रविवार, 30 मार्च 2025

★-श्रीकृष्णस्य वार्ताणि-★

                

        ★-श्रीकृष्णस्य वार्ताणि-★

         (अध्याय- प्रथम)


यूरोपीय वैज्ञानिकों,  दार्शनिकों एवं कवियों के द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता मूलक संस्मरण जो उनके जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव को प्रतिध्वनित करते हैं।


संसार की महान विभूतियों द्वारा अपनी जैविक सफलताओं के अवदान में प्रायः श्रीमद्भगवद्गीता  का उल्लेख किया जाना इस महान ग्रन्थ के महत्व को स्वयं ही उद्घोषित करता है।

इन महान हस्तियों का मानना है कि श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम उन्हें अपने जीवन में  भौतिक एवं आध्यात्मिक  मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है। 

भगवद्गीता ने अनगिनत व्यक्तियों को मनीषी एवं महामानव बनने की प्रेरणा दी है और उनके जीवन में परिवर्तन करने में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित की है। इसी प्रेरणाओं का परिणाम हुआ है कि भगवद्गीता का अनेक यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है।
 
सामान्यत: गीता को जीवन जीने का मार्ग दिखाने तथा संसार में कर्तव्य की सीख देने व कई मञ्चों पर दर्शनशास्त्र और उच्च प्रबन्धन की निर्देशिका के रूप में भी आज  विशेषज्ञों द्वारा पढ़ाया जाता है। जीवन मूल्यों के लिए इसकी शाश्वत उपयोगिता ही इसके सौन्दर्य को स्थापित करती है।

भगवद्गीता की लोकप्रियता का परिणाम ही है कि वह भारत की सीमाओं से परे अपनी लोकप्रियता की पताका विश्व तथा यूरोप के चिन्तन शीलदेशों में फहरा रही है। भगवद्गीता ने संसार के कई महान और प्रसिद्ध मानवों को न केवल प्रभावित किया है बल्कि उनके जीवन को भी पूरी तरह परिवर्तित (modyfied) किया है।

प्रस्तुत है यूरोपीय वैज्ञानिकों,  दार्शनिकों एवं कवियों के द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता मूलक संस्मरण जो उनके जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव को प्रतिध्वनित करने वाले प्रसंग ।

अल्बर्ट आइन्सटीन जर्मनी में जन्मे यहूदी जातीय मूल के एक प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी थे, जिन्होंने सापेक्षता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसके अतिरिक्त जन सामान्य के बीच, उनके द्वारा दिया गया द्रव्य ऊर्जा सम्बन्ध का सिद्धान्त भी  लोकप्रिय है।

इसी के अन्तर्गत उन्होंने ऊर्जा= द्रव्यमानxप्रकाश का वेग 2 का प्रसिद्ध सूत्र दिया। उन्हें भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्य और फोटो इलेक्ट्रिक प्रभाव को प्रतिपादित करने के लिए 1921 का नोबेल पुरस्कार दिया गया।
जिसके कारण भौतिक विज्ञान के क्वाण्टम के सिद्धान्त को स्थापित करने में सहायता मिली।
 
आइन्सटीन भगवद्गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए उपदेशों से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कहा कि “ जब मैंने भगवद् गीता को पढ़ा तो मुझे पता चला कि ईश्वर ने कैसे दुनिया को बनाया है और मुझे यह अनुभव हुआ कि प्रकृति ने हर वस्तु कितनी प्रचुरता में प्रदान की है।” हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि भगवद्गीता ने मुझे कठिन परिश्रम करने के लिए कितना प्रेरित किया है। मैं आप सब से कहना चाहता हूँ कि गीता को जरूर पढ़े और आप खुद देखेंगे कि उसने आपके जीवन को कितना प्रभावित किया है।


हेनरी डेविड थोरो अमेरिका के प्रसिद्ध प्रकृतिवादी, दार्शनिक, एवं कवि थे। उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता अपनी किताब वाल्डेन के लिए मिली। इसके अतिरिक्त वह अपने निबन्ध सविनय -अवज्ञा के लिए भी जाने जाते हैं। जो कि एक ऐसे राज्य के विरुद्ध अवज्ञा की बात करता है, जो अपने नागरिकों के साथ अन्याय करता है। थोरो की किताबें, निबन्ध, कविताऐं , 20 से ज्यादा वॉल्यूम में प्रकाशित की गई हैं।
 
हेनरी भारतीय दर्शन और अध्यात्म से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध किताब “वाल्डेन” में भगवद्गीता का कई बार उल्लेख किया है। वे पुस्तक के पहले अध्याय में ही लिखते हैं “ पूरब के देशों के दर्शन की तुलना की जाय तो वह सबसे ज्यादा भगवद्गीता से प्रभावित हैं।”

अमेरिका के भौतिक वैज्ञानिक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर को परमाणु बम का जनक कहा जाता है। वह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान में हिरोशिमा और नागासकी पर किए गए परमाणु हमले में शामिल थे। परमाणु हमले के बाद उन्होंने भगवद्गीता का उल्लेख करते हुए कहा था कि उन्हें उस वक्त भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश याद आया। जब वह अर्जुन से कहते हैं कि तुम केवल अपना कर्त्तव्य निभाओ। “मैं अब मृत्यु हूँ और दुनिया को खत्म करने वाला बन गया हूँ” बाद में ओपेनहाइमर ने कहा कि भगवद् गीता ने उनके जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है। उन्होंने परमाणु परीक्षण के विषय में बाद में गीता का उल्लेख करते हुए कहा “हम जानते है कि दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी, कुछ लोग खुश होंगे, कुछ रोएंगे, ज्यादातर लोग चुप रहेंगे। मुझे गीता की पँक्तियाँ याद आ रही है कि भगवान कृष्ण अर्जुन को उसका कर्तव्य समझाते हुए वह उसे अपना विराट रूप दिखा रहे हैं।”
 
 
ओपेनहाइमर ने परमाणु विस्फोट के प्रयोग का सफलता के बाद गीता के इस श्लोक का भी उल्लेख किया था।

             "श्रीभगवानुवाच"
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।11/32।
अनुवाद:-
(श्री भगवान बोले- मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा।)

थॉमस मर्टन एक अमेरिकी  लेखक, कवि, सामाजिक कार्यकर्ता और धर्माचार्य थे। 26 मई 1949 को वह पादरी बनाए गए और उनको नया नाम फादर लुईस दिया गया। उन्होंने 27 साल में करीब 50 किताबें लिखी। जो कि प्रमुख रूप में आध्यात्मिक, सामाजिक न्याय और शान्तिवाद पर आधारित थीं। उनका सबसे अच्छा काम उनकी आत्मकथा “द सेवन स्टोरी माउण्टेन” को माना जाता है। मर्टन की विशेषज्ञता दूसरे धर्मों को समझने में काफी अच्छी रही है। खास तौर से उन्होंने पूरब के देशों के अध्यात्म की व्याख्या को पश्चिम की दुनिया तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई है। वह लगातार एशिया के प्रमुख आध्यात्मिक गुरुओं और लेखकों से संवाद करते रहते थे। उन्होंने दलाई लामा, जापान के लेखक डी.टी.सुजुकी, थाइलैण्ड के बौद्ध भिक्षु बुद्धदशा, विएतनाम के भिक्षु थिक्षनाथ हान आदि से संवाद किया।
 
 उनके शब्दों में  गीता का मतलब होता है कृष्ण का गीत, ठीक उस तरह जिस तरह से बाइबिल में सोलोमन के गीत हैं, जिसे “गीतों का गीत” कहा जाता है। इसी तरह भारतीयों के धर्म के लिए भगवद्गीता, लोगों को जीवन का रहस्य समझाती है। वह लोगों को जीवन जीने का एक उत्तम तरीका सिखाती है। लेकिन इन गुणों के अतिरिक्त भी गीता में बहुत कुछ है। वह लोगों को अपने दैनिक कर्त्तव्य को पूरा करने में कर्म की अनिवार्यता को ही महत्व देती है।

इस अमेरिकी कवि पर भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव था। उन्होंने 1911-1914 की अवधि में हावर्ड में भारतीय दर्शन और संस्कृत का अध्ययन किया। उन्होंने अपनी कविता “द ड्राई साल्वेजेस” में भगवद गीता में कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद का उल्लेख किया है। जिसके जरिए उन्होंने भूत और भविष्य के बीच के सम्बन्ध को भी समझाया। यही नहीं इसके जरिए उन्होंने लोगों को यह राह दिखाई कि अपने व्यक्तिगत लाभ की जगह ईश्वर को पाने के पीछे भागो। उन्होंने इस सम्बन्ध में गीता के अहम पंक्तियों का भी उल्लेख किया—
 
“आप इस भवसागर (दुनिया) में आए हैं और आपका शरीर उसके थपेड़ों को सहेगा, जो भी कुछ आपके जीवन में घटेगा वह निहित है। इसलिए कृष्ण युद्ध के मैदान में अर्जुन से कहते हैं कि युद्ध छोड़ कर जाओ नहीं बल्कि आगे बढ़ो।”
 

रूडोल्फ जोसेफ लॉरेंज स्टेनर ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध दार्शनिक, समाज-सुधारक थे। स्टेनर को लोकप्रियता (19) वीं शताब्दी में अपने साहित्यिक आलोचनाओं और (द फिलॉफिसी ऑफ फ्रीडम) के जरिए मिली। 
आगे चलकर  उन्होंने एक आध्यात्मिक आंदोलन एन्थ्रोपोसोफी( मानवशास्त्र ) की शुरूआत की। उन्होंने गीता की व्याख्या करते हुए कहा “जीवन और सृजन को समझने का भगवद् गीता पूरा ज्ञान देती है। इसे समझने के लिए मनुष्य को अपने अन्त:करण (समग्र मन) (को शुद्ध करना बेहद जरूरी है।” भगवान कृष्ण युद्ध के मैदान में दुविधा में फँसे अर्जुन को दुनिया के रहस्य को बताते हुए हुए योग का रास्ता समझाते हैं। 

स्टेनर कहते हैं कोई व्यक्ति कर्म, प्रशिक्षण और बुद्धि से कितनी ऊँचाई तक पहुँच सकता है, उसका उदाहरण कृष्ण का अर्जुन को दिया गया गीता ज्ञान हैं।
 
इसके अतिरिक्त वह अपने अध्ययन से यह भी बताते हैं कि कैसे कृष्ण द्वारा लोगों को बताया गया आध्यात्म पथ  और ईसा मसीह द्वारा दिखाया गया बाहरी जीवन में मानवता का रास्ता एक-दूसरे के पूरक तथ्य हैं।
 


ब्रिटिश शासन में भारत के बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने गीता के अंग्रेजी अनुवाद में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने इसके लिए अंग्रेजी अनुवादक चार्ल्स विलिकिंस का भरपूर सहयोग किया। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने गीता के अंग्रेजी अनुवाद की प्रति ईस्ट इंडिया कम्पनी के चेयरमैन को भेंट की थी। और उस वक्त उनसे कहा था कि भगवद गीता “महान मौलिकता का प्रदर्शन, मानव के उद्भव की पराकाष्ठा, तर्क और कल्पना का अप्रतिम रूप है, और मानव जाति के सभी ज्ञात धर्मों के बीच एकल अपवाद है।
 
 
रॉल्फ अमेरिका के निबन्धकार, प्रवक्ता, कवि और दार्शनिक थे, जिन्होंने ट्रान्सेडेण्टलिस्ट आन्दोलन की 19 वी शताब्दी के मध्य में अगुवाई की थी। वह व्यक्तिवाद के अग्रणी दार्शनिकों में से एक थे। उनके दर्जनों निबन्ध और 1500 से ज्यादा व्याख्यान अमेरिका में प्रकाशित हुए।
 
वह धीरे-धीरे अपने सहयोगियों की धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं से दूर होते गए। और अपने अनुभवों के आधार पर ट्रांसेडेंटलिज्म का दर्शन शास्त्र “नेचर” को लोगों को सामने रखा। उसके बाद उन्होंने अपने कामों के ऊपर “द अमेरिकन स्कॉलर” नाम से भाषण भी दिया। जिसे बाद में वेडल होल्म्स सीनियर ने अमेरिका की “स्वतंत्रता को  बुद्धिजीवियों का घोषणा पत्र” कहा। इसी दौरान उनका फ्रांसीसी दार्शनिक विक्टर कजिन के जरिए भारतीय दर्शन से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने गीता के बारे में लिखा “मैंने भगवद गीता के साथ बेहतरीन दिन बताया। जैसे लग रहा था कि कोई साम्राज्य हमसे बात कर रहा है, उसमें कुछ भी छोटा और अनुपयोगी नहीं है। सबको कुछ वृहद, निर्मल, टिकाऊ, पुराने दौर का ज्ञान और माहौल है, वह उन्हीं सवालों के जवाब देती हैं, जिनका आज हम अभ्यास करते हैं ”
 

  
फ्रेडरिक वॉन जर्मनी के दार्शनिक, भाषाविद, सम्भ्रान्त और हमबोल्ट विश्वविद्यालय के संस्थापक थे। उन्होंने प्रमुख रुप से उदारवाद को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पहले से मौजूद पारम्परिक प्रथाओं की जगह व्यक्ति की सम्भावनाओं को तरजीह दी। इस वजह से वह युवाओं में भी खासा लोकप्रिय थे। उन्होंने भगवद्गीता के बारे में कहा कि “वह दुनिया में साहित्य के क्षेत्र में शायद सबसे बेहतरीन ग्रन्थ है।” उन्होंने 1821 में संस्कृत भाषा सीखी और सेलेगल संस्करण की गीता को भी पढ़ा। गीता ने हमबोल्ट के जीवन पर खासा प्रभाव डाला। उन्होंने उसके बारे में कहा कि महाभारत के अन्दर यह सबसे खूबसूरत अध्याय है। जो शायद किसी भी भाषा में मौजूद सत्य के करीब सबसे बेहतरीन दर्शन(Philosophy) है।
 
गीता को पढ़ने के बाद उन्होंने अपने दोस्त और राजनीतिज्ञ फ्रेडरिक वॉन गेंट्ज को पत्र लिखते हुए कहा है “मैंने इस पुस्तक को पहली बार उस वक्त पढ़ा था जब मैं अपने देश में था, उस समय मुझे ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का अनुभव हुआ और मैंने उसे मुझे जन्म देने और इस जगत में काम करने का अवसर देने के लिए धन्यवाद कहा ”
 
इसके बाद बर्लिन अकादमी ऑफ साइन्स में 30 जून 1825 को भाषण देते हुए कहा कि उन्हें भगवद्गीता , मुझे अपने पूर्वजों का आध्यात्मिक ज्ञान लगती है। मुझे इसकी निर्मलता और सरलता सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। कृष्ण ने अपने सिद्धान्त को जिस खास अन्दाज में पेश किया है, उसमें मैं अध्यात्म की जटिलता नहीं देखता हूं। इसलिए यह ग्रन्थ लोगों को सोचने के लिए मजबूर करता है।
 
एलडस हक्सले अंग्रेजी के लेखक और दार्शनिक थे। उन्होंने करीब 50 किताबें लिखी। वह एक शांन्तिवादी विचारक थे। उन्होंने दार्शनिक आध्यात्मवाद पर खास तौर से जोर दिया और उस पर काम किया। उनका प्रमुख काम पश्चिम और पूरब( यूरोप और भारत) के आध्यात्मिकता (Spirituality ) का अध्ययन कर उनमें मौजूद समानताओं की व्याख्या( explain) करना था। 

उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास “ब्रेव न्यू वर्ल्ड” था। इसके अलावा उन्होंने एक प्रसिद्ध उपन्यास “आईलैंड” भी लिखा। जिसमें उनके आदर्श और निरंकुश राज्य की परिकल्पना का दर्शन सामने आता है।
 
भगवद्गीता के बारे में उन्होंने लिखा है कि “यह मानव के आध्यात्मिक विकास का सबसे व्यवस्थित कथन है” उनका गीता के बारे में यह भी कहना है “गीता , दर्शन के सबसे स्पष्ट और व्यापक व्याख्याओं में से एक है इसलिए इसका महत्व केवल भारत के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए है।”
 
 
हॉलीवुड सुपर स्टार ह्यूग जैकमैन भारतीय संस्कृति से काफी प्रभावित रहे हैं। उन्होंने कई साक्षात्कारों में कहा है कि उन्हें भारत का आध्यात्म आकर्षित करता है। वह उपनिषद, भगवद्गीता को पढ़ते हैं। एक बार उन्होंने कहा कि जिन धार्मिक ग्रन्थों के उपदेशों का हम पालन करते हैं वह पूरब और पश्चिम का मिश्रण है। चाहे सुकरात के हो या फिर उपनिषद और भगवद् गीता-सभी में समानाता है। ह्यूग कहते हैं “मैं एक ऐसा कलाकार हूं, जो ईसाई के रूप में पैदा हुआ जो अपने सगाई में जब अंगूठी पहनता है तो वह श्लोक भी पढ़ता है।”
 
वह अकसर अपने काम के दौरान भगवद्गीता का उल्लेख किया करते थे। उन्होंने सत्याग्रह शीर्ष से एक ओपेरा के लिए संगीत दिया। जो कि महात्मा गाँधी के जीवन पर आधारित था। जिसमें भगवद् गीता को संस्कृत में गाया गया।
 

एनी बेसेंट ब्रिटिश सामाजिक कार्यकर्ता थीं और महिला अधिकारों के लिए सदैव आवाज उठाती थी। इसके अलावा वह एक लेखक, शिक्षाविद और प्रमुख वक्ता भी थी। वह मानव स्वतन्त्रता की हिमायती थी। इसके अलावा वह आयरलैंड और भारत की स्वतन्त्रता की समर्थिका थी। उन्होंने करीब 300 से ज्यादा किताबें और पत्रिकाएँ निकाली। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्यों में भी शामिल थी। उन्होंने भगवद्गीता का अनुवाद “द लॉर्ड सॉन्ग” के नाम से किया। उनके द्वारा अनुवादित की गई किताब का एक उदाहरण है: आध्यात्मिक व्यक्ति बनने के लिए जरूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति एकाकी जीवन बिताए। भगवद्गीता हमें सिखाती है कि कैसे ईश्वर को सांसारिक जीवन में रहते हुए पाया जा सकता है। इसे पाने के लिए बाधाएँ हमारे अन्दर मौजूद हैं और हम उसे बाहरी जीवन में ढूढ़ते हैं।


ब्लूनेट तुर्की के प्रमुख राजनेता, कवि, लेखक और पत्रकार थे। वह 1974 -2002 के बीच चार बार तुर्की के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने रविंद्र नाथ टैगोर, टी.एस.इलियन और उमर तारिन के कृतियों का तुर्की भाषा में अनुवाद किया। ब्रिटिश टेलीविजन को 1974 में दिए गए साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि साइप्रस पर हमला करने के लिए फौज भेजने की हिम्मत उनके पास कहाँ से आई। तो उन्होंने कहा कि यह साहस उन्हें भगवद्गीता से मिला। गीता हमें सिखाती है कि अगर आप नैतिक रूप से सही है, तो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए हिचकना नहीं चाहिए। इसके अलावा उन्होंने बताया था कि जब वह ताकतवर इसमत इनोनु के खिलाफ 1972 में खड़े हुए थे, तो उस वक्त भी उन्हें गीता से ही ताकत मिली थी।
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(विद्यार्थीयों के लिए गीता की उपयोगिता एवं विद्यार्थी होने की पात्रता व गुण)


 विद्यार्थी= विद्या का अर्थी (चाहने वाला) के अनेक गुण वाचक विशेषण हैं।
विद्यार्थी को गुरु के सानिध्य में रहकर कैसा आचरण करना चाहिए । और विद्या उपार्जन के लिए  मन को कितना एकाग्र और संशोधित रखना चाहिए  यह सब स्वयं विद्यार्थी के पर्यायवाची शब्दों की व्युत्पत्ति व जीवन विकास यात्रा के इतिहास से ज्ञात हो जाता है।

जैसे - छात्र शब्द की व्युत्पत्ति-- यः सदा गुरुणा सह चरति छत्रमुन्नत शिरसो उपरि इति छात्र: कथ्यते। 

अर्थात- जो गुरु के साथ छाया की तरह बहुधा यात्रा-काल में  सिर के ऊपर छत्र तान कर चलता है वही छात्र है अर्थात् एक छत्र (छाता) धारी ही छात्र है।

अथवा -छत्रमिव गुरोर्दोषाणामावरणं तच्छीलमस्येति छात्र कथ्यते ” ४।४।६२। )
अथवा जो छत्र (आवरण) के समान गुरु के दोषों को ढककर रखता है। अर्थात्  गुप्त रखता है। अथवा इस प्रकार के स्वभाव से युक्त होता है। वह छात्र है। इसी छात्र के अन्य पर्याय वाची हैं विशेषण शब्द हैं -



       शिष्य और शास्य)     शिष्य और शास्य एक ही शब्द के दो रूप हैं।

शास्य- अनुशासित करने योग्य- शिष्य शब्द या ही वैदिक रूप है।
 शास्य वैदिक ऋचाओं में उद्धृत है। जिसका अर्थ है - जिसे अनुशासित किया जाए 
देखें निम्नलिखित ऋचा-

"त्वं ताँ अग्न उभयान्वि विद्वान्वेषि प्रपित्वे मनुषो यजत्र ।
अभिपित्वे मनवे शास्यो भूर्मर्मृजेन्य उशिग्भिर्नाक्रः ॥७॥ ऋग्वेदः सूक्तं 1/189/7

उपर्युक्त ऋचा में  (शास्यः) का अर्थ = शासन करने योग्य है। (शासितुं योग्यः)  यही शब्द लौकिक संस्कृत में शिष्य है।

शिष्यः। उपदेश्यः 
शास् + ण्यत् ।) शासनीयः ।शासितव्यः शिक्षणीयः ।

शास्- शासने अनुशिष्टौ-इच्छायाञ्च।
शिष्य, शास्य , तथा शास्त्र सभी शब्द शास- धातु से निष्पन्न हैं।
(शासतेऽसाविति । शास + “एतिस्तुशास्वृदृजुषः+ क्यप् ।

"शिष्ट-

 = (शास + क्तः । “शास इदङ्हलोः ।”६ । ४ । ३४ । इति उपधाया इकारः ।“शासिवसिघसीनाञ्च ।८। ३। ६० इति सस्यषः ।) शान्तः। सुबुद्धिः। धीरः

"शास्त्र

 शिष्यते शासते वा अनेन शिष्यान् इति शास + “सर्व्वधातुभ्यष्ट्रन् । उणादि सूत्र० ४।१५८। इति ष्ट्रन् ) निदेशः । ग्रन्थः।

अमरकोश में भी शास्- धातु से ही "शास्त्र" शब्द की व्युत्पत्ति को दर्शाया गया है।
विद्वान शास्त्रों के द्वारा समाज को अनुशासित करते हैं और राजा शस्त्र द्वारा समाज पर शासन करने का प्रयास करता है।

गुरोऽन्तश्च सर्वदा  शिष्य: चरणयो: तिष्ठेत्  ।
आगमनं  गुरोर्दृष्ट्वा  शय-युत्वा उत्तिष्ठेत्॥।
अनुवाद:-
गुरु के पास  हमेशा शिष्य उनके चरणों में खडा रहे और गुरु का आगमन  देखकर हाथ जोडकर खड़ा हो जाए।३।
 
बहवो गुरवो लोके शिष्यस्य वित्तपहारकाः ।
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः॥४।
अनुवाद:-
संसार में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले होते हैं; परन्तु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं ।

कबीर ने गुरु की समानता कुम्हार से की है और शिष्य जैसे  कुम्भ के समान है।

गुरु  कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि  गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट ।।
भावार्थ-
संत कबीर कहते हैं गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा के समान है। जैसे कुम्हार घड़े में भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मारकर घड़े को सही आकार देता है उसी तरह गुरु भी शिष्य  की बुराइयों पर अनुशासन की थाप देकर  उसे संयमित कर उसके महान व्यक्तित्व का निर्माण करता है। तथा शिष्य के जीवन को सही रूप देता है।

भगवद्गीता शस्त्र और शास्त्र दोनों की जीवन मै उपयोगिता समय के अनुरूप प्रतिपादित करती है।
हम्हे सन्त सैनिक बनने की
प्रेरणा भी श्रीमद्भगवद्गीता ही देती है।
 
निसन्देह जीवन में अनुशासन (नियम और संयम) जीवन की स्वाभाविकता रूपी धाराओं के विपरीत तैरने की प्रक्रिया ही है। यही संयम पूर्वक आचरण धर्म है।

विद्यार्थीयों के नवोदित जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता की महती उपयोगिता है। यह छात्रों को जीवन के कठिन समय में धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखने, तनाव और चिन्ता को कम करने, तथा परिस्थितियों में सही निर्णय लेने और जीवन में सफलता प्राप्त करने में सहायता करती है। गीता में बताए गए ज्ञान और सिद्धान्त छात्र जीवन के प्रत्येक पक्ष (पहलू) में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। 

               (गुरु-)

गुरुः= (गीर्य्यते स्तूयते महत्त्वात् ।  अर्थात गुरु: वह है- जिसकी महानताओं का गान किया जाता है। गुरु शब्द भारोपीय परिवार की अनेक भाषाओं में अपनी गरिमा ( भारीपन) के अर्थ में ही विद्यमान है। भारी का तात्पर्य उसकी महानता (Greatness) से है। 

भारतीय संस्कृति में गुरु: पद आध्यात्मिक और वैज्ञानिक गहराईयों को स्पर्श करता है। जो एक साधारण शिक्षक से श्रेष्ठ व पूज्य है। सर्वप्रथम हम ऋग्वेद में ही गुरु: शब्द को  भारीपन के अर्थ में देखते हैं। गुरु ही अपने ज्ञान से समाज का और राष्ट्र का मार्ग दर्शन करता है। 

"इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म.। बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यह्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु. ।। ऋग्वेदे । ४। ५। ६।

अनुवाद:- हे पवित्र करने वाले अग्नि देव ! ,गुरु भार भी मन्त्र बल से अनुभव नहो होता । अपनी पीठ पर सात धातुओं का अत्यधिक भार धारण करने वाले गम्भीर और धैर्यवान- अग्निदेव आप प्रसन्न हो।६।

यूरोपीय भाषाओं में गुरु: शब्द पूर्व उत्पत्ति काल से ही विद्यमान है। जब कभी सभी भारोपीय संस्कृतियों का एक ही मञ्च पर सम्मेलन रहा होगा। यूरोपीय भाषाओं में ह़म गुरु: शब्द को निम्नलिखित रूपों में देखते हैं-

संस्कृत- गुरु:= महान (भार युक्त)"heavy, weighty, venerable;" 

१-ग्रीक- बेरो:(baros) barys- भार ( weight ) लम्बाई( strength ) या शक्ति(force) के अर्थ में प्रचलित है।

२-लैटिन- ग्रेविस-(gravis)

३-पुरानी अंग्रेज़ी- क्वेरन= cweorn  /quern (भारी)

४-प्राचीन जर्मन ( गॉथिक भाषा-में) कॉरुस kaurus भारी("heavy);"

५-लैटिस- गुरुत्-(gruts)- "heavy।

६-अवेस्ता- ग़र- मनन-चिन्तन अथवा स्तुति करना।

७-- लिथुआनियन- गिरियु (giriu) girti - स्तुति  करना। 

गुरु: में विशेष ज्ञान का भाव था इसीलिए गुरु: ज्ञान का श्रोत हुआ। ज्ञान व्यक्ति के मौलिक अनुभवों ये सिद्ध व प्रमाणित बौद्धिक सम्पदा  होती है। जबकि शिक्षा दूसरे से सीखी हुई ही होती है। इसीलिए गुरु: शिक्षक पद से उच्च व गरिमा मयी है।

भगवान श्रीकृष्ण एक शिक्षक न होकर एक पूर्ण गुरु हैं। जिनमें अनुभव जन्य ज्ञान  और  सिद्ध ज्ञान की गरिमा समाहित है। जो अर्जुन जैसे जिज्ञासु शिष्य को तृप्त करती है।


गीता में दिए गए उपदेशों के लाभ:
कर्तव्य करने में- आत्म-विश्वास और आत्म-समर्पण की भावना का होना-

  • कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ (2:47):
    इसका अर्थ है कि आपका अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए, फल की चिंता किए बिना अपना कर्तव्य करते रहो।                                    
  • आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः। (6:5-6):                    इसका अर्थ है कि मन ही अपना मित्र और शत्रु दोनों हो सकता है। यदि मन को नियन्त्रित किया जाए, तो यह मित्र बनता है, और यदि इसे नियन्त्रित नहीं किया जाए, तो यह शत्रु बनता है।                         
  • हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। (2:37):                इसका अर्थ है कि चाहे आप मर जाएँ या जीत जाएँ, दोनों ही स्थिति में आपका  निश्चित है।  जीवित रहने पर पृथ्वी की राज सत्ता का भोग और मृत्यु होने पर स्वर्ग की प्राप्ति निश्चित ही है।                  जो लोग अनेक देवी देवों और धर्म- सम्प्रदाय के चक्कर में अपने सुख घन घान की प्राप्ति के लिए पड़े हुए हैं। निश्चित रूप से वह व्यक्ति  जीवन में कोई सिद्धि प्राप्त नही कर सकते हैं। इसी लिए कृष्ण उन्हे सभी सम्प्रदाय मूलक धर्मों को त्यागकर अपनी शरण में आने की कहते हैं।                                                          
  • सर्वधर्मान्परित्यज् मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। (18:66).                                                                                इसका अर्थ है कि सभी धर्मों का त्याग करके मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।
  • यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचैव चाहं तं तं स्थापयामि च।। (7:21):
    जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस (भक्त) की मैं श्रद्धा उस ही देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।। परन्तु कृष्ण उद्घोषणा करते हैं। कि तुम केवल मुझे ही याद करो-
  • मा मा स्मर, त्वं मां जहि, मद्भक्तः स त्वया भवेत्। (9:32):                          
    इसका अर्थ है कि मुझे याद करो, मुझे अपना लो, मेरा भक्त बनो, तो तुम मुझमें स्थित हो जाओगे।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

