शनिवार, 11 मई 2019

समग्र महाभारत एक समीक्षात्मक विश्लेषण-

"एक कथन तो शाश्वत सत्य है कि --जो  तथ्य या कथ्य अपने आप में पूर्ण होते हैं ; उन्हें क्रम-बद्ध करने की भी आवश्यकता नहीं होती है।

परन्तु भारतीय संस्कृति के अभिभावक और आधार भूत वेदों और  उनके व्याख्या कर्ता या विवेचक ग्रन्थों पुराणों, रामायण तथा महाभारत आदि में परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न कथाओं का वर्णन  तथा ईरानीयों, यूनानीयों हूणों तथा कुषाण( तुषारों ) के वर्णन के अतिरिक्त ई०पू० 563 में जन्म लेने वाले प्रथम बुद्ध तथागत का वर्णन विष्णु के अवतार के रूप में घोषित करने  आदि का विवरण इनके प्राचीनता और प्रमाणिकता को सन्दिग्ध बना देता है ।

निश्चित सभी पुराणों और महाभारत आदि महाकाव्य ग्रन्थ को एक व्यक्ति कृष्ण द्वैपायन की रचना
और गणेश को इसका लेखक बनाना।
आदि भाव का का मूल इन्हें दैवीय आधार देना और प्राचीनत्तम सिद्ध करना है ।

महाभारत में दो परस्पर विरोधी सांस्कृतिक पृथाऐं
एक साथ घटित कर दी गयी हैं ।
-जैसे
वसुदेव के साथ उनकी पत्नियां भी पतिलोक में जाने के लिए पति की चिता पर जीवित जल जातीहैं 👇
_________________________________________________

तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा ।
अन्वारोहन्त च भरितारं योषितां वरा:।18

युवतियों में श्रेष्ठ देवकी भद्रा रोहिणी तथा मदिरा यह सब की सब अपने पति के साथ चिता पर अरुण होने को तैयार हो गई।18।

अनुजगमुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलंकृता: ।
स्त्री सहस्रै: परिवृता वधूभिश्च सहस्रश:।22।

वीर वासुदेव जी की पत्नियां वस्त्र और आभूषण से सज धज कर हजारों पुत्रवधू तथा अन्य स्त्रियों के साथ अपने पति की अर्थी के पीछे पीछे जा रही थी।22।

यस्तु देश:प्रियस्तस्य जीवतो८भून्महात्मन:।
तत्रैनमुपसंल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे ।23।

महात्मा वसुदेव जी को अपने जीवन काल में जो स्थान विशेष प्रिय था वही ले जाकर अर्जुन आदि ने उनका पितृ-मेध कर्म अर्थात दाह संस्कार किया।23।

अब वसुदेव का जीवन बहुतायत रूप से मधुरा या वटेश्वर में व्यतीत होने से अर्जुुन ने गुजरात मधुरा या या वटेश्वर में तो दाह-संस्कार किया नहीं ।

अत: यह स्वयं में श्लोक प्रक्षिप्त है।👇
दशरथ के साथ उनकी रानीयाँ क्यों सती नहीं हुईं ।
महाभारत में ही पाण्डव की दोनों पत्नियां क्यों सती नहीं हुईं ।
वसुदेव की पत्नियां वसुदेव सती हो गयीं ।
तो कृष्ण की कुछ पत्नियां और कुछ जंगल में तपस्या करने चली गयीं।
दौनों बातें भिन्न-हैं 👇
सत्य पूछा जाय तो

मान्यताओं के अनुसार सती प्रथा की प्रारम्भ पार्वती के  सती रूप के साथ हुआ।
जब उन्होंने अपने पति भगवान शिव की पिता दक्ष के द्वारा किये गये अपमान से क्षुब्ध होकर अग्नि में आत्मदाह कर लिया था।
अब इसे सती प्रथा नहीं कह सकते क्यों पति की चिता के साथ चलना ही सती प्रथा के नाम से मान्य अर्थ है।
शिव की चिता पर तो पार्वती जली नहीं!

भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद,  सामवेद और अथर्ववेद में से किसी में से भी सती प्रथा से जुड़ी कोई भी ऋचा नहीं है।
तो इसे प्राचीनत्तम क्यों माना जाय -
भारतीय इतिहास में सती प्रथा होने के पहले प्रमाण गुप्तकाल में 510 ईस्वी के आसपास मिलते हैं ।
जब महाराजा भानुप्रताप के साथ युद्ध गोपराज की मृत्यु हो जाने के बाद राजा की चिता पर उनकी पत्नी ने अपने प्राण त्याग दिये।

भारत में जब इस्लामिक राजाओं या मुगलों के द्वारा सिंध, पंजाब और राजपूत क्षेत्रों पर आक्रमण किया गया था तब सती प्रथा के अनुसार सबसे ज्यादा महिलाओं के अपने पति के वीरगति को प्राप्त करने के बाद आत्मदाह कर लिया था।
यह घटनाऐं बारहवीं सदी के समकालीन हैं।

सती प्रथा की तरह ही भारत में जौहर प्रथा भी बहुत ही अधिक प्रचलित थी ; जब तुर्कों या मुगलों के हमलों के समय राजपूतों की पत्नियां एक साथ जौहर करती थीं जिसका मतलब होता था आग में कूदकर अपनी जान दे देना।

इतिहास के पन्नों में इस तरह के उल्लेख मिलते हैं कि एक समय पतियों की मृत्यु के बाद उनकी चिताओं पर उनकी पत्नियों को जबर्दस्ती बैठाल दिया जाता था जिसमें महिलाओं की चीखों और उनके दर्द की पीड़ा को कोई भी ध्यान नहीं देता था।
भारतीय संस्कृति की एक यह भी काला अध्याय रहा ।

भारत में ब्रिटिश राज के समय में अंग्रेजों ने सती प्रथा को भारत में एक ठीक प्रथा नहीं माना था लेकिन धार्मिक दृष्टि से मजबूत होने का कराण उन्होंने इसे सीधा समाप्त करने के बजाय इसका प्रभाव धीरे-धीरे कम करने का विचार किया।

