शुक्रवार, 28 मई 2021
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गुरुवार, 27 मई 2021
केपसूल
Etymology
प्रोटो-इंडो-यूरोपीय मूल का अर्थ है "ठंडा; जमना।"
यह सभी या इसका हिस्सा बनता है: chill; cold; congeal; cool; gel; gelatine; gelatinous; gelato; gelid; glace; glacial; glaciate; glaciation; glacier; glaciology; glacis; jell; jelly.
यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है: लैटिन gelare "जम जाना के लिये," gelu "ठंढ," glacies"बर्फ;" पुरानी अंग्रेज़ीcald "ठंडा, ठंडा," जर्मन kalt.
Borrowed from French gélatine (“jelly, gel”), from Italian gelatina (“jelly, gel”)- जमाना- जड होना।
जिलेटिन (अंग्रेज़ी: Gelatin) रंगहीन, स्वादहीन, भंगुर (सुखने पर) ठोस पदार्थ है जिसका निर्माण जीव-जन्तुओं से प्राप्त उत्पादों में प्राप्त कोलेजन से किया जाता है। जिलेटिन शब्द का निर्माण लेटिन शब्द गिलेक्ट्स (gelatus) से हुआ है जिसका अर्थ 'जमा हुआ' अथवा 'दृढ़' होता है।
जिलेटिन प्रोटीन का एक प्रकार होता है जिसे जानवरों की हड्डी, मांस और टिश्यू से निकले कोलेजन से प्राप्त किया जाता है। जिलेटिन को अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल किया जा सकता है। जिलेटिन का सेवन हेल्थ को कई तरह के लाभ (Benefits of Gelatin) देता है।
जिलेटिन (Gelatin or gelatine) एक पारदर्शी, रंगहीन, स्वाद रहित भोजन घटक होता है जो मुख्य रूप से ग्लाइसिन और प्रोलिन नामक एमिनो एसिड से बना है। यह सामान्यतः हड्डियों, रेशेदार ऊतकों और जानवरों के अंगों से प्राप्त किया जाता है। यह एमिनो एसिड त्वचा, बाल और नाखून के उचित विकास के साथ-साथ प्रतिरक्षा कार्य और वजन के संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
जिलेटिन को अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है। इसे पाउडर, कैप्सूल, जैली और अन्य खाद्य उत्पादों के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। जिलेटिन, प्रोटीन का उत्कृष्ट स्रोत होने के साथ-साथ तांबा, सेलेनियम (selenium) और फॉस्फोरस सहित कई विटामिन, खनिजों (minerals) और कार्बनिक यौगिकों का अच्छा स्रोत है।
यहां से मिलता है जिलेटिन (Source of Gelatin in hindi)
जिलेटिन को जानवर उत्पादों से कोलेजन निकालने के लिए बनाया जाता है। कोलेजन एक रेशेदार प्रोटीन होता है, जो जानवरों में मांसपेशियों, हड्डियों और त्वचा को आपस में जोड़ता है।
इसका प्रयोग बालों की गुणवत्ता में सुधार लाने और खेल से संबंधित चोट का इलाज करने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त जिलेटिन का उपयोग खाद्य पदार्थों, सौंदर्य उत्पादों और दवाइयों के लिए किया जाता है।
विशेष रूप से जिलेटिन में कोलेजन होता है। कोलेजन उन पदार्थों में से एक है जो उपास्थि (cartilage) और हड्डी बनाते हैं। यही कारण है कि कुछ लोग सोचते हैं कि जिलेटिन गठिया और अन्य जोड़ों की स्थितियों में मदद कर सकता है।
सेहत के लिए जिलेटिन के उपयोग (Gelatin Uses for Health in hindi)
- शरीर को कोलेजन प्रदान करने में।
- त्वचा, बाल और नाखून में वृद्धि में मदद।
- सेल्युलाईट में सुधार।
- त्वचा को लोचदार और चमकदार बनाने में।
- मांसपेशियों को मजबूत बनाने में।
- पाचन में सुधार।
- खाद्य उत्पादों, दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों में।
- मार्शमैलो और ड्रग कैप्सूल की कोटिंग में।
जिलेटिन के फायदे (Benefits of Gelatin in hindi)
- वजन कम करने के लिए जिलेटिन (Gelatin for weight loss) का सेवन बहुत फायदेमंद माना जाता है। जब आप जिलेटिन का सेवन करते हैं तो इससे बार बार भूख नहीं लगती है और पेट भरा हुआ महसूस होता है।
- जिन लोगों को घुटनों में या जोड़ों में दर्द की शिकायत होती है वो लोग भी जिलेटिन का सेवन कर सकते हैं। एक शोध के अनुसार जिलेटिन में कोलेजन पाया जाता है जो ऑस्टियोअर्थराइटिस और ऑस्टियोपोरोसिस जैसे हड्डी रोग का कम करता है।