विशेष—मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदविहित जो यज्ञादि कर्म हैं उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्रग्रन्थों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकाण्ड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे । यद्यपि महाभारत आदि पुराण ग्रन्थों में "न हिंस्यात् सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत्।
नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥ वन.२१३/३४॥  आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाड़ ही की ओर था । 

विशेष—मीमांसा के अनुसार वेद-विहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है । जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है । संहिता से लेकर सूत्रग्रन्थों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है । कर्मकाण्ड का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे । 

ऋग्वेद में धर्म शब्द लैटिन टर्मिनस के समानार्थी है । जबकि श्रीमद्भगवद्गीता उपर्युक्त श्लोक  में धर्म वैदिक विहित कर्मों का  जो सकाम भाव से किए जाते हैं। उनका वाचक है।

जीवन का कल्याण और श्रेय पद चाहने वालों के लिए
सकाम कर्मों की भगवान श्रीकृष्ण नें सर्वथा निषेध ( मनाही) की है। इसी उद्देश्य से वैदिक मतों को भी उन्होंने निम्नतर तथा हेय रूप में प्रतिपादित किया।

परन्तु श्रीमद्भगवद्गीता में ही एक स्थान चतुर्थ अध्याय के श्लोक संख्या सात में कहा है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

 हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।७।
उपर्युक्त श्लोक में धर्म का अर्थ - नैतिक आचरण  नियम संयम से ही सम्भव है।


ऋग्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग सनातन विशेषण के साथ हुआ है।

वैश्वानराय पृथुपाजसे विपो रत्ना विधन्त धरुणेषु गातवे ।
अग्निर्हि देवाँ अमृतो दुवस्यत्यथा धर्माणि सनता न दूदुषत् ॥१॥ (ऋग्वेद ३/३/१)
अनुवाद:-
विस्तृत शक्ति वाले अग्निदेव के लिए  विद्वान जन रत्नों( उत्तम पदार्थों) की आहुति का विधान करते हैं। जो विशेष स्वरधाराओ में स्तुति करने वाले है उनके लिए अग्निदेव अमरता प्रदानकरते हैं। जैसे  अग्नि ने ही देवों के अमर करते है। अर्थात उनकी परिचर्या करता है।  इसी कारण सनातन धर्म दूषित नहीं होता है।
(ऋग्वेद ३/३/१)

प्रयुक्त पदों का अर्थ={१] (विप:) = ज्ञानी जन (वैश्वानराय) =  वैश्वानर के लिए (पृथुपाजसे) = अनन्त शक्तिवाले  के लिये (रत्ना) =रत्नों को (विधन्त) = वधान करते हैं, (धरुणेषु गातवे) = अग्नि की स्तुति करने वाले को लिए -स्तोता (अग्निः) = (अमृतः) = अमरता। (देवान् दुवस्यति) = देवों की परिचर्या करता है।  (अथा) = अब  (सनता धर्माणि) = सनातन धर्मों को। न दूदुषत्= दूषित नहीं करता है। 


बुद्ध ने शील को ही धर्म कहा है। ये तेरह प्रकार के हैं-
देवपितृभ- क्तता २ सौम्यता ३ अपरोपतापिता ४ अनसूयता ५ मृदुता ६ अपारुष्य ७ मैवता ८ पियवादिता ९ कृतज्ञता १० शरण्य- ता ११ कारुण्यता १२ शान्तिश्चेति १३ त्रयोदशविधं शीलम् ।


उक्तवानस्मि दुर्बुद्धिं मन्दं दुर्योधनं पुरा ।
यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः॥३९॥ (महाभारत १३/१५३/३९)

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥९२॥
(मनुस्मृति ६/९२)
अनुवाद: - १ धृतिः - धैर्य २ क्षमा ३ दमः - कर्मेन्द्रियो पर संयम ४ अस्तेय - चोरी न करना ५ शौचम् - पवित्रता ६ इन्द्रियनिग्रहः - ज्ञानेन्द्रियो पर संयम ७ धीः - बुद्धि ८ विद्या ९ सत्य १० अक्रोधः - क्रोध न करना । ये दश धर्म के साधन हैं । अतः  इनका आचरण करना चाहियें

यम ही धर्मराज है। और धर्म का ही अन्य विशेषण यम है।
इसी के कारण कोई व्यक्ति सदाचरण का पालन कर पाता है।ये सभी मन के परिमार्जन और उसको नियन्त्रण करने के आचरण मूलक उपाय है।

 योग दर्शन में योग के आठ अंग माने गए हैं । इसे अष्टांग योग कहा जाता है । ये अंग हैं - १-यम , २-नियम , ३-आसन , ४-प्राणायाम , ५-प्रत्याहार , ६-धारणा , ७-ध्यान और ८-समाधि ।

(१) यम — समाज में सुव्यवस्था लाने के लिए यम का पालन किया जाता है यही धर्म का मूल है। । इसके ५ रूप हैं — अहिंसा — किसी प्राणी को न मारना , सत्य , अस्तेय ( चोरी न करना ) , ब्रह्मचर्य ( व्यभिचार और कामुक क्रियाओं से परे रहना) और अपरिग्रह ( अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह न करना ) ।

(२) नियम — व्यक्तिगत उन्नति के लिए अपनाए जाते हैं । ये भी ५ हैं — शौच (अंदर , बाहर की पवित्रता और स्वच्छता ) , सन्तोष , तप , स्वाध्याय और  ईश्वर की शरण में जाना (भक्ति) ।

(३) आसन — स्थिर , सुखपूर्वक बैठने को आसन कहते हैं । योग दर्शन में इनकी संख्या ६४ , ८४ या १०८ तक भी है ।

(४) प्राणायाम —श्वास को मूलाधार से सहस्रार चक्र तक ले जाना प्राणायाम है। इसकी क्रियाओं में आरम्भन कुम्भक और रेचक तीन भाग हैं।

(५) प्रत्याहार — इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्रत्याहार है।

(६) धा‌रणा — चित्तवृत्ति को किसी वस्तु पर स्थिर करना धारणा है ।

(७) ध्यान — अपने इष्ट पर मन को लगाना ध्यान है ।

(८) समाधि — ईश्वर में आत्मा को लीन करना समाधि है ।

भगवान कृष्ण ने योग मूलक धर्म की स्थापना के लिए ही अवतरण किया।

यह धर्म समता मूलक है।

 "समत्वं योग उच्यते"

वैदिक ऋचाओं में विष्णु का वर्णन  गोप रूप में धर्म को धारण करने वाले रूप में हुआ है।

"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
अनुवाद
उन अविनाशी विष्णु नें गोप रूप में  सम्पूर्ण लोकों को तीन पग में अभिगमन कर लिया वही गोप धर्म को धारण करने वाला है।१८।

उपर्युक्त वैदिक ऋचा में विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण करते हैं और कृष्ण भी साक्षात गोपों के ईश्वर तथा गोप ही हैं, जो धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होते है।

उसी अर्थ मैं धर्म का प्रयोग इस श्लोक में हुआ है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
अनुवाद:-
हे भारत (अर्जुन) ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,  तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।


परन्तु श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय में  धर्म शब्द वैदिक सकाम कर्मकाण्डों का वाचक है। इसीलिए जिसे भगवान श्रीकृष्ण त्यागने की बात करते हैं।

अत: धर्म शब्द दो भिन्न अर्थों में भगवान श्रीकृष्ण ने व्याख्यायित किया है।
धर्म हम्हारी संस्कृति का आचरण पक्ष तथा सभ्यता का प्राण है। दूसरे शब्दों में संस्कृति आत्मा और सभ्यता उसका शरीर है।
 अत: श्रीकृष्ण नें अठारहवें अध्याय के श्लोक (सर्वधर्मान्परित्यज्य ) में धर्म शब्द यज्ञ मूलक कर्म काण्डों के वाचक रूप में ग्रहण किया है जिसे श्रीकृष्ण त्यागने की ही बात कर रहे हैं।
 क्योंकि यज्ञ क्रियाएँ प्राय: देवों के प्रयोजन के लिए ही किए जाते हैं।

गीता हमें अपने कर्मों पर ध्यान केन्द्रित करने और फल की इच्छा न करने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह हमें जीवन के प्रत्येक कार्य को पूर्ण लग्न और आत्मविश्वास के साथ करने के लिए प्रेरित करती है। तभी जीवन में शान्ति की अनुभूति सम्भव है।

मानसिक शान्ति:

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।।

अनुवाद:-
युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है;  और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।१२।
 
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।

 अनुवाद:-
साधक भक्त) मुझे यज्ञ और तपों का भोक्ता और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा भूतमात्र का सुहृद् (मित्र) जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।२९।
 
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन के प्रति एक सन्तुलित व  समता मूलक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे हमें तनाव और चिन्ता से मुक्ति मिलती है और मन में परम शान्ति कि अनुभव होता है। 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।2/48।
हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।४८।

सही निर्णय लेने में सहायिका :

गीता हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर मार्गदर्शन प्रदान करती है, जिससे हम सही निर्णय लेने और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप निर्णय लेने में सक्षम होते हैं। 


भगवद गीता अध्याय -2, श्लोक- 63 में बौद्धिक पतन कि बड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२।
अनुवाद:-: क्रोध से मोह पैदा होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति भ्रमित होने से बुद्धि नष्ट होती है, और बुद्धि के नष्ट होते ही मनुष्य का पतन हो जाता है।2।


लक्ष्य निर्धारण और सफलता:

गीता हमें अपने लक्ष्य को निर्धारित करने और उस पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह हमें जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक अनुशासन और दृढ़ संकल्प प्रदान करती है। 


निर्णय और विवेचना शक्ति में सहायिका :
गीता ज्ञान का एक विशाल खजाना है जो हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं की समझ प्रदान करता है। यह हमारी मानसिक स्पष्टता, स्मृति और एकाग्रता को भी बढ़ाता है। 


        (-अध्याय तृतीय-)          

वेदों में श्रीकृष्ण का उल्लेख  तथा पशुहिंसापरक देव यज्ञों का भगवान श्रीकृष्ण द्वारा विरोध व निषेध कर गोवर्धन पूजा को प्रारम्भ कराने का उपक्रम-


अनुवाद:-हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप धन दिया।१३।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै: परिवृत: सन् अँशुमतीनामधेयाया नद्या: यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

शब्दार्थ-
  • इन्द्रः - इन्द्र ने 
  • शच्या - अपनी पत्नी शचि के द्वारा
  • धमन्तम -दहाड़ने वाले को
  • अप - दूर
  • स्नेहितीः - भिगोने वाले।
  • अधत्त - नीचे गिरा दिया।
  • इयानः) चलता हुआ 
  • (अंशुमतीम्) यमुना नदी को। 
  • (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। 
  • (नृमणाः) नरों के समान मनवाले अथवा धनों का
  •  (इन्द्रः) इन्द्र ने
  •  (तम् धमन्तम्) उस हुकारते हुए को (
  •  (आवत्)- युद्ध किया।
  • लङ्( अव् धातु अनद्यतन भूत)
  • एकवचनम्
  • द्विवचनम्
  • बहुवचनम्
  • प्रथमपुरुषः
  • टिप्पणी:-
  • (धमन्तम्) हुङ्कृतम्कुुर्वन्तम् । (स्नेहितीः) स्नेहतिः क्लेदयते।क्लिद आर्द्रीभावे
    (क्लिद्यति(नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् ॥

विशेष-असुर लोगों की सभ्यता का जीवन्त रूप प्राचीन-ईराक-ईरान(मेसोपोटामिया) का असीरिया देश साक्षी है।

अशुर एक प्रमुख प्राचीन मेसोपोटामिया सभ्यता थी जो 21वीं शताब्दी ईसा पूर्व से (14 )वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक एक नगर-राज्य के रूप में अस्तित्व में था,

फिर एक क्षेत्रीय राज्य, और अंततः (14)वीं शताब्दी ईसा पूर्व से (7)वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जिसकी सत्ता एक साम्राज्य के रूप में अस्तित्व में रही ____

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द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः। नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

अनुवाद :- इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं कृष्ण के साथ देखना चाहूँगा
अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़ कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा।।१४।

विशेष:-
जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
  • द्रप शब्द की भारोपीय व्युत्पत्ति-से भी द्रप शब्द जल बिन्दु का अर्थ बोधक सिद है।
  • drip (v.)

उपर्युक्त ऋचा में वर्णित बैल पुराणों का धेनुकासुर ही है।

अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
अध॑ । द्र॒प्सः । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ । उ॒पऽस्थे॑ । अधा॑रयत् । त॒न्व॑म् । ति॒त्वि॒षा॒णः । विशः॑ । अदे॑वीः । अ॒भि । आ॒ऽचर॑न्तीः । बृह॒स्पति॑ना । यु॒जा । इन्द्रः॑ ।स॒साहे॒॥

अध)-नीचे (तित्विषाणः)- दीप्तिमान (द्रप्सः) -जल (अंशुमत्याः)- यमुना नदी की (उपस्थे)- गोदी में (तन्वम्) अपने शरीर को (अधारयत्) धारण किया। (इन्द्रः) इन्द्र ने (बृहस्पतिना)बृहस्पति के साथ (युजा) सहयोगी के द्वारा (अभि, आचरन्तीः) सामना करने को आते हुए -- (अदेवीः) दैवीय सत्ता को न मानने वाले (विशः) गोप ने (ससाहे) युद्ध  किया॥१५॥

अनुवाद:- -यमुना नदी के जल में अपने अंक ( उपस्थ अथवा गोद ) में गोपों को धारण करते हुए तेजस्वी कृष्ण ने जो श्याम वर्ण तथा देवों को न मानने वाले थे। बृहस्पति के साथ आते हुए इन्द्र से  युद्ध किया था।१५।

विशेष:-
ऋग्वेद में कृष्ण को असुर नहीं कहा गया है।
यह गलतफहमी (भ्रम) है। और यह सब अर्थ प्रतीति आचार्य सायण की भाष्य से हुई। 

 ऋचांश (१५) में  "विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे" में 
विश: पद  का मतलब है गोप या वैश्य (वामन शिवराम आप्टे शब्दकोश, पृष्ठ 1029)।
गो पालन वृत्ति होने से ही ब्राह्मणी व्यवस्था के चातुर्वर्ण्य में गोपों को विश कहा गया है।

इस विश शब्द का असुर से दूर तक कोई लेना-देना नहीं।
अदेवी का मतलब सायण ने किया है "जो चमकता नहीं है" अर्थात काला, क्योंकि कृष्ण का रंग काला था। यह उनके रंग का वर्णन है, न कि उनके असुर होने का।
अदेवी की दूसरा अर्थ - जो देवों की सत्ता को नहीं मानता है। भी है। और ये दोंनो विशेषताऐं कृष्ण के चरित्र में हैं।
इस उपर्युक्त ऋचा में "असुर" शब्द ही नहीं है।
यद्यपि असुर शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ- प्राणवान तथा प्रज्ञावान है।

सायण ने क्या गलती की ?
सायण (14 वीं सदी के संस्कृत विद्वान) हैं जिन्होंने अपने भाष्य में विश का अर्थ "असुर सेना" किया है, जो गलत है, क्योंकि विश का मतलब वैश्य या गोप होता है।

अदेवी को "गैर-चमकने वाला" कहा, जो ठीक है, लेकिन इसे असुर से जोड़ना गलत था।
क्यों कि वेद और उपनिषद् में असुर शब्द  का प्राचीन अर्थ  - प्रज्ञावान् और प्राणवान के अर्थ में ही है।
ऋग्वेद (1.35.10) वरुण को "असुर" कहा गया, जिसका मतलब "शक्तिशाली" या " प्राणवान" है।  वेदों में असुर  शब्द वरुण, अग्नि और शिव के विशेषण रूप में विद्यमान है।।

कृष्ण की विचारधारा देवयजन मूलक कर्मकाण्डों से रहित शुद्ध आध्यात्मिक थीं।
जैसा कि वर्णन प्राप्त होता है।

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त्रेतायुग में ही इन्द्र आदि देवों के यज्ञ में जब अनेक पशुओं का यज्ञ-वेदी पर वध किया जाता था । तब द्वापर युग के अवसान बिन्दु ( समाप्ति) पर भगवान श्रीकृष्ण ने देवयज्ञों और पशु बलियों के विरुद्ध  उद्घोष किया- जैसा कि भविष्य पुराण वर्णन करता है।

अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते3/4/19/६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों विशेषत: इन्द्र के यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । ६१।

अनुवाद:-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर अन्नकूट का भूतल पर विधान किया।61।

देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः।
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे।६२।

अनुवाद:-इस अन्नकूट से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र कृष्ण पर क्रोधित हो गये तब उन्होंने व्रजमण्डल को मेघों द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण को लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्य चागता । ६३।

अनुवाद:-तभी उन प्रकृति माता ने अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।

तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्।
नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह।६४।

अनुवाद:-तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया । तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।__________________________

राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।

अनुवाद:-वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं।वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है। वे सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।

अनुवाद:-यह सुनकर कृष्ण प्रियमध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।-६६।।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त-★

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विचार विश्लेषण-

इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।

जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर  असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रहे थे और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र के हिंसापूर्ण यज्ञ को समस्त गोप-यादव समाज में  रोक दिया था। 

पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं का वर्णन किया ही है।
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि के द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है। कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश ने हंसकर कहा -कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

 



ईश्वर ज्ञेय ( जानने योग्य ) है !
साधक ज्ञाता है ,और ईश्वर से जुड़ने की मनस्- क्रिया ज्ञान है, जिसे हम साधना भी कह सकते है;
अत: जिस प्रकार दृष्टा और दृश्य का संयोग दर्शन अथवा प्रकाश है।
ठीक उसी प्रकार ज्ञान भी साधन ही है जो  ज्ञाता और ज्ञेय को जोड़ने का काम करता है ।
पाणिनीय- धातु पाठ में "ज्ञा" धातु नियोजन ( जोड़ने के अर्थ में है।

स्वयं ही शुद्ध अन्त:करण वाले साधक के मस्तिष्क में ईश्वर की भक्ति से ज्ञान का परावर्तन ( Reflection) होता है जैसे किसी स्वच्छ दर्पण पर प्रकाश का टकराकर वापस होना होता है।  इसलिए  ज्ञान  ईश्वर की अनुभूति का साधन है। नकि ईश्वर का वाचक  और यह ज्ञान प्रकृति के सत्गुण का प्रभाव व धर्म होने से प्रकृति जन्य ही है।

जबकि ईश्वर तो प्रकृति के तीन गुणों सत, रज और तम से परे ( अलग ) तथा सम-अस्तित्व मूलक है  उसमे कोई कहीं विरोध या विकार( परिवर्तन) ही नहीं है। वह  ईश्वर चैतन्य और आनन्द स्वरूप  सत्ता है । अत: सच्चिदानन्द उसका सार्थक विशेषण है।

 वह ईश्वर  एक साध्य है आराध्य है।
इसलिए उसे जानकर उसका चिन्तन करना चाहिए ! ताकि आप पाप कर्मों से बचे रहें-

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भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी (भज्-)  धातु से (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।

अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त समर्पण पूर्ण हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।

भगवान-  भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।

यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द  में + वतुप् (वत्)तद्धित प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।

✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। 

शब्दकोश ग्रन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य (बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं। 
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।

दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)


शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥

श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म भी कहलाते हैं।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥

श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।

✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है। पूर्ण ऋचा निम्नलिखित है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अ-जायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा की स्थिति में (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता या जन्म लेता है (तस्य) उस प्रजापति के  (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं॥१९॥

इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौमिक सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हैं।

आत्मतत्व का निरूपण व आत्मा की अविनाशिता का वर्णन-     


इस प्रकार धर्म के विषय में जिसका चित्त मोहित हो रहा है और जो महान् शोकसागरमें डूब रहा है ऐसे अर्जुन का बिना आत्मज्ञान के उद्धार होना असम्भव समझकर उस शोक-समुद्र से अर्जुन का उद्धार करने की इच्छावाले भगवान् वासुदेव आत्मज्ञान की प्रस्तावना  करते हुए कहते हैं-

जो शोक करने योग्य नहीं है उनको तुम शोक  करते हो - और प्रज्ञावानों (बुद्धिमान) के समान बोलते हो।  
क्योंकि जिनके प्राण चले गये हैं  अर्थात (जो मर गये हैं) उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये (जो जीवित हैं) उनके लिये भी पण्डित (आत्मज्ञानी) शोक नहीं करते।
पाण्डित्य को सम्पादन करके इस श्रुतिवाक्यानुसार आत्म ज्ञान-विषयक बुद्धि का नाम पण्डा है और वह बुद्धि जिनमें हो वही पण्डित हैं।

आत्मज्ञाः= पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषां ते हि पण्डिताः। 

श्रीमद्भगवद्गीता के इसी श्लोक से श्रीकृष्ण का आध्यात्मिक तत्व ज्ञान प्रारम्भ होता है।
श्रीभगवान् ने कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत (गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।

  आत्मा के अस्तित्व (मौजूदगी) के विषय मे कृष्ण का मत श्रीमद्भगवद्गीता के द्वित्तीय अध्याय से प्रस्तुत करते हैं। - 

मूल श्लोकः
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2/12।।

"अनुवाद-

किसी काल में मैं नहीं था ऐसा नहीं किन्तु अवश्य था अर्थात् भूतपूर्व ( पूर्व जन्म के) शरीरों की उत्पत्ति और विनाश होते हुए भी मैं सदा ही था।
वैसे ही तू नहीं था सो नहीं किन्तु अवश्य था ये राजागण नहीं थे सो नहीं किन्तु ये भी अवश्य थे।
इसके बाद अर्थात् इन शरीरों का नाश होने के बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किन्तु अवश्य रहेंगे। अभिप्राय यह है कि तीनों कालों में ही आत्मरूप से सब जीव  नित्य हैं।

विशेष:- यहाँ बहुवचन का प्रयोग देहभेद के विचार से किया गया है आत्मभेद के अभिप्राय से नहीं।


 न तु एव जातु=  कदाचिद्।  अहं नासम्  किं तु आसमेव। अतीतेषु देहोत्पत्तिविनाशेषु घटादिषु वियदिव नित्य एव अहमासमित्यभिप्रायः। तथा न त्वं न आसीः किं तु आसीरेव। तथा  न इमे जनाधिपाः  न आसन् किं तु आसन्नेव। तथा  न च एव न भविष्यामः  किं तु भविष्याम एव सर्वे वयम् अतः अस्मात् देहविनाशात्  परम्  उत्तरकाले अपि। त्रिष्वपि कालेषु नित्या आत्मस्वरूपेण इत्यर्थः। देहेभेदानुवृत्त्या बहुवचनं नात्मभेदाभिप्रायेण।।
तत्र कथमिव नित्य आत्मेति दृष्टान्तमाह

 (भावार्थ-)

किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग - हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।

 "देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2./13।।

आत्मा किसके सदृश नित्य है इस पर भगवान दृष्टान्त कहते हैं

जिसका देह है वह देही है उस देही की अर्थात् शरीरधारी आत्मा की इस वर्तमान शरीर में जैसे कौमार, बाल्यावस्था ,यौवनतरुणावस्था और जरा (वृद्धावस्था) ये परस्पर विलक्षण तीनों अवस्थाएँ घटित होती हैं।
इनमें पहली अवस्था के नाश से आत्मका नाश नहीं होता और दूसरी अवस्था की उत्पत्ति से भी आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती तो फिर क्या होता है कि निर्विकार आत्मा को ही दूसरी और तीसरी अवस्था की प्राप्ति होती हुई देखी गयी है।

वस्तुत: यह चित्त ही जीवात्मा का रूपान्तरण है । जैसे जल में उसकी लहरें होती हैं वैसे ही आत्मा में चित्त की अवस्था है। यही चिदात्मा जीवात्मा है।
इस प्रकार आत्मा को निर्विकार और नित्य समझ लेने के कारण धीर व बुद्धि मान पुरुष इस विषय में मोहित नहीं होता ।

जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार (बचपन) , युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है;  

हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों के जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं तथा  वे आने-जानेवाले और अनित्य भी हैं। हे  अर्जुन ! उनको तुम सहन करो।

 

मूल श्लोकः

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2/15।।


"अनुवाद-

शीत-उष्णादि सहन करनेवाले को क्या ( लाभ ) होता है सो सुन
सुखदुःख को समान समझनेवाले अर्थात् जिसकी दृष्टिमें सुखदुःख समान हैं सुखदुःख की प्राप्तिमें जो हर्षविषाद से रहित रहता है ऐसे जिस धीर बुद्धिमान् पुरुष को ये उपर्युक्त शीतोष्णादि व्यथा( कष्ट) नहीं पहँचा सकते 
वह पुरुष नित्य आत्मदर्शननिष्ठ और शीतोष्णादि द्वन्द्वों (दो विरोधी भावों) को सहन करनेवाला पुरुष मृत्यु से अतीत हो जाने के लिये मोक्षके लिये समर्थ ( योग्य) होता है।


कारण कि हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन ! सुख-दुःख में सम(बराबर) रहनेवाले जिस धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) आदि विषय व्यथित (सुखी अथवा -दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होने में समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।


एक स्थान विभूतियोग अध्याय दश श्लोक संख्या  तैंतीस  (33)  में  भगवान कृष्ण कहते हैं।

("अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च"। 

यह सम्पूर्ण सृष्टि द्वन्द्व के सिद्धान्त पर आधारित होकर सर्जना को प्राप्त हो रही है। द्वन्द्व का तात्पर्य दो परस्पर विपरीत परन्तु समान् अस्तित्व मूलक तत्वों से हैं जो सृष्टि के मूल में व्याप्त हैं - जैसे  ऊष्मा और शीत अथवा स्त्री और पुरुष ऋणात्मक और धनात्मक आवेश, परमाणु में प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन जो न्यूट्रॉन की उपस्थिति में सृष्टि के पदार्थो का निर्माण करते हैं।

दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव  का परस्पर आकर्षण का होना द्वन्द्व के सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है। जैसे नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनाता है।


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।उभयोरपि-दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2/16। श्रीमद्भगवद्गीता

"अनुवाद-

असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव (अविद्यमानता) नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही सत्य अर्थात् तत्त्व देखा है।

मूल श्लोकः

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।2 17।

 "अनुवाद-

(अविनाशी) तो तू उसको जान जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। उसका नाश करमें में कोई समर्थ नहीं है।

विशेष:-

सम्पूर्ण विश्व आकाश ( aithḗr ) से घटादि के सदृश व्याप्त है। 

आकाश वायु से भी शूक्ष्म तत्व है। भारतीय दर्शन में जिसे एक जैविक तत्व माना गया है। यूरोपीय दार्शिनिकों ने जिसे एथर नाम दिया।

आकाश- तत्व= in Ancient Greek: αἰθήρ (aithḗr) meant "pure, fresh air" or "clear sky".

It was also personified as a deity, Aether, the son of Erebus and Nyx.

This term is related to αἴθω (aíthō), meaning= "to burn, to ignite".

Latin:
aether, borrowed from Greek aithḗr, retained the meaning of the upper, pure air, the sky, or the heavens.

 
Scientific:
In the 19th century, physicists used "ether" to describe a hypothetical substance that filled all space, believed to be the medium for transmitting light and other forces. The Michelson-Morley experiment eventually disproved the existence of this "ether".

 प्राचीन ग्रीक में:
(aithḗr) का अर्थ था "शुद्ध, ताजा हवा" या "स्पष्ट आकाश"। यूनानी मिथकों में यह एक देवता, एथर, एरेबस और एनवाईएक्स के बेटे के रूप में भी व्यक्त किया गया था।

 यह शब्द αἴθω (ayth ri) से संबंधित है, जिसका अर्थ है "जलाने के लिए, प्रज्वलित करने के लिए"।

अत्रि- भारतीय पुराणों में अग्नि का रूपान्तरण


लैटिन-भाषा में 
एथर, ग्रीक ऐथो से उधार लिया गया, ऊपरी, शुद्ध हवा, आकाश, या आकाश के अर्थ को बनाए रखा।


वैज्ञानिक:
19 वीं शताब्दी में, भौतिकविदों ने एक अवधारणा मूलक पदार्थ का वर्णन करने के लिए "ईथर" का उपयोग किया, जो सभी स्थान को भरता था, माना जाता था कि प्रकाश और अन्य बलों को संचारित करने का माध्यम माना जाता है। माइकलसन-मोरले प्रयोग ने अंततः इस "ईथर" के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया।

इथर का अर्थ है:

1. आकाश

2. वायुमण्डल

3. एथर (एक प्राचीन तत्व जो पांच तत्वों में से एक माना जाता था)

4. एक प्रकार का ईथर (एक जटिल ऑर्गेनिक यौगिक)

हालांकि, आधुनिक विज्ञान में, इथर का अर्थ विशेष रूप से आकाश या वायुमंडल से संबंधित नहीं है। इसके बजाय, यह एक प्रकार के ऑर्गेनिक यौगिक को संदर्भित करता है जो एक जटिल रासायनिक संरचना वाला होता है।


उदाहरण के लिए:

- ईथर एक प्रकार का जटिल ऑर्गेनिक यौगिक है जो अल्कोहल और एसिड के बीच एक रासायनिक प्रतिक्रिया से बनता है।

- ईथर का उपयोग विभिन्न उद्योगों में किया जाता है, जैसे कि फार्मास्यूटिकल्स, कॉस्मेटिक्स और पेट्रोकेमिकल्स।


वह आत्मा अव्यय है- अव्यय का अर्थात् जिसका व्यय ( नाश) नहीं होता जो घटता- बढ़ता नहीं उसे अव्यय कहते हैं उसका विनाश अभाव ( करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है )।
क्योंकि यह सत् नामक ब्रह्म अवयवरहित होने के कारण देहादिकी तरह अपने स्वरूप से नष्ट नहीं होता अर्थात् इसका व्यय नहीं होता।
अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।

मूल श्लोकः

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।

 "अनुवाद-

तो फिर वह असत् पदार्थ क्या है जो अपनी सत्ता को छो़ड़ देता है ( जिसकी स्थिति बदल जाती है ) इस पर कृष्ण कहते हैं

जिनका अन्त होता है विनाश होता है वे सब अन्त वाले हैं। जैसे मृगतृष्णादि में रहनेवाली जलविषयक सत्बुद्धि प्रमाणद्वारा निरूपण की जानेके बाद विच्छिन्न हो जाती है वही उसका अन्त है वैसे ही ये सब शरीर अन्तवान् हैं तथा स्वप्न और मायाके शरीरादि की भाँति भी ये सब शरीर अन्तवाले हैं।
इसलिये इस अविनाशी अप्रमेय शरीरधारी नित्य आत्माके ये सब शरीर विवेकी पुरुषों द्वारा अन्तवाले कहे गये हैं। यह अभिप्राय है।

नित्य और अविनाशी यह कहना पुनरुक्ति नहीं है क्योंकि संसार में नित्यत्व के और नाश के दो दो भेद प्रसिद्ध हैं।
जैसे शरीर जलकर भस्मीभूत हुआ अदृश्य होकर भी नष्ट हो गया कहलाता है और रोगादि से युक्त हुआ विपरीत परिणाम को प्राप्त होकर विद्यमान रहता हुआ भी नष्ट हो गया कहलाता है।
अतः अविनाशी और नित्य इन दो विशेषणों का यह अभिप्राय है कि इस आत्मा का दोनों प्रकार के ही नाश से सम्बन्ध नहीं है।

यह  स्थूल शरीर जिन जिन भौतिक तत्वों से बनता है ।  जैसे जल मृदा (क्षिति)अग्नि आकाश आदि से बनता है। जीवात्मा के निकलने पर शरीर के ये तत्व अपने अपने मूल तत्व में विलय हो जाते है।

आत्मा मरती नहीं मरती तो ये देह है । 
देह सदैव  नहीं रह सकती इसमें कहाँ सन्देह है।

 अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरी (आत्मा) के ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो।

मूल श्लोकः

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2/19।।

अनुवाद

जो तू मानता है कि मेरे द्वारा युद्ध में भीष्मादि मारे जायँगे मैं ही उनका मारनेवाला हूँ यह तेरी बुद्धि( ऐसा जानकारी)   सर्वथा मिथ्या है। कैसे
जिसका वर्णन ऊपर से आ रहा है इस आत्मा को जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रिया का कर्ता मानता है वह  और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्माको देह के नाशसे मैं नष्ट हो गया ऐसे नष्ट हुआ मानता है वह 
ये दोनों ही अहंप्रत्यय के विषयभूत आत्माको अविवेक के कारण नहीं जानते।


अभिप्राय यह कि जो शरीर के मरने से आत्मा को मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ इस प्रकार समझते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ हैं।
क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होने के कारण न तो किसी को मारता है और न किसी को द्वारा मारा जाता है 

मूल श्लोकः

न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।2/20।

 "अनुवाद-

यह शरीरी (आत्मा) न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला भी नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (पुराना) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
 

अर्थात-यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,  शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।।


कठोपोनिषद में भी श्रीमद्भगवद्गीता- के समान श्लोक

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।

 "अनुवाद-
  हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी,  नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है,  वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।

  "अनुवाद-

अब हम प्रकृत विषय वर्णन करेंगे। यहाँ ( प्रकरण में ) आत्मा के अविनाशित्व की प्रतिज्ञा की गयी है वह किसके सदृश है सो कहा जाता है

जैसे जगत्में मनुष्य पुराने जीर्ण (फटे) वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं वैसे ही यह जीवात्मा भी पुराने (बूढ़े) शरीर को छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरों को प्राप्त करता है। अभिप्राय यह कि ( पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करनेवाले ) पुरुष की भाँति जीवात्मा भी सदा शरीर ही बदलता रहता है।

कर्मगत संस्कारों ( प्रवृत्तियों) के अनुरूप ही मनुष्य को नवीन शरीर की प्राप्ति होती है।  प्रवृत्तियों ( स्वभाव गत गहराईयों ) से ही निर्धारित होता है कि मनुष्य कुत्ता, कौआ अथवा श्रेष्ठ मानव अथवा देवता का शरीर प्राप्त करता है।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2/23।।

  "अनुवाद-

 शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।

जन्म-मरण प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न इस प्रकृति के ही विकार( परिवर्तन) रूप हैं- अत: जन्म मरण में किसी जीव अथवा तत्व का अभाव ( नाश) अथवा भाव ( उत्पन्न होने ) की कोई क्रिया घटित नहीं होती है। केवल परिवर्तन ( बदलाव) ही होता है। यह बदलाव (परिवर्तन) समय के सापेक्ष घटित भौतिक क्रिया ही है।

मूल श्लोकः

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।

   "अनुवाद-

 क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती),  अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती),  अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है;  यह नित्य,  सर्वगत (सब जगह गया हुआ),  स्थाणु (स्थिर),  अचल और सनातन है।।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।

 

   "अनुवाद-

तथा यह आत्मा बुद्धि आदि सब करणों का विषय नहीं होनेके कारण व्यक्त नहीं होता ( जाना नहीं जा सकता ) इसलिये अव्यक्त है।
इसीलिये यह अचिन्त्य है क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तन का विषय होता है। यह आत्मा इन्द्रियगोचर न होने से अचिन्त्य है।
यह आत्मा अविकारी है अर्थात् जैसे दही के जावन( जमने आदि ) से दूध विकारी हो जाता है वैसे यह नहीं होता।
तथा अवयवरहित ( निराकार ) होनेके कारण भी आत्मा अविक्रिय है क्योंकि कोई भी अवयवरहित ( निराकार ) पदार्थ विकारवान् नहीं देखा गया। अतः विकाररहित होनेके कारण यह आत्मा अविकारी कहा जाता है।
इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे समझकर तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये ।

यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तन का विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।


तदनन्तर प्रधान के विकृत होने पर उससे महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है, जिससे लोकों के मध्य में उसकी सदा 'महान्' रूप से ख्याति होती है।

उस महत्तत्त्व से मान को बढ़ानेवाला अहंकार प्रकट होता है।

 उस अहंकार से दस इन्द्रियाँ होती हैं, जिनमें पाँच बुद्धि के वशीभूत रहती हैं और दूसरी पाँच कर्म के अधीन रहती हैं।
इस इन्द्रिय-समुदाय में क्रमश: श्रोत्र वा नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा पायु (गुदा), उपस्थ (जनेन्द्रिय) हस्त पाद और वाणी ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।

 इन दसों इन्द्रियों के क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, उत्सर्ग (मल एवं अपानवायु आदिका त्याग), आनन्दन (आनन्दप्रदान), आदान ( ग्रहण करना), गमन और आलाप-ये दस कार्य हैं।

 इन दसों इन्द्रियों के अतिरिक्त मन नामक ग्यारहवीं इन्द्रिय है, जिसमें कर्मेन्द्रियों और | ज्ञानेन्द्रियों के समस्त गुण वर्तमान हैं।

 इन इन्द्रियों के जो सूक्ष्म अवयव उस मनीषी के शरीर का आश्रय लेते हैं, वे तन्मात्रा कहलाते हैं और जिसके सम्पर्क से तन्मात्र की उत्पत्ति होती है, उसे शरीर कहा जाता है। 

उस शरीर का सम्बन्ध होनेके कारण विद्वान्लोग जीव को भी 'शरीरी' कहते हैं। जब सृष्टि करने की इच्छा से मन को प्रेरित किया जाता है, तब वही सृष्टि की रचना करता है। उस समय शब्दतन्मात्र से शब्दरूप गुणवाला आकाश प्रकट होता है। 
इसी आकाश के विकृत होने पर वायु की उत्पत्ति होती है, जो शब्द और स्पर्श- दो गुणोंवाली है। 

तत्पश्चात् वायु और स्पर्शतन्मात्र से तेज का आविर्भाव होता है, जो शब्द, स्पर्श और रूप नामक तीन  विकारोंसे युक्त होनेके कारण त्रिगुणात्मक हुआ।

  ! इस त्रिगुणात्मक तेज में विकार उत्पन्न होने से चार गुणोंवाले जल का प्राकट्य होता है, जो रस- तन्मात्र से उद्भूत होने के कारण प्रायः रसगुणप्रधान ही होता है। तत्पश्चात् पाँच गुणों से  सम्पन्न पृथ्वी का प्रादुर्भाव होता है।

वह प्रायः गन्ध-गुण से ही युक्त रहती है। यही (इन सबका यथार्थ ज्ञान रखना ही) श्रेष्ठ बुद्धि है। इन्हीं चौबीस तत्वो- (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्राओं, एक मन, एक बुद्धि, एक अव्यक्त( चित), अहंकार) तत्त्वोंद्वारा सम्पादित सुख-दुःखात्मक कर्म का  पचीसवाँ पुरुष नामक तत्त्व भोग करता है। 

वह भी ईश्वर की इच्छा के वशीभूत रहता है, इसीलिये विद्वान्लोग उसे जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार इस मानव-योनि में यह शरीर छब्बीस तत्त्वों से संयुक्त बतलाया जाता है। 


  -अध्याय षष्ठम् - 




आत्मा को शरीर में समझने के लिए यह उपमा निम्नलिखित -

'कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र  ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन सहायक है । 

बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहते हैं । संबंधित आख्यान में यमराज  के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन आत्मा को समझने में सहायक हैं।

   "आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।३ 

इन्द्रियाणिहयानाहुर्विषयांस्तेषुगोचरान् - आत्मेन्द्रियमनोयुक्तंभोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, श्लोक ३)

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, श्लोक ४)

इस जीवात्मा को तुम रथी(रथ का स्वामी), समझो, शरीर को उसका रथ, और बुद्धि को सारथी(रथ हांकने वाला), समझो और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण करने लिए होती है अगले श्लोक में उल्लेख है।

मनीषियों, विवेकी पुरुषों ने इंद्रियों को इस शरीर-रूपी रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रियों के -विषय ही विचरण ( चलने ) के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का उपयोग करने वाला बताया है । यहाँ शरीर एक साधन ही है। जिसके द्वारा जीवात्मा संसार के भोगों को भोगता है। 

श्रीमद्भगवद्गीता में  कठोपनिषद् को इसी भाव को निम्नलिखित रूप में प्रतिपादन किया गया है।

(इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः॥४२ ॥

इन्द्रियाणि =  सभी इन्द्रियों को पराणि = परे ( ऊपर )  आहुः =कहा जाता है। इन्द्रियेभ्यः - इन्द्रियों से ; परम् = उत्तम। मनः = मन  है।  तु - भी; परा = ऊपर( परे) बुद्धिः = बुद्धि है।  यः = जो; बुद्धेः = बुद्धि से भी; परतः =ऊपर ( परे)  तु - किन्तु, सः - वह ( आत्मा)

    "अनुवाद-

इन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा उत्तम(ऊपर) हैं, मन इन्द्रियों से भी ऊपर है, और बुद्धि मन से भी ऊपर है और वह (आत्मा) ( चेतना मूलक) चित्त बुद्धि से भी ऊपर  है।

"एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम।। 43।।

एवम् - इस प्रकार ; बुद्धेः - बुद्धि से ; परम् - श्रेष्ठ ; बुद्ध्वा - जानकर ; संस्तभ्य( स्तम्भ्यात्‌) - वश में करके/ वश में करें।( नियन्त्रित करके) । मन्मत्त ( मन) को  आत्मना - (आत्मा) के द्वारा ; जहि - दमन करो ; शत्रुम् - शत्रु को ; महाबाहो -  हे महाबाहु ; कामरूपम् - कामवासना रूप ; दुरासदम् - दुर्जेय।

    "अनुवाद-


हे महाबाहु अर्जुन! इस प्रकार आत्मा को भौतिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर, उच्चतर आत्मा (आत्मा की शक्ति) के द्वारा निम्नतर आत्मा (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) को वश में करो और काम नामक इस दुर्जेय शत्रु का वध करो।

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प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । ऐहिक( सांसारिक) सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा । किन्तु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति( जीने का ढ़ंग) आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत( उल्टा) रहा है । स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रन्थ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं 

उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील( कभी न मरने वाली) आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहाँ के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं। 

मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से ही होता है । दर्शन शास्त्र में दस इन्द्रियों की व्याख्या की जाती हैः पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, (पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत ( अनुभव- Sensation ) को मन अपने प्रकार से व्याख्या( Explain) करता है, सुख या दुःख के तौर पर ।

 इन्द्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

 किन विषयों में इन्द्रियाँ विचरेंगी और कितना तत्सम्बंन्धित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के होने वाले  नियंत्रण पर निर्भर रहता है । इन्द्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है ।

 उक्त ( कहे गये) श्लोकों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का इसका निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है । इन श्लोकों का सार यही है कि भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इन्द्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियन्त्रण रखता है । अत: जानकारी से ही मन पर नियन्त्रण ( Control) किया जा सकता है।

कृष्ण के  दर्शन सिद्धान्त में निष्काम कर्म की अवधारणा का तात्पर्य जन्म- मरण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करना ही है।

इस लिए कृष्ण इच्छाओं को जीवन के अस्तित्व का मौलिक आधार मानते हैं। और यह सत्य भी हैं कि मनुष्य के जीवन का आधार उसकी इच्छाऐं( आशाऐं) हैं। जिस दिन मनुष्य की इच्छा मर जाती है तभी समझना चाहिए कि मनुष्य भी मर गया।

"निसन्देह हम्हे ं अपनी इच्छाओं को परम- प्रभु परमेश्वर में स्थापन (समर्पण) करके अपने जीवन में अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने चाहिए तभी जीवन कर्मों के अच्छे- बुरे प्रभावों( या फलों ) युक्त नहीं होता है।  यही जीवन में आनन्द और समस्त सुखों का रहस्य है।


  -(अध्याय - सप्तम)-  

कर्तव्य और कर्म तथा इच्छा और आवश्यकताओं की शूक्ष्म विवेचना-कर्तव्य और कर्म की परिभाषा- 

कर्तव्यानि सर्वदा सकारात्मकानि भवन्ति।
किन्तु कर्माणि शुभाशुभानि अपि  सन्ति।

यदा  आत्मा  प्रकृत्या सह सम्पृक्ते तदा द्वाभ्याम् ताभ्याम् मनोजातः।  
अस्मिन्नेव मनसि अहङ्कारः चैतन्यं ग्राहकः भूत्वा  संसारे जीवस्य पृथक्त्वं स्थापितवान्।

अतः अहङ्कारः सक्रियो भूत्वा संकल्परूपेण परिणतः। असौ संकल्पात् च बहवः इच्छा: उत्पन्ना: एवं इच्छाणि अनेकानि कर्माणि जनयन्ति स्म।  

इच्छारहितां लोके कर्माणि कदापि न विद्यन्ते, कर्माणि च निश्चितरूपेण परिणामाणि (फलानि) ददति।
तेषां शुभाशुभकर्मणां फलान् भोगार्थं सृष्टिर्जायते पुनः पुनः। 

कर्तव्यानि तु कल्याणकारकाणि ये जीवस्य मोक्षाय भवन्ति। कार्यात् कर्तव्यं अधिकं श्रेयकरो भवति।

इच्छाभ्योऽपि आवश्यकताः अधिकाः श्रेयकरा: सन्ति।  मनुष्यस्य आवश्यकताः सीमिताः सन्ति, इच्छाः च असीमिताः सन्ति।  अतः मनुष्यः सर्वान् कामान् ईश्वरं समर्प्य निःस्वार्थं कार्यं कर्तव्यत्वेन रूपेण कुर्यात् ।  भक्ति एव दु:खानि निदानास्ति - इच्छा आवश्यकतयोश्च।
इच्छाः अनन्ताः भवेयुः परन्तु आवश्यकताः एव जीवने भोजनवस्त्राश्रयाणि च अत्यावश्यकानि साधनानि भवन्ति। 
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अनुवाद:-

कर्तव्य और  कर्म की परिभाषा-
कर्तव्य सदैव सकारात्मक होते हैं। परन्तु कर्म अच्छे और बुरे भी होते हैं।
आत्मा का जब प्रकृति के साथ मिलन हुआ तो चित्त का जन्म हुआ। इसी चित्त में चेतना का बोधक अहं उत्पन्न हुआ। जिसने संसार में अपनी पृथकता स्थापित की।

इसी चित्त से (अहं) सक्रिय  (विक्षेपित) हुआ तो यह संकल्प रूप में परिवर्तित हुआ।  और संकल्प से अनेक इच्छाओं का जन्म हुआ और इस प्रकार इच्छाओं ने अनेक कर्मों को जन्म दिया। 

विना इच्छाओं के संसार में कोई कर्म नहीं होता, और कर्म अपना फल अवश्य देते हैं। उन्हीं अच्छे-बुरे  कर्मों के फलों को भोगने के लिए ही जीव का संसार में पुन: - पुन जन्म होता है। 

परन्तु कर्तव्य केवल अच्छे ही होते हैं जो जीव के उद्धार के लिए होते हैं। कर्म की अपेक्षा कर्तव्य श्रेयकर है और इच्छाओं की अपेक्षा आवश्यकताऐं  श्रेयकर हैं। 
 मनुष्य की आवश्कताऐं सीमित हैं और इच्छाऐं असीमित हैं। अत: मनुष्य को सभी इच्छाऐं प्रभु को समर्पित कर निष्काम कर्म के रूप में कर्तव्य करना चाहिए।

२-इच्छा और आवश्यकता ।
इच्छाऐं अनन्त हो सकती हैं परन्तु आवश्यकताऐं  जीवन यापन के आवश्यक साधन रोटि कपड़ा और मकान हैं।

३-स्वभाव और प्रवृति जैसे अनुभव और अनुभूति- चेतना को सूक्ष्म स्तर हैं।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।

    "अनुवाद-

 हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही(आत्मा) को नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।

   "अनुवाद-

ऐसा होने से जिसने जन्म लिया है उसका मरण (ध्रुव) निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म (ध्रुव) निश्चित है इसलिये यह जन्ममरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता इस अपरिहार्य विषय के निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।

    "अनुवाद-

 हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही क्या है?

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।

    "अनुवाद-

अब यहाँ प्रकरण के विषय का उपसंहार( समापन) करते हुए कहते हैं

यह जीवात्मा सर्वव्यापी होने के कारण सबके स्थावर-जंगम (अचल- चल) आदि शरीरों में स्थित है तो भी अवयवरहित और नित्य होने के कारण सदा सब अवस्थाओं में अवश्य ही है।
जिससे कि सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों का नाश किये जानेपर भी इस आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता इसलिये भीष्मादि सब प्राणियोंके उद्देश्यसे तुझे शोक करना उचित नहीं है।

हे भारत ! यह देही आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए समस्त प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं।।
 

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।।

 
   "अनुवाद-

तथा वे कामात्मा(भोगी-विलासी)जिन्होंने भोग कामना को ही अपना स्वभाव बना लिया है ऐसे भोगपरायण और स्वर्ग को प्रधान मानने वाले यानी स्वर्ग ही जिनका परम पुरुषार्थ है ऐसे पुरुष जन्मरूप कर्मफलको देनेवाली ही बातें किया करते हैं। कर्म के फल का नाम कर्मफल है जन्मरूप कर्मफल जन्मकर्मफल कहलाता है उसको देनेवाली वाणी जन्मकर्मफलप्रदा कही जाती है। 
इस प्रकार भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये जो क्रियाओं के भेद हैं वे जिस वाणी में बहुत हों अर्थात् स्वर्ग पशु पुत्र आदि अनेक पदार्थ जिस वाणी द्वारा अधिकता से बतलाये जाते हों ऐसी बहुत से क्रियाभेदों को बतलाने वाली वाणी को बोलने वाले वे मूढ़ बारम्बार संसाररूपी चक्र में भ्रमण करते हैं यह अभिप्राय  है कि जन्मते और मरते हैं।

हे पृथानन्दन ! जो कामनाओं में तन्मय( तल्लीन) हो रहे हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं, वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखनेवाले हैं, भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकार की जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करनेवाली है। कल्याण कारी नहीं है।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।

    "अनुवाद-

जो इस प्रकार विवेकबुद्धि से रहित हैं उन कामपरायण पुरुषों के वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परन्तु हे अर्जुन तू असंसारी हो निष्कामी हो।
तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुखदुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो।
तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेम को प्रधान माननेवाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेम को न चाहने वाला हो।
तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुए के लिये यह उपदेश है।


वेद तीनों गुणों (सत- रज और तम) के कार्य का ही वर्णन करने वाले हैं; हे अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेम की चाहना भी मत रख और परमात्म-परायण हो जा।
 

मूल श्लोकः****

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।

  "अनुवाद-

सम्पूर्ण वेदोक्त कर्मों के जो अनन्त फल हैं उन फलों को यदि कोई न चाहता हो तो वह उन कर्मोंका अनुष्ठान ईश्वरके लिये क्यों करे इस प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण  कहते हैं सुन अर्जुन !

जैसे जगत्में कूप तालाब आदि अनेक छोटे-छोटे जलाशयों में जितना स्नान पान(पीने) आदि प्रयोजन की सिद्धि होती है वह सब प्रयोजन सब ओर से परिपूर्ण महान् जलाशय में उतने ही परिमाण में ( मात्रा/ अनुपात ) में सिद्ध हो जाता है। 

सब तरफ से  जल से परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है उतना ही

वेदों जाननेवाले ब्राह्मण का सम्पूर्ण वेदों में प्रयोजन रहता है। अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।



  -(अध्याय -नवम )- 

कर्म के सिद्धान्त की विवेचना  -

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
 

"अनुवाद-

तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफलप्राप्तिका कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल-प्राप्ति का कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्ममें प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफल रूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है।
यदि कर्मफल की इच्छा न करें तो दुःख रूप कर्म करने की क्या आवश्यकता है इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्तिप्रीति नहीं होनी चाहिये।


कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

 "अनुवाद-

यदि कर्मफलसे प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये तो फिर किस प्रकार करने चाहिये इसपर कहते हैं

हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिये कर्म कर। उनमें भी ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों। इस आशा रूप आसक्ति को भी छोड़कर कर।
फल-तृष्णा रहित पुरुष द्वारा कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है।

 और उससे विपरीत ( ज्ञानप्राप्ति का न होना ) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनों को तुल्य समझकर कर्म कर।
वह कौन सा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसी को योग कहते हैं।


हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
 

  -(अध्याय -दशम )-                  

कृष्ण का समत्व ही मध्यम अवस्था है व कृष्ण सा दार्शिक सिद्धान्त ।

समत्व मध्यावस्था का नाम है।




"अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।

"अनुवाद:-

अर्जुन बोले - हे केशव ! परमात्मा में स्थित- बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ? वह स्थित बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

"श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

अनुवाद:- 

श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस काल में साधक अपने मन में सञ्चित सम्पूर्ण-कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है। और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 
 

( विशेष:- कामनाऐं ही बुद्वि को चलायमान करती हैं और कर्म के फल का कारण भी इच्छाऐं हैं। और कर्म का फल भोगने के लिए ही मनुष्य को पुन: जन्म कर्म गत संस्कारों के अनुसार प्राप्त होता है और कर्म का फल तो केवल भोगने पर ही समाप्त होता है यही इच्छाओं संसार में अच्छे - बुरे कर्म कराती हैं अत: कृष्ण नें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए बिना कर्म के फल की इच्छाओं के  लोक हित में कर्म  करने को कहा है।  जिसे हम कर्तव्य कह सकते हैं।। 

मूल श्लोकः

"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
 

दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होनेपर जिसके मन में वासना उत्पन्न नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह (मुनि)मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।2.56।

मूल श्लोकः

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।

अनुवाद

सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।2•57।
 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
 
 

अनुवाद

हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवाले का और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है।।6.16।।

अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं अधिक खानेवालेका अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लङ्घन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालाका योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवालेका भी योग सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह श्रुति है कि जो अपने शरीरकी शक्तिके अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है वह कष्ट नहीं देता ( बिगाड़ नहीं करता ) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय। 

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
 

अनुवाद

बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 
 

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।
2.51।।

अनुवाद

समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।।।2.51।। 

मूल श्लोकः

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।

 अनुवाद

निराहारी (इन्द्रियों को विषयों से हटानेवाले) मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।।।2.59।। 
 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

 अनुवाद

 हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहने से) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्य की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।।।2.60।।


ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।

अनुवाद

विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति (लगाव) पैदा हो जाता है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना की पूर्ति न होने क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।। 


क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रञ्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
2.63।।

 अनुवाद

विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।।
 

"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
2.66।।

अनुवाद

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका( निर्णायिका) बुद्धि नहीं होती और निर्णायिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? ।।2.66।।


मूल श्लोकः

"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।

 अनुवाद

अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।।।2.67।।
 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।


अनुवाद

हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।2.48।।

                  

"श्रीभगवानुवाच ।
 अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज ।
 साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥६३॥


 नाहं आत्मानमाशासे मद्‍भक्तैः साधुभिर्विना।
 श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिःअहं परा॥६४॥

(श्रीमद्भागवतम्-9.4.63-64)

अनुवाद

  "भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:-

"दुर्वासा जी ! मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने  मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उनको प्रिय हूँ।६३।

अनुवाद

ब्राह्मण! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ।इस लिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
2.38।।

 अनुवाद

सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।2.38 ।।


मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25

अनुवाद

जो मान और अपमान में सम है; शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।

 अनुवाद

 हे धनञजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।

अनुवाद

दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।

  अनुवाद

जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।



श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।

 "अनुवाद-

समत्वबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन

समत्वयोगविषयक बुद्धि से युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको अथवा पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।

इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर।
क्योंकि योग ही तो कर्मों में कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्म में लगे हुए पुरुष का जो ईश्वर-समर्पित बुद्धि से उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है।


यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।

"अनुवाद-

यदि तू पूछे कि मोहरूप मलिनतासे पार होकर आत्मविवेकजन्य बुद्धि को प्राप्त हुआ मैं कर्मयोगके फलरूप परमार्थयोग को ( ज्ञान को ) कब पाऊँगा तो सुन

अनेक साध्य साधन और उनका सम्बन्ध बतलानेवाली श्रुतियों( वेदों) से विप्रतिपन्न अर्थात् नाना( अनेक) भावों को प्राप्त हुई विक्षिप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधिमें यानी जिसमें चित्तका समाधान किया जाय वह समाधि है इस व्युत्पत्ति से आत्माका नाम समाधि है)  उसमें अचल और दृढ़ स्थिर हो जायगी यानी विक्षेपरूप चलन से और विकल्पसे रहित होकर स्थिर हो जायगी।
तब तू योग को प्राप्त होगा अर्थात् विवेकजनित बुद्धिरूप समाधिनिष्ठा को पायेगा।
 जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा।

 

जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

"अनुवाद-

 हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहने से) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्य की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।

श्रीमद् भगवद्गीता
मूल श्लोकः

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।

 "अनुवाद-

जब कि यह बात है इसलिये उन सब इन्द्रियोंको रोककर यानी वश में करके और युक्त समाहितचित्त हो मेरे परायण होकर बैठना चाहिये। अर्थात् सबका अन्तरात्मारूप मैं वासुदेव ही जिसका सबसे परे हूँ वह मत्पर है अर्थात् मैं उस परमात्मा से भिन्न नहीं हूँ। इस प्रकार मुझसे अपने को अभिन्न मानने वाला होकर बैठना चाहिये।
क्योंकि इस प्रकार बैठनेवाले जिस यति( जितेन्द्रिय) की इन्द्रियाँ अभ्यास बल से ( उसके ) वश में है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
 

 

कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित (स्थिर ) है।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामाषे व्यवधानं भूत्वा  क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।

"अनुवाद-

इतना कहने के उपरान्त अब यह पतनाभिमुख पुरुषके समस्त अनर्थोंका कारण बतलाया जाता है

विषयों (भोग्य- पदार्थों) का ध्यान (चिन्तन) करनेवाले पुरुष की अर्थात् शब्दादि विषयोंके भेदों की बारंबार आलोचना करने वाले पुरुषकी उन विषयों में आसक्ति( लगाव)   उत्पन्न हो जाती है। आसक्ति से इच्छा (तृष्णा) उत्पन्न होती है। और इच्छा के व्यवधान होनेनपर क्रोध उत्पन्न  होता है।


विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना में व्यवधान होनेपर क्रोध पैदा होता है। और क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव -या बुद्धि खराब) हो जाता है। और बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।

 

क्रोधसे संमोह अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्यविषयक अविवेक उत्पन्न होता है क्योंकि क्रोधी मनुष्य मोहित होकर गुरुको ( बड़े को ) भी गोली दे दिया करता है।
मोह से स्मृति का विभ्रम होता है अर्थात् शास्त्र और आचार्य द्वारा सुने हुए उपदेश के संस्कारोंसे जो स्मृति उत्पन्न होती है उसके प्रकट होने का निमित्त प्राप्त होने पर वह प्रकट नहीं होती।
इस प्रकार स्मृति-विभ्रम होनेसे बुद्धिका नाश हो जाता है। अन्तःकरणमें कार्य-अकार्यविषयक विवेचन की योग्यता का न रहना ही बुद्धि का नाश कहा जाता है।
बुद्धिका नाश होनेसे ( यह मनुष्य ) नष्ट हो जाता है क्योंकि वह तब तक ही मनुष्य है जबतक उसका अन्तःकरण कार्य-अकार्यके विवेचनमें समर्थ है ऐसी योग्यता न रहनेपर मनुष्य नष्टप्राय ( मनुष्यता से हीन ) हो जाता है।
अतः उस अन्तःकरण की ( विवेकशक्तिरूप ) बुद्धि का नाश होने से पुरुष का नाश हो जाता है। इस कथन का यह अभिप्राय है कि वह पुरुषार्थ के अयोग्य हो जाता है।


 क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम(भ्रान्ति) । स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।

"अनुवाद-

अयुक्त पुरुष में अर्थात् जिसका अन्तःकरण(मन और बुद्धिआदि) समाहित(शुद्ध) नहीं है ऐसे पुरुषमें आत्मस्वरूप-विषयक बुद्धि नहीं होती अर्थात् नहीं रहती और उस अयुक्त पुरुष में भावना( संवेदनशीलता ) 
तथा भावना न करनेवालेको  शान्ति भी नहीं मिलती।
शान्तिरहित पुरुष को भला सुख कहाँ से मिल सकता है।


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  -(अध्याय -एकादश )-   

         शान्ति की प्राप्ति के उपाय।-


                 श्रीमद् भगवद्गीता

                    मूल श्लोकः

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।

अनुवाद: अयुक्त (योग से रहित)  पुरुष में अर्थात् जिसका अन्तःकरण (मन और बुद्धि आदि) समाहित (शुद्ध) नहीं है ऐसे पुरुष में आत्मस्वरूप-विषयक बुद्धि नहीं होती  अर्थात् और उस अयुक्त पुरुष में भावना (संवेदनशीलता ) न होने से  नीरसता( रूखापन) होता है इस लिए उसे शान्ति भी नहीं मिलती।

शान्ति से रहित पुरुष को भला सुख कहाँ से मिल सकता है।

 जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ? 