सती प्रथा को भारतीय समाज के ऊपर एक कलंक के तौर पर माना जाता है।

भारतीय समाज के अनेकों समाज सुधारकों जैसे राजा राम मोहन राय आदि के अथक प्रयासों के द्वारा 4 दिसम्बर साल 1829 को समाज को सती प्रथा के कलंक से मुक्ति मिल गई थी

अंग्रेज विद्वानों का संयोग इस अन्ध-रूढ़िवादिता से पूर्ण पृथा का अन्त करने में सहायक हुआ।

महाभारत में सती प्रथा राजपूत काल की प्रतिध्वनि है ।
आपने कभी शास्त्रों या किंवदन्तियों के आधार पर सुना कि कोई राज अपनी पत्नी के मरने पर उसकी चिता के साथ जलकर भस्म हुआ हो।

फिर विचार करने लगते हो कि अपनी अनेक रानियों की भिन्न-भिन्न कालों में मरने पर एक राजा के लिए सत होना असम्भव है ।
परन्तु ये कोई सन्तोष प्रद तर्क नहीं।
क्यों कि यहाँं सदीयों से स्त्रीयों प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है।
👇

तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं  वीरांगना :।
ततो८न्वारुरुहु: पत्न्यस्र: पतिलोकगा: ।24।

चिता की प्रज्वलित अग्नि में सोए हुए वीर शूरसेन-पुत्र वासुदेव जी के साथ उनकी पूर्वोक्त चारों पत्नियां देवकी भद्रा, रोहिणी तथा मदिरा चिता पर जा बैठी और उन्हीं के साथ भस्म हो पतिलोक को प्राप्त हुई।24।

ततो वज्रधानास्ते वृष्ण्यन्धक कुमारका: ।
सर्वे चैवोदकं चक्रु: स्त्रियश्चैव महात्मन: 27।

इसके बाद वज्र आदि वृष्णि और अंधक वंश की कुमारी तथा स्त्रियों ने महात्मा वसुदेव को जल-अञ्जली दी।27।

अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि ।
स्त्रियस्ता वृष्णवीराणां रुदत्य शोककर्शिता:।33।

उनके साथ घोड़े ,बैल ,गधे और ऊंटों से जु़ते हुए रथों पर बैठकर शौक से दुर्बल हुई वृष्णि वंशी वीरों की पत्नियां रोती हुई चली उन सबने पाण्डु-पुत्र अर्जुन का अनुगमन किया।33।

अब वर्णन देखें--- कि कृष्ण के साथ उनकी कुछ ही पत्नियां सती क्यों होती हैं ? सभी पत्नियां क्यों नहीं !👇___________________________________________

पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रता: ।
ब्राह्मणा:क्षत्रियावैश्या:शूद्राश्चैवमहाधना:।37

अन्धक और वृष्णि वंश के समस्त बालक अर्जुन के प्रति श्रद्धा रखने वाले थे ; वे तथा  ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य, महा धनी शूद्र।37।

दश षट च सहस्राणि वासुद्वावरोधनम्।
पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्र कृष्णस्य धीमत:।38।

और भगवान श्री कृष्ण की सौलह हजार (16000 ) पत्नियां सबके सब बुद्धिमान श्री कृष्ण के पौत्र वज्र को आगे करके चल रहे थे।33।

बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
भोज वृष्णन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययु: ।39।

भोज ,वृष्णि,और अन्धक कुल की अनाथ स्त्रियों की संख्या कई हजारों लाखों और अरबों तक पहुंच गई थी वह सब द्वारकापुरी से बाहर निकली।39।

तत्सागरसमप्रख्यं  वृष्णि़चक्रं महर्धिमत् ।
उवाह रथिनां श्रेष्ठ: पार्थ: परपुरञ्जय:।40।

वृष्णि वंशजों का वह महान समृद्ध शाली मण्डल महासागर के समान जान पड़ता था ।
शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले रथियों  में श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चले।40।

निर्याते  तु जने तस्मिन् सागरो मकरालय:।
द्वारकां रत्न सम्पूर्णो जलेन आप्लावयत् तदा।41।

उस जन ( स्त्री) समुदाय के निकलते ही मगरों और घड़ियालों के निवास स्थान समुंद्र ने रत्नों से भरी पूरी द्वारका नगरी को जल में डूबो दिया।40।
( स्वयं  इस घटना में प्राकृत भाव न होकर एक अस्वाभाविकता है।
जैसे-👇

यद् यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत् तत् सम्प्लावयामास सलिलेन स सागर:।42।

पुरुषसिंह  अर्जुन ने उस नगर का जो जो भाग छोड़ा उसे समुंद्र ने अपने जल से आप्लावित कर दिया।42।

तदद्भुतमभिप्पेक्ष्य द्वारिकावासिनो जना:।
तूर्णात् तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन्।43।

यह अद्भुत दृश्य देखकर द्वारिका वासी मनुष्य बड़ी तेजी से चलने लगे उस समय उनके मुख से बारम्बार यही निकलता था कि दैव की लीला विचित्र है ! दैव की लीला विचित्र है ।43।

काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च।
निवसन्नानयामास वृष्णि दारान् धनञ्जय:।44।

अर्जुन सुन्दर वनों, पर्वतों और नदियों के तट पर निवास करते हुए वृष्णि वंश की स्त्रियों को ले जा रहे थे।44।

स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत्।
देशे गोपशुधान्याढ्ये निवासमकरोत् प्रभु:।45।

चलते चलते बुद्धिमान एवं सामर्थ शाली अर्जुन ने अत्यन्त समृद्ध शाली पंच नद देश में पहुंचकर जो गौ ,पशु तथा धन-धान्य से संपन्न था; ऐसे प्रदेश में पढ़ाब डाला ।45।
________________________________________

ततो लोभ: समभवद् दस्यूनां गोपानां निहतेश्वरा:।
दृष्टवा स्त्रियो नीयमाना: पार्थेनैकेन भारत।46।