- डायबिटीज से जूझ रहे लोगों के लिए जिलेटिन वरदान माना जाता है। इसमें पाया जाने वाला ओमेगा-3 फैटी एसिड इंसुलिन बनाने में मदद करता है।
- क्योंकि जिलेटिन में प्रोटीन की अच्छी खासी मात्रा होती है इसलिए जिन लोगों को दांत संबंधी समस्याएं होती हैं उनके लिए भी जिलेटिन का सेवन फायदेमंद होता है। जिलेटिन से न सिर्फ दांतों की सड़न दूर होती है बल्कि इससे कैविटी और दांतों के टिश्यू भी एक्टिव होते हैं।
- पाचन संबंधी समस्याओं या पेट संबंधी रोगों से निजात पाने में भी जिलेटिन लाभकारी होता है।
एनिमल जिलेटिन की जगह अब सैलूलोज से बनेगा कैप्सूमद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने दवा कंपनियों को नोटिस जारी करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि अब कैप्सूल कवर एनिमल जिलेटिन की जगह सैलूलोज से बनाया जाए। इसके बाबत सभी को अपनी बात रखने के लिए 6 सप्ताह का समय दिया गया है। भारतीय संविधान की धारा 48 के तहत गौवध पर प्रतिबंध को सख्ती से लागू करने के लिए मंत्रालय ने यह नोटिस जारी किया है। इसी सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में भी आदेश जारी कि या था कि गौवध के नियम को सख्ती से लागू किया जाए। बता दें कि एनिमल जिलेटिन को बनाने में जानवरों के चमड़े और हड्डी का प्रयोग किया जाता है। वहीं, सैलूलोज कवर को प्राकृतिक तरीके से पेड़-पौधों से बनाया जाता है।
एनिमल जिलेटिन कैप्सूल कवर बंद होने पर सैलूलोज कैप्सूल कवर का प्रयोग होगा। इसे एमडीयू (महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय) रोहतक स्थित बायोटेक्नोलाजी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. बसंत कुमार बेहरा द्वारा तैयार किया गया था। अमर उजाला से विशेष बातचीत में डॉ. बेहरा ने बताया कि 2006 में उन्होंने और सुनील मुंदरा ने मिलकर बैंगलूर स्थित नैचुरल कैप्सूल लिमिटेड कंपनी के लिए सैलूलोज कैप्सूल कवर का निर्माण किया था। इसको बनाने के तरीके पर वर्ल्ड हेेल्थ आर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) का भी पेटेंट मिल गया था। भारत में पहली बार यह लांच हुआ, अब यह जरूरी हो जाएगा। कंपनी विदेशों में सैलूलोज कैप्सूल कवर सप्लाई कर रही है, जबकि हिंदुस्तान में एनिमल जिलेटिन कैप्सूल कवर ही प्रयोग हो रहा है। भारतीय फार्माकोपिया के मुताबिक जिलेटिन कवर को दवाई में इस्तेमाल करने के लिए प्रयोग किया जाता है। बता दें कि जिलेटिन फोटोग्राफी प्लेट बनाने में, फूड इंडस्ट्रीज में और मेडिकल कैप्सूल बनाने में प्रयोग होता है।
ये है जिलेटिन और सैलूलोज कैप्सूल कवर
जिलेटिन कैप्सूल कवर गाय और सूअर की हड्डी और चमड़े से बनता है। हड्डी और चमड़े को एसिड में डुबाया जाता है। इस प्रक्रिया में जो पदार्थ नीचे बचता है, उसे जिलेटिन कहते हैं। इसे कैप्सूल कवर के रूप में तैयार किया जाता है। दवा कड़वी होती है, यदि सीधी लेते है तो उल्टी हो जाएगी। इसलिए इसका कवर के रूप में प्रयोग होता है। वहीं, सैलूलोज कैप्सूल कवर शाकाहारी है। यह पेड़ पौधों के सैलूलोज (कोशमय) से बनता है।
जिलेटिन से होती है बीमारियां
जिलेटिन में बोबाइन, संपोजीकोरम, एन्सेफोलापकी (बीएसई) वायरस होता है। यह गाय को पागल बना देता है और उसी का प्रभाव मानव के मस्तिष्क पर पड़ने का खतरा हो सकता है। जिलेटिन कैप्सूल बनाने वाले कारखाने को अत्यधिक प्रदूषित उद्योगों में गिना जाता है, जबकि सैलूलोज कैप्सूल पूर्ण रूप से पेड़ पौधों के सैलूलोज से बनता है। इससे मानव शरीर को कोई नुकसान नहीं होता है। अभी भारत में दो कंपनियां सैलूलोज कैप्सूल बना रही हैं और उनकी बनाने की विधि अंतरराष्ट्रीय नियम व कानून के तहत है।
प्रोटो-इंडो-यूरोपीय मूल का अर्थ है "ठंडा; जमना।"
यह सभी या इसका हिस्सा बनता है: chill; cold; congeal; cool; gel; gelatine; gelatinous; gelato; gelid; glace; glacial; glaciate; glaciation; glacier; glaciology; glacis; jell; jelly.
यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है: लैटिन gelare "जम जाना के लिये," gelu "ठंढ," glacies"बर्फ;" पुरानी अंग्रेज़ीcald "ठंडा, ठंडा," जर्मन kalt.
एनिमल जिलेटिन पर 2001 में फ्रांस में प्रतिबंध लगा था। इसके बाद यूरोप के देशों में इस पर प्रतिबंध लगा। अब इसे भारत में भी प्रतिबंधित करने की तैयारी हो रही है। इसकी प्रक्रिया जारी है।
शिव पुराण रूद्र संहिता युद्ध खण्ड अध्याय (२८) के श्लोक संख्या (२८-२९) मे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के जनम मरण जातक सूचक विधानों के दिवस संख्या-
_यद्यन्नं अत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति ।अनदन्नन्नं अह्नैव न चेत्तस्मिन्गृहे वसेत् ।।5/102 मनुस्मृति_*
पराशरस्मृतिः/तृतीयोध्यायः
← द्वितीयोध्यायः | पराशरस्मृतिः तृतीयोध्यायः पराशरः | चतुर्थोध्यायः → |
अतः शुद्धिं प्रवक्ष्यामि जनने मरणे तथा । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
क्षत्रियो द्वादशाहेन वैश्यः पञ्चदशाहकैः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उपासने तु विप्राणां अङ्गशुद्धिश्च जायते । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जातौ विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एकाहाच्छुध्यते विप्रो योऽग्निवेदसमन्वितः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जन्मकर्मपरिभ्रष्टः संध्योपासनवर्जितः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एकपिण्डास्तु दायादाः पृथग्दारनिकेतनाः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
तावत्तत्सूतकं गोत्रे चतुर्थपुरुषेण तु । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
चतुर्थे दशरात्रं स्यात्षण्णिशाः पुंसि पञ्चमे । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भृग्वग्निमरणे चैव देशान्तरमृते तथा । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
देशान्तरमृतः कश्चित्सगोत्रः श्रूयते यदि । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
देशान्तरगतो विप्रः प्रयासात्कालकारितात् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
कृष्णाष्टमी त्वमावास्या कृष्णा चैकादशी च या । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अजातदन्ता ये बाला ये च गर्भाद्विनिःसृताः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यदि गर्भो विपद्येत स्रवते वापि योषितः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आ चतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पञ्चमषष्ठयोः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आ दन्तजन्मनः सद्य आ चूडान्नैषिकी स्मृता । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ब्रह्मचारी गृहे येषां हूयते च हुताशनः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
संपर्काद्दुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
शिल्पिनः कारुका वैद्या दासीदासाश्च नापिताः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सव्रतः सत्रपूतश्च आहिताग्निश्च यो द्विजः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उद्यतो निधने दाने आर्तो विप्रो निमन्त्रितः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रसवे गृहमेधी तु न कुर्यात्संकरं यदि । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सर्वेषां शावं आशौचं माता पित्रोस्तु सूतकम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यदि पत्न्यां प्रसूतायां संपर्कं कुरुते द्विजः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
संपर्काज्जायते दोषो नान्यो दोषोऽस्ति वै द्विजे । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
विवाहोत्सवयज्ञेषु त्वन्तरा मृतसूतके । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अन्तरा दशाहस्य पुनर्मरणजन्मनी । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ब्राह्मणार्थे विपन्नानां बन्दिगोग्रहणे तथा । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यत्र यत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवेष्टितः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
संन्यस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यस्तु भग्नेषु सैन्येषु विद्रवत्सु समन्ततः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यस्य च्छेदक्षतं गात्रं शरमुद्गरयष्टिभिः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
देवाङ्गनासहस्राणि शूरं आयोधने हतम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
यं यज्ञसंघैस्तपसा च विप्राः स्वर्गैषिणो वात्र यथा यान्ति । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जितेन लभ्यते लक्ष्मीर्मृतेनापि सुराङ्गनाः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
ललाटदेशे रुधिरं स्रवच्च यस्याहवे तु प्रविशेच्च वक्त्रम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनाथं ब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
न तेषां अशुभं किंचित्पापं वा शुभकर्मणाम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
असगोत्रं अबन्धुं च प्रेतीभूतं द्विजोत्तमम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिं अज्ञातिं एव वा । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
क्षत्रियं मृतं अज्ञानाद्ब्राह्मणो योऽनुगच्छति । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
शवं च वैश्यं अज्ञानाद्ब्राह्मणो योऽनुगच्छति । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रेतीभूतं तु यः शूद्रं ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
त्रिरात्रे तु ततः पूर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम् । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
विनिर्वर्त्य यदा शूद्रा उदकान्तं उपस्थिताः । जिस प्रकार आज एक संक्रामक रोग के कारण बहुत से व्यक्तियों को एकांतवास (क्वारंटाइन) या पृथकता (आइसोलेशन) में रहना पड़ रहा है, क्योंकि संक्रामक रोग उनसे किसी अन्य व्यक्ति या संपूर्ण समाज में फैल सकता है, ठीक उसी प्रकार हमारे सनातन धर्म में भी इस प्रकार के संभावित संक्रमण को रोकने के लिए जिस व्यवस्था का अनुपालन किया जाना आवश्यक होता था उसे 'सूतक' कहा जाता है। आइए जानते हैं कि 'सूतक' अर्थात् पृथकता को लेकर हमारे शास्त्रों में क्या निर्देश है? जब परिवार या कुटुंब में भी किसी का जन्म या मृत्यु होती है तब उसके पारिवारिक सदस्यों को 'सूतक' (पृथकता) का अनुपालन करना आवश्यक होता है। शास्त्रों में 'सूतक' (पृथकता) के अनुपालन का निर्देश हैं। किंतु अक्सर 'सूतक' की अवधि को लेकर लोगों के मन में दुविधा रहती है कि 'सूतक' की अवधि कितनी हो अर्थात् 'सूतक' का पालन कितने दिनों तक किया जाए? शास्त्रानुसार शौच दो प्रकार का माना गया है। 1. जनन शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी का जन्म होता है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘जनन शौच’ लगता है। 2. मरण शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी की मृत्यु होती है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘मरण शौच’ लगता है। शास्त्रों के अनुसार उपर्युक्त दोनों ही शौच में 'सूतक' का पालन करना अनिवार्य है। शास्त्रों में 'सूतक' की अवधि को लेकर भी स्पष्ट उल्लेख है। 'जाते विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:। वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥' -(पाराशर स्मृति) जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। अत: इन चतुर्वर्णों को क्रमश: दस, बारह, पंद्रह व एक माह तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए। जो ब्राह्मण वेदपाठी हो, त्रिकाल संध्या करता हो एवं नित्य अग्निहोत्र करता हो ऐसा ब्राह्मण क्रमश: तीन दिन व एक दिन में शुद्ध होता है। शास्त्रानुसार वेदपाठी विप्र तीन दिन में शुद्ध होता है। अत: वेदपाठी ब्राह्मण को तीन दिनों तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए। शास्त्रानुसार शौच दो प्रकार का माना गया है। 1. जनन शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी का जन्म होता है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘जनन शौच’ लगता है। 2. मरण शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी की मृत्यु होती है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘मरण शौच’ लगता है। शास्त्रों के अनुसार उपर्युक्त दोनों ही शौच में 'सूतक' का पालन करना अनिवार्य है। शास्त्रों में 'सूतक' की अवधि को लेकर भी स्पष्ट उल्लेख है। 'जाते विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:। वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥' -(पाराशर स्मृति) जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। अत: इन चतुर्वर्णों को क्रमश: दस, बारह, पंद्रह व एक माह तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए। जो ब्राह्मण वेदपाठी हो, त्रिकाल संध्या करता हो एवं नित्य अग्निहोत्र करता हो ऐसा ब्राह्मण क्रमश: तीन दिन व एक दिन में शुद्ध होता है। शास्त्रानुसार वेदपाठी विप्र तीन दिन में शुद्ध होता है। अत: वेदपाठी ब्राह्मण को तीन दिनों तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए। ये ५।५८-१०४ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ५।५७ श्लोक में कहा है कि ‘प्रेतशुद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च’ । अर्थात् इसके आगे प्रेत - मृत शरीर के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को दूर करने का उपाय कहा जायेगा । और ५।१०५ - १०६ श्लोकों में शुद्धि करने वाले पदार्थों का परिगणन किया । तत्पश्चात् ५।१०९ श्लोक में मृतक के सम्पर्क से होने वाली शारीरिक अशुद्धि का उपाय, मृत्यु के वियोग से दुःखी मानसिक शुद्धि का उपाय बताये गये । इस प्रकार ५।५७ श्लोक की संगति ५।१०५ से ११० तक श्लोकों से ठीक लग जाती है । परन्तु ५।५८ - १०४ तक के श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है और इनमें मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को एक धार्मिक कृत्य के रूप में मनाने की एक ऐसी व्यवस्था लिखी है कि जिससे पूर्वापर का क्रम त्रुटित हो गया है । अन्यथा आवश्यक तो यह था कि अशुद्धि के उपाय बताने के लिये प्रथम शुद्धिकारक पदार्थों का परिगणन करके फिर यह लिखना चाहिये था कि किससे किसकी शुद्धि होती है । और शुद्धि के विषय में कार्यकारण सम्बन्ध का भी ध्यान रखना चाहिये था । अतः ये श्लोक एक भिन्न व्यवस्था के प्रतिपादक हैं और प्रसंग को भंग कर रहे हैं । (ख) मनु जी ने प्रेत शुद्धि की बात ५।५७ में कही है और उसकी परिसमाप्ति ५।११० श्लोक में ‘एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः’ कहकर की है । अतः इन के बीच में शारीरिक - शुद्धि के उपाय न बताकर ‘आशौच’ को एक धार्मिक कृत्य मानकर उसके मानने की अवधियों का निर्धारण किया गया है, जो कि प्रतिज्ञात तथा समाप्ति सूचक वचन से सर्वथा असंगत ही हैं । (ग) और मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होती है, उसमें सपिण्ड, असपिण्ड का भेद क्यों ? जो भी मृतक से सम्पर्क में आया है, वह अशुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, चाहे वह सपिण्ड हो अथवा असपिण्ड । इनकी अशुद्धियों में अन्तर बताना निष्कारण ही है । और यह कैसी निरर्थक बात है कि जो मृतक के सम्पर्क में आया ही नहीं है और बहुत दूर किसी दूसरे स्थान में रहता है, वह भी अपनी जाति वालों की दश दिन बाद भी (५।७७ में) मृत्यु की बात सुनकर अशुद्ध हो जाता है । यदि इस प्रकार मृतक की बात सुनने से ही अशुद्धि हो सकती है, तो इसमें सपिण्ड या असपिण्ड का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो जो भी किसी की मृत्यु का समाचार सुने, वह ही अशुद्ध होना चाहिये । यदि यहां यह कहे कि मृत्यु के वियोग का दुःख तो सपिण्ड को ही होगा, दूसरों को नहीं, तो हमारा उनसे यह प्रश्न है कि मानसिक दुःख से मन की शुद्धि ही बतानी चाहिये, शारीरिक नहीं । अतः शरीर की अशुद्धि की अवधि बताना निरर्थक ही है । और ५।७६ श्लोक में कहा है कि एक वर्ष के पश्चात् भी मृतक का समाचार सुनकर जलस्पर्श करने से शुद्धि हो जाती है । क्या इस भौतिक जल से मानसिक शुद्धि हो सकती है ? जब कि स्वयं मनु ने ५।१०९ वें श्लोक में जल से केवल शरीर की शुद्धि मानी है । इसलिये दूरस्थ व्यक्ति की मृतक - समाचार सुनने से ही शारीरिक - अशुद्धि बताना निष्कारण ही है । (घ) और ५।५७ में प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके प्रेत - शुद्धि ही कहनी चाहिये थी, परन्तु ५।७७ में पुत्र - जन्म से होने वाली अशुद्धि का कथन करना नितान्त असंगत ही है । इसी प्रकार ५।६१, ५।६२ श्लोकों में जन्म सम्बन्धी अशुद्धि कही है । (५।