशवर्णनं नाम चत्वारिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः