बुधवार, 13 जनवरी 2021

सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं । नियमों में भी अक्सर 'रोहि' अपवाद होते हैं ।।

                      (प्रथम चरण)
अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत जब ग़ुम थी ।
उजाले  इल्म के भी होंगे ! 
हमारे विरोधियों को  न ये मालुम थी ।।
धड़कने थम जाने पर 
श्वाँसें कब चलती हैं ?
–बहारे गुजर जाती  जहाँ 
रोहि खामोशियाँ मचलती हैं !
-संवाद शैली से तेरी भावनाऐं 
प्रतिबिम्बित हो गयी हैं
शब्दों से न हमको भरमा 
तेरी वारगाह से अब मेरी वफाऐं निलम्बित हो गयी हैं 
जो लोग  ऐसा करते हैं ! 
वे कभी हमारे निष्कर्षों पर नहीं पहुँचना चाहते हैं ।
ब्राह्मणों के ग्रन्थों में पूर्व काल में सत्य प्रतिष्ठित था  क्योंकि लोग आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत और संयमी प्रवृत्तियों से समन्वित थे ।
'परन्तु काल के प्रवाह में आध्यात्मिक गंगाजल की  स्वच्छ धाराओं के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड जनित गन्दगी भी आयी वही गन्दिगी मिलाबट के जोड़ तोड़ के रूप में तब्दील हुई ।
ऐसा इसलिये भी हुआ क्यों कि संयम और आध्यात्मिक भावों के लोप होने से पुरोहितों में भोग -लिप्सा
स्वार्थ और झूँठी शान -शौकत और समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की मंशा लम्बे समय तक रहीं 
पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा ।
  
                       (द्वितीय चरण)
यह वह दौर था जब धर्म के नाम पर जुल्म घनघोर था
गिरने वाले उठ रहे थे और उठने वाले गिर रहे थे ।
और जो कालान्तरण में धर्मशास्त्रों स्मृति आदि ग्रन्थों में 
इतिहास की गाथाओं थीं कल्पनाओं की परतें उनपर चढ़ती गयी और सत्य परतों कि सघनता में विलुप्त हो गया । वृहद्रथ की मौत के बाद !
पुन: पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में बौद्धों, जैनों और अन्य के विरोध स्वरूप  ब्राह्मणीय वर्चस्व के पुनरोत्थान के लिए पतंजलि आदि पुरोहितों के साथ वैदिक कर्म काण्डों की प्रतिष्ठा हुई ।
यद्यपि ब्राह्मणों का एक धड़ा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का स्थापन अपने तप और साधना की परिणति के रूप में कर रहा था ।
उसे वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण वाद या 'कर्म'काण्ड मूलक विधियों से कोई मतलब नहीं था ।
'परन्तु कुछ ब्राह्मण बौद्धों जैनों और भागवत धर्म के अनुयायीयों से अपने अपने स्तर से मुकाबला कर रहे थे ।ग्रन्थों का लेखन भी हुआ !
मिलाबट हुई तो वही असत्य है ।
क्योंकि जो तथ्य पूर्व कल में सत्य थे उनमें पूर्वाग्रह एक निष्कर्ष के तौर पर समाविष्ट हुए । 
वे यथावत ही नहीं बने रहे उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई ये वक्त के खण्डरों में दफन है ।


                          (तृतीय चरण)
जैसा कोई कपड़ा अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं की अवस्थाओं में नवीन और अन्तिम क्रियाओं में जीर्ण और शीर्ण हो जाता है ।
इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों में हुआ 'परन्तु मिलाबट के बावजूद  भी बहुत सी बाते सत्य हैं ।
क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी कुनिशानियाँ तो छोड़ती है ।
जैसे फूलो से रस को मधुमक्खीयाँ सहजता से निकालती हैं और मोम 🐧 अलग छोड़ देती हैं ।
उसी प्रकार  हमने भी इन ब्राह्मण ग्रन्थों से कुछ तथ्य निकाले हैं ।
अच्छाइयों और बुराईयों को प्रस्तुत करना समीक्षात्मक शैली है । 
और हमने यही अपनायी 
हमने कभी कोई भी निर्णय या निष्कर्ष स्थापित नहीं किया क्योंकि इसमें पूर्वाग्रह का समायोजन होता है ।
अधिकतर हमारे लेख इसी प्रकार के होते हैं ।
कारण यह है कि हम निर्णय पाठकों से आमन्त्रित करते हैं ।
इसी लिए कुछ पाठक- वृन्द प्राय: शिकायत करते हैं कि वे हमारी पोष्ट पढ़कर कन्फ्यूज होते हैं 
और कोई कोई तो बैचारा फ्यूज हो जाता है ।
वास्तव में हमारी पोष्ट सब के लिए नहीं जिसका जैसा बौद्धिक स्तर वह वहीं तक पहुँच पाता है।

                          (चतुर्थ चरण)
हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व चौंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या १-२-३- पर  यदुवंशीयों के उत्पत्ति सन्दर्भ में ये श्लोक हैं 👇
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गान्धारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्य्ये बभूवतु: ।
गान्धारी जनयामास अनमित्रं महाबलम् ।।१।

अर्थात् क्रोष्टा की गांधारी और माधुरी नाम की दो पत्नियां थी ; गांधारी के गर्व से महाबली अनमित्र उत्पन्न हुए ।१।
माद्री युधाजितं पुत्रं ततो८न्यं देवमीढुषम् ।
तेषां वंशस्त्रिधा भूतो वृष्णीनां कुलवर्धनं ।। २।

माद्री के पुत्र युधाजित और दूसरे पुत्र देवमीढुष हुए वृष्णियों के कुल को बढ़ाने वाला उनका वंश तीन शाखाओं में बँट गया ।२।

माद्र्या: पुत्रस्य जज्ञाते सुतौ वृष्ण्यन्धकावुभौ ।
जज्ञाते तनयौ वृष्णे: श्वफलकश्चित्रकस्तथा ।३।।

माद्री के पुत्र युधाजित वृष्णि (वृष्णि वंश में उत्पन्न दूसरा वृष्णि) और अन्धक नाम के दो पुत्र हुए और वृष्णि के पुत्र स्वफलक और चित्रक हुए ।३।

                        (पञ्चम चरण)
विदित हो कि बारहसैनी बनिया जो बरसाने से सम्बद्ध हैं उनके पूर्वज भी यही युधाजित के पुत्र वृष्णि हैं ।।
गीताप्रेस गोरखपुर के संस्करण में एक श्लोक स्थानान्तिरित या हटा दिया गया  है- 
वर्तमान में इतना ही श्लोक है ।
अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः । 
महिष्यां जज्ञिरे शूराद् भोज्यायां पुरुषा दश ॥ १७ ॥ 
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वम् आनकदुन्दुभिः । 
जज्ञे यस्य प्रसूतस्य दुन्दुभ्यः प्रणदन् दिवि ॥ १८ ॥ 
आनकानां च संह्रादः सुमहानभवद् दिवि । 
पपात पुष्पवर्षं च शूरस्य भवने महत् ॥ १९ ॥
मनुष्यलोके कृत्स्नेऽपि रूपे नास्ति समो भुवि ।
यस्यासीत् पुरुषाग्रस्य कान्तिश्चन्द्रमसो यथा ॥ २० 
देवभागस्ततो जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः । 
अनाधृष्टिः कनवको वत्साअवानथ गृञ्जिमः ॥ २१ ॥ श्यामः शमीको गण्डूषः पञ्च चास्य वराङ्गनाः । 
पृथुकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवा श्रुतश्रवाः ॥ २२ ॥ 
राजाधिदेवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः । 
पृथां दुहितरं वव्रे कुन्तिस्तां कुरुनन्दन ॥ २३ ॥ 
शूरः पूज्याय वृद्धाय कुन्तिभोजाय तां ददौ ।
तस्मात् कुन्तीति विख्याता कुन्तिभोजात्मजा पृथा २४ ॥ 
               
                    (षष्ठ चरण)
अन्त्यस्य श्रुतदेवायां जगृहुः सुषुवे सुतः । 
श्रुतश्रवायां चैद्यस्य शिशुपालो महाबलः ॥ २५॥ 
हिरण्यकशिपुर्योऽसौ दैत्यराजोऽभवत् पुरा । 
पृथुकीर्त्यां तु तनयः संजज्ञे वृद्धशर्मणः ॥ २६ ॥ 
करूषाधिपतिर्वीरो दन्तवक्त्रो महाबलः । 
पृथां दुहितरं चक्रे कुन्तिस्तां पाण्डुरावहत् ॥ २७॥ 
यस्यां स धर्मविद् राजा धर्माज्जज्ञे युधिष्ठिरः । 
भीमसेनस्तथा वातादिन्द्राच्चैव धनञ्जयः ॥ २८॥ 
लोकेऽप्रतिरथो वीरः शक्रतुलयपराक्रमः । 
अनमित्राच्छिनिर्जज्ञे कनिष्ठाद् वृष्णिनन्दनात् ॥ २९॥ शैनेयः सत्यकस्तस्माद् युयुधानश्च सात्यकिः ।
असङ्गो युयुधानस्य भूमिस्तस्याभवत् सुतः ॥ ३०॥ 
भूमेर्युगधरः पुत्र इति वंशः समाप्यते । 
उद्धवो देवभागस्य महाभागः सुतोऽभवत् । 
पण्डितानां परं प्राहुर्देवश्रवसमुद्भवम् ॥ ३१ ॥ 
अश्मक्यां प्राप्तवान् पुत्रमनाधृष्टिर्यशस्विनम् । 
निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं देवश्रवा व्यजायत ॥ ३२ ॥ 
देवश्रवाः प्रजातस्तु नैषादिर्यः प्रतिश्रुतः । 
एकलव्यो महाराज निषादैः परिवर्धितः ॥ ३३॥ 
वत्सावते त्वपुत्राय वसुदेवः प्रतापवान् । 
अद्भिर्ददौ सुतं वीरं शौरिः कौशिकमौरसम् ॥ ३४॥ 
गण्डूषाय त्वपुत्राय विष्वक्सेनो ददौ सुतान् । 
चारुदेष्णं सुचारुं च पञ्चालं कृतलक्षणम् ॥ ३५॥ 

                    
                   ( सप्तम चरण )
असंग्रामेण यो वीरो नावर्तत कदाचन ।                   
रौक्मिणेयो महाबाहुः कनीयान् पुरुषर्षभ ॥ ३६॥ 

वायसानां सहस्राणि यं यान्तं पृष्ठतोऽन्वयुः । 
चारुमांसानि भोक्ष्यामश्चारुदेष्णहतानि तु॥३७॥ 

तन्द्रिजस्तन्द्रिपालश्च सुतौ कनवकस्य तु । 
वीरश्चाश्वहनश्चैव वीरौ तावावगृञ्जिमौ ॥ ३८॥
श्यामपुत्रः शमीकस्तु शमीको राज्यमावहत् । 
जुगुप्समानौ भोजत्वाद् राजसूयमवाप सः । 
अजातशत्रुः शत्रूणां जज्ञे तस्य विनाशनः ॥ ३९॥ 

वसुदेवसुतान् वीरान् कीर्तयिष्यामि ताञ्छृणु ॥४०॥ 

वृष्णेस्त्रिविधमेतत् तु बहुशाखं महौजसम् । 
धारयन् विपुलं वंशं नानर्थैरिह युज्यते ॥ ४१ ॥ 

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि 
वृष्णिवंशकीर्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः 

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                     ( अष्टम चरण )
'परन्तु वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में 
ये श्लोक इस प्रकार हैं 
देवमीढुष पुल्लिंग :- हृदीकस्य पुत्रभेदे “तस्यापि (हृदीकस्यापि)
कृतवर्मशतधनुर्देवमीढुषाद्याः पुत्रा बभूवु” श्रीधर कृत

( २) देवमीढे वसुदेवपितामहे च “अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः ।
 महिष्यां जज्ञिरे शूराद्भोज्याषां पुरुषा दश । १७।।
 वसुदेवो महाबाहुः पर्वमानकदुन्दुभिः” इत्यादि
(हरिवशं पर्व ३५ अध्याय ।
क्रोष्टुवंश्ये तिस्र नृपभेदे ✍💞
गान्धारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्य्ये बभूवतुः । 
गान्धारी जनयामास अनासत्रं
महाबलम् ।१।।
 माद्री युधाजितं पुत्रं ततोऽन्यं देवमीढुषम् । 
तेषां वंशस्त्रिधा भूतो वृष्णीनां कुलवर्द्धनः।२।
हरिवंश पर्व  ३५ अध्याय ।
विस्तार भय के कारण हम केवल यहाँ  हिन्दी अनुवाद सत्रहवें और उन्नीसवें श्लोकों का प्रस्तुत कर रहे हैं ...क्रोष्टा के तृतीय पुत्र देवमीढुष के अशमकी नाम की पत्नी से शूर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ;




                       (नवम चरण)
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 शूर के इस भोजराजकुमारी से दश पुत्र उत्पन्न हुए ।17।
शूर के पहले वसुदेव महाबाहू उपनाम आनकदुन्दुभी  उत्पन्न हुए ( इनके उत्पन्न होने पर आकाश में दुन्दुभियाँ बजीं थीं तथा स्वर्ग या आकाश में नगाड़ों का भारी शब्द हुआ इसी कारण वसुदेव का  अन्य  नाम आनकदुन्दुभी पड़ा। 
साथ ही इनके शूर के घर में उत्पन्न होने पर भारी वर्षा हुई थी। ।19 ।
इन दौनों उपर्युक्त श्लोकों में  ये निम्नलिखित श्लोकांश नहीं हैं।
जो मध्वाचार्य ( माधवाचार्य)की भागवत टीका पर आधरित हैं ।


                          (दशम चरण)
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ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधरित हैं 👇शास्त्रों के मर्मज्ञ इतर विद्वानों ने जिसका भाष्य किया है देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता: ।
अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।
अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं ।
अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप के  हुईं ।१।
अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।
सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया
और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य: यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए 
अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३
पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।
 ये गोपालनं  कर्तृभ्यः लोके गोपारुच्यन्ते ४
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए 
ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।

                      
                   ( एकादश चरण )
गौपालनेन गोपा: निर्भीकेभ्यश्च  आभीरा ।
यादवा लोकेषु वृत्तिभि: प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।।

गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर
यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं ५
आ समन्तात् भियं राति ददीति ।
शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति ।६।

 शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६
अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।
वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।।७।

अर्थ:- ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है )उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।७
ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।
भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।
अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का 
ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।




                     (बहु एकादश चरण)
"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९।। 
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अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है ,
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।९।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है ।
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                    (द्वादश चरण)
अपिच  👇" विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
               ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् 
              स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद--१०/२८/१
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ऋषि पत्नी कहती है !  कि   देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )
और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )प्रस्तुत सूक्त में अरि: युद्ध के देव वाचक है ।
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।
सैमेटिक संस्कृति में "एल " एलोहिम तथा इलाह इसी के  विकसित है ।यूनानी पुराणों में अरीज् युद्ध का ही देवता है ।हिब्रूू बाइबिल में यहुदह् (Yahuda) के पिता को अबीर कहा गया है और अबीर शब्द ईश्वर का  बाचक है हिब्रूू बाइबिल में ...विशेष :- लौकिक संस्कृत भाषा में अरि शब्द के अर्थ १-शत्रु २- पहिए का अरा ३- घर भी है । जबकि वैदिक कालीन भाषा में अरि का अर्थ ईश्वर और घर ही है ।

                      ( त्रयोदश चरण)
देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे ।
देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
अन्धकस्य सुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव :
रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८। 
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है ।
 रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 
तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।४९
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,
और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे ।
जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।
वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।
यदु प्रवीण: प्रख्याता  लोकपाला इवापरे ।।५०।
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सत्य प्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु
 ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए ।
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                        *(चतुर्दश चरण)*
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
👇-💐☘
  देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।
चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रो८न्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।
तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।

                        (पञ्चदश चरण)
लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र हुए ।
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 प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये ।
 द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा 
तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।
देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।
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 देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम्  तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।।
तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।
नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी ।और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।
उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं ।
उपनन्द बडे़ थे ।
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                             (षष्ठादश)
__________________________________               माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-
माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैमात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति 
ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमो८थ गोप इति प्राहु।५७।
 एवमन्ये८पि गोपा यादवविशेष: 
एव वैश्योद् भवत्वात् ।अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)
अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।
पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति 
भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)


                    (सप्तदशचरण)

संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।
यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । 
इति मेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे  अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 


                     (अष्टादश चरण)
सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।
 नियमों में भी अक्सर  'रोहि' अपवाद होते हैं।
 कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे। नियम भी सिद्धान्तों का तभी, जाके अनुवाद होते हैं ।
 महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में 
 चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं।।__________________________________________
भारतीय इतिहास के कुछ पूर्वाग्रह 
इसी सन्दर्भ विवेचना 
कुछ शब्दों की जैसे (राम, शूद्र, सेवक, दास और आर्य्य)
वैदिक सन्दर्भ में दास शब्द का अर्थ सेवा करने वाली गुलाम नहीं हो सकता ?
आपके सुझाव आमन्त्रित हैं  ...दास और दस्यु  यद्यपि अपने प्रारम्भिक रूप में समानार्थक है । 
वैदिक कालीन सन्दर्भ सूची में दास का अर्थ देव संस्कृति के विरोध असुरों के लिए बहुतायत से हुआ है 
जो दानकी दक्षता की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित थे और  अपने अधिकारों के लिए बागी या द्रोही हो गये वे दस्यु कहलाऐ और जिन्होंने  उत्तर वैदिक काल में आते -आते  देव संस्कृति के अनुयायीयों की अधीनता स्वीकार कर ली वे दास या शूद्र कहलाए 'परन्तु पश्चिमी एशिया में दास शब्द दाहे अथवा डेसिया के रूप में रूस के उपनिवेश दागेस्तान के निवासीयों का वाचक है ।



                   (उनविंशति चरण)

दास का बहुवचन रूप ही दस्यु हो गया दास के सन्दर्भ में आगे यथास्थान चर्चा करेंगे ...यदि ऋग्वेद में 'दास' और 'दस्यु' शब्द के प्रयोग की आपेक्षिक मात्रा से कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, तो जान पड़ता है कि दस्युगण, जिनकी चर्चा चौरासी बार हुई है,  जिनका और दास शब्द की उल्लेख इकसठ बार हुआ है। 
दस्युओं के साथ युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ। 
अपने विस्तार की आरम्भिक अवस्था में देव संस्कृति के अनुयायी आर्यों को जीविकोपार्जन के लिए पशुधन की अकांक्षा रहती थी।



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