गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

बुद्धो नाम्नां जनसुतः कीकटेषु भविष्यति

ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नां जनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥२४॥
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहय सुरदिशाम् ।
बुद्धो नाम्नांजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥(1/
 3 / 24)

 भागवत पुराण-|1.3.24||
अर्थ:
1: फिर, कलियुग के आरंभ के दौरान , सुरों (देवों) से शत्रुता रखने वालों को अपमानित करने के लिए , 2: भगवान का अवतार
बुद्ध के नाम से अजिन के पुत्र के रूप में कीकट" नामक स्थान पर हुआ ।
इसी से सम्बन्धित तथ्य अग्निपुराण में भी है।
जिसमें बुद्ध और महावीर दौंनों को विष्णु का अवतार वर्णित किया गया है।

संस्कृत्य यादवान् पार्थो दत्तोदकधनादिकः।
स्त्रियोष्टावक्रशापेन भार्य्या विष्णोश्च याः स्थिताः।७।
पुनस्तच्छापतो नीता गोपालैर्लगुडायुधैः।
अर्जुनं हि तिरस्कृत्य पार्थः शोकञ्चकार ह ।८।
(अग्निपुराण अध्यायः १५)

गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के नौवें अवतार के प्रमाण इन ग्रंथों में
वर्णित है – हरिवंश पर्व (1.41) , विष्णु पुराण (3.18), भागवत
पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23) , गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26) , अग्निपुराण (16), नारदीय पुराण (2.72) , लिंगपुराण (2.71) और पद्म पुराण (3.252) आदि।
बुद्ध भगवान के अवतार
इसका प्रमाण भी पुराणों में प्राप्य इस रुप में व्यक्त है।
एतस्मिनैव काले तु कलिना संस्मृतो हरिः।
काश्यपादुद्भवो देवो गौतमो नाम विश्रुतः।
बौद्धधर्मं समाश्रित्य पट्टणे प्राप्तवान्हरिः।
(भविष्य पुराण)
कलियुग की प्रार्थना पर काश्यप गोत्र में भगवान विष्णु ने गौतम के नाम से अवतार लेकर बौद्धधर्म का विस्तार करते हुए पटना चले गये। पुनः लोग यह शंका करेंगे कि हमें राजा शुद्धोदन का भी नाम चाहिये, तो इसका प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः प्रावृतं तरसा
मायादेवीमानेतुमाययौ ३. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनःयोद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः (कल्कि पुराण,)
इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का
विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे। इसी युद्ध के वर्णन के अंतर्गत वर्णन है कि जब शुद्धोदन हारकर मायादेवी को बुलाने चला गया तो बौद्धों ने शुद्धोदन के पुत्र का आश्रय लेकर लाखों करोड़ों म्लेच्छों कि सहायता से युद्ध करना आरम्भ किया। इस प्रकार से सभी प्रमाणों को एक साथ देखा जाय तो बुद्ध कई हैं, तथा सभी अवतार ही हैं जो उद्देश्य विशेष से यथासमय आते हैं। यदि प्रकाश में व्यक्ति हत्या कर रहा हो तो जान बचाने वाला अन्धकार कर देता है। वैसे ही जब धर्म का नाम लेकर
म्लेच्छों में ब्राह्मण बन कर अधर्म प्रारम्भ किया तो उन्हें ठीक करने के लिए भगवान ने बुद्ध के रूप में आकर कहा कि जिस ईश्वर और धर्म के नाम पर तुम ये सब कर रहे हो, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। बाद में जयदेव कवि आदि ने भी कारुण्यमातान्वते, निन्दसि यज्ञविधे,सदय पशुघातम् आदि शब्दों के द्वारा इसी बात को प्रमाणित किया कि श्रीहरि का ही अवतार भिन्न भिन्न समयों में बुद्ध को रूप में हुआ था ।
काश्यप गोत्र में भगवान विष्णु ने गौतम के नाम से अवतार लेकर
बौद्धधर्म का विस्तार करते हुए पटना चले गये। पुनः लोग यह शंका करेंगे कि हमें राजा शुद्धोदन का भी नाम चाहिये, तो इसका प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
“शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः प्रावृतं तरसा
मायादेवीमानेतुमाययौ ३. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनः योद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः” (कल्कि पुराण,)
इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का
विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे।


शुद्धोदनस्तमालोक्य महासारं रथायुतैः प्रावृतं तरसा
मायादेवीमानेतुमाययौ ३. बौद्धा शौद्धोदनाद्यग्रे कृत्वा तामग्रतः पुनः योद्धुं समागता म्लेच्छकोटिलक्षशतैर्वृताः” (कल्कि पुराण,)
इस प्रसंग में वर्णन है कि जब कल्कि जी बौद्धों और म्लेच्छों का
विनाश करने लगेंगे तो बुद्ध, उनके पिता शुद्धोदन तथा माता मायादेवी पुनः प्रकट होंगे तथा म्लेच्छों के साथ मिलकर कल्कि जी से युद्ध करेंगे। इसी युद्ध के वर्णन के अंतर्गत वर्णन है कि जब शुद्धोदन हार कर मायादेवी को बुलाने चला गया तो बौद्धों ने शुद्धोदन के पुत्र का आश्रय लेकर लाखों करोड़ों म्लेच्छों कि सहायता से युद्ध करना आरम्भ किया।


आधुनिक मान्यता के अनुसार गौतम बुद्ध को ही बुद्धावतार माना जाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे। पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट में ब्राहमण परिवार में हुआ बताया गया है। उनके माता का नाम अंजना और पिता का नाम हेमसदन बताया गया है।
पुराणों में भगवान् विष्णु के चैबीस समान्य अवतार बतलाए गए हैं। इनमें बुद्ध का स्थान तेइसवां है। 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है।


ब्रह्मा का जन्म होता हैं और ये भगवान का दूसरा अवतार हैं। अब ये भी स्थापित हो गया हैं कि विष्णु जी भी भगवान के अवतार हैं।
शंकराचार्य ने भगवान बुद्ध व गौतम बुद्ध                      को अलग-अलग व्यक्ति बताया
श्रीगोवर्धन मठ पुरी के पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने कहा है कि भगवान बुद्ध और गौतम बुद्ध अलग-अलग व्यक्ति थे। दोनों का जन्म अलग-अलग काल में हुआ था। जिस गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अंशावतार घोषित किया गया था, उनका जन्म कीकट प्रदेश (मगध) में ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके सैकड़ों साल बाद कपिलवस्तु में जन्मे गौतम बुद्ध क्षत्रिय राजकुमार थे।
ब्राह्मण काल के थे भगवान बुद्ध
कर्मकांड में जिस बुद्ध की चर्चा होती है वे अलग हैं। इनकी चर्चा वेदों में भी हुई है। भगवान के ये अंशावतार हैं। इनकी चर्चा श्रीमद्भागवत में है। इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था।



शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

रोहि सुधरेगा नहीं , सदियों तक ये देश।।अनपढ़ बैठे दे रहे , मंचों पर उपदेश।।

रोहि सुधरेगा नहीं , सदियों तक ये देश।।
अनपढ़ बैठे दे रहे ,  मंचों  पर  उपदेश।।

मंचों पर उपदेश  पंच बैठे हैं अन्यायी ।
वारदात के बाद पुलिस लपके से आयी।।

राजनीति का खेल , विपक्षी बना है द्रोही।
जुल्मों का ये ग्राफ  क्रम बनता आरोहि ।।
___________

पाखण्डी इस देश में , पाते हैं सम्मान ।
अन्ध भक्त बैठे हुए, लेते उनसे  ज्ञान ।।

लेते उनसे ज्ञान  मति गयी उनकी मारी ।
दौलत के पीछे पड़े, उम्र बीत गयी सारी

स्वर" ईश्वर बिकते जहाँ ,दुनियाँ ऐसी मण्डी।
भाँग धतूरा ,कहीं चिलम फूँक रहे पाखण्डी।।
_______
रोहि सुधरेगा नहीं ,सदियों तक अपना देश।।
अनपढ़ बैठे दे रहे  पढने वालों को उपदेश।।

पढने वालों को उपदेश  राजनीति है गन्दी।
बेरोजगारी भी बड़ी  और पड़ी देश में मन्दी।।

अपराधी ज़ालिम बड़े और लड़े  देश में  द्रोही।
किसी की ना सुनता कोई , जुल्म  बना आरोहि।।



भाई कमाल के आशिक थे तुम भी 
मुद्दतों ये मुद्दा  सरफराज करते हैं।
दिल में  उमड़ते मोहब्बत के बादल 
 आज भी  बयाने अंदाज करते है।।

बवाल की परम्परा को आप संजोये हुए हैं।
खाम खां  इश्क में रोये हुए हैं।
मोहब्बत में कहीं तुम  सहादत न करना 
उलफत की जंग बहुत तो खोए हुए हैं।


बवाल की परम्परा को आप संजोये हुए हैं।
खाम खां  इश्क में रोये हुए हैं।
मोहब्बत में कहीं तुम  सहादत न करना 
उलफत की जंग बहुत तो खोए हुए हैं।


मजबूरियाँ हालातों के जब से  साथ हैं।
सफर में सैकड़ों  हजारों   फुटपाथ हैं।।

सम्हल रहा हूँ जिन्दगी की दौड़ में गिर कर !
किस्मतों को तराशने वाले भी कुछ हाथ हैं।


जाट- चौहान और मेहन जातियों की काल्पनिक पौराणिक उत्पत्ति-


भविष्यपुराण  (प्रतिसर्गपर्व ३)खण्डः ४ अध्यायः  द्वित्तीय-(२)

                 "सूत उवाच"

वयहानिर्महीपालो मध्यदेशे स्वकं पदम्।     गृहीत्वा ब्रह्मरचितमजमेरमवासयत्।१।

"अनुवाद:-सूत जी ने कहा :-मध्यदेश वासी राजा वयहानि सिंहासन आरूढ़ होकर ब्रह्मारचित अजमेर में निवास करने लगा।१। 

अजस्य ब्रह्मणो मा च लक्ष्मीस्तत्र रमा गता। तया च नगरं रम्यमजमेरमजं स्मृतम् ।२।

"अनुवाद:-अजन्मा ब्रह्मा तथा लक्ष्मी रमा यहाँ गये और नगर निर्माण किया था। तभी से वह सुन्दर नगर  अज+ रमा=अजमेर कहलाया।२।

विशेष:-

यद्यपि अजमेर का पुराना नाम अजमीढ़ सं० अजमीढ़] -अजमेर का पुराना नाम ।
अजमेर (Ajmer) भारत के राजस्थान राज्य का एक प्रमुख व ऐतिहासिक नगर है। यह अजमेर ज़िले का मुख्यालय भी है। अजमेर अरावली पर्वत श्रेणी की तारागढ़ पहाड़ी की ढाल पर स्थित है। यह नगर सातवीं शताब्दी में अजयराज सिंह नामक एक चौहान राजा द्वारा बसाया गया था। इस नगर का मूल नाम 'अजयमेरु' था। सन् 1365 में मेवाड़ के शासक, 1556 में अकबर और 1770 से 1880 तक मेवाड़ तथा मारवाड़ के अनेक शासकों द्वारा शासित होकर अंत में 1881 में यह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया।

_____

दशवर्षं कृतं राज्यं तोमरस्तत्सुतोऽभवत्।    पार्थिवैः पूजयामास वर्षमात्रं महेश्वरम् ।३।

"अनुवाद:-उनके दश वर्ष राज्य करने के उपरान्त तोमर नाम का एक पुत्र हुआ। उसने राजा ने वर्ष तक  करके महेश्वर की पूजा  की।३।

इंद्रप्रस्थं ददौ तस्मै प्रसन्नो नगरं शिवः।        तदन्वये च ये जातास्तोमराः क्षत्रियाः स्मृताः।४।

"अनुवाद:-इस पूजा से प्रसन्न शिव ने उसे इन्द्रप्रस्थ नगर प्रदान किया तभी से उसके वंशज तोमर वंश वाले क्षत्रिय प्रसिद्ध हो गये।४।

तोमरावरजश्चैव चयहानिसुतः शुभः ।।            नाम्ना सामलदेवश्च प्रश्रितोऽभून्महीतले।५।

"अनुवाद:-तोमर के सबसे छोटे भाई चयहानि का पुत्र था सामलदेव जो प्रसिद्ध राजा हुआ।५।

सप्तवर्षं कृतं राज्यं महादेवस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यमजयश्च ततो भवत् ।। ६ ।।