भारत नन्दन एकमात्र अर्जुन के संरक्षण में ले जाई जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियों को देखकर वहां रहने वाले दस्युओं के मन में लोभ पैदा हुआ।46।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस:।
आभीरा मन्त्रयामासु: समेत्याशुभदर्शना:।।47।

लोभ से उनके चित्त की विवेक शक्ति नष्ट हो गई ;और अशुभ दर्शी पापा चारी अहीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की।47।

ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रश: ।
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिण:।49।

ऐसा निश्चय करके लूट का माल उड़ाने वाले लट्ठधारी लुटेरे वृष्णि वंशीयों के उस समुदाय पर हजारों की संख्या में टूट पड़े।49।

महता सिंहनादेन त्रासयन्त: पृथग्जनम्।
अभिपेतुर्वधार्थं ते कालपर्याय चोदिता:।50।

समय की उलटफेर से प्रेरणा पाकर वे लुटेरे और उन सबका के बध लिए उतारू हो अपने महान सिंहनाद से साधारण लोगों को डराते हुए उनकी ओर दोड़े।50।

ततो निवृत्त: कौन्तेय: सहसा सपदानुग:।
उवाच तान् महाबाहुरर्जुन: प्रहसन्निव।।51।

आक्रमणकारियों को पीछे की ओर से धावा करते देख कुंती कुमार महाबाहु  अर्जुन सेवकों सहित अचानक लौट पड़े और उनसे हंसते हुए बोले।51।

तथोक्तस्तेन वीरेण कदर्थीकृत्य तद्वच:।
अभिपेतुर्जनं  मूढा: गोपा: वार्यमाणा: पुन:पुन:।53।

वीरवर अर्जुन के ऐसा कहने पर उनकी बातों की अवहेलना करके वे मूर्ख  उनके बार-बार मना करने पर भी जन (स्त्री)समुदाय पर टूट पड़े।53।

चकार सज्जं कृच्छ्रेण सम्भ्रमे तुमुले सति।
चिन्तयामास  शस्त्राणि न च सस्मार तान्यापि।55।

भयंकर मारकाट करने पर बड़ी कठिनाई से उन्होंने धनुष पर प्रत्यञ्चा तो चढ़ा दी परन्तु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्र ओं का चिन्तन करने लगे तब उन्हें उनकी याद बिल्कुल  याद नहीं आई ।55।

वैकृतं  तन्महद् दृष्ट्वा भुजवीर्ये तथा युधि।
दिव्यानां च महास्त्रां विनाशाद् व्रीडितो८भवत् ।56।

युद्ध के अवसर पर अपने बाहुबल में यह महान विकार आया देख और महान दिव्यास्त्रों का विस्मरण हुआ जान अर्जुुन लज्जित हुए।56।

यह बात अस्वाभाविक व कल्पना प्रसूत है ।

मिषतां सर्वयोधनां ततस्ता: प्रमदोत्तमा:।
समन्ततो८वकृष्यन्त कामाच्चान्या: प्रवव्रजु:।59।

सब योद्धा के देखते देखते हुए डाकू उन सुन्दर स्त्रियों को चारों ओर से खींच खींच कर ले जाने लगे और दूसरी स्त्रियां  इच्छा के अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गई।59।

हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मार्तिकावते ।
भोजराजकलत्रं च हृतशेषं  नरोत्तम: ।। 69।

कृतवर्मा के पुत्र को और भोजराज के परिवार की अपहरण सी बची हुई स्त्रियों को नर-श्रेष्ठ अर्जुन ने मार्तिकावत  नगर में बसा दिया ।69।

ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डव:।
वीरैर्विहीनान् सर्वांस्ताञ्शक्रप्रस्थे न्यवेशयत् ।70।

तत्पश्चात वीर !पति) विहीन समस्त वृद्धौं, बालकों तथा अन्य स्त्रियों को साथ लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आए और उन सब को वहां का निवासी बना दिया।70।

यौयुधानिं सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिन: प्रियम्।
न्यवेशयत् धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् ।71।

धर्मात्मा अर्जुन ने सात्यकि के प्रिय पुत्र "यौयुधानि" को सरस्वती के तटवर्ती देश का अधिकारी एवं निवासी बना दिया ।71।

इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्रायन परवीरहा ।
वज्रेणाक्रूरदारस्तु वार्यमाणा: प्रवव्रजु:।72।

इसके बाद शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने वज्र को इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे दिया ।
अक्रूर जी की स्त्रियां वज्र के बहुत रोकने पर भी वन में तपस्या करने के लिए चली गई।72।
श्रीकृष्ण के साथ उनकी कुछ ही पत्नीयाें का आत्दाह करने का वर्णन काल्पनिकताओं से पूर्ण है । 👇

रुक्मणी गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि।
देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम्।73।

रुक्मणी , गान्धारी ,शैव्या , हैमवती, तथा जाम्बवती देवी ने पति लोग की प्राप्ति के लिए अग्नि में प्रवेश किया ।73।👇

सत्यभामा तथैवान्या. देव्य: कृष्णस्य सम्मता:।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चया: ।74।
जबकि सत्यभामा आदि अन्य पत्नियां तपस्या के लिए वन में जाती हैं ।

राजन श्री कृष्ण प्रिया सत्यभामा तथा अन्य देवियां तपस्या का निश्चय करके वन में चली गई।74।

दौनों श्लोक परस्पर विरोधी विचारों को प्रकट करने से  यह पूर्ण प्रकरण ही कल्पना प्रसूत हैं।

पति के साथ जलना और वन में तपस्या हेतु गमन
करना ! दौनों बातें जमीन आसमान के समान भिन्न-भिन्न हैं ।

द्वारकावासिनो ये तु  पुरुषा: पार्थमभ्ययु:।
यथार्हं  सविज्यैनान् वज्रे पर्यददज्जय:।75।

जो जो द्वारका राशि मनुष्य अर्जुन के साथ आए थे सबका यथा योग्य भाग करके अर्जुन ने उन्हें वज्र को सौंप दिया।75।
यह समग्र प्रकरण प्रक्षिप्त और प्राचीनत्तम गाथाओं क्रमिक भाव को अभिव्यक्त नहीं करता है।
क्यों यह महाभारत का अन्तिम से पूर्व पर्व है-
यह सबसे छोटा भी है ।
मुश्किल से बीस श्लोकों का यह
(महाभारत का मौसल पर्व का सातवाँ अध्याय)
_________________________________________

अब अहीरों का महाभारत में दो स्थानों पर
द्वेष वादीयों ने इस प्रकार वर्णन किया है ।
कि रूढ़िवादी परम्पराओं के पालक इतिहास कार यहीं से अहीरों का इतिहास और यदुवंश से पृथक करण करने के सूत्र ढूँढ़ने की असफल कोशिश करते हैं ।
पहला सूत्र शूद्रों और आभीरों के द्वेष वश सरस्वती विलुप्त हो जाती हैं।👇             
                   
                वैशम्पायन उवाच
ततोविनशनं राजन् जगामाथ हलायुध:
शूद्राभीरान् (शूद्र-आभीरान्) प्रति द्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती ।1।
तस्मात् तु ऋषयो नित्यं प्राहुर्विनशनेति च।

महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व पृष्ठ संख्या 4233,37वाँ अध्याय ।

वैशम्पायन जी कहते हैं हे राजन् ! उद्पानतीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ आये।
जहाँ शूद्रों और अहीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी वहाँ से चली गयी ।
इसलिए ऋषिगण उसे विनशन तीर्थ कहते हैं
ब्राह्मणों ने कल्पना की कि गायत्री देवी जो ब्रह्मा की पत्नी है आभीरों की कन्या है 'वह सरस्वती को सहन नहीं हुआ और 'वह अहीरों से द्वेष करते हुए वहाँ से अदृश्य हो गयी ।👣

पद्म-पुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री देवी का वर्णन है
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है । _______________________________________________

" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।

न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८। __________________________________________________

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।

इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८। _______________________________________________________
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !

यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।

अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं । जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है  क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह ________________________________________________
गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।

गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें--- देवीभागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और वह भी अपनी भार्यायों सहित ।

वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है । _______________________________________________
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४०। एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४।
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
और सुनो ! गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
अब सरस्वती और गायत्री दौनों ही ब्रह्मा की पत्नियां हैं
और गायत्री अहीरों की कन्या है ।
अर्थात्‌ नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या
अब पुन: विचार करो क्या कभी कोई स्त्री या देवी अपनी सौत (सपत्नी)
को समान देगी !
क्या उसके परिवार और मायके वालों का सम्मान करेगी
सायद कभी नहीं -क्यों कि स्त्रीयों का स्वभाव बाल स्वभाव का सहवर्ती है।
अत: सरस्वती अहीरों से द्वेष के कारण वहाँ से लुप्त हो गयी महाभारत कार ने यह प्रसंग पुष्कर-तीर्थ के सन्दर्भ में तब वर्णित किया जब वे सरस्वती के सहयोग से यज्ञ करते हैं ।
अत: द्वेष वश पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने सरस्वती का गायत्री के प्रति सौतिया डाह प्रकरण पूर्ण रूपेण विच्छिन्न कर दिया।
👆✍✍

इसी प्रकार दूसरा प्रकरण है कृष्ण की मृत्यु के पश्चात् द्वारका से इन्द्र- प्रस्थ (कुरू- क्षेत्र )ले जाते हुए पञ्चनद( पंजाब)देश में अर्जुुन को परास्त कर  यदुवंश की स्त्रीयों को अपने साथ ले जाते हुए गोपोंं द्वारा अर्जुुन को परास्त कर यदुवंश की स्त्रीयों सहित लूट लेना।

और इसके अतिरिक्त दो स्थानों पर आभीरों का उल्लेख महाभारत में यवन, ईरानी ,दरद, किरात आदि जन-जातियों के क्रम में हुआ है ।
✍✍✍✍✍✍✍✍✍
वास्तव में इस घटना को पुराण कारों या महाभारत कारों ने इस प्रकार अपूर्ण और क्रमहीन रूप से वर्णन किया
कि अहीर और यादवों को अलग अलग दर्शाया जा सके
अब हम अहीरों द्वारा अर्जुुन को लूटने के प्रकरण
अन्वय करेगे 👇

अब अहीरों का गो-पालन वृत्ति मूलक विशेषण रूढ़ अर्थ में था "गोप" इसी लिए भागवत पुराण कार ने
महाभारत के मौसल पर्व के सातवें अध्याय में वर्णित आभीर के स्थान पर गोप शब्द का उल्लेख किया।
👇
-भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है ।
इसे भी देखें--- ________________________________________

"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।  __________________________________________

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया। और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०) पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-👇

महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
_________________________________________

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि  जब अहीर ही गोप थे ।
यहाँ तक नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव और स्वयं कृष्ण को गोपोंं के घर में जन्म लेने वाला बताया गया हो !
तो फिर पञ्चनद (पंजाब देश) में इन अहीरों या गोपोंं ने अजुर्न के साथ इन्द्र प्रस्थ जाती हुईं स्त्रीयों को क्यों लूटा?
इस प्रकरण का अन्वय इस प्रकार है 👇
__________________________________________

विद्वानों को यह तो पुराणों तथा स्वयं महाभारत की कथाओं से विदित ही है। कि
अर्जुन ने यादवों  के आतिथ्य स्वीकार करने के बहाने से छल से सुभद्रा का अपहरण करके विवाह कर लिया था।
नि: सन्देह यह व्रज प्रान्त के समस्त यादवों के पौरुष को तो ललकारना ही था ।
तत्कालीन समाज में उनकी प्रतिष्ठा को भी खण्डित कर देना था।
फिर इसका प्रतिशोध( बदला) तो गोप अवश्य लेते
क्यों कि वो भी तो नारायणी सेवा के गोप योद्धा थे ।

आपको पता होगा की कृष्ण की गोपोंं अथवा अहीरों वाली नारायणी सेना।
जिसका तत्कालीन मान या संख्या दस करोड़ थी ।
'वह भी सब कृष्ण के समान बलवान थे ।
परन्तु उन्हें अशुभ-दर्शी और म्लेच्‍छ तथा  चोर कहना
पुरोहित (Prophet) समाज की द्वेष-प्रेरित विकृत मानसिकता।