६३) में गर्भाधान से होने वाली अशुद्धि का कथन, ५।६६ में गर्भपातज अशुद्धि और रजस्बला स्त्री की अशुद्धि की बात असंगत ही है । और प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके ५।६८ - ७० श्लोकों में किसको जलाना चाहिये, किसको नहीं, यह एक भिन्न प्रसंग ही कहा गया है । और ५।७२ में अविवाहित स्त्रियों के मरने पर एक विशेष अवधि का कथन युक्तियुक्त नहीं है । मृतक कोई भी हो, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित उसमें भेद करना निरर्थक ही है । (ड) और चारों वर्णों के शरीरों में परमात्मा ने कोई अन्तर नहीं रक्खा है । चाहे ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, सबके शरीर पंच्चभौतिक ही हैं । अतः मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होगी, उसमें वर्णों के भेद से (५।८३) अन्तर मानकर १० दिन, १२ दिन, १५ दिन तथा एक मास में शुद्धि बताना निष्कारण ही है । यह किसी जन्म - परक वर्णव्यवस्था को मानने वाले की दुराग्रह - कल्पना ही है । क्यों कि मनु ने तो कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को मानी है । (च) और इसी प्रकार ५।८० -८२ तक श्लोकों में आचार्य, आचार्य - पुत्र, आचार्य की पत्नी, वेदपाठी, मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बन्धवों की मृत्यु पर भिन्न - भिन्न आशौच की अवधियों का निर्धारण भी निष्कारण ही है । क्यों कि जब इनके पंच्चभौतिक शरीरों में कोई अन्तर नहीं, तो इनके सम्पर्क से होने वाली अशुद्धियों में अन्तर क्यों ? (छ) घर में मृतक पड़ा हो और कोई व्यक्ति किसी व्रत विशेष को कर रहा हो, तो उसके लिये ५।८८ में यह व्यवस्था देना कि व्रत - समाप्ति तक प्रेतोदकक्रिया न करे, व्रत -समाप्ति पर करे, निरर्थक एवं अव्यावहारिक ही हैं । यदि उदक क्रिया का कोई महत्त्व है, तो उसे समस्त कार्य छोड़कर तत्काल ही करना चाहिये । इसी प्रकार ५।८९, ५९० में वर्णसंकर, संन्यासी, आत्महत्यारा, पाखण्डी, स्वैरिणी, गर्भपाती, पतिघाती, शराबी स्त्रियों की उदक क्रिया के निषेध में भी कोई कारण नहीं है । यथार्थ में प्रेत - शुद्धि प्रकरण में यह उदक - क्रिया की बात ही निरर्थक है । (ज) और ५।९२ में कहा है कि चारों वर्णों के मृतकों को नगर के भिन्न - भिन्न द्वारों से ले जायें । यह कथन भी निराधार तथा पक्षपातपूर्ण है । यह जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानने वाले ने निरर्थक कल्पना की है । क्यों कि मृतकों को ले जाने में दिशा - विशेष का कोई महत्त्व नहीं है । और यह कथन अव्यावहारिक भी है ! आज कल बड़े - बड़े महानगरों में प्रथम तो द्वार ही नहीं हैं, और दिशा के आधार पर ले जाने में अत्यधिक व्यर्थ परेशानी ही होगी । (झ) और ५।९३ में मृतक - अशुद्धि से राजा, व्रती तथा यज्ञ करने वाले को मुक्त ही कर दिया है । यह भी निष्कारण ही है, क्या इनके शरीर पंच्चभूतों के नहीं हैं, जो अशुद्ध (मृतक सम्पर्क से) नहीं होते ? और ५।९५ में युद्ध में मृतक, विद्युत् से मरे, गो ब्राह्मण के लिये मरे, और जिसको राजा चाहे, उसका आशौच तुरन्त बताना भी निराधार ही है । और ५।९९ में फिर जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानकर कहा है कि ब्राह्मण जल को छूकर, क्षत्रिय सवारी व शस्त्र को छूकर, वैश्य रास को छूकर और शूद्र छड़ी को छूकर ही शुद्ध हो जाता है । मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि का रथ, शस्त्र, छड़ी रासादि से क्या सम्बन्ध है, जो ये स्पर्शमात्र से ही शुद्ध कर देते हैं ? इसे आपद्धर्म भी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि मनु जी ने आपद्धर्मों का एक पृथक् अध्याय में वर्णन किया है । (ञ) और ५।९६, ९७ श्लोकों में चन्द्रादि आठ लोकपालों का कथन भी मिथ्या ही किया है । क्यों कि इन्द्र, कुबेरादि लोकपालों की कल्पना निरर्थक ही है यथार्थ नहीं । इत्यादि शब्दों से सूर्यादि भौतिक शक्तियों के ग्रहण से यदि अभिप्राय माना जाये, तो भी ठीक नहीं । क्यों कि इन लोक पालों की कल्पना करने वाले इन के स्थान - विशेष मानकर शरीरधारी देवविशेष मानते हैं । यथार्थ में भौतिक देव तो जड़ हैं, वे ईश्वर की व्यवस्था से कार्य कर रहे हैं, उनकी शुद्धि व अशुद्धि से मुक्ति नहीं माना जा सकता है । और इनके आश्रय से राजा को अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं होता । क्यों कि राजा का शरीर भी दूसरे मनुष्यों की भांति ही है, अतः राजा भी मृतक के सम्पर्क से अशुद्धि से नहीं बच सकता । इस प्रकार इन श्लोकों की शैली अयुक्तियुक्त, पक्षपातपूर्ण, निराधार तथा असंगत है, अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं । ये ५।