"अनुवाद:-सात वर्ष शासन किया शासन करने के उपरान्त उसे महादेव नामक पुत्र की प्राप्ति हुई पिता के समान उसने भी राज्य किया महादेव का पुत्र हुआ अजय हुआ।६।

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वीरसिंहस्ततोऽभवत् ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं ततो बिंदुसुरोऽभवत् ।।७।

"अनुवाद:- जिसने पिता के समान राज्य किया। उसका पुत्र वीरसिंह हुआ जिसने ५० वर्ष राज्य किया तब उसका पुत्र बिन्दुसुर हुआ।८।

पितुरर्द्धं कृतं राज्यं मध्यदेशे महात्मना ।    तस्माच्च मिथुनं जातं वीरा वीरविहात्तकः।८।।

"अनुवाद:-विन्दुसुर ने मध्यदेश में पच्चीस वर्ष राज्य किया इसकी जुँड़वा सन्तान उत्पन्न हुई कन्या का नाम वीरा तथा  पुत्र की नाम वीर था।८।

विक्रमाय ददौ वीरां पिता वेदविधानतः।    स्वपुत्राय स्वकं राज्यं मध्यदेशान्तरं मुदा।९।

"अनुवाद:-वीरा का पाणिग्रहण बिन्दुसुर ने  विधिसहित विक्रम के साथ कराया और उस बिन्दु सुर ने सिंहासन पर अपने पुत्र वीर को प्रसन्नता से आसीन किया।९।

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं माणिक्यस्तत्सुतोभवत् ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं महासिंहस्ततोऽभवत् ।। 3.4.2.१० ।।

"अनुवाद:-वीर का पुत्र हुआ माणिक्य उसने पचास वर्ष राज्य किया उसका पुत्र हुआ महासिंह १०।

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं चंद्रगुप्तस्ततोऽभवत्।।पितुर्द्धं कृतं राज्यं तत्सुतश्च प्रतापवान् ।११।।

"अनुवाद:-उसने भी पिता के समान पचास वर्ष राज्य किया। उसका पुत्र हुआ चन्द्र गुप्त उसने (२५)पच्चीस वर्ष राज्य किया और उसका भी पुत्र हुआ प्रतापवान् हुआ।११।। 

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं मोहनस्तत्सुतोऽभवत् ।।त्रिंशदब्दं कृतं राज्यं श्वेतरायस्ततोऽभवत् ।।१२।।

"अनुवाद:-मोहन" जिसने ३०वर्ष शासन किया मोहन का पुत्र हुआ श्वेतराय हुआ।१२।

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं नागवाहस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं लोहधारऽस्ततोभवत्।१३।

"अनुवाद:-और श्वेतराय ने पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र नागवाहन हुआ उसने पिता के समान राज्य किया उससे लोहधार उत्पन्न हुआ।१३। 

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वीरसिंहस्ततोऽभवत्।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं विबुधस्तत्सुतोऽभवत्।१४।

"अनुवाद:-लोहधार का पुत्र वीरसिंह हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया वीरसिंह का पुत्र विबुध हुआ।१४।

शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं चंद्रराय स्ततोभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं ततो हरिहरोऽभवत् ।।१५।।

"अनुवाद:-यहाँ तक उसने  ५० वर्ष शासन किया उसका पुत्र हुआ चन्द्रराय - जिसने पिता के समान राज्य किया और उस  चन्द्रराय का पुत्र  हरिहर हुआ।१५। 

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं वसंतस्तस्य चात्मजः ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं बलांग स्तनयोऽभवत्।१६।

"अनुवाद:- पिता के समान राज्य किया और उसका पुत्र वसन्त हुआ जिसने भी पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र बलांग हुआ ।१६। 

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं प्रमथस्तत्सुतोऽभवत् ।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यमंगरायस्ततोऽभवत्।१७।

"अनुवाद:-बलांग का पुत्र प्रमथ हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया । और इसका पुत्र अंगराय हुआ जिसने भी पिता के समान राज्य किया।१७।

पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं विशालस्तस्य चात्मजः ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं शार्ङ्गदेवस्ततोऽभवत् ।१८।

"अनुवाद:-और इसका पुत्र विशाल हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया और विशाल का पुत्र शारंगदेव जिसने पिता के समान राज्य किया ।१८।  


पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं मंत्रदेवस्ततोऽभवत् ।।पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं जयसिंहस्ततोऽभवत्।१९।

"अनुवाद:-शारंगदेव का पुत्र मन्त्रदेव और इनका पुत्र जयसिंह हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया उसका पुत्र जयसिंह हुआ।१९।

आर्यदेशाश्च सकला जितास्तेन महात्मना ।।  तद्धनैः कारयामास यज्ञं बहुफलप्रदम् ।। 3.4.2.२०।

"अनुवाद:-जयसिंह ने आर्य देशों पर विजय प्राप्त करके प्राप्त धन द्वारा अधिक फलदायक महान यज्ञ सम्पन्न किया।२०।।

ततश्चानन्द देवो हि जातः पुत्रः शुभाननः ।।शतार्द्धाब्दं कृतं राज्यं जयसिंहेन धीमता ।२१ ।।

"अनुवाद:-उसका पुत्र था आनन्ददेव शुभ मुख वाला उत्पन्न हुआ। जिसने ५० वर्ष तक शासन किया जयसिंह के द्वारा।२१।

तत्सुतेन पितुस्तुल्यं कृतं राज्यं महीतले ।।सोमेश्वरस्तस्य सुतो महाशूरो बभूव ह ।२२ ।।

"अनुवाद:-और उसका पुत्र हुआ सोमेश्वर हुआ जिसने पिता के समान राज्य किया सोमेश्वर का पुत्र महाशूर हुआ।२२। 

अनंगपालस्य सुतो ज्येष्ठां वै कीर्तिमालिनीम् ।।तामुद्वाह्य विधानेन तस्यां पुत्रानजीजनत् ।। २३।।

"अनुवाद:-अनंगपाल की बड़ी लड़की कीर्तिमालिनी से सोमेश्वर ने विवाह किया जिससे अनेक पुत्रों को जन्म दिया।२३।


धुंधुकारश्च वै ज्येष्ठो मथुराराष्ट्रसंस्थितः ।।      मध्यः कुमाराख्यसुतःपितुःपदसमास्थितः।२४।।

"अनुवाद:-उसके तीन पुत्र थे बड़ा धुन्धुकार यह मथुरा का राज्याधिपति हुआ। मध्यम पुत्र कुमार यह पिता की गद्दी पर आसीन हो गया ।२४।

महीराजस्तु बलवांस्तृतीयो देहलीपतिः ।।सहोद्दीनस्य नृपतेर्वशमाप्य मृतिं गतः ।।२५ ।।

"अनुवाद:-और सबसे छोटा तृतीय पुत्र महीराज(पृथ्वीराज)हुआ  यह दिल्ली में सिंहासन आरूढ़ हो गया पृथ्वी राज  साहाबुद्दीन के अधीन होकर मारा गया या मृत्यु को प्राप्त हो गया।२५।

चापहानेश्च स कुलं छाययित्वा दिवं ययौ ।।        तस्य वंशे तु राजन्यास्तेषां पत्न्यः पिशाचकैः।२६।

"अनुवाद:-यह म्लेच्छ चापहानि वंश का नाश करके स्वर्ग को चला गया चौहान वंश की शेष पत्नीयाँ का भोग म्लेच्छों ने किया। २६।

म्लेच्छैश्च भुक्तवत्यस्ता बभूबुर्वर्णसंकराः।।            न वै आर्या न वै म्लेच्छा जट्टा जात्या च मेहनाः। २७।

"अनुवाद:-म्लेच्छ द्वारा भोगी गयी उन स्त्रीयो से वर्णसंकर उत्पन्न हुए वे वर्णसंकर न तो आर्य ही हुए  ना ही म्लेच्छ वे जट्टा और मेहना थे।२७।।


मेहना म्लेच्छजातीया जट्टा आर्यमयाः स्मृताः।क्वचित्कचिच्च ये शेषाः क्षत्रियाश्चपहानिजाः।२८।

"अनुवाद:- मेहना म्लेच्छ जातीयों के अन्तर्गत थे और जट्टा आर्यमय  कहलाये जो कुछ शेष क्षत्रिय इधर उधर बचे थे वे चौहान (चापहानि) के वंशज थे ।२७-२८।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि कलियुगीयेतिहास समुच्चये प्रमरवंशवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः।।२।।

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इस प्रकार श्रीभविष्यमहापुराण में प्रतिसर्गपर्व में चतुर्युगखण्डापरपर्याय कलियुगीय इतिहास समुच्चय में प्रमर वंश का वर्णन नामक चतुर्थ *खण्ड का द्वितीय अध्याय पूर्ण हुआ।*


(चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: कर्णपर्व)


महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद:-

कर्ण के द्वारा मद्र और बाहीक देश वासियों की निन्दा करना-

शल्य बोले- कर्ण ! तुम दूसरों के प्रति जो आक्षेप करते हो, ये तुम्हारा प्रलाप ( बकवास) मात्र हैं। तुम जैसे हजारों कर्ण न रहे तो भी युद्ध स्थल में शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है।

संजय कहते हैं- राजन ! ऐसी कठोर बात बोलते हुए मद्रराज शल्य से कर्ण ने पुनः दूनी कठोरता लिये अप्रिय वचन कहना आरम्भ किया। 

कर्ण कहते हैं- मद्र नरेश ! तुम एकाग्रचित्त होकर मेरी ये बातें सुनो। राजा धृतराष्ट्र के समीप कही जाती हुई इन सब बातों को मैंने सुना था।

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एक दिन महाराज धृतराष्ट्र के घर में बहुत से ब्राह्मण आ-आकर नाना प्रकार के विचित्र देशों तथा पूर्ववर्ती भूपालों के वृतान्त सुना रहे थे।

वहीं किसी वृद्ध एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ने बाहीक और मद्र देश की निन्दा करते हुए वहाँ की पूर्व घटित बातें कही थीं- जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर हैं तथा जो सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, और झेलम- इन पाँचों एवं सिंधु नदी के बीच में स्थित है, उन्हें बाहीक कहते हैं। 

उन्हें त्याग देना चाहिये। गोवर्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा- ये दोनों वहाँ के राजभवन के द्वार पर स्थित हैं, जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ। मैं अत्यन्त गुप्त कार्यवश कुछ दिनों तक बाहीक देश में रहा था। इससे वहाँ के निवासियों के सम्पर्क में आकर मैंने उनके आचार-व्यवहार की बहुत सी बातें जान ली थीं। वहाँ शाकल नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है, जहाँ जर्तिका नाम वाले बाहीक निवास करते हैं। उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है। वे भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं।

पूआ, मांस और वाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार शून्य हैं।

वहाँ की स्त्रियाँ बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करके मतवाली तथा नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदिवारियों के पास गाती और नाचती हैं।

 वे गदहों के रेंकने और ऊँटों के बलबलाने की सी आवाज से मतवाले पन में ही भाँति-भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन-काल में भी परदे के भीतर नहीं रहती हैं। वे सब-के-सब सर्वथा स्वेच्छाचारिणी होती हैं।

 मद से उनत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वे एक दूसरे को 'ओ घायल की हुई ! ओ किसी की मारी हुई ! हे पतिमर्दिते ! इत्यादि कहकर पुकारती और नृत्य करती हैं।

पर्वों और त्यौहारों के अवसर पर तो उन संस्कारहीन रमणीयों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है।

 उन्हीं बाहीक देशी मदमत्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई सम्बन्धी वहाँ से आकर कुरुजांगल ( ) प्रदेश में निवास करता था। वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था- "निश्चय ही वह लंबी, गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ बाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी। 

मैं कब सतलज और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुँचकर शंख की बनी हुई मोटी-मोटी चूडि़यों को धारण करने वाली वहाँ की सुन्दरी स्त्रियों को देखूँगा।

जिनके नेत्रों के प्रान्त भाग मैनसिल के आलेप से उज्ज्वल हैं, दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिनके सारे अंग कम्बल और मृगचर्म से आवृत हैं, वे गोरे रंगवाली प्रियदर्शना (परम सुन्दरी) रमणियाँ मृदंग, ढोल, शंख और मर्दल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ-साथ कब नृत्य करती दिखायी देंगी।

(चतुश्चत्वारिंश (44) वाँ अध्याय: कर्ण पर्व)

महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक संख्या- 20 से 40 का हिन्दी अनुवाद:-