 

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।

 "अनुवाद-

अयुक्त पुरुष में बुद्धि क्यों नहीं होती इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं

क्योंकि अपने-अपने विषयमें विचरनेवाली अर्थात् विषयोंमें प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमें से जिसके पीछे-पीछे यह मन जाता है विषयों-में प्रवृत्त होता है वह उस इन्द्रियके विषयको विभागपूर्वक ग्रहण करने में लगा हुआ मन इस साधक की आत्मअनात्मसम्बन्धी विवेकज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धिको हर लेता है अर्थात् नष्ट कर देता है।
कैसे जैसे जलमें नौकाको वायु हर लेता है वैसे ही अर्थात् जैसे जलमें चलनेकी इच्छावाले पुरुषोंकी नौकाको वायु गन्तव्य मार्गसे हटाकर उल्टे मार्गपर ले जाता है वैसे ही यह आसक्ति रूपी वायु मन रूपी नौका को  इन्द्रिय विषयों में ले जाता है। 
 

अपने-अपने विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायुकी तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।

 

जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है ? वह एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा (बुद्धि) को हर लेती है।।


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।

 

"अनुवाद-
सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रह में लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जानने वाले मुनि( मनन -शील) की दृष्टिमें रात ही है।

 

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।


 
"अनुवाद-

 जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित? ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है।


कर्म शरीर का मौलिक धर्म- तथा जीवन में कर्म की आनिवार्यता प्रकृति के द्वारा कर्म होते रहना--

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।
 

श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप अर्जुन ! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें ज्ञानियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

*************
 

हि यस्मात् क्षणमपि कालं जातु कदाचित् कश्चित् तिष्ठति अकर्मकृत् सन्। कस्मात् कार्यते प्रवर्त्यते हि यस्मात् अवश एव अस्वतन्त्र एव कर्म सर्वः प्राणी प्रकृतिजैः प्रकृतितो जातैः सत्त्वरजस्तमोभिः गुणैः। अज्ञ इति वाक्यशेषः यतो वक्ष्यतिगुणैर्यो न विचाल्यते इति। सांख्यानां पृथक्करणात् अज्ञानामेव हि कर्मयोगः न ज्ञानिनाम्। ज्ञानिनां तु गुणैरचाल्यमानानां स्वतश्चलनाभावात् कर्मयोगो नोपपद्यते। तथा च व्याख्यातम् वेदाविनाशिनम् इत्यत्र।।यत्त्वनात्मज्ञः चोदितं कर्म नारभते इति तदसदेवेत्याह


बिना ज्ञान के केवल कर्मसंन्यासमात्र से मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धिको क्यों नहीं पाता इसका कारण जानने की इच्छा होने पर श्रीकृष्ण कहते हैं

 कोई भी मनुष्य कभी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृतिसे उत्पन्न (सत्त्व रज और तम) इन तीन गुणोंद्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त   कर दिये जाते हैं या लगा दिए जाते हैं। 

यहाँ सभी प्राणीयों के साथ अज्ञानी ( शब्द ) और जोड़ना चाहिये ( अर्थात् सभी अज्ञानी प्राणी ऐसे पढ़ना चाहिये ) क्योंकि आगे जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणोंद्वारा विचलित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रिया का अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। ऐसे ही वेदाविनाशिनम् इस श्लोक की व्याख्यामें विस्तारपूर्वक कहा गया है।

वैसे -ज्ञान मनुष्य की चेतना का प्रतिविम्ब है।

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृति के) परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य तीन गुण ( सत रज और तम ) कर्म कराते हैं। 
मनुष्य का अस्तित्व ही कर्म मय है उसका जीना भी एक कर्म का ही रूपान्तरण है ।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
 

श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य हाथ पैर आदि कर्मेन्द्रियोंको रोककर इन्द्रियोंके भोगों को मनसे चिन्तन( विचार) करता रहता है वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अन्तःकरणवाला मिथ्याचारी ढोंगी पापाचारी कहा जाता है।

**************


मूल श्लोकः

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।

 "अनुवाद-

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे।।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।

  "अनुवाद-

लोक-संग्रह किसको करना चाहिये और किसलिये करना चाहिये श्री भगवान इस विषय में कहते हैं श्रेष्ठ पुरुष जो-जो कर्म करता है  दूसरे लोग उसके अनुयायी होकर उस-उस कर्मका ही आचरण किया करते हैं। तथा वह श्रेष्ठ पुरुष जिसजिस परम्परा को प्रामाणिक मानता है लोग उसीके अनुसार चलते हैं ।

 श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण करते हैं।।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।

   "अनुवाद-

मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मों में किस प्रकार आसक्त होता है सो कहते हैं सत्त्व रजस् और तमस् इन तीनों गुणों की जो ( बराबर होने की अवस्था)  साम्यावस्था है उसका नाम प्रधान या प्रकृति है।

उस प्रकृति के गुणों से अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारों( परिवर्तनों) से लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परन्तु अहंकारविमूढात्मा कार्य और करण के संघात रूप शरीर में आत्म-भाव की प्रतीति का नाम अहंकार है उस अहंकार से जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकार से मोहित हो चुका है ऐसा देहेन्द्रिय के धर्म को अपना धर्म मानने वाला देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृति के कर्मों को अपने में मानता हुआ उन-उन कर्मों का मैं कर्ता हूँ ऐसा मान बैठता है।

सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं; परन्तु अहंकार से मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ' -- ऐसा मानता है।

 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।

  "अनुवाद-

मूर्ख अज्ञानी मनुष्य कर्मों में किस प्रकार आसक्त होता है श्रीकृष्ण कहते हैं सत्त्व रजस् और तमस् इन तीनों गुणोंकी जो साम्यावस्था है उसका नाम प्रधान या प्रकृति है उस प्रकृतिके गुणोंसे अर्थात् कार्य और करणरूप समस्त विकारोंसे लौकिक और शास्त्रीय सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे किये जाते हैं। परंतु अहंकारविमूढात्मा कार्य और करणके संघातरूप शरीरमें आत्मभावकी प्रतीतिका नाम अहंकार है उस अहंकारसे जिसका अन्तःकरण अनेक प्रकारसे मोहित हो चुका है ऐसा देहेन्द्रियके धर्मको अपना धर्म माननेवाला देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृतिके कर्मोंको अपनेमें मानता हुआ उन-उन कर्मोंका मैं कर्ता हूँ ऐसा मान बैठता है।

 अध्याय- चतुर्दश-

मनुष्य की सबसे बड़ा शत्रु काम लासना- -


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।

 
 "अनुवाद-

यह काम अनियन्त्रित (sex) का भाव जो सब लोगों का शत्रु है जिसके निमित्त से जीवों को सब अनर्थोंकी प्राप्ति होती है वहीं यह काम किसी कारण से बाधित होनेपर क्रोधके रूप में बदल जाता है इसलिये क्रोध भी यही है। यह काम रजोगुण से उत्पन्न हुआ है अथवा यों समझो कि रजोगुण का उत्पादक (उत्पन्न करने वाला ) भी है क्योंकि उत्पन्न हुआ काम ही रजोगुण को प्रकट करके पुरुष को कर्म में लगाया करता है। तथा रजोगुणके कार्य  में लगे हुए दुःखित मनुष्यों का ही यह प्रलाप (रोना) सुना जाता है कि तृष्णा( का की भावना)  ही हमसे अमुक कर्म करवाती है इत्यादि। तथा यह काम( sex ) बहुत खानेवाला है। इसलिये महापापी भी है क्योंकि काम से ही प्रेरित हुआ जीव पाप किया करता है। इसलिये इस कामको ही तू इस संसार में वैरी जान। 


श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3.38।।

  "अनुवाद-

यह काम किस प्रकार वैरी है सो दृष्टान्तों से समझाते हैं जैसे प्रकाशस्वरूप अग्नि अपने साथ उत्पन्न हुए अन्धकाररूप धूएँ से और दर्पण जैसे मल( धुन्ध) से ढ़क जाता या आच्छादित (हो जाता है तथा जैसे गर्भ अपने आवरणरूप जेर से आच्छादित होता है वैसे ही उस काम से यह ( ज्ञान ) ढका हुआ है।

 जैसे धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढक जाता है तथा जैसे जेरसे गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस काम( sex) भावना के द्वारा यह ज्ञान ( विवेक) ढका हुआ है।
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श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।

  "अनुवाद-

जिसका ( उपर्युक्त श्लोक में ) इदम् शब्द से संकेत किया गया है जो काम से आच्छादित है वह कौन है सो कहा जाता है ज्ञानी के ( विवेकी के ) इस कामरूप नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है। ज्ञानी ही पहले से जानता है कि इसके द्वारा मैं अनर्थों में नियुक्त किया गया हूँ। इससे वह सदा दु:खी भी होता है। इसलिये यह ज्ञानी का ही नित्य वैरी है मूर्खका नहीं क्योंकि वह मूर्ख तो तृष्णाके समय उसको मित्रके समान समझता है। फिर जब उसका परिणामरूप दुःख प्राप्त होता है तब समझता है कि तृष्णा के द्वारा मैं दुखी किया गया हूँ पहले नहीं जानता इसलिये यह काम ज्ञानीका ही नित्य वैरी है। कैसे काम के द्वारा ( ज्ञान आच्छादित है इस पर श्रीभगवान् कहते हैं ) कामना इच्छा ही जिसका स्वरूप है जो अति कष्टसे पूर्ण होता है तथा जो अनल( आग्नि) है भोगों रूपी घी आदि सामग्री से  कभी भी तृप्त नहीं होता। ऐसे कामनारूप वैरीद्वारा (ज्ञान आच्छादित है )।

 हे कौन्तेय ! अग्नि के समान जिसको तृप्त करना कठिन है ऐसे कामरूप,  ज्ञानी के इस नित्य शत्रु द्वारा ज्ञान आवृत है।।

मूल श्लोकः

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।3.40।।

   "अनुवाद-

ज्ञानको आच्छादित करनेवाला होनेके कारण जो सबका वैरी है वह काम( वासना))  कहाँ रहनेवाला है अर्थात् उसका आश्रय क्या है क्योंकि शत्रुके रहनेका स्थान जान लेनेपर सहजमें ही उसका नाश किया जा सकता है। इस पर कहते हैं इन्द्रियाँ मन और बुद्धि यह सब इस काम के अधिष्ठान अर्थात् रहने के स्थान बतलाये जाते हैं। यह काम इन आश्रयभूत इन्द्रियादि के द्वारा ज्ञानको आच्छादित करके इस जीवात्माको नाना प्रकारसे मोहित किया करता है।

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामके वास-स्थान कहे गये हैं। यह काम इन- (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि-) के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्यको मोहित करता है।

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3.41।

  "अनुवाद-

जब कि ऐसा है इसलिये हे भरतर्षभ तू पहले इन्द्रियोंको वशमें करके ज्ञान और विज्ञानके नाशक इस ऊपर बतलाये हुए वैरी पापाचारी काम(सेक्स) भावना का परित्याग कर। अभिप्राय यह कि शास्त्र और आचार्यके उपदेश से जो आत्माअनात्मा और विद्याअविद्या आदि पदार्थों का बोध होता है वह शिक्षा है। और उसका नाम विज्ञान है जो स्वयं के अनुभव से अनुमोदित है एवं उसका जो बिना किसी अनुॉभव के ही जिस ज्ञान का उदय होता है वह ज्ञान है। 

इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो।।

 विशेष- मनुष्य के सभी पाप कर्म इसी काम के आवेग में होते हैं। यही असन्तुलित होने पर नर नारीयों को व्यभिचारी बना कर अधोगति को प्राप्त कराता है।


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3.41।।

 

इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूपी पापी को नष्ट करो।।

 

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।

 

इस प्रकार बुद्धिसे अति श्रेष्ठ आत्माको जानकर और आत्मा से ही आत्माको स्तम्भन करके अर्थात् शुद्ध मन से अच्छी प्रकार आत्माको समाधिस्थ करके हे महाबाहो इस कामरूप दुर्जय शत्रुका त्याग कर अर्थात् जो दुःख से वश में किया जाता है उस अनेक दुर्विज्ञेय विशेषणों से युक्त काम का त्याग कर दे।


 इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) आत्मा को जानकर आत्मा (बुद्धि) के द्वारा आत्मा (मन) को वश में करके, हे महाबाहो ! तुम इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामरूप शत्रु को मारो।।

 

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( अध्याय - पञ्चदश)

यज्ञ भगवान कृष्ण का विधान नहीं था- परन्तु उनको यज्ञ से जोड़कर यज् की महिमा स्थापित की गयी-

( यज्ञ मूलक यह निम्नलिखित श्लोक कृष्ण दर्शन व सिद्धान्तों के विपरीत होने प्रक्षिप्त ही  है।


यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।
4.31।।

अनुवाद

इस प्रकार उपर्युक्त यज्ञों  का सम्पादन करके यज्ञों के शेष का नाम यज्ञशिष्ट है वही अमृत है उसको जो भोगते हैं वे यज्ञशिष्ट अमृतभोजी हैं। उपर्युक्त यज्ञोंको करके उससे बचे हुए समयद्वारा यथाविधि प्राप्त अमृतरूप विहित अन्नको भक्षण करनेवाले यज्ञशिष्ट अमृतभोजी पुरुष सनातन यानी चिरन्तन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। यहाँ यान्ति इस गतिविषयक शब्दकी शक्तिसे यह पाया जाता है कि यदि यज्ञ करनेवाले मुमुक्षु होते हैं तो कालातिक्रमकी अपेक्षासे ( मरनेके बाद कितने ही कालतक ब्रह्मलोकमें रहकर फिर प्रलयके समय ) ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। हे कुरुश्रेष्ठ जो मनुष्य उपर्युक्त यज्ञोंमेंसे एक भी यज्ञ नहीं करता उस यज्ञरहित पुरुषको सब प्राणियोंके लिये जो साधारण है ऐसा यह लोक भी नहीं मिलता फिर विशेष साधनोंद्वारा प्राप्त होनेवाला अन्य लोक तो मिल ही कैसे सकता है।

हे कुरुश्रेष्ठ ! यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले पुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ रहित पुरुष को यह लोक भी नहीं मिलता,  फिर परलोक कैसे मिलेगा?

 

मूल श्लोकः

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।4.33।।

 

ब्रह्मार्पणम् इत्यादि श्लोकद्वारा यथार्थ ज्ञानको यज्ञरूपसे सम्पादन किया फिर बहुतसे यज्ञोंका वर्णन किया। अब पुरुषका इच्छित प्रयोजन जिन यज्ञोंसे सिद्ध होता है उन उपर्युक्त अन्य यज्ञोंकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञकी स्तुति करते हैं। कैसे सो कहते हैं हे परन्तप द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा अर्थात् द्रव्यरूप साधनद्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठतर है। क्योंकि द्रव्यमय यज्ञ फलका आरम्भ करनेवाला है और ज्ञानयज्ञ ( जन्मादि ) फल देनेवाला नहीं है। इसलिये वह श्रेष्ठतर अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है। क्योंकि हे पार्थ सबके सब कर्म मोक्षसाधनरूप ज्ञान में जो कि सब ओरसे परिपूर्ण जलाशय के समान है समाप्त हो जाते हैं अर्थात् उन सबका ज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है। 


हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान-(तत्त्वज्ञान-) में समाप्त हो जाते हैं।

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।

 

ज्ञान पापको किस प्रकार नष्ट कर देता है सो दृष्टान्तसहित कहते हैं हे अर्जुन जैसे अच्छी प्रकारसे प्रदीप्त यानी प्रज्वलित हुआ अग्नि ईंधनको अर्थात् काष्ठके समूहको भस्मरूप कर देता है वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सब कर्मोंको भस्मरूप कर देता है अर्थात् निर्बीज कर देता है। क्योंकि ईंधन की भाँति ज्ञानरूप अग्नि कर्मोंको साक्षात् भस्मरूप नहीं कर सकता इसलिये इसका यही अभिप्राय है कि यथार्थ ज्ञान सब कर्मोंको निर्बीज करनेका हेतु है। जिस कर्मसे शरीर उत्पन्न हुआ है वह फल देनेके लिये प्रवृत्त हो चुका इसलिये उसका नाश तो उपभोगद्वारा ही होगा। यह युक्तिसिद्ध बात है। अतः इस जन्ममें ज्ञानकी उत्पत्तिसे पहले और ज्ञानके साथसाथ किये हुए एवं पुराने अनेक जन्मोंमें किये हुए जो कर्म अभीतक फल देनेके लिये प्रवृत्त नहीं हुए हैं उन सब कर्मोंको ही ज्ञानाग्नि भस्म करता है ( प्रारब्धकर्मोंको नहीं )।

जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को भस्मसात् कर देती है,  वैसे ही,  हे अर्जुन ! ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है।।।




( अध्याय -षोडश)

ज्ञान  और श्रद्भा का निरूपण व पण्डिक की परिभाषा--

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।

 

इस मनुष्यलोक में ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।

इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,  निसंदेह,  कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है।।
 

श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।


जिसके द्वारा निश्चय ही ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है वह उपाय बतलाया जाता है श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान प्राप्त किया करता है। श्रद्धालु होकर भी तो कोई मन्द प्रयत्नवाला हो सकता है इसलिये कहते हैं कि तत्पर अर्थात् ज्ञानप्राप्तिके गुरुशुश्रूषादि उपायों में जो अच्छी प्रकार लगा हुआ हो। श्रद्धावान् और तत्पर होकर भी कोई अजितेन्द्रिय हो सकता है इसलिये कहते हैं कि संयतेन्द्रिय भी होना चाहिये। जिसकी इन्द्रियाँ वश में की हुई हों यानी विषयों से निवृत्त कर ली गयी हों वह संयतेन्द्रिय कहलाता है। जो इस प्रकार श्रद्धावान् तत्पर और संयतेन्द्रिय भी होता है वह अवश्य ही ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। जो दण्डवत्प्रणामादि उपाय हैं वे तो बाह्य हैं और कपटी मनुष्यद्वारा भी किये जा सकते हैं इसलिये वे ( ज्ञानरूप फल उत्पन्न करने में ) अनिश्चित भी हो सकते हैं। परंतु श्रद्धालुता आदि उपायों में कपट नहीं चल सकता इसलिये ये निश्चयरूपसे ज्ञानप्राप्ति के उपाय हैं। ज्ञानप्राप्ति से क्या होगा सो ( उत्तरार्धमें ) कहते हैं ज्ञानको प्राप्त होकर मनुष्य मोक्षरूप परम शान्तिको यानी उपरामताको बहुत शीघ्रतत्काल ही प्राप्त हो जाता है। यथार्थ ज्ञानसे तुरंत ही मोक्ष हो जाता है यह सब शास्त्रों और युक्तियोंसे सिद्ध सुनिश्चित बात है।


श्रद्धावान्,  तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।4.39।। 
 

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।

अनुवाद:- जबकि इसके विपरीत-अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है,  (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है,  न परलोक और न सुख ही है।

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।।

अनुवाद:-जिसने योग द्वारा कर्मों का संन्यास किया है,  ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं,  ऐसे आत्मवान् पुरुष को,  हे धनञ्जय ! कर्म नहीं बाँधते हैं।।


ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।

अनुवाद:-जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा,  वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है;  क्योंकि,  हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।

अनुवाद:-बालक अर्थात् बालबुद्धि के लोग सांख्य (संन्यास) और योग को परस्पर भिन्न समझते हैं;  किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है।।

 

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।

अनुवाद:- जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है,  उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है,  वही (वास्तव में) सत्य ही देखता है।।
 

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।

 

परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।


 कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनःकर्मकुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।

योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं।।
 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।।

युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है;  और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।।
 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5.14।।
अनुवाद:-
लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।

 
श्लोक पण्डित की परिभाषा-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।

ऐसे वे) पण्डित( समदर्शी) विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण,  तथा गाय,  हाथी,  श्वान और चाण्डाल में भी समतत्त्व( परम- ब्रह्म) को देखते हैं।।
 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।

वे दोषी नहीं हैं क्योंकि जिनका अन्तःकरण समतामें अर्थात् सब भूतोंके अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभावमें स्थित यानी निश्चल हो गया है उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्थामें ही सर्गको यानी जन्मको जीत लिया है अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है। यद्यपि मूर्ख लोगों को दोषयुक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोषयुक्त सा प्रतीत होता है तो भी वास्तव में वह ( आत्मा) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। चेतन आत्मा निर्गुण होनेके कारण अपने गुणके भेदसे भी भिन्न नहीं है। भगवान् भी इच्छादिको क्षेत्रके ही धर्म बतलावेंगे तथा अनादि और निर्गुण होनेके कारण ( आत्मा लिप्त नहीं होता ) यह भी कहेंगे। ( वैशेषिक शास्त्रमें बतलाये हुए नित्य द्रव्यगत ) अन्त्य विशेष भी आत्मामें भेद उत्पन्न करनेवाले नहीं हैं क्योंकि प्रत्येक शरीरमें उन अन्त्य विशेषोंके होनेका कोई प्रमाण सम्भव नहीं है। अतः ( यह सिद्ध हुआ कि ) ब्रह्म सम है और एक ही है। इसलिये वे समदर्शी पुरुष ब्रह्ममें ही स्थित हैं इसी कारण उनको दोषकी गन्ध भी स्पर्श नहीं कर पाती क्योंकि उनमेंसे देहादि संघातको आत्मारूपसे देखनेका अभिमान जाता रहा है।। समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः यह सूत्र पूजाविषयक विशेषणसे युक्त होनेके कारण देहादि संघातमें आत्मदृष्टिके अभिमानवाले पुरुषोंके विषयमें है। क्योंकि पूजा दान आदि कर्मोंमें ( भेदबुद्धिका ) कारण ब्रह्मवेत्ता छओं अङ्गोंको जाननेवाला चारों वेदोंको जाननेवाला इत्यादि विशेष गुणोंका सम्बन्ध देखा जाता है। परंतु ब्रह्म सम्पूर्ण गुणदोषोंके सम्बन्धसे रहित है इसलिये यह ( कहना ) ठीक है कि वे ब्रह्ममें स्थित हैं। इसके अतिरिक्त समासमाभ्याम् इत्यादि कथन तो कर्मियोंके विषयमें है और यह सर्वकर्माणि मनसा इस श्लोकसे लेकर अध्यायसमाप्तितक सारा प्रकरण सर्वकर्मसंन्यासी के विषयमें है।

जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है; ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।

जिनका मन समत्वभाव में स्थित है,  उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।


न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।5.20।।

 

जो स्थिरबुद्धि,  संमोहरहित ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है,  वह प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता।।

 

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।

अनुवाद:-
हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।


काम के आवेग को रोकने वाला परम विजेता व सुखी है पापों से रहित है।

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।


अनुवाद:-जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है,  वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।5.26।।

 अनुवाद:-काम और क्रोध से रहित,  संयतचित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता है।।


सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।

 

अब योग का फल जो कि समस्त संसारका विच्छेद करा देनेवाला ब्रह्मके साथ एकताका देखना है वह दिखलाया जाता है समाहित अन्तःकरणसे युक्त और सब जगह समदृष्टिवाला योगी जिसका ब्रह्म और आत्माकी एकताको विषय करनेवाला ज्ञान ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त समस्त विभक्त प्राणियोंमें भेदभावसे रहित सम हो चुका है ऐसा पुरुष अपने आत्माको सब भूतोंमें स्थित (देखता है ) और आत्मामें सब भूतोंको देखता है। अर्थात् ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियोंको आत्मामें एकताको प्राप्त हुए देखता है।

 योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।।

 

इस आत्माकी एकताके दर्शनका फल कहा जाता है जो सबके आत्मा मुझ वासुदेवको सब जगह अर्थात् सब भूतोंमें ( व्यापक ) देखता है और ब्रह्मा आदि समस्त प्राणियोंको मुझ सर्वात्मा ( परमेश्वर ) में देखता है इस प्रकार आत्माकी एकताको देखनेवाले उस ज्ञानीके लिये मैं ईश्वर कभी अदृश्य नहीं होता अर्थात् कभी अप्रत्यक्ष नहीं होता और वह ज्ञानी भी कभी मुझ वासुदेवसे अदृश्य परोक्ष नहीं होता क्योंकि उसका और मेरा स्वरूप एक ही है। निःसंदेह अपना आत्मा अपना प्रिय ही होता है और जो सर्वात्मभावसे एकताको देखनेवाला है वह मैं ही हूँ।

जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
 

                 श्री भगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।

श्रीभगवान् कहते हैं --  हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चञ्चल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।
 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।

असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।।
योगश्चित्त- वृत्तिनिरोधः” इति पातञ्जलोक्ते ६ 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।6.41।

अनुवाद:-
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।।

वेद वाक्यों से भी परे योगी होता है।
 पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।

 

पहले शरीरकी बुद्धि से उसका संयोग कैसे होता है सो कहते हैं क्योंकि वह योगभ्रष्ट पुरुष परवश हुआ भी पूर्वाभ्यासके द्वारा अर्थात् जो पहले जन्म में किया हुआ अभ्यास है उस अति बलवान् पूर्वाभ्यासके द्वारा योगकी ओर खींच लिया जाता है। यदि योगाभ्यास के संस्कारों की अपेक्षा अधिक बलवान् अधर्मादि कर्म न किये हों तो वह योगाभ्यासजनित संस्कारों से खिंच जाता है और यदि अधिक बलवान् अधर्म किया हुआ होता है तो उससे योगजन्य संस्कार भी दब ही जाते हैं। परन्तु उस पापकर्मका क्षय होनेपर योगजन्य संस्कार स्वयं ही अपना कार्य आरम्भ कर देता है। बहुत बालतक दबे रहनेपर भी उसका नाश नहीं होता। जो योगका जिज्ञासु भी है अर्थात् जो योगके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करके योगमार्गमें लगा हुआ योगभ्रष्ट संन्यासी है वह भी शब्दब्रह्मको अर्थात् वेद में कहे हुए कर्मफल को अतिक्रम कर जाता है फिर जो योगको जानकर उसमें स्थित हुआ अभ्यास करता है  उसका तो कहना ही क्या है। यहाँ प्रसंग की शक्ति से जिज्ञासुका अर्थ संन्यासी किया गया है।

वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी पूर्वजन्ममें किये हुए अभ्यास-(साधन-) के कारण ही परमात्माकी तरफ खिंच जाता है; क्योंकि योग-(समता-) का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।

 अनुवाद

उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।


तपस्विभ्योऽधिकोयोगीज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।।

क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो।।


      (सप्तदश -अध्याय-)             चित तथा अन्त:करण के अहंकार, मन, बुद्धि और संकल्प से इच्छाओं की उत्पत्ति का सिद्धान्त-तथा  परमात्मा से जीवन की  उत्पत्ति-


भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।

इस प्रकार रुचि बढ़ाकर श्रोता को सम्मुख करके कहते हैं भिन्ना प्रकृतिरष्टधा वह कथन होनेके कारण यहाँ भूमिशब्दसे पृथिवीतन्मात्रा कही जाती है स्थूल पृथ्वी नहीं वैसे ही जल आदि तत्त्व भी तन्मात्रारूप से कहे जाते हैं। ( इस प्रकार पृथ्वी ) जल अग्नि वायु और आकाश एवं मन यहाँ मनसे उसके कारणभूत अहंकार का ग्रहण किया गया है तथा बुद्धि अर्थात् अहंकार का कारण महत्तत्त्व और अहंकार अर्थात् अविद्यायुक्त अव्यक्त मूलप्रकृति। जैसे विषयुक्त अन्न भी विष ही कहा जाता है वैसे ही अहंकार और वासनासे युक्त अव्यक्त मूलप्रकृति भी अहंकार नामसे कही जाती है क्योंकि अहंकार सबका प्रवर्तक है संसारमें अहंकार ही सबकी प्रवृत्ति का बीज देखा गया है। इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात् मुझ ईश्वरकी मायाशक्ति आठ प्रकारसे भिन्न है ।

( अहंकार से प्रवृति और प्रवृत्ति तथा अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है।और इसी संकल्प से इच्छा उत्पन्न हेकर कर्मों को जन्म देती हैं।

क्योंकि संसार में विना इच्छाओं कभी कोई कर्म नहीं होता है।

 पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।


अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5
।।

 