गोप नारायणी सेना वो यौद्धा थे जिनकी संख्या उस समय दस करोड़ थी ।👇

जब दुर्योधन और अर्जुन कृष्ण के पास सहायता के लिए जाते हैं तो कृष्ण स्वयं को अर्जुन के लिए और अपने नारायणी सेना जिसकी संख्या 10 करोड़ थी ! उसे दुर्योधन को  युद्ध सहायता के लिए देते हैं ।
कृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि नारायणी सेना के गोप (आभीर)सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।

कृष्ण ने ऐसा दुर्योधन से कहा उन सब की नारायणी संज्ञा है वह सभी युद्ध में बैठकर लोहा लेने वाले हैं ।(17)

एक और तो वे  10 करोड़ सैनिक युद्ध के लिए उद्धत रहेंगे और दूसरी ओर से मैं अकेला  रहूंगा ।
परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा और ना कोई शस्त्र ही धारण करूंगा ।(18)
हे अर्जुन इन दोनों में से कोई एक वस्तु जो तुम्हारे मन को अधिक रुचिकर लगे ! तुम पहले उसे चुनो क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने के अधिकारी हो ।19👇

मत्संहननतुल्यानां गोपानां अर्बुदं महत् ।
नारायणा इतिहास ख्याता : सर्वे संग्रामयोधिन:।18

ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिका:।
अयुध्यमान: संग्रामे न्यस्तशस्त्रो८हमेकत:।19।

आभ्यान्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मतम्।
तद् वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं धर्मत:।20।
भागवत पुराण में वर्णित अर्जुुन को परास्त करने वाले यही गोप थे ।👇

आदिपर्व प्रथमो८ध्याय ( अनुक्रमणिका पर्व)
यद्यपि आभीर शब्द गोपोंं का ही विशेषण है
परन्तु महाभारत में अहीरों को गोप शब्द से भी पृथक करने की दश्चेष्टा की गयी है।
👣👣👣👣

एक स्थान पर सरस्वती नदी के नष्ट या अदृश्य
होने का कारण अहीरों और शूद्रों को बता दिया है ।
महाभारत में परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न बातें होना सिद्ध करता है कि यह अनेक पुरोहितों की रचना है ।
गणेश देवता को इसका लेखक घोषित कर दिया गया।

                       वैशम्पायन उवाच 👇
ततोविनशनं राजन् जगामाथ हलायुध:
शूद्राभीरान् (शूद्र-आभीरान्) प्रति द्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती ।1।
तस्मात् तु ऋषयो नित्यं प्राहुर्विनशनेति च।

महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व पृष्ठ संख्या 4233,37वाँ अध्याय ।

वैशम्पायन जी कहते हैं हे राजन् ! उद्पानतीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ आये।
जहाँ शूद्रों और अहीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी वहाँ से चली गयी ।

इसलिए ऋषिगण उसे विनशन तीर्थ कहते हैं
ब्राह्मणों ने कल्पना की कि गायत्री देवी जो ब्रह्मा की पत्नी है आभीरों की कन्या है 'वह सरस्वती को सहन नहीं हुआ और 'वह अहीरों से द्वेष करते हुए वहाँ से अदृश्य हो गयी ।

पद्म-पुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री देवी का वर्णन है
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है । _______________________________________________

" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।

न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८। __________________________________________________

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७। उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी। इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८। _______________________________________________________
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !

यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।

अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं । जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है  क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह ________________________________________________
गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।

गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें--- देवीभागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।
मयैव प्रोच्यामानस्य मनसा कल्पिततस्य च।।77।

श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्।
लिखतो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको हि अहम्।78।

व्यासो८प्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् ।
ओमित्युक्त्वा गणेशो८पि बभूव किस लेखक:।79।

महाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्म वधपर्व में
काम्बोज राज सुदक्षिण के साथ गोपायन नामक के हजारों यौद्धा सैनिकों का वर्णन है👇

अथ कम्बोजजैरश्वैर्महद्भि: शीघ्रगामिभि:।
गोपानां बहुसाहस्रैर्बलैर्गोपायनैर्वृत:।।13।
तत्पश्चात कंबोज राज दक्षिण कंबोज देशीयविशाल एवं शीघ्र गामी घोड़ों पर आरूढ़ हो युद्ध के लिए चले उनके साथ गोपालन नाम वाले कई हजार गोप योद्धा अर्थात् सैनिक थे।13।

अर्थात्‌ गणनायक आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थ के लेखक बन जाइये ; 'मैं बोलकर सिखाता जाऊँगा  मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है ।77।

यह सुनकर विघ्नराज गणेश जी ने कहा –व्यास जी !
यदि क्षण भर के लिए भी मेरी लेखनी न रुके तो 'मैं इस ग्रन्थ का लेखक बन सकता हूँ।78।

व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी मत लिखिएगा । गणेश जी ने "ऊँ" कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गय

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है। यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । _______________________________________

वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः
शापेन गोपालत्वमापतुः।

यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय ) "
इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।  ___________________________________________ गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु !
महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।
कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --) यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित--- पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है । ______________________________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय।

महाभारत का प्रक्षिप्त अंश मूसल पर्व
जय श्री कृष्णा मित्रों... आज में महाभारत के मूसल पर्व की चर्चा करूँगा जिसमें ऋषि दुर्वाशा श्राप के कारण यदुवंशियो के वृष्णि,अन्धक,भोज और सेनों में संघर्ष हुआ और एक वंश का नाश हो गया, इस संघर्ष के बाद श्री कृष्ण और बलदाऊ जी एक वृक्ष के नीचे लेटे थे तब एक सर्प ने बलदाऊ जी को डस लिया और भगवान् श्री हरी के कोमल चरणों को देखकर एक बहेलिये ने सोचा की हिरन है और बाण चला दिया श्री कृष्ण ने ये लीला रची थी और वो परम धाम को गमन कर गए।

जब ये समाचार इन्द्रप्रस्थ पहुंचा तो व्याकुल युधिष्ठिर ने तत्काल अर्जुन को द्वारका (आधुनिक गुजरात में स्थित ) भेजा ..जहाँ उन्हें सबके शव ही मिले..केवल स्त्रियाँ,बच्चे और वृद्ध ही द्वारका में बचे थे। अर्जुन ने श्री कृष्ण और बलदेव जी का दाह-संस्कार अपने द्वारा पूर्ण किया

..शेष सब लोगों को इकठ्ठा कर इंदप्रस्थ के लिए प्रस्थान किया, जिसमें बच्चे बूढ़े और स्त्रियाँ ही थे..काफिला आगे बढ़ा ,उनके द्वारका छोड़ते ही द्वारका भी समुद्र में डूब गयी...ये काफिला जब पंचनद क्षेत्र यानि की पंजाब- हरियाणा पंहुचा तो एक जगह थके हारे लोगों ने डेरा लगा लिया ..वहीँ रहने वाले आभीरों(अहीरों) ने जब इस स्त्रियों और धन संपदा से भरे काफिले को देखा तो उन्होंने सोचा की ये तो सु-अवसर है क्योंकि सब लोग थके हारे हैं और केवल एक धनुर्धारी अर्जुन है ,, उन्होंने इकट्ठे होकर इस काफिले पर लाठी-डाँडो के साथ हमला कर स्त्रियों और सम्पदा को लूट लिया अर्जुन की शक्ति भी काम नही आयी।

कहतें हैं न.." पुरुष बलि नहीं होत है ,समय होत बलवान,अहीरन लूटी गोपिका वही अर्जुन ,वही बाण!"

ततो लोभः समभवद दस्युनाम निहितेश्वरा दृष्टता सत्रियो नीयमानाह पार्थनेकम भारत/ (महाभारत,मूसल पर्व,७-४४) अर्थ-जब इस प्रकार से उन दस्युओं ने स्त्रियों और निराश्रितों के साथ अकेले पार्थ, को देखा तो लोभवश अपने निहित को साधने की सोचने लगे.

ततस तो पापकर्मानो लोभोपहतचेतसः
आभीरा मन्ययाम समेत्य शुभदर्शना।। (महाभारत,मूसलपर्व,७-४५) अर्थ-तब पापकर्मों में, लोभ में चित्त रखते हुए उन आभीरों ने इसे सु-अवसर समझा., ये आभीर(अहीर) सरस्वती और पंजाब के क्षेत्र में रहते थे।

महाभारत में एक जगह इनका और वर्णन है। शूद्राभीर गणाश्चेव ये आश्रितम सरस्वतीम/२.३२.१०,महाभारत. ---शूद्र आभीर गण सरस्वती के क्षेत्र में आश्रित हैं।

शेष बचे कूचे लोगों के साथ अर्जुन इन्द्रप्रस्थ पहुंचे और शीघ्र ही राज पाट त्याग कर हिमालय प्रस्थान कर गए जिन बच्चों को अपने साथ द्वारका से लाये थे उनसे यदुवंश फिर बढ़ा!
महाभारत कि ये घटना प्रत्यक्ष प्रमाण है की उस समय अहीर अलग और शूद्र व दस्यु थे।
ये यादव बेसहारों पे हमला करने वाले डाकू, अब खुद ही यादव बन गए! ये घटना भी रेवाड़ी के इलाके में हुयी थी!
ये अहीर तो यादवों के कुल का नाश करने वालें हैं, लुटेरे और डाकू।

महानुभाव ये महाभारत के प्रक्षिप्त अंश है ।
क्योंकि गोप शब्द स्वयं आभीर का पर्याय है देखें--- .. हरिवंश पुराण ... ब्रह्म की योजना नामक छटा अध्याय ...
महाभारत में बुद्ध को नास्तिक कहा है ।
जबकि भागवत पुराण में विष्णु का अवतार ...
देखें--- नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्य दानव द्रोहिणे...
भागवत पुराण ...प्रथम स्कन्ध
और वाल्मीकि रामायण में बुद्ध को चोर तथा नास्तिक राम के द्वारा कहलवाया गया ।

अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग ३४ वाँ श्लोक प्रमाण--- "यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि"
रामायण और महाभारत बाद में नये सिरे से पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक नये सिरे से लिपि- बद्ध किये गये
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण है कि
कृष्ण के आदि पुरुष यदु
को दास कहा है।
देखें--- "उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----"
यादव को ब्राह्मण समाज द्वारा कभी भी क्षत्रिय नहीं माना गया ...
इसका कारण भी यदु का दास होना ही है ।
महाभारत में प्रमाण ढूँढ़ो ऋग्वेद में प्रमाण है ।
दस से दस्यु शब्द विकसित हुआ।
जिसका अर्थ होता है दासता की वेणियाँ तोड़कर विद्रोही करने वाला ..
आभीर ही नास्तिक यादव हैं
इसका प्रमाण तो हिब्रू बाइबिल तथा क़ुरान में भी है
यदु वंश का वर्णन यहूदी वंश के रूप में है
उत्तरी भारतीय जादौन ठाकुर लिखने वाले जादौन/गादौन पठान हैं
अफ़्ग़ानिस्तान में...
जो मुसलमान होकर भी स्वयं को यहूदी ही बताते है....
ठाकुर और पठान दौनो शब्द
दौनो शब्द संस्कृत भाषा में स्थायुकर:
तथा पृक्तन् देखें--- ऋग्वेद का द्वित्तीय मण्डल.....
अत: अहीरों के खिलाफ लिखने के लिए वेदों से प्रमाण दो ...
महाभारत तो बौद्ध काल के बाद की रचना है ।
कथाऐं प्राचीन हो सकती हैं परन्तु इनमें भी बहुत सी विरोधाभासी कथाओं का

अब कुछ राजपूती एक मेघाडम्बर छत्र को श्रीकृष्ण का छत्र बता रहे हैं ।
परन्तु यह छत्र सोने- या मणियों का तो होना ही चाहिए
परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है ।