५८-१०४ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ५।५७ श्लोक में कहा है कि ‘प्रेतशुद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च’ । अर्थात् इसके आगे प्रेत - मृत शरीर के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को दूर करने का उपाय कहा जायेगा । और ५।१०५ - १०६ श्लोकों में शुद्धि करने वाले पदार्थों का परिगणन किया । तत्पश्चात् ५।१०९ श्लोक में मृतक के सम्पर्क से होने वाली शारीरिक अशुद्धि का उपाय, मृत्यु के वियोग से दुःखी मानसिक शुद्धि का उपाय बताये गये । इस प्रकार ५।५७ श्लोक की संगति ५।१०५ से ११० तक श्लोकों से ठीक लग जाती है । परन्तु ५।५८ - १०४ तक के श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है और इनमें मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को एक धार्मिक कृत्य के रूप में मनाने की एक ऐसी व्यवस्था लिखी है कि जिससे पूर्वापर का क्रम त्रुटित हो गया है । अन्यथा आवश्यक तो यह था कि अशुद्धि के उपाय बताने के लिये प्रथम शुद्धिकारक पदार्थों का परिगणन करके फिर यह लिखना चाहिये था कि किससे किसकी शुद्धि होती है । और शुद्धि के विषय में कार्यकारण सम्बन्ध का भी ध्यान रखना चाहिये था । अतः ये श्लोक एक भिन्न व्यवस्था के प्रतिपादक हैं और प्रसंग को भंग कर रहे हैं । (ख) मनु जी ने प्रेत शुद्धि की बात ५।५७ में कही है और उसकी परिसमाप्ति ५।११० श्लोक में ‘एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः’ कहकर की है । अतः इन के बीच में शारीरिक - शुद्धि के उपाय न बताकर ‘आशौच’ को एक धार्मिक कृत्य मानकर उसके मानने की अवधियों का निर्धारण किया गया है, जो कि प्रतिज्ञात तथा समाप्ति सूचक वचन से सर्वथा असंगत ही हैं । (ग) और मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होती है, उसमें सपिण्ड, असपिण्ड का भेद क्यों ? जो भी मृतक से सम्पर्क में आया है, वह अशुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, चाहे वह सपिण्ड हो अथवा असपिण्ड । इनकी अशुद्धियों में अन्तर बताना निष्कारण ही है । और यह कैसी निरर्थक बात है कि जो मृतक के सम्पर्क में आया ही नहीं है और बहुत दूर किसी दूसरे स्थान में रहता है, वह भी अपनी जाति वालों की दश दिन बाद भी (५।७७ में) मृत्यु की बात सुनकर अशुद्ध हो जाता है । यदि इस प्रकार मृतक की बात सुनने से ही अशुद्धि हो सकती है, तो इसमें सपिण्ड या असपिण्ड का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो जो भी किसी की मृत्यु का समाचार सुने, वह ही अशुद्ध होना चाहिये । यदि यहां यह कहे कि मृत्यु के वियोग का दुःख तो सपिण्ड को ही होगा, दूसरों को नहीं, तो हमारा उनसे यह प्रश्न है कि मानसिक दुःख से मन की शुद्धि ही बतानी चाहिये, शारीरिक नहीं । अतः शरीर की अशुद्धि की अवधि बताना निरर्थक ही है । और ५।७६ श्लोक में कहा है कि एक वर्ष के पश्चात् भी मृतक का समाचार सुनकर जलस्पर्श करने से शुद्धि हो जाती है । क्या इस भौतिक जल से मानसिक शुद्धि हो सकती है ? जब कि स्वयं मनु ने ५।१०९ वें श्लोक में जल से केवल शरीर की शुद्धि मानी है । इसलिये दूरस्थ व्यक्ति की मृतक - समाचार सुनने से ही शारीरिक - अशुद्धि बताना निष्कारण ही है । (घ) और ५।५७ में प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके प्रेत - शुद्धि ही कहनी चाहिये थी, परन्तु ५।७७ में पुत्र - जन्म से होने वाली अशुद्धि का कथन करना नितान्त असंगत ही है । इसी प्रकार ५।६१, ५।६२ श्लोकों में जन्म सम्बन्धी अशुद्धि कही है । (५।६३) में गर्भाधान से होने वाली अशुद्धि का कथन, ५।६६ में गर्भपातज अशुद्धि और रजस्बला स्त्री की अशुद्धि की बात असंगत ही है । और प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके ५।६८ - ७० श्लोकों में किसको जलाना चाहिये, किसको नहीं, यह एक भिन्न प्रसंग ही कहा गया है । और ५।७२ में अविवाहित स्त्रियों के मरने पर एक विशेष अवधि का कथन युक्तियुक्त नहीं है । मृतक कोई भी हो, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित उसमें भेद करना निरर्थक ही है । (ड) और चारों वर्णों के शरीरों में परमात्मा ने कोई अन्तर नहीं रक्खा है । चाहे ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, सबके शरीर पंच्चभौतिक ही हैं । अतः मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होगी, उसमें वर्णों के भेद से (५।८३) अन्तर मानकर १० दिन, १२ दिन, १५ दिन तथा एक मास में शुद्धि बताना निष्कारण ही है । यह किसी जन्म - परक वर्णव्यवस्था को मानने वाले की दुराग्रह - कल्पना ही है । क्यों कि मनु ने तो कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को मानी है । (च) और इसी प्रकार ५।८० -८२ तक श्लोकों में आचार्य, आचार्य - पुत्र, आचार्य की पत्नी, वेदपाठी, मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बन्धवों की मृत्यु पर भिन्न - भिन्न आशौच की अवधियों का निर्धारण भी निष्कारण ही है । क्यों कि जब इनके पंच्चभौतिक शरीरों में कोई अन्तर नहीं, तो इनके सम्पर्क से होने वाली अशुद्धियों में अन्तर क्यों ? (छ) घर में मृतक पड़ा हो और कोई व्यक्ति किसी व्रत विशेष को कर रहा हो, तो उसके लिये ५।८८ में यह व्यवस्था देना कि व्रत - समाप्ति तक प्रेतोदकक्रिया न करे, व्रत -समाप्ति पर करे, निरर्थक एवं अव्यावहारिक ही हैं । यदि उदक क्रिया का कोई महत्त्व है, तो उसे समस्त कार्य छोड़कर तत्काल ही करना चाहिये । इसी प्रकार ५।८९, ५९० में वर्णसंकर, संन्यासी, आत्महत्यारा, पाखण्डी, स्वैरिणी, गर्भपाती, पतिघाती, शराबी स्त्रियों की उदक क्रिया के निषेध में भी कोई कारण नहीं है । यथार्थ में प्रेत - शुद्धि प्रकरण में यह उदक - क्रिया की बात ही निरर्थक है । (ज) और ५।९२ में कहा है कि चारों वर्णों के मृतकों को नगर के भिन्न - भिन्न द्वारों से ले जायें । यह कथन भी निराधार तथा पक्षपातपूर्ण है । यह जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानने वाले ने निरर्थक कल्पना की है । क्यों कि मृतकों को ले जाने में दिशा - विशेष का कोई महत्त्व नहीं है । और यह कथन अव्यावहारिक भी है ! आज कल बड़े - बड़े महानगरों में प्रथम तो द्वार ही नहीं हैं, और दिशा के आधार पर ले जाने में अत्यधिक व्यर्थ परेशानी ही होगी । (झ) और ५।९३ में मृतक - अशुद्धि से राजा, व्रती तथा यज्ञ करने वाले को मुक्त ही कर दिया है । यह भी निष्कारण ही है, क्या इनके शरीर पंच्चभूतों के नहीं हैं, जो अशुद्ध (मृतक सम्पर्क से) नहीं होते ? और ५।९५ में युद्ध में मृतक, विद्युत् से मरे, गो ब्राह्मण के लिये मरे, और जिसको राजा चाहे, उसका आशौच तुरन्त बताना भी निराधार ही है । और ५।९९ में फिर जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानकर कहा है कि ब्राह्मण जल को छूकर, क्षत्रिय सवारी व शस्त्र को छूकर, वैश्य रास को छूकर और शूद्र छड़ी को छूकर ही शुद्ध हो जाता है । मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि का रथ, शस्त्र, छड़ी रासादि से क्या सम्बन्ध है, जो ये स्पर्शमात्र से ही शुद्ध कर देते हैं ? इसे आपद्धर्म भी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि मनु जी ने आपद्धर्मों का एक पृथक् अध्याय में वर्णन किया है । (ञ) और ५।९६, ९७ श्लोकों में चन्द्रादि आठ लोकपालों का कथन भी मिथ्या ही किया है । क्यों कि इन्द्र, कुबेरादि लोकपालों की कल्पना निरर्थक ही है यथार्थ नहीं । इत्यादि शब्दों से सूर्यादि भौतिक शक्तियों के ग्रहण से यदि अभिप्राय माना जाये, तो भी ठीक नहीं । क्यों कि इन लोक पालों की कल्पना करने वाले इन के स्थान - विशेष मानकर शरीरधारी देवविशेष मानते हैं । यथार्थ में भौतिक देव तो जड़ हैं, वे ईश्वर की व्यवस्था से कार्य कर रहे हैं, उनकी शुद्धि व अशुद्धि से मुक्ति नहीं माना जा सकता है । और इनके आश्रय से राजा को अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं होता । क्यों कि राजा का शरीर भी दूसरे मनुष्यों की भांति ही है, अतः राजा भी मृतक के सम्पर्क से अशुद्धि से नहीं बच सकता । इस प्रकार इन श्लोकों की शैली अयुक्तियुक्त, पक्षपातपूर्ण, निराधार तथा असंगत है, अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं । मनुस्मृतिः/पञ्चमोध्यायः
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