यह ( उपर्युक्त ) मेरी अपरा प्रकृति है अर्थात् परा नहीं किंतु निकृष्ट है अशुद्ध है और अनर्थ करनेवाली है एवं संसारबन्धनरूपा है। और हे महाबाहो इस उपर्युक्त प्रकृति में दूसरी जीवरूपा अर्थात् प्राणधारणकी निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है अन्तर में प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृति द्वारा यह समस्त जगत् धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात् उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान।

 पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस 'अपरा' प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा बनी हुुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।

 

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।

 

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप दोनों परा और अपरा प्रकृति ही जिनकी योनि कारण है ऐसे ये समस्त भूतप्राणी प्रकृतिरूप कारणसे ही उत्पन्न हुए हैं ऐसा जान। क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतोंकी योनि यानी कारण हैं इसलिये समस्त जगत्का प्रभव उत्पत्ति और प्रलय विनाश मैं ही हूँ अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंद्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत्का कारण हूँ।

 अपरा और परा -- इन दोनों प्रकृतियोंके संयोगसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।

 यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।
 

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।

 

ऐसा होने के कारण मुझ परमेश्वर से परतर ( अतिरिक्त ) जगत्का कारण अन्य कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं ही जगत्का एकमात्र कारण हूँ। हे धनञ्जय क्योंकि ऐसा है इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् और समस्त प्राणी मुझ परमेश्वरमें दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा सूत्रमें मणियोंकी भाँति पिरोया हुआ अनुस्यूत अनुगत बिंधा हुआ गूँथा हुआ है। 

हे धनञ्जय ! मुझसे बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओत-प्रोत है।

जैसे पानी में उत्पन्न लहरें होती हैं ठीक उसी प्रकार यह सम्पूर्ण संसार उस अनन्त परम- ब्रह्म में उत्पन्न है। लहरों का अस्तित्व केवल आवेगों से है  जैसे इच्छाओं से संसीर का अस्तित्व है।

 हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ (परे) अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।।
 

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20।।

भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए  यजन कर भजते हैं।।

"यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।

जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवी- देव) के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस (भक्त) की मैं उस ही देव अथवा देवी के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।।
 

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान्।।7.22।।

 

मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धा से युक्त हुआ वह उसी देव के स्वरूप की सेवा पूजा करनेमें तत्पर होता है। और उस आराधित देवविग्रहसे कर्मफलविभागके जाननेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा निश्चित किये हुए इष्ट भोगोंको प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वरद्वारा निश्चित किये होते हैं इसलिये वह उन्हें अवश्य पाता है यह अभिप्राय है। यहाँपर यदि हितान् ऐसा पदच्छेद करें तो भोगोंमे जो हितत्व है उसको औपचारिक समझना चाहिये क्योंकि वास्तवमें भोग किसीके लिये भी हितकर नहीं हो सकते।

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य (सकामभावपूर्वक) उस देवताकी उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामना-पूर्ति मेरे द्वारा  विहित की हुई विधि से ही  होती है।

वह (भक्त) उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उससे मेरे द्वारा विधान किये हुये इच्छित भोगों को नि:सन्देह प्राप्त करता है।।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23।।


परन्तु उन अल्प बुद्धि पुरुषों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।। 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः
।।8.5।। श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक प्रक्षिप्त है।

 आगामी जीवन में शरीर की प्राप्ति के लिए कर्मगत संस्कार और प्रवृत्ति ही अन्तिम गति की निर्णायिका है।
 

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
 हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।

सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।।
सत्यापन-★
प्राण हृदय में और मन मस्तिष्क में होता है ।


★अघ्याय-अष्टादश-

कृष्ण का आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण-

श्रीमद्भगवदगीता के कुछ मौलिक अध्याय जीवन और जगत् की दार्शनिक व वैज्ञानिक विवेचना  प्रस्तुत करते हैं।

"श्रीमद्भगवद्गीता के प्रतिपादित विषय:

समता योग :

·मनुष्य को सभी प्रकार के राग-द्वेष , मान- सम्मान सफलता-असफलता, सुख-दु:ख को सृष्टि का द्वन्द्वात्मक विधान मानकर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए-  हमें अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों को समान रूप से स्वीकार करना सीखना चाहिए। गीता में ऐसी समता को  योग ' कहा गया है।

"योगस्थः कुरु कर्माणि सिद्ध्यसिद्ध्योः सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2/48। (श्रीमद्भगवद्गीता )

अनुवाद-

हे धनञ्जय अर्जुन ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।15/7।

अनुवाद

मनसहित इन्द्रियोंको अपना माननेके कारण जीवात्मा किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है -- कृष्ण दृष्टान्तसहित  इसका वर्णन करते हैं।

   "जीव में ईश्वर का ही एक अंश "आत्मा" है। लेकिन इस प्राणी ने अपने क्षणिक भौतिक सुखों के लिए इस संसार को नष्ट करने वाले नाशवान प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपना झूठा संबंध को स्वीकार कर लिया है।,

·जिससे वह जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में पड़ जाता है, और ईश्वर से विमुख हो जाता है।

इस शरीर को त्यागने और उसी संसार में दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी  इच्छा युक्त कर्मों के परिणाम स्वरूप निश्चित है।

“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।2/ 22।

अनुवाद-

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही( जीवात्मा) पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।

·मनुष्य की मृत्यु तभी होती है जब यह निश्चय हो जाता है कि उसे अगले जन्म में किस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा।

गीता ज्ञान-

·  गीता सिर्फ एक तरफा प्रवचन मात्र नहीं है। यह कृष्ण और अर्जुन के संवादों का एक संग्रह है।

अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्नों और कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तरों की संगत में ही श्रीमद्भगवद्गीता का सौन्दर्य निहित  है।

· गीता में अर्जुन एक शिष्य के रूप में और कृष्ण एक सद्- गुरु के रूप में उपदेश देते हुए उपस्थित हैं। और अर्जुन बिना किसी वाद -विवाद और भेद के कृष्ण की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करता है।

योग मार्ग:

श्रीमद्भगवद्गीता  तीन योग मार्गों का वर्णन करती है - कर्मयोग- ज्ञानयोग और भक्तियोग।

1. कर्म योग:

· स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का संसार से अभिन्न संबंध है।

· तीनों को निस्वार्थ भाव से दीन - दु:खी और वञ्चितों की सेवा में लगाओ - यही कर्म योग है।

वैसे भी मनुष्य विना कर्म किए हुए कभी नहीं रह सकता है।  

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।     कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।

अनुवाद

अठारहवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी कहा है कि संसार से अपना सम्बन्ध मानते हुए कोई भी मनुष्य कर्मों का सम्पूर्णता से त्याग नहीं कर सकता-

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।      यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।

जो पुरुष कर्माधिकारी है और शरीर में आत्माभिमान(मैं हूँ का भाव) रखनेवाला होने के कारण देहधारी अज्ञानी ही है ? आत्मविषयक कर्तृत्वज्ञान नष्ट न होनेके कारण जो मैं करता हूँ ऐसी निश्चित बुद्धिवाला है उससे कर्म का अशेष त्याग होना असम्भव होनेके कारण? उसका कर्मफलत्याग के सहित विहित कर्मोंके अनुष्ठानमें ही अधिकार है? उनके त्याग में नहीं। यह अभिप्राय दिखलानेके लिये कहते हैं --, देहधारीदेहको धारण करे सो देहधारी? इस व्युत्पत्तिके अनुसार शरीरमें आत्माभिमान रखनेवाला देहभृत् कहा जाता है ? विवेकी नहीं। क्योंकि वेदाविनाशिनम् इत्यादि श्लोकोंसे वह ( विवेकी होने पर) कर्तापन के अधिकार से अलग कर दिया गया है।


 सम्बन्ध-- पीछे के श्लोक में यह कहा ही गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इस पर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियों की क्रियाओं को हठपूर्वक रोककर भी तो अपने को अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करने के लिये आगे का श्लोक प्रस्तुत हैं।

"तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।

अनुवाद:-

हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' --  ऐसा मानकर उनमें आसक्त( संलग्न) नहीं होता। तभी वह कर्म के परिणामों से बच सकता है।

अन्यथा नहीं कर्म में जब अहं,  संकल्प और इच्छाऐं विद्यमान हैं तो कर्म अपना फल देगा ही।

(कायया कर्माण्यनेकानि क्रियमाणा ।                मन: प्रभोर्मनने सज्यते।                                  निर्मुह्य मात्रं कर्त्तव्यं कुर्वन्तदा जन:                  सर्वे द्वन्द्वानां विजयते।

"

शरीर से अनेक कर्मों को करते हुए  मन को प्रभु में लगाने वाला मोह से मुक्त होकर कर्तव्य करते हुए संसार के सभी द्वन्द्व (दो परस्पर विरोधी भावों ) पर विजय प्राप्त कर लेता है।

2. ज्ञान योग:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।


श्रीकृष्ण ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन ! इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) सांख्य दर्शन वेत्ताओं की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से सम्बन्धित है।

3. भक्ति योग:

सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा--ये दोनों साधकों की अपनी निष्ठाएँ ( विश्वास- अथवा  स्थिति ) हैं; परन्तु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें साधकको 'मैं हूँ' और 'संसार है'--इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु-(शरीरादि-) को मोह से रहित बिना की किसी कामना के होकर कर्तव्य रूप में संसार की ही सेवा में स्वयं को लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। भक्ति वास्तव में ज्ञान और कर्म का समन्वय ( मेल) है। भक्तियोग सबसे श्रेष्ठ मार्ग है

गीता-अमृत:

मनुष्य शरीर :-

·हमारा यह शरीर नष्ट होने वाला( नश्वर) है। यह मन अनेक दुर्वासनाओं  से भरा है। हमारे पास न केवल आध्यात्मिक ज्ञान की कमी है,अपितु इस भौतिक जगत् का भी पूर्ण ज्ञान है। 

·  अपने वर्तमान जीवन में भी हम कभी भी एक जैसे नहीं होते हैं। हमारा शरीर हर पल बदलता रहता  है । हमारा शरीर बचपन से यौवन, यौवन से प्रौढ़, और प्रौढ़ से वृद्धावस्था में और फिर मृत्यु में कब बदल जाता है इसका हमें पता तक नहीं चलता क्योंकि शरीर प्राकृतिक तत्वों का समन्वय है  । और परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव व नियम है।

 देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा l
,तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।2-13। 
(श्रीमद्भगवद्गीता )

·  जीव -विज्ञान- ( biology )कहता है कि शरीर के भीतर की कोशिकाओं का कायाकल्प होता है—पुरानी और मृत कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं निर्माण होती हैं ।  

“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनं:। 
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्तत्रयं त्यजेत “।। ( 16—21)
"अनुवाद:-

अर्थात काम , क्रोध और लोभ -- ये तीनों आत्मा का अधःपतन करने वाले साक्षात् नरक के द्वार हैं।  इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

(कृष्ण ने वासना मूलक काम के विषय में कहा-)

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।

"अनुवाद:-
 
इन्द्रियों को (स्थूलशरीर से) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आप को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।

निष्कर्ष के रूप में श्रीकृष्ण इस पर बल देकर कहते हैं कि हमें आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी शत्रु का संहार करना चाहिए। क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है और यह दिव्य शक्ति है इसलिए दिव्य पदार्थों से ही अलौकिक आनन्द प्राप्त हो सकता है जबकि संसार के सभी पदार्थ भौतिक हैं। ये भौतिक पदार्थ आत्मा की स्वाभाविक उत्कंठा को कभी पूरा नहीं कर सकते इसलिए इनको प्राप्त करने की कामना करना व्यर्थ ही है। इसलिए परिश्रम करते हुए हमें बुद्धि को तदानुसार क्रियाशील होने का प्रशिक्षण देना चाहिए और फिर मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखने के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए। 

कठोपनिषद् में रथ के सादृश्य से इसे अतिसुगम ढंग से समझाया गया है:

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।। (कठोपनिषद्-1.3.3-4) 

यह उपनिषद्  वर्णन करता है कि यह शरीर एक रथ है जिसे पांच इन्द्रिय रूपी घोड़े हाँक रहे हैं। उन घोड़ों के मुख में मन रूपी लगाम पड़ी है। यह लगाम रथ के बुद्धि रूपी सारथी के हाथ में है और रथ के पीछे आसन पर  (जीवात्मा) यात्री बैठा हुआ है। यात्री को चाहिए कि वह सारथी को उचित निर्देश दे जो लगाम को नियंत्रित कर घोड़ों को उचित दिशा की ओर जाने का मार्गदर्शन दे सके। 

इस सादृश्य में रथ मनुष्य का शरीर है, घोड़े पाँच इन्द्रियाँ हैं और घोड़ों के मुख में पड़ी लगाम मन है और सारथी बुद्धि है और रथ में बैठा यात्री शरीर में वास करने वाली आत्मा है। इन्द्रियाँ (घोड़े) अपनी पसंद के पदार्थों की कामना करती हैं। मन (लगाम) इन्द्रियों को मनमानी करने से रोकने में अभ्यस्त नहीं होता। बुद्धि (सारथी) मन (लगाम) के समक्ष आत्मसमर्पण कर देती है। इस प्रकार मायाबद्ध अवस्था में सम्मोहित आत्मा बुद्धि को उचित दिशा में चलने का निर्देश नहीं देती।

( अध्याय -एकोनविञ्शति -)

कर्मयोग सिद्धान्त तथा अनासक्त योग-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ,
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि “-(2- 47) 
"अनुवाद:-
कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु( कारण) भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता( बिना कर्म करे रहने) में भी आसक्ति न हो।


अनासक्त कर्म-

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।

 

अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञानता की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है।

 वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्न-भिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।
(मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है।  यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय।   इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से  बचाकर उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।

·अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।

"अनुवाद:-

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
विशेष:- मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन विचार और भावों से सदैव ओत-प्रोत रहता है मृत्यु के समय भी उसके वहीं विचार और भाव होते हैं-इस समय मृत्यु होने पर भी मनुष्य को उसकी अन्तिम प्रवृति( विचारवऔर भावों की प्रतिध्वनित समष्टि के अनुसार गति (अवस्था) की प्राप्ति होती ही है। 
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श्रीकृष्ण की दार्शनिकता- philosophy)  साम्यवाद( समत्व) 

  "अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।

"अनुवाद:-

अर्जुन बोले - हे केशव ! परमात्मा में स्थित- बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ? वह स्थित बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

"श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

अनुवाद:- 

श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस काल में साधक अपने मन में सञ्चित सम्पूर्ण-कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है। और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 
 

( विशेष:- कामनाऐं ही बुद्वि को चलायमान करती हैं और कर्म के फल का कारण भी यह ( कामनाऐं) इच्छाऐं हैं। और कर्म का फल भोगने के लिए ही मनुष्य को पुन: जन्म कर्मगत संस्कारों के अनुसार प्राप्ति होती है और कर्म का फल तो केवल भोगने पर ही समाप्त होता है यही इच्छाऐं संसार में अच्छे - बुरे कर्म कराती हैं अत: कृष्ण नें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए बिना कर्म के फल की इच्छाओं के कर्तव्य करने को लोकहित में कर्म  करने को कहा है।  

मूल श्लोकः

"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
 

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होनेपर जिसके मन में वासना उत्पन्न नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह (मुनि)मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।2.56।

दु:ख और सुख मन के अनुभव हैं।दु:ख और सुखों का अस्तित्व कुछ समय के लिए ही हैं ये दोंनो भौतिकता से ही सम्बन्धित अनुभव है।

मूल श्लोकः

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।

अनुवाद

सब जगह आसक्ति(लगाव) रहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष( घृणा) करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।2•57।
 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
 
 

हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवाले का और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है।।6.16।।

अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं अधिक खानेवाले का अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लङ्घन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालाका योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवाले का भी योग सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह श्रुति है कि जो अपने शरीर की शक्ति के अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है वह कष्ट नहीं देता ( बिगाड़ नहीं करता ) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय। 


बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
 

अनुवाद

बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।।2.50।। 
 

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।
2.51।।

अनुवाद

समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो ईश्वरमय जाते हैं।।।2.51।। 

मूल श्लोकः

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।

 अनुवाद

निराहारी (इन्द्रियों को विषयों से हटानेवाले) मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य का तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होने से निवृत्त हो जाता है।।।2.59।। 
 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

 अनुवाद

 हे कुन्तीनन्दन ! (विषयों( रसों ) में बुद्धि रहने से) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।।2.60।।


ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।

अनुवाद

विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति (लगाव) पैदा हो जाता है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना की पूर्ति न होने क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।।2.62 -- 2.63।। 

_____________________________

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रञ्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
2.63।।

 अनुवाद

विषयों( रूप रस आदि)  का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना में व्यवधान पड़ने पर क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट (याददाश्त नष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।।2.62 -- 2.63।।
 *****************

"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
2.66।।

अनुवाद

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका (निर्णायिका) बुद्धि नहीं होती और निर्णायिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना भी नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? ।।2.66।।

 

मूल श्लोकः

"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।

 अनुवाद

अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन  विषय रूपी जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।।।2.67।।
 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

अनुवाद

हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।2.48।। 

  "श्रीभगवानुवाच ।

 अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज ।
 साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥६३॥

 नाहं आत्मानमाशासे मद्‍भक्तैः साधुभिर्विना।
 श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिःअहं परा॥६४॥

(श्रीमद्भागवतम्-9.4.63-64)

अनुवाद

          "भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:-

"दुर्वासा जी ! मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने  मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उनको प्रिय हूँ।६३।

अनुवाद

ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इस लिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
2.38।।

 अनुवाद

सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं लगेगा।।2.38 ।।


मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25

अनुवाद

जो मान और अपमान में सम है; शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।

 अनुवाद

 हे धनञजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।

अनुवाद

दुख में जिसका मन उद्विग्न ( बेचैन) नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त( इच्छा समाप्त) हो गयी है ? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।12.17।

"अनुवाद

जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।


जिस प्रकार अग्नि में क्वथित बीज (उबला हुआ बीज) अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार तत्व ज्ञान (यथार्थ ज्ञान) की अग्नि में दग्ध (जला हुआ) अहंकार से रहित  संकल्प और उससे उत्पन्न कामनाओं से रहित कर्म भी कभी फल देने वाला नहीं होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक कर्म फल की सम्यक् व्याख्या करता है।
कहने तात्पर्य है कि संसार के हर कर्म के पीछे इच्छाओं का हाथ है। और इच्छाओं का कारण संकल्प ( मन का दृढ़ निश्चय) और संकल्प का कारण व्यक्ति का अहंकार है। और इस अहंकार के पीछे कारण है व्यक्ति का वह अज्ञान जिसके कारण कभी सत्य का पूर्णरूप से बोध नहीं होता है।
निम्नलिखित श्लोक में कर्म बन्धन से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। क्योंकि कर्म बन्धन में
 पड़ा हुआ व्यक्ति द्वन्द्व (दु:ख-सुख) अथवा किस से लगाव -अलगाव आदि परस्पर विरोधी भावों से सदैव समान रूप से प्रभावित रहता है।
यही संसार का अनवरत चक्र गतिशील रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता दृश्य ( तमाशा) न बनाकर तमाशा देखने वाला बनने की शिक्षा देती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का वह श्लोक जिसमें कर्म फल से मुक्त होने की विधि का वर्णन है।

श्रीमद्भगवद्गीता -  4.19  
"यस्य सर्वे समारम्भाः कर्मा: कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं  तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ १९॥
शब्दार्थ-
यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:— समान रूप से आरम्भ ; कर्मा: कर्म समूह काम—इच्छा/ ; सङ्कल्प— मन का निश्चय; वर्जिता:—से रहित हैं; ज्ञान— ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—बोध सम्पन्न ।.
 
भावार्थ--
जिस तत्वज्ञानी व्यक्ति के सभी कर्म -अहंकार जनित संकल्पों के प्रवाहात्मिका रूपा कामनाओं(इच्छाओं)  से रहित हो जाऐं  तो वह कभी भी संसार के कर्मफल का भागी नही होता यदि उससे कोई अप्राकृतिक अथवा उन्मादी कृत्य (कर्म) भी हो जाए तो  प्रायश्चित करने पर उसका शुद्धि करण हो जाता है।

जिस प्रकार अग्नि में क्वथित( उबला हुआ) बीज अंकुरित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में तप्त कर्म रूपी बीज संकल्प और इच्छाओं के रूप में 
अंकुरित नहीं होता है। अन्यथा संसारी लोग अहंकार के गुण संकल्प और संकल्प के प्रवाह इच्छाओं के वशीभूत होकर ही कर्म में प्रवृत होते हैं।
जिनके फल भोग के लिए ही उनका अनेक जीवों के रूप में वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुरूप जन्म होता है।

आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है।

श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में  कर्मयोग  का  बड़ा सैद्धान्तिक विवेचन है।

द्वितीय अध्याय में  श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर  सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।

तत्पश्चात्  श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए "स्थितप्रज्ञ" सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का स्वाभाविक  प्रतिपादन किया है।

इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48 वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को प्रेरित किया है।

49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत निम्न बताया है। इसी अध्याय के  50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में संलग्न हो जाने के लिए कहा और 51 वें श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से निश्चय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ?

 (मह्यं किं कर्त्तव्यम्)
इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन पुन: कृष्ण से पूछते हैं जिसे तृतीय अध्याय में निर्देशित किया गया है।



                   

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(रथ:शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।
तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।)


"षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् ।
यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।


("इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम् ।२५। 


(इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।)


येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्।
तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।

इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)



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अनुवाद

पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ के समान है। बुद्धि सारथि है और इन्द्रियों को घोड़े  बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर सारथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग सुगम्य करता है, उसी प्रकार सावधान,एवम धीर  पुरुष की बुद्धि मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा तय  करती है।२३।

जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रिय रूपी अश्वों  की लगाम संभालता है, वही उत्तम सारथी हो सकता है । २४।

सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है।२५।

जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।२६।

सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द, रस  आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरूप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परन्तु जो उनके दोषों का अनुसन्धान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है ।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ




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(अध्याय-विञ्शति)


यूरोपीय भाषाओं में आत्मा के अस्तित्व की गाथा- तथा योग की सृष्टि के रहस्य को जानने में भूमिका एवं योग का आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी  होने का निरूपण  ।

आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही विकसित रूप है ।

आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं।
अर्थात् own, relation प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 4-Old English: swǟs `lieb, eigen' 5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau.

संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है। ___________________________________

"स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः । स्वभावस्थे अर्थात्‌ स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ: अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।

योग स्वास्थ्य का साधक है ।

पञ्चम् सदी में रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है ।
भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇

"सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि समत्वं योग उच्चते ।।
श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।

समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है।

भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸

पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं।
--जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।

यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।

संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं। योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत् ) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है।👇 ____________________________________use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"

पुरानी लैटिन में युति क्रिया है। जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज ( Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज्+घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇
योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है ।

योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।

और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇

१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध। चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।

--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।

स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।

१-संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि (-जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।

और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं।

ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।

वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
🌸🌸🌸

योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ।

नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।

१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।

पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।

वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।

ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।

भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।

जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।

👂👇👂👂 पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।

यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। ___________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।

उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
--जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।

वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।

और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है । और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ।

और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।

कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।

एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।

--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है । भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है ।
(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।

और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।

परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया !

इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।

परन्तु उसे हटा दिया गया ।
यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है।

जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है ।
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि । वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है।
जब मन में अहं का भाव हो जाय ।

परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।

आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है  ___________________________________

पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में आध्यात्मिक ज्ञान से समन्वित श्लोकों को छोड़कर प्राय: श्लोक वर्णव्यवस्था के मण्डन हेतु जोड़े गये हैं । परन्तु गीता के आध्यात्मिक सिद्धान्त सत्य के सन्निकट ही हैं। जो सांख्य और वैदान्त के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन करते हैं।


वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇

"अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।

अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं ।
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए  "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।

मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।

द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?

-जैसे माया और ईश्वर । परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।

वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।

अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।
मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।

उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।

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अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ।
परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है  ___________________________________
आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।
क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।

अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं । बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया । यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है।

पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा।
क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।

निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो।
विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्म मय है । 👇

"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।3.5।

कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।

अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए ।
परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।

कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।

बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे।

हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।
परिचय संपादित करें प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।

हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे।

हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।

हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है।
बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है । वैभाषिक मत की उत्‍पत्ति कश्‍मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था।
सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।

थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'।
बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है।

थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।

जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता।

थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है।

इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।

थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।

बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ ।

वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।

वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में  विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।

‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।

यान( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।

सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं।
इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है। एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।

एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।

अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है।
सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।

उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये ।

योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया । दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।

किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है ।

बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना ।
योग सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है
योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । ___________________________________

यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं !

सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।

और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।

.मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है। यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है ।

परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।

वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है ।
श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 ___________________________________

दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
-ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा । और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 ___________________________________
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)   यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है । अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।

इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।

प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---

 अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’

महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है।

उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है।

क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।  जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी ।

"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39। (श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
 
अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है।

जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है।
परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है
जागता सोता मरता और जीता है।
ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है। जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गद्य नहीं है।
फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है।
अहं( ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है।
परन्तु स्व ( स्वयं) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है।

अहं से हम और हम के भाव से स्व (आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम (कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी
अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।

___________    

ज्ञान की स्थिति में मन द्वारा जो संकल्पित कर्म सम्पादित होता है। उसका परिणाम !

और ज्ञान के अभाव में मन द्वारा संकल्पित  सम्पादित कार्य का परिणाम भिन्न भिन्न प्रभाव वाला होता है।

श्रद्धा के  केन्द्रीकरण के आयाम सदैव स्थूल अवलम्बन का आश्रय लेते हैं। यही ईश्वर का साकार मान्य प्रतीक है।

वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था।

"कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥ ( ऋग्वेद -१०/१३०/३)

“{प्रमा= प्रमाणम्} 
“प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता ।

परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है। दर-असल ईश्वर को जानना ही श्रेयकर है।

ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए  ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। 

अन्त: करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।  ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है।  यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है।

उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का  कोई उपमान अथवा मानक  ही नही है।
पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है।

वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । 

भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी 
तब यह कहा -

"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है।

जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है।

इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में  उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा-

हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के  द्वारा  मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं।

ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए 
प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। 

और सन्त भी  पूजा( साधना ) करने वाले होते थे।
अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। 
दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी  बनाते थे।

अरब  का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही  सनम- तो कहीं  "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। 

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का 
लट् लकार (वर्तमान) में  रूप निम्नलिखित हैं ।

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति
(वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं।

मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ
( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/

उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः
( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/

मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था।
अरबी में 
 صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , " मूर्ति विक्रेता )        (
है।

सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो  से मिलकर यह शब्द बनता है।।

इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति  बुतपरस्ती  के माध्यम से  ही प्रकट होती रही है।

प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों।
मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था।

"सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है।

अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ।

हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है  एक स्तुति वाचक शब्द है।

जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। 

चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत  के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ  है।

प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। 

उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। 
दरअसल न और ल में बदलाव  की प्रवृत्ति ( लस्य दत्वम्)भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है।

मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं।
यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है।

इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है।

दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م‎ है ! 

जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है।
अत: वैदिक धातु सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है।

जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है।

ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था।

लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं वाचक रहा। 

बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया।

इस सिलसिले की रुचिकर बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया।

संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है।

यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण  अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार।

सगुण (साकार)  पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है।
जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को  मात्र  ईश्वर का र्रतीक मानकर पूजा जाता है।

भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र 
सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के नामों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है।
चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है।

सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है 
मत्स्यपुराण के अनुसार संत शब्द की निम्न परिभाषा है :

ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:।
सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
अनुवाद:-
ब्राह्मण ग्रन्थ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं।

मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे ।
अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वन्तो ये भवन्त्युत ।
साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। 
सन्दर्भ:-
(ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)

सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ  - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि  है।

सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥  
(यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। 

रघुवंशम्-1.10

श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
अनुवाद:-
उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। 
सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥

एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है।

एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् ।
कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥



सांख्य और योग दर्शन में आत्मा परमात्मा और प्रकृति का स्वरूप- श्रीकृष्णसर्वस्वम्-


सांख्य दर्शन भारत वर्ष की आस्तिक विचारधारा का प्राचीनतम दर्शन है।
सांख्य दर्शन का उल्लेख महाभारत, वाल्मीकि रामायण,  स्मृति और पुराणों में प्राप्त होता है ।सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल माने जाते हैं।
सांख्य दर्शन के सिद्धान्त यत्र तत्र बिखरे हुए थे जिन्हें सुसंगत तथा वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित करके महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन का प्रणयन किया।
कहा जाता है कि महर्षि कपिल ने सांख्यसूत्र एवं तत्वसमास नामक ग्रंथों की रचना की थी किन्तु आज ना तो महर्षि कपिल के विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है और न उनके द्वारा रचित ग्रंथ ही उपलब्ध हैं।
महर्षि कपिल की शिष्य परंपरा में आसूरि और पंचशिख नामक आचार्यों का नाम आता है ।इन्होंने सांख्य दर्शन के सिद्धान्तों को सरल और सुबोध रूप में समझाने के लिए ग्रंथों की रचना की थी किन्तु उनके ग्रंथ भी उपलब्ध नहीं है वर्तमान युग में सांख्य दर्शन के प्रामाणिक ग्रंथों में ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका का ही उल्लेख आता है ।
ईश्वर कृष्ण ने सांख्यकारिका केए 72 श्लोकों में सांख्य दर्शन के तत्वों का प्रतिपादन किया है । 
कालांतर में इस पर अनेक भाष्य लिखे गए जिन से इस दर्शन के सिद्धांतों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।

सांख्य दर्शन के संबंध में सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि इसका नाम सांख्य क्यों पड़ा ? इस विषय में विद्वानों के दो दृष्टिकोण हैं । 

प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार इसमें (24) तत्वों की विवेचना होने के कारण इसे सांख्य दर्शन कहते हैं 
(24) तत्वों के साथ जब पुरुष को शामिल किया जाता है तो तत्वों की संख्या (25) हो जाती है ।अतः इस दर्शन में सृष्टि के पच्चीस तत्वों का संख्यात्मक विवेचन प्राप्त होता है , इसलिए इसे सांख्य दर्शन कहते हैं । अर्थात् तत्वों की प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक गणना का आधारभूत शास्त्र होने के कारण इसे सांख्य दर्शन कहा गया।

विद्वानों के दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार इस दर्शन में सम्यक ज्ञान की विवेचना की गई है इसलिए कपिल द्वारा रचित यह दर्शन सांख्य दर्शन कहलाता है। व्युत्पत्ति के आधार पर इसका अर्थ है (सम्यक + ख्यानम्)’-अर्थात सम्यक ज्ञान । सांख्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित सम्यक ज्ञान पुरुष( आत्मा) और प्रकृति(शरीर) का भेद ज्ञान है । सांख्य दर्शन से यह विवेक बुद्धि मिलती है इसी कारण इसका नाम सांख्य पड़ा ।

सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी दर्शन है जिसमें दो स्वतंत्र तत्व स्वीकार किये गये हैं -पुरुष और प्रकृति । अर्थात ईश्वर और उसकी सहचरी माया)  पुरुष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है जो शरीर ,इन्द्रिय ,मन ,बुद्धि आदि से भिन्न है। वह चैतन्य स्वरूप है । सांख्य दर्शन का दूसरा तत्व प्रकृति है जिसे त्रिगुणात्मिका ( सत+ रज+ और तम ) मूलक कहा गया है और जो इस विश्व का मूल कारण है । सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन की प्रथम ऐसी विचारधारा है जो एक मूलभूत कारण से ही संपूर्ण सृष्टि का विकास प्रस्तुत करती है ।

सांख्य दर्शन प्रकृति के विकासवाद के मूल में सत्कार्यवाद के सिद्धान्त को मानता है जिसके अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि अपने उद्भव के पूर्व प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में अवस्थित है । 

कार्यकारणवाद :  कार्य कारण का सिद्धान्त ही कार्य कारणवाद कहलाता है । यह सिद्धांत सांख्य दर्शन का ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय दर्शन का मूलभूत सिद्धांत है । यह कर्मवाद की सम्यक विवेचना पर आधारित है  सांख्य दर्शन के इस कार्यकारणवाद पर उसका प्रकृतिवाद निर्भर है ।प्रश्न है कि कारणतावाद क्या है ? कारणतावाद कार्य कारण के संबंध का सिद्धांत है । इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी कार्य  बिना किसी  कारण के नहीं होता । प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । कोई भी कार्य या घटना अकारण या अकस्मात नहीं होती। इस प्रकार कार्य कारणवाद का यह मूल प्रश्न है कि क्या कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी अपने कारण में विद्यमान् रहता है अथवा नहीं? 

जो यह मानते हैं उन्हें सत्कार्यवादी और जो यह नहीं मानते उन्हें असत्कार्यवादी कहा जाता है । इस प्रकार असतकार्यवाद के अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व असत् है अर्थात अपने कारण में विद्यमान् नहीं है। कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति से ही आरंभ होती है । इसी मान्यता के कारण असत कार्य वाद को आरंभवाद भी कहा जाता है इस सिद्धांत के अनुसार कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति से ही आरंभ होती है।कार्य एक नवीन सृष्टि है , एक नवीन आरंभ है।
जैसे पीपल के एक सूक्ष्म बीज में समग्र विशाल पीपल वृक्ष की सत्ता विद्यमान है।
अब प्रश्न यह बनता है  कि
 यदि घड़ा मिट्टी में , कपड़ा धागों में तथा दही दूध में पहले से ही मौजूद है तो कुम्हार को मिट्टी से घड़ा बनाने के लिए परिश्रम की क्या आवश्यकता है ? और फिर धागे ही कपड़े का काम क्यों नहीं करते और दूध का स्वाद दही जैसा क्यों नहीं होता ? दर्शन के कुछ संप्रदाय वैशेषिक और नैयायिक इत्यादि असत्कार्य वाद या आरंभवाद को मानते हैं । 

इसके विपरीत सत्कार्यवाद यह मानता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी अपने कारणों में विद्यमान् रहता । इस मान्यता के कारण ही इस सिद्धांत का नाम सत कार्य बाद है अर्थात कार्य कारण में बीज रूप से अन्तर्निहित रहता है तथा कारण कार्य में स्वभाव रूप से विद्यमान् रहता है। 

अर्थात कार्य कोई नवीन सृष्टि नहीं है । उत्पाद का अर्थ नवीन उत्पत्ति तथा विनाश का अर्थ सर्वथा विनाश नहीं है। उत्पत्ति का अर्थ है अभिव्यक्त होना और विनाश का अर्थ है व्यक्त हुए कार्य का पुनः अपने कारण में तिरोहित या विलीन हो जाना
जो कि परिवर्तन की प्रक्रिया है।

यह परिवर्तन प्रकृति का नियम है। और यह
परिवर्तन समय का स्वभाव है तथा कर्म उसकी प्रवृति है।  कर्म का दृश्य रूप संसार है। 

सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपने कारण में सूक्ष्म रूप में मौजूद रहता है,कारण ही कार्य के रूप में परिवर्तित होता है ।  

कारण और कार्य एक ही वस्तु के दो रूप हैं ।कारण की अवस्था अव्यक्त रूप (निराकार)है तथा कार्य की अवस्था व्यक्त रूप (साकार) है।

सतत्कार्यवाद सांख्य दर्शन का अत्यंत ही सूक्ष्म एवं  सिद्धांत है। यह सिद्धांत सांख्य दर्शन की एक प्रमुख मान्यता है एवं इसका दूसरा नाम प्रकृतिपरिणामवाद है इसके अनुसार प्रकृति प्रलय की अवस्था में बीज रूप से अथवा अव्यक्त रूप से समस्त सृष्टि को अपने में लीन कर लेती है और सर्जन की अवस्था में कार्य रूप में उसे व्यक्त करती है। 

अर्थात कार्य नई सृष्टि नहीं है । वह कारण की ही कार्य रूप में अभिव्यक्ति या परिवर्तन है। सांख्य दर्शन ने सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं:



१.असदकरणात्= सांख्य की इस युक्ति के अनुसार असत् से असत् ही उत्पन्न हो सकता है उससे किसी वस्तु की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। यदि उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य की सत्ता न मानी जाए तो वह असत् होगा। 
अगर वह असत् है तो वह आकाश कुसुम या गर्दभ के सींग की भाँति असत् होगा।और उसकी उत्पत्ति कभी भी किसी तरह संभव नहीं है।
भगवतगीता में भी कहा गया है -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय द्वितीय श्लोक संख्या १६)
असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।

बालू में तेल असत् है अतः किसी भी प्रयास से बालू से तेल प्राप्त नहीं हो सकता । तेल तिल को पेर कर ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार हजार कारीगर बिना किसी आधार ( कारण) के मिलकर भी आकाश में महल नहीं बना सकते। इसका यही तात्पर्य है कि यदि कारण में कार्य का अभाव है तो कारण से कभी भी कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है । अर्थात किसी कारण से ही उससे संबंधित कार्य इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि वह उसमें अपनी उत्पत्ति के पूर्व अव्यक्त रूप में विद्यमान् रहता है।

२.उपादान ग्रहणात् - प्रत्येक कार्य अपने उपादान कारण या समवायी कारण से संबंधित रहता है  इसलिए उससे उसकी उत्पत्ति होती है ।यदि कारण में कार्य की सत्ता न हो तो कार्य का संबंध अपने उपादान कारण से ही संभव नहीं होगा क्योंकि असत् से सत् की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। उपादान या समवायी कारण के बिना कार्य हो ही नहीं सकता । मिट्टी के बिना घड़ा ,धागे के बिना कपड़ा,तिल के बिना तेल की कल्पना नहीं की जा सकती है। 
हम देखते हैं कि घड़ा मिट्टी से ही बनता है,कपड़ा धागों से ही बनता है और दही दूध से ही बन सकता है अर्थात विशेष कार्य ये विशेष कारणों से ही पैदा होते हैं यही उपादान नियम है ,जिससे यह सिद्ध होता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले अव्यक्त रूप में अपने कारण में विद्यमान् रहता है। 

इस प्रकार इस युक्ति से कार्य की अपने उपादान कारण में उपस्थिति सिद्ध होती है ।
दर्शन विज्ञान का ही सैद्धान्तिक(Theorical) रूप है और विज्ञान स्वयं दर्शन का प्रायौगिक ( (practically)_रूपांतरण है।

३.सर्वसम्भवाभावात्" इसके अनुसार किसी भी कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है । हम देखते हैं कि प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य का उत्पादन संभव नहीं होता। इसका अर्थ है कि कारण कार्य को तभी उत्पन्न करता है जब वह उससे संबंधित होता है।
अर्थात कार्य अपने कारण में पूर्व ही विद्यमान् रहता है।

४.शक्तस्यशक्यकरणात्= सांख्य दर्शन के अनुसार समर्थकारण ही संबंधित कार्य की उत्पत्ति कर सकता है। शक्य कार्य की उत्पत्ति शक्त कारण से ही संभव है । शक्त कारण वह है जिसमें विशेष कार्य उत्पन्न करने की शक्ति हो।इसका तात्पर्य है जिस कारण में जिस किसी कार्य को उत्पन्न करने की क्षमता या शक्ति होती है उस कारण से वही कार्य उत्पन्न हो सकता है । 
यदि ऐसा नहीं होता तो पानी से दही ,बैल से दूध और बालू से तेल प्राप्त हो जाता। इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य अपनी अभिव्यक्ति से पूर्व कारण में मौजूद रहता है।
जैसे एक पीपल के वृक्ष मेम समग्र विशाल पीपल वृक्ष को सम्पूर्ण गुण अविकसित अवस्था में निहित होतो हैं।

५.कारणभावाच्च-इस युक्ति के अनुसार कारण और कार्य एक ही सिक्के के दो पहलू है। किसी कार्य की अव्यक्त अवस्था ही उसका कारण है तथा कोई भी कार्य अपने कारण का व्यक्त रूप है । कार्य स्वभावतः अपने कारण से भिन्न नहीं होता है। कपड़ा अपने धागों से भिन्न नहीं है।कारण का जो स्वभाव होता है वहीं कार्य का भी स्वभाव होता है मिट्टी से बने घड़े का स्वभाव मिट्टी जैसा ही होता है अर्थात तात्विक रूप से कार्य कारण अभिन्न हैं । कारण और कार्य का भेद मात्र व्यावहारिक है।

इस प्रकार इन युक्तियों के द्वारा सांख्य दर्शन में सत्कार्यम् वाद की सिद्धि की गई है।

पंच भूतों का पञ्चीकरण क्या है ?
जब हम आध्यात्मिक या दर्शन की बात करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि ब्रह्माण्ड की रचना पञ्चमहाभूतों के एकीकरण और विकार से हुई है। अतः यह अत्यन्त ठोस अवधारणा है कि इस ब्रह्माण्ड की रचना पञ्चमहाभूतों के कारण ही हुई है, और यह अवधारणा न केवल भारतीय दर्शन अपितु पाश्चात्य और नास्तिक दर्शनों में भी कहीं न कहीं स्वीकार की गई है।

खादयश्चेतनाषष्ठा धातवः पुरुषः स्मृतः।
चेतनाधातुरप्येकः स्मृतः पुरुषसञ्ज्ञकः॥१६॥
टिप्पणी-
खादय इत्यादि= खादयः “खं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा” इति वक्ष्यमाणाः; चेतनाषष्ठा इत्यत्र चेतनाशब्देन चेतनाधारः समनस्क आत्मा गृह्यते; खादिग्रहणेन चेन्द्रियाणि खादिमयान्यवरुद्धानि।अयं च वैशेषिकदर्शनपरिगृहीतश्चिकित्साशास्त्रविषयः पुरुषः; अयमेव “पञ्चमहाभूतशरीरिसमवायः पुरुषः” (सुश्रुत.सू.१) इत्यनेन सुश्रुतेनाप्युक्तः। स्मृत इति भाषया पूर्वाचार्याणामप्ययं पुरुषशब्दवाच्योऽभिप्रेतो नास्मत्कल्पित इति दर्शयति। 
"अनुवाद:- पुर कहते हैं शरीर को जिसमें जो शयन करता है सोता है वह पुरुष है। यह आत्मा पुरुष शब्द से सम्बोधित किया जाता है। इसी को चेतन अथवा चित्त कहते हैं जो विचार करता है।""

यह शरीर पुर है और इसमें शयन करने वालाही पुरुष है।
"In ancient Greek this word means "city-state", which remained prevalent in this meaning in 1894 AD.
 Greek words - polis, ptolis (Greek polis, ptolis ") which mean "citadel, fort, city, state, etc. Some thinkers relate to this
From PIE *tpolh- word.
Meaning "fortress; closed place, often on high ground; hilltop".
But its source is the Vedic word Puram-.
," in Lithuanian it comes from the form pilis meaning "fortress".
Be aware that
, Greek is an independent linguistic branch of the Indo-European language family, spoken by the Greek people.
This language, originating from the Southern Balkans, has the longest history of any other Indo-European language, spanning over (34) centuries of written history. In its ancient form it is the language of ancient Greek literature and the New Testament of the Christian Bible.

Let us tell you that Lithuanian is an Eastern Baltic language which belongs to the Baltic branch of the Indo-European language family
अनुवाद:-
प्राचीन ग्रीक में इस शब्द का अर्थ है शहर-राज्य," जो ईस्वी सन्  1894 मे इस अर्थ प्रचलित रहा।,
ग्रीक शब्द - पोलिस, पोटोलिस (Greek polis, ptolis ") जिनका अर्थ "गढ़, किला, शहर,  राज्य,  आदि है। कुछ विचारक इसका सम्बन्ध
पीआईई  PIE *tpolh- शब्द से मानते हैं।
जिसका अर्थ  "गढ़; बंद जगह, अक्सर ऊंची जमीन पर; पहाड़ी की चोटी" से है।
परन्तु इसका श्रोत वैदिक शब्द पुरम्- है।
,"लिथुआनियाई भाषा में यह  पिलिस(pilis) के रूप मे  "किला" का वाचक है।)।
विदित हो कि 
, ग्रीक ( यूनानी) हिन्द-यूरोपीय (भारोपीय) भाषा परिवार की स्वतन्त्र भाषाई शाखा है, जो यूनानी लोगों द्वारा बोली जाती है।
 दक्षिण बाल्कन से निकली इस भाषा का अन्य भारोपीय भाषा की तुलना में सबसे लम्बा इतिहास है, जो लेखन इतिहास के (34) शताब्दियों में फैला हुआ है। अपने प्राचीन रूप में यह प्राचीन यूनानी साहित्य और ईसाईयों के बाइबल के न्यू टेस्टामेण्ट की भाषा है। 
विदित हो कि लिथुआनियाई  एक पूर्वी बाल्टिक भाषा है जो इण्डो-यूरोपीय भाषा परिवार की बाल्टिक शाखा से संबंधित है ।
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"महाभूतानि खं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः॥२७॥ (
चरकसंहिता शारीरस्थानम्)
खम् = आकाश , वायु: = हवा , अग्नि: = तेज , आपः= जल , क्षिति: = पृथ्वी।

और इन पाँचों महाभूतों का अपना-अपना एक प्रधान गुण भी होता है—
शब्दस्पर्शश्च रुपं च रसो गन्धश्च तद्रगुणाः ।।
शब्द ,स्पर्श ,रूप, रस ,गन्ध और उनके गुण जिन्हें तन्मात्राऐं कहते हैं।
सांख्य के अनुसार पंचभूतों का अविशेष मूल  पंचभूतों का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप  ये संख्या में पाँच हैं—१-शब्द, २-स्पर्श, ३-रूप, ४-रस और ५-गंध ।
 विशेष—सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति का जो क्रम दिया है, उसके अनुसार पहले प्रकृति से महत्तत्व की उत्पत्ति होती है। और उस महत्तत्व से अहंकार और अहंकार से उत्पन्न संकल्प से इच्छा विस्तार में  सोलह पदार्थों की उत्पत्ति होती है। ये सोलह पदार्थ पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, एक मन और पाँच तन्मात्र हैं।
यद्यपि मन का अस्तित्व तो अहंकार के कारण रूप में पूर्व ही चित् नाम से विद्यमान है।
परन्तु मन के विस्तार में उसके कई स्तर बनते हैं।

महत्तत्व:-. सांख्य के अनुसार पचीस तत्वों में से तीसरा तत्व जो प्रकृति का पहला विकार है और जिससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति का पहला कार्य या विकार है यही बुद्धितत्व  कुछ तांत्रिकों के अनुसार संसार के सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्व यही  जीवात्मा का रूप है।
मूल श्लोकः
"भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।

(श्रीमद्भगवदगीता-7/4) वेदान्तसार के अनुसार अंतःकरण की चार वृत्तियाँ  है—१- मन, २-बुद्धि, ३- चित्त और ४-अहंकार।
संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को ही मन कहते हैं। और इसकी , निश्चयात्मक वृत्ति को ही बुद्धि और इन्हीं दोनों के अंतर्गत अनुसंधानात्मक अथवा चिन्तन वृत्ति को चित्त और अभिमानात्मक वृत्ति को अंहकार कहते हैं।

पंचदशी में इंद्रियो के नियन्ता मन ही को अंतःकरण माना है । आन्तरिक व्यापार में मन स्वतंत्र है, पर बाह्य व्यापार में इंद्रियाँ परतंत्र हैं। पंचभूतों की गुणसमष्टि से अंतःकरण उत्पन्न होता है जिसकी दो वृत्तियाँ हैं मन और बुद्धि हैं।। 

मन संशयात्मक और बुद्धि निश्चयात्मक है। वेदान्त में प्राण को मन का प्राण कहा है। मृत्यु होने पर मन इसी प्राण में लय हो जाता है। 

योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते। वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग तत्व मानते हैं जिसे जीवात्मा कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अर्थात आत्मा और शरीर की प्रथम सन्तान चित्त है। जो चेतना का कारण है। 

अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती । योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ।
प्रमाण:- ( प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्दप्रमाण; 
विपर्यय:- एक में दूसरे का भ्रम—विपर्यय;
विकल्प:-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना— विकल्प; है। सब विषयों के अभाव का बोध—निद्रा है। और कालान्तर में पूर्व अनुभव का आरोपण मन की स्मृति कहलाता है । मन का आग्रह ही स्मृति है

आज आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान अंत:करण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में मानता है जो सब ज्ञानतंतुओं का केंद्रस्थान है।

खोपड़ी के अन्दर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, वही अंतःकरण है। उसी के सूक्ष्म मज्जा-तंतु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापार संचालित होते हैं।

 भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार-विशेष का नाम है, जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमश: बढ़ता जाता है।

मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी (कपाल) द्वारा सुरक्षित रहता है।

मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी( बिना रीढ़) के प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, 

जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। 

मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं।शरीर में मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है।

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इनमें भी पाँच तन्मात्रों से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं । अर्थात् शब्द तन्मात्र से आकाश उत्पन्न होता है और आकाश का गुण शब्द है । शब्द और स्पर्श दो तन्मात्राओं से वायु उत्पन्न होती है और शब्द तथा स्पर्श दोनों ही उसेक गुण हैं । शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्र के संयोग से जल उत्पन्न होता है और जिसमें ये चारों गुण होते हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पाँचों तन्मात्रों के संयोग से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है जिसमें ये पाँचों गुण रहते हैं

श्लोक में पञ्चमहाभूतों और उनके गुणों को क्रमानुसार दिया गया है अतः हम समझ सकते हैं कि--
आकाश का गुण शब्द , वायु का गुण स्पर्श , अग्नि (तेज)का गुण रूप , जल का गुण रस और पृथ्वी का गुण गन्ध होता है ये इनकी तन्मात्राऐं हैं।

अर्थात् इन महाभूतों का पञ्चीकरण से संसार अथवा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित होता है। पञ्चीकरण क्या है?

ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत् समस्त प्राकृतिक वस्तुएंँ एवं जीव-जन्तु सब कुछ समाहित है।

"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
ॐ पूर्ण्नम-अदह पूर्णनम-इदम् पूर्णनात्-पूर्णनम-उदच्यते |
पूर्णनस्य पूर्णनम-अदाया पूर्णनम-एव-अवशिष्यते।
बृहदारण्यक उपनिषद5/1/1- एवं ईशावास्योपनिषद 
वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है।

अर्थ :1: वह (बाहरी संसार) पूर्ण (दिव्य चेतना से परिपूर्ण) है; यह (आंतरिक संसार) भी पूर्ण (दिव्य चेतना से परिपूर्ण) है; पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है (ईश्वरीय चेतना की पूर्णता से विश्व प्रकट होता है),
2: पूर्ण से पूर्ण लेने पर , पूर्ण वास्तव में बना रहती है (क्योंकि दिव्य चेतना अद्वैत और अनंत है), 
गणितीय प्रक्रिया में यदि शून्य से शून्य निकाला जाय तो शून्य ही शेष बचता है। वैसे ही पूर्ण ब्रह्म से प्रकाशित यह संसार भी पूर्ण है।

अर्थात् यह स्पष्ट हुआ कि इन महाभूतों के आपस में सम्मेलन से ही ब्रह्माण्ड अर्थात सृष्टि का निर्माण हुआ।

ये पांँचों महाभूत एक तू एक दूसरे में इस प्रकार समाहित होते हैं कि ये मेलन एक निश्चित अंश अथवा मात्रा में ही होता है । ये निश्चित मात्रा में एक महाभूत का दूसरे महाभूत में मिलन और अन्ततः पांँचों महाभूतों का मिलन ही महाभूतों का पंचीकरण कहलाता है।

संक्षेप में हम ऐसा कह सकते हैं कि स्थूल दृष्टि से विकास के लिए पांँच महाभूतों आकाश ,वायु, तेज, जल और पृथ्वी का परस्पर मिश्रण ही पंचीकरण के नाम से जाना जाता है।

महाभूतों के पंचीकरण का नियम
पंचीकरण प्रक्रिया में सबसे पहले पांँचों महाभूतों को ग्रहण करते हैं ।
और उन पांंचों को आधा-आधा कर लेते इस प्रकार पांँचों महा भूतों के (10) भाग हो जाते हैं पुनः पाँचों महाभूतों के आधे भाग को चार भागों में बांँटते हैं।

इस प्रकार एक महाभूत के 5 भाग हो जाते हैं । इन पांँचों महाभूतों में एक भाग आधा है और शेष 4 भाग 1/8 भाग के चार टुकड़े हैं ।
ऐसी स्थिति में प्रत्येक महाभूत के 1/8 के भागों को अन्य चार महाभूतों के आधे-आधे (1/2)भागों में मिला लेते हैं ।
जैसे —पृथ्वी में (आधा) 1/2 भाग पृथ्वी का शेष 1/2 (आधे) भाग में 1/8 भाग आकाश, 1/8 भाग वायु ,1/8 भाग तेज और 1/8 भाग जल होता है ।
इसी प्रकार अन्य महाभूतों में भी इसी नियम का पालन होता है।
इसी प्रक्रिया को महाभूतों का पंचीकरण कहते हैं।

इस बात को निम्नलिखित सारणी द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है--

1-पृथ्वी = पृथ्वी 1/2, आकाश 1/8, वायु 1/8, तेज1/8, जल1/8

2-आकाश = आकाश 1/2, पृथ्वी1/8, वायु1/8, तेज1/8, जल1/8

3- वायु = वायु 1/2 , आकाश 1/8, तेज1/8, पृथ्वी 1/8, जल1/8

4- तेज = तेज 1/2, आकाश1/8, वायु1/8, पृथ्वी1/8, जल1/8

5- जल = जल 1/2, आकाश1/8, तेज1/8, पृथ्वी1/8, वायु1/8

उपर्युक्त तालिका से यह बात स्पष्ट होती है कि प्रत्येक महाभूत में आधा भाग अर्थात् 1/2 उसका स्वयं का होता है और आधे भाग 1/2 में अन्य चार महाभूतों के 1/8 का अंश समाहित होता है।

सांख्य और योग दर्शन – परमात्मा ( चेतनतत्त्व) के निर्गुण शुद्ध स्वरुप का वर्णन उपनिषदों में विस्तारपूर्वक किया गया है, इसलिए उपनिषदों को वेदांत कहते है – ज्ञान का अन्त अर्थात जिसके जानने के बाद कुछ जानना शेष न रहे | योग और सांख्य में उसके जानने के साधन विशेष रूप से बतलाये गए हैं |

सांख्य के समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है और योग के समान कोई दूसरा बल नहीं है |

चित्त वृत्ति का नाश करने के लिए केवल दो निष्ठाऐं बतलायी गयी हैं- योग और सांख्य | योग चित्तवृत्ति निरोध से प्राप्त किया जाता हैं और सांख्य सम्यक ज्ञान से।
मन को नियन्त्रण करने के यही दो उपाय सरल हैं।
सम्पूर्ण जीवन व्यक्तित्व को रूपक अथवा उपमा विधान द्वारा मनीषीयों परिभाषित किया -
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।       बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

(कठोपनिषद्, अध्याय -१, वल्ली- ३, श्लोक- ३)

अन्वय:-"आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् "

अनुवाद:-इस जीवात्मा को तुम रथी( रथ में सबार रथ का स्वामी समझो, और शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी अथवा रथ चलाने वाला, और मन को लगाम समझो जो इन्द्रिय रूपी घोड़ों पर नियन्त्रण करती है । अगले श्लोक कहा-

"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
अन्वय:-"मनीषिणः इन्द्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः मनीषिण: ।

अनुवाद:-"मनीषियों, ने इन्द्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।

उपनिषद काल में विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है। ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  किंतु उसकी नश्वरता ने उनका मोह भंग कर दिया होगा उनके प्रयास रहे थे कि वे उस नश्वर आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत थी। स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।

उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं । मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, सुख या दुःख के तौर पर । इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं । किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर नियंत्रण पर रहता है । इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है । उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है । 

इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है । 

सांख्य और योग दोनों दर्शन जीवन की इसी समस्या का तात्विक निदान प्रस्तुत करते हैं। जैनों परस्पर सम्पूरक हैं।
आरम्भ में एक ही स्थान से चलते हैं और अन्त में एक हि स्थान पर मिल जाते हैं , किन्तु योग बीच में थोड़े से घुमाववाली पक्की सड़क से चलता हैं और सांख्य सीधा कठिन रास्ते से जाता है। वस्तु यही दोनों की चारित्रिक भिन्नता है।

सांख्य और योग में बहिर्मुख होकर संसारचक्र में घूमने के कारण – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, क्लेश तथा सकाम कर्म बतलाये गए हैं।
जैसे अहं से संकल्प और संकल्प से इच्छा विकसित होकर समय और परिवर्तन से समन्वित कर्म की सर्जना से सृष्टि का अवयव बन जाती है। मन ही इन सबकी भूमिकाओं में केन्द्र सत्ता है। मन के नियन्त्रण और उसके शमन के लिए योग का विधान किया गया मनीषिय द्वारा इसी मन के  क्रमानुकर अन्तर्मुख होने के साधन अष्टांग योग ( यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि आदि क्रियाएँ हैं। 

योग द्वारा मनका अन्तर्मुख होना – यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पांच बहिरंग साधन हैं और धारणा, ध्यान, समाधि ये तीन अंतरंग साधन हैं । ये तीनों अंतरंग साधन भी , असम्प्रज्ञात समाधि ( स्वरूपास्थिति ) के बहिरंग साधन हैं।

सांख्य द्वारा अन्तर्नुख होना – अष्टांग योग हे पहले पांच बहिरंग साधन सांख्य और योग में सामन हैं , जहाँ योग में सालम्बन अर्थात धारणा, ध्यान, समाधि द्वारा किसी विषय को ध्येय बना कर अन्तर्मुख होते हैं , वहाँ सांख्य में निरालम्ब अर्थात बिना किसी विषय को ध्येय बना कर अन्तर्मुख होते हैं। उसमे धारणा, ध्यान, समाधि के स्थान में – ” चित्त और उसकी वृत्तियाँ दोनों ही त्रिगुणात्मक हैं इसलिए गुण ही गुणों में बरत रही हैं ” – इस भावना से आत्मा को – “चित्त से पृथक अकर्त्ता” केवल शुद्ध स्वरुप में देखना होता है।
"प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।3.27।

(श्रीमद् भगवद्गीता-३/२७

 अनुवाद:- सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के तीन गुणों  सत् - "रज और तमस् द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष,  "मैं कर्ता हूँ"  ऐसा मान लेता है।
”यह आत्मा साक्षात्कार कराने वाली विवेक ख्यातिरूप एक गुणों की ही सात्त्विक वृत्ति है ” इस प्रकार इस वृत्ति का भी निरोध , पर- वैराग्य द्वारा होने पर ( शुद्ध चैतन्य ) स्वरूपास्थिति को प्राप्त होते हैं |

अर्थात जो वृत्ति आये उसको भी हटाना है। अन्त में सब वृत्तियाँ रुक जाने पर निरोध करने वाली वृत्ति का भी निरोध करके स्वरूपास्थिति को प्राप्त होना हैं।

सांख्य और योग का व्यवहार –
साधारण लोगों के कर्म पाप, पुण्य और पाप-पुण्य से मिश्रित तीन प्रकार के होते हैं |

योगियों का कर्म न पापमय होता हैं न पुण्यमय क्योंकि योगी के लिए पापकर्म सर्वथा त्याज्य ही हैं और कर्तव्यरूप पुण्य कर्म वह आसक्ति, लगाव, ममता, और अहंता को छोड़कर कर्म और उसके फल को ईश्वर के समर्पण करके निष्काम भाव से करता हैं इसलिए बंधन रूप न होने से वह अकर्मरूप ही हैं। इच्छा कर्म की आत्मा है। अत: इच्छा से रहित कर्म परिणाम कारी नहीं होता है।

संख्या उद्घोष करता है- गुण गुणों में ही बरत रहे हैं , आत्मा अकर्ता हैं , इस प्रकार इसके लगाव से मुक्त रहते हैं वह मुक्त है। आत्मा इनका द्रष्टा , इनसे पृथक निर्लेप है |

गीता में सांख्य को ज्ञान योग तथा संन्यास योग के नाम से भी वर्णन किया गया है |

योग-दर्शन घनिष्ठ रूप से सांख्य दर्शन से सम्बद्ध है जहाँ योग आत्मानुभूति के व्यावहारिक मार्ग पर बल देता है, जबकि सांख्य दर्शन ध्यान के द्वारा ज्ञान (प्रकृति - पुरुष के विवेकज्ञान) प्राप्ति पर बल देता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि योग व्यवहार पक्ष है और इसका सैद्धांतिक पक्ष है- सांख्य ।

लेकिन सृष्टि से पहले क्या था, यह हमें  ऋ्ग्वेद के दशम मंडल के ‘नासदीय सूक्त' में मिलता है।

 सृष्टि कैसे बनी ये तो सभी धर्मों के ग्रंथों में मिलता है ,लेकिन सृष्टि के पहले क्या था ये सिर्फ हिंदू धर्म के महान ग्रंथों खासकर वेदों और पुराणों में ही मिलता है।

ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना क्या ईश्वर ने की ?

ऋग्वेद का ‘नासदीय सूक्त’ उस स्थिति की कल्पना करता है, जब कुछ भी नहीं था (, किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं था। 

ऋग्वेद उस स्थिति की कल्पना करता है, कि अगर कुछ नहीं था तो क्या था ? किससे इस सारे संसार की सृष्टि हुई है ? क्या किसी ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया? ऋग्वेद के अनुसार क्या वास्तव में ईश्वर ने ही सृष्टि को बनाया या किसी और ने सृष्टि का निर्माण किया ? 

क्या ईश्वर ने सृष्टि को नहीं बनाया तो आखिर सृष्टि की रचना किसने की ? सृष्टि की रचना क्या अपने-आप हो गई ? क्या किसी ने भी सृष्टि का निर्माण नहीं किया ? ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि की रचना का रहस्य क्या है?

क्या उस ईश्वर को कोई जानता है? क्या किसी ने उस एक ईश्वर को देखा है?

अगर इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर ही है तो उसने किस वजह से इसे बनाया? अगर इस सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है तो इस सृष्टि को किसके लिए बनाया ? सृष्टि का रचना का उद्देश्य क्या था ? 

ईश्वर ने सृष्टि की रचना नहीं की ?

अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की तो आखिर इस सृष्टि को किसने बनाया ? अगर सृष्टि की रचना ईश्वर ने ही की है, तो क्या वो इसकी रचना की वजह हमें बता सकता है ? क्या ईश्वर को भी सृष्टि की रचना की वजह मालूम है या उसे भी नहीं पता कि उसने ही सृष्टि की रचना की है? 

मानव जाति के इतिहास में सृष्टि की रचना के उद्देश्य को लेकर नासदीय सूक्त सबसे पुरानी और सबसे उँची दार्शनिक व्याख्या करता है, जिसमें निषेधात्मकता के भाव से सृष्टि की रचना का कारण, उसके उद्देश्य और उसके रचयिता की खोज की गई है। 

सृष्टि की रचना के पहले क्या था ?

"नसदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥

व्याख्याः – सृष्टि के पहले (पूर्व) असत् (असत् न आसीत्) नहीं था (अर्थात् कुछ भी स्थूल नहीं था। कुछ भी होने का भाव भी नहीं था, किसी के होने की कल्पना भी नहीं थी, सब कुछ अव्यक्त था, 

"सृष्टि के पहले सत्(नो सत् आसीत्) भी नहीं था अर्थात् कुछ व्यक्त भी नहीं था , किसी तरह के अस्तित्व का अहसास नहीं था,व्यक्त और अव्यक्त का कुछ भी पता नहीं चलता था।

 (रजः न आसीत्) न ही कोई एक लोक या कई प्रकार के लोकों के अस्तित्व का पता था। यास्क रचित ग्रंथ ‘निरुक्त’ में (4-19) के अनुसार ”रजसि लोके । “ इति तद्भाष्ये सायणः ॥ ज्योतिः-प्रकाश। यथा  तत्रैव । १० ।  ३२ ।  २ । लोका रजान्स्युच्यन्ते ” में लोकों के लिए ‘रज’ शब्द आया है परन्तु यहाँ प्रकाश अर्थ ग्रहण करना समुचित है। क्योंकि प्रकाश अन्धकार का सापेक्ष द्वन्द्वात्मक सत्ता है।

  • (व्योम नो) आकाश या अंतरिक्ष का भी कोई पता नहीं था और (परः यत्) आकाश या अंतरिक्ष से परे भी यदि कुछ हो सकता है, तो उसका भी ज्ञान नहीं था। ये भी नहीं मालूम था कि वो है भी कि नहीं है ?
  • (कुह कस्य शर्मन् किम् आवरीवः) किस स्थान पर किसके कल्याण के लिए कौन किसका आवरण करे, इसलिए वह आवरण भी नहीं था। सब कुछ सीमाहीन था।
  • सीमाएं या फिर कोई पदार्थ जिससे कोई स्थान या वस्तु घिरी हुई हो, जिससे उस स्थान या वस्तु के आकार के तय होने का आभास हो, क्या ऐसा कोई आवरण था?
  •  क्या कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ था जो सबको चारों तरफ से घेर सकता था, वह पदार्थ या तत्त्व या दिशाएं जो किसी वस्तु या स्थान को चारों तरफ से घेर सकती थी, वो नहीं थी ? अगर जो कुछ था भी तो वो किससे घिरा हुआ था, किसके आश्रय में था?
  • (किम् गहनम् गभीरम अम्भः आसीत) क्या कोई ऐसा भासमान सत्ता या कोई अस्तित्व था (तत्व जैसा कुछ) जिसका भास या अहसास स्पर्श, गंध, दृष्टि के द्वारा किया जा सके? 

सृष्टि का रचयिता कौन है ?

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥

  • सृष्टि से पूर्व (न मृत्यु आसीत्) न तो मृत्यु थी और ( न तर्हि अमृतम्) न ही अमरता रुपी अमृत का ज्ञान था। ( न रात्र्या अह्नः) न रात्रि थी और न ही दिन का (प्रकेत: आसीत्) कोई चिन्ह था।
  • (अवातम् तत् एकम् स्वधया आनीत् ) वायुरहित ‘वह एक’ अपनी निज सत्ता के साथ विद्यमान था। (तस्मात् ह अन्यत् किंचन न) ‘उस एक’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। 
  •  स्वधा’ शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे ‘स्वधा’ कहते हैं । “स्वं दधातीति स्वधा”- जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं ।
  • प्रथम ऋचा और दूसरी ऋचा के प्रथम श्लोक में सारे अस्तित्व का निषेध किया गया है। कहा गया है कि न तो सत् था , न असत् था, न आकाश था और न मृत्यु थी, न अमृत था और न रात्रि थी और न ही दिन था। 

लेकिन इस ऋचा की दूसरी पंक्ति में पहली बार कहा गया है कि ‘कोई’ था, जो अपनी निज सत्ता (स्वधया) के साथ विद्यमान था। नकारात्मकता में सकारात्मकता की यह अद्भुत उंचाई है। 

स्वर्+ आधा=स्वराधा->राधा-

"आङ् + धा धातु रूप - लट् लकार

डुधाञ् धारणपोषणयोः दान इत्यप्येके - जुहोत्यादिःकर्मणि प्रयोग आत्मनेपद आधीयते= धारण करता है। वैष्णव ग्रन्थों में उस शक्ति को राधा कहा गया है।

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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः२
(प्रकृतिखण्डः)अध्यायः(३)

                "श्रीनारायण उवाच ।

  1. "अथाण्डं तज्जलेऽतिष्ठद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः।ततः स्वकाले सहसा द्विधारूपो बभूव सः।१। 
  2. तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः।क्षणं रोरूयमाणश्च स शिशुः पीडितः क्षुधा।२।
  3. पितृमातृपरित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः।नैकब्रह्माण्डनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ।३।
  4. स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ।परमाणुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाऽप्यसौ । ४।
  5. तेजसां षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः।आधारोऽसंख्यविश्वानां महाविष्णुस्सुरेश्वरः ।५।
  6. प्रत्येकं रोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।अद्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः।६।
  7. यथाऽस्ति संख्या रजसां विश्वानां न कदाचन ।ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ।७।__________________
  8. प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः।पातालाद्ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्त्तितम् ।८।
  9. तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्बहिरेव सः।स च सत्यस्वरूपश्च शश्वन्नारायणो यथा ।९।
  10. तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत्कोटियोजनात्।नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् । 2.3.१० ।
  11. सप्तद्वीपमिता पृथ्वी सप्तसागरसंयुता एकोनपञ्चाशदुपद्वीपाऽसंख्यवनान्विता ।११।
  12. ऊर्ध्वं सप्त सुवर्लोका ब्रह्मलोकसमन्विताः।  पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।१२ ।
  13. ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परः।स्वर्लोकस्तु ततः पश्चान्महर्लोकस्ततो जनः।१३।
  14. ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः।ततः परो ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चननिर्मितः ।१४। 
  15. एवं सर्वं कृत्रिमं तद्बाह्याभ्यन्तर एव च ।।तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।१९।
  16. जलबुदुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ।नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ सत्यौ शश्वदकृत्रिमौ ।१६।
  17. लोमकूपे च विध्यण्डं प्रत्येकं तस्य निश्चितम् । एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा।१७।

  1. प्रत्येकं प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।। तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।१८।
  2. दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः। भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽधो नागाश्च चराचराः ।१९।
  3. अथ कालेन स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः। डिम्भान्तरं च शून्यं च न द्वितीयं कथंचन ।2.3.२०।
  4. चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः । ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।२१।
  5. ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् । नवीननीरदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।२२।
  6. सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकारकम् । जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।२३।
  7. वरं तस्मै ददौ तुष्टो वरेशः समयोचितम्।मत्समो ज्ञानयुक्तश्व क्षुत्पिपासाविवर्जितः।२४।
  8. ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि । निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो वरः।रोगमृत्युजराशोकपीडादिपरिवर्जितः।२५।
  9. इत्युक्त्वा तद्दक्षकर्णे महामन्त्रं षडक्षरम् । त्रिःकृत्वा प्रजजापादौ वेदाङ्गमवरं परम् ।२६।
  10. प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम्। वह्निज्वालान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ।२७।
  11. मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै प्रभुः। श्रूयतां तद्ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ।२८।
  12. प्रतिविश्वेषु नैवेद्यं दद्याद्वै वैष्णवो जनः।षोडशांशं विषयिणो विष्णोः पञ्चदशास्य वै । २९ ।
  13. निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्येन च कृष्णस्य नहि किञ्चित्प्रयोजनम् ।2.3.३०।
  14. यद्ददाति व नैवेद्यं यस्मै देवाय यो जनः ।स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीदृष्ट्या पुनर्भवेत् ।३१।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विश्वब्रह्माण्डवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः।३।          
अनुवाद:-ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड :अध्याय( 3)श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ, नारायण(महाविष्णु), महादेव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती, महालक्ष्मी और प्रकृति –का प्रादुर्भाव तथा इन सबके द्वारा पृथक-पृथक श्रीकृष्ण का स्तवन-

सौति कहते हैं –भगवान ने देखा कि सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है।

जल का भी कहीं पता नहीं है। सारा आकाश वायु से रहित और अन्धकार से आवृत हो घोर प्रतीत होता है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि से शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य और तृण का सर्वथा अभाव हो गया है।

ब्रह्मन! जगत को इस शून्यावस्था में देख मन-ही-मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि-रचना आरम्भ की।

सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणापार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण (सत रज और तम ) प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द–ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।

तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण( महाविष्णु) का प्रादुर्भाव हुआ, जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य-तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः – शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे।

उनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, सारंग धनुष धारण किये हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाती थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था।

वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे; शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुख-चन्द्र के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे।

कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनका सौन्दर्य बढ़ा रहा था। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।

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नारायण( महाविष्णु) बोले– जो वर (श्रेष्ठ), वरेण्य (सत्पुरुषों द्वारा पूज्य), वरदायक (वर देने वाले) और वर की प्राप्ति के कारण हैं; जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं; तप जिनका स्वरूप है, जो नित्य-निरन्तर तपस्या का फल प्रदान करते हैं, तपस्वीजनों में सर्वोत्तम तपस्वी हैं, नूतन जलधर के समान श्याम, स्वात्माराम और मनोहर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।

जो निष्काम और कामरूप हैं, कामना के नाशक तथा कामदेव की उत्पत्ति के कारण हैं,।

जो सर्वरूप, सर्वबीज स्वरूप, सर्वोत्तम एवं सर्वेश्वर हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता और फलरूप हैं, वेदों के ज्ञाता, उसे विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।[2]

ब्रह्म वैवर्त पुराणब्रह्मखण्ड : अध्याय (3)

ऐसा कहकर वे नारायणदेव भक्तिभाव से युक्त हो उनकी आज्ञा से उन परमात्मा के सामने रमणीय रत्नमय सिंहासन पर विराज गये। जो पुरुष प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो तीनों संध्याओं के समय नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र को सुनता और पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है। उसे यदि पुत्र की इच्छा हो तो पुत्र मिलता है और भार्या की इच्छा हो तो प्यारी भार्या प्राप्त होती है। जो अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया है, वह इस स्तोत्र के पाठ से पुनः राज्य प्राप्त कर लेता है तथा धन से वंचित हुए पुरुष को धन की प्राप्ति हो जाती है। कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि इस स्तोत्र का पाठ करे तो निश्चय ही संकट से मुक्त हो जाता है। एक वर्ष तक इसका संयमपूर्वक श्रवण करने से रोगी अपने रोग से छुटकारा पा जाता है।

सौति कहते हैं – शौनक जी! तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंग कान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं उज्ज्वल थी।

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उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र थीं। उन्होंने मस्तक पर तपाये हुए सुवर्ण के समान पीले रंग की जटाओं का भार धारण कर रखा था। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कान से प्रसन्न दिखायी देता था। उनके प्रत्येक मस्तक में तीन-तीन नेत्र थे। उनके सिर पर चन्द्राकार मुकुट शोभा पाता था।

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परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला ले रखी थी। वे सिद्ध तो हैं ही, सम्पूर्ण सिद्धों के ईश्वर भी हैं। योगियों के गुरु के भी गुरु हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं, मृत्यु के ईश्वर हैं, मृत्यु स्वरूप हैं और मृत्यु पर विजय पाने वाले मृत्युंजय हैं। वे ज्ञानानन्दरूप, महाज्ञानी, महान ज्ञानदाता तथा सबसे श्रेष्ठ हैं। पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से धुले हुए–से गौरवर्ण शिव का दर्शन सुखपूर्वक होता है। उनकी आकृति मन को मोह लेती है। ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान भगवान शिव वैष्णवों के शिरोमणि हैं।

प्रकट होने के पश्चात् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो भगवान शिव ने भी हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया।

उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था। नेत्रों से अश्रुझर रहे थे और उनकी वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी।

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ब्रह्मा द्वारा कृष्ण की स्तुति-

"कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम्। अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम्।।

किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम्। नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।

वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम्। रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।-(ब्रह्मखण्ड 3। 35-37)

अनुवाद:-ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

नकारात्मकता या निषेधात्मकता वेद के दर्शन का मूल है । सारे शास्त्रों ने ईश्वर के स्वरुप को खोजने की कोशिश की है । लेकिन कोई ईश्वर के मूल स्वरुप को पा नहीं सका। इन शास्त्रों के रचयिता ने ईश्वर को ‘नेति- नेति’ ( यह नहीं यह भी नहीं) कह कर खोजने की चेष्टा की है। ‘न'से ही ईश्वर को ढूंढ निकालने का प्रयास किया गया है।

संशय वेदों की आत्मा है, प्रश्न पूछना और संशय प्रगट करना वेदों में अक्सर दिखाई पड़ता है। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ वाक्य के द्वारा बार बार संशय किया गया है , प्रश्न पूछा गया है कि हम किस देवता को अपना हविष्य या पूजन समर्पित करें? ऋग्वैदिक आर्य कभी इंद्र को सर्वश्रेष्ठ देवता मानते हैं तो कभी वरुण को सबसे प्रथम देवता मान कर उन्हें अपनी पूजा समर्पित करते हैं। कभी अग्नि देव उनके लिए प्रथ्म पूज्य हैं तो कभी रुद्र को वो हविष्य ग्रहण करने के लिए पुकारते हैं। ऋ्गवैदिक आर्य लगातार अपने संशय और प्रश्नों को खड़ा करते हैं और ईश्वर के वास्तविक खोज में लगे रहते हैं।

सृष्टि का रचयिता कहां छिपा था ?

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥

व्याख्या- लेकिन वह अपनी निज सत्ता(स्वधया ) के साथ कहां था? कहा गया है (अग्रे तम आसीत्) कि आगे ‘तम'(बहुत गूढ़(अबूझ) था।

 गूढ़ का अर्थ होता है जिसे ठीक से समझा न जा सके , जिसके होने या न होने को लेकर संशय की स्थिति हो। जिसके अंदर कुछ होने या न होने के बारे में ठीक-ठीक कुछ पक्के तौर पर कहा न जा सके, वो गूढ़ है, रहस्यमय है । इस प्रकार उस ‘तम'(Infinite darkness) में क्या था ये निश्चित रुप से कुछ कहा नहीं जा सकता था। आगे कहा गया कि उस ‘तम'(Infinite darkness) में सब कुछ अस्पष्ट( अप्रकेतम्) था। 
  • ‘तम'(Infinite darkness) की वजह से कुछ भी जानना पाना पूरी तरह से संभव नहीं था कि वास्तव में सृष्टि के पूर्व क्या था ? किसी का भी कुछ ज्ञान नहीं होता था क्योंकि चारों तरफ तम ही तम था। 
  • ‘तम'(Infinite darkness) शब्द वेदान्त में अज्ञान( अविवेक) के लिए आया है। सिर्फ अंधकार के लिए नहीं। अंधकार शब्द प्रकाश का विपरीत या विलोम शब्द है। प्रकाश में वाह्य वस्तु को देखा जा सकता है और प्रकाश के न होने पर वह वस्तु नजर नहीं आती । प्रकाश और अंधकार सांसारिक गतिविधियां हैं।
  • ‘तम’ शब्द(Infinite darkness) अंधकार से भी गहरा है(Even darker than darkness) । हमारी बुद्धि और चेतना को भी जब कुछ नज़र नहीं आता है तो हम उसे तम(Infinite darkness) या अविवेक( अज्ञान) से घिरा हुआ कहते हैं। तम(Infinite darkness) शब्द अंतर्जगत के लिए भी आता है। तम(Infinite darkness) अंधकार से बहुत व्यापक और गूढ़ अर्थ रखता है।
  • (सर्वमा इदं)- उस तम मे वह एक अपनी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता या सूक्ष्मता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था । अर्थात उस तम (Infinite darkness) में ‘वह एक’ मौजूद था। लेकिन कैसे? तो कहा गया है कि (सलिल आ) जैसे दूध में पानी घुला हुआ होता है, वैसे ही ‘वह एक'(That one) ‘तम'(Infinite darkness) के अंदर घुला हुआ था, मिला हुआ था।
  • ( तत् ) वही (स्वधा) निज सत्ता को धारण कर ( एकम् ) एक होकर (तपसः + महिना ) तप की महिमा से ( अजायत ) व्यक्त अवस्था को प्राप्त हुआ। 
  • ‘तप’ क्या है ? सृष्टि रचना की इच्छा ही ‘तप’ कहलाती है। उसी ‘तप’ की इच्छा से वह अव्यक्त (तुच्छ रुप) ‘तम'(Infinite darkness) में ही अलग अस्तित्त्व धारण कर व्यक्त हो जाता है, साकार हो जाता है।
  • यहां ‘स्वधा’ शब्द का प्रयोग निज सत्ता को धारण करने वाले लिए हुआ है। ‘निज सत्ता’ क्या है? ‘निज सत्ता’ अर्थ है- ‘अपने होने का बोध’। जैसे आप नींद में रहते हैं तो आप मृत व्यक्ति के समान हो जाते हैं। आपकी चेतना सुप्त हो जाती है। लेकिन आपके अंदर कोई ऐसी सत्ता होती है, जिसे पुकारने पर आप नींद से जाग जाते हैं। उस ‘निज सत्ता’ को जन्म के साथ कोई नाम दे दिया जाता है, जिससे आप खुद को संयुक्त कर लेते हैं। जैसे ही कोई आपका नाम पुकारता है आपके अंदर की चेतना आपको नींद से जगा देती है। 

यहां कहा गया है कि ‘वह एक’ भले ही तम(Infinite darkness) में दूध मिश्रित जल के समान घुला हुआ था, लेकिन ‘उसे’ अपने होने का बोध था। ‘वही एक’ अपने होने के बोध के साथ सृष्टि की इच्छा(तप) करता है ।

अभी सृष्टि बनी नहीं है, उसके लिए प्रयत्न भी नहीं हुआ है, लेकिन सृष्टि निर्माण की इच्छा का जन्म होते ही ‘वह एक’ साकार हो जाता है। यह तप(Infinite darkness) अर्थात सृष्टि की इच्छा की महिमा है कि वह व्यक्त हो जाता है।

ईश्वर की कामना से सृष्टि का निर्माण हुआ-

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

  • (तदग्रे )उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) वह ‘कामना'(Will of the almighty) या इच्छा ही थी, जिसने ‘उस एक’ में सृष्टि की इच्छा( तप) के लिए प्रेरणा उत्पन्न की।
  •  उसके ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण की ( यत् ) वह कामना या इच्छा(Will of the almighty) ही सृष्टि के निर्माण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम या प्रारंभिक बीज था । उसके बाद तप अर्थात सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई।
  • जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में इस श्लोक के तात्पर्य को नहीं समझते ,क्योंकि तैत्तरीय उपनिषद् (२-६ ) में कहा गया है कि ‘सोsकामयत’ अर्थात् ‘उसने’ कामना की।
  • छांदोग्य उपनिषद् ( ६-२-१ ) में भी कहा गया है ‘तदैक्षत’ अर्थात् उसने ईक्षण(इच्छा) किया। श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में ‘काम’ या इच्छा का सद्भाव प्रसिद्ध है । यदि काम(इच्छा) न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती ।

हृदय में सृष्टि की रचना का रहस्य छिपा है-

( कवयः ) ऋषि और मुनिगण अपने ( मनीषा )चैतन्य बुद्धि से( असति ) विनश्वर अर्थात नाशवान ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम् ) कर ‘उस एक’ अविनश्वर(नाशरहित) को (निरविन्दन् ) पाते हैं।

जो समस्त ब्रह्मांड में है वही हमारे अंदर भी बीज रुप में है, क्योंकि ब्रह्मांड के तत्त्वों से ही हम सभी का निर्माण हुआ है। जो अणु और परमाणु सारी सृष्टि के मूल भूत तत्त्व हैं, वही हमारे शरीर का भी निर्माण करते हैं।

इस ऋचा में कहा गया है कि ऋषिगण अपनी चैतन्य बुद्धि से अपने ह्रदय में ‘उस एक’ के मूल भाव रुपी इच्छा(कामना) का दर्शन कर उसे प्राप्त कर लेते हैं। ‘उस एक’ की इच्छा(कामना) को इस ऋचा में ‘सतो- बंधुम’ अर्थात सत्(Manifested one) को बांधने वाला कहा गया है।

‘उस एक’ का सत् अर्थात प्रगट या व्यक्त होना ही सृष्टि का आरंभ है, और उस सृष्टि के आंरभ का कारण है ‘उस एक’ की इच्छा या कामना। अपनी इच्छा या कामना से ही वह इस जगत को प्रगट करता है। लेकिन वह कामना या इच्छा उस एक के वश में रहती है। इस बात को ऋषि मुनि गण अपने इस नाशवान हृदय में प्राप्त करते हैं।

 हमारा हृदय भी इच्छाओं या कामनाओं को अपने वश में बाँधे रखता है। इन्हीं इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए जब हम कोई प्रयास करते हैं तो किसी वस्तु का निर्माण होता हैं। यानी जो परमात्मा समष्टि रुप में अपनी इच्छा के जरिए सृष्टि का निर्माण करता है, वही लघु रुप में हमअपने जीवन की इच्छाओं को साकार रुप देकर करते हैं।

ईश्वर सबसे उपर है

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥

(ऐषाम्) ‘इनका’ अर्थात रेतस्(बीज रुप मूल इच्छा या कामना ), तप( सृष्टि निर्माण रुपी विशेष इच्छा ) और सत्( प्रगट या व्यक्त होने वाली सृष्टि) का विस्तार (स्वितः) क्या किरणों ( रश्मि) की तरह था? क्या ये नीचे की तरफ विस्तृत थे? (अधः स्वित आसीत्), क्या इनका विस्तार उपर की तरफ था( उपरिस्वित्)? या फिर ये टेढ़े -मेढ़े ढंग( तिरश्चीनः) फैले हुए थे?

सबसे उपर तो ‘वह एक’ ही था, इसके बाद (रेतः धाः आसन्) उसका रेतस्( मूल इच्छा या कामना रुपी बीज) था (महिमानः आसन्) जो महान सामर्थ्य वाला था। इसके पश्चात तप( सृष्टि निर्माण की विशेष इच्छा ) थी। उसके बाद उसका प्रयत्न था(परस्तात् प्रयतिः) और अंत में उसकी विस्तृत होने वाली निज सत्ता( स्वधा) थी जो सत् ( व्यक्त या प्रगट या साकार) में परिवर्तित होने वाली थी। 

अर्थात ‘वह एक’ अपनी मूल इच्छा( रेतस) को सृष्टि निर्माण की इच्छा ( तप ) में परिवर्तित कर, अपने प्रयत्नों के द्वारा जिस निज सत्ता को उसने धारण किया था( स्वधया) उसका विस्तार कर सृष्टि निर्माण करने वाला था। अर्थात यह वर्तमानकालिक सृष्टि उसके द्वारा धारण किये हुए निज सत्ता( स्वधया) का ही प्रगट रुप( सत्) है। 

सृष्टि की रचना कैसे हुई ये कौन जानता है?

को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥

अर्थः- (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( कुतः आ जाता) किस प्रकार से हुई? ( कुतः) और किस कारण से हुईं? (अद्धा कः वेद) कौन इसे जान सकता है? और ((इह कः प्रवोचत्) यहां कौन इसकी व्याख्या कर सकता है? (अस्य) इस जगत के ( विसर्जनेन) सृजन के (अर्वाक) पश्चात ही तो (देवाः) देवगण उत्पन्न हुए हैं? तो इसमे भी संदेह ही है कि देवगणों को भी पता होगा कि ये विविध सृष्टियां किस प्रकार से हुईं, किस कारण से हुईं ? ( अथ ) तब ( कः + वेद ) आखिर कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) किस उद्देश्य या कारण से ये सृष्टियाँ हुई |

क्या ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की ?