मूर्खों  ! तुमने कैसे मान लिया कि ये  करौली में भाटीयों के पास रखा हुआ छत्र श्रीकृष्ण का है ।
फिर ये सोने-चाँदी का होना चाहिए ।
फिर ये छत्र इन्द्र ने स्वर्ग से भेजा ।

और तुमने मेघाडम्बर छत्र का काल्पनिक किस्सा भी गढ़ लिया ! और इसे इतिहास कहते हो !
कि रुक्मणी जी के स्वयंवर में जब भगवान् श्री कृष्ण का पद के अनुरूप राज्योचित शिष्टाचार से विदर्भ प्रदेश के कुण्डनपुर के राजा भीष्मक केद्वारा स्वागत नहीं किये जाने के विरोध में श्री कृष्ण जी ने अपना डेरा क्रथकैथ उद्ध्यान में रखा ।

राजा भीष्मक द्वारा श्री कृष्ण जी की उदासीन अगवानी से देवराज इंद्र भी प्रसन्न नहीं थे।

उन्होंने श्री कृष्ण जी को सांत्वंना देने के लिए स्वर्ग से स्वयं का नृपयोग्य तामझाम क्रथ कैथ उद्यान भेजा ,जिसमें शासकीय "मेघाडम्बर छत्र " भी था ।

यह सब जानकर राजा भीष्मक को अपनी भूल का ध्यान आया ,संकोच से भरे राजा ने क्रथ कैथ उद्यान में ही श्री कृष्ण के लिए सम्राटों के पद के अनुरूप भव्य स्वागत समारोह का आयोजन किया ।
इस दरबार में उन्हें नजरें भेंट की गई।
सभी आगंतुकों ने स्वयं उपस्थित होकर भगवान् श्री कृष्ण को राजकीय सम्मान से उपहार दिए और उनके प्रति श्रद्धा दर्शयी ।
रुक्मणी जी ने स्वयंबर में श्री कृष्ण जी को वर चुना .
_____________________________________________
बाकी सब राजा निराश होकर अपने अपने राज्य को चले गये ।

स्वयंवर की समाप्ति पर देवराज इन्द्र का सारा तामझाम स्वर्ग लौटा दिया गया ,किन्तु श्री कृष्ण जी ने शासकीय "मेघाडम्बर छत्र"अपने लिए पीछे रोक लिया और इसे अपना राजकीय अधिकार -चिन्ह बनाकर घोषणा की कि जब तक "मेघाडम्बर छत्र "यदुवंशियों के साथ रहेगा।
वह धरती पर राज करते रहेंगे ।
यह छत्र अब भी भाटियों के जैशलमेर राजघराने में है और भाटी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाटियों के उस क्षेत्र में राज कर रहे है ।
यदुवंशियों का विरुद्र "छत्राला यदुवंशी "होने से सभी शासकीय जातियों में यह वरिष्ठतम शासक है ।

कृष्ण का युद्ध सबसे पहले तो इन्द्र से हुआ ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में इसका प्रमाण है।🐂🐂

ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
________________________________________
" आवत् तमिन्द्र: शच्या  धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे$धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
______________________________________
ऋग्वेद कहता है -----" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सैना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
_________________________________________
एक स्थान पर ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में है " कि
यदु जो कृष्ण के आदि पूर्वज हैं ।
उनको तुर्वशु के साथ दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
                 ऋग्वेद-१०/ ६२ /१०
______________________________________
असुर शब्द दास का पर्याय वाची है ।
क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है ।
______________________________________
उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-२ /३ /६
________________________________________

असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में  किया है ।
इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर
वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है ।
________________________________________
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व)
से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ।
__________________________________________

और फिर कृष्ण का समय ई०पू० नवम सदी निश्चित होता है ।
सिन्धु घाटी की सभ्यताओं में ।

क्यों कि ई०पू० 1200 वीं सदी में देव संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन सप्तसैन्धव प्रदेश में हो गया था
जिन्हें इतिहास कार आर्य्य संज्ञा देने लगे ।
परन्तु आर्य्य सैमेटिक भाषाओं में एल( अरिस्) के अनुयायी यौद्धाओं का वाचक है ।

यदि हम कृष्ण का समय पाँच हजार वर्ष पूर्व माने भी तो इस मान्यता का कोई ठोस आधार नहीं क्यों हम जिस ग्रन्थों से कृष्ण का चरित्र-वर्णन करते हैं वे भी महात्मा बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड की रचनाऐं हैं।

क्यों कि भारत में शकों और यूनानीयों का आगमन ईसा की कुछ सदीयों पूर्व ही हुआ है ।
यूनानी ईरानीयों के बाद ई०पू० 323 में आये ।
और शक ई०पू० द्वितीय सदी शकस्स्थान (सीथिया) ईरान से ...
और महाभारत में वर्णन है कि कृष्ण का यूनानीयों और शकों से युद्ध हुआ।

महाभारत में द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व  ग्यारहवें अध्याय में वर्णन है उसे देखें👇

अङ्गान् वङ्गान् कलिङ्गान् मागधान् काशिकोसलान्
वात्स्यगार्ग्यकरुषांश्च पौण्ड्रांश्चाप्यजयद् रणे।।15।

आवन्त्यान्  दाक्षिणात्यांश्च पर्वतीयान् दशेरकान् ।
काश्मीरकानौरसिकान् पिशाचांश्च समुद्लान् ।16।

काम्बोजान् वाटधानांश्च चोलान् पाण्ड्यांश्च संजय ।
त्रिगर्तान्  मालवांश्चैव दरदांश्च सुदुर्जयान्।17।

नानादिग्भ्यश्च सम्प्राप्तान् खशांश्चैव शकांस्तथा ।
जितवान पुण्डरीकाक्षो यवनं च सहानुगम।18।

(महाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व ग्यारहवें अध्याय)

उन कृष्ण ने रण क्षेत्र में अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि कोसल, वत्स ,गर्ग, करुष( ईरानी वंश) तथा पौण्ड्र आदि देशों पर विजय पाई थी ।15।