कब हम लोग मदोन्मत्त हो गदहे, ऊँट और खच्चरों की सवारी द्वारा सुखद मार्गाें वाले शमी, पीलु और करीले के जंगलों में सुख से यात्रा करेंगे।" मार्ग में तक्र के साथ पूए और सत्तू के पिण्ड खाकर अत्यन्त प्रबल हो कब चलते हुए बहुत से राहगीरों को उनके कपड़े छीनकर हम अच्छी तरह पीटेंगे।

 संस्कारशून्य दुरात्मा बाहीक ऐसे ही स्वभाव के होते हैं। उनके पास कौन सचेत मुनष्य दो घड़ी भी निवास करेगा ? ब्राह्मण ने निरर्थक आचार-विचार वाले बाहीकों को ऐसा ही बताया है, जिनके पुण्य और पाप दोनों का छठा भाग तुम लिया करते हो। शल्य ! उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ये सब बातें बताकर उद्दण्ड बाहीकों के विषय में पुनः जो कुछ कहा था, वह भी बताता हूँ। 

उस देश में एक राक्षसी रहती है, जो सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को समृद्धशाली शाकल नगर में रात के समय दुन्दुभि बजाकर इस प्रकार गाती है- मैं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो गोमांस खाकर और गुड़ की बनी हुई मदिरा पीकर तृप्त हो अंजलि भर प्याज के साथ बहुत सी भेड़ों को खाती हुई गोरे रंग की लंबी युवती स्त्रियों के साथ मिलकर इस शाकल नगर में पुनः कब इस तरह की बाहीक सम्बन्धी गाथाओं का गान करूँगी।

जो सूअर, मुर्गा, गाय, गदहा, ऊँट और भेड़ के मांस नहीं खाते, उनका जन्म व्यर्थ है।

जो शाकल निवासी आबालवृद्ध नरनारी मदिरा से उन्मत्त हो चिल्ला-चिल्लाकर ऐसी गाथाएँ गाया करते हैं, उनमें धर्म कैसे रह सकता है ?  शल्य! इस बात को अच्छी तरह समझ लो। हर्ष का विषय है कि इसके सम्बन्ध में मैं तुम्हें कुछ और बातें बता रहा हूँ, जिन्हें दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में हम लोगों से कहा था। जहाँ शतद्रु (सतलज), विपाशा (व्यास), तीसरी इरावती (रावी), चन्द्रभागा (चिनाव) और वितस्ता (झेलम), ये पाँच नदियाँ छठी सिंधु नदी के साथ बहती हैं; जहाँ पीलु नामक वृक्षों के कई जंगल हैं, वे हिमालय की सीमा से बाहर के प्रदेश आरट्ट नाम से विख्यात है। वहाँ का धर्म-कर्म नष्ट हो गया है। उन देशों में कभी भी न जायें। जिनके धर्म-कर्म नष्ट हो गये हैं, वे संस्कारहीन, जारज बाहीक यज्ञ-कर्म से रहित होते हैं।

उनके दिये हुए द्रव्य को देवता, पितर और ब्राह्मण भी ग्रहन नहीं करते हैं, यह बात सुनने में आयी है।

किसी विद्वान ब्राह्मण ने साधु पुरुषों की सभा में यह भी कहा कि बाहीक देश के लोग काठ के कुण्डों में तथा मिट्टी के बर्तन में जहाँ सत्तू और मदिरा लिपटे होते हैं और जिन्हें कुत्ते चाटते रहते हैं, घृणाशून्य होकर भोजन करते हैं।

बाहीक देश के निवासी भेड़, ऊँटनी और गदही के दूध पीते और उसी दूध के बने हुए दही-घी आदि खाते हैं।  वे जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले नीच आरट्ट नामक बाहीक सबका अन्न खाते और सबका दूध पीते हैं। अतः विद्वान पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। शल्य! इस बात को याद कर लो। अभी तुमसे और भी बातें बताऊँगा, जिन्हें किसी दूसरे ब्राह्मण ने कौरव-सभा में स्वयं मुझसे कहा था। युगन्धर नगर में दूध पीकर अच्युत स्थल नामक नगर में एक रात रहकर तथा भूतिलय में स्नान करके मनुष्य कैसे स्वर्ग में जायेगा? जहाँ पर्वत से निकल कर पूर्वोक्त ये पाँच नदियाँ बहती हैं, वे आरट्ट नाम से प्रसिद्ध बाहीक प्रदेश हैं। उनमें श्रेष्ठ पुरुष दो दिन भी निवास न करे।

(चतुश्चत्वारिंश (44)वाँ  अध्याय: कर्ण पर्व)

महाभारत: कर्ण पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोकसंख्या:- 41-47 का हिन्दी अनुवाद:-

विपाशा (व्यास) नदी में दो पिशाच रहते हैं। एक का नाम है बहि और दूसरे का नाम है हीक। इन्हीं दोनों की संतानें बाहीक कहलाती हैं। ब्रह्मा जी ने इनकी सृष्टि नहीं की है। वे नीच योनि में उत्पन्न हुए मनुष्य नाना प्रकार के धर्मों को कैसे जानेंगे ? कारस्कर, माहिषक, कुरंड, केरल, कर्कोटक और वीरक- इन देशों के धर्म (आचार-व्यवहार) दूषित हैं; अतः इनका त्याग कर देना चाहिये। विशाल ओखलियों की मेखला (करधनी) धारण करने वाली किसी राक्षसी ने किसी तीर्थयात्री के घर में एक रात रहकर उससे इस प्रकार कहा था। जहाँ ब्रह्मा जी के समकालीन (अत्यन्त प्राचीन) वेद-विरुद्ध आचरण वाले नीच ब्राह्मण निवास करते हैं, वे आरट्ट नामक देश है और वहाँ के जल का नाम बाहीक है। 

उन अधम ब्राह्मणों को न तो वेदों का ज्ञान है, न वहाँ यज्ञ की वेदियाँ हैं और न उनके यहाँ यज्ञ-याग ही होते हैं। वे संस्कारहीन एवं दासों से समागम करने वाली कुलटा स्त्रियों की संतानें हैं; अतः देवता उनका अन्न ग्रहण नहीं करते हैं। प्रस्थल,(पश्तो) मद्र, गान्धार, आरट्ट, खस, वसाति, सिंधु तथा सौवीर- ये देश प्रायः अत्यन्त निन्दित हैं।

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इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक चौंवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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कर्णेन सोपहासं शल्यगर्हणम्। ( कर्ण द्वारा उपहास करते हुए शल्य की निन्दा करना-)

महाभारत -कर्णपर्व 44 वाँ अध्याय-


          "सञ्जय उवाच।

ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिन्दमः।        अभ्यभाषत राधेयः सन्निवार्योत्तरं वचः।1।

निर्भर्त्सनार्थं शल्य त्वं यत्तु जल्पितवानसि।        नाहं शक्यस्त्वया वाचा विभीषयितुमाहवे।2।

यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः।      तथापि मे भयं न स्यात्किमु पार्थात्सकेशवात्।3।

नाहं भीषयितुं शक्यः शुद्धकर्णा महाहवे।अभिजानीहि शक्तस्त्वमन्यं भीषयितुं रणे।4।

नीचस्य बलमेतावत्पारुष्यं यतत्त्वमात्थ माम्।अशक्तो हि गुणान्वक्तुं वल्गसे बहु दुर्मते।5।

न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मद्रक।विक्रमार्थमहं जातो यशोर्थं च तथाऽऽत्मनः।6।

सखिभावेन सौहार्दान्मितत्रभावेन चैव हि।कारणैस्त्रिभिरेतैस्त्वं शल्य जीवसि साम्प्रतम्।7।

राज्ञश्च धार्तराष्ट्रस्य कार्यं सुमहदुद्यतम्।              मयि तच्चाहितं शल्य तेन जीवसि मे क्षणम्।8।

कृतश्च समयः पूर्वं क्षन्तव्यं विप्रियं तव।`         समयः परिपाल्यो मे तेन जीवसि साम्प्रतम्'।9।

ऋते शल्यसहस्रेण विजयेयमहं परान्।      मित्रद्रोहस्तु पापीयानिति जीवसि साम्प्रतम्।10।

                  "शल्य उवाच।

आर्तप्रलापांस्त्वं कर्ण यान्ब्रवीषि परान्प्रति।          न ते कर्णसहस्रेण शक्या जेतुं परे युधि।11।

                 सञ्जय उवाच।

तथा ब्रुवन्तं परुषं कर्णो मद्राधिपं तदा।            परुषं द्विगुणं भूयः प्रोवाचाप्रियदर्शनम्।12।

इदं त्वमेकाग्रमनाः शृणु मद्रजनाधिप।            सन्निधौ धृतराष्ट्रस्य प्रोच्यमानं मया श्रुतम्।13।

देशांश्च विविधांश्चित्रान्पूर्ववृत्तांश्च पार्थिवान्।ब्राह्मणाः कथयन्ति स्म धृतराष्ट्रनिवेशने।14।

तत्र वृद्धः पुरावृत्ताः कथाः कश्चिद्द्विजोत्तमः।बाह्लीकदेशं मद्रांश्च कुत्सयन्वाक्यमब्रवीत्।15।

बहिष्कृता हिमवतता गङ्गया च तिरस्कृताः।सरस्वत्या यमुनया कुरुक्षेत्रेण चापि ये।16।

पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तराश्रिताः।तान्धर्मबाह्यानशुचीन्बाह्लीकानपि वर्जयेत्।17।

गोवर्धनो नाम वटः सुभाण्डं नाम पत्तनम्।एतद्राजन्कलिद्वारमाकुमारात्स्मराम्यहम्।18।

कार्येणात्यर्थगूढेन बाह्लीकेषूषितं मया।              तत एषां समाचारः संवासाद्विदितो मया।19।

शाकलं नाम नगरमापगानामनिम्नगा।          चाण्डाला नाम बाह्लीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।20।

पानं गुडासवं पीत्वा गोमांसं लशुनैः सह।अपूपसक्तुमद्यानामाशिताः शीलवर्जिताः।21।

गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवाससः।नगरापणवेशेषु बहिर्माल्यानुलेपनाः।22।

मत्ताः प्रगीतविरुतैः खरोष्ट्रनिनदोपमैः।        अनावृता मैथुने ताः कामचाराश्च सर्वशः।23।

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आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कxxxः।

हेहतेहेहतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च।24।

आक्रोशन्त्यः प्रनृत्यन्ति व्रात्याः पर्वस्वसंयताः।

तासां किलावलिप्तानां निवसन्कुरुजाङ्गले।25।

कश्चिद्बाह्लीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ।

सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।26।

मामनुस्मरती शेते बाह्लीकं कुरुवासिनम्।

शतद्रुं नु कदा तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम्।

गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलजङ्घाः शुभाः स्त्रियः।27।

मनःशिलोज्ज्वलापाङ्ग्यो गौर्यस्ताः काकुकूजिताः।

कम्बलाजिनसंवीता रुदन्त्यः प्रियदर्शनाः।28।

मृदङ्गानकशङ्खानां मर्दलानां च निःस्वनैः।

खरोष्ट्राश्वतरैश्चैव मत्ता यास्यामहे सुखम्।29।

शमीपीलुकरीराणां वनेषु सुखवर्त्मसु।

अपूपान्सक्तुपिण्डांश्च प्राश्नन्तो मथितान्वितान्।30।

पथिषु प्रबलो भूत्वा तथा सम्पततोऽध्वगान्।

चेलापहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयसः।31।

एवंशीलेषु व्रात्येषु बाह्लीकेषु दुरात्मसु।

कश्चेतयानो निवसेन्मुहूर्तमपि मानवः।32।

कर्ण उवाच।

ईदृशा ब्राह्मणेनोक्ता बाह्लीका मोघचारिणः।

येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयोः पुण्यपापयोः।33।

इत्युक्त्वा ब्राह्मणः साधुरुत्तरं पुनरुक्तवान्।

बाह्लीकेष्वविनीतेषु प्रोच्यमानं निबोध तत्।34।

ततत्र स्म राक्षसी गाति कृष्णचतुर्दशीम्।

नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम्।35।

कथं वस्तादृशो गाथाः पुनर्गास्यामि शाकले।

गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं सुरासवम्।36।

गौरीभिः सह नारीभिर्बृहतीभिः स्वलङ्कृता।

पलाण्डुगण्डूषयुताः खादन्तश्चेशिकान्बहून्।37।

वाराहं कौक्कुटं मांसं गव्यं गार्दभमौष्ट्रकम्।

धानाश्च ये न खादन्ति तेषां जन्म निरर्थकम्।38।

एवं गायन्ति ये मत्ताः शीधुना पीलुकावने।

सबालवृद्धाः क्रन्दन्ति तेषां धर्मः कथं भवेत्।39।

यत्र लोकेश्वरः कृष्णो देवदेवो जनार्दनः।

विस्मृतः पुरुषैरुग्रैस्तेषां धर्मः कथं भवेत्।40।

इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते।

यदन्योप्युक्तवानस्मान्ब्राह्मणः कुरुसंसदि।41।

पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवनान्युत।

शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैरावती तथा।42।

चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा महानदी।

आरट्टा नाम बह्लीका एतेष्वार्यो हि नो वसेत्।43।

व्रात्यानां दासमीयानां विदेहानामयज्वनाम्।

न देवाः प्रतिगृह्णन्ति पितरो ब्राह्मणास्तथा।44।

तेषां प्रनष्टधर्माणां बाह्लीकानामिति श्रुतिः।

ब्राह्मणेन यथा प्रोक्तं विदुषा साधुसंसदि।45।

काष्ठकुण्डेषु बाह्लीका मृण्मयेषु च भुञ्जते।

सक्तुमद्यावलिप्तेषु श्वावलीढेषु निर्घृणाः।46।

आविकं चौष्ट्रिकं चैव क्षीरं गार्दभमेव च।

तद्विकारांश्च बाह्लीकाः खादन्ति च पिबन्ति च।47।

पात्रसङ्करिणो जाल्माः सर्वान्नक्षीरभोजनाः।

आरट्टा नाम बाह्लीका वर्जनीया विपश्चिता।48।

इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते।

यदन्योऽप्युक्तवान्मह्यं ब्राह्मणः कुरुसंसदि।49।

युगन्धरे पयः पीत्वा प्रोष्य चाप्यच्युतस्थले।

तद्वद्भूतिलये स्नात्वा कथं स्वर्गं गमिष्यति।50।

पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र निःसृत्य पर्वतात्।

आरट्टा नाम बाह्लीका न तेष्वार्यो द्व्यहं वसेत्।51।

बाह्लीका नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचकौ।

तयोरपत्यं बाह्लीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।52।

ते कथं विविधान्धर्माञ्ज्ञास्यन्ते हीनयोनयः।53।

कारस्करान्माहिषकान्करम्भान्कटकालिकान्।

कर्करान्वीरकान्वीरा उन्मत्तांश्च विवर्जयेत्।54।

इति तीर्थानुसञ्चारी राक्षसी काचिदब्रवीत्।

एकरात्रमुषित्वेह महोलूखलमेखला।55।

आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीकं नाम तद्वनम्।

वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः।56।

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इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि चतुश्चत्वारिञ्शोऽध्यायः।44।

यहाँ महाभारतकार क्या कहना चाहते थे और इन श्लोकों का वास्तविक अर्थ क्या है, यह बात अभी तक किसी लेखक ने स्पष्ट नहीं की है। यह ऊपर से तो कर्ण और शल्य की तू-तू मैं-मैं जान पड़ती है, 

किन्तु इसके भीतर ठोस ऐतिहासिक तथ्य छिपा हुआ है। बात ऐसी है कि जब इस देश पर सिकन्दर ने आक्रमण किया, तो उसके अन्यायी यवनों को कुछ प्रदेशों पर अधिकार हो गया। पहले यह अधिकार बाल्हीक या बल्ख प्रदेश पर था और वहाँ के यवन शासक बाल्हीक यवन कहलाते थे। मौर्य सम्राटों के युग में तो वे निस्तेज होकर सिकड़ु हुए पड़े रहते थे; किन्तु मौर्य साम्राज्य के बिखरने पर जब पुष्यमित्र सत्तारूढ़ हुआ, उस यवनों गान्धार और पंजाब की ओर अपने पैर फैलाने शुरू किये और उनमें से दिमित्र और मेनन्द्र नामक राजाओं ने पंचनद और पंजाब के उत्तरी प्रदेश में, जिसे मद्र कहते थे, एवं जिसकी राजधानी शालक थी, अपना अधिकार जमाया। मद्रराज शल्य भी वहीं के थे। अतएव उनके ब्याज से जो कुछ मद्रक यवनों के आचार और विचार के प्रति भारतीयों की प्रतिक्रिया थी, वह सब शल्य के सिर मढ़कर यहाँ कही गई है।

स्पष्ट ज्ञात होता है कि मद्रक यवनों का रहन-सहन भारतीयों के आचार-विचार और सामाजिक संगठन से भिन्न था। उनमें खान-पान, नाच, रंग, सुरा और मद, नग्न-नृत्य आदि बहुत-सी कुटिल प्रथाएं ऐसी थीं, जिनकी चर्चा मध्य देश में रहने वाले भारतीयों के कानों में आने लगी। तभी ऐसा हुआ कि मध्य देश में ऐसी धारणा फैली कि पांच नदियों वाला वाहीक देश पृथ्वी का मल है, वहाँ किसी को नहीं जाना चाहिए। यहाँ तक बात बढ़ी कि जो कुरुक्षेत्रसरस्वती और दृशद्वती के बीच का प्रदेश, पृथ्वी का सबसे पवित्र स्थान माना जाता था, उसके लिए भी कहा गया है कि “तीर्थ यात्रा के लिए वहाँ दिन में ही जाना चाहिए और रात्रि में न ठहरकर उसी दिन वापस चले आना चाहिए।” यह बात कुरुक्षेत्र की यात्रा के सम्बन्ध में कही गई है और उसकी भी संगति यही है।

अध्याय : 27-29

64. कर्णयुद्ध-वर्णन
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मद्रक यवनों के विषय में ये किंवदन्तियां चलते-चलते ही गाथाओं के रूप में लोक में फैल गई थीं, यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है। लगभग एक जैसा वर्णन कुछ हेरफेर से 10 या 11 बार दुहराया गया है और उसका ढंग यही है कि एक किसी ब्राह्मण ने ऐसा कहा था, किसी दूसरे ब्राह्मण ने ऐसा कहा था। मैंने धृतराष्ट्र की सभा में ऐसा सुना था, इत्यादि। इन वर्णनों की तालिका इस प्रकार हैः

1. ”मद्र देश कुदेश या पाप का देश है। वहाँ की स्त्रियां, बालक, बूढ़े और तरुण प्रायः खेल में मस्त रहते हैं और वे इन गाथाओं को ऐसे गाते हैं, मानो अध्ययन कर रहे हों। मद्रक दुरात्मा हैं। उनकी तरह की गाथाओं को, जैसा पहले ब्राह्मणों ने राज-सभा में सुनाया था, वे इस प्रकार हैः मद्रक बड़ा मित्र-द्रोही होता है। जो हमारे साथ नित्य शत्रुता का व्यवहार करता है, वही मद्रक है। मद्रक के साथ कभी दोस्ती नहीं हो सकती, क्योंकि वह झूठा, कुटिल और दुरात्मा होता है। दुष्टता की जितनी हद है, वह सब मद्रकों में समझो। उनकी विचित्र प्रथा है कि मां, बाप, बेटे, बेटी, सास और ससुर, भाई, जमाई, पोते और धेवते, मित्र-अतिथि, दास-दासी, जान-पहचान के और अनजान स्त्री और पुरुष सब एक-दूसरे के साथ मिलकर संगत करते हैं। वे शिष्ट व्यक्तियों के घर में इकट्ठे होकर सत्तू की पिण्डियां और उसका घोल पीते हैं और गोमांस के साथ शराब पीकर हंसते और चिल्लाते हैं एवं कामवश होकर स्वेच्छाचार बरतते हैं। उनकी काम से भरी बातें सुनकर जान पड़ता है कि उनमें धर्म का सर्वथा लोप हो गया है। मद्रक के साथ न वैर और न मैत्री करना चाहिए। वह अत्यन्त चलप होता है। उसमें शौच का भाव नहीं, उसे स्पर्श और अस्पर्श का ज्ञान भी नहीं होता। बिच्छू जैसे विष-बुझा डंक मारता है, वैसे ही मद्रक का मेल है। उनकी स्त्रियां शराब के नशे में बुत्त होकर कपड़े फेंककर नाचती हैं, यहाँ तक की असंयत कामाचार से भी नहीं चूकती हैं। हे मद्रक, तू उन्हीं का बेटा है, तू धर्म क्या जाने? जैसे ऊंटनी खड़ी होकर मूतती है, वैसे ही उनकी स्त्रियां भी। वहाँ कांजी (सुमिरक) पीने का बेहद रिवाज है। कांजी की शौकीन स्त्री कहती है कि मैं पुत्र दे दूंगी, पर कोई मुझसे कांजी न मांगे। वहाँ की स्त्रियां लम्बे-चौड़े शरीर वाली, ऊनी वस्त्र पहनने वाली, डटकर भोजन करने वाली, निर्लज्ज और अपवित्र होती हैं, ऐसा मैंने सुना है। उनके विषय में और भी कुछ कहा जा सकता है। मद्रक धर्म को क्या जानें? वे पापी देश में उत्पन्न हुए म्लेच्छ हैं। हे मद्रराज, फिर यदि तुमने कुछ कहा तो मैं गदा से तुम्हारा सिर तोड़ दूंगा।”

कर्ण के उत्तर में शल्य ने कौवे और हंस की एक कहानी सुनाई, जिसमें कौवा कुजात होकर भी अपनी बड़ाई हांकता है। अन्त में वह अपनी उड़ान के करतब दिखाता हुआ समुद्र में डूबने लगा तो उसके माफी मांगने पर हंस ने उसे उठाकर किनारे पर रख दिया। इसके उत्तर में अध्याय 29 में कर्ण ने पहले तो सच्चे मित्र के विषय में कुछ सुन्दर श्लोक सुनाए, किन्तु इतना अंश यहाँ स्पष्ट जोड़ा गया है और 30वें अध्याय का मेल पूर्व के 27वें अध्याय से मिल जाता है। फिर मद्रकों के विषय की गाथाओं का तांता शुरू हो जाता है, जो इस प्रकार हैः


सोमवार, 17 अप्रैल 2023

माताप्रसाद जी का जीवन परिचय-


(माता प्रसाद यादव जी का जन्म- (ईस्वी सन् - 20 मार्च -1981 को जनपद लखनऊ के ग्राम डालौना पोष्ट- मोहन लाल गंज में हुआ है।

बचपन से ही माता प्रसाद जी निर्भीक (निडर) और स्वाभिमानी प्रवृत्ति के सदाचरण सम्पन्न एक असाधारण बालक थे। इनके अध्ययन काल में ही राधा-कृष्ण की युगल छवि की निष्काम भक्ति का बीज हृदय तल पर सहज अंकुरित हो गया था। भारतीय शास्त्रों के अध्ययन के प्रति रुचि भी इसी उपरान्त जाग्रत हुई। तत्पश्चात् इनके जीवन में साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को एक नवीन दिशा और दृष्टिकोण प्राप्त हुआ। 

जीवन परिचय-★

नाम - माता प्रसाद यादव
पिता -श्री खुशीराम यादव
माता -श्रीमती फूलकुमारी यादव 
पालक माता- सरजू देवी
पत्नी -श्रीमती सुनीता यादव (अध्यापिका)
पुत्रगण- योजित सिंह यादव" माणिक्य सिंह यादव तथा पुत्री "योग्यता सिंह यादव हैं।
माताप्रसाद जी की प्रारम्भिक शिक्षा अर्जुनगंज लखनऊ में बुआ जी के सानिध्य में संपन्न  हुई । बुआ जी से इन्हें माता के समान प्यार और दुलार मिला और उनकी ममतामयी छाया सदैव इनके जीवन के तापों का मोचन करती रही। माता प्रसाद जी इसी कारण अपनी बुआ जी को श्रद्धा और आत्मीयता से आप्लावित होकर  "अम्मा" कह कर सम्बोधित करने लगे ।
माताप्रसाद जी की उच्च शिक्षा लखनऊ विश्व विद्यालय एवम् राजस्थान विश्व विद्यालय से सम्पन्न हुई।
इनके  पिता श्रीखुशीराम यादव  एक साधारण किसान थे;  परन्तु विकट परिस्थितियों में भी वे परिवार में आर्थिक सामञ्जस्य व संतुलन बनाऐ रखने में सक्षम सिद्ध हुए।
समाज में व्याप्त ऊँच -नीच परक जातिवाद ने माताप्रसाद जी को अधिक प्रभावित किया।
जातीयता की विद्वेष में आदर्शवाद और राष्ट्रवाद के मूल्य निरन्तर  धूमिल हो रहे थे।  पशु पालक  और कृषक- अहीर जाति के प्रति दूसरी अन्य कुछ जातियों का दृष्टिकोण सदैव से संकुचित व नकारात्मक ही था। इस अपमान और हेयता का सामना माता प्रसाद जी ने भी किया। यद्यपि  इन सामाजिक परिस्थितियों का आकलन तो माता प्रसाद जी को बचपन में ही हो गया था परन्तु उच्च शिक्षा के ग्रहण करने के काल में इसका व्यवहारिक ज्ञान भी हुआ।

उसी समय माता- प्रसाद जी ने अपने जातीय अस्तित्व मूलक इतिहास को जानने और उसे संकलित करने का संकल्प लिया-  यादव समाज को उसके नैतिक कर्तव्य और उसके सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का बोध कराते कराते - उसको एकजुट करने का भी बीड़ा माता- प्रसाद ने साहस के साथ उठा लिया।

राधा जी के प्रति माताप्रसाद जी के हृदय में अतीव भक्ति और सात्विक श्रद्धा उत्पन्न हो गयी थी। एक समय मन में संकल्प ले ये वर्षा काल में पत्नी और पारिवारिक जनों के मना करने पर भी राधा रानी के दर्शनों के लिए मथुरा- वृन्दावन की ओर चल दिए इन्हें राधा जी पर पूर्ण आस्था -और विश्वास था।
इसी समय लखनऊ से वृन्दावन की यात्रा करते समय इनके सिर में तीव्र वेदना (पीड़ा) हुई सम्भवतः माइग्रेन की असह्य पीड़ा थी; माता प्रसाद ने दवा की उम्मीद छोड़कर राधा जी का भक्ति-भाव से स्मरण किया तो कुछ देर बाद ही शिर का दर्द शान्त हो गया। राधा नाम का यह चमत्कार ही राधा जी के  दर्शनों के लिए उत्साहित कर गया।

माता प्रसाद जी समाज के दबे -कुचले और गिरे लोगों को उठाने और उनकी सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं ।

यदुवंशसंहिता के प्रकाशन और समाज के समक्ष उसका प्रस्तुतिकरण कराने में अपने जातीय स्वाभिमान और समाज की सेवा के प्रति समर्पण का यह भाव  इनके अद्भुत चरित्र का ही दिग्दर्शन है। 

जब जब यादवों के पौराणिक और प्रचीन इतिहास की बात होगी तब तब माता प्रसाद यादव  और यादव योगेश कुमार रोहि को याद किया जाएगा ।

दौंनो ही साधकों का मिलन पूर्वजन्म के सुकृतों का परिणाम है। सदीयों से बारे हुए  यादव समाज को एक सूत्र में बाँधने के लिए दोनों बन्धओं की युगलबन्धी सार्थक हुई-

जातीय स्वाभिमान और जातीय हीनता दोनों ही विपरीत पहलु हैं।
हीन जातियाँ कभी भी अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती वे निष्क्रिय उदास और हताश होकर अपना नाश ही कर लेती हैं। परन्तु स्वाभिमान से सम्पृक्त जातियाँ एक उज्ज्वल और महान भविष्य की आधारशिला का स्थापन कर देती हैं।
अत: यादवो के स्वाभिमान का ज्योतिर्मय- स्तम्भ यह यदुवंश संहिता सिद्ध होगी ऐसा हमार पूर्ण विश्वास है।

शास्त्रों में किस प्रकार से जोड़-तोड़ होता है ।यह आनन्द वृन्दावन चम्पू के पुराने और नये संस्करणों से जानों

शास्त्रों में किस प्रकार से जोड़-तोड़ होता है ।
यह आनन्द वृन्दावन चम्पू के पुराने और नये संस्करणों से जानों 

नयी हिन्दी अनुवाद और टीका वाली प्रति में 

संस्कृत का यह श्लोक द्वादश स्तवक का 84-85;वाँ श्लोक हटा दिया गया । जिसमें "शौरिराभीरिकाणां " शूरसेन प्रदेश सी आभीरिकाओं का" " यह अर्थ वृज की। गोपिकाओं को लिए था।

अब नयी अनुवाद और टीकायुक्त प्रति में यह अंश नहीं है।
"न्यञ्चत्कायश्चकित नयनो गोपयन्नङ्गमङ्गैर्गूढस्मेरो वसनमहरच्छौरिराभीरिकाणाम्।

नयी प्रति जिसका लिंक नीचे है।
https://archive.org/details/ananda_vrindavana_champu/page/n464/mode/1up
_________________________________
मूल प्रति आनन्द वृन्दावन चम्पू-
जिसका आर्काइव लिंक नीचे है।

https://epustakalay.com/book/279021-anand-vrindavan-champu-by-karnapoor/

रविवार, 16 अप्रैल 2023

भविष्यपुराण-पर्व ३ (प्रतिसर्गपर्व -३)खण्डः ४ अध्यायः२२"(गुरुण्डमौनराज्यवर्णनम्) भविष्य पुराण में कबीर तुलसी मीरा तथा रैदास आदि चौदहवीं सदी के कवियों का वर्णन तथा उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की अंग्रेज शासिका रानी विक्टोरिया का वर्णन है।


            (गुरुण्डमौनराज्यवर्णनम्) 

                     ★सूतोवाच-

इति श्रुत्वा बलिर्दैत्यो देवानां विजयं महत् ।
रोषणं नाम दैत्येन्द्रं समाहूय वचोऽब्रवीत् ।१।

अनुवाद:-"सूतजी कहते हैं- जब दैत्य राज बलि ने देवों की यह विजय सुनी तब रोषण दैत्य को बुलाकर कहा ।१। 

सुतस्तिमिरलिङ्गस्य सरुषो नाम विश्रुतः।
त्वं हि तत्र समागम्य दैत्यकार्यं महत्कुरु।२।

अनुवाद:-तिमिरलिंग (तैमूरलंग) पुत्र सरूष को साथ लेकर महान दैत्य कार्य सम्पन्न करो।२।"

ऐतिहासिक टिप्पणी-

तैमूरलंग जिसे 'तैमूर', 'तिमूर' या 'तीमूर' भी कहते हैं, (8 अप्रैल 1336 –से  18 फरवरी 1405) अर्थात चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का लोहार थे।        भारत के मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तिमूर का ही वंशज था।

इति श्रुत्वा स वै दैत्यो हृदि विप्राप्तरोषणः।
ननाश वेदमार्गस्थान्देहलीदेशमास्थितः।३।

अनुवाद:-"यह सुनकर रोषण दैत्य ने दिल्ली प्रदेश में रहते हुए वेदवादी विप्रों का विनाश कार्य प्रारम्भ कर दिया।३।" 

पञ्चवर्षं कृतं राज्यं तत्सुतो बाबरोभवत् ।विंशदब्दं कृत राज्यं होमायुस्तत्सुतोऽभवत्।४।

अनुवाद:-"पाँच वर्ष शासन करने के उपरान्त उसका "बाबर नामक  पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने बीस वर्ष राज्य किया उसका पुत्र होमायु( हुमायूँ) हुआ ।४।


होमायुषा मदान्धेन देवताश्च निराकृताः।        ते सुराः कृष्णचैतन्यं नदीहोपवने स्थितम् ।५।

अनुवाद:-"इसने मदमत्त होकर देवताओं को अपमानित करके भगाना प्रारम्भ किया। वे देवता कृष्ण चैतन्य के नदीया- उपवन में पहुँच गये।५।

तुष्टुवुर्बहुधा तत्र श्रुत्वा क्रुद्धो हरिः स्वयम्।स्वतेजसा च तद्राज्यं विघ्नभूतं चकार ह।६।

अनुवाद:-भगवान हरि को प्रसन्न करने लगे। तब यह सुनकर हरि सुनकर स्वयं क्रोधित हो गये उन्होंने अपने तेज से हुमायूँ के राज्य में बहुत से विघ्नों का संचार कर दिया।६।

चैतन्य महाप्रभु- (१८ फरवरी१४८६-१५३४वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं।

सामान्य तथ्य श्रीमन्महाप्रभु चैतन्य देव, जन्म ...

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान को जा रहे थे। तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा। यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये नीम के पेड़ के नीचे मिले थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे।

इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शची देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।

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तत्सैन्यजनितैर्लोकैर्होमायुश्च निराकृतः।महाराष्ट्रैस्तदा तत्र शेषशाकः समास्थितः।७।

अनुवाद:-वहाँ की जनता जो सैनिक पदासीन थी उसने हुमायूँ को परास्त कर भगा दिया। तब मराठीयों की सहायता से शेष शाक(शेरशाह ) ने म्लेच्छों के राज्य दिल्ली पर अधिकार कर लिया।७।

देहलीनगरे रम्ये म्लेच्छो राज्यं चकार ह ।      धर्मकार्यं कृतं तेन तद्राज्यं पञ्चहायनम् ।८।

अनुवाद:-उन्होंने पाँच वर्ष शासन करने के उपरान्त धर्म कार्य बढ़ा दिया।८।

ब्रह्मचारी मुकुन्दश्च शङ्कराचार्यगोत्रजः।            प्रयागे च तपः कुर्वन्विंशच्छिष्यैर्युतःस्थितः।९।

अनुवाद:-तभी ब्रह्मचारी मुकुन्द जो शंकराचार्य का सगौत्री था बीस शिष्यों के साथ प्रयाग में तपोरत था। ९।

बाबरेण च धूर्तेन म्लेच्छराजेन देवताः ।            भ्रंशिता स तदा ज्ञात्वा वह्नौ देहं जुहाव वै। 3.4.22.१०।

अनुवाद:-जब उसने धूर्त म्लेच्छ राजा बाबर द्वारा देवों को भ्रष्ट करते सुना तब वह प्रदीप्त अग्नि में भष्म हो गया। १०।


तस्य शिष्या गता वह्नौ म्लेच्छनाशनहेतुना ।
गोदुग्धे च स्थितं रोमं पीत्वा स पयसा मुनिः।११।

अनुवाद:-उनके शिष्यों ने भी म्लेच्छ नाशार्थ  अपना शरीर अग्नि में जला दिया एक बार गलती से मुकुन्द ने दूध के साथ रोम पी लिया ।११। 

मुकुन्दस्तस्य दोषेण म्लेच्छयोनौ बभूव ह ।
होमायुषश्च काश्मीरे संस्थितस्यैव पुत्रकः।१२।

अनुवाद:-इसी कारण उनका जन्म म्लेच्छ योनि में हुआ तब हुमायूँ कश्मीर में था।१२।  

जातमात्रे सुते तस्मिन्वागुवाचाशरीरिणी ।
अकस्माच्च वरो जातः पुत्रोऽयं सर्वभाग्यवान्।१३।

अनुवाद:-उसी के पुत्र रूप में मुकुन्द का पुनर्जन्म होगया। उसके जन्मकाल में आकाशवाणी सुनी गयी थी कि यह पुत्र अकस्मात् जन्मा उत्तम और सर्वभाग्युक्त है।१३।

पैशाचे दारुणे मार्गे न भूतो न भविष्यति ।
अतः सोऽकबरो नाम होमायुस्तनयस्तव।१४।

अनुवाद:-ऐसा पुत्र इन पिशाचों में न हुआ न होगा  इस लिए इस हुमायूँ पुत्र का नाम अकबर होगा।।१४।।

श्रीधरः श्रीपतिः शम्भुर्वरेण्यश्च मधुव्रती ।
विमलो देववान्सोमो वर्द्धनो वर्तको रुचिः।१५।

अनुवाद:-जिस तपशील मुकुन्द (अकबर) के श्रीधर श्रीपति शम्भु वरेण्य मधव्रती विमल देववान सोम वर्द्धन वर्तक  रुचि।१५।

मान्धाता मानकारी च केशवो माधवो मधुः ।
देवापिः सोमपाः शूरो मदनो यस्य शिष्यकाः।१६।

अनुवाद:-मान्धाता मानकारी केशव माधव मधु देवापि सोमपा शूर मदन शिष्य हैं।१६।

स मुकुन्दो द्विजः श्रीमान्दैवात्त्वद्गेहमागतः ।
इत्याकाशवचः श्रुत्वा होमायुश्च प्रसन्नधीः।१७।

अनुवाद:-वही श्रीमान् मुकुन्द द्विज तुम्हारे जहाँ जन्मा है। यह आकाशवाणी सुनकर हुमायूँ प्रसन्न हो गया।।१७। 

ददौ दानं क्षुधार्तेभ्यः प्रेम्णा पुत्रमपालयत् ।
दशाब्दे तनये जाते देहलीदेशमागतः।१८।

अनुवाद:-उसने भूखों को भोजन देकर प्रेम से पुत्र का पालन किया। वह बालक दश वर्ष की आयु में दिल्ली आया ।१८।

शेषशाङ्कं पराजित्य स च राजा बभूव ह ।
अब्दं तेन कृतं राज्यं तत्पुत्रश्च नृपोऽभवत् ।१९।

अनुवाद:-और शेरशाह को हराकर राज्य अपने अधीन कर लिया। हुमायूँ के एक वर्ष शासन करने के बाद अकबर ने राज्य प्रारम्भ किया।१९।

सम्प्राप्तेऽकबरे राज्यं सप्तशिष्याश्च तत्प्रियाः।
पूर्वजन्मनि ये मुख्यास्ते प्राप्ता भूपतिं प्रति। 3.4.22.२०।

अनुवाद:-जब अकबर राज्य पद प्रतिष्ठित हो गया तब उसके पूर्व जन्म के सात शिष्यों ने भी( जन्म लेकर) अपने अपने गुणानुरूप उन पदों को सुशोभित किया। २०।

केशवो गानसेनश्च वैजवाक्स तु माधवः ।
म्लेच्छास्ते च स्मृतास्तत्र हरिदासो मधुस्तथा।२१।

अनुवाद:-केशव गानसैन वैजवाक् तथा माधव म्लेच्छ योनि में जन्में- हरिदास तथा मधु।२१। 

मध्वाचार्य ( = मध्व + आचार्य ; तुलु : ಶ್ರೀ ಮಧ್ವಾಚಾರ್ಯರು) (1238-1317) भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनन्दतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है (हनुमान और भीम क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे)।

मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे, वे कई बार प्रचलित रीतियों के विरुद्ध चले गये हैं। उन्होने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदान्त के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ 'अनुव्याख्यान' भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है। ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिये प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर हैं।

जीवनी-

इनका जन्म दक्षिण कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक एक गाँव में सन् १२३८ ई में हुआ। अल्पावस्था में ही ये वेद और वेदांगों के अच्छे ज्ञाता हुए और संन्यास लिया।

 पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में इन्होंने संन्यास ले लिया। शंकर मठ के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरु के साथ शास्त्रार्थ कर इन्होंने अपना एक अलग मठ बनाया जिसे "द्वैत दर्शन" कहते हैं। इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं।

 रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों, शंखचक्रगदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को अंलकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए।

 उडुपी में श्रीकृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बन्द कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है। 

79 वर्ष की अवस्था (सन् 1317 ई) वह अद्रुष्य रूप से बद्री के लिए चले गए और वापस नहीं आए |

मध्वाचार्यकुले जातो वैष्णवः सर्वरागवित् ।
पूर्वजन्मनि देवापिः स च वीरबलोऽभवत्।२२।

अनुवाद:-मध्वाचार्य के कुल में जन्म लेकर सर्वराग के ज्ञाता वैष्णव हो गये पूर्वजन्म का देवापि ही वीरबल हुआ।२२। 

पूर्वजन्म का देवापि ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर सरस्वती के वरदान से वीरबल नामक से ख्याति लब्ध मन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित हो गया ।२२।

ब्राह्मणः पाश्चिमात्यो वै वाग्देवीवरदर्पितः।
सोमपा मानसिंहश्च गौतमान्वयसम्भवः।२३।

अनुवाद:-

सोमपा तथा मानसिंह क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर  गौतम कुल में उत्पन्न हुए ।२३।

सेनापतिश्च नृपतेरार्यभूपशिरोमणेः।
सूरश्चैव द्विजो जातो दक्षिणश्चैव पण्डितः।२४।


अनुवाद:-और राजा के सेनापति बने । सूर ने द्विज कुल में जन्म लिया जो दक्षिण ब्राह्मण थे।

बिल्वमङ्गल एवापि नाम्ना तन्नृपतेः सखा।
नायिकाभेदनिपुणो वेश्यानां स च पारगः।२५।

अनुवाद:- वे बिल्वमंगल वाले तथा राजा के सखा थे उनको नायिका भेद तथा वेश्याओं का पूर्ण ज्ञान था।२५।

मदनो ब्राह्मणो जातः पौर्वात्यः स च नर्तकः ।
चन्दलो नाम विख्यातो रहः क्रीडाविशारद:।२६।

अनुवाद:-मदन ब्राह्मण पौर्वात्य में नर्तक रूप में जन्मा वह अब चन्दल नाम से प्रसिद्ध था। वह क्रीडाविशारद था ।२६।

अन्यदेशे गताः शिष्यास्तेषां पूर्वास्त्रयोदश ।
अनपस्य सुतो जातः श्रीधरः शत्रुवेदितः।२७।

अनुवाद:-उनके बाकी १३ शिष्यगणों ने अन्यत्र जन्म ग्रहण किया।शत्रुमर्मज्ञ श्रीधर अनप का पुत्र होकर जन्मा ।२७। 


विख्यातस्तुलसीशर्मा पुराणनिपुणः कविः।
नारीशिक्षां समादाय राघवानन्दमागतः।२८।

अनुवाद:-उसका इस जन्म का नाम तुलसी शर्मा ( दुबे) था।

जो पुराणों में निपुण तथा कवि था। उन्होंने अपनी पत्नी (रत्नावली) से तिरस्कृत होकर शिक्षा पायी और काशी में राघवानन्द( रामानन्द) के पास आकर उनका शिष्यत्व स्वीकार किया।२८। 

शिष्यो भूत्वा स्थितः काश्यां रामानन्दमते स्थितः।
श्रीपतिः स बभूवान्धो मध्वाचार्यमते स्थितः।२९।

अनुवाद:-शिष्य होकर काशी में रामानन्द मत का आलम्बन लिया श्रीपति इस जन्म में अन्धे होकर जन्में और मध्वाचार्य के मतालम्बी हो गये।२९। 

सूरदास इति ज्ञेयः कृष्णलीलाकरः कविः।      शम्भुर्वै चन्द्रभट्टस्य कुले जातो हरिप्रियः। 3.4.22.३०।

अनुवाद:-ये ही सूरदास नाम से कृष्ण लीला का गान करने वाले कवि हो गये शम्भू ने चन्दभट्ट के कुल में जन्म लिया इनका नाम था हरि प्रिय था।३०।      

रामानन्दमते संस्थो भक्तकीर्तिपरायणः।
वरेण्यः सोग्रभुङ्नामा रामानन्दमते स्थितः।३१।

अनुवाद:-ये रमानन्द के शिष्य होकर भक्त कीर्ति के गायक हो गये वरेण्य इस जन्म में सोग्रभुंग नाम वाले होकर प्रसिद्ध हुए । ये भी रामानन्द मतावलम्बी थे।३१।  

ज्ञानध्यानपरो नित्यं भाषाछन्दकरः कविः।
मधुव्रती स वै जातो कीलको नाम विश्रुतः।३२।

अनुवाद:-ये ज्ञान-ध्यान में रत तथा भाषा छन्द के रचियता थे। मधु जो व्रत करने वाले थे  इस जन्म में कीलक नाम वाले हुए।३२।

रामलीलाकरो धीमान्रामानन्दमते स्थितः।
विमलश्च स वै जातः स नाम्नैव दिवाकरः।३३।

अनुवाद:-ये रामलीला का आयोजन करने वाले तथा रामानन्द के अनुयायी थे विमल नाम से वे सूर्य ही जन्मे थे।३३। 

सीतालीलाकरो धीमान्रामानन्दमते स्थितः ।
देववान्केशवो जातो विष्णुस्वामिमते स्थितः।३४।

अनुवाद:-सीता की लाला करने वे वाले रामानन्द के अनुयायी देववान् केशव के रूप में विष्णु स्वामी के मत के अनुयायी हुए।३४।

कविप्रियादिरचनां कृत्वा प्रेतत्वमागतः।
रामज्योत्स्नामयं ग्रन्थं कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३५।

अनुवाद:-अर्थात्‌  देववान् ने इस जन्म में केशव के रूप में जन्म लेकर विष्णु स्वामी के मत को अपना कर कविप्रिया- ग्रन्थ की रचना करके  प्रेतयोनि को  प्राप्त हुए। राम जयोत्स्ना ग्रन्थ भी उनका ही लिखा हुआ है जिसे रचकर  ये स्वर्ग को चले गये।३५। 

सोमो जातः स वै व्यासो निम्बादित्यमते स्थितः।
रहः क्रीडामयं ग्रन्थं कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३६।

अनुवाद:-सोम ने व्यास नाम से यह जन्म लिया तथा निम्बादित्य के पन्थ को अपनाकर एकान्त क्रीड़ा सम्बन्धी ग्रन्थ रचना करके स्वर्ग गमन किया।३६।


वर्द्धनश्च स वै जातो नाम्ना चरणदासकः।
ज्ञानमालामयं कृत्वा ग्रन्थं रैदासमार्गगः।३७।

अनुवाद:-वर्द्धन ने चरण दास के नाम से जन्म लेकर  रैदास(रविदास) मतावलम्ब द्वारा ज्ञानमाला- ग्रन्थ  की रचना की।३७।

वर्तकः स च वै जातो रोपणस्य मते स्थितः ।
रत्नभानुरिति ज्ञेयो भाषाकर्ता च जैमिनेः।३८।

अनुवाद:-वर्तक ने रोपण का मत ग्रहण किया  और रत्नभानु कहलाए तथा उन्होंने जैमिनी पर भाष्य लिखा ।।३८।।

रुचिरुचिश्च रोचनो जातो मध्वाचार्यमते स्थितः ।नानागानमयीं लीलां कृत्वा स्वर्गमुपाययौ।३९। 

अनुवाद:-रुचिने रोचक नाम से जन्म लिया मध्वाचार्य मत के अवलम्बन  तथा नाना ज्ञानात्मक लीलाओं की रचना करके  स्वर्ग गमन किया।३९।  

मान्धाता भूपतिर्नाम कायस्थः स बभूव ह ।
मध्वाचार्यो भागवतं चक्रे भाषामयं शुभम्। 3.4.22.४०।

अनुवाद:-मान्धाता नाम से राजा वह कायस्थ कुल में जन्मा ये मध्वाचार्य ने शुभभाषामय भागवत रचा ।४०।

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अनुवादक :- यादव योगेश कुमार "रोहि"    सम्पर्क सूत्र - 8077160219"

मानकारो नारिभावान्नारीदेहमुपागतः।
मीरानामेति विख्याता भूपतेस्तनया शुभा।४१।

अनुवाद:-मानकार ने नारीभाव होने के कारण नारी शरीर को पाया जो मीरा नाम से विख्यात राजा की पुत्री हुआ।४१‌।

मा शोभा च तनौ यस्या गतिर्गजसमा किल ।
सा मीरा च बुधैः प्रोक्ता मध्वाचार्यमते स्थिता।४२।

अनुवाद:-लक्ष्मी के समान शोभा और शरीर तथा चाल जिसकी हाथी के समान है निश्चय ही वह विद्वानों द्वारा मीरा कही गयी वह मध्वाचार्य के मत की अनुयायी थी।४२।

एवं ते कथितं विप्र भाषाग्रन्थप्रकारणम् ।
प्रबन्धं मङ्गलकरं कलिकाले भयङ्करे।४३।

अनुवाद:-यह उस विप्र के द्वारा कहा गया भाषा ग्रन्थ प्र कारण( प्रबन्ध )है तथा भयंकर कलिकाल में मंगलप्रद है।४३।

स भूपोऽकबरो नाम कृत्वा राज्यमकण्टकम्।
शतार्द्धेन च शिष्यैश्च वैकुण्ठभवनं ययौ।४४।

अनुवाद:-उस अकबर राजा निष्कण्टक राज्य किया तथा पचास शिष्यों सहित स्वर्ग गमन किया।४४।

सलोमा तनयस्तस्य कृतं राज्यं पितुः समम्।
खुर्दकस्तनयस्तस्य दशाब्दं च कृतं पदम्।४५।

अनुवाद:-उसके सलोमा( सलीम- जहाँगीर) नामक पुत्र ने पिता के समान समान राज्य किया। सलीम का पुत्र खुर्दक खुर्रम-शाहजहाँ) जिसने दश वर्ष पर्यन्त शासन किया।४५। 

चत्वारस्तनयास्तस्य नवरङ्गो हि मध्यमः।
पितरं च तथा भ्रातॄञ्जित्वा राज्यमचीकरत्।४६।

अनुवाद:-उसके चार पुत्रों में नवरंग-औरंगजेब मध्यम पुत्र था। उसने पिता और भाइयों पर विजय प्राप्त शासन किया ।४६।

पूर्वजन्मनि दैत्योऽयमन्धको नाम विश्रुतः।
कर्मभूम्यां तदंशेन दैत्यराजाज्ञया ययौ।४७।

अनुवाद:-वह पूर्वजन्म अन्धक नामक दैत्य था। दैत्य राज बलि की आज्ञा से उसने कर्मभूमि भारत में जन्म लेकर आया ।४७।

तेनैव बहुधा मूर्तीर्भ्रंशिताश्च समन्ततः।
दृष्ट्वा देवास्तदागत्य कृष्णचैतन्यमब्रुवन्।४८।

अनुवाद:-अनेक देव प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया तब देव गणों ने कृष्ण चैतन्य से कहा।४८।

भगवन्दैत्यराजांशः स जातश्च महीपतिः ।
भ्रंशयित्वा सुरान्वेदान्दैत्यपक्षं विवर्द्धते।४९।

अनुवाद:-हे भगवन् यह दैत्य अश से जन्म लेकर  राजा हो गया । वह देवताओं और वेदों का नाश करके दैत्य पक्ष का वर्द्धन कर रहा है।४९।

इति श्रुत्वा स यज्ञांशो नदीहोपवने स्थितः।
शशाप तं दुराचारं यथा वंशक्षयो भवेत्। 3.4.22.५०।

अनुवाद:-यह सुनकर नदीहा के उपवन में स्थित यज्ञाञ्श ने उस दुर्जन को वंशनाशार्थ का शाप दे दिया।५०। 


राज्यमेकोनपञ्चाशत्कृतं तेन दुरात्मना।
सेवाजयो नाम नृपो देवपक्षविवर्द्धनः।५१।

अनुवाद:-इस दुष्ट ने ४९ वर्ष पर्यन्त राज्य किया। देवपक्ष वर्द्धनकारी। महाराष्ट्रीय द्विज कुलोत्पन्न शेवाजय नामक राजा ने नैपुण्य प्राप्त किया।५१।

महाराष्ट्रद्विजस्तस्य युद्धविद्याविशारदः।
हत्वा तं च दुराचारं तत्पुत्राय च तत्पदम्।५२।

अनुवाद:-शिवाजी ने दुराचारी नवरंग का वध करके उसके पुत्र को राज्य पद पर अभिषिक्त कर दिया।५२।

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दत्वा ययौ दाक्षिणात्ये देशे देवविवर्द्धनः।
अलोमा नाम तनयः पञ्चाब्दं तत्पदं कृतम्।५३।

अनुवाद:-तथा दक्षिण देश की यात्रा पर चले गये। हे मुने उसके अलोमा नामक पुत्र ने  पाँच वर्ष तक शासन किया।५३।

तत्पश्चान्मरणं प्राप्तो विद्रधेन रुजा मुने।
विक्रमस्य गते राज्ये सप्तत्युत्तरकं शतम् ।५४।

अनुवाद:-तथा भगन्दर रोग से पीड़ित होकर मर गया । हे मुने विक्रम राज्य के १७७० वर्ष बीतने का समय ही अलोमा की मृत्यु का समय था।५४।

ज्ञेयं सप्त दशं विप्र यदालोमा मृतिं गतः।
तालनस्य कुले जातो म्लेच्छः फलरुषो बली।५५।

अनुवाद:-१७ ब्राह्मण यह जानने के लिए गये कि अलोमा मृत्यु को प्राप्त हे गया है। तालन के कुल में फलरुष नामक बली म्लेच्छ का जन्म हुआ।५५। 

मुकुलस्य कुलं हत्वा स्वयं राज्यं चकार ह।
दशाब्दं च कृतं राज्यं तेन भूपेन भूतले।५६।

अनुवाद:-उस म्लेच्छ मुकुल( मुगल) कुल को समाप्त कर राज्य पर अधिकार स्थापित किया उसने भूमण्डल पर दश वर्ष राज्य किया।५६।

शत्रुभिर्मरणं प्राप्तो दैत्यलोकमुपागमत्।
महामदस्तत्तनयो विंशत्यब्दं कृतं पदम्।५७।

अनुवाद:-शत्रु द्वारा मृत होकर उसने दैत्य लोक को गमन किया। उसके पुत्र महामद ने बीस वर्ष पर्यन्त राज्य किया।५७।

तद्राष्ट्रे नादरो नाम दैत्यो देश उपागमत् ।
हत्वार्यांश्च सुराञ्जित्वा देशं खुरजमाययौ।५८।

अनुवाद:-उसके राज्यकाल में नादर (नादिरशाह)नामक दैत्य आर्यों तथा देवों पर विजय पाकर खुरज( खुरासान) तक आ पहुँचा।५८। 

महामत्स्यो हि मदस्य तनयस्तत्पितुः पदम्।
गृहीत्वा पञ्चवर्षान्तं स च राज्यं चकार ह।५९।

अनुवाद:-उसके पुत्र महामत्स्य ने अपने पिता का पद स्वाधीन किया तथा पाँच वर्ष शासन किया ।५९।

महाराष्ट्रैर्हतो दुष्टस्तालनान्वयसम्भवः।
देहलीनगरे राज्यं दशाब्दं माधवेन वै।3.4.22.६०।

अनुवाद:-महाराष्ट्र वालों (मराठों) ने उस लालनवंशीय दुष्ट का वध किया। दिल्ली सिंहासन पर माधव ने दशवर्ष शासन किया।६०।

कृतं तत्र तदा म्लेच्छ आलोमा राज्यमाप्तवान् ।
तद्राष्ट्रे बहवो जाता राजानो निजदेशजाः।६१।

अनुवाद:-इसने अलोमा के सम्पूर्ण राज्य पर अपना अधिकार कर लिया उसके राज्य में अनेक राजा थे वे अपने देश में जन्मे थे।६१।

ग्रामपा बहवो भूपा देशे देशे बभूविरे ।
मण्डलीकपदं तत्राक्षयं जातं महीतले ।६२।

अनुवाद:-तब मण्डलीक पद का नाश हो जाने के कारण प्रत्येक ग्रमाधिपति ही राजा कहा जाने लगा जो गाँव पर राज्य करते थे।६२।

त्रिंशदब्दमतो जातं ग्रामे ग्रामे नृपे नृपे ।
तदा तु सकला देवाः कृष्णचैतन्यमाययुः।६३।

अनुवाद:-ऐसा 30 वर्ष तक होते रहने पर सभी देवता यज्ञाञ्श कृष्ण चैतन्य के पास गये तथा समस्त वृत्तान्त उनसे कहा-।६०-६३। 

यज्ञांशश्च हरिः साक्षाज्ज्ञात्वा दुःखं महीतले ।
मुहूर्तं ध्यानमागम्य देवान्वचनमब्रवीत् ।६४।

अनुवाद:-विष्णु के अवतार ( रूप ) यज्ञाञ्श ने पृथ्वी का दु:ख देखकर एक मुहूर्त ध्यान कर देव गण से कहा-।६४। 

पुरा तु राघवो धीमाञ्जित्वा रावणराक्षसम् ।
कपीनुज्जीवयामास सुधावर्षैस्समन्ततः।६५।

अनुवाद:-पूर्व काल में धीमान् राघव ने रावण पर विजय प्राप्त कर चारो दिशाओं में अमृत की वर्षा करके वानरों को जीवित किया ।६५।

विकटो वृजिलो जालो वरलीनो हि सिंहलः ।
जवस्सुमात्रश्च तथा नाम्ना ते क्षुद्रवानराः।६६।

अनुवाद:-वहाँ उपस्थित विकट, वृजिल, जाल, वरलीन सिंहल जव तथा सुमात्र नामक वे सब क्षुद्र वानर गण ने कहा। ६६। 

रामचन्द्रं वचः प्राहुर्देहि नो वाच्छितं प्रभो।
रामो दाशरथिःश्रीमाञ्ज्ञात्वा तेषां मनोरथम्।६७।

अनुवाद:-हम्हें वाँछित वर दीजिये-तब भगवान ने यह जानकर उनकी इच्छा के अनुसार ।६७।

देवाङ्गनोद्भवाः कन्या रावणाल्लोकरावणात्।
दत्त्वा तेभ्यो हरिस्साक्षाद्वचनं प्राह हर्षितः।६८।

अनुवाद:-रावण द्वारा देवांगनागण में उत्पन्न की गयी कन्याओं को प्रदान किया भगवान ने तब  वानरों से कहा ।६८।

भवन्नाम्ना च ये द्वीपा जालन्धरविनिर्मिताः।
तेषु राज्ञो भविष्यन्ति भवन्तो हितकारिणः।६९।

अनुवाद:-तुम लोगों के नाम के अनुसार जिन द्वीपों का निर्माण जालन्धर ने किया था तुम लोग वहाँ के राजा हो जाओ तथा अपना हित साधन करो।६९।

नन्दिन्या गोश्च रुण्डाद्वै जाता म्लेच्छा भयानकाः।
गुरुण्डा जातयस्तेषां तास्तु तेषु सदा स्थिताः। 3.4.22.७०।

अनुवाद:-नन्दिनी गाय के शरीर(रुण्ड) से  भीषण म्लेच्छ उत्पन्न हुए थे उनसे ही गुरुण्ड ( अंग्रेज़) जाति की उत्पत्ति हुई वे वहाँ सदा स्थित रहते हैं।७०।

सं० रुण्ड] १. बिना सिर का धड़। कबन्ध।  वह शरीर जिसके हाथ पैर कटे हों

जित्वा तांश्च गुरुण्डान्वै कुरुध्वं राज्यमुत्तमम् ।
इति श्रुत्वा हरिं नत्वा द्वीपेषु प्रययुर्मुदा।७१।

अनुवाद:-उन पर विजय प्राप्त करके तुम उनका राज्य अधीन करो यह सुनकर वे वानर प्रसन्न मन से उन द्वीपों में चले गये।७१।

विकटान्वयसम्भूता गुरुण्डा वानराननाः।
वाणिज्यार्थमिहायाता गौरुण्डा बौद्धमार्गिणः।७२।

अनुवाद:-विकटवंश में उत्पन्न गुरुण्ड लोग वानर मुख थे।  तथा व्यवसाय हेतु उन्होंने वहाँ पदार्पण किया वे बौद्ध मतावलम्बी थे।७२।

ईशपुत्रमते संस्थास्तेषां हृदयमुत्तमम् ।
सत्यव्रतं कामजितमक्रोधं सूर्यतत्परम्।७३।

अनुवाद:-उनके उत्तम हृदय में ईसा का मत स्थित है। वे सत्यव्रत कामजित् और सूर्य भक्त थे। ७३।

यूयं तत्रोष्य कार्यं च नृणां कुरुत मा चिरम् ।
इति श्रुत्वा तु ते देवाः कुर्युरार्चिकमादरात् ।७४।

अनुवाद:-लेकिन तुम देवगण वहाँ शीघ्रता से पहुँचो तथा मनुष्यों का हित साधन करो -यह सुनकर उन देवगण ने भगवान की सादर अर्चना सम्पन्न की।७४।


महारानी विक्टोरियायूनाइटेड किंगडम की महारानी और भारत की साम्राज्ञी थीं।

सामान्य तथ्य महारानी विक्टोरिया, ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड का यूनाइटेड किंगडम की भा रानी थीं। ...

जीवन-

विक्टोरिया का जन्म सन्‌ (1819 )के मई मास में हुआ था। वे आठ महीने की थीं तभी उनके पिता का देहांत हो गया।

विक्टोरिया के मामा ने उनकी शिक्षा-दीक्षा का कार्य बड़ी निपुणता से संभाला। वे स्वयं भी बड़े योग्य और अनुभवी व्यक्ति थे। साथ ही वे पुरानी सभ्यता के पक्षपाती थे। विक्टोरिया को किसी भी पुरुष से एकांत में मिलने नहीं दिया गया। यहाँ तक कि बड़ी उम्र के नौकर-चाकर भी उनके पास नहीं आ सकते थे। जितनी देर वे शिक्षकों से पढ़तीं, उनकी माँ या।

राजतिलक-

अठारह वर्ष की अवस्था में विक्टोरिया गद्दी पर बैठीं। वे लिखती हैं कि मंत्रियों की रोज इतनी रिपोर्टें आती हैं तथा इतने अधिक कागजों पर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं कि मुझे बहुत श्रम करना पड़ता है। किंतु इसमें मुझे सुख मिलता है। राज्य के कामों के प्रति उनका यह भाव अंत तक बना रहा। इन कामों में वे अपना एकछत्र अधिकार मानती थीं। उनमें वे मामा और माँ तक का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थी। 'पत्नी, माँ और रानी - तीनों रूपों में उन्होंने अपना कर्तव्य अत्यंत ईमानदारी से निभाया। घर के नौकरों तक से उनका व्यवहार बड़ा सुंदर होता था'

नगर्य्या कलिकातायां स्थापयामासुरुद्यताः।
विकटे पश्चिमे द्वीपे तत्पत्नी विकटावती।७५।

अनुवाद:-यह सुनकर उन लोगों ने कलकत्ता नगर की स्थापना की विकट नामक पश्चिम द्वीप की रानी विकटावती (विक्टोरिया) थी ।७५।

अष्टकौशलमार्गेण राजमन्त्रं चकार ह।
तत्पतिस्तु पुलोमार्चिः कलिकातां पुरीं स्थितः।७६।

अनुवाद:-उसने आठ प्रकार के कुशल मार्ग से वहाँ का राज्य शासन किया उसका पति पुलोमार्चि कलकत्ता में रहता था। ७६।

विक्रमस्य गते राज्ये शतमष्टादशं कलौ ।
चत्वारिंशं तथाब्दं च तदा राजा बभूव ह।७७।

अनुवाद:- तब विक्रमादित्य के समय का १८४० वाँ वर्ष व्यतीत हो जाने पर वह वहाँ राजा बना ।७७।

तदन्वये सप्तनृपा गुरुण्डाश्च बभूविरे।
चतुष्षष्टिमितं वर्षं राज्यं कृत्वा लयं गताः।७८।

अनुवाद:- उस गुरुण्ड( गो-रुण्ड)कुल में सात राजा हुए वे ६४ वर्ष शासन करके विलीन होगये।७८।

गुरुण्डे चाष्टमे भूपे प्राप्ते न्यायेन शासति।
कलिपक्षो बलिर्दैत्यो मुरं नाम महासुरम् ।७९।

अनुवाद:- गुरुण्ड का आठवाँ राजा न्याय से शासन कर रहा था तभी कलि पक्ष का समर्थन करने वाले बलि ने मुर नामक असुर को बुलाया ।७९।

आरुह्य प्रेषयामास देवदेशे महोत्तमे।
स मुरो वार्डिलं भूपं वशीकृत्य हृदि स्थितः। 3.4.22.८०।

अनुवाद:- उसे  महान और उत्तम देवदेश में भेजा वह मुर दैत्य वहाँ वर्डिल नामक राजा को वश में करके उसके हृदय में स्थित हो गया।८०। 

आर्यधर्मविनाशाय तस्य बुद्धिं चकार ह ।
मूर्तिसंस्थास्तदा देवा गत्वा यज्ञांशयोगिनम् ।८१।

अनुवाद:- उसने राजा वर्डिल की बुद्धि आर्य धर्म के नाश के लिए तैयार की । तब मूर्तियों में स्थित देवगण यज्ञाञ्श नामक उन योगी के पास गये ।८१।

नमस्कृत्याब्रुवन्सर्वे यथा प्राप्तो मुरोऽसुरः।
ज्ञात्वा शशाप कृष्णांशो गुरुण्डान्बौद्धमार्गिणः८२।

अनुवाद:- उन्होंने यज्ञाञ्श देव को प्रणाम करके उस मुर दैत्य का समस्त वृत्तान्त उनसे कहा- यह जानकर कृष्णांश यज्ञाञ्श ने उन बौद्ध मार्गी गुरुण्डों को शाप दिया‌।८२।

क्षयं यास्यन्ति ते सर्वे ये मुरस्य वशं गताः।
इत्युक्ते वचने तस्मिन्गुरुण्डा कालनोदिताः।८३।

अनुवाद:- उन्होंने शाप दिया कि मुर राक्षस के प्रभाव वाले सभी  गुरुण्ड नष्ट होंगे।८३।

स्वसैन्यैश्च क्षयं जग्मुर्वर्षमात्रान्तरे खलाः।
सर्वे त्रिंशत्सहस्राश्च प्रययुर्यममन्दिरे।८४।

अनुवाद:- उनके शाप के कारण वे ३०००० तीस हजार गुरुण्ड मृत होकर यम लोक पहुँच गये। ८४।


थॉमस बबिंगटन मैकाले (1800-1859), बैरन मैकाले, साथी, इतिहासकार, निबंधकार, कवि और सांसद

फ्रांसिस ग्रांट (1803-1878)

वाग्दण्डैस्स च भूपालो वार्डिलो नाशमाप्तवान्।
गुरुण्डो नवमः प्राप्तो भेकलो नाम वीर्यवान्।८५।

अनुवाद:- उस वाक्दण्ड रूपी (शाप) से वर्डिल राजा भी मृत हो गया महाशक्तिशाली भेकल( मैकाले) नाम वाले नवम गुरुण्ड राजा ने।८७।

न्यायेन कृतवान्राज्य द्वादशाब्दं प्रयत्नतः।
आर्यदेशे च तद्राज्यं बभूव न्यायशासति।८६।

अनुवाद:-प्रयत्नपूर्वक १२ वर्ष तक प्रयत्न से न्यायपूर्वक आर्य देश में राज्य शासन किया।८६।

लडिलो नाम विख्यातो गुरुण्डो दशमोहितः।
द्वात्रिंशाब्दं च तद्राज्यं कृतं तेनैव धर्मिणा।८७।

अनुवाद:-इसके बाद लार्डल नामक दशम गुरुण्ड राजा ने ३२ वर्ष धर्मपूर्वक राज्य किया।८७।

लडिले स्वर्गते प्राप्ते मकरन्दकुलोद्भवाः।
आर्याः प्राप्तास्तदा मौना हिमतुङ्गनिवासिनः।८८।

अनुवाद:-लॉर्डल के मरने के बाद मकरन्द कुल में उत्पन्न  हिमालय शिखरवासी मौन ।८८।

बभ्रुवर्णाः सूक्ष्मनसो वर्तुला दीर्घमस्तकाः।          एवं लक्षाश्च सम्प्राप्ता देहल्यां बौद्धमार्गिण:।८९।
बभ्रूवर्ण, छोटी नाक ,गोल विस्तृत मस्तक वाले मकरन्द वंशीय बौद्ध मार्गी मौन आर्यगण एक लाख की संख्या में दिल्ली आये।८८।

आर्जिको नाम वै राजा तेषां तत्र बभूव ह ।
तस्य पुत्रो देवकणो गङ्गोत्रगिरिमूर्द्धनि।3.4.22.९०।
अनुवाद:-तथा उन बौद्ध मार्गी गण में श्रेष्ठ आर्जिक राजा हो गया। उसके पुत्र देवकण ने गंगोत्री पर्वत पर ।९०। 

द्वादशाब्दं तपो घोरं तेपे राज्यविवृद्धये।
तदा भगवती गङ्गा तपसा तस्य धीमतः।९१।

अनुवाद:-१२ वर्ष  राज्य वृद्धि के लिए घोर तप किया तब  भगवती गंगा ने तप द्वारा उस बुद्धि मान का

स्वरूपं स्वेच्छया प्राप्य ब्रह्मलोकं जगाम ह।
कुबेरश्च तदागत्य दत्त्वा तस्मै महत्पदम् ।९२।

अनुवाद:-अपने रूप) स्वरूप) में स्थित हो स्वेच्छा से ब्रह्मलोक गमन किया तब कुबेर ने वहाँ आकर उसे महान पद प्रदान किया।।९२।।

आर्याणां मण्डलीकं च तत्रैवान्तरधीयत।
मण्डलीको देवकर्णो बभूव जनपालकः।९३।

अनुवाद:-वह आर्य जनों का पालक हो गया तभी से वह देवकर्ण मण्डलीक कहलाया।९३। 

षष्ट्यब्दं च कृतं राज्यं तेन राज्ञा महीतले।
तदन्वयेऽष्टभूपाश्च बभूवुर्देवपूजकाः।९४।

अनुवाद:-६० वर्ष राज्य पृथ्वी पर उस राजा केवद्वारा किया गया उसके वंश में आठ राजा देवपूजक हुए।९३।  

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द्विशताब्दं पदं कृत्वा स्वर्गलोकमुपाययुः।
एकादशश्च यो मौनः पन्नगारिरिति श्रुतः।९५।

अनुवाद:-क्रमशः इस राज पद को २०० वर्ष राज्य करके स्वर्ग लोक गमन किया वे सभी देव पूजक थे  ग्यारह (११) पन्नगारि नामक मौन प्रसिद्ध हुए।९५। 

चत्वारिंशच्च वर्षाणि राज्यं कृत्वा प्रयत्नतः।
स्वर्गलोकं गतो राजा पन्नगैर्मरणं गतः।९६।

अनुवाद:-राजा ४० वर्ष प्रयत्न से  राज्य किया  पन्नगों द्वारा उसका वध किया गया तब वह  स्वर्ग चला गया।९६। 

एवं च मौर्यजातीयैः कृतं राज्यं महीतले।९७।

अनुवाद:-इस प्रकार मौर्य जाति ने पृथ्वी पर राज्य किया।९७।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये गुरुण्डमौनराज्यवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः।२२।

अनुवाद:-श्री भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व में  चतुर्खण्डापर्याय में कलियुगीय इतिहास समुच्चय में गुरुण्डराज्य का वर्णन नामक बाइसवाँ(२२) अध्याय पूर्ण हुआ।।के 


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आश्विनेयौ समालोक्य वचनं प्राह तौ मुदा।
जीव ईशो यथा मित्रे नरनारायणौ यथा।
एकनाम्ना युवां प्रीतौ नासत्यौ च भविष्यथः।४३।
सोमशक्तिरिडादेवी ज्येष्ठपत्नी भविष्यति।
पिंगला सूर्यशक्तिश्च लघुपत्नी भविष्यति ।४४।
इडापतिस्स वै नाम द्वितीयः पिंगलापतिः।
द्वादशस्स नृणां राशेः क्रूरदृष्टिः शनैश्चरः।
तस्य शान्तिकरो ज्येष्ठो भविष्यति महीतले।४५।
द्वितीयश्च नृणां राशेः सावर्णिर्भ्रमकारकः।
तस्य शान्तिकरो भूमौ भविता पिंगलापतिः।४६।
जन्मराशिस्थिता देवी तपती ता पकारिणी ।
इडा च पिंगला तस्याः शान्तिकर्त्र्यौ भविष्यतः।४७।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य सुरवैद्यौ बभूवतुः।
सावर्णिश्च शनी राहुः केतुः स्वर्गप्रतापनः।
तेषां तु परिहारार्थौ दस्रौ चाश्विनिसंभवौ ।४८।
                  "सूत उवाच"
इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं प्रसन्नौ सुरसत्तमौ।
स्वांशान्महीतले जातौ शूद्रयोन्यां रवेस्तुतौ।४९।

चाण्डालस्य गृहे जातश्छागहंतुरिडापतिः।
सधनो नाम विख्यातः पितृमातृपरायणः। 3.4.18.५०।

शालिग्रामशिलातुल्यं छागमांसं विचिक्रिये ।।
कबीरं समुपागम्य शिष्यो भूत्वा रराज वै।५१।

स तु सत्यनिधिः पूर्वं ब्रह्मणस्तप आस्थितः।।
भयभीतां च गां तत्र चाण्डालाय ह्यदर्शयत् ।।
राजगेहे करस्तस्मात्सधनस्य लयं गतः ।। ५२ ।।

चर्मकारगृहे जातो द्वितीयः पिंगलापतिः ।।
मानदा सस्य तनयो रैदास इति विश्रुतः ।। ५३ ।।

पुरीं काशीं समागम्य कबीरं रामतत्परम् ।।
जित्वा मतविवादेन शंकराचार्यमागतः ।।५४ ।।

तयोर्विवादो सभवदहोरात्रं मतान्तरे ।।
पराजितस्स रैदासो नत्वा तं द्विजसत्तमम् ।।
रामानन्दमुपागम्य तस्य शिष्यत्वमागतः ।। ५५ ।।

इति ते कथितं विप्र सुरांशाश्च यथाभवन् ।।
कलिशुद्धिकरी लीला तेषां मार्गप्रदर्शिनाम्।५६।
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इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखंडापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये अश्विनीकुमारावतारे सधन रैदास समुत्पत्तिवर्णनं नामाऽष्टादशोऽध्यायः।१८।