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥

व्याख्याः-(यतः) ‘जिस एक’ से (इयम विसृष्टिः) ये विविध सृष्टियां ( आबभूव) हुआ करती हैं, (यदि वा दधे) यदि ‘वही एक’ इसको धारण करता है, (यदि वा न )या ‘वह एक’ भी उसको धारण नहीं करता तो( यः अस्य अध्यक्ष) क्या अन्य इसका अन्य कोई अध्यक्ष (स्वामी, निर्माता) है, या (सः परमे व्योमेन) फिर ‘वह एक’ जो अंतरिक्ष में विद्यमान है,( सः अंग वेद) वह सब कुछ जानता है? ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह भी नहीं जानता तो फिर दूसरा इसको कोई नहीं जानता।

 "देवीभागवतपुराणम्‎ -स्कन्धः (९) अध्याय (-३) ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं।"

  1. "श्रीनारायण उवाच-अथ डिम्भो जले तिष्ठन्यावद्वै ब्रह्मणो वयः । ततः स काले सहसा द्विधाभूतो बभूव ह ॥१॥
  2. तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः।क्षणं रोरूयमाणश्च स्तनान्धः पीडितःक्षुधा ॥२॥
  3. पित्रा मात्रा परित्यक्तो जलमध्ये निराश्रयः ।ब्रह्माण्डासंख्यनाथो यो ददर्शोर्ध्वमनाथवत् ॥३॥
  4. स्थूलास्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् । परमा्णुर्यथा सूक्ष्मात्परः स्थूलात्तथाप्यसौ ॥ ४ ॥
  5. "तेजसा षोडशांशोऽयं कृष्णस्य परमात्मनः आधारः सर्वविश्वानां महाविष्णुश्च प्राकृतः ॥५॥"
  6. "प्रत्येकं लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च अस्यापि तेषां संख्यां च कृष्णो वक्तुं न हि क्षमः॥६॥
  7.  "संख्या चेद्‌रजसामस्ति विश्वानां न कदाचन । ब्रह्मविष्णुशिवादीनां तथा संख्या न विद्यते ॥७॥"
  8. प्रतिविश्वेषु सन्त्येवं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।पातालाद्‌ ब्रह्मलोकान्तं ब्रह्माण्डं परिकीर्तितम् ॥८॥
  9. "तत ऊर्ध्वं च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद्‌ बहिरेव सः । तत ऊर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनः ॥९ ॥
  10. नित्यः सत्यस्वरूपश्च यथा कृष्णस्तथाप्ययम् । सप्तद्वीपमिता पृध्वी सप्तसागरसंयुता ॥ १०।
  11. ऊनपञ्चाशदुपद्वीपासंख्यशैलवनान्विता । ऊर्ध्वं सप्त स्वर्गलोका ब्रह्यलोकसमन्विताः ॥११॥
  12. पातालानि च सप्ताधश्चैवं ब्रह्माण्डमेव च ।ऊर्ध्वं धराया भूर्लोको भुवर्लोकस्ततः परम् ॥१२॥
  13. ततः परश्च स्वर्लोको जनलोकस्तथा परः ।ततः परस्तपोलोकः सत्यलोकस्ततः परः ॥ १३॥
  14. ततः परं ब्रह्मलोकस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।एवं सर्वं कृत्रिमं च बाह्याभ्यन्तरमेव च ॥ १४॥
  15. तद्विनाशे विनाशश्च सर्वेषामेव नारद ।जलबुद्‌बुदवत्सर्वं विश्वसंघमनित्यकम् ॥ १५॥
  16. नित्यौ गोलोकवैकुण्ठौ प्रोक्तौ शश्वदकृत्रिमौ । प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डं परिनिश्चितम् ॥१६॥
  17. एषां संख्यां न जानाति कृष्णोऽन्यस्यापि का कथा प्रत्येकं प्रतिब्रह्माण्डं ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ १७ ॥
  18. तिस्रः कोट्यः सुराणां च संख्या सर्वत्र पुत्रक ।दिगीशाश्चैव दिक्पाला नक्षत्राणि ग्रहादयः ॥ १८ ॥
  19. भुवि वर्णाश्च चत्वारोऽप्यधो नागाश्चराचराः ।अथ कालेऽत्र स विराडूर्ध्वं दृष्ट्वा पुनः पुनः ॥१९॥
  20. डिम्भान्तरे च शून्यं च न द्वितीयं च किञ्चन ।चिन्तामवाप क्षुद्युक्तो रुरोद च पुनः पुनः ॥ २० ॥
  21. ज्ञानं प्राप्य तदा दध्यौ कृष्णं परमपूरुषम् ।ततो ददर्श तत्रैव ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥ २१ ॥
  22. नवीनजलदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकातरम् ॥ २२ ॥
  23. जहास बालकस्तुष्टो दृष्ट्वा जनकमीश्वरम् ।वरं तदा ददौ तस्मै वरेशः समयोचितम् ॥ २३ ॥
  24. मत्समो ज्ञानयुक्तश्च क्षुत्पिपासादिवर्जितः ।ब्रह्माण्डासंख्यनिलयो भव वत्स लयावधि ॥ २४ ॥
  25. निष्कामो निर्भयश्चैव सर्वेषां वरदो भव ।जरामृत्युरोगशोकपीडादिवर्जितो भव ॥ २५ ॥
  26. इत्युक्त्वा तस्य कर्णे स महामन्त्रं षडक्षरम् ।त्रिःकृत्वश्च प्रजजाप वेदाङ्‌गप्रवरं परम् ॥ २६ ॥
  27. प्रणवादिचतुर्थ्यन्तं कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ।वह्निजायान्तमिष्टं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ २७ ॥
  28. मन्त्रं दत्त्वा तदाहारं कल्पयामास वै विभुः ।श्रूयतां तद्‌ ब्रह्मपुत्र निबोध कथयामि ते ॥ २८ ॥
  29. प्रतिविश्वं यन्नैवेद्यं ददाति वैष्णवो जनः ।तत्षोडशांशो विषयिणो विष्णोः पज्वदशास्य वै ॥ २९ ॥
  30. निर्गुणस्यात्मनश्चैव परिपूर्णतमस्य च ।नैवेद्ये चैव कृष्णस्य न हि किञ्चित्प्रयोजनम् ॥३०।
  31. यद्यद्ददाति नैवेद्यं तस्मै देवाय यो जनः ।स च खादति तत्सर्वं लक्ष्मीनाथो विराट् तथा ॥ ३१ ॥
  32. तं च मन्त्रवरं दत्त्वा तमुवाच पुनर्विभुः ।वरमन्यं किमिष्टं ते तन्मे ब्रूहि ददामि च ॥ ३२ ॥
  33. कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच विराड् विभुः ।कृष्णं तं बालकस्तावद्वचनं समयोचितम् ॥ ३३ ॥
  34. बालक उवाच-वरो मे त्वत्पदाम्भोजे भक्तिर्भवतु निश्चला ।सततं यावदायुर्मे क्षणं वा सुचिरं च वा ॥ ३४ ॥
  35. त्वद्‍भक्तियुक्तलोकेऽस्मिञ्जीवन्मुक्तश्च सन्ततम् ।त्वद्‍भक्तिहीनो मूर्खश्च जीवन्नपि मृतो हि सः ॥३५।
  36. किं तज्जपेन तपसा यज्ञेन पूजनेन च ।व्रतेन चोपवासेन पुण्येन तीर्थसेवया ॥ ३६ ॥
  37. कृष्णभक्तिविहीनस्य मूर्खस्य जीवनं वृथा ।येनात्मना जीवितश्च तमेव न हि मन्यते ॥ ३७ ॥
  38. यावदात्मा शरीरेऽस्ति तावत्स शक्तिसंयुतः ।पश्चाद्यान्ति गते तस्मिन्स्वतन्त्राः सर्वशक्तयः ॥३८।
  39. स च त्वं च महाभाग सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।स्वेच्छामयश्च सर्वाद्यो ब्रह्मज्योतिः सनातनः ॥३९।
  40. इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विरराम च नारद ।उवाच कृष्णः प्रत्युक्तिं मधुरां श्रुतिसुन्दरीम् ॥४० ॥
  41. श्रीकृष्ण उवाच सुचिरं सुस्थिरं तिष्ठ यथाहं त्वं तथा भव ।ब्रह्मणोऽसंख्यपाते च पातस्ते न भविष्यति ॥४१।
  42. अंशेन प्रतिब्रह्माण्डे त्वं च क्षुद्रविराड् भव ।त्वन्नाभिपद्माद्‌ ब्रह्मा च विश्वस्रष्टा भविष्यति।४२।
  43. ललाटे ब्रह्मणश्चैव रुद्राश्चैकादशैव ते ।शिवांशेन भविष्यन्ति सृष्टिसंहरणाय वै ॥ ४३ ॥
  44. कालाग्निरुद्रस्तेष्वेको विश्वसंहारकारकः ।पाता विष्णुश्च विषयी रुद्रांशेन भविष्यति ॥ ४४ ॥
  45. मद्‍भक्तियुक्तः सततं भविष्यसि वरेण मे ।ध्यानेन कमनीयं मां नित्यं द्रक्ष्यसि निश्चितम्॥ ४५ 
  46. मातरं कमनीयां च मम वक्षःस्थलस्थिताम् ।यामि लोकं तिष्ठ वत्सेत्युक्त्वा सोऽन्तरधीयत ॥ ४६ ॥
  47. गत्वा स्वलोकं ब्रह्माणं शङ्‌करं समुवाच ह ।स्रष्टारं स्रष्टुमीशं च संहर्तुं चैव तत्क्षणम् ॥ ४७ ॥
  48. श्रीभगवानुवाच-सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्‍भवो भव ।महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ॥ ४८ ॥
  49. गच्छ वत्स महादेव ब्रह्मभालोद्‍भवो भव ।अंशेन च महाभाग स्वयं च सुचिरं तप ॥ ४९ ॥
  50. इत्युक्त्वा जगतां नाथो विरराम विधेः सुत ।जगाम ब्रह्मा तं नत्वा शिवश्च शिवदायकः ॥ ५० ॥
  51. महाविराड् लोमकूपे ब्रह्माण्डगोलके जले ।बभूव च विराट् क्षुद्रो विराडंशेन साम्प्रतम् ॥ ५१ ॥
  52. श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके ।ईषद्धास्यः प्रसन्नास्यो विश्वव्यापी जनार्दनः ॥५२।
  53. तन्नाभिकमले ब्रह्मा बभूव कमलोद्‍भवः ।सम्भूय पद्मदण्डे च बभ्राम युगलक्षकम् ॥ ५३ ॥
  54. नान्तं जगाम दण्डस्य पद्मनालस्य पद्मजः ।नाभिजस्य च पद्मस्य चिन्तामाप पिता तव॥५४॥
  55. स्वस्थानं पुनरागम्य दध्यौ कृष्णपदाम्बुजम् । ततो ददर्श क्षुद्रं तं ध्यानेन दिव्यचक्षुषा॥ ५५।
  56. शयानं जलतल्पे च ब्रह्माण्डगोलकाप्लुते ।यल्लोमकूपे ब्रह्माण्डं तं च तत्परमीश्वरम् ॥ ५६ ॥
  57. श्रीकृष्णं चापि गोलोकं गोपगोपीसमन्वितम् । तं संस्तूय वरं प्राप ततः सृष्टिं चकार सः ॥ ५७ ॥
  58. बभूवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सनकादयः ।ततो रुद्रकलाश्चापि शिवस्यैकादश स्मृताः ॥५८॥
  59. बभूव पाता विष्णुश्च क्षुद्रस्य वामपार्श्वतः ।चतुर्भुजश्च भगवान् श्वेतद्वीपे स चावसत् ॥ ५९ ॥
  60. क्षुद्रस्य नाभिपद्मे च ब्रह्मा विश्वं ससर्ज ह ।स्वर्गं मर्त्यं च पातालं त्रिलोकीं सचराचराम् ॥६०॥
  61. एवं सर्वं लोमकूपे विश्वं प्रत्येकमेव च । प्रतिविश्वे क्षुद्रविराड् ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥ ६१॥
  62. इत्येवं कथितं ब्रह्मन् कृष्णसङ्‌कीर्तनं शुभम् ।सुखदं मोक्षदं ब्रह्मन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥६२॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत)स्कन्ध 9, अध्याय 3 - 






ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3)

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  • भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया।
  • उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।
  • माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।
  • जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
  • परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।
  • इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता।
  • प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
  • यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है।
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  • श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।
  • सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है।
  • पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।

  • ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।_____________________________,_
  • गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं।
  • वत्स नारद! देवताओं की संख्या (तीन + तीस) करोड़ है।
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  • ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
  • नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल ख़ाली था।
  • दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।
  • तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।
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  • पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया।
  • कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
  • जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अंग है। आदि में ‘ऊँ’ का स्थान है। बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं।
  • अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ऊँ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है। इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं।
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  • (देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय)
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  • ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है।

यह बालक महाविष्णु है।

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  • विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराटमय बालक से कहा- ‘पुत्र! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ।’ उस समय विराट व्यापक प्रभु ही बालक रूप से विराजमान था। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही।
  • बालक ने कहा– आपके चरण कमलों मे मेरी अविचल भक्ति हो– मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परन्तु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आप में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये। जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है।
  • जिस अज्ञानीजन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ-सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है।
  • प्रभो! जब तक शरीर में आत्मा रहती है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती। महाभाग! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं।
  • आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योतिःस्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं।
  • नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे।___________________
  • ब्रह्म वैवर्त पुराण
  • प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) देवी भागवत पराण
  • नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय-
  • भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।
  • विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
  • इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।
  • भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।' फिर रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
  • नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।_____________________
  • ब्रह्म वैवर्त पुराण-
  • प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध तृतीय (अध्याय)
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  • नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
  • ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए।
  • साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
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  • सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
  • वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया।
  • नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
  • ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?


एकोविञ्शति अध्याय-

बुद्ध का श्रीकृष्ण के सिद्धान्तों से प्रभावित होना तथा
आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद का होना है।

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श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में  कर्मयोग का विवेचन है।

द्वितीय अध्याय में  श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर  सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।

बाद में श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का प्रतिपादन किया है। 

इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को कहा।

49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत नीचा बताया है।  50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में जुड़ जाने के लिए कहा और 51 वे श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से तय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ।
इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन कृष्ण से पूछता हैः 

               "अथ तृतीयोऽध्यायः।
                  अर्जुन उवाच
"ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं ?

"व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
अनुवाद-आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।(2)

                'श्रीभगवानुवाच'
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।
अनुवाद-श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |(3)
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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
अनुवाद-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |(4)

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
अनुवाद-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
अनुवाद-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
अनुवाद-किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |(7)

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।
अनुवाद-तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |(8)

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।।
अनुवाद-यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है।
इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |(9)
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सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |(10)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
अनुवाद-तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें  इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!(11)
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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।
अनुवाद-यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |(12)
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
अनुवाद-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |(17)

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
अनुवाद-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |(18)
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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
अनुवाद-इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |(19)

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
अनुवाद-जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे | इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।(20)

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
अनुवाद-श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |(21)

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
अनुवाद-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |(22)

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
अनुवाद-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |(23)

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
अनुवाद-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |(24)

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
अनुवाद-हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |(25)

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
अनुवाद-परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |(26)
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
अनुवाद-वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है |(27)
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तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |(28)
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प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।।
अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |(29)

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
अनुवाद-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |(33)
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इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
अनुवाद-इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |(34)

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
अनुवाद-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |(35)
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                  अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? (36)

                 श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।
अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान |(37)

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
अनुवाद-जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |(38)
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आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने 
वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है |(39)
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इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
अनुवाद-इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं | यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |(40)

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |(41)

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
अनुवाद-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से परे यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |(42)
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एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
अनुवाद-इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |(43)

अर्थात -
इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।

कठोपनिषद् में इसी सत्य को रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान  से प्रतिपादित किया गया है। शरीर "आत्मा" और बुद्धितत्व  की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की गयी है।

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। 
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।१। 
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।२। 
(कठोपनिषद्-1.3.3-4) 

ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ।3।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय से कुछ श्लोक उद्धृत हैं।

संसार की कामनाओं में काम (उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं । इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं  इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है।

कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन है। 
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त, जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हैं ।

संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं ! 
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 "आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।

 (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
 (आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । 
(लगाम – 
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु, 
अगले मंत्र में उल्लेख 
 __________________"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।४।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४) 
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । 
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । 
उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही । 
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं । 
 उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
 मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । 
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, 
सुख या दुःख के तौर पर । 

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
 किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर नियंत्रण पर रहता है ।

इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है ।
उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।

इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
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"रथ: शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।

षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् । यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।

इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम्।२५।

इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते। तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।

येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्। तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।

इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)
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अनुवाद:-
पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ है। आत्‍मा (बुद्धि) सारथि है और इन्द्रियों को अश्व बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर रथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग तै करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं साधन-कुशल पुरुष इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा पूर्ण करता है।२३।

जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथन शील इन्द्रिय रुपी अश्वों  की बागडोर संभालता है, वही उत्तम सारथि हो सकता है। २४।

सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है ।२५।

जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि हर लेती है ।२६।

सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ


आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही सम्प्रसारित रूप है । आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा )तथा swījēn(स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं । 

अर्थात्( own, relation आत्मसम्बन्ध) प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
 1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s =`lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 
4-Old English: swǟs `lieb, eigen' स्वस्-5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 
9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau. संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में भी स्व: शब्द  आदि काल से आत्म बोधक है। अंग्रेज़ी में (Soul )सॉल आत्मा का वाचक है।

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अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है। अत: स्वस्थ और स्वास्थ्य शारीरिक सन्तुलन के पक्ष नहीं थे। अपितु आत्मिक यथा स्थिति का वाचक थे। परन्तु आज इसका विपरीतार्थ है।

योग स्वास्थ्य का साधक है । भागवत उत्थान गुप्तकाल  पञ्चम् सदी में पुन: सम्पादित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बतायी है ।
 भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇
 "श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है। 

समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है. भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । 
कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________
 बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 
🌸 पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं। --जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा। 
यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।
संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं।
योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत्) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है ।👇 
use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume," पुरानी लैटिन में युति क्रिया है । जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज (Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । 
जिससे (युज् घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________
 योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है । योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। 

इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध। और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇 
१-क्षिप्त, 
२-मूढ़ 
३-विक्षिप्त, 
४-एकाग्र और 
५-निरुद्ध।
 चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।

--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।
स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇 
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।
 १- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।
और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते । 
वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।

 🌸🌸🌸 योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । 
चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं । नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं । 
१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है 
३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है 
४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है । 
पच-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। 
परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है । 
वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।
 ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं । 
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है। 

जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।
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 पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रिम, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। _____________________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं। उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
 यह अधिचेतक भाग का अवयव है। 

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है। "पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है 

 -- और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है। और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है । और ज्ञान ही जान है । अस्तित्व की पहिचान है ।

 कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 ________________________________________________
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है। --जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े । और आगे तो आप समझ ही गये होंगे । एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है । --जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।
"भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है । ( प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है। और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया ! इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।

"प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।
परन्तु उसे हटा दिया गया । यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है । वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।
और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह (पगाह)--या लगाम है। अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। जिसका नियन्त्रण बुद्धि के हाथों में मन का नियन्त्रण होता है । विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । 
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास( भोजन) आदि।
वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है जब उसमें अहं का भाव हो जाय ।
परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है।
क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं
जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । 
परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है । 
आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द।
अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है। 
और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है  _________________________________________________ 
पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । 
वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
 क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।

👇 अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।
10.33।। 
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं। 
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"। अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है। और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए ।
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । 
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।
मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । 
संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। 
द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है ?  जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।  यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है।
अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद।
 मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ। 
वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? 
जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। 
अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। 
प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।
अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ। मैं धाता हूँ  ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है । 

उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।
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अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही (स्व:) की स्थति स्वास्थ्य है । परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । 
यानि शरीर की नीरोग अवस्था । 
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है । _________________________________________________ 
यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। 
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है। 
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं! सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।
और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए । क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है। .मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ। जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।

 इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है।

यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है । 
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"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)   

यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ! श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। (श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।

बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है। बुद्ध स्वयं कृष्ण के सिद्धान्तों से प्रेरित थे।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है । 
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; 
उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं।
महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे। इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।



प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
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अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’ 
अनुवाद:-
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। गृह निर्माण करने वाले की खोज में। बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।

श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।

दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है जहां महात्मा बुद्ध ने अपने 2 या 4 नहीं अपित लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

वहां उन्होंने कहा है--
भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है--
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अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥”
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अनुवाद:-अनेक जन्मों तक बिना रुके संसार में, दौड़ता रहा। इस कायारूपी घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुःखमय जन्म में पड़ता रहा।
गहकारक! दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं ।
विसंखारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा॥”
– गृहकारक । अब तुझे देख लिया है! अब तू पुनः घर नहीं बना सकेगा। तेरी सारी कड़ियाँ भग्न हो गयी हैं। घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। संस्कार रहित चित्त में तृष्णा का समूल नाश हो गया है।
सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धानसासनं ॥”
– सभी प्रकार के पापों को न करना; कुशल [पुण्य] कार्यों का संपादन करना; अपने चित्त को परिशुद्ध करना; यह है समस्त बुद्धों की शिक्षा ।
तुम्हेहि किच्चं आतप्पं, अक्खातारो तथागता ।
पटिपन्ना पमोक्खन्ति, झायिनो मारबन्धना ॥”
– सभी तथागत बुद्ध केवल मार्ग आख्यात कर देते हैं; विधि सिखा देते हैं, अभ्यास और प्रयत्न तो तुम्हें ही करना है। जो स्वयं मार्ग पर आरूढ़ होते हैं; ध्यान में रत होते हैं, वे मार यानी मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
अत्ता हि अत्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति ।
तस्मा सञमयत्तानं, अस्सं भद्रं व वाणिजो॥”
– तुम आप ही अपने स्वामी हो, आप ही अपनी गति हो! अपनी अच्छी या बुरी गति के तुम आपही तो जिम्मेदार हो! इसलिए अपने आपको वश में रखो वैसे ही, जैसे कि घोड़ों का कुशल व्यापारी श्रेष्ठ घोड़ों को पालतू बनाकर वश में रखता है। संयत रखता है।
मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुद्वेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पदं ॥
मनसा चे पसनेन, भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी ॥”
– सभी धर्म (अवस्थाएं) पहले मन में उत्पन्न होते हैं। मन ही मुख्य है, ये धर्म मनोमय हैं। जब आदमी मलिन मन से बोलता या कार्य करता है तो दुःख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे गाड़ी के पहिये बैल के पैरों के पीछे-पीछे । जब आदमी स्वच्छ मन से बोलता है या कार्य करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया ।
“फुट्ठस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति ।
असोकं विरजं खेमं, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥”
– आठो लोकधर्मों (लाभ-हानि, यश-अपयश, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा) के स्पर्श से चित्त विचलित नहीं होने देना, निःशोक, निर्मल और निर्भय रहना- ये श्रेष्ठ मंगल हैं।
चक्खुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो ।
घाणेन संवरो साधु, साधु जिह्वाय संवरो।
कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो ।
मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो।
सब्बत्थ संवुतो भिक्खु, सब्बदुक्खा पमुच्चति ॥”
– आँख का संवर [संयम] भला है। भला है कान का संवर! नाक का संवर भला है भला है जीभ का संवर!
शरीर का संवर भला है भला है वाणी का संवर!
मन का संवर भला है भला है सर्वत्र संवर!
(मन और काया स्कंध में) सर्वत्र संवर रखने वाला भिक्षु (साधक) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
“यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।
लभती पीतिपामोजं, अमतं तं विजानतं ॥”
– साधक सम्यक सजगता के साथ जब-जब शरीर और चित्त स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यनानुभूति करता है तब-तब प्रीति-प्रमोद रूपी अध्यात्म सुख की उपलब्धि करता है। यह जानने वालों के लिए अमृत है।
“सब्बे सङ्खारा अनिच्चा’ति, यदा पञ्जाय पस्सति ।
अथ निबिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया ॥”
– सभी संस्कार अनित्य हैं, यानी जो कुछ उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है। इस सच्चाई को जब कोई विपश्यना-प्रज्ञा से देखता है तो उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। ऐसा है यह विशुद्धि का मार्ग!
“अनिच्चावत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वुपसमो सुखो ॥”
– सचमुच! सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना-साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हो कर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है – पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, वही परम सुख है। वही निर्वाण-सुख है।
“सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो।”
– सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारेलोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं। सारे लोक प्रकम्पित ही प्रकम्पित है।
“खीणं पुराणं नवं नथिसम्भवं, विरत्तचित्तायतिके भवस्मि। ते खीणबीजा अविरुळ्हिछन्दा, निब्बन्ति धीरा यथायं पदीपो॥”
– जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नयों की उत्पत्ति नहीं होती; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण-बीज तृष्णा-विमुक्त अर्हत उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे कि तेल समाप्त होने पर यह प्रदीप!
“कत्वान कट्ठमुदरं इव गन्भिनीयं। चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय मज्झे। सन्तेन सोम विधिना जितवा मुनिन्दो। तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि”
– पेट पर काठ बाँध कर गर्भिणी का स्वांग भरने वाली चिञ्चा द्वारा भरी सभा के बीच कहे गये दुष्ट वचनों को जिन मुनींद्र भगवान बुद्ध ने शांति और सौम्यता के बल पर जीत लिया, उनके तेज प्रताप से जय हो! मंगल हो!!
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प्रथम प्रबल  प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
 देखें--- अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’ 
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
 गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है। सैद्धान्तिक कषौटी पर यह तथ्य प्रमाणित भी हो गया है, कि परमाणु अविनाशी है ,और संसार की निर्माण इकाई है परमाणु सृष्टि की पूर्ण इकाई अर्थात् व्यष्टि रूप है।

 संस्कृत साहित्य में अणु शब्द जीव का वाचक है। (अन्- धातु से व्युत्पन्न है। 
"अण्यते येन असौ अणु कथ्यते " अण् :- शब्दे प्राणने च आत्मने पदीय क्रिया रूप (अण--उन् ) क्षुद्रे, सूक्ष्मपरिमाणवति, द्रव्ये, लेशे च । (चिना, काङनी, श्यामा) प्रभृति सूक्ष्मधान्ये पुल्लिङ्गः। “अनणुषु दशमांशोऽणुष्वथैकादशांश” इति लीलावती ।
 अणुशब्दोहि परिमाणविशेषवाची । ग्रीक भाषा में भी ऐटम {Atom}शब्द का अभिधेय अर्थ है----×----अकाट्य तत्व ---अर्थात् जिसे काटा नहीं जा सकता है वही ऐटम है ----- ✳⛔. Atom--a particle of matter so small that so far as the older chemistry goes..Cannot be Cut (Temnein) or divided... अर्थात् पदार्थ का सबसे शूक्ष्मत्तम कण जिसे और काटा नहीं जा सकता है , वही एटम atom है। 
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संस्कृत भाषा में ऐटम शब्द का भाषान्तरण परमाणु शब्द के रूप में किया है, परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में अभिधात्मक अर्थ होता है। .. सबसे शूक्ष्म जीव (अणुः) ...ऐटम शब्द A  नकारात्मक उपसर्ग तथा Tomos क्रियात्मक विशेषण से बना हुआ रूप है .
.Tomos का भी धातु रूप (क्रिया का मूल रूप) Temnein =to cut अर्थात् काटना है । ..Atoms -A priv.and tomos----Verbal adjective form of Temnein Rootword ...A=-privation of tomos..A tomos ... इस शब्द के अतिरिक्त ग्रीक भाषा में सत्तावान् तत्व का वाचक ऐटिमॉन Etymon..शब्द भी है, जिसका मूल रूप (Etymos) है।
इसी सन्दर्भ में हम यह भी स्पष्ट कर दें की ग्रीक भाषा में ऐटमॉस (Atmos) शब्द का मूल अर्थ वायु तथा बाष्प और शूक्ष्म तत्व भी है। और तो ऑटोस् (Autos) शब्द भी आत्मा का वाचक है । जिसका तादात्म्य संस्कृत स्वत: शब्द से प्रस्तावित है । ________________________________________________
पारसी धर्म ग्रंथ अवेस्ता ए झन्द में संस्कृत शब्द स्वयं ( स्वत:) ख़ुद बन गया और इसी से आगेे चल कर ख़ुदा शब्द का भी विकास हुआ है।

अब हम यह प्रतिपादित करेंगे कि आत्मा और एटम वास्तव में क्या है? (सबसे छोटा आत्मा ) सृष्टि की हर वस्तु की निर्माण की शूक्षत्त्तम इकाई परमाणु है। जो काटा नहीं जा सकता है - संस्कृत भाषा में प्राचीन काल से आत्मा का वाचक प्रेत शब्द है।
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अनुवाद:- (व्युत्पत्ति और अर्थ) "Ātman" (आत्मा, आत्म, आत्मन्) एक संस्कृत शब्द है। जिसका अर्थ है "सार, श्वाँस, आत्मा। "
 यह मूल भारोपीय (एटमेन) से संबंधित है (जिसका मूल अर्थ है "श्वाँस"; cognates:डच भाषा में आडेम (Dutch adem) , पुरानी उच्च जर्मन में (एटम ="सांस," }आधुनिक जर्मन में एटमेन= "साँस लेना" और एटेम "श्वसन, सांस",और  पुरानी अंग्रेज़ी एडियन )। ________________________________________________ 
Ātman, कभी-कभी विद्वानों के साहित्य में (एटमन) के रूप में एक डाइकाट्रिक के बिना वर्तनी,  का अर्थ "वास्तविक स्व" है।
"सबसे सरल तत्व" और आत्मा।
 
श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक प्रमाण रूप में है 👇"नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक । चैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।। 

अर्थात् शस्त्राणि जिसे काट नहीं सकता , अग्नि जला नहीं सकती और जल भिगोय नहीं सकता, और न वायु जिसे सुखा सकती है , वह आत्मा है  ________________________________________________ 

यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral) है। परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा बीटा गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध है।
भौतिक शास्त्री लेप्टॉन क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , 
जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। .

क्यों कि ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है।
परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है । 
अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं। 
जो कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं । इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है । 
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है। 
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परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है। 
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओरआकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।

एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । 
परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है _______________________________________________ 
यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यासों के रूप विद्यमान है जैसे - 
1-पुरानी अंगेजी में--Aedm 2-डच( Dutch) भाषा में Adem रूप 3-प्राचीन उच्च जर्मन में Atum = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की Hotos रूप में था । 
जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । 
श्रीमद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇 नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । 
न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।। कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है । 
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है  आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। 
क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है ।
 ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है । __________________________________________
"ज्ञा" धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है । सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ; 
आत्मा सत्य है । क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; 
ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं । 
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है । 
और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; 
उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है। 
क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है। अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है।
स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है ।
 वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है । अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है। 
और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है । ---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है। जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है । 
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है ।
 परन्तु इन सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है । और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है ! 
जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :- **************************************
ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !   
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न । 

पर खोज अभी तक जारी है । 
अपने स्वरूप से मिलने की । 
हम सबकी अपनी तैयारी है । 

आशा के पढ़ाबों से दूर निकर 
संसार में किसी पर मोह न कर "
ये हार का हार स्वीकार न कर
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।

 शोक मोह में तू क्यों खिन्न है । 
कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है ।
 रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है। **************************************

 शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है ।

जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है। परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है । और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है। और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी । 
यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है जबकि स्व: मे आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है।
यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है । 
परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है।
इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________ 
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है।
 संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी हैं जैसे :---- १--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है। 

मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है । 
कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप "Aten" या "Aton"के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया , 
प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे । मिश्र की संस्कृति में आतुम Atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था । 

👇और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक है- और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है ।
"मिश्र देश वालों की अवधारणा थी; की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है ।
 जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है । इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा केविषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है-- ___________________________________________

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( सन्दर्भ- ईशावास्योपनिषद) अर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है ।