संजय ! इसी प्रकार कमलनयन श्री कृष्ण ने अवन्ती दक्षिण प्रान्त ,पर्वती देश ,दाशेरक, कश्मीर और औरसिक, पिशाच, मुद्गल ,कांबोज वाटधान ,चोल ,पांड्य , त्रिगर्त, मालव ,अत्यंत दुर्जय दरद,आदि देशों के योद्धाओं को तथा नाना दिशा से आए हुए , खशो, शकों  और अनुयायी यों सहित कालयवन को भी जीत लिया ।16।

महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुुन का युद्ध भी शक और यवनों से भी हुआ।

महाभारत के कर्ण पर्व के छयालीसवें अध्याय 15-16वें श्लोकों में वर्णन है कि कर्ण की आज्ञा से उनके प्रपक्षस्थान में कम्बोज, शक,और यवन, महाबली श्रीकृष्ण और अर्जुुन को ललकारते हुए खड़े थे।
👇

तेषां प्रपक्षा: काम्बोजा: शकाश्च यवनै:सह ।15।
निदेशात् सूतपुत्रस्य सरथा साश्वपत्तय:।
आह्वयन्तो८र्जुनं तस्थु: केशवं च महाबलम् ।16।

अब यूनानीयों का भारत आगमन तो ईरानीयों के बाद हुआ ई०पू० 323 में
और शकों का ई०पू० द्वितीय सदी में
फिर किस आधार पर कृष्ण को पाँच हजार वर्ष पूर्व माने

वैसे भी ई०पू० नवम सदी में कृष्ण को मानना औचित्य पूर्ण है।
क्यों कि -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों का सप्तसैन्धव में आगमन ई०पू० बारहवीं सदी तो मान्य है
और सिन्धु घाटी की सभ्यताओं में कृष्ण का वर्णन यमलार्जुन के मध्य एक शिशु के री़ूप में वर्णन।

यदि हम कृष्ण का समय पाँच हजार वर्ष पूर्व माने भी तो इस मान्यता का कोई ठोस आधार नहीं है।
क्यों कि भारत में शकों और यूनानीयों का आगमन ईसा की कुछ सदीयों पूर्व ही हुआ है ।
और महाभारत में वर्णन है कि कृष्ण का यूनानीयों और शकों से युद्ध हुआ।

महाभारत में द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व  ग्यारहवें अध्याय में वर्णन है देखें👇

अङ्गान् वङ्गान् कलिङ्गान् मागधान् काशिकोसलान्
वात्स्यगार्ग्यकरुषांश्च पौण्ड्रांश्चाप्यजयद् रणे।।15।

आवन्त्यान्  दाक्षिणात्यांश्च पर्वतीयान् दशेरकान् ।
काश्मीरकानौरसिकान् पिशाचांश्च समुद्लान् ।16।

काम्बोजान् वाटधानांश्च चोलान् पाण्ड्यांश्च संजय ।
त्रिगर्तान्  मालवांश्चैव दरदांश्च सुदुर्जयान्।17।

नानादिग्भ्यश्च सम्प्राप्तान् खशांश्चैव शकांस्तथा ।
जितवान पुण्डरीकाक्षो यवनं च सहानुगम।18।

(महाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व ग्यारहवें अध्याय)

उन कृष्ण ने रण क्षेत्र में अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि कोसल, वत्स ,गर्ग, करुष तथा पौण्ड्र आदि देशों पर विजय पाई थी ।15।

संजय ! इसी प्रकार कमलनयन श्री कृष्ण ने अवन्ती दक्षिण प्रान्त ,पर्वती देश ,दाशेरक, कश्मीर और औरसिक, पिशाच, मुद्गल ,कांबोज वाटधान ,चोल ,पांड्य , त्रिगर्त, मालव ,अत्यंत दुर्जय दरद,आदि देशों के योद्धाओं को तथा नाना दिशा से आए हुए , खशो, शकों  और अनुयायी यों सहित कालयवन को भी जीत लिया ।16।

महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुुन का युद्ध भी शक और यवनों से भी हुआ।
महाभारत के कर्ण पर्व के छयालीसवें अध्याय 15-16वें श्लोकों में वर्णन है कि कर्ण की आज्ञा से उनके प्रपक्षस्थान में कम्बोज, शक,और यवन, महाबली श्रीकृष्ण और अर्जुुन को ललकारते हुए खड़े थे।👇

तेषां प्रपक्षा: काम्बोजा: शकाश्च यवनै:सह ।15।
निदेशात् सूतपुत्रस्य सरथा साश्वपत्तय:।
आह्वयन्तो८र्जुनं तस्थु: केशवं च महाबलम् ।16।

अब यूनानीयों का भारत आगमन तो ईरानीयों के बाद हुआ ई०पू० 323 में
और शकों का ई०पू० द्वितीय सदी में
फिर किस आधार पर कृष्ण को पाँच हजार वर्ष पूर्व माने

वैसे भी ई०पू० नवम सदी में कृष्ण को मानना औचित्य पूर्ण है।
क्यों कि -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों का सप्तसैन्धव में आगमन ई०पू० बारहवीं सदी तो मान्य है।

और फिर हम जिस महाभारत को व्यास की रचना मानते
या गणेश जी को उसका लेखक मान लिया
'वह ग्रन्थ महाभारत भी अनेक पुरोहितों की रचना है

अधिक क्या कहें महाभारत बुद्ध के परवर्ती काल की संस्कृतियों और घटनाओं को अंकित करता है ।
क्यों  कि

महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇

भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।

जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -

अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं?
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए  हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।

पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा  बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।

इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।

नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन  इस प्रकार है। देखें👇
________________________________________
दानवांस्तु  वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य  रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।

अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन:  बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।

हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्‍छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।

जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्‍छों का वध करेंगे उन कल्कि  रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।

( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।

महाभारत में यद्यपि कहीं कहीं उपनिषदों के बहुतायत रूप से उद्धरण प्रस्तुत हैं।
विशेषत कठोपोपनिषद के .....
_______________________________________________
प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें